Tuesday, 22 July 2025

यह महाभारत काल नहीं

(आदरणीय आप परिश्रम के साथ मंथन कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्रियों के कार्य के आंकलन में मेरे मत में कुछ जल्दी है। अभी लालबहादुर शास्त्री हैं। )

दरअसल यह महाभारत काल नहीं है।
महाभारत में पारिवारिक कलह थी। किंतु उससे महाभारत जैसा ग्रंथ (विचारों का अमृत निकला)। वहां कृष्ण थे।

त्रेता में मानवी और राक्षसी वृत्ति की लड़ाई थी। इससे वाल्मीकि जैसा चौदह भुवन और अनंत काल की राम की (शक्ति की), सीता की (शील की ) त्याग, शौर्य,तेज,ओज, वीर्य,दान, क्षमा की कथा आई। वहां राम थे।

अब कलियुग है। युगानुकुल कलियुग में चारों स्तंभ कार्य कर रहे हैं। दरअसल कृतजुग, त्रेता, द्वापर के युगों की सफलता -असफलता, कुटिलता -सज्जनता, सत-असत ,छल - प्रपंचों की अभिव्यक्ति है।

 यहां क्षीरसागर है पर विष्णु अनुपस्थिति हैं। यहां दंडकारण्य है किन्तु दंड देने वाले राम नहीं हैं। यहां कुरुक्षेत्र है,परंतु सुदर्शनधारी कृष्ण नहीं हैं।

 हो भी नहीं सकते। काल के प्रवाह में वे पुनः अपने युग की स्थापना में साधना लीन होंगे। 

यह युग सतजोजन पार ही नहीं,चौदह भुवनों की खोज में है। यहां साइंस है, विज्ञान नहीं। यहां सफलता है, चरितार्थता नहीं । 

ध्यान रखना होगा सबसे कम अवधि का युग है। युवा है, चंचल है, उद्यमी है। तामसी ज्यादा, राजसी कम और सात्विक तो मृग मरीचिका या स्वाती नक्षत्र की बूंद है। सत, रज तम इसमें उल्टे क्रम से आते हैं।

 इस युग में अमृत पीकर विष का समन नहीं, विष पीकर ही विष का उत्सर्जन होता है।

यहां देव नहीं, दानव नहीं, राक्षस नहीं, भालू -रीछ नहीं। यहां एक अकेला मनुष्य है, जिसमें सब बसते हैं। 
भला इससे अच्छा युग होगा? 
यह 75 के बाद की प्रवृत्ति का युग है, निवृत्ति का नहीं। यहां ब्रह्मचर्य नहीं, वानप्रस्थ नहीं, संन्यास नहीं। केवल गृहस्थ है, जिसमें तीनों उपस्थित और अनुपस्थिति हैं।

यहां हिमालय में ऋषि नहीं, टनल, बृज, पुल और खदानें हैं।
यहां गंगा और आकाश गंगा नहीं, तट, घाट,पाट नहीं। यहां धारा है, नाव है पर केवट नहीं, पतवार नहीं।
यहां वोट से लेकर रोबोट हैं।

विश्वामित्र, वसिष्ठ नहीं, परशुराम नहीं अनेक ऐषणाओं को पाले पालक हैं , देव नहीं रामदेव, वामदेव, सत्यदेव,वामाचार्य हैं, शंकराचार्य हैं किन्तु 'शंकर' नहीं हैं। 

 सरिता कम , नाले ज्यादा है। कंदरे कम,  खोह ज्यादा हैं। यहां साधना यत्र-तत्र, चमत्कार सर्वत्र हैं।

यहां रुद्र नहीं रुद्राक्ष पूजे- बांटे जाते हैं। नंदी बेल पत्र, धतूरा नहीं, जल, जंगल, जमीन खाते हैं ।

यह कृतयुग नहीं है। यहां कपोत का मांस भक्षण किया जाता है, कपोत के बदले मांस नहीं दिया जाता। 

इन सबके बावजूद यह कृतयुग के लिए भविष्य की पगडंडी है। रास्ता है। 

इंद्र-विष्णु, राम, कृष्ण इसी रास्ते से आयेंगे। विष - अंमृत बंटेगा। रावण मरेगा, कंश मिटेगा।

बस तब तक चार्वाक से लेकर पतंजलि तक आस्तिक -नास्तिक दर्शनों का मंथन कर द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत में गोता लगाते रहें।

यदि वैदिक काल गणना में विश्वास करें तो प्रत्येक युग की भांति अंतिम पांच हजार वर्षों में कृतजुग की नींव रखने वाला कोई 'पुरुषोत्तम नवीन' आयेगा। (पुरुष -स्त्री वाला पुरुष नहीं)।

तब तक सत्ताशीर्ष का आंकलन अनंतिम रखना चाहिए।

चलिए बात महाभारत से उठी थी उसी में समाप्त करते हैं। लब्धि आसन में नहीं,  शीर्षासन में है। 

"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।"  (15.1/गीता)

फिर भी लेखन जारी रहे। कुछ चीजें मस्तिष्क को मथती हैं, फिर अमृत निकले या विष।

1 comment:

  1. शिखर पर पहुंचने के बाद तो पीछे ही लौटना होगा , तब जहां छूटे हुये प्रकाश स्रोत होंगे पुनः दैदीप्यमान कर सकते हैं
    ...... संभवतः

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