Thursday, 22 May 2025
चर्पटिमंजरी
Wednesday, 21 May 2025
श्री शिव कवच
Tuesday, 20 May 2025
वागर्थाविव
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द: प्रभाते करदर्शनम।।
समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यंपादस्पर्शं क्षमस्व मे ।
वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥
ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ॥
हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते ।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते ॥
तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि ।
वृषभानुसुते देवि प्रणमामि हरिप्रिये ॥
हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे
हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे।
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शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥
सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम्।
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम् ।।
............
अथ हृदयादिन्यासः
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक इति हृदयाय नमः ॥ न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत इति शिरसे स्वाहा ।। अच्छेद्योऽयमदाह्यो ऽयमक्लेद्यो ऽशोषय एव च इति शिखायै वषट् ॥ नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातन इति कवचाय हुम् ।। पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्त्रश इति नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च इति अस्त्राय फट् ॥ श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ॥
ॐ पार्थाय प्रतिबोधितां भगवता नारायणेन स्वयं व्यासेन ग्रथितां पुराणमुनिना मध्येमहाभारतम् । अद्वैतामृतवर्षिणीं भगवतीमष्टादशाध्यायिनी-मम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम् ॥ १ ॥
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रं
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्वालितो ज्ञानमयः प्रदीपः ॥ २ ॥
प्रपन्नपारिजाताय ज्ञानमुद्राय कृष्णाय तोत्त्रवेत्रैकपाणये। गीतामृतदुहे नमः ॥ ३ ॥
वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ॥ ४
भीष्मद्रोणतटा जयद्रथजला गान्धारनीलोत्पला शल्यग्राहवती कृपेण वहनी कर्णेन वेलाकुला। अश्वत्थामविकर्णघोरमकरा दुर्योधनावर्तिनी सोत्तीर्णा खलु पाण्डवै रणनदी कैवर्तकः केशवः ॥ ५ ॥
पाराशर्यवचः सरोजममलंगीतार्थगन्धोत्कटं
नानाख्यानककेसरंहरिकथासम्बोधनाबोधितम् ।
लोके सज्जनषट्पदैरहरहः पेपीयमानं मुदा भूयाद्भारतपङ्कजं कलिमलप्रध्वंसि नः श्रेयसे ॥ ६ ॥
मूकं करोति वाचालं पङ्गु लङ्घयते गिरिम् । यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥ ७ ॥
अथ गीतामाहात्म्यम् गीताशास्त्रमिदं पुण्यं यः पठेत्प्रयतः पुमान् । विष्णोः पदमवाप्नोति भयशोकादिवर्जितः ॥ १ ॥
गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च। नैव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च ॥२॥
मलनिर्मोचनं पुंसां जलस्त्रानं दिने दिने । सकृद्गीताम्भसि स्त्रानं संसारमलनाशनम् ॥ ३॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ॥ ४ ॥
भारतामृतसर्वस्वं विष्णोर्वक्त्राद्विनिःसृतम्।
गीतागङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥५॥
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ॥ ६॥
एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव । एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥ ७॥
…..........
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।
ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥
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श्रवणं कीर्तनं स्मरणं विष्णोः पादसेवनं ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥(श्रीमद्भावतम १५.२३)
मंत्र
समानो मंत्र:
समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मंत्रमभिमंत्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
हमारा उद्देश्य एक ही हो; क्या हम सब एक मन के हो सकते हैं? ऐसी एकता बनाने के लिए मैं एक समान प्रार्थना करता हूँ।
समानि व
आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।
हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएँ सुसंगत हो। हमारा विचार संयोजन हो। जैसे इस विश्व के, ब्रह्मांड के विभिन्न सिद्धांतों और क्रियाकलापों में तारात्मयता और एकता है ॥ (ऋग्वेद 8.49.4)
विचार करें यह प्रार्थना अपने को सीधे विश्व से जोड़ती है । यह कौन सी संस्कृति है ? वैदिक संस्कृति, सनातन संस्कृति , हिन्दू संस्कृति । जहाँ अपने लिए नहीं सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए है प्रार्थना है ?
सर्वे भवन्तु
सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
“सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
यह शान्ति कैसे मिले तो हे परमपिता मुझे असत से सत की ओर ले चल, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल, मृत्यु से अमृत की ओर ले चल -
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
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प्रश्न उठात
है की हमारा अतीत कैसा था तो मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं -
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां?
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां,
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है,
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है?
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े ।
पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है।
विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार
है।
संसार को पहले हमीं ने दी ज्ञान भिक्षा दान की
आचार की विज्ञान की व्यापार की व्यवहार की
(मैथिली शरण गुप्त)
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पर्वत कहता शीश उठाकर , तुम भी ऊंचे बन जाओं ।
सागर कहता लहराकर , मन में गहराई लाओ ।
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ों , कितना ही हो सर पर भार।
नभ कहता है फैलो इतना , ढक लो तुम सारा संसार। (सोहनलाल द्विवेदी)
Monday, 19 May 2025
हनुमानाष्टक
Sunday, 18 May 2025
न्यायालय
Saturday, 17 May 2025
श्रीनवग्रहस्तोत्रम्
Thursday, 15 May 2025
चैतन्य
Wednesday, 30 April 2025
geeta 10-11
स्वयमेवात्मनात्मानं
वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥ (10/१५)
भावार्थ : हे पुरूषोत्तम! हे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी! हे
समस्त देवताओं के देव! हे समस्त प्राणियों को उत्पन्न करने वाले! हे सभी प्राणियों
के ईश्वर! एकमात्र आप ही अपने आपको जानते हैं या फ़िर वह ही जान पाता है जिसकी
अन्तर-आत्मा में प्रकट होकर आप अपना ज्ञान कराते हैं। (१५)
(अर्जुन द्वारा भगवान के ऎश्वर्यों के वर्णन के लिए प्रार्थना)
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्याह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ (१६)
भावार्थ : हे कृष्ण! कृपा करके आप अपने उन अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण
स्वरूपों को विस्तार से कहिये जिसे कहने में केवल आप ही समर्थ हैं, जिन ऎश्वर्यों द्वारा आप इन सभी लोकों में व्याप्त होकर स्थित हैं। (१६)
कथं
विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ (१७)
भावार्थ : हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार आपका निरन्तर चिंतन करके
आपको जान सकता हूँ, और मैं आपके ईश्वरीय स्वरूप का किन-किन
भावों से स्मरण करूँ? (१७)
विस्तरेणात्मनो
योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥ (१८)
भावार्थ : हे जनार्दन! अपनी योग-शक्ति और अपने ऎश्वर्यपूर्ण रूपों
को फिर भी विस्तार से कहिए, क्योंकि आपके अमृत स्वरूप वचनों
को सुनते हुए भी मेरी तृप्ति नहीं हो रही है। (१८)
(भगवान द्वारा अपने ऎश्वर्यों का वर्णन)
श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ (१९)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे कुरुश्रेष्ठ! हाँ अब मैं तेरे
लिये अपने मुख्य अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण रूपों को कहूँगा, क्योंकि
मेरे विस्तार की तो कोई सीमा नहीं है। (१९)
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ (२०)
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा
हूँ और मैं ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति का, मैं ही सभी
प्राणियों के जीवन का और मैं ही सभी प्राणियों की मृत्यु का कारण हूँ। (२०)
आदित्यानामहं
विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ (२१)
भावार्थ : मैं सभी आदित्यों में विष्णु हूँ, मैं
सभी ज्योतियों में प्रकाशमान सूर्य हूँ, मैं सभी मरुतों में
मरीचि नामक वायु हूँ, और मैं ही सभी नक्षत्रों में चंद्रमा
हूँ। (२१)
वेदानां
सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ (२२)
भावार्थ : मैं सभी वेदों में सामवेद हूँ, मैं
सभी देवताओं में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, सभी इंद्रियों
में मन हूँ, और सभी प्राणियों में चेतना स्वरूप जीवन-शक्ति
हूँ। (२२)
रुद्राणां
शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ (२३)
भावार्थ : मैं सभी रुद्रों में शिव हूँ, मैं
यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ, मैं सभी
वसुओं में अग्नि हूँ और मै ही सभी शिखरों में मेरु हूँ। (२३)
पुरोधसां
च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ (२४)
भावार्थ : हे पार्थ! सभी पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति मुझे ही समझ,
मैं सभी सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ, और मैं
ही सभी जलाशयों में समुद्र हूँ। (२४)
महर्षीणां
भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ (२५)
भावार्थ : मैं महर्षियों में भृगु हूँ, मैं
सभी वाणी में एक अक्षर हूँ, मैं सभी प्रकार के यज्ञों में जप (कीर्तन) यज्ञ हूँ, और मैं
ही सभी स्थिर (अचल) रहने
वालों में हिमालय पर्वत हूँ। (२५)
अश्वत्थः
सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ (२६)
भावार्थ : मैं सभी वृक्षों में पीपल हूँ, मैं
सभी देवर्षियों में नारद हूँ, मै सभी गन्धर्वों में चित्ररथ
हूँ और मै ही सभी सिद्ध पुरूषों में कपिल मुनि हूँ। (२६)
उच्चैःश्रवसमश्वानां
विद्धि माममृतोद्धवम् ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ (२७)
भावार्थ : समस्त घोड़ों में समुद्र मंथन से अमृत के साथ उत्पन्न
उच्चैःश्रवा घोड़ा मुझे ही समझ, मैं सभी हाथियों में ऐरावत
हूँ, और मैं ही सभी मनुष्यों में राजा हूँ। (२७)
आयुधानामहं
वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ (२८)
भावार्थ : मैं सभी हथियारों में वज्र हूँ, मैं
सभी गायों में सुरभि हूँ, मैं धर्मनुसार सन्तान उत्पत्ति का
कारण रूप प्रेम का देवता कामदेव हूँ, और मै ही सभी सर्पों
में वासुकि हूँ। (२८)
अनन्तश्चास्मि
नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ (२९)
भावार्थ : मैं सभी नागों (फ़न वाले
सर्पों) में शेषनाग हूँ, मैं
समस्त जलचरों में वरुणदेव हूँ, मैं सभी पितरों में अर्यमा
हूँ, और मैं ही सभी नियमों को पालन करने वालों में यमराज
हूँ। (२९)
प्रह्लादश्चास्मि
दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥ (३०)
भावार्थ : मैं सभी असुरों में भक्त-प्रहलाद हूँ, मै सभी गिनती करने वालों में समय हूँ, मैं सभी पशुओं
में सिंह हूँ, और मैं ही पक्षियों में गरुड़ हूँ। (३०)
पवनः
पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ (३१)
भावार्थ : मैं समस्त पवित्र करने वालों में वायु हूँ, मैं सभी शस्त्र धारण करने वालों में राम हूँ, मैं
सभी मछलियों में मगर हूँ, और मैं ही समस्त नदियों में गंगा
हूँ। (३१)
सर्गाणामादिरन्तश्च
मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ (३२)
भावार्थ : हे अर्जुन! मैं ही समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूँ, मैं सभी विद्याओं में ब्रह्मविद्या
हूँ, और मैं ही सभी तर्क करने वालों में निर्णायक सत्य हूँ।
(३२)
अक्षराणामकारोऽस्मि
द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ (३३)
भावार्थ : मैं सभी अक्षरों में ओंकार हूँ, मैं
ही सभी समासों में द्वन्द्व हूँ, मैं कभी न समाप्त होने वाला
समय हूँ, और मैं ही सभी को धारण करने वाला विराट स्वरूप हूँ।
(३३)
मृत्युः
सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥ (३४)
भावार्थ : मैं ही सभी को नष्ट करने वाली मृत्यु हूँ, मैं ही भविष्य में सभी को उत्पन्न करने वाली सृष्टि हूँ, स्त्रीयों वाले गुणों में कीर्ति, सौन्दर्य, वाणी की मधुरता, स्मरण शक्ति, बुद्धि,
धारणा और क्षमा भी मैं ही हूँ। (३४)
बृहत्साम
तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहऋतुनाम कुसुमाकरः॥ (३५)
भावार्थ : मैं सामवेद की गाने वाली श्रुतियों में बृहत्साम हूँ,
मैं छंदों में गायत्री छंद हूँ, मैं महीनों
में मार्गशीर्ष और मैं ही ऋतुओं में वसंत हूँ। (३५)
द्यूतं
छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ (३६)
भावार्थ : मैं छलने वालों का जुआ हूँ, मैं
तेजस्वियों का तेज हूँ, मैं जीतने वालों की विजय हूँ,
मैं व्यवसायियों का निश्चय हूँ और मैं ही सत्य बोलने वालों का सत्य
हूँ। (३६)
वृष्णीनां
वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥ (३७)
भावार्थ : मैं वृष्णिवंशियों में वासुदेव हूँ, मैं ही पाण्डवों में अर्जुन हूँ, मैं मुनियों में
वेदव्यास हूँ, और मैं ही कवियों में शुक्राचार्य हूँ। (३७)
दण्डो
दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ (३८)
भावार्थ : मैं दमन करने वालों का दंड हूँ, मैं
विजय की कामना वालों की नीति हूँ, मैं रहस्य रखने वालों का
मौन हूँ और मैं ही ज्ञानीयों का ज्ञान हूँ। (३८)
यच्चापि
सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥ (३९)
भावार्थ : हे अर्जुन! वह बीज भी मैं ही हूँ जिनके कारण सभी
प्राणियों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि संसार में कोई भी
ऎसा चर (चलायमान) या अचर (स्थिर) प्राणी नहीं है, जो
मेरे बिना अलग रह सके। (३९)
नान्तोऽस्ति
मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥ (४०)
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! मेरी लौकिक और अलौकिक ऎश्वर्यपूर्ण
स्वरूपों का अंत नहीं है, मैंने अपने इन ऎश्वर्यों का वर्णन
तो तेरे लिए संक्षिप्त रूप से कहा है। (४०)
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं
श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥ (४१)
भावार्थ : जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और
शक्तियुक्त वस्तुयें है, उन-उन को तू मेरे तेज के अंश से ही
उत्पन्न हुआ समझ। (४१)
अथवा
बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥ (४२)
भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! तुझे इस प्रकार सारे ज्ञान को विस्तार
से जानने की आवश्यकता ही क्या है, मैं तो अपने एक अंश मात्र
से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करके सर्वत्र स्थित रहता हूँ। (४२)
ॐ
तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा
योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'विभूति-योग' नाम का दसवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
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अध्याय ११ - विश्वरूप दर्शन योग
(अर्जुन द्वारा विश्वरूप के दर्शन के लिये प्रार्थना)
(भगवान द्वारा विश्वरूप का वर्णन)
श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ (५)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों
अनेक प्रकार के अलौकिक रूपों को और अनेक प्रकार के रंगों वाली आकृतियों को भी देख।
(५)
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा । बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥ (६)
भावार्थ : हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तू मुझमें अदिति के बारह पुत्रों
को, आठों वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को,
दोनों अश्विनी कुमारों को, उनचासों मरुतगणों
को और इसके पहले कभी किसी के द्वारा न देखे हुए उन अनेकों आश्चर्यजनक रूपों को भी
देख। (६)
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् । मम देहे गुडाकेशयच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥ (७)
भावार्थ : हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर
सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हें भी देख। (७)
न
तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥ (८)
भावार्थ : किन्तु तू अपनी इन आँखो की दृष्टि से मेरे इस रूप को
देखने में निश्चित रूप से समर्थ नहीं है, इसलिये मैं तुझे
अलौकिक दृष्टि देता हूँ, जिससे तू मेरी इस ईश्वरीय योग-शक्ति
को देख। (८)
(संजय द्वारा धृतराष्ट्र के समक्ष विश्वरूप का वर्णन)
संजय उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः । दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥ (९)
भावार्थ : संजय ने कहा - हे राजन्! इस प्रकार कहकर परम-शक्तिशाली
योगी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्य-युक्त अलौकिक विश्वरूप
दिखलाया। (९)
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम्
।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥ (१०)
दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम् ।सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥ (११)
भावार्थ : इस विश्वरूप में अनेकों मुँह, अनेकों आँखे, अनेकों आश्चर्यजनक दिव्य-आभूषणों से युक्त, अनेकों दिव्य-शस्त्रों को उठाये हुए, दिव्य-मालाऎँ, वस्त्र को धारण किये हुए, दिव्य गन्ध का अनुलेपन किये हुए, सभी प्रकार के आश्चर्यपूर्ण प्रकाश से युक्त, असीम और सभी दिशाओं में मुख किए हुए सर्वव्यापी परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। (१०-११)
दिवि
सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥ (१२)
भावार्थ : यदि आकाश में एक हजार सूर्य एक साथ उदय हो तो उनसे
उत्पन्न होने वाला वह प्रकाश भी उस सर्वव्यापी परमेश्वर के प्रकाश की शायद ही
समानता कर सके। (१२)
तत्रैकस्थं
जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ (१३)
भावार्थ : पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से अलग-अलग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को सभी देवताओं के भगवान श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक स्थान में स्थित देखा। (१३)
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥ (१४)
भावार्थ : तब आश्चर्यचकित, हर्ष से रोमांचित हुए शरीर से अर्जुन ने भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम करके और हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए बोला। (१४)
अर्जुन द्वारा विश्वरूप की स्तुति करना)
अर्जुन उवाच
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥ (१५)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे भगवान श्रीकृष्ण! मैं आपके शरीर में
समस्त देवताओं को तथा अनेकों विशेष प्राणीयों को एक साथ देख रहा हूँ, और कमल के आसन पर स्थित ब्रह्मा जी को, शिव जी को,
समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को भी देख रहा हूँ। (१५)
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि
त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम् ।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥ (१६)
भावार्थ : हे विश्वेश्वर! मैं आपके शरीर में अनेकों हाथ, पेट, मुख और आँखें तथा चारों ओर से असंख्य रूपों को
देख रहा हूँ, हे विश्वरूप! न तो मैं आपका अन्त, न मध्य और न आदि को ही देख पा रहा हूँ। (१६)
किरीटिनं
गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्
॥ (१७)
भावार्थ : मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र सहित अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ,
और आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को कठिनता से देख पा रहा हूँ।
(१७)
त्वमक्षरं
परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्ता सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥ (१८)
भावार्थ : हे भगवन! आप ही जानने योग्य परब्रह्म परमात्मा हैं,
आप ही इस जगत के परम-आधार हैं, आप ही अविनाशी
सनातन धर्म के पालक हैं और मेरी समझ से आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। (१८)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं
शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रंस्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥ (१९)
भावार्थ : आप अनादि है, अनन्त है और मध्य-रहित
हैं, आपकी महिमा अनन्त है, आपकी असंख्य
भुजाएँ है, चन्द्र और सूर्य आपकी आँखें है, मैं आपके मुख से जलती हुई अग्नि के निकलने वाले तेज के कारण इस संसार को
तपते हुए देख रहा हूँ। (१९)
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं
हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदंलोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥
(२०)
भावार्थ : हे महापुरूष! सम्पूर्ण आकाश से लेकर पृथ्वी तक के बीच
केवल आप ही अकेले सभी दिशाओं में व्याप्त हैं और आपके इस भयंकर आश्चर्यजनक रूप को
देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं। (२०)
अमी
हि त्वां सुरसङ्घा विशन्ति केचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घा: स्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः
पुष्कलाभिः ॥ (२१)
भावार्थ : सभी देवों के समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं उनमें से कुछ
भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका गुणगान कर रहे हैं, और महर्षिगण
और सिद्धों के समूह 'कल्याण हो' इस
प्रकार कहकर उत्तम वैदिक स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं। (२१)
रुद्रादित्या
वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥
(२२)
भावार्थ : शिव के सभी रूप, सभी आदित्यगण,
सभी वसु, सभी साध्यगण, सम्पूर्ण
विश्व के देवता, दोनों अश्विनी कुमार तथा समस्त मरुतगण और
पितरों का समूह, सभी गंधर्व, सभी यक्ष,
समस्त राक्षस और सिद्धों के समूह वह सभी आश्चर्यचकित होकर आपको देख
रहे हैं। (२२)
रूपं
महत्ते बहुवक्त्रनेत्रंमहाबाहो बहुबाहूरूपादम् ।
बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालंदृष्टवा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ (२३)
भावार्थ : हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें,
अनेकों हाथ, जंघा, पैरों,
अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक
व्याकुल हो रहे हैं और उन्हीं की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। (२३)
नभःस्पृशं
दीप्तमनेकवर्णंव्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम् ।
दृष्टवा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च
विष्णो ॥ (२४)
भावार्थ : हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करता हुआ, अनेको प्रकाशमान रंगों से युक्त मुख को फैलाये हुए और आपकी चमकती हुई
बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर मेरा मन भयभीत हो रहा है, मैं न तो
धैर्य धारण कर पा रहा हूँ और न ही शान्ति को प्राप्त कर पा रहा हूँ। (२४)
दंष्ट्राकरालानि
च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार दाँतों के कारण विकराल और प्रलयंकारी की अग्नि
के समान आपके मुखों को देखकर मैं आपकी न तो कोई दिशा को जान पा रहा हूँ और न ही
सुख पा रहा हूँ, इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर
प्रसन्न हों। (२५)
अमी
च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥ (२६)
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गै ॥
(२७)
भावार्थ : धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने समस्त सहायक वीर राजाओं के
सहित तथा पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, सूत
पुत्र कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धा भी आपके भयानक दाँतों वाले विकराल
मुख में तेजी से प्रवेश कर रहे हैं, और उनमें से कुछ तो
दाँतों के दोनों शिरों के बीच में फ़ंसकर चूर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं।
(२६-२७)
यथा
नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति ।
तथा तवामी नरलोकवीराविशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥ (२८)
भावार्थ : जिस प्रकार नदियों की अनेकों जल धारायें बड़े वेग से
समुद्र की ओर दौड़तीं हुयी प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सभी
मनुष्य लोक के वीर योद्धा भी आपके आग उगलते हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२८)
यथा
प्रदीप्तं ज्वलनं पतंगाविशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव नाशाय विशन्ति लोकास्तवापि वक्त्राणि समृद्धवेगाः ॥ (२९)
भावार्थ : जिस प्रकार पतंगे अपने विनाश के लिये जलती हुयी अग्नि में
बड़ी तेजी से प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार यह सभी लोग भी
अपने विनाश के लिए बहुत तेजी से आपके मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। (२९)
लेलिह्यसे
ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्ज्वलद्भिः ।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रंभासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥ (३०)
भावार्थ : हे विश्वव्यापी भगवान! आप उन समस्त लोगों को जलते हुए सभी
मुखों द्वारा निगलते हुए सभी ओर से चाट रहे हैं, और आपके
भयंकर तेज प्रकाश की किरणें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आच्छादित करके झुलसा रहीं है।
(३०)
आख्याहि
मे को भवानुग्ररूपोनमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यंन हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥ (३१)
भावार्थ : हे सभी देवताओं में श्रेष्ठ! कृपा करके आप मुझे बतलाइए कि
आप इतने भयानक रूप वाले कौन हैं? मैं आपको नमस्कार करता हूँ,
आप मुझ पर प्रसन्न हों, आप ही निश्चित रूप से
आदि भगवान हैं, मैं आपको विशेष रूप से जानना चाहता हूँ
क्योंकि मैं आपके स्वभाव को नहीं जानता हूँ। (३१)
(भगवान द्वारा अपने प्रभाव का वर्णन)
श्रीभगवानुवाच
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥
(३२)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मैं इस सम्पूर्ण संसार का नष्ट करने
वाला महाकाल हूँ, इस समय इन समस्त प्राणीयों का नाश करने के
लिए लगा हुआ हूँ, यहाँ स्थित सभी विपक्षी पक्ष के योद्धा
तेरे युद्ध न करने पर भी भविष्य में नही रहेंगे। (३२)
तस्मात्त्वमुक्तिष्ठ
यशो लभस्व जित्वा शत्रून्भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ (३३)
भावार्थ : हे सव्यसाची! इसलिये तू यश को प्राप्त करने के लिये युद्ध
करने के लिये खडा़ हो और शत्रुओं को जीतकर सुख सम्पन्न राज्य का भोग कर, यह सभी पहले ही मेरे ही द्वारा मारे जा चुके हैं, तू
तो युद्ध में केवल निमित्त बना रहेगा। (३३)
द्रोणं
च भीष्मं च जयद्रथं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥
(३४)
भावार्थ : द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और भी अन्य अनेक मेरे द्वारा मारे हुए
इन महान योद्धाओं से तू बिना किसी भय से विचलित हुए युद्ध कर, इस युद्ध में तू ही निश्चित रूप से शत्रुओं को जीतेगा। (३४)
(भययुक्त अर्जुन द्वारा भगवान की स्तुति)
संजय उवाच
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥ (३५)
भावार्थ : संजय ने कहा - भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ
जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता
हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से बोला। (३५)
अर्जुन उवाच
स्थाने
हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घा: ॥
(३६)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे अन्तर्यामी प्रभु! यह उचित ही है कि
आपके नाम के कीर्तन से सम्पूर्ण संसार अत्यन्त हर्षित होकर आपके प्रति अनुरक्त हो
रहा है तथा आसुरी स्वभाव के प्राणी आपके भय के कारण इधर-उधर भाग रहे हैं और सभी
सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार कर रहे हैं। (३६)
कस्माच्च
ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥ (३७)
भावार्थ : हे महात्मा! यह सभी श्रेष्ठजन आपको नमस्कार क्यों न करें
क्योंकि आप ही ब्रह्मा को भी उत्पन्न करने वाले हैं, हे
अनन्त! हे देवादिदेव! हे जगत के आश्रय! आप अविनाशी, समस्त
कारणों के मूल कारण, और आप ही परमतत्व है। (३७)
त्वमादिदेवः
पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् ।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥ (३८)
भावार्थ : आप आदि देव सनातन पुरुष हैं, आप इस
संसार के परम आश्रय हैं, आप जानने योग्य हैं तथा आप ही जानने
वाले हैं, आप ही परम धाम हैं और आप के ही द्वारा यह संसार
अनन्त रूपों में व्याप्त हैं। (३८)
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः
शशाङ्क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥ (३९)
भावार्थ : आप वायु, यम, अग्नि,
वरुण, चन्द्रमा तथा सभी प्राणीयों के पिता
ब्रह्मा भी है और आप ही ब्रह्मा के पिता भी हैं, आपको
बारम्बार नमस्कार! आपको हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! फिर भी आपको बार-बार
नमस्कार! करता हूँ। (३९)
नमः
पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥ (४०)
भावार्थ : हे असीम शक्तिमान! मैं आपको आगे से, पीछे से और सभी ओर से ही नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप ही सब कुछ है,
आप अनन्त पराक्रम के स्वामी है, आप ही से
समस्त संसार व्याप्त हैं, अत: आप ही सब कुछ हैं। (४०)
सखेति
मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥ (४१)
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥ (४२)
भावार्थ : आपको अपना मित्र मानकर मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण!,
हे यादव! हे सखा! इस प्रकार आपकी महिमा को जाने बिना मूर्खतावश या
प्रेमवश जो कुछ कहा है, हे अच्युत! यही नही हँसी-मजाक में
आराम करते हुए, सोते हुए, बैठते हुए या
भोजन करते हुए, कभी अकेले में या कभी मित्रों के सामने मैंने
आपका जो अनादर किया हैं उन सभी अपराधों के लिये मैं क्षमा माँगता हूँ। (४१,४२)
पितासि
लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ (४३)
भावार्थ : आप इस चल और अचल जगत के पिता और आप ही इस जगत में
पूज्यनीय आध्यात्मिक गुरु हैं, हे अचिन्त्य शक्ति वाले
प्रभु! तीनों लोकों में अन्य न तो कोई आपके समान हो सकता हैं और न ही कोई आपसे
बढकर हो सकता है। (४३)
तस्मात्प्रणम्य
प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥
(४४)
भावार्थ : अत: मैं समस्त जीवों के पूज्यनीय भगवान के चरणों में
गिरकर साष्टाँग प्रणाम करके आपकी कृपा के लिए प्रार्थना करता हूँ, हे मेरे प्रभु! जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अपराधों को, मित्र अपने मित्र के अपराधों को और प्रेमी अपनी प्रिया के अपराधों को सहन
कर लेता हैं उसी प्रकार आप मेरे अपराधों को सहन करने की कृपा करें। (४४)
(अर्जुन द्वारा चतुर्भुज रूप के लिए प्रार्थना)
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ (४५)
भावार्थ : पहले कभी न देखे गये आपके इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो
रहा हूँ और साथ ही मेरा मन भय के कारण विचलित भी हो रहा है, इसलिए
हे देवताओं के स्वामी! हे जगत के आश्रय! आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने पुरूषोत्तम
रूप को मुझे दिखलाइये। (४५)
किरीटिनं
गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥ (४६)
भावार्थ : हे हजारों भुजाओं वाले विराट स्वरूप भगवान! मैं आपके
मुकुट धारण किए हुए और हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, कृपा
करके आप चतुर्भुज रूप में प्रकट हों। (४६)
(भगवान द्वारा विश्वरूप के दर्शन की महिमा और चतुर्भुज दर्शन)
श्रीभगवानुवाच
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात् ।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥ (४७)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी
अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त
अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४७)
न
वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥ (४८)
भावार्थ : हे कुरुश्रेष्ठ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक में न तो
यज्ञों के द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न दान के द्वारा, न पुण्य कर्मों के द्वारा और न
कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप
को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। (४८)
मा
ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ (४९)
भावार्थ : हे मेरे परम-भक्त! तू मेरे इस विकराल रूप को देखकर न तो
अधिक विचलित हो, और न ही मोहग्रस्त हो, अब तू पुन: सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर प्रसन्न-चित्त से मेरे इस चतुर्भुज
रूप को देख। (४९)
संजय
उवाच
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्त्वा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनंभूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥ (५०)
भावार्थ : संजय ने कहा - वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से इस
प्रकार कहने के बाद अपना विष्णु स्वरूप चतुर्भुज रूप को प्रकट किया और फिर दो
भुजाओं वाले मनुष्य स्वरूप को प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य बँधाया। (५०)
(चतुर्भुज रूप के दर्शन की दुर्लभता और अनन्य भक्ति द्वारा सुलभता)
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥ (५१)
भावार्थ : अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! आपके इस अत्यन्त सुन्दर
मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को
प्राप्त हो गया हूँ। (५१)
श्रीभगवानुवाच
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः ॥ (५२)
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा - मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है,
उसे देख पाना अत्यन्त दुर्लभ है देवता भी इस शाश्वत रूप के दर्शन की
आकांक्षा करते रहते हैं। (५२)
नाहं
वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवं विधो द्रष्टुं दृष्ट्वानसि मां यथा ॥ (५३)
भावार्थ : मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा गया है
इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है। (५३)
भक्त्या
त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ (५४)
भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा
साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा
सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है। (५४)
मत्कर्मकृन्मत्परमो
मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ (५५)
भावार्थ : हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही
लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में
स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त
प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से
मुझे ही प्राप्त करता है। (५५)
ॐतत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः॥ इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद् गीता के श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में विश्वरूप दर्शन-योग नाम का ग्यारहवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ॥
॥ हरि: ॐ तत् सत् ॥
Wednesday, 16 April 2025
रिटायर्ड परचून की दुकान
Sunday, 13 April 2025
जीवन
राम
Sunday, 6 April 2025
षट्चक्रों का स्वरूप
षट्चक्रों का स्वरूप
कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक पहुँचने के मार्ग में छ: फाटक हैं अथवा यों कहना चाहिए कि छ: ताले लगे हुए हैं। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति- केन्द्रों तक पहुँच सकता है। इन छ: अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते हैं।
सुषुम्ना के अन्तर्गत रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे भीतर स्थित ब्रह्मनाड़ी से वह छ: चक्र सम्बन्धित हैं। माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल- पुष्पों से इनकी उपमा दी जाती है।
मूलाधार चक्र योनि की सीध में, स्वाधिष्ठान चक्र पेडू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्ध चक्र कण्ठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्रार है।
सुषुम्ना तथा उसके अन्तर्गत आने वाली चित्रणी आदि नाडिय़ाँ इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे सम्बन्धित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म हैं।
किसी शरीर को चीर- फाड़ करते समय इन चक्रों को नस- नाडिय़ों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हमारे चर्मचक्षुओं की वीक्षण शक्ति बहुत ही सीमित है। शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु तथा रोगों के कीटाणु हमें आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।
इन चक्रों को योगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया है और उनके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग- मार्ग के पथिकों के लिए उसे उपस्थित किया है।
‘षट्चक्र’ एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं, जो ब्रह्मनाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं। इन चक्र- ग्रन्थियों में जब साधक अपने ध्यान को केन्द्रित करता है, तो उसे वहाँ की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रन्थियाँ गोल नहीं होतीं, वरन् उनमें इस प्रकार के कोण निकले होते हैं, जैसे पुष्प में पंखुडिय़ाँ होती हैं। इन कोष या पंखुडिय़ों को ‘पद्मदल’ कहते हैं। यह एक प्रकार के तन्तु- गुच्छक हैं।
इन चक्रों के रंग भी विचित्र प्रकार के होते हैं, क्योंकि किसी ग्रन्थि में कोई और किसी में कोई तत्त्व प्रधान होता है। इस तत्त्व- प्रधानता का उस स्थान के रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता का मिश्रण होने से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से धुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।
चक्रों में होता हुआ प्राण वायु आता- जाता है, उसका मार्ग उस ग्रन्थि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा- मेढ़ा होता है। इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए वायु मार्ग चक्रों के अक्षर कहलाते हैं।
प्राण वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है, तो वहाँ एक प्रकार से सूक्ष्म भँवर पड़ते हैं जिनकी आकृति चतुष्कोण, अर्धचन्द्राकार, त्रिकोण, षट्कोण, गोलाकार, लिङ्गकार तथा पूर्ण चन्द्राकार बनती है।
अग्नि जब भी जलती है, उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है, जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है। इस प्रकार अव्यवस्थित त्रिकोण- सा बन जाता है। इस प्रकार की विविध आकृतियाँ वायु प्रवाह से बनती हैं। इन आकृतियों को चक्रों के यन्त्र कहते हैं।
शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ है। इन तत्त्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।
तत्त्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगिता का चिह्न समझा जाता है। चक्रों में भी एक- एक तत्त्व की प्रधानता रहती है। जिस चक्र में जो तत्त्व प्रधान होता है, वही उसका तत्त्व कहा जाता है।
ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से हर चक्र के एक सूक्ष्म छिद्र में वंशी के स्वर- छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, ग, म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती है, जो- लॅ वॅ, रँ, यॅ, हँ, शॅ और ॐ जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इसे चक्रों का बीज कहते हैं।
चक्रों में वायु की चाल में अन्तर होता है। जैसे वात, पित्त, कफ की नाड़ी कपोत, मण्डूक, सर्प, कुक्कुट आदि की चाल से चलती है। उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। उसी तरह तत्त्वों के मिश्रण से टेढ़ा- मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्ताभिसरण, वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है।
यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मन्दगामी, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरण की- सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक़ की तरह फुदकने वाली होती है। उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं।
इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है अथवा यों कहिये कि ये शक्तियाँ ही देवता हैं।
प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीतवीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि धन और ऋण, अग्नि और सोम दोनों तत्त्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।
पंचतत्त्वों के अपने- अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गन्ध, जल का रस, अग्रि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है। चक्रों में तत्त्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते हैं। यही चक्रों के गुण हैं।
यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है। सम्बन्धित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं। चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते हैं। इसी सम्बन्ध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती हैं।
देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतनी, चुड़ैल, मशानी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है, वस्तुत: बात ऐसी नहीं है।
मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार ‘अ’ से लेकर ‘ह’ तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रन्थिमाला है, उस माला के दानों को ‘मातृकायें’ कहते हैं।
इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है। चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते हैं, सम्बद्ध होते हैं, उन्हें उन देवों की देवशक्ति कहते हैं।
ड, र, ल, क, श, के आगे आदि मातृकाओं का बोधक ‘किनी’ शब्द जोडक़र राकिनी, डाकिनी बना दिये गये हैं। यही देव शक्तियाँ हैं।
छहों चक्रों का परिचय इस प्रकार है—
मूलाधार चक्र-स्थान- योनि (गुदा के समीप)। दल- चार। वर्ण- लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। तत्त्व- पृथ्वी तत्त्व। बीज- लँ। वाहन- ऐरावत हाथी। गुण- गन्ध। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- नासिका। कर्मेन्द्रिय- गुदा। ध्यान का फल- वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनन्दचित्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य।
स्वाधिष्ठान चक्र-स्थान- पेडू (शिश्न के सामने)। दल- छ:। वर्ण- सिन्दूर। लोक- भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व- जल तत्त्व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गुण- रस। देव- विष्णु। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चन्द्राकार। ज्ञानेन्द्रिय- रसना। कर्मेन्द्रिय- लिङ्गं। ध्यान का फल- अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह की निवृत्ति, रचना शक्ति।
मणिपूर चक्र-स्थान- नाभि। दल- दस। वर्ण- नील। लोक- स्व:। दलों के अक्षर- डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्त्व- अग्रितत्त्व। बीज- रं। बीज का वाहन- मेंढ़ा। गुण- रूप। देव- वृद्ध रुद्र। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय- चक्षु। कर्मेन्द्रिय- चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।
अनाहत चक्र- स्थान- हृदय। दल- बारह। वर्ण- अरुण। लोक- मह:। दलों के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं। तत्त्व- वायु। देवशक्ति- काकिनी। यन्त्र- षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- त्वचा। कर्मेन्द्रिय- हाथ। फल- स्वामित्व, योगसिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।
विशुद्ध चक्र-स्थान- कण्ठ। दल- सोलह। वर्ण- धूम्र। लोक- जन:। दलों के अक्षर- ‘अ’ से लेकर ‘अ:’ तक सोलह अक्षर। तत्त्व- आकाश। तत्त्वबीज- हं। वाहन- हाथी। गुण- शब्द। देव- पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय- कर्ण। कर्मेन्द्रिय- पाद। ध्यान फल- चित्त शान्ति, त्रिकालदर्शित्व, दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता।
आज्ञा चक्र-स्थान- भ्रू। दल- दो। वर्ण- श्वेत। दलों के अक्षर- हं, क्षं। तत्व- मह: तत्त्व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद। देव- ज्योतिर्लिंग। देवशक्ति- हाकिनी। यन्त्र- लिङ्गकार। लोक- तप:। ध्यान फल- सर्वार्थ साधन।
षट्चक्रों में उपर्युक्त छ: चक्र ही आते हैं; परन्तु सहस्रार या सहस्र दल कमल को कोई- कोई लोग सातवाँ शून्य चक्र मानते हैं। उसका भी वर्णन नीचे किया जाता है—
शून्य चक्र- स्थान- मस्तक। दल- सहस्र। दलों के अक्षर- अं से क्षं तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक- सत्य। तत्त्वों से अतीत। बीज तत्त्व- (:) विसर्ग। बीज का वाहन- बिन्दु। देव- परब्रह्म। देवशक्ति- महाशक्ति। यन्त्र- पूर्ण चन्द्रवत्। प्रकाश- निराकार। ध्यान फल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का करतलगत होना।