घर के सामने
रोज अपने दरवाजे से
बिखरे तिनके-तिनके को
बुहार कर
पड़ोस और अपने घर की
सीमा रेखा में
इकठ्ठा कर पड़ोसन
झाड़ू झिटक
कमर सीधी कर
एक जंग जीत लेती है।
कल सुबह फिर वही बुहारे
घांस-फूस के तिनके
सर उठा ओंठ बंद कर
निमीलित पलकों के कोने से
उसके झाडू से अपनी पीठ सहलाने का
इंतजार करते हैं।
मैं सोचता हूं
प्रभु ! यह दो अबोध प्राणमयी संज्ञाओं के बीच का खेल
तुम कब खत्म करोगे?
शायद नहीं भी करो!
आखिर तुम्हें जो दोनों के अहंकारों को रोज ही तुष्ट करना है।
प्रतीक्षा है तुम्हारे बड़े सींक और नोक बाले झाड़ू की
जब समष्टि में तुम एक साथ बुहार दोगे
नहीं होंगी घरों की सीमाएं
और न ही अहंकारी सत्ताओं की अनजानी अबोध हरकतें।
कही वही झाड़ू तो नहीं चल रहा है??
(प्रो.उमेश कुमार सिंह)
17/04/20
भोपाल
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