Wednesday, 15 April 2020

प्रार्थना

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काली रात
अदृश्य हाथो से
बुन रही है
मकड़ी-सा मृत्यु-जाल।।

बाराह- मुंह 
श्वेत-श्याम-देशों से 
लाया गया 
पीड़ा-प्रवंचना -पहाड़ का
आत्मघाती-सूत-लाल ।।

शहादती-इबादत ने ! 
चोर मुद्रा में
धर्म-निरपेक्षता का
मुखौटा /बुर्का पहन
अस्थिर-अराजक -खंद में
 देश को दिया डाल ।

भूख-हड़ताल से 
यमराज-भैंस की 
विद्रूप दस्तकारी ने
अमावस की रात
अपने ही घर
बुन दिया ग्रहण जाल ।।

गहन-तमस-गुफाओं में
निर्द्वन्द्व- निर्भय -चेतना का 
अरुण-शुभ्र- प्रकाश भर !!
हो सके मुक्त विश्व
अज्ञात भय- विषाद से
ब्रम्हांड में जय नाद हो
हे भुवनेश्वर ! 
 हे महाकाल!!

प्रो.उमेश कुमार सिंह
(16/04/2020)
भोपाल

4 comments:

  1. समसामयिक, प्रभावी कविता। साधुवाद।।

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  2. बहुत ही अच्छा

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