Saturday, 9 August 2025

मैं ममत्व हूं, समत्व हूं, बर्धत्व हूं"

"मैं ममत्व हूं, समत्व हूं, बर्धत्व हूं"

* टुकड़े पर बिके, कोहनी पर टिके, गमले में उगे, न धूप सही,न आंधी जानी,बस दिखावे के धनी, बातें करते ऊंचे आकाश की।

* आत्मचिंतन इन्हें करना है या आत्ममंथन उन्हें करना है जिन्होंने धूप सही, जमीन में उगे, फंसी हैं जड़ें जिनकी जड़ो में। 

* चिंतनीय वे हैं जो परिस्थित के कारण बौने हैं या वे जो मन: स्थिति के। क्या बरगदों ने ही अपने शौक के लिए गमलों में बौने पैदा नहीं किये हैं?

* बौने वे हैं जिन्हें बरगद ने उठने नहीं दिया या बौने वे हैं जो बरगद से दूर उगे, सुविधा भोगी और अब बरगद से बड़े हैं। 

* उन्हें बरगद के ऊपर ही देखने की आदत हो गई है। वो डरते हैं कि कहीं बरगद के नीचे देखा तो हमारे महल और उसकी झोपड़ी का अंतर हमारी बची कुची नैतिकता को रौंद न दे।

* धूप,आंधी तो दूर्वा ने सहा और देखा है,जिसे रौंदा है तथाकथित बरगदों की जाल भरी जड़ों ने। 

* वह तो दूर्वा की जीजिविषा है कि वह रौंदी जाकर भी दूने उत्साह से छिछल कर छिछोरों को अपनी अस्मिता का परिचय दे रही है। 

* क्योंकि जब बाढ़ आती है, बिजली चमकती है,मेघ तांडव करते हैं तब यदि कोई पानी में डूब कर, बिजली के ताप के सुलझ से बच कर, मेघों के गर्जन को राग मल्हार मान कर साथ में गुनगुनाने लगती है। वह दूर्वा ही तो है।

* वह दूर्वा ही तो है जो भोर तक बेसुध मौन , शताब्दियों की चली आ रही निशाचारी माया से बचने समाधि में चली जाती है।

* दरअसल परम्परा के बरगद, पीपल और रसाल सदा से कुचले दीमक के शरणस्थली रहे हैं। वहीं कबीर,सूर, तुलसी बढ़े,पले है। 

* वहां कोई कागभुशुण्डि बनते हैं,तो किसी की शम्भु समाधि लगती है,तो कोई ध्यान लगाता है और कोई आत्मचिंतन -मंथन करता है। 

* तभी वह बुद्धत्व को प्राप्त होता है। संघं शरणं गच्छामि और धम्म की ओर बढ़ता है।

* किंतु सुविधा भोगी बना तथाकथित बरगद?? कभी इस दल-दल में कभी उस दल-दल में सडांध दल में दाल गला रहा होता है। 

* अभी तक भारतीय गौरवशाली परम्परा  की उसी बात को मान्यता मिलती थी जिसे पश्चिम अच्छा कहता था। अब मान्यता उसे जिसे देश का अहिंदू कहे। है न, आत्म गौरव की अबूझ पहेली?

* शरद और बसंत के छुटपुट बादल पानी की बूंदें छिड़क सकते हैं किन्तु चातक और धरती को तो स्वाती नक्षत्र, आषाढ़ की पहली बूंद,  सावन की रिमझिम और भादौं की भदोही ही तृप्त कर सकती है। 

* बौने, कुबड़े, अपाहिज और अन्त्यज अब विकलांग नहीं, दिव्यांग हैं। वे धंसते,उठते, वृक्षों की जड़ थामें, चट्टानों की बांहों में लिपटे हिमालय हैं, किंतु तथाकथित साधकों की चतुराई से अंजान हैं।

* वे विंध्याचल की विनम्रता हैं जो अगस्त्य के आश्वासन पर टिके और झुके हैं। वे महेंद्र हैं जहां परशुराम शरण पाते हैं। उनमें भरी है मलयानिल की नष्ट न होने वाली,संसार को तृप्त करने वाली सुगंध।

* वे संगम हैं जहां सरस्वती का दिखावा नहीं है। वे कालिंदी हैं जिसे कालिया के जहर पीने की आदत है। और भी बहुत कुछ 🙏🚩

सादर

श्रावण,चतुर्थी, 
27/7/25

3 comments:

  1. बीस टिप्पणियां और,हर टिप्पणी अपने आप में समुद्र है। समुद्र, अपनी हर लहर से, अनेक लहरें उछाल कर समुद्र तट पर कुछ क्षणों तक पसरता है ; और लगता है कि सिमट गया है।लेकिन फिर फिर कर ,फुरफुराता -बुदबुदाता है और, एक मीठी सुरसुरी छोड़ कर कुछ कह कर, सुनने के लिए अपने अन्दर गुम हो जाता है। उस,गुम शुदा की तलाश है.... कहां ढूंढें कहां मिलें....

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  2. 'गागर में सागर' कथ्य को सार्थक करता हूं कवित्व और रचना...सादर

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