काव्य हेतु
प्रो उमेश कुमार सिंह
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर काव्य रचना या कलात्मक सर्जनों का अभिप्राय प्रयोजन, और उद्देश्य क्या है?
परंपरा के अनुसार ब्रह्मानंद सहोदर आनंद की प्राप्ति या लब्धि ही काव्य का मूल हेतु है।
ध्यान में रखने योग्य तथ्य है कि जो काव्य के हेतु और प्रयोजन है वही वास्तव में साहित्य के समस्त विधायक रूपों के भी और प्रयोजन है । इस प्रकार अभी ललित कलाओं का हेतु एवं प्रयोजन उन्हीं को स्वीकार किया जा सकता है । अत: काव्य हेतु का विश्लेषण इन्हीं व्यापक संदर्भों में ही करना चाहिए।
काव्य हेतु: वे कौन से हेतु अथवा कारण है जिनकी अंत:प्रेरणा से कवि या लेखक को एक नव्य सृष्टि रचना की अंत: स्फूर्ति प्राप्त होती है।
तर्क शास्त्र के अनुसार दो प्रकार के हेतु हुआ करते हैं - 1. निमित्त हेतु या संयोग हेतु।
2. उपादान हेतु या समवायि हेतु।
काव्य हेतु को ह्रदय मे विद्यावान सर्जनात्मक शक्ति के नाम से भी अभिहित किया जा सकता है। वही हेतु हैं- प्रतिभा, व्युत्पत्ति, निपुणता, अभ्यास आदि।
आचार्य भामह ने प्रतिभा को काव्य सर्जना का मुख्य हेतु स्वीकार किया है। काव्य के अनवरत अध्ययन द्वारा व्युत्पन्न शक्ति को भी काव्य का हेतु स्वीकार किया है।
भामह के बाद आचार्य दंडी ने प्रतिभा को काव्य का हेतु स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उसके साथ व्युत्पत्ति अर्थात शास्त्र ज्ञान और अभ्यास को भी अनिवार्य तत्व माना।
अर्थात प्रतिभा के अभाव में भी शास्त्र अध्ययन एवं अभ्यास से काव्य सर्जना संभव हो सकती है। तात्पर्य यह कि आचार्य दंडी भामह के समान प्रतिभा ,व्युत्पत्ति और अभ्यास- इन तीनों को ही काव्य हेतु स्वीकार करते हैं।
आचार्य वामन ने काव्य हेतु को काव्यांश कहां है और क्रमश: लोक, विद्या और प्रकीर्ण नाम से 3 काव्यांग स्वीकार्य हैं।
आचार्य रूद्रट के अनुसार" प्रतिभा के बल पर कवि शब्द एवं उनके अर्थ के अवलोकन की क्षमता प्राप्त करता है, अर्थात शब्द- अर्थ को ठीक प्रकार जान पाने में समर्थ हो जाता है।
आचार्य रुद्रट ने प्रतिभा और शक्ति को सहजा और उत्पाद्या दो भेद भी स्वीकार किए हैं।
आनंदवर्धन ने प्रतिभा और व्युत्पत्ति को ही काव्य हेतु माना है।
परवर्ती आचार्यों में केशव मिश्र, हेमचंद्र और पंडित जगन्नाथ ने आचार्य भामह के अनुरूप प्रतिभा को ही काव्य रचना का सर्वाधिक प्रमुख कारण माना है।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संस्कृत के आचार्यों ने काव्य रचना के लिए तीन ही हेतु स्वीकार किए हैं-
१. प्रतिभा,२. व्युत्पत्ति,३. अभ्यास।
रीतिकालीन आचार्य में भिखारीदास ने भी उक्त तीनों बिंदुओं को स्वीकार किया है।
आचार्य नगेंद्र ने लिखा है -होरेस और उनके अनुयायी नव्यशास्त्रवादियों को छोड़कर शेष सभी चिंतकों को ही प्राथमिकता प्रदान की है।
तात्पर्य यह कि पश्चिम ने भी निपुणता और अभ्यास को ही कविता का हेतु स्वीकार किया है। होरेस ने लिखा है," सत्काव्य रचना का मूल प्रतिभा में होता है,।"
प्रो उमेश कुमार सिंह
यह प्रश्न स्वाभाविक है कि आखिर काव्य रचना या कलात्मक सर्जनों का अभिप्राय प्रयोजन, और उद्देश्य क्या है?
परंपरा के अनुसार ब्रह्मानंद सहोदर आनंद की प्राप्ति या लब्धि ही काव्य का मूल हेतु है।
ध्यान में रखने योग्य तथ्य है कि जो काव्य के हेतु और प्रयोजन है वही वास्तव में साहित्य के समस्त विधायक रूपों के भी और प्रयोजन है । इस प्रकार अभी ललित कलाओं का हेतु एवं प्रयोजन उन्हीं को स्वीकार किया जा सकता है । अत: काव्य हेतु का विश्लेषण इन्हीं व्यापक संदर्भों में ही करना चाहिए।
काव्य हेतु: वे कौन से हेतु अथवा कारण है जिनकी अंत:प्रेरणा से कवि या लेखक को एक नव्य सृष्टि रचना की अंत: स्फूर्ति प्राप्त होती है।
तर्क शास्त्र के अनुसार दो प्रकार के हेतु हुआ करते हैं - 1. निमित्त हेतु या संयोग हेतु।
2. उपादान हेतु या समवायि हेतु।
काव्य हेतु को ह्रदय मे विद्यावान सर्जनात्मक शक्ति के नाम से भी अभिहित किया जा सकता है। वही हेतु हैं- प्रतिभा, व्युत्पत्ति, निपुणता, अभ्यास आदि।
आचार्य भामह ने प्रतिभा को काव्य सर्जना का मुख्य हेतु स्वीकार किया है। काव्य के अनवरत अध्ययन द्वारा व्युत्पन्न शक्ति को भी काव्य का हेतु स्वीकार किया है।
भामह के बाद आचार्य दंडी ने प्रतिभा को काव्य का हेतु स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उसके साथ व्युत्पत्ति अर्थात शास्त्र ज्ञान और अभ्यास को भी अनिवार्य तत्व माना।
अर्थात प्रतिभा के अभाव में भी शास्त्र अध्ययन एवं अभ्यास से काव्य सर्जना संभव हो सकती है। तात्पर्य यह कि आचार्य दंडी भामह के समान प्रतिभा ,व्युत्पत्ति और अभ्यास- इन तीनों को ही काव्य हेतु स्वीकार करते हैं।
आचार्य वामन ने काव्य हेतु को काव्यांश कहां है और क्रमश: लोक, विद्या और प्रकीर्ण नाम से 3 काव्यांग स्वीकार्य हैं।
आचार्य रूद्रट के अनुसार" प्रतिभा के बल पर कवि शब्द एवं उनके अर्थ के अवलोकन की क्षमता प्राप्त करता है, अर्थात शब्द- अर्थ को ठीक प्रकार जान पाने में समर्थ हो जाता है।
आचार्य रुद्रट ने प्रतिभा और शक्ति को सहजा और उत्पाद्या दो भेद भी स्वीकार किए हैं।
आनंदवर्धन ने प्रतिभा और व्युत्पत्ति को ही काव्य हेतु माना है।
परवर्ती आचार्यों में केशव मिश्र, हेमचंद्र और पंडित जगन्नाथ ने आचार्य भामह के अनुरूप प्रतिभा को ही काव्य रचना का सर्वाधिक प्रमुख कारण माना है।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संस्कृत के आचार्यों ने काव्य रचना के लिए तीन ही हेतु स्वीकार किए हैं-
१. प्रतिभा,२. व्युत्पत्ति,३. अभ्यास।
रीतिकालीन आचार्य में भिखारीदास ने भी उक्त तीनों बिंदुओं को स्वीकार किया है।
आचार्य नगेंद्र ने लिखा है -होरेस और उनके अनुयायी नव्यशास्त्रवादियों को छोड़कर शेष सभी चिंतकों को ही प्राथमिकता प्रदान की है।
तात्पर्य यह कि पश्चिम ने भी निपुणता और अभ्यास को ही कविता का हेतु स्वीकार किया है। होरेस ने लिखा है," सत्काव्य रचना का मूल प्रतिभा में होता है,।"
बहुत सुंदर आदरणीय | गूढ़ जानकारी
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