Thursday, 16 October 2025

चक्रों के रंग

 

चक्रों के रंग  

१. चक्र : मूलाधार, तत्व : पृथ्वी, बीज मंत्र : लं, चक्र रंग : लाल ।

२. चक्र : स्वाधिष्ठान, तत्व : जल, बीज मंत्र : वं,चक्र रंग :नारंगी

३. चक्र : मणिपुर, तत्व : अग्नि, बीज मंत्र : रं, चक्र रंग : पीला

४. चक्र : अनाहद,तत्व : वायु,बीज मंत्र : यं,चक्र रंग : हरा

५. चक्र : .विशुद्धाख्य, तत्व : आकाश, बीज मंत्र : हं, चक्र रंग : आसमानी

६. चक्र : आज्ञाचक्र, बीज मंत्र : शं, चक्र रंग : नीला

७. चक्र : सहस्रार,बीज मंत्र : ॐ,चक्र रंग : बैंगनी

संस्कृति नीति वाक्य

संस्कृत महाकाव्यों में आप्त -नीति -वचन

त्यज दुर्जन संसर्ग भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम्।।

  यह श्लोक चाणक्य नीति का हिस्सा है । इसका अपेक्षित बोध है, बुरी संगति से दूर रहकर सज्जनों की संगति करनी चाहिए । यह श्लोक, ‘त्यज दुर्जन संसर्गं भज साधुसमागमम्’ दो भागों में बंटा है : ‘त्यज दुर्जन संसर्गं:’ अर्थात् ‘दुष्टों की संगति छोड़ो’ । ‘भज साधुसमागमम्:’ अर्थात् ‘सज्जनों की संगति करो’।

 क्योंकि -
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जन:।
सर्पो दशति काले तु दुर्जनस्तु पदे-पदे।।

  ‘दुर्जन व्यक्ति और एक सांप में से, सांप बेहतर है, दुर्जन नहीं । सांप तो केवल समय आने पर ही काटता है, लेकिन दुर्जन हर कदम पर नुकसान पहुंचाता है।’ 

‘किरातार्जुनीयम्’ में महाकवि भारवि कहते हैं-
व्रजन्ति ते मूढधिय: पराभवं भवंति मायाविषु येन मायिन: प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृतांगान्निशिता इवेषव:।। (किरातार्जुनीयम् १/३०)

द्रोपदी युधिष्ठिर को समझाती है, वे मूर्ख सदा पराजित होते हैं, जो कपटी लोगों के प्रति कपट का आचरण नहीं करते । दुष्ट लोग सज्जनों को वैसे ही मार डालते है, जैसे कवच आदि द्वारा अनारक्षित शरीर में बाण प्रवेश कर प्राण ले लेते हैं ।

मंत्र

 

समानो मंत्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मंत्रमभिमंत्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

              हमारा उद्देश्य एक ही होक्या हम सब एक मन के हो सकते हैंऐसी एकता बनाने के लिए मैं एक समान प्रार्थना करता हूँ।

समानि व आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।

              हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएँ सुसंगत हो। हमारा विचार संयोजन हो। जैसे इस विश्व के,  ब्रह्मांड के विभिन्न सिद्धांतों और  क्रियाकलापों में तारात्मयता और एकता है ॥ (ऋग्वेद 8.49.4)

              विचार करें यह प्रार्थना अपने को सीधे विश्व से जोड़ती है । यह कौन सी संस्कृति है ? वैदिक संस्कृति, सनातन संस्कृति , हिन्दू संस्कृति । जहाँ अपने लिए नहीं सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए है प्रार्थना है ?

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

 “सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

              यह शान्ति कैसे मिले तो हे परमपिता मुझे असत से सत की ओर ले चल, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल, मृत्यु से अमृत की ओर ले चल -

 असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय 
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

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प्रश्न उठात है की हमारा अतीत कैसा था तो मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं -
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां?
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां,
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है,

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है?
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े ।

पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
 

ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?

 भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है।

 विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है।
संसार को पहले हमीं ने दी ज्ञान भिक्षा दान की

आचार की विज्ञान की व्यापार की व्यवहार की

(मैथिली शरण गुप्त)

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पर्वत कहता शीश उठाकर , तुम भी ऊंचे बन जाओं ।

सागर कहता  लहराकर , मन में गहराई लाओ ।

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ों , कितना ही हो सर पर भार।

नभ कहता है फैलो इतना , ढक लो तुम सारा संसार।  (सोहनलाल द्विवेदी)


Wednesday, 15 October 2025

आरक्षण की प्रकृति और प्रवृत्ति



दरअसल आरक्षण सुरसा का मुंह है।

 यह यक्ष और राक्षस की दुरभिसंधि से उपजी ऐसी व्याधि है,जो मंत्र -तंत्र भी करता है,यज्ञ हवन भी। 

वह कुवेर का धन भी चहता है। और दसमुखी पराक्रम भी।

पुष्पक विमान भी, और त्रिदेवों का आश्वासन और आशीर्वाद भी।

सत्ता लोक भी, सुरक्षित अमरत्व का कवच भी।

बस इस बात को अपने अहंकार में भूल जाता है कि दोनों सहोदर हैं।

संतोष, सात्विकता की चादर ओढना और बात है। संतुष्ट होकर सात्विकता के साथ प्राप्त को अंगीकार करना दूसरी बात है।

खेलता इंद्र है। मौन सरस्वती मतिभ्रम पैदा करने को बाध्य है।

इंद्र घातक है।उसकी प्रवृत्ति श्वान की है। उसकी चेष्टा काग की और निष्ठा स्वार्थ की।

यही मूल है। 

मूक हैं तो महाकाल! हस्त बद्ध हैं तो ब्रह्मा और शेषशैय्या पर चिरपरिचित मुस्कान के साथ भविष्य को देखते विष्णु।

आरक्षण कभी आर्थिक आधार लेकर सामने आता है,तो कभी सामाजिक समता और सामाजिक सम्मान को लेकर।

परम्परा कहती है, आर्थिक आधार जाति पर सीमित नहीं है। समानता गुण धर्म की बराबरी पर होती है। सम्मान मांगा और खरीदा नहीं जा सकता। अर्जित किया जाता है।

ताली सम्मान की हो या सामाजिक बराबरी की एक हाथ से नहीं बजती। हृदय धन,बल,मान से नहीं मिलता, उसके लिए दोनों तरफ से प्रेम का रस बरसना चाहिए।

 छल,बल, सत्ता दिलाती है। गरीब का जातीय अहंकार स्कालरशिप या पांच किलो चावल और गेहूं, शक्कर से तुष्ट नहीं होता। उसके स्वाभिमान की रक्षा करनी होगी, वह कृपा से नहीं, निर्हेतुक सेवा भाव से ही बोध हो सकती है।

उसे प्रतिशत में बांटकर या जितनी जिसकी जाति बड़ी,उतनी उसकी हिस्सेदारी देकर संतुष्ट नहीं किया जा सकता।

अमीर अपनी जातीय श्रेष्ठता पीढ़ी- दर- पीढ़ी स्थापित किए रहना चाहता है।

नव धनाढ्य दोनों को रौंद कर अपने केतु के लिए दुराग्रही होता जाता है।

ऐसे में प्याज के समान सुन्दर समाज कट-फट कर छिलका दर छिलका राजनीति की बलि चढ़ता जा रहा है।

इधर राजनीतिक और मतांतरण के उद्योग में लगा मुल्ला उस प्याज को कुछ ज्यादा चटखारे के साथ खाने पर तुला है।

समाजिक सरोकार, समरसता, समानता के शिल्पकारों की छेनी -हथौड़ी जब तक एक स्वरूप गढ़ती है, आरक्षण की सुरसा अपना रूप और आकार बदल चुकी होती है। 

बचता है केले का सनातनी विलाप करता कंद। जिसके तने को काट कर उसको उधेड़ दिया गया है। 

फिर भी समझिए वही तोरण बन आगत के स्वागत के लिए खड़ा है। छली इद्र की पूजा के लिए। 🙏

तुष्टिकरण समस्या है, स्वबोध का जागरण समाधान । 
दीपावली की शुभकामनाएं 

14/10/2025

Tuesday, 7 October 2025

षट्चक्रों का स्वरूप

 

षट्चक्रों का स्वरूप

  

कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक पहुँचने के मार्ग में छ: फाटक हैं अथवा यों कहना चाहिए कि छ: ताले लगे हुए हैं। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति- केन्द्रों तक पहुँच सकता है। इन छ: अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते हैं।

सुषुम्ना के अन्तर्गत रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे भीतर स्थित ब्रह्मनाड़ी से वह छ: चक्र सम्बन्धित हैं। माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल- पुष्पों से इनकी उपमा दी जाती है।

 मूलाधार चक्र योनि की सीध में, स्वाधिष्ठान चक्र पेडू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्ध चक्र कण्ठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्रार है।

सुषुम्ना तथा उसके अन्तर्गत आने वाली चित्रणी आदि नाडिय़ाँ इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे सम्बन्धित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म हैं।

 किसी शरीर को चीर- फाड़ करते समय इन चक्रों को नस- नाडिय़ों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हमारे चर्मचक्षुओं की वीक्षण शक्ति बहुत ही सीमित है। शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु तथा रोगों के कीटाणु हमें आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।

 इन चक्रों को योगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया है और उनके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग- मार्ग के पथिकों के लिए उसे उपस्थित किया है।

षट्चक्रएक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं, जो ब्रह्मनाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं। इन चक्र- ग्रन्थियों में जब साधक अपने ध्यान को केन्द्रित करता है, तो उसे वहाँ की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रन्थियाँ गोल नहीं होतीं, वरन् उनमें इस प्रकार के कोण निकले होते हैं, जैसे पुष्प में पंखुडिय़ाँ होती हैं। इन कोष या पंखुडिय़ों को पद्मदलकहते हैं। यह एक प्रकार के तन्तु- गुच्छक हैं।

इन चक्रों के रंग भी विचित्र प्रकार के होते हैं, क्योंकि किसी ग्रन्थि में कोई और किसी में कोई तत्त्व प्रधान होता है। इस तत्त्व- प्रधानता का उस स्थान के रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता का मिश्रण होने से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से धुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।

 चक्रों में होता हुआ प्राण वायु आता- जाता है, उसका मार्ग उस ग्रन्थि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा- मेढ़ा होता है। इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए वायु मार्ग चक्रों के अक्षर कहलाते हैं।

प्राण वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है, तो वहाँ एक प्रकार से सूक्ष्म भँवर पड़ते हैं जिनकी आकृति मूलाधार में चतुष्कोण, स्वाधिष्ठान में अर्धचन्द्राकार, मणिपुर में त्रिकोण, हृदय चक्र-अनाहत में षट्कोण, विशुद्ध -गोलाकार, आज्ञा चक्र में लिङ्गकार तथा सहस्त्रसार में पूर्ण चन्द्राकार बनती है। 

अग्नि जब भी जलती है, उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है, जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है। इस प्रकार अव्यवस्थित त्रिकोण- सा बन जाता है। इस प्रकार की विविध आकृतियाँ वायु प्रवाह से बनती हैं। इन आकृतियों को चक्रों के यन्त्र कहते हैं।

शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ है। इन तत्त्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।

 तत्त्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगिता का चिह्न समझा जाता है। चक्रों में भी एक- एक तत्त्व की प्रधानता रहती है। जिस चक्र में जो तत्त्व प्रधान होता है, वही उसका तत्त्व कहा जाता है।

ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से  हर चक्र के एक सूक्ष्म छिद्र में वंशी के स्वर- छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, , म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती है, जो- लॅ-मूलाधार,  वॅ- स्वाधिष्ठान, रँ -मणिपुर, यॅ-अनाहत, हँ -विशुद्ध, शॅ-आज्ञा और विंदुविसार -सहस्त्रधार में ॐ जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इन्हें चक्रों के बीज कहते हैं।

चक्रों में वायु की चाल में अन्तर होता है। जैसे वात, पित्त, कफ की नाड़ी कपोत, मण्डूक, सर्प, कुक्कुट आदि की चाल से चलती है। उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। उसी तरह तत्त्वों के मिश्रण से टेढ़ा- मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्ताभिसरण, वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है।

 यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मन्दगामी, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरण की- सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक़ की तरह फुदकने वाली होती है। उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं।

इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है अथवा यों कहिये कि ये शक्तियाँ ही देवता हैं।

 प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीतवीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि धन और ऋण, अग्नि और सोम दोनों तत्त्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।

पंचतत्त्वों के अपने- अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गन्ध, जल का रस, अग्रि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है। चक्रों में तत्त्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते हैं। यही चक्रों के गुण हैं।

यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है। सम्बन्धित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं। चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते हैं। इसी सम्बन्ध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती हैं।

देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतनी, चुड़ैल, मशानी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है, वस्तुत: बात ऐसी नहीं है। 

मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार से लेकर तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रन्थिमाला है, उस माला के दानों को मातृकायेंकहते हैं।

 इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है। चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते हैं, सम्बद्ध होते हैं, उन्हें उन देवों की देवशक्ति कहते हैं।

 ड, , , , , के आगे आदि मातृकाओं का बोधक किनीशब्द जोडक़र राकिनी, डाकिनी बना दिये गये हैं। यही देव शक्तियाँ हैं।

 छहों चक्रों का परिचय इस प्रकार है

मूलाधार चक्र-स्थान- योनि (गुदा के समीप)। दल- चार। वर्ण- लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। तत्त्व- पृथ्वी तत्त्व। बीज- लँ। वाहन- ऐरावत हाथी। गुण- गन्ध। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- नासिका। कर्मेन्द्रिय- गुदा। ध्यान का फल- वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनन्दचित्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य।

स्वाधिष्ठान चक्र-स्थान- पेडू (शिश्न के सामने)। दल- छ:। वर्ण- सिन्दूर। लोक- भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व- जल तत्त्व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गुण- रस। देव- विष्णु। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चन्द्राकार। ज्ञानेन्द्रिय- रसना। कर्मेन्द्रिय- लिङ्गं। ध्यान का फल- अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह की निवृत्ति, रचना शक्ति।

मणिपूर चक्र-स्थान- नाभि। दल- दस। वर्ण- नील। लोक- स्व:। दलों के अक्षर- डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्त्व- अग्रितत्त्व। बीज- रं। बीज का वाहन- मेंढ़ा। गुण- रूप। देव- वृद्ध रुद्र। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय- चक्षु। कर्मेन्द्रिय- चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।

अनाहत चक्र- स्थान- हृदय। दल- बारह। वर्ण- अरुण। लोक- मह:। दलों के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं। तत्त्व- वायु। देवशक्ति- काकिनी। यन्त्र- षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- त्वचा। कर्मेन्द्रिय- हाथ। फल- स्वामित्व, योगसिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।

विशुद्ध चक्र-स्थान- कण्ठ। दल- सोलह। वर्ण- धूम्र। लोक- जन:। दलों के अक्षर- से लेकर अ:तक सोलह अक्षर। तत्त्व- आकाश। तत्त्वबीज- हं। वाहन- हाथी। गुण- शब्द। देव- पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय- कर्ण। कर्मेन्द्रिय- पाद। ध्यान फल- चित्त शान्ति, त्रिकालदर्शित्व, दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता।

आज्ञा चक्र-स्थान- भ्रू। दल- दो। वर्ण- श्वेत। दलों के अक्षर- हं, क्षं। तत्व- मह: तत्त्व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद। देव- ज्योतिर्लिंग। देवशक्ति- हाकिनी। यन्त्र- लिङ्गकार। लोक- तप:। ध्यान फल- सर्वार्थ साधन।

षट्चक्रों में उपर्युक्त छ: चक्र ही आते हैं; परन्तु सहस्रार या सहस्र दल कमल को कोई- कोई लोग सातवाँ शून्य चक्र मानते हैं। उसका भी वर्णन नीचे किया जाता है

शून्य चक्र- स्थान- मस्तक। दल- सहस्र। दलों के अक्षर- अं से क्षं तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक- सत्य। तत्त्वों से अतीत। बीज तत्त्व- (:) विसर्ग। बीज का वाहन- बिन्दु। देव- परब्रह्म। देवशक्ति- महाशक्ति। यन्त्र- पूर्ण चन्द्रवत्। प्रकाश- निराकार। ध्यान फल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का करतलगत होना।


Saturday, 4 October 2025

परिवर्तन नहीं परावर्तन की शताब्दी

* 'परावर्तन' को विज्ञान घटना कहता है। जिसमें प्रकाश की किरणें किसी सतह से टकरा कर उसी माध्यम से वापस लौट जाती हैं।

* 'परावर्तन' सामाजिक सरोकार की एक ऐसी दृष्टि है, जो मूल से निकले दिशा बदल चुके, पंथों को दुलराती, सहलाती और आत्मीयता से आच्छादित कर 'स्वत्व' का बोध कराती है।

* 'परावर्तन' एक राष्ट्रीय संकल्पना है, जिसमें पंथ, वर्ग, जाति, लिंग, भाषा, भूषा और क्षेत्र का सप्तरंगी इंद्रधनुष बनता है, जो अ-राष्ट्रीय तत्वों, विभेदक नीतियों और विध्वंसकारी संभावनाओं का समूलाग्र उच्चाटन करती है।

* परावर्तन वह व्याप्ति है, जो वैश्विक क्षितिज को स्पर्श करती , उषा की भगवा आभा बिखेरते हुए, प्रचंड भास्कर का सर्वकष मार्ग प्रशस्त कर आहत, अतृप्त, आकांक्षी मनुष्यता को संध्या और रात्रि की गहनतम होती  संम्भावनाओं से निकाल कर,  अर्काय स्वरूप को प्रदीप्त करने,  राकापति के मधु की वर्षा के साथ औषधीय विरेचन का कार्य करती है।

* 'परावर्तन' वह आध्यात्मिक अंत: सलिला है, जो अन्नमय कोष (भु:भुव स्व की यात्रा को) प्राण मय कोष के वाहन में प्रतिस्थापित कर मन और उसकी सारथी इंद्रियों का शिथिलीकरण कर वि-ज्ञान की किरणों से उन्हें उर्ध्वमुखी बना , चेतना की  प्रार्थनाओं और आहुतियों की समिधा 'चिति' में स्वाहा करती आनन्द मय कोष, रसो वै स: का बोध कराती है। 

* यह द्वय का परावर्तन है। परिवर्तन के कारण मूल से बिखरी और विखंडित होती आकांक्षाओं का शीतलीकरण है।

* परावर्तन नैसर्गिक है,  परिवर्तन सुनियोजित /आकस्मिक योजना /घटना है।  

* परिवर्तन में संम्भावनाओं का द्वंद्व है , तो परावर्तन में विकृतिकरण की संम्भावनाओं की इति है।

समझना होगा -

* 'संघ' शताब्दी परिवर्तन और सम्भावनाओं की नहीं, परावर्तन और समाधानों की है।

*शताब्दी लौकिक व्यवहार के परिमार्जन और एकात्मकता के आह्वान की है।

* शताब्दी सनातन की आभा में व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की चेतना को भारतीय चिति में व्याप्तीकरण (अध्या त्मीकरण) की प्रक्रिया है।

* यह उनकी नहीं हमारी शताब्दी है। यह कैलेंडर की नहीं, कर्म पथ की शताब्दी है।

* यह शस्र और शास्त्र की शताब्दी है। अर्थ और काम के धर्म में विसर्जन (धर्माधारित अर्थ का अर्जन और काम का संयोजन) की शताब्दी है।

* यह नौनिहालों के आगत-स्वागत युवाओं के कर्तव्य बोध तथा वृद्धों के आभार और अभिनंदन की शताब्दी है।

* यह वनवासी, गिरि कंदरा निवासी, ग्राम और नगरवासियों की परम्पराओं के स्मरण की शताब्दी है।

* देव, मनुष्य,यक्ष, राक्षसों के लिए 'द' के बोध की शताब्दी है। 

* यह दधीचि, शिवि, राम और कृष्ण के दान, दया, त्याग और पुरुषार्थ की शताब्दी है।

* यह बुद्ध के करुणा, चाणक्य के बुद्धि तथा चंद्र गुप्त के शौर्य की शताब्दी है।

* यह केवल सिंदूर की नहीं, तो हल्दी, दूर्वा, कुमकुम से सजी वह अभिमंत्रित थाली है, जो वसुंधरा के भाल पर तिलक करने उद्यत है।

* सन्नद्ध है, मंगलकारी सुप्रभात के उषा -भगवा - प्रणाम को। 

आइए,जन गण मन की 'संघ शताब्दी' के सरोकारों का अवगाह्न कर जीवन के पुरुषार्थ को चरितार्थ करें।

विजयादशमी 
2025

Tuesday, 30 September 2025

उत्सवों की धुन

पुरस्कार या सम्मान प्राप्त करना कोई दोष या अपराध बोध नहीं है। 

किंतु उससे महत्वपूर्ण है-

* आशीर्वाद है।

* दरअसल यह उत्सव प्रसंग है।

* बस समझना होगा यह कोई उपनिषद काल नहीं है। जहां ऋचाएं ब्रह्म की,जीवन की चर्चा करती हैं।

तुलसी बाबा कहते हैं -
* कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।
  सिर धुन गिरा लगत पछिताना।।

इसलिए वे स्मरण दिलाते हैं -
* हृदय सिंधु मति सीप समाना।
  स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।

तात्पर्य यह कि-

* इससे जब श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान कविता (साहित्य) बनता है।

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ विचार किया जा सकता है -

पुरस्कार आयोजित और प्रायोजित दोनों प्रकार के होते हैं।

कुछ कृतकार को समर्पित, कुछ कृति को।

कुछ कृतियां पुरस्कृत होकर विलुप्त प्रजाति में चली जाती हैं, कुछ बिना पुरस्कार के पुरस्कार की प्रतीक्षा में जीवन खो देती हैं। 

कुछ को दीमक चाट जाते हैं, कुछ कचरे में भाव- कुभाव के साथ ठेले में बैठ कर बिदा हो जाती हैं। कुछ पान, नमकीन, भजिया, भुंजिया के लिए शरणस्थली बनती हैं।

किंतु इनके बीच कुछ अनमोल कृतियां मोल तोल के लिए निर्मम समीक्षकों के हाथ पड़ कर सम्बंधों/असंबन्धों के आधार पर -

* निखर कर दुनिया के बीच बौद्धिक खुराक़ बन जाती हैं।

* या समीक्षकीय भाषा के मकड़जाल में छटपटाती रहती हैं।

इसमें न तो कृति का दोष है और न कृतिकार का। 

दोष तो पाठक का भी नहीं है, किंतु उसके पास में वह दृष्टि होती है-

* जो साहित्य में मनुष्यता, ममता, करुणा, सहानुभूति और परोपकार के सूत्र खोज कर उसे सद्ग्रंथों की श्रेणी में ला सकती है। 

* बस दुर्लभ है तो पाठक! 

न कृति रुकेंगी,न पुरस्कार के विज्ञापन। तय करना है-

* आप आवेदन देकर तथाकथित सरकारी, असरकारी संस्थाओं से पुरस्कार लेना चाहते हैं, 

* या कृति को लोकार्पण से बचा कर लोक के/ जनता के/ सुधी पाठक के हाथों देकर उसे सम्मानित होने का अवसर देना चाहते हैं।

समझना होगा- 
* रचना प्राकृत जन का गुणगान कर रही है,
या 
* भारतीय ज्ञान परम्परा को समर्पित है।

 यही कृति के पुरस्कार/सम्मान के आधार और उसके कालजयी होने के लक्षण हैं।

इसलिए मित्र!

* नैतिकता की किताब जीवनशैली है। जिससे चरितार्थता प्राप्त होती है।

* जिसमें कुटुम्ब भाव, सामाजिक समरसता, पर्यावरण सुरक्षा, और नागरिक कर्तव्य होता है। इनकी सार्थकता का /प्रकटीकरण का आधार 'स्व'बोध है। 

* श्रेष्ठ कृतियों को पढ़ा जाना ही उनका पुरस्कार है। साहित्य और सामाजिक उत्सवों का यही संदेश है।

दुर्गाष्टमी / नवमीं की शुभकामनाएं। मां भारती का आशीर्वाद बना रहे।,🙏🕉️
1/10/25

Saturday, 27 September 2025

'शताब्दी के निहितार्थ' की सम्पादकीय

राष्ट्र देवो भव
 “भद्रमिच्छन्त ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उप सं नमन्तु।।”(अथर्व. १९/४१/१) प्राचीन काल में लोकमंगल की कामना से ऋषियों ने तपस्या की। तपस्या लोक कल्याण के लिए थी, अत: मनसा, वाचा और कर्मणा थी। अर्थात् मन से काल और परिवेश का चिंतन किया, परा तथा पश्यन्ति से वचन को साधा और लोक के समक्ष वैखरी के द्वारा न केवल सैद्धांतिक पक्ष रखा, बल्कि उसे कर्म से, व्यवहार से उदाहरण के साथ दिखाया। उनके सतत, गंभीर प्रयत्न और पुरुषार्थ से सनातन राष्ट्र की उत्पति और उसका क्रमिक विकास हुआ।

 ऋषियों की लोकमंगल की उस सद-इच्छा को पुराणकारों ने व्याख्या कर उसके निहितार्थ को प्रकट करते हुए कहा, ‘सर्वेषां मंगलं भूयात् सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्।।’ (ग.पु.अ.35.51)। यहीं से देव, मनुष्य, यक्ष, राक्षस एवं विबुध इस भारतवर्ष को ‘राष्ट्र देवो भवः’ के भाव से नम्र होकर इसकी सेवा- आराधन करें, ऐसी अपेक्षा और आकांक्षा व्यक्त की गई ।  


   इस मंगलकारी राष्ट्र भारतवर्ष के सनातन स्वरुप को समझें। बृहस्पति आगम कहता है, ‘हिमालयं समारभ्य यावदिंदु सरोवरम् तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्ष्यते।’ विष्णु पुराण कहता है, ‘उत्तरंयत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।’ इसी मातृभूमि की हम रोज वन्दना करते हैं, ‘रत्नाकरधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्याम वन्देभारतमातम्॥’


 उत्तर,पूर्व, पश्चिम में हिमालय की सभी खंडों , अंचलों से लेकर दक्षिण-पूर्व-पश्चिम में समुद्र पार तक विस्तार पाती है, यह धरा। कूमा (काबुल नदी), क्रुमू (कुरम नदी), गोमल (गोमती नदी), स्कात (सुकस्नू), अक्षु-वक्षु (Oxus), सिंधु, शतद्रु (सतलुज), ब्रह्मपुत्र (तीनों तिब्बत में), ऐरावत (वर्मा में), सरलवीन, मीकांग ( गंगा) के जल-ग्रहण क्षेत्र ये सब अखण्ड भारत के अंग रहे हैं। बलोचिस्तान, अफगानिस्तान (उप-गणस्थान), सीमाप्रांत (राजधानी: पेशावर अर्थात् पुरुषपुर),सिंध, पश्चिमी पंजाब, बंगलादेश, ब्रह्मदेश, श्याम, इण्डो-चाईना, कंबोज (कंबोडिया), वरुण (बोर्नियो), सुमात्रा तथा तिब्बत आदि इस भरत-भूमि से ऊर्जा प्राप्त करते रहे हैं। यह सभी क्षेत्र अखंड भारतवर्ष के अंग थे?

 फिर क्या हुआ कि वैदिक ऋषिओं की तपस्थली, महाभारत का राष्ट्र, मौर्यकालीन भारतवर्ष कब और कहाँ-कहाँ बिखरता गया? 1876-अफगानिस्तान, 1904-नेपाल, 1914-तिब्बत, 1937- ब्रह्मदेश और 1947-पाकिस्तान। क्या हमारे अखंड भारत की संकल्पना में आज भी यह सब देश आते हैं ? 


 इसको दो प्रकार से समझ सकते हैं। एक वर्तमान स्वरुप जो हमें १५ अगस्त, १९४७ को प्राप्त हुआ। दूसरा वह जो १८७६ के पूर्व था। आर्यावर्त, भारतवर्ष, भारत, हिन्दुस्थान फिर अब भारत और इंडिया समनांतर चल रहे हैं ! १८७६ पूर्व के भारतवर्ष में वर्ष है, जो वर्ष अर्थात स्थान और वर्ष अर्थात काल का बोधक है।

 तो क्या ये कोरे शब्द थे? भारत में जो वर्ष जुडा है उसका अर्थ ‘भू-भाग’ काल के साथ अखंड भू-भाग से अलग होता गया। नाम बदलता गया - आर्यावर्त-भारतवर्ष से भारत, हिन्दुस्थान से हिन्दुस्तान और भारत से इंडिया बन गया। दरअसल जबसे हमने अपने वर्ष अर्थात काल की गणना परार्ध, कल्प, मन्वन्तर और चतुर्युगों की संकल्पना का विस्मरण करते गए, हमारी भौगोलिक सीमा-भूमि-जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, भरतखण्डे, स्थान भी छोटा होता गया।

 यह संकल्प मन्त्र ‘स्व’ का बोध था, बोध मिटा और मान-चित्र (मानचित्र) बदल गया ।
 फिर भी भारतवर्ष हमारे अतीत का गौरव और सांस्कृतिक धरोहर का स्मरण है। पौराणिक दृष्टान्तों का साक्ष्य है। देवी सती के जहाँ-जहाँ अंग गिरे उन शक्तिपीठों का पुण्यमयी स्वरूप हैं। रामायण और महाभारत के काल का साक्ष्य है। 

भूखंड पृथक होने के बाद भी हमारी सांस्कृतिक चेतना अभी भी वहां से जुड़ीं हैं। इसलिए इस स्वरूप को सांस्कृतिक भारतवर्ष मानते हैं। इनके खंड-खंड अस्तित्व होने की कहानी शोध का विषय बनना चाहिए। निष्कर्ष आज की पीढ़ी के सामने आना चाहिए। पीढ़ियों को समझना होगा, वर्ष (स्थान)अपने अंदर भूमि, जन का इतिहास, उसके जीवनमूल्य, संस्कृति,परम्परा, काल (समय) 
के आध्यात्मिक कलेवर को निरन्तरता बनाए चलता है। दूसरा, १४, अगस्त १९४७ की भौगोलिक अस्थाई सीमा हमारे सामने है।   

 स्पष्ट है, ऋषियों ने जिसे ‘राष्ट्र देवो भवः’ कहा है, वह १९४७ के बाद का स्वरुप नहीं है। इसलिए जहाँ से भी अतीत की स्मृतियाँ जुड़ी हैं, उसके सांस्कृतिक स्वरुप को पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थान्तरित करना होगा। स्मरण रखना होगा- यह राष्ट्र जीवंत है, चेतन्य है । ‘राष्ट्र देवो भव’ एक संकल्पित घोषणा है। यह राष्ट्र देवतुल्य है। पवित्र है। ब्रह्मस्वरूप है। ऋषियों के अभिमंत्रित मन्त्रों से ब्रह्माण्डीय सत्ता के प्राण तत्व की जागृत स्वरुप ‘चिति’ है । यही ‘चिति’ विश्व के लिए अध्यात्मिक प्रकाश की अधिष्ठात्री है।

 इसके नाभि में अमृत तत्व भरा है। ऋषियों ने इसे ‘अजनाभवर्ष’ कहा है। इसलिए यह राष्ट्र ही भौतिक स्वरूप में ‘मातृदेवो भवः’, और सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक स्वरूप में ‘पितृदेवो भवः’है। यह चराचर के लिए पूज्य है, चेतन है, प्रकाशमान है। इस देवतुल्य राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना दुनिया के पीड़ित, दुखी मानवता को ‘अतिथिदेवो भवः’ के रूप में स्वीकार करती है। 


यह ज्ञान-विज्ञान प्रदाता है। राष्ट्र और हमारा अन्गांगी भाव का सम्बन्ध है ।’ राष्ट्र केवल शासन प्रणाली या भू-भाग नहीं, वह जीवंत, चेतन सत्ता है।, जिसकी रक्षा, सेवा और साधना करना प्रत्येक नागरिक का धर्म है। इसके जीवन मूल्यों से प्रेरित दुनिया आदि काल से इसे धर्मस्वरुप मान कर पूजती आई है।

  यह देवनिर्मित भूमि है। हिमालय में मानसरोवर जैसे क्षेत्र ब्रह्म रन्ध हैं। यह शिव-पार्वती का क्रीडा स्थल और शिव के परिवार का निवास है। भारतवर्ष पीपल, वट, पाकर, रसाल के वृक्षों से आच्छादित साधना का क्षेत्र है। जहाँ पीपल के नीचे परमपिता परमेश्वर का ध्यान करते हुए ,उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। पाकर के नीचे यज्ञ-कर्म करतें हैं । आम्र वृक्ष के नीचे संसार के प्राणियों के मंगल कामना का चिंतन किया जाता है।वट के नीचे बैठ कर संसार के जिज्ञासुओं के लिए समाधान दिया जाता है। 

 भारतवर्ष निश्चरहीन करने की राम की संकल्पना है। अधर्म के नाश की कृष्ण की घोषणा है। गांधार संकल्पों की भूमि है।इसमें आदिकाल से लोकतंत्र है, सुव्यवस्थित युगों-युगों की विकसित शासन प्रणाली है। इसमें नचिकेता की ‘मृत्यु विजय’ है, शिवि, दधीचि, नारद, प्रहलाद, ध्रुव का ‘तप’ है, राम का ‘त्याग’ है, हरिश्चन्द्र का ‘वचन’ है, परशुराम का ‘समर्पण’ है, युधिष्ठिर का ‘सत्य’ है, कर्ण का ‘दान’ है, व्यास, भीष्म और कृष्ण का ‘भविष्य का चिंतन’ है । शवरी की ‘भक्ति’ है, सावित्री के ‘सेवा’ है, सीता की अग्नि परीक्षा है, अनुसुइया का ‘आशीर्वाद’ है । इसके लिए भारतीय चैतन्य सत्ता को समझना होगा । इसलिए स्मरण रखना होगा, भारत बिना वर्ष के अधूरा है। 

 राम ने अपने युग में जन सहयोग से आर्यावर्त को निश्चरहीन किया । कृष्ण ने महाभारत में धर्म की स्थापना की। तब आज का करनीय क्या है? राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाना है ! विश्व गुरु बनाना है!! अतीत का वैभाव पुनर्जीवित करना है!!! तो उत्तर सीधा है, पञ्च परिवर्तन लाना है। 

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विजयादशमी, २०२५ से २०२६ तक शताब्दी वर्ष मना रहा है। दो वाक्य संघ में बहुत प्रचलित हैं, एक- संघ हिन्दू समाज का संगठन करता है, हिन्दू समाज में नहीं । दूसरा, संघ उस दिन अपने कार्य की इति समझेगा, जिस दिन समाज और संघ के बीच जो एक पतली झिल्ली है, वह समाप्त हो जाएगी। स्पष्ट है, पांच बोध सम्पूर्ण समाज के अंदर दोनों आकाँक्षाओं की पूर्ती के हेतु हैं। 


अत: आवश्यकता है, समाज में कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, पर्यवरण संरक्षण, स्व का बोध और नागरिक कर्तव्य,के न केवल सैद्धांतिक रूप  समझने की, बल्कि उसे जीवन में आत्मसात कर,  व्यवहार में प्रकट करने की। 
 
क्या यह यक्ष प्रश्न हैं? कुछ लोगों के लिए हाँ और कुछ लोगों के लिए नहीं।

 ‘शताब्दी के निहितार्थ’ स्मारिका के आलेख पञ्च परिवर्तन के लिए ऊर्जा, आनेवाली कठिनाइयों के लिए समाधान और राष्ट्र की चुनौतियां और समाधान को समाहित किये हुए है। स्मारिका में कुल ३१ आलेख हैं। विषय वस्तु की दृष्टि से यह भी लगभाग पांच इकाइयों में गुंधे हैं। 

पहला चरण- राष्ट्र , भारत बोध, विभाजन का  सत्य, राष्ट्र संवर्धन और वाम विखंडन के साथ भारतीय इतिहास की भ्रांतियों , विकृतियों और उसके अपेक्षित निष्पक्ष स्वरूप की बात रखते हैं। दूसरा चरण- पञ्च परिवर्तन के विभिन्न आयामों- स्व का बोध, कुटुंब प्रबोधन, प्रर्यावरण संरक्षण और नागरिक कर्तव्यों की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं। तीसरा चरण- आत्मनिर्भरता और स्वदेशी अर्थव्यवस्था, स्वदेशी तकनीक , स्वदेशी से सैन्य शक्ति के मनोबल, और भारतीय कृषि जैसे आयामों की दिशा सूचित करते हैं। चौथा चरण - राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० में भाषा, साहित्य और योग की भूमिका, आतंक के विरुद्ध शिक्षा का सांस्कृतिक उत्तर क्या हो सकता है, मनुष्य के निर्माण में योग की भूमिका जैसे विषय रखे गया हैं, जो पञ्च परिवर्तन में सहयोगी सिद्ध होंगे। पांचवां चरण- उपर्युक्त सभी चरणों के करनीय पक्ष हैं, युवाओं की चुनौतिया क्या हैं, ध्येय पथ के पथिकों के लिए लोकसंग्रह की क्या भूमिका है और ध्येयव्रती होते कैसे हैं, उनकी झलकियाँ दी गई हैं। 

शताब्दी वर्ष यक्ष के प्रश्नों का विश्व के सामने समाधान कारक उत्तर देगा।  
 ‘शताब्दी के निहतार्थ’ स्मारिका इसमें अपनी गिलहरी के सेवाभाव, चींटी के धर्य और सिंह के आत्मावलोकन की भूमिका का निर्वहन करेगी, ऐसा विश्वास है।

 महामहिम राज्यपाल श्री मंगू भाई पटेल एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के हम आभारी हैं कि उन्होंने पत्रिका के लिए शुभकामना सन्देश देकर अनुगृहीत किया। उन समस्त लेखकों के आभारी हैं , जो अपने व्यस्ततम जीवन चर्या से थोड़ा सा समय निकाल कर मार्गदर्शी आलेख उपलब्ध कराएं हैं। अर्चना प्रकाशन के सभी पदाधिकारी, विशेष रूप से निर्देशक श्री ओम प्रकाश गुप्ता जी का जिन्होंने स्मारिका को तैयार कराने में प्रेरक का काम किया। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उन सभी का जिनका सहयोग मिला, उनके प्रति भी आभार।  

संपादक 
प्रो उमेश कुमार सिंह  
 
 विजयदशमी(२ अक्टूवर, २०२५) 
वि. सं २०८२, युगाब्द ५१२७ 
अर्चना प्रकाशन, भोपाल

Tuesday, 23 September 2025

गणेशोत्सव एवं दुर्गोत्सव

किनारे नदी नहीं होते। धारा को जिंदा रखने के लिए मूल से जुड़ा रहना आवश्यक है। 

नदी में नाले मिलने से नदी का अस्तित्व दीर्घकालिक नहीं होता। 

कूल -किनारे बहते जल को आकार देकर नदी, नालों की पहचान गढ़ते हैं।

आवश्यक नहीं कि जलधाराएं धरती पर बहती दिखें। करोड़ों वर्ष तक धाराएं अंत: सलिला रहती हैं। 

उन्हीं से कुआं, बावड़ियां, नदियां,  तालाबों , और आधुनिक जलस्रोतों को अस्तित्व प्राप्त होता है।

 शिलाखंडों, पर्वतों, वृक्ष- लताओं , यहां तक की घास - फूस को भी नमी उन्हीं से प्राप्त होती है।

इसलिए किनारों , तटों, घाटों से नदियां आकार सीमित नहीं होने देती। वे तो चट्टानों को भी तोड़ देती हैं।

 परम्पराओं और संस्कृति का स्वरूप भी कुछ ऐसा ही समझना चाहिए।

 गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा भी युग की चाह, काल और परिस्थितियों की अपेक्षा से आगत अनुष्ठान हैं। इन्हें इसी दृष्टि से समझना और तदानुरूप आचारण और व्यवहार करना चाहिए।

श्रद्धा भूल सुधार है

श्राद्ध भूल सुधार है। 

दरअसल (मृत्यु) शरीर परिवर्तन के बाद जब मनुष्य इच्छित योनि का चयन नहीं कर पाता तो वह प्राण तत्व में आरूढ़ होकर कर्म के भोगों को ढोता है।

जन्म की यात्रा तीन जगह से होती है। एक देव लोक से, दूसरा नर्क लोक से। तीसरा प्रेत लोक से।

संतानें जब पिंड दान कर मृतक की गलतियों को क्षमा करने ईश्वर का आह्वान करती हैं,और श्रद्धा से प्रार्थना करती हैं,तब प्रेत लोक की आत्माएं या तो नर्क लोक जाती हैं,या देवलोक। कुछ पुण्यात्माओं को प्रेत लोक से सीधे मृत्यु लोक में प्रवेश मिलता है।

फिर वे जन्म के लिए योनि ग्रहण करती हैं, प्रारब्ध के आधार पर।

ऐसा ही कुछ गरुण महराज का मत है। जो उन्होंने नारायण के सत्संग से प्राप्त किया है।

24/9/25

Sunday, 21 September 2025

पितृपक्ष! मोक्ष पक्ष!! कर्तव्य पक्ष!!!

गौ भक्त रोटी खिलाएं , पर गोबर भी उठाएं। तभी बरक्कत होगी। कम से कम अपने घर के सामने तो उठा  ही सकते हैं।

कैसी विडम्बना है,घर के दरवाजे तक झाड़ू,पोछा, रंगोली। घर के गेट के बाहर रखरखाव समिति जाने!!! नगरपालिका जाने। सरकार जाने!!

क्या यह गैरजिम्मेदारों की, मान्य जिम्मेदारों पर , निट्ठल्ले पन की टोकरी फेंकना नहीं है।
या तबियत से पत्थर उछालना है,कि आकाश में छेद होगा?

आपातकाल  की ग़ज़ल के पत्थर ने काम किया भी था, तो टोकरी फेंकना भी चालू हुआ। परिणाम सरकार पर सरकार अंत में आपातकाल की कर्ताधर्ता की सरकार पुनः आ ही गई ।

पत्थर उछलता रहा,  कभी इसके सर, कभी उसके सर , अंत में उछालने वाले का सर फोड़कर शांत शिव लिंग बन पूजित हो गया। 

 आज भी उस पंक्ति को शुभंकर माला -मंत्र बनाकर सभा, गोष्ठी, आंदोलनों में कहते, जपते, सुनते रहते हैं। है न ?

पत्थर और टोकरी फेंकने की कला केवल साहित्यकार ही नहीं, राजनीति ही नहीं तो साधारण जन भी सीख चुके हैं।
है न नागरिक कर्तव्य बोध?

गांधी मर गये, हम सब भी यह ठाट बाट एक दिन छोड़कर जाने वाले हैं।

तो क्या अपने घर के सामने झाड़ू नहीं लगा सकते? क्या यूरोसेंन्ट्रिक मानसिकता पर पत्थर नहीं चला सकते?

हो सकता है,जब अपनी यात्रा निकले तो लोग कहें कि जहां यह चर्म गठ्ठर रख रहे हो, थोड़ी सफाई कर दो,वह आदमी जाने तक अपने घर के बाहर भी साफ सुथरा रखता था। मन से भी ठीक ठाक ही था।
है न सही!!

स्वच्छता का निरोगी काया और मानसिकता से भी सम्बन्ध है।

हमारे पूर्वज, ऋषि, मुनि संत अपने आश्रम की सफाई रोज करते थे, इसलिए नहीं की वे सफाई रोगी थे, बल्कि उन्हें अपने प्रभु के आने की प्रतीक्षा रहती थी। पर्यावरण प्रदूषित न हो इसकी चिंता थी। 

हम भी परमपिता और अपने पूर्वजों को बताने लायक रहें कि, हे महान आत्माओं! हम केवल पितृपक्ष में तुम्हारी श्राद्ध ही नहीं करते। तीन समय संध्या ही नहीं करते, तुम्हारे आचरण का अनुशरण भी करते हैं।
 और भावी पीढ़ी के लिए मार्ग भी बनाते हैं।

परिवार की चिंता के साथ वृहत्तर परिवार की भी हमें चिंता है। पहली रोटी गौ को और अंतिम रोटी कुत्ते को देते हैं, किंतु क्या उन्हें आवारा पशु के सम्बोधन से बचाते भी हैं? 

परिवार को नागरिक कर्तव्य का बोध ही परिवार प्रवोधन है। यही मातृ ऋण,पितृ ऋण और राष्ट्र ऋण का बोध है।

आज बिदा होते पूर्वजों को, उनके माध्यम से पृथ्वी,अंतरिक्ष,वायु, अग्नि,जल को, ऋषियों को, अपनी परम्परा को यह आश्वासन भी देते हैं कि संस्कृति और परम्परा, राष्ट्र के गौरव को हम अपने आचरण से बढ़ायेंगे।

समरस जीवन जड़ -जीव से लेकर वृक्ष,लता,पशु पक्षी तक की सामाजिक समरसता है। जिन मालिकों, किरायेदारों ने कुत्ते पाल रखे हैं, वे दोपहर, सुबह-शाम कभी भी भोंकना शुरू हो जाते हैं, उन्हें भी पड़ोसी धर्म निभाने की सलाह देनी चाहिए। 
गौ सेवा के नाम पर केवल रोटी खिला कर वैतरणी पार करने का टिकट नहीं मिल सकता। उसको चौराहों में आत्महत्या के लिए खड़े रहने देना भी कितना सही है, विचारणीय है।

अपने सहित सभी से अपेक्षा होनी चाहिए, उन्हें इस बात का बोध होना चाहिए कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए अपने स्तर से टोका-टाकी करते रहना चाहिए। यह सरकार का नहीं जागृत समाज का दायित्व है। 

 हम दो हमारे दो, हम दो हमारे एक,हम और हम (रिलेशनशिप) से आगे हम और हमारे तीन की अपेक्षा। क्यों ?

 एक और एक से वंश सुरक्षित रहेगा। हम दो हमारे दो से नाना,नानी,मामा मामी,मौसा मौसी, बहन बहनोई का संबंध सुरक्षित रहेगा। हम और हमारे तीन से परिवार, कुटुम्ब और तीसरे से राष्ट्र सुरक्षित रहेगा। सीमा सुरक्षित रहेगी, धर्म सुरक्षित रहेगा। फिर सम्पूर्ण परिवार सुरक्षित रहेगा। 

कुटुम्ब सुरक्षित रहेगा तो समाज की समरसता मजबूत होगी। आबादी का असंतुलन दूर होगा। आर्थिक आधार मजबूत होगा। अस्पृश्यता दूर होगी। राष्ट्र बलवती होगा।

 यह सब होगा 'स्व' के जागरण से, कर्तव्य के प्रति, पर्यावरण के प्रति, कुटुम्ब के प्रति, समाज के प्रति गौरव बोध से।

यह कार्य अपने भजन,भोजन, भाषा, भूषा, भेषज के स्वाभिमान से सम्पूर्णता को प्राप्त करेगा।

यह व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज में होता हुआ राष्ट्रव्यापी होगा। 

यही पितृ ऋण, मातृ ऋण, ऋषि ऋण, राष्ट्र ऋण और गौ ऋणि के प्रति आज की अपेक्षा है।

Tuesday, 16 September 2025

हिंदी को हिंदी की हिन्दी में शुभकामनाएं

हिंदी को हिन्दी की हिंदी में शुभकामनाएं 

हिन्दी को लेकर शुभकामनाएं आ रही हैं। आना भी चाहिए। हिंदी भाषियों के लिए तो गौरव की बात है।

  देश-विदेश के उन सभी हिंदी प्रेमियों का जिनका हिन्दी भाषा और उसके बोलियों से सम्बन्ध है, इनको भी शुभकामनाएं ,जो इसके गौरव को बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं।

 सृष्टि के रचयिता ने प्रत्येक राष्ट्र को अपनी भावना व्यक्त करने को भाषा दी है। किसी भी राष्ट्र के सृजन, अभ्युदय, पतन, पुनरूत्थान और उसके जीवनोद्देश्य की अभिव्यक्ति भाषा से ही होती है।

 आज सविधान सभा के उन माननीय सदस्यों के स्मरण का भी दिन है, जिन्होंने सहमति-असहमति के बीच हिंदी को राजभाषा का स्थान दिलाया।

 गौरव बोध और सम्मान उन महनीयों के लिए भी जिन्होंने हिंदी को हिंदुई, हिंदुस्तानी, उर्दू के गंगा जमुनी संस्कृति से , भागीरथ प्रयत्न कर ( संस्कृत, क्षेत्रीय बोलियों और भाषा की भारतीय परंपरा से परिष्कृत कर) हिन्दी को त्रिवेणी बनाकर हमें दिया। 

 त्रिवेणी इसलिए कि इस हिन्दी में हमारा स्वर्णिम अतीत, हमारा उद्वेलित वर्तमान और विश्व के कल्याण की हमारी कामना को सजोये भविष्य है, जो संसृति को अवगाह्न करने का आमंत्रण देता है।

 अतीत का स्मरण इसलिए भी की उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तक से विश्व के सभी निवासियों को, भारत के सभी भाषा- भाषियों को राम, कृष्ण और शिव के जीवन का कालजयी उज्जवल चरित हमारे सामने आईने की तरह रखता है, जिसमें हमें अपना चेहरा देखने का बार-बार अवसर मिलता है । 

   किसी भी राष्ट्र की भाषा केवल विचार अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती। वह केवल वर्ण-वर्तनी, छंद और व्याकरण नहीं होती । वह राष्ट्र में निवास करने वालों का वर्तमान-अस्तित्व बोध भी होती है । 

भाषा और उसके वर्ण मिलकर विद्या के सभी अंगों (व्याकरण ,कल्प, ज्योतिष,निरुक्त, छंद और शिक्षा) की
 अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। 

राष्ट्र और उसकी संस्कृति को स्वर देते हैं। भाषा राष्ट्र की विश्व में पहचान स्थापित कराती है। भाषा राष्ट्र की निजता, उसका गुणधर्म, उसकी पहचान, उसकी आकृति, उसके अस्मिता और उसके भूगोल का परिचय कराती है । 

भाषा किसी भी राष्ट्र का एक जीवन्त, जाग्रत भविष्य का स्वर होती है। 

 यदि भारत की बात करें तो भाषा राष्ट्र की तरह स्वयंभू है। भारतवर्ष के सम्बन्ध में यजुर्वेद में ‘हम राष्ट्र के पुरोहित हैं’ कौन कहता है ? भाषा। 

केनोपनिषद में ‘तेनत्यक्तेन भुन्झिता’ के आचरण की बात कौन करती है? भाषा।

 ‘विश्व के सभी प्राणी सुखी हों’, भारत राष्ट्र की कामना को कौन अभिव्यक्ति देती है? भाषा।   

 भारतीय संस्कृति के समस्त संस्कारों, परम्पराओं, सभ्यताओं के विभिन्न तत्त्वों, लौकिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक मान्यताओं में वैश्विक शुभकामनाएं कौन समाविष्ट करती है? भाषा । 

‘सा प्रथमा संस्कृति विश्वधारा’ भाषा ही तो बताती है! 

‘मनुर्भवः’, अर्थात् मनुष्य बनो। किसका आह्वान है? भाषा का ही न !  

  संस्कृत हमें वेदों के कर्मकाण्ड, मीमांसा और उपनिषद की परम्परा से लेकर ब्रह्मसूत्र तक ले जाती है। हिमालय के कल्हण (राज तरंगिणी) से लेकर कालड़ी के शंकर तक का स्मरण कराती है।

 भारतवर्ष की भाषाएँ चाहे वह संस्कृत हो, तमिल हो, बंगाली हो, गुजराती हो या हिंदी हो सभी अपने अंदर भारतीय संस्कृति और सभ्यता को समाहित किये हुए हैं। 

 यदि हिंदी पर विचार करे तो वह उर्दू, फ़ारसी, अरबी का हिन्दुस्तानी रूप नहीं है। वह संस्कृत की धरोहर को लिए निर्मल गंगधारा है।

 इस धारा में लगभग सभी भारतीय भाषाओं के तात्विक शब्द समाहित हैं। इसी के साथ अरबी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, फ्रेच आदि के शब्द भी इसकी गोद में आनंद के साथ खेलते हैं। हिंदी ने इन अभारतीय भाषाओं को लिंग, वर्ण, शब्द और अर्थ की पहचान भी दी है। 

अपनी उदारता के कारण हिंदी वैश्विक संस्कृति और सभ्यताओं के लोक कल्याणकारी तत्वों को भी ग्राह्य किये हुए है। उसकी लिपि जितनी सरल है, उतना ही उसका अनुवाद भी। उसमें तमाम आंचलिक शब्दों की धरोहर है, तो भारत की राष्ट्रीयता और संस्कृति के सम्बर्धन और संरक्षण की क्षमता है। 

हिंदी अपने जन्म काल से ही भारत के हजारों वर्ष पूर्व की धरोहर को समेट कर चल रही है।   

 हिंदी भाषा ने अपने साहित्य के माध्यम से ही राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक समरसता में अन्यतम योगदान दिया है। 

भारतीय परम्परा का ज्ञान हिंदी ने अपने विपुल साहित्य से दुनिया को करवाया। बाल्मीक और वेदव्यास के सन्देश को विश्व में पहुँचाने का कार्य हिंदी भाषा और उसका साहित्य ही कर रहा है ।

 अभय और अमरता के संदेश तथा ज्ञान, इच्छा और क्रिया के समन्वय को हमारे संतों, कवियों ने हिंदी भाषा और उसकी बोलियों के माध्यम से विश्व को समझाया। 
 
 भारत की तमाम भाषाओं के स्वरों से ध्वनियों को ग्राह्य कर हिंदी ने वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद इत्यादि के तत्वों एवं स्वत्वों को समेट कर दुनिया को पहुँचाने का कार्य कर रही है।

 कालिदास,भवभूति, माघ और अश्वघोष के साहित्य को लोकप्रिय बनाने में हिंदी ने अप्रतिम योगदान दिया है । 

काश्मीर की राजतरंगिणी हो या प्रत्यभिज्ञा दर्शन इनके ज्ञान प्रकाश को हिंदी ने ही अपने पाठकों तक पहुंचाया है । 

 यदि हिंदी और उसकी क्षेत्रीय बोलियां न होती तो क्या हम इस राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना के संतों, कवियों, महात्माओं को जान या समझ पाते। 

आइये समझें हिंदी हमारा परिचय किनसे कराती है?* क्यों उसे भारतीय संस्कृति की संवाहक, समन्वय और संपर्क की भाषा कहा जाता है ? 

हिंदी विज्ञान -प्रोद्योगिकी की भाषा है, कम्प्यूटर की, सोशल मीडिया की, पत्रकारिता की, धारावाहिक की, फिल्म की, रोजगार की, पंडिताई की, पुरोहितों की, सेना की, वोट की, नोट की,रोटी -बेटी की भाषा है।

हिन्दी योग, नियोग, छप्पन व्यंजनों की भाषा है। वह आरत की पुकार, अर्थार्थी की कामना, जिज्ञासु की समाधान और ज्ञानी के विज्ञान की भाषा है। हिंदी पुरुषार्थ चतुष्टय की भाषा है।

हिंदी मां,मामा- मामी, ताऊ, ताई, चाचा, चाची, काका,काकी,नाना, नानी, मौसी, मौसा, भतीजा , भतीजी, नाती , नातिन, परदादा, ताऊ के पृथक-पृथक सम्बन्धों के पहचान की भाषा है।

 देश में समन्वय की, विदेश में प्रवासी-अप्रवासियों के पहचान और अस्तित्व बचाने की भाषा है।

  तात्पर्य यह कि हिंदी भाषा ही नहीं भारत के धरोहर की वाहिका है। हिंदी विभिन्न प्रान्तों की भाषाओं से संवाद कराती है। हिंदी जनों से संपर्क करती है। साहित्य के माध्यम से उत्सवों, पर्वों का समन्वय कराती है। 

वह कुछ की मातृभाषा है, तो कुछ की क्षेत्रीय भाषा है, तो कई राज्यों की राज्य भाषा है, देश के लोक-जन की संपर्क भाषा है, तो संविधान की राजभाषा है। देवता, मनुष्य, राक्षस और यक्षों की राष्ट्र भाषा है।

भारत के भाल की बिंदी! हे भारती! हे वाग्देवी!
भारतीयों को वैश्विक कल्याण के लिए सदैव तत्पर रखें।
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* उत्तरप्रदेश, पंचनद, हरियाणा के संत और भक्त: महात्मा बुद्ध, स्वामी रामानन्द, संत कबीर, बल्लभाचार्य, भक्त कुंभनदास, भक्त सूरदास, संत तुलसीदास, मलूकदास, मधुसूदन सरस्वती, संत आपा साहब, संत शिवनारायण। संत नामदेव, संत बेनी, साईं झूलेलाल, संत शादाराम साहेब,श्री गुरु नानकदेव श्री गुरु अर्जुनदेव, श्री गुरु हरि गोविन्द जी, श्री गुरु तेग बहादुर जी, श्री गुरु गोविन्द सिंह जी, संत रोहल, स्वामी श्रद्धानन्द जी। संत गरीबदास, भक्त जैतराम जी, संत चरणदास, संत घीसादास, राधास्वामी, स्वामी नितानंद, संत परमानन्द, संत मंगतराय को बिना हिंदी को जान पाते?

 राजस्थान, गुजरात महाराष्ट्र के संत: संत पीपा जी महाराज, बाबा रामदेव, संत धन्ना, संत जम्भनाथ, संत हरिदास, मीराबाई, संत सोढीनाथी, सहजोबाई, संत दबाबाई, संत फूलीबाई, संत दादूदयाल, संत सुन्दरदास, संत दरिया साहब, संत हरिराय दास, संत रायदास, महर्षि नवल महाराज। भक्तिन लीरलबाई, भगत नरसी मेहता, संत पद्म नाथ, संत माण्डण, संत अखा, कच्छी संत मेकरण दास, स्वामी सहजानंद, स्वामी मुक्ता नंद, संतमूलदास, महर्षि दयानन्द सरस्वती। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, भक्त सावलामाली, भक्त गोरा कुंभार, संत मुक्ताबाई, संत जनाबाई, संत त्रिलोचन, संत चोखा मेला, संत एकनाथ, भक्तिन कान्होपात्रा, संत तुकाराम, समर्थ रामदास, संत तुकडो जी महाराज।
 मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड के संत: संत सींगाजी, संत सेन, स्वामी प्राणनाथ, संत घासीदास, गहिरागुरु। 
 बंगभूमि, प्राग्ज्योतिष क्षेत्र, उड़ीसा के संत: महावीर स्वामी, संत धरनी दास, संत दरिया साहब, महर्षि मेहदी दास परमहंस , चैतन्य महाप्रभु, बाउल संत जगबंधु सुन्दर दास, श्रीराम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी प्रणवानन्द ।माधव कंदली, श्रीमंत शंकरदेव, श्री माधव देव, रानी रापुईलियानी, रानी माँ गाइडिल्यू, श्री तालीम रुकबो, संत जयदेव, भक्त दासिया बाहरी शुद्रमुलि, सरलादास, भक्त बलरामदास, अच्युतानन्ददास, जगनाथ दास, यशोवन्त दास, भक्त शिश आनन्ददास, संत भीमा भाई के दर्शन कर पाते ?
 आन्ध्र , तमिल , कर्नाटक, केरल, पाण्डुचेरी के संत: साधु रामानुजाचार्य, कवियित्री मोला, भक्त श्री अन्नमाचार्यलु, संत बेमना, पोतुलुरी बीर ब्रह्मेन्द्र स्वामी, श्री कोंडयाचार्य स्वामी, काव्यकंठ वसिष्ठ गणपति मुनि, सद्गुरु श्री मलयाल स्वामी, अल्लूरी सीताराम राजू , कुन्दकुरु वीरेशलिंगम पन्तुल। नायम्मार संत, भक्त तिरुमूलर, भक्त कारिकाल अम्मैयार, भक्त कण्णपर, संत नन्दनार, भक्त तिरुज्ञानसंबन्धर, भक्त अप्पर, भक्त पन्नकिरिवार, भक्त पोयगौ अलावार, भक्त भूतल आलवार, भक्त पेयालवार, भक्त तिरुमलिसाई आलवार, भक्त नम्मालवार, भक्त मधुरकवि, भक्त कुल शेखरालवार, भक्त पेरियालवार, भक्तिन आण्डाल, भक्त तिरुप्पाण आलवार, भक्त तिरुमंगै आलवार, भक्तिन ओवैयार, भक्त तिरुवल्लुवर, संत कम्बन, भक्तिन अव्वैयार, संत त्यागराज, संत रामलिंगस्वामीगल, महर्षि रमण। श्री अल्लुम प्रभु, भक्ति भण्डरी बसवेश्वर, वैराग्य निधि अक्क महादेवी, श्री मध्वाचार्य, श्री विद्यारण्य स्वामी, दासकूट, संत पुरन्दरदास, संत कनक दास, श्रीमद् शंकराचार्य, निरणम् कवि, चेरुशेरी नंबूतिरि, आचार्य तुंजतु, रामानुजम, एजुतच्छन, कवि कुंचन नंव्यार, श्री नारायण गुरु, श्री चट्टाम्बि स्वमीगल, महात्मा अय्यन्कालि, महाकवि करुप्पन,श्री अरविन्द घोष, श्री माँ को देश कैसे पहचानता? यदि हिन्दी न होती।

Tuesday, 9 September 2025

प्रार्थना

            
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

शुचिता मन्त्र-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्ग तोऽपिवा । 
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यान्तरः शुचिः ॥ 

ॐ सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्त्यादि हेतवे।
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नमः ।।

ईशावास्योपनिषद

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

केनोपनिषद्
छंदोपनिषद 

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राण श्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् अनिराकरणमस्त्व निराकरणं मेऽस्तु । 
 तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु 
 धर्मास्ते मयि सन्तु, ते मयि सन्तु ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 


प्रश्नोपनिषद् 
मुण्डकोपनिषद्
माण्डूक्योपनिषद् 

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । 
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेम
 देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ 
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

ऐतरेयोपनिषद्

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। 
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामृत्यं वदिष्यामि।  सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।  अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ 
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

तैत्तिरीयोपनिषद

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम्  ।
ॐ शान्तिः । शान्तिः शान्तिः ।

श्वेताश्वतरोपनिषद्

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
 सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै। 
ॐ शान्तिः शान्तिः ॥ शान्तिः !!!


बृहदारण्यकोपनिषद् -

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः शान्ति:

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 हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। 
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।15 ॥

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पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह  तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि  योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ||16||
…........................
 वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त  शरीरम् ।
 ॐ क्रतो स्मर कृतः स्मर क्रतो स्मर कृतः स्मर ॥ 17॥
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अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । 
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
…….....

 शिवमानसपूजा

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं 
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्। 
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा 
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥
 सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं 
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्। 
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं 
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।।
छत्रै चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं  निर्मलं 
वीणाभेरिमृदंङ्गकाहलकला गीतं च नित्यं तथा।
 साष्टांग प्रणति: स्तुतिर्बहुविधा होतत्समस्तं मया।।
 सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ 
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
 पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः । 
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वागिरो ।।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ 
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् । 
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व 
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥
….....................
                  अथ ध्यानम् 

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् । वामाङ्कारूढ़सीतामुखकमलमिलल्लोचनंनीरदाभं
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥
              …..................

ध्यानम्

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं
 चारुचन्द्रावतंसं
 रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं 
परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ।
 पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं 
वसानं
 विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं 
पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

..............
मत्स्यं कूर्मं वराहं च वामनं च जनार्दनम् ।
गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं माधवं मधुसूदनम् ॥ 
पद्मनाभं सहस्राक्षं वनमालिं हलायुधम्
गोवर्धनं हृषीकेशं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम् ॥
विश्वरूपं वासुदेवं रामं नारायणं हरिम् ।
दामोदरं श्रीधरं च वेदाङ्गं गरुडध्वजम् ॥
अनन्तं कृष्णगोपालं जपतो नास्ति पातकम्।।
..............
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
 शिवं केवल भासकं भासकानाम् ।
 तुरीयं तमः पारमाद्यन्तहीनं
 प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ॥ ७ ॥ 

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते 
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते । 
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
 नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥ ८ ॥ 

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ 
महादेव शम्भो महेशं त्रिनेत्र ।
 शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
 त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥ ९॥

शंम्भो महेशं करुणामय शूलपाणें 
गौरीपते पशुपते  पशुपाशनाशिन् । 
काशीपते करुणया जगदेतदेक -
स्त्वं हंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ।। १० ।।

 त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे 
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृण विश्वनाथ।
 त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन् ॥ ११॥
             .............

                बालकाण्ड

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।।


भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तः स्थमीश्वरम्।।2।।

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।।

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।।

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।।

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।।7


अयोध्या काण्ड 

 यस्याड्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके 
भाले बालविद्युर्गले च गरलं यश्योरसि व्यालराट् । 
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवर: सर्वाधिप: सर्वदा
 शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभिः श्रीशङ्करः पातुमाम् ॥ 

प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा च मम्ले वनवासदु:खतः ।
 मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंञ्जुल मलमङ्गलप्रदा ॥

 नीलाम्बुजश्यामलकोमलांङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् ।
 पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥


अरण्य काण्ड 
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं 
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् ।

राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभित
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ 


किष्किन्धाकाण्ड

कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ 
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ ।

 मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ।

 ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं 
चाव्ययं 
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा ।

 संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं 
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ।

सुंदर काण्ड
 शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
 ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् । 
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥ १ ॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा । 
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
 सकलगुणनिधान वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥

लंकाकांड 
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
 योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् । 
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
 वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ १ ॥

 शंङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम् ।
 काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं 
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ २ ॥

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम् ।
 खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ ३ ॥

उत्तरकांड 
 केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
 शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्। 

पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं 
बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ।। १ ।।

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ ।
 जानकी करसरोजलालितो चिन्तकस्य मनभृङ्गसंङ्गिनौ ॥ २ ॥

कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्। 
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ॥ ३ ॥

….....................

अथ सप्तश्लोकी दुर्गा

देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ  हि कार्य सिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ।

श्रुणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥

 ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः , अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थ सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । 
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥ 

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । 
दारिद्रधदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥४॥

सर्वस्वरूपे  सर्वेशे  सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥५॥

रोगानशेषानपहंसि  तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां  विपन्नराणां
 त्वामाश्रिता  ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ ६ ॥

सर्वाबाधाप्रशमनं   त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ॥

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सिद्ध कुंजिका स्तोत्र -

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय 
ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।

..................

तत्त्व शुद्धि -
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥ 
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाह।।

 भगवती का ध्यान पञ्चोपचार-

ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । 
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ॥ 

ध्यात्वा देवीं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्य च।
 आधारं स्थाप्य मूलेन स्थापयेत्तत्र पुस्तकम् ॥

(1) शापोद्धार - करें-

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिका देव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा । " -

 इक्कीस इक्कीस बार उत्कीलन हेतु जप करें-

“ ॐ श्रीं क्लीं ह्वीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।"

 (3) मृत संजीवनी विद्या का जप - पुनः मृत सञ्जीवनी विद्या का जप मूल सात-सात बार - निम्नाङ्कित मन्त्र से करें-

'ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसञ्जीवन विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।”

- 4 ) सप्तशती - शाप - विमोचन मन्त्र - एक सौ आठ बार जप करने का विधान है-

'ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूँ ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।

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श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र – संस्कृत श्लोक

॥ ॐ श्री दुर्गायै नमः ॥

॥ईश्वर उवाच॥

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने॥
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भव मोचनी।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥३॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥५॥

 अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।
पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ॥६॥

 अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥७॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥८॥

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ॥९॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥१०॥

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥१२

अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला॥१३॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥
…............



श्री शिव कवच



'ॐ सर्वाय क्षितिमूर्तये नमः। 
ॐ भवाय जलमूर्तये नमः। 
ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नमः। 
ॐ उग्राय वायुमूर्तये नमः।
 ॐ भीमाय आकाशमूर्तये नमः। 
ॐ पशुपतये यजमानमूर्तये नमः। 
ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः।
 ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः।


विनियोगः
ॐ अस्य श्रीशिव-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः अनुष्टप् छन्दः।

श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवता। ह्रीं शक्तिः। रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्।

 श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव-कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगः।
 
ऋष्यादि-न्यासः
श्री ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टप् छन्दभ्यो नमः मुखे । श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवतायै नमः हृदि । ह्रीं शक्तये नमः नाभौ । रं कीलकाय नमः पादयो । श्रीं ह्री क्लीं बीजाय नमः गुह्ये । 

श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे

कर-न्यासः –
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नमः ।

 ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने अनामिकाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।

अङ्ग-न्यासः -
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट् । 

 ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने कवचाय हुं ।  

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने नेत्र-त्रयाय वौषट् । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट् ।  

              ॥ अथ ध्यानम् ॥

वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं काल कण्ठमरिन्दमम् ।
 सहस्र-करमत्युग्रं वंदे शंभुमुमा-पतिम् ॥ 
               ।। मूल-पाठ ।।  

मां पातु देवोऽखिल-देवतात्मा, 
संसार-कूपे पतितं गंभीरे । 
तन्नाम-दिव्यं वर-मंत्र-मूलं, 
धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ १ ॥

 सर्वत्र मां रक्षतु विश्‍व-मूर्ति
र्ज्योतिर्मयानन्द-घनश्‍चिदात्मा । 
अणोरणीयानुरु-शक्‍तिरेकः, 
स ईश्‍वरः पातु भयादशेषात् ॥ २ ॥

यो भू-स्वरूपेण बिभात विश्‍वं, 
पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्ट-मूर्तिः ।
 योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति, 
सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥ ३ ॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा, 
सर्वाणि यो नृत्यति भूरि-लीलः ।
 स काल-रुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादि-भीतेरखिलाच्च तापात् ॥ ४ ॥

 प्रदीप्त-विद्युत् कनकावभासो, 
विद्या-वराभीति-कुठार-पाणिः । चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः, 
प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥ ५ ॥

कुठार-खेटांकुश-पाश-शूल-कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
 चतुर्मुखो नील-रुचिस्त्रिनेत्रः, 
पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ ६ ॥

कुन्देन्दु-शङ्ख-स्फटिकावभासो, 
वेदाक्ष-माला वरदाभयांङ्कः । 
त्र्यक्षश्‍चतुर्वक्त्र उरु-प्रभावः, सद्योऽधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ ७ ॥

वराक्ष-माला-भय-टङ्क-हस्तः, 
सरोज-किञ्जल्क-समान-वर्णः । 
त्रिलोचनश्‍चारु-चतुर्मुखो मां, 
पायादुदीच्या दिशि वाम-देवः ॥ ८ ॥

वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टङ्क-कपाल-ढक्काक्षक-शूल-पाणिः । 
सित-द्युतिः पञ्चमुखोऽवताम् 
मामीशान-ऊर्ध्वं परम-प्रकाशः ॥ ९ ॥

मूर्धानमव्यान् मम चंद्र-मौलिर्भालं ममाव्यादथ भाल-नेत्रः ।
 नेत्रे ममाव्याद् भग-नेत्र-हारी, 
नासां सदा रक्षतु विश्‍व-नाथः ॥ १० ॥

पायाच्छ्रुती मे श्रुति-गीत-कीर्तिः, कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
 वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो, 
जिह्वां सदा रक्षतु वेद-जिह्वः ॥ ११ ॥ 

कण्ठं गिरीशोऽवतु नील-कण्ठः, 
पाणि-द्वयं पातु पिनाक-पाणिः । 
दोर्मूलमव्यान्मम धर्म-बाहुर्वक्ष-
स्थलं दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥ १२ ॥

ममोदरं पातु गिरीन्द्र-धन्वा, 
मध्यं ममाव्यान्मदनान्त-कारी ।
 हेरम्ब-तातो मम पातु नाभिं, 
पायात् कटिं धूर्जटिरीश्‍वरो मे ॥ १३ ॥

ऊरु-द्वयं पातु कुबेर-मित्रो,
 जानु-द्वयं मे जगदीश्‍वरोऽव्यात् । 
जङ्घा-युगं पुङ्गव-केतुरव्यात्, 
पादौ ममाव्यात् सुर-वन्द्य-पादः ॥ १४ ॥

महेश्‍वरः पातु दिनादि-यामे,
 मां मध्य-यामेऽवतु वाम-देवः । 
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे,
 वृष-ध्वजः पातु दिनांत्य-यामे ॥ १५ ॥

पायान्निशादौ शशि-शेखरो मां,
 गङ्गा-धरो रक्षतु मां निशीथे । 
गौरी-पतिः पातु निशावसाने, 
मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्व-कालम् ॥ १६ ॥

अन्तःस्थितं रक्षतु शङ्करो मां,
 स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थित माम् ।
 तदन्तरे पातु पतिः पशूनां,
 सदा-शिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥ १७ ॥

तिष्ठन्तमव्याद् ‍भुवनैकनाथः, 
पायाद्‍ व्रजन्तं प्रथमाधि-नाथः । 
वेदान्त-वेद्योऽवतु मां निषण्णं,
 मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥ १८ ॥

 मार्गेषु मां रक्षतु नील-कंठः, 
शैलादि-दुर्गेषु पुर-त्रयारिः । 
अरण्य-वासादि-महा-प्रवासे, 
पायान्मृग-व्याध उदार-शक्तिः ॥ १९ ॥

 कल्पान्तकाटोप-पटु-प्रकोप-
स्फुटाट्ट-हासोच्चलिताण्ड-कोशः ।
 घोरारि-सेनार्णव-दुर्निवार-
महा-भयाद् रक्षतु वीर-भद्रः ॥ २० ॥

 पत्त्यश्‍व-मातङ्ग-रथावरूथ-
सहस्र-लक्षायुत-कोटि-भीषणम् । 
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनाश्छिन्द्यान्मृडो घोर-कुठार-धारया ॥ २१ ॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानिलार्च्चिर्ज्ज्वलन् त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
 शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् सन्त्रासयत्वीश-धनुः पिनाकः ॥ २२ ॥

दुःस्वप्न-दुःशकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-
दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुःसह-दुर्यशांसि ।
 उत्पात-ताप-विष-भीतिमसद्‍-गुहार्ति-व्याधींश्‍च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥ २३ ॥

        अमोघ शिव कवच 
             (संस्कृत में)

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय ,सकल-तत्त्वात्मकायसर्व-मन्त्र-स्वरूपाय ,सर्व-यंत्राधिष्ठितायसर्व-तंत्र-स्वरूपाय,
 सर्व-तत्त्व-विदूराय ।

ब्रह्म-रुद्रावतारिणे , नील-कण्ठायपार्वती-मनोहर-प्रियायसोम-सूर्याग्नि-लोचनाय भस्मोद्‍-धूलित-विग्रहाय ।

महा-मणि-मुकुट-धारणाय, माणिक्य-भूषणाय ,सृष्टि-स्थिति-प्रलय-काल
-रौद्रावताराय , दक्षाध्वर-ध्वंसकाय ।

महा-काल-भेदनायमूलाधारैक-निलयाय , तत्त्वातीताय, गंगा-धराय ,सर्व-देवाधि-देवायषडाश्रयाय, वेदान्त-साराय ।

त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-
कोटि- ब्रह्माण्ड- नायकायानन्त-
वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्‍ख-
कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-
महा-नाग-कुल-भूषणाय।

 प्रणव-स्वरूपाय, चिदाकाशाय ,
आकाश-दिक्स्वरूपाय,
 ग्रह-नक्षत्र-मालिने सकलाय ।

कलङ्क-रहितायसकल-लोकैक कर्त्रे ,
सकल-लोकैक-भर्त्रे सकल-लोकैक-संहर्त्रे 

सकल-लोकैक-गुरवे ,सकल-लोकैक-साक्षिणे ,सकल-लोकैक-वर-प्रदाय,
 सकल-लोकैक-शङ्कराय।

 शशाङ्क-शेखराय ,शाश्‍वत-निजावासाय ,
निराभासाय ,निरामयाय ,निर्मलाय, निर्लोभाय।

 निर्मदाय, निश्‍चिन्ताय,निरहङ्काराय निरंकुशाय निष्कलंकाय, निर्गुणाय ,
निष्कामाय, निरुपप्लवाय ।

निरवद्याय ,निरन्तराय निष्कारणाय, निरातङ्काय , निष्प्रपंचाय, निःसङ्गायनिर्द्वन्द्वाय , निराधाराय ।

निरोगाय, निष्क्रोधाय निर्मलाय, निष्पापाय ,
निर्भयाय, निर्विकल्पाय ,निर्भेदाय, निष्क्रियाय ।

निस्तुलाय, निःसंशाय ,
निरञ्जनाय , निरुपम-विभवाय,
 नित्य-शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय, परम-शान्त-स्वरूपाय ,
तेजोरूपाय, तेजोमयाय ।

जय जय रुद्र महा-रौद्र ,महावतार महा-भैरव काल-भैरव ,कपाल-माला-धर, खट्वाङ्ग-खङ्ग-चर्म- पाशाङ्कुश-डमरु-शूल- चाप-बाण-गदा-शक्ति- भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ- भुशुण्डी-शतघ्नी-चक्राद्यायुध ।

भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-
कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-
विस्फारित, ब्रह्माण्ड-मंडल ,नागेन्द्र-
कुण्डल, नागेन्द्र-वलय ,नागेन्द्र-चर्म-धर, मृत्युञ्जय, त्र्यम्बक, त्रिपुरान्तक, विश्‍व-रूप, विरूपाक्ष ,विश्‍वेश्वर ,वृषभ-वाहन, विश्वतोमुख !

सर्वतो रक्ष, रक्ष । मा ज्वल ज्वल । महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय- ! 
चोर-भय-मुत्सादयोत्सादय । 
विष-सर्प-भयं शमय शमय । 

चोरान् मारय मारय । 
मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय । 
त्रिशूलेन विदारय विदारय ।
 कुठारेण भिन्धि भिन्धि । 
खड्‌गेन छिन्धि छिन्धि । 

खट्‍वांगेन विपोथय विपोथय । 
मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय । 
वाणैः सन्ताडय सन्ताडय । 
रक्षांसि भीषय भीषय । 

अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय । कूष्माण्ड-वेताल-मारीच-गण-ब्रह्म-
राक्षस-गणान्‌ संत्रासय संत्रासय । 
ममाभयं कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्‍वासयाश्‍वासय । 

नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर 
सञ्जीवय सञ्जीवय क्षुत्तृड्‌भ्यां मामाप्याययाप्याय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय मृत्युञ्जय 
त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।

  ।। इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तरकखण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।।   

चर्पटिमंजरी


चर्पटिमंजरी 

स्तोत्र 

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः । 
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायु ॥

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते । 
प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥

अग्ने वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः । 
करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥२॥

यावद् वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रकतः । 
पश्चाध्दावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः । 
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः ॥४॥

भगवद‍गीता किञ्चितधीता गङ्गाजललव कणिका पीता । 
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्या यमः किं कुरुते चर्चाम ॥५॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् । 
वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् ॥६॥

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः । 
वृध्दस्ताव च्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥७॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् । 
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः । 
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥९॥

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः । 
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥१०॥

नारी स्तनभर नाभि निवेशं मिथ्यामाया मोहावेशम् ।
एतन्मांस वसादि विकारं मनसि विचारय बारम्वारम् ॥११॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः । 
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥१२॥

गेयं ग‍ीता नामसह्स्रं ध्येयं श्रीपति रुपमजस्रम्। नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं देयं दीन जनाय च वित्तम् ॥१३॥

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे । 
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१४॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाध्दन्त शरीरे रोगः । 
यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१५॥

रथ्याचर्पट विरचित कन्थः पुण्यापुण्य विवर्जितपन्थः । 
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥

कुरुते गङ्गा सागर गमनं व्रत परिपालनमथवा दानम्। 
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥

॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं चर्पट पंजरिका स्तोत्रं संपूर्णम् ॥

Sunday, 7 September 2025

अंशु/अंशुमान शब्द का अर्थ/परिचय

* अंश-अंग्रमान आदित्य का नामांतर है।
२. (सो. बहु.) विष्णु के मत में यह पुरुहोत्र का पुत्र है।

३.तृषित नामक देवगणों में से एक है।
..........

1. अंशु-अश्विनों ने इसकी रक्षा की थी (ऋगवेद. ८.५. २६)।

२. कृष्ण तथा बलराम का गोकुल का सला (भा. १०. २२. ३१)।

३. मार्गशीर्ष (अगहन) माह के सूर्य का नाम (मा. १२. ११.४१)।
...........

अंशुमत्- एक आदित्य। इसे किया नाम की स्त्री थी। यह आषाढ़ में प्रकाशित होता है। इसकी १५०० किरणें हैं (भवि. ब्राह्म. १६८)।
 अंशु (२.) तथा यह एक ही हैं।

* असमंजस का पुत्र। पितरों की मानस- कन्या यशोदा इसकी स्त्री है।
 सगर का अश्वमेधीय अश्व ढूंढ लाने के लिये असमंजस ने इसे भेजा।

 मार्ग में इसे इसके पितृव्य कपिलाश्रम के पास मृत पडे हुए दिखे।

 वहीं वह अश्व भी दिखा। 

तब इसने कपिल की स्तुति की। परंतु कपिल ध्यानस्थ था। अतएव उसने इसकी स्तुति न सुनी।

 इतने में उसका मामा गरुड़ वहां आया। भागीरथी के जल के स्पर्श से काम होगा, ऐसा बता कर वह चला गया।

 कपिल जागृत होने के बाद उसने अंशुमान को स्तुति करते हुए देखा।

 उसकी सतुति से संतुष्ट हो कर उसने इसे भागीरथी की स्तुति करने को कहा। 

बाद में यह अश्व ले गया तथा पहले अश्वमेध यज्ञ पूरा करवावा। 

सगर ने तुरंत ही इसे राज्य दिया तथा यह वन में गया। 

इसने भी अपने पुत्र दिलीप को राजसिंहासन पर बिठाया तथा उसे प्रधान के हाथ में सौंप कर भागीरथी के प्राप्त्यर्थ संपूर्ण जीवन तप में बिताने के लिये यह वन में गया। 

परंतु सिद्धि के पूर्व ही इसकी मृत्यु हो गई (म. ब. १०६; वा. रा. बा. ४१-४२)। 

यह शिवभक्त था।

 इसने ३०८०० साल राज किया (भवि. प्रति. १.३१) ।

४. एक अन्य अंशु जो द्रौपदी के स्वयंवर के लिये गया हुआ राजा (म. आ. १७७.१०)। इसे महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य ने मारा (म. क. ४०६७)।

Sunday, 31 August 2025

जैविक खेती की भारतीय अवधारणा

जैविक खेती की अवधारणा और भारतीय संदर्भ (पढ़ते-पढ़ते)

 कृषि में भारतीय संदर्भ की समग्र अभिव्यक्ति के लिए, इसे वैदिक जैविक कृषि कहना उचित होगा । 

जैविक में ‘वैदिक’ शब्द वेद - ज्ञान (समग्र ज्ञान ) को इंगित करता है ।

 ‘वैदिक’ शब्द जोड़ने का अर्थ है, समग्र ज्ञान की संगठन शक्ति को कृषि के क्षेत्र में लागू करना ।

 ‘वैदिक जैविक’ का अर्थ है प्रकृति के पोषक तत्वों से समृद्ध जैविक कृषि।
 
 प्राकृतिक ध्वनियों के पोषण से संरक्षित वे तत्व जो ‘आदित्य’ के ‘पूषा’ स्वरुप से पोषित हैं । 

जैविक कृषि में जोड़ा गया 'वैदिक' तत्व बुद्धिमत्ता की एक परिघटना है।

 समष्टि की चेतना की एक परिघटना है।
 
 प्रकृति की वह रचनात्मक बुद्धिमत्ता की एक परिघटना जो पौधे और उसके भीतर के पोषक तत्वों के विकास के विभिन्न चरणों को संरक्षित और वर्धित कराती है ।

  पारंपरिक कृषि और जैविक कृषि के बीच का अंतर ही वैदिक कृषि है ।

 इससे हमारे द्वारा खाए जाने वाले भोजन में संपूर्ण पौष्टिक मूल्य और संपूर्ण पौष्टिक शक्ति का लाभ मिलता है।

 इसलिए वैदिक जैविक कृषि भोजन की सबसे पौष्टिक गुणवत्ता युक्त तत्वों को प्रदान करती है।

 महर्षि महेश योगी का मानना है, “ पौधे के बीज से अंकुरित होकर पत्तियों, फूलों और फलों में विकसित होने की पूरी प्रक्रिया को सुखदायक संगीत और धुनों से पोषण मिलता पाया गया है; सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों और तारों के बढ़े हुए मौसमी प्रभावों से, और पर्यावरण में सद्भाव और सुखदता के बढ़ते गुणों से। यह अब विश्वव्यापी वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से काफी अच्छी तरह से स्थापित हो चुका है। इस प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए हमारे पास भारत के वैदिक विशेषज्ञ होंगे जिनकी पारंपरिक धुनें और वैदिक पाठ सबसे प्रभावी हैं।”

 इस वैदिक कृषि की मूल अवधारणा को और स्पष्ट समझने के लिए भोजन करने के पूर्व बोले जाने वाले कुछ मन्त्रों को समझना चाहिए- 
 (i) ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।’ 
मंत्र की अभिव्यक्ति में हम ध्यान करते हैं कि भोजन स्वयं ब्रह्म है, जिसे अग्नि में आहूत किया गया है, और इसका सेवन करने वाले का भी लक्ष्य ब्रह्म में लीन होना है। यह भोजन को एक पवित्र कर्म के रूप में देखता है।

 (ii) ‘ॐ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै । तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्‌विषावहै ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥’ 
 भाव यह कि हम सब साथ में रक्षा करें, साथ में भोजन करें, साथ में बलशाली बनें, हमारे अध्ययन तेज हों, और हम एक-दूसरे से द्वेष न करें।

 (iii) ‘अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे। ज्ञान वैराग्य सिद्धार्थं भिक्षां देहि च पार्वति।।’
 यह देवी अन्नपूर्णा से अत्यंत महत्वपूर्ण प्रार्थना है जिसमें अन्न्मय कोष से आनंद मय कोष की सम्पूर्ण अवधारणा निहित है।

 इसमें स्पष्ट है कि भोजन का अंतिम लक्ष्य भूख मिटाना नहीं है। 
अत: यहाँ अन्नपूर्णा भगवती से ज्ञान व वैराग्य के लिए भिक्षा प्रदान करने की प्रार्थना है ।

यही भारतीय वैदिक जैविकी है।

Saturday, 30 August 2025

मूल्यवान यह दौर है

मूल्यवान यह दौर है रखें स्वयं को स्वस्थ्य।आदर्श अखंड दैदीप्यमान बने रहें ध्यानस्थ।।
भोग प्रबल माया सबल करते मन को खंड। योगाभ्यासी भारतवर्ष रहे अखंड - प्रचंड।।

Thursday, 14 August 2025

अखंड भारत संकल्प दिवस

रक्षाबंधन एवं अखंड भारत संकल्प दिवस

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और रक्षाबंधन  

सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने के लिए डॉ हेडगेवार जी द्वारा १९२५ में नागपुर के मोहिते के बाड़े में पहलीवार शाखा प्रारम्भ की गई।
 किसी भी संगठन को सतत चलाने और जीवंत बनाये रखने के लिए कुछ नित्य और कुछ नैमीत्तिक व्यवहार रखने पड़ते हैं ।
 संघ ने प्रारम्भ में दो प्रकार के कार्यक्रम तय किये । एक स्थाई व्यवस्था नियमित एक घंटे की शाखा । फिर समाज को जोड़ने, अतीत के वैभव को स्मरण करने, सामाजिक समरसता बनाये रखने के निमित्त वर्ष में छह कार्यक्रम तय हुए । उनमें से एक कार्यक्रम है रक्षाबंधन ।
 
 सामाजिक समरसता का कार्यक्रम : यह सामाजिक समरसता का कार्यक्रम है । हम सब जानते हैं की यह उत्सव हिन्दू समाज के सभी वर्गों, घटकों में मनाया जाता है । इस कार्यक्रम से समाज में समबन्धों की नीव तैयार होती है । बंधुता का भाव बढ़ता है । हम सब सहोदर है, यह भावना विकसित होती है । एक दूसरे के दुःख सुख में सरीक होने का भाव जागृत होता है । हिन्दव: सोदर सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत् का बोध होता है । 
फिर हमारे जीवन व्यवहार में धीरे-धीरे परिवर्तन आता है । सामान्य रूप से इसे वर्षों से भाई बहन के रिश्तों को लेकर माना जाता था । इसके पौराणिक उदहारण भी हैं तो मुग़ल काल के भी हैं । उन्हें हम सब जानते हैं । 
 यह समाज में भारत के लिए माता-पुत्र की सुरक्षा के लिए भारत माता की प्रतीक स्वरुप रक्षा बंधन करते हैं । यह राष्ट्र के लिए आश्वाशन बना । भगवा ध्वज को गुरु मानकर रक्षा सूत्र बंधाते है । मंदिरों में जाकर आराध्य देव को रक्षा सूत्र बंधाते हैं । राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ ने इसे व्यक्तिगत और पारिवारिक आयोजन से आगे लाकर सामजिक और राष्ट्रीय स्वरूप दिया ।
 
संघ में रक्षाबंधन उत्सव सामूहिक जागरण के लिए होता है । इस दिन को वंचित, दलित, पिछड़ी, उपेक्षित वस्तिओं में जाकर उन्हें रक्षा सूत्र बंधार उनके सुरक्षा, समृद्धि और स्वास्थ्य का आश्वाशन देते हैं ।
उनको समाज और राष्ट्र की सेवा, संस्कृति के संरक्षण के लिए जागृत करते हैं ।
 इसके परिणाम हम संघ की इस सौ वर्ष की यात्रा में जगह जगह पड़ाव के रूप में देख सकते हैं । 
मीनाक्षी पुरम की सामूहिक धर्मान्तरित बंधुओं की घर वापसी । विवेकानद केंद्र के निर्माण के समय ईसाई मछुआरों द्वारा उत्पात मचाने पर इन्हीं सेवा वस्ती में रहने वाले नाविकों ने संघर्ष किया और केनीमेरी और क्रास को शिला से हटाया । 
 मोरबी की दुर्घटना हो या आपातकाल सब में समरस समाज के बंधुओं ने इन्हीं उत्सवों से प्रेरणा लेकर अपना योगदान दिया ।
   धागा एक रक्षा सूत्र: यह प्रेम का धागा है तो रक्षा का अश्वाशन भी । तात्पर्य यह की यह मात्र सूत्र नहीं रक्षा सूत्र है । कठिन समय में व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति, भाई का बहन के प्रति, माता का पुत्र के प्रति और पुत्र का माता के प्रति, परिवार का समाज के प्रति, समाज का राष्ट्र और संस्कृति के प्रति धर्माधारित यह आश्वाशन है, संकल्प है । 
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय । टूटे से फिर जुड़े नहीं जुड़े गांठ पद जाय ।।    
आइये इस गाँठ के उलझाते और सुलझाते स्वरुप को समझें -
अखंड भारत संकल्प दिवस
अखण्ड भारत का क्षेत्र:
 ‘उत्तरंयत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम्।’ उत्तर पूर्व पश्चिम में हिमालय की सभी शाखाओं से लेकर दक्षिण में समुद्र तक। नदियों की सीमा देखें तो - कूमा (काबुल नदी ), क्रुमू (कुरम नदी),गोमल (गोमती नदी),स्कात (सुकस्नू), अक्षु-वक्षु (Oxus), सिंधु, शतद्रु (सतलुज), ब्रह्मपुत्र (तीनों तिब्बत में), ऐरावत (वर्मा में), सरलवीन, मीकांग ( गंगा) के जल-ग्रहण क्षेत्र ये सब अखण्ड भारत के अंग रहे हैं।
 इस में बलोचिस्तान, अफगानिस्तान (उप-गणस्थान), सीमाप्रांत (राजधानी: पेशावर अर्थात् पुरुषपुर), सिंध, पश्चिमी पंजाब, बंगलादेश, ब्रह्मदेश, श्याम, इण्डो-चाईना, कंबोज (कंबोडिया), वरुण (बोर्नियो), सुमात्रा तथा तिब्बत के क्षेत्र आते हैं।

आज अंग्रेज तारीख १४ अगस्त है । अगस्त १९४७ से २०२५ की यात्रा का दिन ।
 अखंड भारत क्या है ? इसे कैसे देखेना चाहिए ? १८७६ के पूर्व का भारत : जिसमें अफगानिस्तान (1876), नेपाल (1904),, तिब्बत(1914 ), ब्रह्मदेश (1937 ), और पाकिस्तान (1947), थे।  
वर्तमान विभाजन त्रासदी क्यों ?
* १४ अगस्त बारह बजे की रात्रि । १४ अगस्त भारत माता का अंग भंग और पकिस्तान का विखंडित हिस्सा बनाना ।  
* 14 अगस्त ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ उन सभी की याद में जिन्होंने विभाजन के कारण अपनी जान गंवाई। 
* विभाजन के कारण: विभाजन के पीछे कई कारण थे, जिनमें धार्मिक मतभेद, मुस्लिम लीग की अलग राष्ट्र की मांग, और
* ब्रिटिश सरकार की नीति शामिल थी । क्रांतिकारियों के असंख्य बलिदान, संघर्ष और जीवन गाथाएँ केवल इतिहास की जानकारी नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए चरित्र, साहस और राष्ट्रनिष्ठा की प्रेरणा-स्रोत हैं।
*  इसलिए इस विरासत को शिक्षण में जीवंत, भावनात्मक और प्रेरक रूप में प्रस्तुत करना राष्ट्रीय चेतना के लिए अनिवार्य है।
*  सामाजिक जीवन मूल्यों, समरसता, प्रेरक जीवन जीने के लिये अति आवश्यक है। 
* अन्यथा समाज भ्रम, अज्ञान और स्वार्थ के दावानल के भँवर में अटल जायेगा।
* अल्प नेतृत्व और कमजोर समाज के माहौल, ब्रिटिश चालाकी, सांप्रदायिक दंगे, रणनीतिक चूक, और सैद्धांतिक अहिंसा—ये सभी मिलकर विभाजन की दिशा में काम करने वाले प्रमुख तत्व थे।
* मुस्लिम लीग की सामूहिक रणनीति को लोहिया खासतौर पर दोषी मानते हैं।
* हिंदू अहंकार और जनता की जागरूकता की कमी। ये दो ऐसे अंदरूनी कारक हैं।
* इनकी विवेचना अक्सर कम होती है, लेकिन लोहिया इसे अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं।
* कम्युनिस्ट या दक्षिणपंथ की भूमिका को लोहिया प्रभावहीन बताते हैं,उनकी नीतियाँ विभाजन में निर्णायक नहीं थीं।
क्यों कर रहें है स्मरण :
• स्वतंत्रता: 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान और 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता मिली ।
• भारतीय इतिहास में 14 अगस्त मात्र एक तारीख नहीं, एक त्रासदी है।देश के विभाजन और उसकी त्रासदी के शिकार लोगों के दर्द को याद कर संवेदना व्यक्त करने का दिन है।
• इस दिन कांग्रेस ने देश को टुकड़ों में बाँटकर माँ भारती के स्वाभिमान को चोट पहुँचाई।विभाजन के कारण हिंसा, शोषण और अत्याचार हुए, और करोड़ों लोगों ने विस्थापन झेला।
• उन सभी लोगों के प्रति मन की गहराई से श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए ।
• देश विभाजन के इस इतिहास और दर्द को आनेवाली पीढ़ी को स्मरण दिलाने के लिए ।
• भारत विभाजन की अमानवीय वेदना वह पीड़ा हमारी स्मृति है और हमारी सीख भी है।

फिर से कोई मुस्लिम लीग न बने -
*  मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग ने लाखों लोगों को विस्थापित कर दिया, यह विस्थापन कोई सामान्य नहीं था। 
*  हजारों-हजार लोगों का जनसंहार हुआ, महिलाओं के साथ जघन्यतम अपराध हुए- उस दौर में भारतीय उपमहाद्वीप में मानवता त्राहिमाम कर उठी।
*  लेकिन अंग्रेजों की शातिराना कोशिशों तथा मुस्लिम ‌लीग के सांप्रदायिक एजेंडे ने आधुनिक काल में मनुष्यता पर विभाजन द्वारा बड़ा संकट खड़ा किया।
*  सन् 1905 में बंगाल के धर्म आधारित विभाजन के बाद से ही विभाजन की कुत्सित रूपरेखा बनना शुरू हो गई थी, विभिन्न इतिहासकारों ने अंग्रेजों के इस कदम को भारत विभाजन के बीज के रूप में देखा है। 
*  वहीं विभाजन के जिम्मेदारों पर बात करते हुए समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने अपनी किताब 'गिल्टी मेन ऑफ़ पार्टिशन' में लिखा है कि कई बड़े कांग्रेसी नेता जिनमें नेहरू भी शामिल थे वे सत्ता के भूखे थे जिनकी वजह से बँटवारा हुआ।
* वर्तमान भारत सरकार 14 अगस्त के दिन को 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' के रूप में मनाने की घोषणा की। 
* नरेन्द्र मोदी जी ने कहा “देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। * नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी।
*  राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ जब शताब्दी वर्ष मना रहा है तो यह स्वाभाविक है की वह अपने अखंड भारत के संकल्प को दुहरायेगा ।
*  नए “पाकिस्तान” में अल्पसंख्यकों, जिनमें बौद्ध, सिख और हिंदू शामिल थे, को देश छोड़ने के लिए कहा गया।
*  कई जिहादियों ने कई मौकों पर महिलाओं के साथ बलात्कार किया। उन्होंने पुरुषों और बच्चों को मार डाला।
 * दिल्ली पहुंचने पर लाशों से लदी ट्रेनों पर बलात्कार की शिकार महिलाओं के शवों पर।“आज़ादी का तोहफ़ा” लिखा हुआ था। 
* मृतकों की संख्या इतनी ज़्यादा थी कि दिल्ली की स्थानीय सरकार कई लोगों के अंतिम संस्कार की योजना नहीं बना पाई। 
* जब उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचा, तो उन्होंने मृतकों को एक समतल जगह पर इकट्ठा किया, उन पर मिट्टी का तेल छिड़का और आग लगा दी। उस समय, दोनों तरफ़ तबाही मची थी।
*  यह दिन हमें भेदभाव, वैमनस्य और दुर्भावना के जहर को ख़त्म करने के लिए न केवल प्रेरित करेगा, बल्कि इससे एकता, सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनाएं भी मज़बूत होंगी।"
*  तत्कालीन अविभाजित भारत के विभिन्न हिस्सों में 1946 तथा 1947 के दौरान हुई हिंसा तथा दंगों की व्यापकता और क्रूरता ने मानवता पर जो प्रश्नचिन्ह लगाया है, उसका उत्तर आजतक नहीं मिला।
* विभाजन के दौरान हिंसा की सनक न केवल किसी का जीवन ले लेने की थी बल्कि दूसरे धर्म की सांस्कृतिक और भौतिक उपस्थिति को मिटा देने तक की भी थी। 
* विभाजन के बाद जो हिंदू, सिख भारत आए उन्हें अनेक विषमताओं का सामना करना पड़ा।
*  लेकिन भाषाई, भौगौलिक तथा सामाजिक विषमताओं की सीमा को लांघ अपनी मेहनत के बलबूते ये नागरिक भारत के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
* एक आधुनिक लोकतंत्र के नागरिक के रूप में व्यवहारिकजीवन में अन्यों  के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल पड़े।
*   पाकिस्तान तथा बांग्लादेश में जो अल्पसंख्यक रह गए थे, उनके साथ बाद के वर्षों में हुई ज्यादतियां किसी से छिपी नहीं हैं। 
*  इतिहास पर सरसरी नजर डालने पर ऐसा लगेगा कि भारत का विभाजन जल्दबाजी में लिया गया निर्णय था।
* लेकिन करीब से देखने पर पता चलेगा कि इसकी योजना लंबे समय से बनाई जा रही थी।
* भारत को समझने के लिए इस देश की ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक एकता को समझना आवश्यक है।
*  दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक भारत की सभ्यता है।
*  मुगल आक्रमणों के बाद अखंड भारत का सपना अतीत की बात हो गया।
* क्योंकि कई भारतीय रियासतों ने लंबे संघर्ष के बाद अपना अधिकार खो दिया। 
* इसी दौरान ब्रिटिश व्यापारी भारत में आए और इतिहास की दिशा को स्थायी रूप से बदल दिया। 
* अंग्रेजों ने भारत की अखंडता पर विनाशकारी प्रहार किया।
*  भारत को दो देशों में विभाजित करने के अलावा शेष राज्यों की अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्थाएं थीं। 
करना क्या है- 
• अखंड भारत का संकल्प लेना है।
• देश के इस विभाजन की विभीषिका को भावी पीढ़ी को स्मरण दिलाना है ।  
• राष्ट्र सर्वोपरि को जीवन में उतारना है।  
• टैरिफ बम का तोड़ने के लिए स्वदेशी को अपनाना है । 
• 1947 में धर्म के आधार पर हुआ देश का विभाजन भारतीय इतिहास का एक अमानवीय और काला अध्याय है ।   
• यह देश में दुबारा न दुहराया जाए । संकल्प लें।
• अखंड भारत के स्वप्न को साकार करें । 
• विभाजन सिर्फ भूगोल का नहीं, मानवता का बंटवारा था।

 विभाजन का उत्तर है- 
*  स्मरण रखना होगा राजनीतिक सीमाएं कभी स्थिर नहीं।
* आलसेस लारेन जर्मनी तथा फ्रांस के बीच का प्रांत है। पहले नेपोलियन ने इसे फ्रांस में मिलाया, फिर प्रशिया जर्मनी
 ने। यह प्रांत 1944 में पुन: फ्रांस में मिल गया। 
* 1918 तक पोलैण्ड का कोई अस्तित्व नहीं था। 
* इस्राइल सैकड़ों वर्ष बाद स्वतंत्र यहूदी देश बना। 
* चीन के पास 1650 से पहले केवल 31 लाख वर्ग मील भूमि थी अब 54 लाख वर्ग मील है।
* रूस (Russia) आज 87 लाख वर्ग मील भूमि का स्वामी है, पहले कुल 21 लाख थी। 
* दोनों जर्मनी मिल चुके हैं। 
*  पाकिस्तान का पहले पूर्वी बंगाल पर भी अधिकार था। अब कट चुका है।
*   भारत की सीमाएं भी बदलेंगी। 
*  भारत विभाजन एक समझौते था , जो स्थाई नहीं है।इस बात को श्री अरबिंदो, श्री गुरूजी,राम मनोहर लोहिया आदि ने बार बार कहा है।


 बिना रक्तपात परस्पर सद्भाव से अखण्ड भारत संभव है-
‘पंद्रह अगस्त का दिन कहता आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,रावी की शपथ न पूरी है॥
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन गुलामी का साया॥
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है॥
थोड़े दिन की मजबूरी है॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुन: अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक आज़ादी पर्व मनाएँगे॥
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करें॥
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे,
गिलगित से गारो पर्वत तक आज़ादी पर्व मनाएँगे।’
14/8/25