छूटी सोंधी मांटी परदेशी मजदूर हो गया।
गांव का नन्हकू शहर आ मजबूर हो गया।।
सरहदे केवल अमीरों ने ही नहीं लांघी हैं।
ना-समझ का लांघना- असल कसूर हो गया।।
अपनों से हाथ फैलाना समझा अपमान था।
परायों में गुरूर कितना मजबूर हो गया।।
दाना चुगने घर छोड़ कर उड़ा था परिंदा।
जाहिल-पंजों में तड़पने मजबूर हो गया।।
ऊंजाला लाने शहर निकला था बटोही ।
बाट-दामन में अंधियारा भरपूर हो गया।।
बड़ी हया से घूरा था जिस दरख्त-छांव को।
हंसी पगडंडी, वही गांव आज दूर हो गया!!
उमेश कुमार सिंह
२३/०४/२०
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