Friday, 13 November 2020

शिक्षक और विद्यार्थी (भाग-दो)

 

 

(भाग-दो)

      स्मरण रखना होगा कि शिक्षक और विद्यार्थी जिस समाज से आते हैं उस समाज के लोगों का भी मन भयानक रूप से चंचल है। उनके सुख का केन्द्र अपने से बाहर है और इसीलिए वे सुख की तलाश में इधर उधर भागते हैं। इतना ही नहीं उनके सुख का केन्द्र अपने अन्दर से निकल कर या तो बाजार, सिनेमाघरों, डांस थियेटरों, क्लवों में या फिर चर्च में, प्रवचनों में, भाषणों में जाते हैं, कहने का अर्थ यह कि लक्ष्य विहीन सुख की तलाश में जहां इच्छा हुई, उधर ही दौड़े जाते हैं। तब एक ही सिद्धांत काम करता है- ‘‘प्रवाह के विपरीत चिंतन करने का कष्ट क्यों करें? मन को क्यों स्थिर करें ? अपनी इस मानसिक प्रवृत्ति के कारण पूरा भटका जन अधिकाधिक बहिर्मुखी बनता जाता है और अज्ञान के पाश में उलझ जाता है।’’

     आज के अधिकांश युवा भी सोचते हैं कि- जब हम ऐसे ही सुख पाते हैं तो मन को विचार करके कष्ट क्यों देना? क्यों न प्रचलित द्रव्यों का सेवन कर निद्रा जैसी मोहक स्थिति में मन को डाल दें, रोचक दिवास्वप्र में मग्र रहें? सोचना या विचार करना तो युवावस्था को वांछित नहीं है।प्रौढ़ और तनिक इस मोह जाल से निकले लोग मस्जिद, गिरिजाघर, देवालय जाते हैं, और विचारहीन अस्पष्ट निरा भौतिक रूप से दिए जानेवाले प्रवचनों को सुनते हैं, जो आध्यात्मिक दृष्टि से शून्य हैं। अर्थहीन हैं। 

शिक्षक का धर्म है कि वह इस वातावरण को बदले और आध्यात्मिक जीवन का प्रवाह शिक्षा संस्थानों के परिसर में प्रवाहित करे। यही शिक्षा की नीति होनी चाहिए। शिक्षा नीति का भौतिक लक्ष्य अपने प्रवेशित विद्यार्थियों की संख्या बढ़ाना तो है, किन्तु उससे अधिक महत्वपूर्ण उसे स्वरोजगार और रोजगार युक्त बनाना भी है। आज इस दिशा में यदि आत्मनिर्भर भारत और आत्मनिर्भर मध्यप्रदेश की योजना एक आकार ग्रहण कर रही है तो उसका मूलाधार हमारे शिक्षा संस्थान, शिक्षक और शिक्षार्थी ही हैं। इन्हें ही ऊपर उठाना आज का युगधर्म है।

यदि हम कहीं तनिक भी इस पतनोन्मुख वातावरण को ऊपर उठाने में, बदलने में अपने को असमर्थ पाते हो, तो विचार कर स्वयं को ही ऊपर उठाना होगा। क्योंकि जब हम समाज को जिसमें हम स्वयं शामिल हैं, तो पाते हैं कि यह मानव-पशु धन, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान को लेकर कितना दुखी है? परिणाम ये उस समाज को भी दुखी करते दिखाई पड़ते हैं, जिनको जीवन निर्वाह हेतु रोटी, कपड़ा और मकान की ही आवश्यकता है।

हमारे मटमैले विचार कम्पन पूरे परिवेश को दूषित और विषाक्त करते हैं।  विकृत विचारों को परिसर पर, सडक़ों पर चलने वाले चेहरों पर देखा जा सकता है। कैसी घोर सांसारिकता और विकृति दिखायी देती है। पुते चेहरेवाले हाड़माँस के पुतले और पुतलियाँ, अपने भडक़ीले भाषा और भूषा से केवल यौन विकार-रस को ही तो प्रवाहित करते हैं? यदि हम थोड़ा अन्तर्मुखी हो जाएं, हमारी संवेदनशीलता तनिक प्रबल हो जाए, तो हम देखेगे कि यह सब कितना भद्रता से रहित है। इसलिए आज शिक्षा के परिसर इतने अरुचिकर मालुम पड़ते हैं ।

सामान्यत: आज शिक्षा परिसरों के चर्चा के तीन विषय होते हैं: एक, राजनीति का दूषित पक्ष, दूसर- पैसा कमाने के संसाधन-जुगाड़ और तीसरा, यौन चर्चा। इसकी प्रतिछाया हमारे फिल्मों, नाटकों, उपन्यासों और गीत-संगीत में होती हुई धीरे-धीरे हमारे मस्तिष्क में ऐसी छा जाती है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर पाते और जीवन के सामाजिक पक्ष में जैसे ही प्रवेश करते हैं, हमारी यह मानसिकता शरद के कोहरे की तरह हमारी सामाजिक प्रज्ञा को ढकने लगती है।

 स्पष्ट है वायुमण्डल बदलने के कारण शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की सोच बदल गई है। यह उसी तरह होती है, जैसे इस कोरोना काल में प्रभावित के सम्पर्क में आते ही हमारा जीवन संकट में आ फँसता है, इपीडेमिक आता है। तब वह वायुमण्डल राष्ट्रनिर्माण के हित में न होकर या यू कहिए कि शिक्षा के लक्ष्य की पूर्ति न करके जीवनमूल्यों को निरन्तर क्षतिग्रस्त करता है।

इसलिए आवश्यक है कि मन को सतत ध्येय की ओर लक्षित कर सदा विचार का एक अखण्ड प्रवाह बनाये रखना चाहिए। किन्तु ध्येय है क्या? शिक्षा का लक्ष्य आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च।यह सबसे अधिक श्रमसाध्य है किन्तु बहुत महत्व का है। यह लक्ष्य घनीभूत होकर जब निरामय, परिपूर्ण और निरतंर अखण्ड और अबाध गति से प्रवाहित होता है, तब ही हमारा शिक्षक और विद्यार्थी न केवल अपनी चेतना को विकसित कर पाता है, बल्कि इस समाज को भी भौतिकता में आसक्ति रहित ‘तेन तक्त्येन भुंजिथा:’, जीवन जीते हुए सुखी बनाने का वातावरण देता है। ऐसे चेतनायुक्त मानस को तैयार करने का कार्य भारतीय ऋषि परम्परा से हमें प्राप्त होता रहा है, जिसे हमने जीवन का मोक्ष कहा है।

इसीलिए व्यक्ति की चेतना का विकास हो, हर व्यक्ति अपनी अन्त:प्रेरणा के अनुसार अंतिम आनन्द का अनुभव करे, इस सुविधा के विकास के लिए हमारे विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं। बस आज अन्तर इतना है कि इन्हें अपनी प्राचीन जीवन पद्धति तथा जीवनश्रेणी के अनुसार आज के युगधर्म पर आधारित बनाना होगा। जिसका सूत्र यदि बुद्ध का अप्प दीपो भवहै, तो चलो जलाएं दीप वहाँ जहाँ अभी भी अँधेरा है, आज का युगबोध है।

इस युगबोध की पूर्ति हेतु मनुष्यता की महान दृष्टि ‘धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगेने लक्ष्य बताया है कि प्रभावायाहि भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम्इसी से सर्वे भवन्तु सुखिन:अर्थात् सम्पूर्ण विश्व अखण्ड सुख को प्राप्त होगा। इसलिए मनुस्मृति कहती है कि जरा अपने base of operation को स्मरण रखें- एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन:। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा:। आइये इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दीपावली के प्रकाश पर्व से अपनी चेतना को आलोकित करें।

सादर 

2 comments:

  1. अति उत्तम । आज की आवश्यकता है इन विचारों पर बढ़ने की ।

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  2. Lead me from darkness to light, from mortality to immortality, from untruth to truth. This prayer, whiich constitues the core of Indian scriptures, awakens us to the supreme goal of turning our attention to the divine light permeating our hearts before the spark of consciousness leaves the body. Thanks a lot for enlightening us with your noble ideas which are relevant and will remain so in times to come. Happy Diwali.

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