Monday, 13 April 2020

प्रणाम प्रेरणा पुरुष को

हे दिव्यात्मा ! 
जब तक मैं तुम्हारे पास 
करता जाने का प्रयत्न
तुम्हारे भव्य मूर्ति पर 
चढ़ चुकी थीं 
अनेक मालाएं।

मैं तो परिचित था
तुम्हारी उस उपेक्षित बस्ती से
जहां संघर्ष था
धनी-निर्धन का
श्रम की अनथक साधना से 
मिट रहा था यह भेद सीढ़ी- दर -सीढ़ी।

किंतु शब्द रहित पदचापों के साथ
न जाने कब तुम्हें छू कर
धन-बली-पशु ने
अस्पृश्य बना
एक माला चढ़ा दिया ?

मैं लगता तुम्हारे गले 
तोड़ता उपेक्षित के कवच को
खोलता अस्पृश्यता की अर्गला को
पाता प्राणों से प्राणों की
महक
न जाने अमूर्त-धूर्त सत्ता ने
कब चढ़ा कर दलित की माला
खड़ी कर दी अभेद्य दीवार!! 

दलित की इस सीढ़ी ने
दिए
तुम्हें अनेकों सर्वनाम
संसद- भवन से लेकर 
हर चौराहे पर 
तुम्हें खड़ा कर दिया अकेले,
उस बस्ती से पृथक
जहां तुम्हारी देही का अस्तित्व था।।

आज उसी दलित के नाम पर
तुम्हारे कंधे का सहारा लेकर
न जाने कितने रंगों ने तुम्हारे बहुरंगी
व्यक्तित्व को बांध दिया नीले रंग की एक स्वार्थी माला में!!

बांध दिया तुम्हारे 
समुद्र के ,
अग्नि के ,
आकाश के,
जल के ,
असीम नीलिमा को।।

स्मरण दिलाता था जो
राम-कृष्ण-बुद्ध के नीले
विराट-आनन की अक्षत-आभा को।।

भ्रमित हो गयीं 
वे उपेक्षित बस्तियां
निर्धन समाज 
आज दलित की आत्मघाती सत्ता-संवेदना में।।

मेरे नायक
तुम कहां हो
मुझे नहीं ज्ञात 
पर विश्वास है समय के साथ
तुम फिर से आकर एक वार
इस दलित के सत्ता कवच को अवश्य उतार फेकोगे!!!

त्राण का अपेक्षित समाज
उस दिन हो सकता है
अपने विशाल सनातनी-हिन्दु समाज में एकात्म ।।

सूख सकती हैं 
तुम्हारे व्यक्तित्व में
थोपी गई
डाली गई
गले में
दलित , अस्पृश्यता
की क्षद्म मालाएं।।

प्रतीक्षा के साथ 
हे महामानव!!
तुम्हें  कोटि-कोटि अभिनन्दन .....


(14/04/2020
भोपाल)

9 comments:

  1. सुंदर शब्दों से पहनाया गया हार आपकी सच्ची श्रद्धांजलि है ! आपने एकदम सही बात लिखी है, मैं भी सादर नमन करती हूँ उस गौरवमयी महामानव को ! अभिनन्दन !

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  2. सत्य का दर्शन कराती कविता।
    इस पर भी यह अति विशेष

    "मेरे नायक
    तुम कहां हो
    मुझे नहीं ज्ञात
    पर विश्वास है समय के साथ
    तुम फिर से आकर एक वार
    इस दलित के सत्ता कवच को अवश्य उतार फेकोगे!!!"

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  3. सत्य का दर्शन कराती कविता।
    इस पर भी यह अति विशेष
    "मेरे नायक
    तुम कहां हो
    मुझे नहीं ज्ञात
    पर विश्वास है समय के साथ
    तुम फिर से आकर एक वार
    इस दलित के सत्ता कवच को अवश्य उतार फेकोगे!!!"

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  4. आज के परिपेक्ष में एकदम सार्थक विचार अभिव्यक्त हुए हैं इस कविता में आज जरूरत है एक महामानव की जो समाज की बढ़ती इस दूरी को कम कर एक सनातनी समाज की स्थापना करें

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  5. मैंने आज तक इन भावों और अनूठे शिल्प से गुंफित कविता बाबा साहेब पर नहीं पढ़ी। आपको हार्दिक बधाई इस कविता के लिए और साधुवाद कवि होने के लिए।

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  6. प्रेरक भाव तथा सशक्त शिल्प से सुसज्जित उद्गार।
    बाबा साहेब की पुण्य स्मृति को श्रद्धा नमन।
    सार्थक सृजन हेतु अभिनंदन!

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  7. Sadar naman wa abhinandan .Baba saheb par itni sudar padha rachna sathik avivyakti sath pahli baar padhi. DHANYABAD

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