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काली रात
अदृश्य हाथो से
बुन रही है
मकड़ी-सा मृत्यु-जाल।।
बाराह- मुंह
श्वेत-श्याम-देशों से
लाया गया
पीड़ा-प्रवंचना -पहाड़ का
आत्मघाती-सूत-लाल ।।
शहादती-इबादत ने !
चोर मुद्रा में
धर्म-निरपेक्षता का
मुखौटा /बुर्का पहन
अस्थिर-अराजक -खंद में
देश को दिया डाल ।
भूख-हड़ताल से
यमराज-भैंस की
विद्रूप दस्तकारी ने
अमावस की रात
अपने ही घर
बुन दिया ग्रहण जाल ।।
गहन-तमस-गुफाओं में
निर्द्वन्द्व- निर्भय -चेतना का
अरुण-शुभ्र- प्रकाश भर !!
हो सके मुक्त विश्व
अज्ञात भय- विषाद से
ब्रम्हांड में जय नाद हो
हे भुवनेश्वर !
हे महाकाल!!
प्रो.उमेश कुमार सिंह
(16/04/2020)
भोपाल
समसामयिक, प्रभावी कविता। साधुवाद।।
ReplyDeleteबढिया।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा
ReplyDeleteअतिउत्तम
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