Friday, 4 December 2020

बायोडाटा
डॉ उमेश कुमार सिंह
एम.ए.,पी-एच.डी.
जन्म तिथि - 01.08.58
जन्म स्थान - रीवा म.प्र.

( मूल पद: प्राध्यापक-  हिन्दी, उच्च शिक्षा विभाग, म. प्र. एवं 36 वर्ष का अध्यापन अनुभव।)

सम्प्रति: निदेशक, स्वामी विवेकानंद कॅरियर मार्गदर्शन योजना, मध्य प्रदेश शासन।

सदस्य:

 (i) Resource persons, NAAC,Bengaluru

 (ii) member, NCZCC, Prayagraj (संस्कृति मंत्रालय,भारत सरकार)

 (iii) Linguistic society of India, pune.

 (Iv)  Word Association  for vadic studies, inc(waves)  

 (v)  भारतीय हिन्दी परिषद , प्रयागराज

पूर्व पदस्थापनाएं तथा प्रशासनिक अनुभव:-

1-     डायरेक्टर, म.प्र.हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, म.प्र.

2-     निदेशक, साहित्य अकादमी, संस्कृति विभाग, म.प्र.शासन

3-     ओ एस.डी. मंत्रालय, उच्च शिक्षा विभाग म.प्र. शासन

4-     ओ. एस.डी. संचालनालय, उच्च शिक्षा विभाग म.प्र. शासन

5-     उपसचिव उच्च शिक्षा विभाग म.प्र. शासन

6-     प्रभारी विश्व विद्यालय समन्वय प्रकोष्ठ, उच्च शिक्षा विभाग, म.प्र. शासन

7-     स्टेट लाइजन आफीसर , राष्ट्रीय सेवा योजना म.प्र.

साहित्यिक विदेश यात्राएँ :
1.      विश्व हिंदी सम्मेलन न्यूयार्क (मध्य प्रदेश सरकार के प्रतिनिधि)

2.      विश्व हिंदी सम्मेलन मॉरीशस (भारत सरकार के प्रतिनिधि)

स्थाई निवास – 21-22 शुभालय विलास,बरखेड़ा-पठानी, भोपाल (मध्यप्रदेश) पिन- 462022
मेल-आईडी- umeshksingh58@gmail.com

मोबाइल-
9425600181
7389814071

Friday, 13 November 2020

शिक्षक और विद्यार्थी (भाग-दो)

 

 

(भाग-दो)

      स्मरण रखना होगा कि शिक्षक और विद्यार्थी जिस समाज से आते हैं उस समाज के लोगों का भी मन भयानक रूप से चंचल है। उनके सुख का केन्द्र अपने से बाहर है और इसीलिए वे सुख की तलाश में इधर उधर भागते हैं। इतना ही नहीं उनके सुख का केन्द्र अपने अन्दर से निकल कर या तो बाजार, सिनेमाघरों, डांस थियेटरों, क्लवों में या फिर चर्च में, प्रवचनों में, भाषणों में जाते हैं, कहने का अर्थ यह कि लक्ष्य विहीन सुख की तलाश में जहां इच्छा हुई, उधर ही दौड़े जाते हैं। तब एक ही सिद्धांत काम करता है- ‘‘प्रवाह के विपरीत चिंतन करने का कष्ट क्यों करें? मन को क्यों स्थिर करें ? अपनी इस मानसिक प्रवृत्ति के कारण पूरा भटका जन अधिकाधिक बहिर्मुखी बनता जाता है और अज्ञान के पाश में उलझ जाता है।’’

     आज के अधिकांश युवा भी सोचते हैं कि- जब हम ऐसे ही सुख पाते हैं तो मन को विचार करके कष्ट क्यों देना? क्यों न प्रचलित द्रव्यों का सेवन कर निद्रा जैसी मोहक स्थिति में मन को डाल दें, रोचक दिवास्वप्र में मग्र रहें? सोचना या विचार करना तो युवावस्था को वांछित नहीं है।प्रौढ़ और तनिक इस मोह जाल से निकले लोग मस्जिद, गिरिजाघर, देवालय जाते हैं, और विचारहीन अस्पष्ट निरा भौतिक रूप से दिए जानेवाले प्रवचनों को सुनते हैं, जो आध्यात्मिक दृष्टि से शून्य हैं। अर्थहीन हैं। 

शिक्षक का धर्म है कि वह इस वातावरण को बदले और आध्यात्मिक जीवन का प्रवाह शिक्षा संस्थानों के परिसर में प्रवाहित करे। यही शिक्षा की नीति होनी चाहिए। शिक्षा नीति का भौतिक लक्ष्य अपने प्रवेशित विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना तो है, किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण उसे स्वरोजगार और रोजगार युक्त बनाना भी है। आज इस दिशा में यदि आत्मनिर्भर भारत और आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश की योजना एक आकार ग्रहण कर रही है तो उसका मूलाधार हमारे शिक्षा संस्थान, शिक्षक और शिक्षार्थी ही हैं। इन्हें ही ऊपर उठाना आज का युगधर्म है।

यदि हम कहीं तनिक भी इस पतनोन्मुख वातावरण को ऊपर उठाने में, बदलने में अपने को असमर्थ पाते हो, तो विचार कर स्वयं को ही ऊपर उठाना होगा। क्योंकि जब हम समाज को जिसमें हम स्वयं शामिल हैं, तो पाते हैं कि यह मानव-पशु धन, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान को लेकर कितना दुखी है? परिणाम ये उस समाज को भी दुखी करते दिखाई पड़ते हैं, जिनको जीवन निर्वाह हेतु रोटी, कपड़ा और मकान की ही आवश्यकता है।

हमारे मटमैले विचार कम्पन पूरे परिवेश को दूषित और विषाक्त करते हैं।  विकृत विचारों को परिसर पर, सडक़ों पर चलने वाले चेहरों पर देखा जा सकता है। कैसी घोर सांसारिकता और विकृति दिखायी देती है। पुते चेहरेवाले हाड़माँस के पुतले और पुतलियाँ, अपने भडक़ीले भाषा और भूषा से केवल यौन विकार-रस को ही तो प्रवाहित करते हैं? यदि हम थोड़ा अन्तर्मुखी हो जाएं, हमारी संवेदनशीलता तनिक प्रबल हो जाए, तो हम देखेगे कि यह सब कितना भद्रता से रहित है। इसलिए आज शिक्षा के परिसर इतने अरुचिकर मालुम पड़ते हैं ।

सामान्यत: आज शिक्षा परिसरों के चर्चा के तीन विषय होते हैं: एक, राजनीति का दूषित पक्ष, दूसर- पैसा कमाने के संसाधन-जुगाड़ और तीसरा, यौन चर्चा। इसकी प्रतिछाया हमारे फिल्मों, नाटकों, उपन्यासों और गीत-संगीत में होती हुई धीरे-धीरे हमारे मस्तिष्क में ऐसी छा जाती है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर पाते और जीवन के सामाजिक पक्ष में जैसे ही प्रवेश करते हैं, हमारी यह मानसिकता शरद के कोहरे की तरह हमारी सामाजिक प्रज्ञा को ढकने लगती है।

 स्पष्ट है वायुमण्डल बदलने के कारण शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की सोच बदल गई है। यह उसी तरह होती है, जैसे इस कोरोना काल में प्रभावित के सम्पर्क में आते ही हमारा जीवन संकट में आ फँसता है, इपीडेमिक आता है। तब वह वायुमण्डल राष्ट्रनिर्माण के हित में न होकर या यू कहिए कि शिक्षा के लक्ष्य की पूर्ति न करके जीवनमूल्यों को निरन्तर क्षतिग्रस्त करता है।

इसलिए आवश्यक है कि मन को सतत ध्येय की ओर लक्षित कर सदा विचार का एक अखण्ड प्रवाह बनाये रखना चाहिए। किन्तु ध्येय है क्या? शिक्षा का लक्ष्य आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च।यह सबसे अधिक श्रमसाध्य है किन्तु बहुत महत्व का है। यह लक्ष्य घनीभूत होकर जब निरामय, परिपूर्ण और निरतंर अखण्ड और अबाध गति से प्रवाहित होता है, तब ही हमारा शिक्षक और विद्यार्थी न केवल अपनी चेतना को विकसित कर पाता है, बल्कि इस समाज को भी भौतिकता में आसक्ति रहित ‘तेन तक्त्येन भुंजिथा:’, जीवन जीते हुए सुखी बनाने का वातावरण देता है। ऐसे चेतनायुक्त मानस को तैयार करने का कार्य भारतीय ऋषि परम्परा से हमें प्राप्त होता रहा है, जिसे हमने जीवन का मोक्ष कहा है।

इसीलिए व्यक्ति की चेतना का विकास हो, हर व्यक्ति अपनी अन्त:प्रेरणा के अनुसार अंतिम आनन्द का अनुभव करे, इस सुविधा के विकास के लिए हमारे विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं। बस आज अन्तर इतना है कि इन्हें अपनी प्राचीन जीवन पद्धति तथा जीवनश्रेणी के अनुसार आज के युगधर्म पर आधारित बनाना होगा। जिसका सूत्र यदि बुद्ध का अप्प दीपो भवहै, तो चलो जलाएं दीप वहाँ जहाँ अभी भी अँधेरा है, आज का युगबोध है।

इस युगबोध की पूर्ति हेतु मनुष्यता की महान दृष्टि ‘धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगेने लक्ष्य बताया है कि प्रभावायाहि भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्इसी से सर्वे भवन्तु सुखिन:अर्थात् सम्पूर्ण विश्व अखण्ड सुख को प्राप्त होगा। इसलिए मनुस्मृति कहती है कि जरा अपने base of operation को स्मरण रखें- एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:। आइये इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दीपावली के प्रकाश पर्व से अपनी चेतना को आलोकित करें।

सादर 

Tuesday, 10 November 2020

’स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्शन योजना’

 

स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्शन योजना मध्यप्रेदश के मा. मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह जी की महत्वाकांक्षी योजना है, जो प्रदेश की उच्च शिक्षा, स्कूल शिक्षा मे और तकनीकी शिक्षा अन्तर्गत पालीटेकनीक महाविद्यालयों और आई.टी. आई. में 2005-06 से प्रारंभ है। इस योजना का नोडल उच्च शिक्षा विभाग है  

पिछली नाथ सरकार में यह योजना उच्च शिक्षा में भी शिथिल हो गई थी और स्कूल तथा  तकनीकी में तो बंद ही पडी थी।

जिसे इस सरकार के आने तथा मा मंत्री उच्च शिक्षा, डॉ मोहन जी यादव के निर्देशन तथा मार्गदर्शन् में न केवल उच्च शिक्षा विभाग में सक्रियता से योजना लागू कर दी गई है, बल्कि स्कूल और तकनीकी शिक्षा विभाग में भी कैलेण्डर जारी कर कार्ययोजना प्रारंभ कर दी गई है।

आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश के इंडीकेटर- 4 का  स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्शन योजनाको नोडल बनाया गया है, जिसके लिए अभी तक की स्थिति और कार्ययोजना इस प्रकार है-

आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश सूचकांक - 4

लक्ष्य- माह सितम्बर 2020 तक प्रदेश के दो सौ शासकीय महाविद्यालयों में रोजगार और स्वरोजगार (पी एण्ड ई) प्रकोष्ठ की स्थापना करना है।   

लक्ष्य प्राप्ति हेतु करणीय बिन्दु: 1- प्रदेश के ऐसे 200 शासकीय महाविद्यालयों का चयन जिनसे शासकीय महाविद्यालयों में पढने वाले 75 प्रतिशत विद्यार्थी समाहित हो जायें।

2- उक्त महाविद्यालयों में योजना संचालन हेतु पचास जिला केन्द्रों पर एक-एक ऐसे कुशल प्राध्यापक का नोडल अधिकारी के रूप में चयन करना जो पूर्णकालिक रूप से सूचकांक- 4 के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य करेगा।

3- प्लेसमेंट के लिए देश भर की बडी कम्पनियों, संस्थानों, उद्योगिक घरानों से एम.ओ.यू. करना है, जो प्लेसमेंट दे सकें। प्रदेश के कुछ महाविद्यालयों ने जैसे (शासकीय मानकुंवर बाई महाविद्यालय जबलपुर द्वारा) देश की बडी कम्पनियों से ट्रेनिंग प्रारंभ भी करा दी है।

4- अधिकतम विद्यार्थियों को रोजगार एवं स्वरोजगार तथा शासकीय, अशासकीय सेवा हेतु तैयार करने के लिए ट्रेनिंग प्रोग्राम को संचालित करना।

विगत सत्र में अल्पावधि रोजगार प्रशिक्षण से 328 प्रशिक्षण के माध्यम से 27919 विद्यार्थियों को लाभान्वित किया गया है।

गत वर्ष इन प्रशिक्षणों के माध्यम से 7728 विद्यार्थियों को रोजगार प्राप्त हुए। इसे बढाकर रोजगार और स्वरोजगार तथा शासकीय, अशासकीय संस्थानों में लगभग 50 हजार का लक्ष्य निर्धारित किया गया है, जिसे समय-समय पर समीक्षा कर पुनः निर्धारित किया जाता रहेगा।

इस वर्ष रोजगार प्रशिक्षण की संख्या बढा कर 200 महाविद्यालयों का लक्ष्य लेकर प्रत्येक महाविद्यालय के 500 विद्यार्थियों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है जिसके कारण लगभग एक लाख विद्यार्थियों को प्रशिक्षित किया जा सकेगा।

मध्यप्रेदश के बघेली, बुन्देली, मालवी और निवाडी के कृषि, लघु-कुटीर उद्योगों को ध्यान में रख कर ‘लोकल फार वोकल’ अन्तर्गत प्रशिक्षण तथा स्वरोजगार और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जा रहे हैं

‘लोकल फार वोकल’ अन्तर्गत इस वर्ष प्रदेश के कई शासकीय महाविद्यालयों में विद्यार्थियों को रक्षाबन्धन के अवसर पर रक्षासूत्र बनाने का तथा अभी दीपावली को देखते हुए दीप निर्माण का प्रशिक्षण दिया गया है। जिसमें हजारों की संख्या में छात्र-छा़त्राओं ने दीपक निर्माण किए हैं।

आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश सूचकांक-4 लक्ष्य प्राप्ति हेतु समय का निर्धारण:

1- दो सौ महाविद्यालयों का चयन कर लिया गया है।

2- 30 नवम्बर, 2020 तक पचास जिलों में नोडल बना दिए जायेंगे।

3- प्लेसमेंट के लिए दे श भर की बडी कम्पनियों, संस्थानों, उद्योगिक घरानों से एम ओ यू  नवम्बर और दिसम्बर तक पूर्ण कर लिया जायेगा।

4- स्किल डेवलपमेंट और ट्रेनिंग प्रोग्राम दिसम्बर से अप्रेल तक किया जायेगा।

 

इस तरह से रोजगार निर्माण की प्रक्रिया में महाविद्यालयों को अधिकाधिक सक्रिय कर स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्शन योजना के माध्यम से शासकीय, अशासकीय संस्थानों में  रोजगार और स्वरोजगार की प्रक्रिया के लक्ष्य को प्रभावी स्वरूप दिया जा सकेगा। जिससे आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश के इंडीकेटर -4 के लक्ष्य को प्राप्त करते हुए इसे सतत रूप से संचालन हेतु प्रभावी किया जा सके।

भविष्य में स्वा विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्शन योजना को प्रदेश के सभी शासकीय, अशासकीय विश्वविद्यालयों, शिक्षण संस्थाओं में लागू कर सभी विद्यार्थियों का डाटावेस रखा जायेगा।

डॉ उमेश कुमार सिंह

निदेशक

स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्शन योजना मध्यप्रदे शासन

 

 

'

 

 स्वामी विवेकानन्द कैरियर मार्गदर्षन योजना अन्तर्गत चाही गई जानकारी बिन्दुवार इस प्रकार है- 

1-विद्यार्थियों हेतु रोजगार प्रषिक्षण, वोकल फार लोकल, काउंसिलिंग एवं अन्य गतिविधियां- 1. रोजगार प्रषिक्षण- स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्षन योजना अन्तर्गत नियमित रूप से प्रतिवर्ष रोजगार प्रषिक्षण दिये जाते हैं। विगत सत्र में अल्पावधि रोजगार प्रषिक्षण से 328 प्रषिक्षण के माध्यम से 27919 विद्यार्थियों को लाभान्वित किया गया है। इस वर्ष रोजगार प्रषिक्षण की संख्या बढा कर 200 महाविद्यालयों का लक्ष्य लेकर प्रत्येक महाविद्यालय के 500 विद्यार्थियों को प्रषिक्षित करने का लक्ष्य है जिसके कारण लगभग एक लाख विद्यार्थियों को प्रषिक्षित किया जा सकेगा। यह कार्य आत्मनिर्भर भारत के अन्तर्गत समय-सीमा सितम्बर, 2021 तक पूरा किय जायेगा।

2. वोकल फार लोकल- चयनित महाविद्यालयों में मध्यप्रेदष के बघेली, बुन्देली, मालवी और निवाडी के कृषि, लघु कुटीर उद्योगों को ध्यान में रख कर लोकल फार वोकल अन्तर्गत प्रषिक्षण तथा स्वरोजगार और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने कराये जायेंगे। अभी कई महाविद्यालयों में विद्यार्थियों को रक्षाबन्धन के अवसर पर रक्षासूत्र बनाने का तथा अभी दीपावली को देखते हुए दीप निर्माण का प्रषिक्षण दिया गया है।

3. काउंसिलिंग- महाविद्यालयों में करोनाकाल में परीक्षा पूर्व षिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को आनलाईन परामर्ष दिए गये जिससे लगभग 80 प्रतिषत विद्यार्थी लाभान्वित हुए। 

आत्मनिर्भर मध्यप्रदेष की योजना अनुसार प्राथमिकता के आधार पर 200 महाविद्यालयों का चयन किया गया है जिसमें जिला स्तर पर पूर्णकालिक नोडल अधिकारी बनाए जा रहे हैं। प्लेसमेंट और स्वरोजगार के प्रषिक्षण हेतु बडे संस्थानों से एम ओ यू किया जा रहा। करोना काल पष्चात अभी तक आनलाइन प्रषिक्षित लाभान्वित विद्यार्थियों की संख्या तीन हजार से अधिक है। यह प्रषिक्षण निरन्तर किया जा रहा है। पूरी संख्या अभी अप्राप्त है।

2-विद्यार्थियों में अवसाद की बढ रही समस्या हेतु आनलाइन काउंसिलिंग किया जाना प्रस्तावित है।

कोरोनाकाल में  ग्रामीण क्षे़त्र के विद्यार्थियों को षिक्षक अभिभावकों द्वारा आनलाईन माध्यम से बराबर सम्पर्क रखते हुए उनकी समस्याओं का समाधान दिया गया। योजना मित्र के माध्यम से सक्षम विद्यार्थियों द्वारा निर्धन और अपेक्षित विद्यार्थियों की मदद की गई। बडवानी और जबलपुर के कई महाविद्यालयों में इस तरह के कार्य किए गए।

अभी भी महाविद्यालयों में विद्यार्थियों से संवाद निरन्तर जारी है। सायकोमेटि़क एसेसमेंट को प्रभावी बनाया जा रहा है। टीसीएस और बजाज जैसी बडी कम्पिनियों से विद्यार्थियों को प्रषिक्षण दिया जा रहा है।

3-ई-प्लेटफार्म पर विद्यार्थियों, षिक्षकों से संवाद का नियमित आयोजन किया जाना है।

कार्ययोजना-षिक्षक-अभिभावक योजना के माध्यम से प्रत्येक षिक्षक द्वारा अपने आवंटित विद्यार्थियों से नियमित संवाद किया जा रहा है। साथ ही उनका डाटावेस अपडेट किया जा रहा है। महाविद्यालयों में षिक्षको ने अपने विद्यार्थियों के ह्वासएप गु्रप तैयार किए गये हैं जिनके माध्यम से उनसे निरन्तर सम्पर्क रखा जा रहा है।

महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्षन योजना द्वारा आत्मनिर्भर मध्यप्रदेष के अन्तर्गत आगामी सितम्बर तक पूरी कार्ययोजना तैयार कर ली गई है, जिसकी पी पी टी आयुक्त महोदय को अवलोकनार्थ 10 नवम्बर, 20 को प्रेषित की जा चुकी है। योजना का लक्ष्य प्रत्येक विद्यार्थी का डाटाबेस तैयार करना और उसे रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना है। 

पी पी टी अवलोकनार्थ प्रेषित है।

निदेषक

स्वामी विवेकानन्द कॅरियर मार्गदर्षन योजना, मध्यप्रदेष षासन


Saturday, 7 November 2020

शिक्षक और विद्यार्थी

 शिक्षक और विद्यार्थी

(भाग-एक)

‘ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।  ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!! ’

 शिक्षक का जीवन आध्यात्मिकता से भरपूर होना चाहिए। वातावरण में इसका प्रभाव पड़ता है। शिक्षक की चित्त शुद्धि स्वयं के लिए ही नहीं बल्कि  विद्यार्थी और समाज के कल्याण के लिए भी आवश्यक है। 

भौतिक जगत से भी अधिक सत्य एक सूक्ष्म मनोजगत् है। विचार एक तरह के  मानसिक स्पन्दन होते हैं। ये स्पन्दन हमारे अन्दर से निकलकर निरन्तर बाह्य मनोजगत् में प्रसारित हो रहते हैं। यदि विचारों का स्पन्दन शुभ है तो वे विचारों के शुभ तरंगों को उत्पन्न करते हैं। तब जो भी इन शुभ स्पन्दनों के संस्पर्श में आता है, उसे लाभ होता है। 

इतना ही नहीं तो शुभ तरंगें हमारे लिए भी शुभ विचारों का पुन: चिन्तन आसान कर देती हैं परिणामत: अशुभ चिन्तन के बाद हमारे चारों ओर का दूषित वातावरण पुन: शुभ तरंगों से परिव्याप्त हो जाता है। और तब धीरे-धीरे अशुभ विचारों का उठना भी रुक जाता है। जब शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच ऐसा वातावरण एक दीर्घ काल तक बना रहता है तब शिक्षक और विद्यार्थी के मानसिक स्पन्दन सामान्यत: एक सरीखे होते जाते हैं।

शिक्षक को ध्यान रखना होता है कि यदि उसके जीवन में सामन्जस्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को भी कष्ट पहुँचाएगा। विद्यार्थी के प्रति क्रोधित होने से पूर्व हम स्वयं पर क्रोधित होते हैं। विद्यार्थी के प्रति सहानुभूति रखें यदि कोई विद्यार्थी नाराज हो तो उसके प्रति भी सहानुभूति रखें। ऐसे भी अवसर आयेंगे जब विद्यार्थी को डाँटना पड़ेगा। उनके प्रति कड़े शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा तब अपने आत्मसंतुलन को खोये बिना भी यह काम किया जा सकता है। 

यदि शिक्षक आत्मसंतुष्ट हो तो दूसरे में भी तादात्म्य और संतुलन पैदा होगा। यदि शिक्षक चंचल और असंतुष्ट हो तो बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार की समस्याएँ पैदा होंगी। शिक्षक को सब के साथ मिलकर काम करना चाहिए। लेकिन आसक्त भाव से नहीं। विचलित होकर नहीं। दयालु हो कर पर अंधे हो कर नहीं।  

दु:ख और कष्ट स्वयं महान शिक्षक होते हैं। उन्हें सहन करना शिक्षक-धर्म है। एक उत्कृष्ट शिक्षक सदा ही एक अच्छा विद्यार्थी भी होता है। दु:खों और कष्टों को भूमा की ओर मोडक़र उन्हें भी अपनी प्रगति के साधन बनाता है। 

सत्य की तीव्र अभिलाषा विद्यार्थी को दु:खों और कष्टों के बावजूद लक्ष्य की ओर ले जाती है। इसलिए शिक्षक और विद्यार्थी किसी भी समाज के क्यों न हों यदि वे अपने सभी कार्यों को ईश्वराभिमुख करने का प्रयत्न करें और आपस में विश्वास अर्जित कर ले तो दोनों का जीवन प्रेरक हो जाता है।  

जीवन के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।  शिक्षा जब अर्थ के लक्ष्य में धर्माधारित होती है तो उसकी कामनाएँ भी पवित्र होती हैं और वह शिक्षक-शिक्षार्थी के साथ ही समाज को भी मोक्षगामी बनाती है। 

शिक्षक-शिक्षार्थी अपने नित्य प्रति के जीवन में भी धर्म को उतारने का प्रयत्न करते हैं तो दोनों के अन्दर का श्रद्धावान भक्त श्रमपूर्वक दूसरो के समक्ष करुणा और प्रेम को प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। 

यदि शिक्षक दूसरो की सहायता करना चाहता है तो उसका एक मात्र उपाय यह है कि ऐसा जीवन यापन करे, जो दूसरों के लिए उदाहरण स्वरूप हो। शिक्षक को यह उदाहरण अपने जीवन के द्वारा प्रदान करना होगा। लोगों के सामने विचारों की ढेर ईटें रखने से कोई लाभ नहीं होगा। चरित्ररूपी जिस भवन का शिक्षक निर्माण करेगा, उसे लोग देखना और उसे आत्मसात करना चाहेंगे। 

  आवश्यक है कि शिक्षक और शिष्य के चारो ओर जो कुछ हो रहा है, उसके प्रति दोनों सजग रहें, और संतुलित दृष्टिकोण रखें तभी समाज का जीवन शांतिपूर्ण होगा। और शांति, प्रवित्रता, पंच निष्ठा, श्रद्धा आदि विभिन्न सद्गुण समाज में दोनों के कार्यों द्वारा अभिव्यक्त होंगे। 

जब शिक्षक स्वयं सद्गुणों को अपने जीवन में पालन करता है, तो ही उपदेश और आदेश देने का कोई लाभ होता है अन्यथा विद्यर्थियों को व्यर्थ तंग नहीं करना चाहिए। विद्यार्थियों में आध्यात्मिकता का संचार मौन रहकर किया जा सकता है। उचित रूप से आध्यात्मिकता देने पर वे उसे शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं। हमें केवल अग्रि प्रज्वलित करना है, वे उसकी स्वाभाविक गर्मी के लिए उसके चारो ओर इकठ्ठे हो जाएँगे। 

यह खेद का विषय है कि आध्यात्मिक अनुभूति के लिए बहुत कम शिक्षक प्रयत्नशील होते हैं। किन्तु यदि  कुछ लोग जो आध्यात्मिक हो गये हैं, वे ही तीव्र साधना करें, तो इस दुनिया को और अच्छा बना सकते हैं। वे दूसरों का भी आध्यात्मिक कल्याण कर सकते हैं। 

दूसरों की सेवा और सहायता करना प्रत्येक शिक्षक और विद्यार्थी के जीवन का एक अनिवार्य अंग बन जाना चाहिए। विभिन्न प्रकार की सहायताओं में आध्यात्मिक सहायता सर्वोत्कृष्ट है। इसकी आज विश्व में सब से अधिक आवश्यकता है। जिन्हें आवश्यकता है, उन्हें आध्यात्मिक निर्देश देना, मार्गदर्शन प्रदान करना हमें अपना कर्तव्य समझना चाहिए। यदि हम ऐसा न कर सके तो दूसरों की बौद्धिक अथवा भौतिक सहायता करनी चाहिए। यदि यह हमारी आंतरिक प्रार्थना हो तो यह किसी से कम नहीं।

सब शिक्षक और विद्यार्थी एकाएक आध्यात्मिक नहीं बन सकते। दूसरों की आध्यात्मिक सहायता करने से पहले अपने को आध्यात्मिक होना होगा। स्वामी विवेकानन्द जी ऐसे ही कुछ व्यक्ति के तलाश में थे जो उच्चतम आदर्श के लिए अपना जीवन  समर्पित कर दें। तन, मन  और वचन की पवित्रता के आदर्श के लिए अपना सर्वस्व न्योंछावर कर दें तथा उस आदर्श को प्राप्ति के लिए हर कठिनाई का सामना करने को प्रस्तुत हो। 

 यह ध्यान रखें कि हम सम्पूर्ण शिक्षक और विद्यार्थी समूह में परिवर्तन नहीं ला सकते, हम  समूचे  विद्यार्थी समुदाय को आध्यात्मिक भी नहीं बना सकते, किन्तु हम उन कतिपय शिक्षक और विद्यार्थियों के जीवन को अवश्य बदल सकते हैं, जो निष्ठावान् हैं तथा जिनका मानस बन गया है। 

‘ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!! ’हे परमात्मा हम शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ साथ पालन करें। हम साथ -साथ विद्या-सम्बन्धी सामर्थ्य को प्राप्त करे। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम द्वेष न करें। त्रिविध ताप की शांति हो।’  



Monday, 2 November 2020

swapn lata aaj man

 

 

 

 

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संवेदना की नोक से झांकता है आज मन।
ओस सी बूंदे छिपाए अश्रु पूरित आज मन।।

लूट लेगा पास पाकर षुभ्र सृजित बूंद धन
देख कर प्राची प्रभा  सूखता है आज मन ।।

सांझ संचित किए को फिर पकाता रात यौवन 
भोर में उषा किरण से सहम जाता नित्य मन ।। 

धन हमारा मन हमारा स्वत्व भी प्रतिदान का
संषय भरे दिन स्वप्न लाता रोज क्यों मन।। 

युग-युग की सतत आराधना का छू षून्य पथ  
वासना वीणा अचंचल ढो रहा नित साज मन।।

दे सको तो आज दे दो मृत्यु का ताजा कलेवर
हो अमर उस बोध को पा सकूं निज स्वत्व धन।।

Friday, 30 October 2020

बिन

भारत का केन्द्रीय भाव धर्म की स्थापना है। धर्म को व्यवहार में पंथ और मत उतारते हैं। मत और पंथ प्रत्येक देश के अलग होते हैं। इससे यह तो साफ है कि इस युग का  आंठवा न तो मार्क्स था न सामी पंथों के प्रर्वतक।   

आंठवा स्वत्व और मूल्य की बात करता है तो सर्वजन हिताय की भी। साधुता की रक्षा भी तो दुष्टवृत्तियों का विनाश भी। किन्तु साथ में वह परोपकार को पुण्य और पाप को ही पीड़ा कहता है। हां शर्त अद्भुत है ’धर्मसंस्थापनार्थाय’ सब कुछ जायज है। 

लेकिन यह उस काल की बात है जब सामी पंथ तो थे किन्तु आज के सामी पंथों से भिन्न। त्रेता पुरुष के जाने के बाद जैन की अंहिसा और बुद्ध की करुणा इनको आप्लावित नहीं कर सकी। शंकर का ’ब्रह्म सत्यम् जग्न्मिथ्या जीवे ब्रहमेति नापर।’ भी पयाप्त नहीं हो सका।

 तो क्या धर्म की स्थापना के मापदण्ड बदलने पड़ेंगे ? क्या सभी धर्मों को छोड़कर मेरे शरण में आ की परिभाषा को बदलना पड़ेगा? 

क्या सत्ता नहीं लोक के गौरव की बात को फिर सामने लानी पडे़गी। मानवता में जाति, वर्ण, पूजा-पंथ, लोक हितैषी मान्यताओं को छति पहुंचाए बिना मानवता की सेवा को उद्यत होना पडे़गा।

 भारत-संघ यह कार्य अपनी पूरी क्षमता और दूरदृष्टि के साथ कर भी रहा है। बस परिवर्तन को सकारात्मक भाव से तथा नायक के विश्वास के साथ देखना होगा। जन मन को बदलना होगा। सहिष्णुता कायरता न बन जाये,सजग और चौकन्ना रहना होगा।

आने वाला 2025 बहुत महत्वपूर्ण है। उसमें हमें परिवर्तन की आभा उसी तरह स्पष्ट दिख रही है जैसे भगवान भास्कर के आने के पूर्व भगवामय आकाश। 

आज उसी भगवा को फिर से लहरा कर 
त्रेता के धनुष और द्वापर के चक्र को आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश के माध्यम से
लोकव्यापी बनाना है। तभी भविष्य की भूमिका साकार होगी।

 बिना भगवा बोध के शिशिर का मार्तण्ड भी ऊष्मा नहीं दे पायेगा। आइये आज भगवामय होंने का पूरा प्रयत्न करें। 
 



 
 

Monday, 19 October 2020

वर्णमाला

 आज के छात्रों को भी नहीं पता होगा कि भारतीय भाषाओं की वर्णमाला विज्ञान से भरी है। वर्णमाला का प्रत्येक अक्षर तार्किक है और सटीक गणना के साथ क्रमिक रूप से रखा गया है। इस तरह का वैज्ञानिक दृष्टिकोण अन्य विदेशी भाषाओं की वर्णमाला में शामिल नहीं है। जैसे देखे*


*क ख ग घ ड़* - पांच के इस समूह को "कण्ठव्य" *कंठवय* कहा जाता है क्योंकि इस का उच्चारण करते समय कंठ से ध्वनि निकलती है। उच्चारण का प्रयास करें।

*च छ ज झ ञ* - इन पाँचों को "तालव्य" *तालु* कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ तालू महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।

*ट ठ ड ढ ण*  - इन पांचों को "मूर्धन्य" *मुर्धन्य* कहा जाता है क्योंकि इसका उच्चारण करते समय जीभ मुर्धन्य (ऊपर उठी हुई) महसूस करेगी। उच्चारण का प्रयास करें।

*त थ द ध न* - पांच के इस समूह को *दन्तवय* कहा जाता है क्योंकि यह उच्चारण करते समय जीभ दांतों को छूती है। उच्चारण का प्रयास करें।

*प फ ब भ म* - पांच के इस समूह को कहा जाता है *ओष्ठव्य* क्योंकि दोनों होठ इस उच्चारण के लिए मिलते हैं। उच्चारण का प्रयास करें।

दुनिया की किसी भी अन्य भाषा में ऐसा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है? हमें अपनी भारतीय भाषा के लिए गर्व की आवश्यकता है, लेकिन साथ ही हमें यह भी बताना चाहिए कि दुनिया को क्यों और कैसे बताएं।

Tuesday, 13 October 2020

म.प्र. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की साहित्य साधना में प्रकृति

           सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की साहित्य साधना में प्रकृति

  स्वतंत्रोत्तर भारत में राजनीतिक चेतना कई स्तरों पर हमारे सामने उभर कर आई। आर्थिक विषमता, धार्मिक पाखंडवाद, झूठा सेक्युलिरिज्म साथ ही सामाजिक और वैयक्तिक चेतना की छटपटाहट एवं उससे संघर्ष करने की प्रवृति हिन्दी काव्य में देखी जा सकती है। स्पष्टत: समसामयिक परिस्थितियों में व्यक्ति और सत्ता राजनीति का एक-दूसरे से गहरा सम्बन्ध हो गया है। समाज के नैतिक पतन से समस्त व्यवस्था और  राजनीति अछूती नहीं रही। लिहाजा, राजनीतिक अवमूल्यन, सत्ता-संघर्ष, स्वार्थ और पद-लिप्सा जैसे कुत्सित मनोवृत्तियों ंका तेजी से विकास हुआ है। आज का आम आदमी इस भ्रष्ट सत्ता एवं व्यवस्था की जकड़ से मुक्त होने की कोशिश कर रहा है पर उसकी स्थिति त्रिशंकु जैसी हो गयी है। ऐसे में सहज ही प्रश्न उठता है कि इस परिस्थिति में रचनाकार का दायित्व क्या है? उनकी रचनाएं स्वान्त:सुखाय थी या सर्वजन सुखाय। 

तुलसीदास जैसा साहित्यकार, भक्त, कवि जब रामचरित मानस को स्वान्त:सुखाय कहता है तो उसका अर्थ क्या है?  गोस्वामी तुलसीदास जब स्वान्त:सुखाय की बात करते हैं तो उनके काव्य में लोकमंगल है। अत: स्वान्त:सुखाय आत्मकेन्द्रित होने के लिये नहीं। जब सब 'सिया राम मय सब जग जानी' को अर्थात राष्ट्र रूपी देवता को समर्पित होता है तो वहीं स्वान्त:सुखाय सर्वजनसुखाय बन जाता है। तुलसी कहते हैं- 'क्या वरनौ छवि आपकी भले बने हो नाथ। तुलसी मस्तक तब नवै धनुष वाण लै हाथ।।' यह स्वान्त:सुखाय तब सर्वजनहिताय में बदल जाता है जब वे कहते हैं- 'सियाराम मय सब जग जानी। करऊं प्रणाम जोर जुग पानी।' इसका दूसरा कारण तुलसी का कवि के साथ भक्त होना अर्थात आध्यात्मिक जीवन होना भी है।

    सर्वेश्वर दयाल जी ने कहानी, कविता और नाटक तीनों  प्रकार की रचनाएं की। यहां हम उनकी काव्यगत यात्रा पर विचार करेंगे और यहीं पर देखेंगे कि उनकी रचना स्वान्त:सुखाय है या सर्वजनहिताय। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना व्यक्तिगत संवेदना को लोक संवेदना बनाते हैं। उनकी व्यक्तिगत चाह देखें- 'मैं नहीं चाहता' शीर्षक में वे कहते  हैं- 'सड़े हुए फलों की पेटियों की तरह/बाजार में एक भीड़ के बीच मरने की अपेक्षा/एकान्त में किसी सूने वृक्ष के नीचे/गिर कर सूख जाना बेहतर है।' 

    सर्वेश्वरदयाल जी के ऊपर विचार करते समय कुछ रचनाओं को छोडक़र उनकी जिन रचनाओं को आधार बनाया गया है उसमें 'प्रतिनिधि कविताएं-राजकमल प्रकाशन से है। और उसका कारण पुस्तक के सम्पादक: प्रयाग शुक्ल का यह लेख है- 'सुधी पाठकों को एक बात और बताना चाहूंगा। इस संकलन की कविताएं सर्वेश्वर जी की पहली किताब 'काठ की घंटियां' से लेकर उनके अन्तिम कविता संग्रह 'खूटियों पर टंगे लोग'  तक से ली गयी है। इस तरह यह उनकी कविताओं का केवल प्रतिनिधि संग्रह ही नहीं है, ऐसा संग्रह भी है जो उनकी काव्ययात्रा के लगभग हर चरण से हमें परिचित करायेगा।

बात को स्पष्टता से समझने के लिए 'प्रतिनिधि कविताएं- राजकमल प्रकाशन के पीछे सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के ऊपर दी टिप्पणी को यहां उद्धृत करना उचित होगा- "समकालीन हिन्दी कविता की व्यापक जनवादी चेतना और प्रगतिशील जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में सर्वेश्वर एक ऐसे कवि के रूप में सुपरिचित हैं जिनकी रचनाएं पाठकों से बराबर धडक़ता हुआ रिश्ता बनाए हुए हैं। उनकी कविताएं नयी कविता की उहा और आत्मग्रस्तता से बड़ी हद तक मुक्त रही हैं। इस संग्रह में उनके समूचे काव्य-कृतित्व से महत्वपूर्ण कविताएं संकलित की गयी हैं। जिन्दगी के बड़े सरोकारों से जुड़ी उनकी कविताएं उन शक्तियों की खिलाफत करती हैं जो उसे किसी भी स्तर पर कुरूप करने के लिए जिम्मेदार हैं। वे घेरों से बाहर के कवि हैं। उनकी कविताओं में हिन्दी कविता का लोकोन्मुख जातीय संस्कार घनीभूत रूप में मौजूद है और उन्हें न तो राजनीतिक-सामाजिक परिस्थियों से काटकर देखा जा सकता है और न कवि के अपने आत्मसंघर्ष को नकारकर। वस्तुत: दु:ख और गहन मानवीय करुणा से प्रेरित संघर्षशीलता, उदात्त सौन्दर्यबोध, मधुर भावनाओं के संधि संस्पर्श की छन्दाछन्द विभिन्न मुद्राएं इन कविताओं को व्यापक अर्थ में मूल्यवान बनाती हैं। 

रचनाकार की पृष्ठिभूमि: रचनाकार की कृति पर उसके पारिवारिक वातावरण, समसामयिक परिवेश और युगीन स्थिति का प्रभाव दिखाई देता है। अत: आवश्यक है कि थोड़ा सा इस पृष्ठभूमि को भी देख लिया जाय। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जीवन भी हर सामान्य व्यक्ति की तरह संघर्षशील रहा। उन्होंने भी अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ावों को देखा और अनुभव किया। आजीवन उन्होंने भागदौड़, स्थानान्तरण, पद-त्याग, पारिवारिक जिम्मेदारी और साहित्यिक रुचि का जो अनुभव प्राप्त किया, कमोवेश उसे ही अपनी रचनाओं द्वारा सम्प्रेषित किया। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलत: कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और पत्रकार रहे। उनका जन्म 15 सितम्बर, 1927 में बस्ती -उत्तरप्रदेश के पिकोरा गांव में हुआ। माता श्रीमती सौभाग्यवती सक्सेना शासकीय हाई स्कूल में शिक्षक तथा पिता व्यवसायी थे। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में तथा बाद में 1942 में एंग्लों संस्कृत हाई स्कूल, बस्ती; तथा 1944 क्वीन्स कालेज, वाराणसी से इंटरमीडियेट तथा प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए. हिन्दी में पास की। आजीविका के लिए आध्यापक, क्लर्क, आकाशवाणी में सहायक प्रोडूसर, 'दिनमान' के उप-सम्पादक और 'पराग' के सम्पादक रहे।

  साहित्यिक जीवन का आरम्भ कविता से हुआ। 'तीसरा सप्तक में कविताएं संकलित हुईं। 'प्रतीक और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे, 'दिनमान के चरचे और चरखे स्तम्भ में वर्षों मर्मभेदी लेखन-कार्य। कला, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। कविता के अतिरिक्त बालोपयोगी साहित्य में महत्वपूर्ण लेखन किया साथ ही अनेक भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद। 1965 में भारतीय सांस्कृतिक मण्डल के प्रतिनिधि के रूप में नेपाल तथा 1972 में सोवियत लेखक संघ के निमन्त्रण पर पुश्किन काव्य समारोह में सम्मिलित हुए। 24 सितम्बर,1983 को आकस्मिक निधन।

बचपन से ही साहित्यिक, सांस्कृतिक वातावरण प्राप्त होने से साहित्य सृजन की अभिरुचि पैदा हुई। परिवार आर्यसमाजी था सामान्य पूजापाठ में अभिरुचि भले ही न रही हो पर राष्ट्रप्रेम के गीत गाना, सुनना उनके लिए आकर्षण का विषय था। उनकी प्रमुख रचनाएं- 'काठ की घंण्टिया','बांस का पुल,'एक सूनी नाव','गर्म हवाएं.

 कविता संग्रह- ,उड़े हुए रंग. उपन्यास -सोया हुआ जल,'पागल कुत्तों का मसीहा ;लघु उपन्यास; 'अंधेरे-पर-अंधेरा ;कहानी संग्रह; 'बकरी ;नाटक;'भों-भों: खों-खों, 'लाख की नाक ;बालोपयोगी नाटक- 'बतूता का जूता, 'महंगू की टाई ;बालोपयोगी कविताएं; 'कुछ रंग कुछ गंन्ध ;यात्रा-वृतान्त तथा 'शमशेर, नेपाली कविताएं सम्पादित।

अपने व्यक्तित्व की खोज में प्रयोगशील कवि आत्मान्वेषण और आतमोंपलब्धि की दिशा में उन्मुख हुआ था। परम्परा से इन तत्वों को आत्मसात करती हुई नयी कविता यथार्थ के प्रति नयी दृष्टि और नये मूल्यों के अन्वेषण की ललक लेकर आगे बढ़ी। यथार्थ के प्रति बदलती दृष्टि से प्रयोगशील कविता अपने पूर्ववर्ती काव्य से अलग पहचान बनाती हुई भी चली थी। यथार्थ के उद्देेश्यगत रूप, यथार्थोन्मुखी आदर्श और भावावेश से काव्य को उबारकर उसने व्यक्ति और युगजीवन के प्रति लगाव तथा संदर्भ का परचिय दिया था। बदलते हुए भाव-बोध के अनुरूप उसने शिल्प का संधान किया। नयी कविता के ये लक्षण सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के काव्य से भली भांति पहचाने जा सकते हैं। उनकी कविताओं में तत्कालीन परिस्थितियों की झलक मिलती है जिनमें यथार्थ ही यथार्थ है।

  सर्वेश्वर के काव्य का प्रारंभ 'काठ की घंटिया' 1949 से 1957 स्वच्छंद मनोभाव के छूटने से होता है। कवि की यह स्वच्छंद भावना युग-यथार्थ से टकराकर अवसाद, वीरान जंगल, जवानी के चिटकते छिलके और दर्द का महासागर है। 'अक्सर एक व्यथा में' दर्द, अवसाद और निराशा का भाव व्यंजित हुआ है- 'अक्सर एक हंसी/ठंडी हवा-सी चलती है,/अक्सर एक दृष्टि/कनटोप-सा लगती है, /अक्सर एक बात/पर्वत-सी खड़ी होती है,/अक्सर एक खामोशी/मुझे कपड़े पहनाती है।/मैं जहां होता हूं/वहां से चल पड़ता हूं,/अक्सर एक व्यथा/या़त्रा बन जाती है।

युग जीवन के संदर्भ में सर्वेश्वर ने अपने युग के विघटन, दर्द, पीड़ा, अनास्था, विवशता, विजडि़त स्थितियों और अकेलेपन का गहरा तथा तीखा अनुभव किया है। 'शांतिमयी तुम हो' में कवि कहता है: -'दर्द के महासागर से कहो,/सामने मेरे न नाचो, /मैं अकेला हूं।

'बांस के पुल' में यह स्वर और भी सघन बनकर आया है। इसमें कवि का स्वच्छंद मनोभाव युग यथार्थ से सम्पृक्त होकर आत्मनिर्वासन, परायेपन के अहसास और मूल्यबोध के रूप में व्यक्त हुआ है। 'सांझ होते ही, 'दर्द किससे कहूं', 'बीत गया यूं दिन बसंत का, 'सर्पमुख के सम्मुख तथा 'अंत में, ये भावनायें फिर से व्यक्त हुई हैं:-'अब मैं कुछ नहीं चाहता/ सुनना चाहता हूं/ एक समर्थ सच्ची आवाज/ यदि काहीं हो।/अन्यथा/ इसके पूर्व कि/ मेरा हर कथन/ हर मंथन/ हर अभिव्यक्ति/ शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,/उस अनन्त मौन में समा जाना चाहता हूं/ जो मृत्यु है।'

ये भाव स्वच्छंद कल्पनाओं और महत्वाकंक्षाओं के साथ युग यथार्थ के टकराने से जन्में हैं। 'एक सूनी नाव' में एक सूनी नाव की पहली कविता अक्सर एक व्यथ्या में सर्वेश्वर ने लिखा है- 'मैं जहां होता हूं,/वहां से चल पड़ती है,/अक्सर एक व्यथा,/यात्रा बन जाती है।'

सर्वेश्वर की काव्य यात्रा व्यथा के ताने बाने से अधिक बुनी है। 'एक सूनी नाव में कवि की स्वच्छन्द चेतना फिर से सिर उठाती है या अवसाद को ढोती हुई चलती है-'चांद आकाश में/ बड़े सुनहरे मकड़े की तरह/ धीरे-धीेरे गर्व से रेंगता आता है/ या नीला जांधियां पहने।7

'काठ की घंटियां', में यह स्वर धीमा या 'बांस के पुल' में तीव्र हो गया है। जीवन के यथार्थ की विषमता से जन्मा अवसाद अनुभव की तटस्थ व्यंजना के स्थान पर जब स्वच्छंद भाव में पुन: रूपांतरित हो जाता है, तब इसे कवि की प्रकृति  संबंधी कविताओं में देखा जा सकता है। जहां रोमांटिक मनोभाव और युग यथार्थ में यह टकराहट नहीं है, वहां स्वच्छंद मनोभाव कविता को केन्द्रीय स्वर बन गया है। 'सुबह का गीत्य, भयह भी क्या रात', 'तुम कहो्, 'चांद की नीं, और 'प्रेम नदी के तीर'  में यह स्वच्छंद मनोभाव पूरे उभार के साथ अभिव्यक्त हुआ है। 

व्यक्तित्व की खोज और उसको सार्थक बनाने की छटपटाहट सर्वेश्वर की प्रारंभिक कविता में प्रखर रूप में मिलती है, 'पंख दो' में कवि का कथन है:-'पंख दो, पंख दो, अरे मेरे पंख दो,/ और कब तक इस सुलगती डाल पर/ बैठा रहूं निरुपाय।'

सर्वेश्वर परिवेश के बहुआयामी यथार्थ के अनुभवों के माध्याम से व्यक्तित्व की सार्थकता खोजते हैं। व्यक्तित्व का यह अन्वेषण कवि को व्यष्टि से समष्टि तक ले जाता है, जहां उसका व्यक्तित्व अधिक उदार और व्यापक हो जाता है। जैसे 'आत्मसाक्षात्कार, 'नये वर्ष पर',, में यह व्यक्तित्व व्यापक और उदात्त भाव-भूमि से संयुक्त होकर सामाजिक चेतना से संवेदित हुआ है।

ग्राम्य प्रकृति के मोहक चित्र समसामयिकता का दायित्व और जन जीवन के गहरे लगाव को व्यक्त करने में सर्वेश्वर नई कवितावादियों में उल्लेखनीय हैं। 'सावन का गीत',, 'चरवाहों का युगल गान 'गांव की शाम और 'मेरे भीतर की कोयल', 'तुम्हारा मन का सफर' में लोक सम्पृक्ति और ग्राम्य प्रकृति के मोहक चित्र अंकित हुए हैं-'मेरे भीतर कहीं/एक कोयल पागल हो गयी है।.....कहां से लाऊं एक घनी फलों से लदी अमराई'..वह नहीं रहेगी।/ मेरे भीतर की यह पागल कोयल/तब मुझे पागल कर जायेगी।'

लोकगीतों के साथ लोक-भाषा के शब्द जैसे निवोली, भुइयां, ओठंगी, उतानी, करेजवा, कजरी, फुलगंदवा, बिछिया, भूमर, मुंदरी, तरकी, अजोरिया आदि का सुंदर एवं सार्थक प्रयोग किया हैं प्रकृति कें सुंदर ओर संश्लिष्ट बिम्बों, नये उपमानों एवं प्रतीकों से संगुम्फित सांगरूपकों के माध्यम से सर्वेश्वर अपने को, अपने अनुभवों और रचनात्मक कौशल को व्यक्त करते हैं। 'भोर, संध्या का भय, और 'कल राम में अभिव्यक्ति का यह सौंदर्य पूरी तरह उभरा है।

  सर्वेश्वर नये मूल्यों की खोज में आधुनिकता को साथ लेकर चले हैं। युग की समस्याओं के प्रति जागरुक रहकर वे समसामयिकता को व्यंजित करते हैं। विरोधाभासों, विसंगतियों और मूल्यों के विपयर्य पर वे साहस के साथ तीखें व्यंग्य करते हैं। युद्ध, शांति, स्वतंत्रता, प्रतिबद्धता, पूंजीवाद और साम्यवाद को उन्होंने युग-बोध के स्तर से उठाकर, नये प्रतीकों के माध्याम से रचनात्मक अनुभवों के रूप में व्यक्त किया है। पीस पैगोड़ा, कलाकार और सिपाही, बेबी का टैंक, आरे की चिडिय़ा, सिपाहियों का गीत, खाली जेबें, पागल कुत्ते, बासी कविताएं आदि में युद्ध, मतवाद और हिंसक प्रवृत्तियों के विरोधी स्वरों को नये प्रतीकों के माध्यम से संयोजित किया गया है। पीस पैगोड़ा में यह विरोध व्यंग्यपरक हो गया है- 'और इस बार यदि फिर, पीस पैगोड़ा बनाना पड़े/ तो बौद्ध भिक्षुओं के गैरिक वसनों को न भूलना/ क्योंकि उन ढीले चोगों के नीचे/बड़ी-बड़ी आटोमेटिक राइफलें तक/ आसानी से छिपायी जा सकती हैं।।'

  सर्वेश्वर ने भाव-बोध के अनुरूप भाषा का संधान किया है। प्रारंभ में छायावादी शब्दावली और उर्दू के शब्दों का प्रयोग मिलता है, किन्तु धीरे-धीरे उससे निजात पाकर काव्यानुभवों को व्यक्त करने में समर्थ भाषा अपनाने में सफल हुए हैं। नये प्रकृति, प्रतीकों और बिम्बों की ललक 'बांस का पुल' में पुन: उभरी है। 'अपनी बिटिया के लिये दो कविताएं' में प्रकृति का बाल उपकरणों के साथ सुंदर संयोजन हुआ है-भपेड़ों के झुन/बजने लगे;/लुढक़ती आ रही है/सूरज की लाल गेंद।/उठ मेरी बेटी, सुबह हो गयी।' 11 

सांझ एक चित्र, 'जाड़े की सुबह', 'एक प्रतीक्षा', 'जाड़े की धूप', 'आये महंत बसंत', मेें नये बिम्बों और प्रतीकों का सौंदर्य कवि की स्वच्छंदचेतना को सघनता से मूर्त करता है-'आये महंत बसंत।/ मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला/ बैठे किंशुक छत्र लगा बांध पाग पीला,/ चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनन्त। आये महनत बसंत।

ग्राम्य-प्रकृति और लोक-जीवन से गहरा लगाव इन कविताओं में पहले की अपेक्षा अधिक दीप्त होकर आया है। दृश्य, स्पर्श और गंध के बिम्बों तथा रंग-बोध का अनूठा संसार खुलने लगता है। सर्वेश्वर ने मानवीय व्यापारों को प्रकृति के माध्याम से सुंदर ढंग से व्यक्त किया है:- 'अगहनी मुरैठा बांधे' विश्वेश्वर का चरवाहा,/ठाकुर छोर की कच्ची दीवार से/पीठ टिकाए बैठा/धूप सेंक रहा है/सुबह/दमकते सोने से रंग वाली/एक अल्हड़  किशोरी/तुल के रंग की साड़ी पहने/रंग-बिरंगी मूंज की डलिया बन रही है।

  नयी सभ्यता और बुद्धिजीवियों के बनावटीपन, दोगलेपन, धूर्तताओं पर कवि गहरी चोट करता हुआ चलता है। 'भेडिय़ा' की कविता में व्यंग्य देखें-'भेडिय़ा फिर आयेंगे।/ अचानक/तममें से ही कोई एक दिन/भेडिय़ा बन जायेग/उसका वंश बढऩे लगेगा।.... इतिहास के जंगल में/हर बार भेडिय़ा मांद से निकाला जायेगा।/ आमी साहस से, एक होकर/ मशाल लिये खड़ा होगा। इतिहा जिंदा रहेगा/ और तुम भी/ और भेडिय़ा भी।' 

सर्वेश्वर की सोच जब अनुभवों से संयुक्त होती है, तब उनका रचनात्मक अनुभव विशिष्टता के साथ व्यक्त होता है। लगता है अपनी काव्ययात्रा की एक सीमा के बाद सर्वेश्वर दुविधाग्रस्त हो जाते हैं। आत्मबोध और युग यथार्थ की टकराहट से बचने की कोई राह उन्हें दिखायी नहीं पड़ती। विसंगतियों को खोलते-छीलते अवश्य हैं पर उनके कोई विकल्प नहीं खोज पाते हैं। इस दुविधा में वे निजी ढंग के उपमानों और बिम्बों के माध्यम से अपने अनुभवों को बार-बार मांजते रहते हैं या प्रतीकों का सहारा लेकर युग की विसंगतियों पर चोट करके  संतुष्ट हो जाते हैं। गोबरैले कविता में देखें- भयह क्या हुआ/ देखते-देखते/ चारों तरफ गोबरैले छा गए।/ जितनी विष्ठा/उतनी निष्ठा। कितनी तेजी से/यहां हर कोई रच रहा है/ एक गोल मटोल संसार।.. पच्चीस वर्षों से लगातार/यही देखते-देखते/लगता है हम सब/ गोबरैलों में बदल गये हैं।' 

  सर्वेश्वर विसंगतियों की तह में जाकर उनके कारणों को खोजने का प्रयत्न नहीं करते। इसी कारण से वे अपनी समूची ग्राम्य संवेदना, जनजीवन से लगाव, मूल्यों की  खेाज, पहचान की छटपटाहट, अस्तित्व की सार्थकता और नये शिल्प के संधान के बावजूद आगे बढऩे का आभास नहीं दे पाते हैं। यही उनकी उपलब्धियां, उनकी सीमाएं बन जाती हैं।

सर्वेश्वर की काव्य-चेतना में आस्था और विश्वास के स्वर क्षीण और विरले हैं तथा व्यथा के स्वर सघन और स्फीत हैं। 'एक सूनी नाम कवि की्य निराशा के भाव- 'अब मैं कवि नहीं रहा,/एक काला झंडा हूं/ तिरपन करोड़ भौंहों के बीच।/मातम में/खड़ी है मेरी कविता।'

यह कविता कवि के बदलते मिजाज एवं लहजे का सूचक बन जाती है। सनझ् 60 के बाद हिन्दी कविता में युग यथार्थ और राजनीतिक विसंगतियों से सीधी टकराहट व्यक्त हो रही थी। उसे काव्यानुभव के स्तर पर युग कवियों ने ही नहीं, नयी कविता के जाने पहचाने कवियों ने भी व्यक्त किया था। इस समय की अव्यवस्था शासन की असफलता, लंबे-चौड़े नारों, योजनाओं और वक्तव्यों का खोखलापन जाहिर हो चुका था। सर्वेश्वर ने भी उसका अहसास किया था- भढोल की लय धीमी होती जा रही है/ धीरे-धीरे एक क्रांति यात्रा/शव-यात्रा में बदल रही है/सड़ांध फैल रही है/नक्शे पर देश के/ और आंखों मेंं प्यार के/ सीमांत धुंधले पड़ते  जा रहे हैं/और हम चूहों से देख रहे हैं।'

 'गरीबी हटाओं' कविता एक राजनैतिक सोच, सरकारी योजनाओं पर गहरा कटाक्ष है- गरीबी हटाबो सुनते ही/कब्रिस्तानेां की ओर लपके/और मुर्दों पर पड़ी वे चादरे उतारने लगे/जो गंदी और पुरानी थी/फिर वे नयी चादरें लेने चले गये/जब लौटकर आये/तो मुर्दों की जगह गिद्ध बैठे थे।'

  सर्वेश्वर को राजनीतिक विसंगतियों का तीखा अहसास था। 'कुआनो नदी्य की अधिकांश कविताओं में यह अहसास बार-बार उभरा है किन्तु जन-भावनाओं को उभारने के लिये सर्वेश्वर सक्रिय भागीदार नहीं बनते। जरा देर में खौलते और जरा देर में ठंडे पड़ते नजर आते हैं। राजनीतिक-विसंगतियों को उघारते और छीलते हुए भी सर्वेश्वर किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं हैं। लोहिया के प्रति अपनी आस्था और विश्वास को उन्होंने कई कविताओं में अवश्य व्यक्त किया है, किन्तु उन्हें लोहियावादी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार भखूंटियों पर टंगे लोग्य की कुछ कविताएं ऐसी हैं जिससे लोग उन्हें वामपंथी पक्षधरता का कवि मानते हैं   लेकिन इसी संग्रह में भमृत्यु-दंड्य और भपोस्टमार्टम्य की रिपोर्ट कविताओं में हिंसा और वामपंथी चेतना दोनों को नकरा है। 

  सर्वेश्वर की काव्य यात्रा में कुछ ऐसे बिन्दु हैं जो बार-बार कवि चेतना को उत्पेरित करते हैं। कवि का दर्द, अकेलापन, और निरर्थकता का अहसास जो प्रारंभिक कविताओं में व्यक्त हुआ था वह कवि चेतना को भखुंटियों पर टंगे लोग्य तक मथता रहा है। किन्तु बाद में इन बिन्दुओं से बंधा हुआ कवि छुटकारे का प्रयत्न करता है। सब कुछ कह लेने के बाद कविता में सक्सेना जी की व्यक्ति से समष्टि की यात्रा दिखाई देती है- 'वह मुझसे या मेरे युग से ऊपर है,/वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,/बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,/इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,/अन्तराल है वह नया सूर्य उगा लेती है,/नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,/वह मेरी कृति है/पर मैं उसकी अनुकृति 

हूं /तुम उसको मत वाणी देना।। '  

नयी कविता में कवि की अलग पहचान का बनना वस्तुत: उनकी छटपटाहट, और उसके अभिव्यक्ति के लिए नए रूपकों, बिम्बों का सहारा है। कवि अन्त में आस्थावादी और राष्ट्र की मूल चेतना की ओर ही बढ़ता दिखाई देता है। इसलिए कहा जा सकता है कि वस्तुत: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मूलत: प्रकृति, ग्राम्य-जीवन तथा सांस्कृतिक पृष्ठिभूमि में जुड़े रहकर अपनी सामाजिक, राजनैतिक कमजोरियों को संस्कृति और परंपरा के माध्यम दूर करने का प्रयत्न करते हैं।



कबीर की कविता का प्रदेय

  कबीर की कविता का प्रदेय

डॉ. उमेश कुमार सिंह


प्रत्येक राष्ट्र का अपना इतिहास होता है। इतिहास वर्तमान को प्रभावित करता है, कारण इतिहास पूरा का पूरा बीतता नहीं। उसकी सत्ता हमें प्रभावित करती है। इतिहास हमारा जीवन रस होता है साथ ही वर्तमान भी इतिहास को प्रभावित करता है। 

यह सत्य है कि रचनाकार एक निश्चित परिवेश में जीता है। उसके जीवन का निर्माण उसके राष्ट्र और उसकी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज आदि पर निर्भर करती हैं किन्तु यह भी सत्य है कि कबीर जैसे रचनाकार का व्यक्तित्व उसे राष्ट्र और उसकी सीमाओं, काल और उसके युग से खींचकर जहां वैश्विक बनाती है, वही उसकी रचना कालजयी बनती है,जो मानवीय संवेदनाओं को निरन्तर काल के साथ परिष्कृत और संवर्धित करती चलती है। कबीर जैसे रचनाकार की यही सार्थकता है। अत: तथ्यों के आधार पर यह देखना आवश्यक है कि कबीर और उनके काव्य का प्रदेय क्या था और आज भी कितना समीचीन है। 

कबीर के समय भारतवर्ष पर इस्लामी देशों के अनेक आक्रमण हो चुके थे, और मुहम्मद गोरी के पश्चात हिन्दू राज-सत्ता छिन्न-भिन्न हो गई थी। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के सामने युद्धरत खड़े रहते थे। डॉं. पीताम्बर दास बड़थ्वाल ने लिखा है-भभ15वीं शताब्दी में भारत में आध्यात्मिकता की धारा निगुर्ण सम्प्रदाय से होकर प्रवाहित हुईं आध्यात्म चिन्तन धारा को यह गहन एवं नवीन स्वरूप प्रदान करने के मूल में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा अन्य कारण थे। इस प्रकार कबीर, नानक, दादू, प्राणनाथ, मलूकदास, पलटू, साहिब आदि सन्तों द्वारा प्रवर्तित निर्गुण सम्प्रदाय द्वारा तत्कलीन युग की आवश्यकताओं की पूर्ति हुई।्य्य 1 कहा भी गया है कि -भभक्ती द्राविड़ उपजी लाए रामानन्द। परगट किया कबीर ने, सप्त दीप-नवखण्ड।्य2

  कबीर के साथ एक विसंगति बनाई गयी। कबीर ने कहा है- भझीनी-झीनी बीनी चदरिया।्य3 आप स्वीकर करेंगे कि यह बात कबीर ही कह सकते हैं। कारण स्पष्ट है रचनाकार जब अपने कर्म के साथ एकात्म होता है तब सृजन की प्रक्रिया दिखाई देती है। कबीर प्रत्येक लौकिक और अलौकिक वस्तु को जुलाहे के साथ देखते हैं; उनके लिए ईश्वर भी एक बुनकर है। उनके अनुभवों का ताना भक्ति का बाना बन कर सामने आता है। क्या इसी कारण कबीर को रहस्यवादी बना देना उचित हैघ् क्या कबीर सचमुच रहस्यवादी थेघ् आचार्य विष्णुकांत शास्त्री कहते हैं- भभकबीर के पूरे साहित्य में कही भी रहस्यवाद शब्द नहीं है। कबीर का रहस्यवाद पश्चिम की देन है। रवीन्द्रनाथ ने कबीर की तलाश की, रवीन्द्रनाथ को कबीर का परिचय क्षितिज मोहन सेन ने कराया। रवीन्द्रनाथ ब्रहझ्म समाज से प्रभावित थे। ब्रहझ्म समाज ईसाईयत से प्रभावित था। कबीर रवीन्द्र के कारण रहस्यवादी हो गए।.....बाद में रामकुमार वर्मा के कारण भावनात्मक रहस्यवाद और साधनात्मक रहस्यवाद आया।  भअव्यक्त्य की उपासना रहस्य कवि का जन्मदाता है। ्य्य 4

कबीरदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में हैं, वह तत्व की बात कहने वाले कवि माने जाते हैं। कबीर का काव्य हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। कबीर कहते हैं- भतू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा, बुझउ मोर गियाना।्य5 इसी तरह अन्य स्थान पर कहा- भकहत कबीर कर गह तोरी, सूतहि सूत मिलाए कोरी। अथवा जाति जुलाहा नाम कबीरा, बन बन फिरौं उदासी।।्य 6 कबीर ने छुआछूत, जाति-पांति आदि को कहा किंतु यह आज बहुत उछालकर कहा जा रहा है, यह स्वीकार योग्य है किन्तु यह कबीर का प्रदाय नहीं।

चरखा कबीर का जीवनयापन का साधन है और पूजा की वस्तु भी। उनकी दृष्टि में जीवन के कर्म से धर्म अलग नहीं है। उनके कवि-कर्म और जीवन-धर्म में अदझ्भुत साम्य है। कारीगर कबीर के जीवन की कला ही उनकी कविता बन गई। स्पष्ट है कि रचनाकार समाज में रहता हुआ युग की धारा को उसी तरह अनुभव करता है जिस तरह अन्य लोग। जितना बड़ा रचनाकार होगा उसका अपने रचना पर उतना ही प्रभाव और अधिकार दिखाई देता है। वह समाज का प्रतिनिधित्व करने के साथ-साथ समाज को दिशा-निर्देश करते हुए अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। साहित्यकार की रचना में उसके समय की आत्मा बोलती है, उसकी आस्था व उसके विश्वास परिलक्षित होते हैं। और वह रचना उस काल का सच्चा दर्पण होती है और यही दर्पण आज का समय बन कर देखने वाले को अपना चेहरा दिखाता है। देखने वाला व्यक्ति हो, राष्ट्र हो या विश्व। कबीर के अनुसार समाज में व्यक्ति का स्वरूप वीभत्स हो गया था। घमण्ड, मिथ्याभिमान, दुराचार, पाखण्ड, पारस्परिक अविश्वास, विषय-वासना आदि के कारण सब दु:खी थे। निर्धन वर्ग सर्वथा उपेक्षित था- भनिर्धन आदर कोई न देई। लाख जतन करै ओहिचित न घरेई।। जो निरधन सरधन कै जाई।  आगे बैठा पीठ फिराई।।्य गरीबों का जीवन दूभर हो गया था- भनित उठि कोरि गागरिया लै लीपत जनम गयो।्य 7

डॉ. रामविलास शर्मा ने लिखा है- भभसामन्ती व्यवस्था में धरती पर सामन्तों का अधिकार था तो धर्म पर उन्हीं के समर्थक पुरोहितों का। संतों ने धर्म पर से पुरोहितों का इजारा तोड़ा। खास तौर से जुलाहों, कारीगरों, गरीब किसानों और अछूतों को सांस लेने का मौका मिला, यह विश्वास मिला कि पुरोहितों और शास्त्रों के बिना भी उनका काम चल सकता है।्य्य 8

मनुष्य आज सब प्रकार के भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न है, फिर भी वह दु:खी दिखता है, आखिर क्योंघ् पुरातन काल के मानवों की घटना पढऩे-सुनने पर लगता है कि वे जंगलों में रहकर कंदमूल खाकर जिन्दगी भर, अभावग्रस्तता की जिन्दगी बिताकर भी संतुष्ट और सुखी रहते थे। इस रहस्य को समझना हो तो उस तह तक जाना होगा जहां मनुष्य की विचार-शक्ति और उसके चिन्तन वैभव का वास होता है। हम जिस युग में जी रहे हैं वह वैज्ञानिक प्रगति के अंतिम सोपान का युग है। किंतु मनुष्य बावजूद इसके सब प्रकार से क्लांत, अशांति, दु:ख, उदिझ्ग्न्ता से भरा है। यह स्थिति कोई कबीर के जमाने तक अथवा भारत तक ही सीमित नहीं थी बल्कि यह स्थिति पश्चिम में भी थी तभी तो आज के मनुष्य की दशा का चित्रण इलियट के इस कथन से होता है। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी कवि इलियट अपने प्रत्येक जन्म दिन पर काले व भददे कपड़े पहनकर शोक मनाया करते थे और कहते थे- भभअच्छा होता यह जीवन मुझे न मिलता, मैं दुनिया में न आता।्य्य9 किन्तु इसके विपरीत कबीर के समर्थक हैं, अन्धें कवि मिल्टन वे कहते है-भभभगवान का लाख-लाख शुक्र है कि उसने मुझे जीने का अमूल्य वरदान दिया।्य्य10 जीवन को समझना और उसे गौरव के साथ जीना, जन इस भाव और भाषा को समझे यही कबीर का प्रदेय है।


भक्ति काव्य हिन्दी भाषा के काव्यत्व का उत्कर्ष है। कुछ लोगों का मानना है कि आज कि समकालीन हिन्दी आलोचना ने कबीर को अध्यात्म प्रेमी विदेशियों तथा उनके देशी सहयोगियों को सौंप दिया है। किन्तु क्या यह सत्य हैघ् क्या भारतीय जीवन दर्शन को अध्यात्म से अलग कर देखा जा सकता है। जन कवि के अन्दर भी तो वही भारतीय आत्मा है जो अध्यात्म के बिना जिंदा नहीं रह सकती। वर्तमान में जब हम कबीर की उपादेयता पर विचार करते हैं तो हमारे सामने उनके काव्य की उत्कृष्ट उपादेयता अध्यात्म ही सामने आती है। वे बाहझ्याडम्बर के विरोधी थे न कि धर्म के। वस्तुत: नसमझी के कारण धर्म आज झगड़े का, हिंसा का कारण बन गया है। युग ने न तो कबीर की भाषा का, न धर्म का और न ही अध्यात्म का सही अर्थ समझा। परिणामत: हम आज कबीर को यह कह कर नकारने का प्रयत्न करते हैं कि कबीर अध्यात्म तक सीमित हैं। क्या बिना अध्यात्म के हम जीवन का विचार कर सकते हैंघ् ध्यान रहे यह बात उन पर लागू नहीं होती जो पूरी तरह भौतिकता से ग्रस्त हैं जिन्हें या तो लौकिकता या पारलौकिकता ;अभ्युदय और नि:श्रेयसद्ध का धर्म और अध्यात्म का या तो बोध ही नहीं है या तथाकथित सेक्युलर हैं। धर्म का अर्थ भौतिक कर्मकाण्ड नहीं। हम जिसे धर्म समझते हैं वास्तव में तो वह संप्रदाय की आचार-संहिता है। आचार-संहिता जब आचरण को प्रभावित करने लगे तो वह निरर्थक हो जाती है और क्लेष का कारण बनती है। धर्म ज्ञानेन्द्रियों का विषय नहीं चिति का विषय है। इसीलिए जब हम मनुष्यता की बात करते हैं तो वह धर्म की बात होती है। धर्म संस्कारों का नियामक होता है। जब हम विश्व के प्राणी मात्र की, चर-अचर के एकात्मकता की बात करते हैं तो वह अध्यात्म होता है। अध्यात्म आत्मा की खुराक है। योग का मार्ग है। सम्प्रदायों का अंतिम छोर यदि धर्म है तो धर्म का अंतिम छोर अध्यातम है। जहां से धर्म समाप्त होता है वहां से अध्यात्म प्रारंभ होता है। कबीर का बाहझ्याडम्बर का विरोध भी धर्म का विरोध नहीं संप्रदायिकता आधारित कर्मकाण्ड का विरोध है। इसीलिए सही मायने में जब कबीर को हम देखते हैं तो वह प्राणीमात्र की चिंता करने के कारण धर्माचरण की बात करते हैं और अध्यात्म में जीते हैं। धर्म मानव से मानव को नहीं बांटता बल्कि मानव को प्राणिमात्र से जोड़ता है अन्यथा वे हिन्दुओं और मुसलमानों के कर्मकाण्ड को क्यों नकारते। वस्तुत: कबीर लोक अर्थात जन के धर्म की चिन्ता करते हैं। सही मायने में लोकद्र्रष्टा बनकर। राम ही कबीर के अध्यात्म हैं। 

कबीर शास्त्रीय धर्म की बार-बार आलोचना करते हैं, वह चाहे वेद-पुराण के सहारे चलने वाला हो या कुरान के सहारे। किन्तु इसका अभिप्राय यह कतई नहीं कि कबीर वेद का खण्डन करते हैं। ध्यान रखना चाहिए वेद के चार भाग हैं- संहिता, आरण्यक, मीमांसा और उपनिषद। पहले तीन कर्मकाण्ड आधारित हैं जबकि चौथा कबीर का अभीष्ट है। कबीर लोक-वेद के साथ थे अर्थात वेद के तीन हिस्सों की परवाह कर रहे थे या यू भी कह सकते हैं कि तब तक प्रथम तीन के बाहझ्याडम्बर बन चुके विकृत कर्मकाण्ड को नकार नहीं रहे थे। लेकिन जब गुरु ने उन्हें अद्वैत का उपदेश दिया कबीर वेद के चौथे पायदान पर पहुंच जाते हैं। भ कबीर पीछे जाय था, लोक-वेद के साथ। आगे था गुरू मिला, दीपक दीया हाथ।्य 11 तभी तो कहा- भलोक जानि न भूलो भाई।्य 12 चाहे उस पर पंण्डितों-पुरोहितों का प्रभुत्व हो या मुल्लाओं का कब्जा। कबीर मन के निर्मलता की बात करते हैं- भमन ऐसा निर्मल भया, जैसे गंगा नीर। पीछे पीछे हरि हरि फिरे कहत कबीर कबीर।ं्य 13  कबीर के प्रदेय को समझने के लिए कबीर की शब्दावली को समझना ठीक होगा। हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें जब वाणी का डिक्टेटर कहते हैं तो वैसे थोड़े ही कहते हैं। उसके पीछे कबीर के द्वारा प्रयुक्त शब्दों की शक्ति है। कुछ शब्दों को यहां अगर देखें तो उनके सच्चे लोकसुधारक, लोक जागरणकर्ता कवि की भावना उजागर होती है। साधो, संत, अवधू, पांडे, पंण्डित, मुल्ला, काजी, जोगी, जैसे सम्बोधन केवल शब्द नहीं है, इसमें कबीर की पूरी प्रोक्ति निर्भर करती है। भाईत्रसामान्य जन का सम्बोधन है। साधक त्रजो जग गया।, साधो त्रजो बीच यात्रा में है।, अवधूत्रजो सब कुछ छोड़ा हुआ है जिसे गुरु की भी चाह नहीं।, संत त्रजो पूर्णता को पहुंचा हुआ है। जोगी त्र उपहास हेतु।, पांडे, पण्डित, मुल्ला, काजी त्र यहां कबीर का आक्रोश है। ब्रहझ्म त्र जो सम्पूर्ण, सर्वज्ञ, सर्वस्व है। साधो त्र नि:शब्दता की साधना है, नाद है। वस्तुत: यह कुछ ऐसे उदाहरण है जो कबीर को समझने में सहायक हैं। हम आप इसे खारिज नहीं कर सकते। कबीर स्वयं भाषा के प्रति कितने सजग थे, वे कहते हैं- भसंस्कीरत है कूप-जल भाषा बहता नीर।्य 14

  लेकिन कबीर यह भी जानते हैं कि समाज में लोकधर्म के नाम पर वह भ्रमजाल भी फैला होता है जिसे लोकाचार कहा जाता है। वह कई बार शास्त्रोक्त व्यवहार  होता है। इसीलिए कबीर लोकाचार की भी आलोचना करते हैं- भताथैं कहिये लोकोचार, वेद कतेब कधैं व्यौहार।्य 15 वे आंख मूंदकर सामान्यजन में प्रचलित विश्वासों को स्वीकर नहीं करते, उन्हें सजग आलोचनात्मक दृष्टि से देखते हैं। कबीर के सामने यह लोकविश्वास था कि जो काशी में मरेगा वह मोक्ष पायेगा और मगहर में मरने वाला अगले जन्म में गदहा होगा। इस लोकविश्वास को मानने का अर्थ था भक्ति का निरादर। भलोकामति का भोरा रे। जो कासी तन तजै कबीरा, तो रामहि कहा निहोरा रे।।्य 16

कबीर यह नहीं मानते कि जो लोकधर्म के नाम पर चल रहा है वह सब सत्य है, इसीलिए कहते हैं- भलोक जानि न भूलो भाई।्य कबीर शास्त्रीय ज्ञान के बोझ से मुक्त हैं। कबीर जिस लोकधर्म का विकास कर रहे थे उसका मुख्य लक्ष्य था मनुष्य सत्य या मनुष्यत्व का विकास। कबीर कहते हैं- भपुष्पे ब्रहमा पाती विष्णु, फूले महादेवा। भूली मालिन पाती तोड़े करती किसकी सेवा।।्य 17 यह सच्चा धर्म और अध्यात्म की प्रथम सीढ़ी है तथा आज के पर्यावरण का औचित्य। धर्म इसलिए की पर्यावरण का संरक्षण है और अध्यात्म इसलिए कि जीव मात्र की एकात्मता है। तभी तो आचार्य शुक्ल जी ने कहा कि- भकबीर ने मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाया।्य 17 

कबीर की शैली प्रश्नावली की शैली है। कबीर की प्रश्न करने की प्रवृत्ति अपने काल के कवियों में सर्वश्रेष्ठ थी। कबीर के प्रश्न जितने सरल और बेलाग हैं उतने ही तीखे और तिलमिला देने वाले। वे कभी-कभी सुकरात की तरह अज्ञानी बनकर प्रश्न करते हैं और ज्ञानियों की पोल खोल देते हैं। प्रश्न की प्रवृत्ति ही कबीर की कविता में व्यंग्य को विशिष्ट सामाजिक कला बनाती है। वही प्रवृत्ति पाठकों को प्रश्न पूछने की प्रेरणा और निर्भीक दृष्टि भी देती है। कबीर केवल प्रश्न नहीं करते। यदि वे ऐसा करते तो आज के कवियों की भांति विरोध और असहमति के कवि रह जाते। यही कारण है कि कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। कबीर की सामाजिक सजगता असहमति और विरोध से आगे बढक़र समाज में मनुष्यत्व की भावना को विकसित करने और मनुष्य सत्य की प्रतिष्ठा करने के लक्ष्य को सामने रखती है। समाज में मानवीय भावों और मानवोचित गुणों के प्रसार के लिए मनुष्य विरोधी भावों को हटाना आवश्यक होता है इसीलिए कबीर ईष्या, क्रूरता, कामुकता, कपट, अहंकार, पाखण्ड आदि की आलोचना करते हैं और प्रेम करुणा, दया, उदारता, अहिंसा, समता आदि मानवीय मूल्यों और गुणों को लोकधर्म बनाने पर जोर देते हैं। वे बुद्ध की भांति भअप्प दीपो भव्य की बात करते हैं। जब चारों ओर पाखण्ड का राज्य विस्तार पा रहा हों तब आज भअप्प दीपो भव्य की  कितनी आवश्यकता है, इसे आप स्वयं बोध कर सकते हैं। वस्तुत: कबीर के लोकजागरण का यही अभीष्ट है।

मैं यहां पुन: कहना चाहंूगा कि कबीर के लोकधर्म में व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्कर्ष को अधिक महत्व मिलता है क्योंकि कबीर जानते हैं कि सच्ची मनुष्यता का उदभव केन्द्र आध्यात्मिकता है। वे जब अपने लिए- धूत, अवधूत, रजपूत और जुलाहा की बात करते हैं तब उनका लोक और धर्म दूसरे कवियों की तुलना में भिन्न है और वह आध्यात्म के रूप में प्रकट होता है। कबीर के आदर्श- सनक, सनन्दन, शुकदेव, व्यास, जयदेव, नामदेव थे। कबीर का मूल प्रदेय राम से जुडक़र है, राम से जुड़े होने के कारण सब समान हैं; पण्डित को फटकार वेद के कारण हैं। वेद का विरोध कबीर में नहीं  हैं। कबीर जिस ब्रहम की उपासना करते हैं, वेद उस परमपुरुष का नि:स्वास है। कबीर ऋषि है। ऋषि मंत्रद्रष्टा हैं, पुरोहित नहीं। कबीर का साखी शब्द संस्कृत के साक्षी शब्द से आया है। जिसका अर्थ है गवाही। आंखों से देखी। भमैं कहता आंखनि की देखी, तू कहता कागज की लेखी।्य18 कबीर की साधना अनुभवगत है जो निर्भय और निडर बनाती है, जो हमें उपनिषद से जोड़ती है। भक्ति पंचायती नहीं होती, वह एकान्तिक होती है। भराम मोरा पीय मोरा राम की बहुरिया्य अथवा भन मै देखूं और को न तोहि देखन देउं।्य19 कबीर ने अपने इष्ट पर सारे गुणों का आरोपण किया। पति-पत्नी का सम्बन्ध सभी सम्बन्धों का समाहार है। कबीर सत, रज, तम को अस्वीकार करते हुए ऋषि के सामान दिव्यगुणों को ग्रहण करते हैं। इसीलिए जैसा मैंने ऊपर कहा है- कबीर के राम का सौन्दर्य भअव्यक्त्य का सौन्दर्य है। कबीर का मार्ग ऋषि परंपरा का है न कि पुरोहित परम्परा का कारण पुरोहित की मर्यादा कर्म-काण्डों से बंधी है। पुरोहित स्वार्थी होता है।

संक्षेप में कुछ तथ्यों को अपने आचार्यों के मत से कबीर की कथनी के साथ पुष्ट करें-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल मानते हैं कि-भकबीर की साधना भक्ति की साधना है। कबीर ज्ञानी भक्त हैं। उनका सहजयोग और कुछ नहीं राम नाम की ही साधना है।्य 20 कबीर सभी मतों के सार तत्व को ग्रहण करते हैं। वे जीवन को निरर्थक नहीं होने देना चाहते। वे कहते हैं- भसाधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार सार को गहि रहे थोथा देय उड़ाय।्य 21 कबीर हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच भेदभाव नहीं मानते। इसलिए दोनों के बीच फैले बाहझ्याडम्बर का उन्होंने विरोध किया- भजो तू बाहमन बहमनि जाया। आन द्वार से काहे नहि आया।्य आगे कहते हैं- भएक जोति से सब उतपना, का बामन का सूद्रा।्य22 मुसलमानों पर कटाक्ष-भदिन में रोजा रहत है रात हनत है गाय। यह तो खून वह बंदगी कैसे खुदा रिझाय।्य23 अथवा अजान और हज, काबा, रोजा, नमाज, अजान, सुनीति, मसीति आदि की ओर तर्क पूर्ण व्यवहार करने की बात कही।भकंकड़ पत्थर जोरि कर मस्जिद लई बनाय। ता चढि़ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।्य24 कबीर की भक्ति निगुर्ण की भक्ति है-भदसरथ सुत तिहु लोक बखाना।राम नाम को मरम है आना।्य25

कबीरदास आडम्बरी योगियों का ही विरोध करते हैं गोरख नाथ जैसे योगियों का नहीं। वे गोरखनाथ को आदर के साथ याद करते हैं- भसाधों गोरखनाथ ज्यां अमर भये कलिमांहि।्य 26 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भक्तिकाव्य को लोकधर्म की अभिव्यक्ति मानते हैं और रामविलास शर्मा उसे लोकजागरण का काव्य कहते हैं। हजारी प्रसाद जी लोकधर्म को भक्ति आंदोलन की जन्मभूमि मानते हैं, लेकिन उनकी लोकधर्म की धारणा शुक्ल जी से भिन्न है। आचार्य द्विवेदी लोकधर्म के मूल में कबीरदास की सामाजिक-सांस्कृति दृष्टि मानते हैं। 

वस्तुत: कबीर का सम्पूर्ण काव्य लोक से कुछ परिवर्तन की अपेक्षा रखता है। वह उसमे एक विशेष प्रकार का जीवन-धर्म जीने की दृष्टि देना चाहता है। सार रूप में कहें तो वे इस प्रकार हैं- करणी कथनी में एकता, चित और मन की शुद्धता, साधकों की सारग्राहिता, मध्यमार्ग की प्रतिष्ठा, अद्वैत, लोकमार्ग और पण्डित मार्ग का संज्ञान, हिन्दू और मुसलमान, सुख और दु:ख के बीच सामंजस्य, समस्त बाहझ्याचार व्यर्थ है अत: आंतरिक साधना, ईश्वर के प्रति पूरा समर्पण, कामिनी कंचन का त्याग, ईश्वरीय समन्वय, मतवादों से शुद्ध स्नेह की प्राप्ति, अवतार नहीं नाम महिमा, गुरु का महत्व इत्यादि। उन्होंने कहा- भजाके मन विश्वास है, सदा गुरु है संग। कोटि काल झकझोरहीं, तउ न हो चित भंग।्य 27 वस्तुत: यही कबीर का प्रदेय है।

संदर्भ: 1. हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल, 2.कबीर-हजारीप्रसाद, 3.कबीर-पीताम्बरदास, 4. कबीर ग्रंथावली-श्यामसुन्दर दास, 5. कबीर आलोचनात्मक अध्ययन: डॉ.राजेश्वर चतुर्वेदी, 6. कबीर की विचारधारा: गोविन्द त्रिगुणायत, 7. कबीर का रहस्यवाद: डॉ. रामकुमार वर्मा, 8. कबीर के पद: क्षितिज मोहन सेन