गुरु गोविंद
सिंह
प्रो उमेश कुमार
सिंह
चमकौर के किले में गुरु गोविंद सिंह को दो तरफ़ से समाचार मिला, एक उनके साथियों से दूसरा जनता से कि, ‘ 27 दिसम्बर सन् 1704
को दो बेटे जोरावर सिंह व फतेह सिंह किले की दीवार में जिंदा चुनवा दिए गए हैं और उनके दुख में उनकी माता ने प्राण
छोड़ दिए हैं।’
इस हृदय विदारक समाचार को सुनकर भी गुरु गोविंद सिंह विचलित नहीं होते और रोते
हुए साथियों को समझाते हुए बोले- " भाइयों ! आप लोग उस समाचार पर रो रहे हैं,
जिसको सुनकर हर्ष-विह्लल हो उठना चाहिए था। यह तो खुशी की बात है कि बच्चों ने
प्राण दे दिए लेकिन धर्म नहीं दिया। दुख की बात तो तब होती जब वे भय और लोभ में
आकर अपना धर्म दे देते। यदि आप लोग जीवन के सार की ओर ना देख कर नश्वर शरीरों को
देख रहे हैं, तो भी ठीक नहीं।"
गुरु गोविंद सिंह जी बोले, " इस रहस्य को समझो- आप लोग जमीन पर दो लकीरे
खींचो।"। साथियों ने लकीर खींची, उन्होंने फिर कहा, “ अब इसे मिटा डालो।” साथियों ने लकीरें मिटा दीं। गुरु गोविंद
सिंह ने पूछा, " क्या आप लोगों को यह लकीरें बनाते हुए कोई
आनन्द हुआ ? साथियों ने
कहा,
‘नहीं।’
गुरु गोविंद सिंह जी ने फिर प्रश्न पूछा, " आप लोगों को इन्हें मिटाते समय कोई दुख हुआ ?" साथियों
ने कहा नहीं।"
गुरु गोविंद सिंह जी ने बताया - " बस इसी तरह मानव शरीर को समझ लो की
रेखाओं की तरह बनते और मिटते रहते हैं। जो जन्म लेता है, वह एक दिन मरता भी है। एक
दिन उन दोनों ने भी रेखाओं की तरह अस्तित्व पाया और उन्हीं की तरह मिट गए। धर्म पर
अपना बलिदान दे दिया। इसलिए उनकी मृत्यु का विषय बधाई का विषय है, दुख या शोक का नहीं।" गुरु का सार वचन
सुनकर ज्ञान हो गया और सभी 'सत श्री अकाल' के घोष के साथ हर्षित हो उठे।
तब तक गुरु गोविंद सिंह जी के दोनों शहीद कुमारों का समाचार जनता में पहुंच
चुका था। यद्यपि गुरु जी को यह समाचार साथियों से मिल चुका था किन्तु जब शोक-विहल
जनता को देखा तो वे उसे लगभग अनसुना सा कर बोले, " लगता है, तुम मेरे बेटों वा माता का समाचार इसलिए नहीं
दे पा रहे हो कि उन्होंने शत्रु को समर्पण कर दिया है, अथवा धर्म विचलित हो गए हैं।"
गुरु गोविंद सिंह जी की वाणी को सुनते ही समाचार देने वालों की आंखों में आंसू
भर आए और वे लोग रुंधे कंठ से बोले, " गुरुजी ! ऐसा ना कहें। दोनों कुमारों ने धर्म
के नाम पर बलिदान दे दिया। सरहिंद के नवाब ने दोनों को धमकी और लालच दिया था,
लेकिन हमारे दोनों वीर सपूतों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और हमारी आंखों के
सामने उन्हें देखते-देखते किले की दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया। समाचार सुनते
ही माता ने छत से कूदकर जान दे दी है।"
कल्पना करना भी कितना कठिन है कि एक पिता के रूप में गुरु गोविंद सिंह जी का
मानस कैसा उद्वेलित हो रहा होगा किंतु एक धर्म रक्षक और संस्कृति के उद्धारक के
रूप में जनता के समाचार को सुनकर उनके मनोवल को बनाये रखने को जो कहा वह इतिहास
में स्वर्ण अक्षरों में जिंदा रहेगा, " धन्य हो मेरे बेटे ! तुमने आज धर्म की साख बढ़ा
दी। तुमने बता दिया कि धर्म-संस्कृत की रक्षा के लिए तुमने बलिदान होना पसंद किया,
ना की विधर्मी के हाथों धर्म का त्याग करना।"
इसी बीच में उन्हें अपने 3 सगे संबंधियों के शहीद होने का समाचार मिला लेकिन अवसाद
की उन घड़ियों में भी गुरु गोविंद सिंह ने विधर्मियों से लड़ने के लिए संकल्प किया।
स्मरण रखना होगा युद्ध में पहले ही गुरु गोविंद सिंह जी के ये दोनो शहीद बेटे
फतेह सिंह और जोरावर सिंह बिछड़ गए थे किंतु गुरु गोविंद सिंह जी उन्हें ढूंढने के
बजाय अपनी बिखरी सेना को व्यवस्थित करने में जुट गए थे। उसका एक प्रभाव यह हुआ थ कि
उनके पास समाचार आने लगे की, " जो सिक्ख गुरुजी का साथ छोड़कर चले गए थे, जब वे गांव पहुंचे तो उनके परिवार वालों ने
उन्हें बहुत धिक्कारा, बाद में वे लोग
गुरु गोविंद सिंह जी से क्षमा मांगने पहुंचे।"
यहां भी विचारणीय है कि नेतृत्व का प्रभाव यदि जन का मन बन जाए तो कायर मन भी
दिलेर हो सकता है। गुरु गोविंद सिंह जी की यह विशेषता थी कि जब उन्हें साथ छोड़कर
चले गए साथियों के पश्चाताप का समाचार मिला तो वे एक लोक-संग्रही की भांति किसी को
भी बिना उलाहना के समझाया-, " यह उचित अवसर है के युद्ध में सभी को अपनी
भ्रांतियां दूर कर एक हो जाना चाहिए।"
समझा जा सकता है की गुरु गोविंद सिंह का व्यक्तित्व कैसे पुष्प से भी कोमल और बज्र-सा
कठोर था, जो आज तक राष्ट्र के लिए प्रेरणा स्रोत है।
छोटे कुमारों के बलिदान के समाचार की ताजगी अभी कम ना हुई थी की तब तक बलिदान
की दूसरी घड़ी आ गई। मुगलों ने चमकौर पर एक बड़ी फौज के साथ हमला कर दिया और किले
को सब तरफ से घेर लिया। साधन और सामग्री की कमी में भी गोविंद सिंह मोर्चा लेते
रहे। किंतु अंत में रसद और सैनिकों के नाम पर 'नहीं' का शब्द बनने लगा तो मैदान में लड़कर बलिदान
हो जाने का निश्चय किया गया।
गुरु गोविंद
सिंह हथियार बांध कर चले तो उनके बड़े लड़के अजीत सिंह ने हाथ जोड़कर कहा, " पिताजी
नहीं, पहले मैं युद्ध
में जाऊंगा।" गुरु गोविंद सिंह का उत्साह दो गुना हो गया।
गुरु गोविंद सिंह बोले, " अजीत ! तुम अभी बच्चे हो। शत्रु की ताकत
ज्यादा है। इस समय मैदान लेना मृत्यु का आलिंगन करना है। अच्छा हो कि तुम किले में
रहो और मुझे मैदान में जाने दो।"
अजीत उदास होकर बोले-" आप हमें धर्म पर बलिदान होने से रोकना चाहते हैं ? गुरु गोविंद सिंह ने उस वीर बालक की भावनाएं
समझी और अपने हाथ से हथियार बांधकर युद्ध में भेज दिया। जिस समय सैकड़ों शत्रुओं
को घाट उतार कर अजीत सिंह ने वीरगति पाई गुरु गोविंद सिंह बोल उठे- " धन्य
अजीत सिंह ! धर्म के लिए बलिदान होकर तुम अमर हो गए।"
पुत्र जुझार सिंह ने युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी। गुरु गोविंद सिंह ने उसको
भी आज्ञा दी और अपने हाथ से हथियार बांधे। जुझार सिंह ने कहा, पिताजी प्यास लगी है पानी पी लूं। इस पर पिता
ने कहा, “ तुम्हारे भाई
के पास खून की नदियां बह रही है वही प्यास बुझा लेना।" धन्य हो पिता, धन्य हो
!! किस माटी के बने थे !!
साथी सैनिकों में हाहाकार मच गया, " गुरुजी ! आप क्या कर रहे हैं ? तीन बेटे तो आपने बलिदान कर दिया, अब क्या अकेले बचे बेटे को भी बलिदान कर
देंगे। कुल का दीपक ही बुझा लेंगे ? गुरु गोविंद सिंह ने कहा- " खेद है कि
इसके बलिदान देने के बाद मेरे पास कोई बेटा ना बचेगा। भाइयों ! कुल का प्रकाश पुत्रों
के शरीरों से नहीं उनके सतकर्मों से होता है, सो यह सब वे कर ही रहे हैं।"
इस प्रकार उन्होंने जुझार सिंह को भी युद्ध में भेज दिया । वह पानी का प्यासा
पिता की आज्ञा ले रक्त से प्यास बुझाने निकल गया और अपने भाई का बदला लेते हुए
शहीद हो गया । पिता की बज्र-छाती ने उसका बलिदान भी अपनी आंखों के सामने देखा, पर आह नहीं भरी ।
गुरु गोविंद सिंह जी का धर्म व्यवहारिक था न की अंधविश्वासी। सिख संप्रदाय के दशम
गुरु केवल योद्धा ही नहीं, तो बुद्धिमान व्यक्ति भी थे। वे धर्म पारायण थे और अपना
संपूर्ण जीवन धर्म के लिए जिया और अंत में उसी के लिए बलिदान हुए, लेकिन धर्म के
लिए अडिग होते हुए भी, अंधविश्वासों को
कभी महत्त्व नहीं दिया। संगठन की शक्ति कैसे बढे यही उनकी चिंता रहती थी। उनकी इस
चिंता का फायदा उठाने एक बार धूर्त-लोभी पंडित उनके पास आया और राम-रावण युद्ध की
कथा बताते हुए कहने लगा, " गुरु जी यदि आप सिखों की शक्ति बढ़ाना चाहते हैं, तो देवी दुर्गा का यज्ञ
कराइए । यज्ञ की अग्नि से देवी प्रकट होगी और वह सिखों को शक्ति का वरदान देगी।”
धरम परायण गुरु गोविंद सिंह यज्ञ कराने को तैयार हो गए और उस पंडित ने यज्ञ
शुरू भी किया। कई दिनों तक यज्ञ होते रहने पर भी जब देवी प्रकट नहीं हुई तो
उन्होंने पंडित से कहा, " महाराज दुर्गा अभी तक प्रकट नहीं हुई ? "
धूर्त पंडित उनकी सज्जनता को न समझ कहने लगा, देवी प्रसन्नता के लिए बलिदान चाहती है।
यदि आप किसी का बलिदान दे सकें तो वह प्रसन्न होकर दर्शन दे देगी और बलिदानी
व्यक्ति को स्वर्ग की प्राप्ति भी हो जाएगी।”
देवी की प्रसन्नता के लिए नर-बलि की बात सुनकर गुरु गोविंद सिंह उस पंडित की
धूर्तता समझ गए और पंडित से बोले, “ इस कार्य के लिए आप से अच्छा आदमी कहां मिलेगा
? आप के बलिदान को पाकर देवी तो प्रसन्न हो ही जाएगी और आपको स्वर्ग भी मिल जाएगा।
इस प्रकार दोनों का काम बन जाएगा।” यह बात सुनकर पंडित डर गया । गुरु गोविंद सिंह
जी ने बलिदान स्थगित कर पंडित को एक कोठरी में बंद कर दिया। पंडित घबराया था, अवसर पाकर गुरु गोविंद सिंह का पैर पकड़ते
हुए बोला, " मुझे क्षमा करें, मुझे नहीं मालूम था की बलिदान की बात मेरे ही
सिर पर ही पड़ेगी।"
गुरु गोविंद सिंह जी ने विनोद में कहा ," आप क्यों घबराते हैं ? बलिदान से तो स्वर्ग मिलेगा?।" किन्तु तत्क्षण गंभीर हो कर पंडित को
समझाते हुए कहा, “ पंडित जी
धूर्तता का त्याग कर दीजिए, बलिदान की बातें
तभी तक अच्छी लगती हैं जब वह दूसरों के लिए होती हैं, अपने सिर पर आते ही बात समझ में आ जाती
है।" गुरु गोविंद सिंह जी की बात सुनकर पंडित ने क्षमा याचना करते हुए का, " महाराज भविष्य में अब ऐसा नहीं करूंगा।"
समाज की कुरीतियों को मिटने को सजग समाज सुधारक गुरु गोविंद सिंह जी ने उसे यह
कहते हुए छोड़ दिया कि, " समाज में इस प्रकार का अंधविश्वास फैलाना उचित नहीं। देवी किसी के बलिदान से
पसंद नहीं होती, वह तो अपने किए
गए अच्छे कर्मों का फल देती है।”
वास्तव
में तो शक्ति के उपासक गुरु गोविंद सिंह जी का मंत्र था, " एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला "।
उनकी दुर्गा की पूजा कैसी थी, जरा समझन चाहिये । बलिदान की इस परंपरा में एक
संगठित शक्ति की आवश्यकता हुई उसके लिए एक नरमेध यज्ञ का आह्वान किया गया । इस
अवसर पर गुरु गोविंद सिंह जी ने एक घोषणा की जो इस प्रकार है- " भाइयों ! देश
की स्वाधीनता पाने और अन्याय से मुक्त के लिए चंडी बलिदान चाहती है। तुममें से जो
अपना सिर दे सकता हो वह आगे आए। गोविंद सिंह की मांग का सामना करने का किसी में
साहस नहीं हो रहा था, तभी दयाराम नामक एक युवक आगे आया। गुरुजी उसे एक तरफ ले गए
और तलवार चला दी, रक्त की धारा बह निकली, लोग भयभीत हो उठे । गुरु गोविंद सिंह फिर सामने
आए और फिर पुकार लगाई कौन सर कटाने आता है ? एक-एक क्रम से धर्मदास, मोहनचंद, हिम्मत राय तथा आपचंद आए उनके शीश भी काट लिए
गए। गुरु गोविंद सिंह उन पांचों को बाहर लाये ।
गुरु जी ने तो वस्तुतः लोगों के साहस की परीक्षा ली थी, सिर तो बकरों के काटे गये थे। तभी भीड़ से
आवाज आई " हमारा भी बलिदान लो "। गुरुजी ने हंसकर कहा, “ यह पांच ही तुम
पांच हजार के बराबर है।”
वे भक्ति और धर्म के साथ राष्ट्र के लिए सर्वस्व समर्पण की एक नई दिशा “ एक
हाथ में माला और एक हाथ में भाला " स्थापित कर रहे थे । अन्याय, अत्याचार को भी उन्होंने ईश्वर का संदेश
बताकर संस्कृति प्रेमियों को ' माला और भाला ' दे कर धर्म
युद्ध में उतारा।
गोविंद सिंह जी जब दक्षिण की यात्रा पर निकले नासिक के किनारे तरुण तपस्वी
साधना में रत था। उसकी व्यवस्थित दिनचर्या, रात्रि जागरण और साधना की स्थिति को देखकर
उन्हें उसके व्यक्तित्व की पहचान करने में देर नहीं हुई । जब चारों ओर पाखंडी
साधुओं की भीड़ में फंसकर युवा भ्रमित हो रहे हैं, उस समय उस युवक और गुरु गोविंद
सिंह जी के बीच हुए संवाद को यहां समझना आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही
महत्वपूर्ण है।
रात्रि को ध्यान से उठकर युवा साधक जब प्रातः नदी स्नान को जा रहा था, गुरु
गोविंद सिंह उसके साथ हो लिए । दोनों के बीच वार्ता प्रारंभ हुई –
" आपका नाम
क्या है ?"
" अब
माधवदास।"
" आपका
क्या तात्पर्य है ?"
" एकांत
साधना के पहले इस देह का नाम रामदेव देव था।"
इससे अधिक वह
तपस्वी कुछ बताने को तैयार नहीं था किंतु उसके भविष्य को देख रहे गुरु गोविंद सिंह
जी ने उसे कुरेदते हुए कहा, “ अपने बारे में कुछ और बताएं ?”
तेजस्वी युवक ने
कहा, " मैं कश्मीर के डोगरा राजपूत परिवार में जन्मा
हूं। मेरा नाम रामदेव था। मै शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण था । एक दिन मैं
शिकार खेल रहा था, तीर गर्भवती
हिरणी को लगा। उसके नीचे गिरते ही गर्भ से दो मृग शावक गिरे और तीनों तड़प-तड़प कर
वही मर गए। इस दृश्य ने मुझे इतना व्यथित किया कि मैं अपनी 16 वर्ष की उम्र में तपस्या
के लिए चला आया।” संभवत उस समय कुछ युवक की आयु 31 वर्ष थी।
गुरुजी ने पूछा, "किस तपस्या का लक्ष्य क्या है?"
" मान-अपमान
मे समान रहना, उद्वेगों को न करना
और मुक्ति। "
गुरुजी ने कहा, " अच्छा तो यह है आपकी साधना?"
“ सच बताना अभी
तक तो मान-अपमान में समान और शांत का अभ्यास पूर्ण कर चुके हो?”
इस प्रश्न से युवा
साधक अवाक रह गया। उसके शरीर में जैसे हजारों बिच्छूओं ने डंक मार दिया हो। कुछ
देर मौन के बाद शिष्य ने पूछा, " आपके प्रश्न का कारण क्या है? "
गुरुजी ने कहा," वत्स, जहां तुम्हें कोई सम्मान देने वाला नहीं, अपमानित या तिरस्कृत करने वाला नहीं, उद्वेगों के अवसर ना हो वहां समत्व की खोज
कैसे हो सकती है ? "
" तो क्या
अब तक की मेरी यह तपस्या व्यर्थ हो गई ? "
' नहीं'। युवक की तरफ एकटक देखते हुए गुरु गोविंद
सिंह जी ने कहा “तुम मुक्ति
चाहते हो ना ? यदि मैं तुम्हें इसी जन्म में यह उपलब्ध करा
दूं तो ?” युवक को जैसे
अनमोल खजाना मिल गया हो।
" मैं
तैयार हूं।"
" लेकिन एक
शर्त है, तुम्हें इसके
लिए कीमत चुकानी होगी"।
" मैं बड़ी
से बड़ी कीमत चुकाने को तैयार हूं।"
“ तो उठो
जनक्रांति का शंख फूंकने। अपनी तपस्या के फल को लेकर जन-जन तक जाओ और उन्हें बताओ
मनुष्य देवता कैसे बनता है ?, मेरे बेटे ! जन समुदाय अनुकरण का आदी होता है। उनके सामने एक संकल्प रखना होगा
तो क्या तुम उसको पूरा करोगे ?”
“ बोलो क्या
तैयार हो ! माँ की संताने
अज्ञान के अंधकार में कीड़े-मकोड़ों की तरह मरी जा रही है। उनके उद्धार के लिए
विद्या का आलोक चाहिए जो पुस्तकों से नहीं, तपे-तपाये, ढले- ढलाई जीवन से ही संभव है। चुप क्यों हो
गये ? कुछ तो बोलो !
क्या नीलकंठ बन मानवी जीवन में बढ़ती जा रही विषाक्तता के समन के लिए तैयार हो ? ” बात करते-करते गुरु गोविंद सिंह जी की आंखें भर आईं और गला रूध गया। संभवत उस
तपस्वी के मानस में अपने शहीद बेटों का चित्र इस युवा साधक को देख उभर आया हो।
“ तैयार हूं मैं गुरुदेव ! कहकर व साष्टांग
पैरों पर गिर पड़ा।” गोविन्द सिंह जी ने उसे ह्रदय से लगा लिया। न जाने कितने समय
तक दोनों गुरु शिष्य एक दूसरे को आलिंगन बद्ध किए भविष्य के कौन से मुहावरे
वक्षस्थल में गढ़ रहे थे।
उस दिन लक्ष्मण राव, माधवदास ने
" बंदा बैरागी " के रूप में जन्म लिया । यह उपाधि उसे गुरु गोविंद सिंह
जी से मिली थी। अब उसमें स्वार्थ, संकीर्णता का कण भी नहीं था। सर्वजन हिताय काम करने की प्रवृत्ति का नाम ही
" बंदा बैरागी "था।
बैरागी ने माला के साथ तलवार उठाई । पंजाब में संगठन का मंत्र फूंका। अपनी
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक सारी शक्तियों का
समन्वय कर धर्म युद्ध में लगा दिया। परिणाम पंजाब के सारे हिंदू-सिख समाज एक होकर
पंजाब के 28 परगनों से यवन शासन को उखाड़कर सतलुज से यमुना तक की भूमि पर धर्म
ध्वजा फहरा दिया।
इसी बीच औरंगजेब के नेतृत्व में भारत भर के सारे मुसलमान शासकों ने ‘बंदा’ पर
धावा बोल दिया। ‘बंदा’ जंजीरों से बांधकर खड़ा कर दिया गया और जल्लादों ने गरम
चिमटिओं से उसका मांस निकालना शुरू किया। किंतु सच्चा बैरागी अंत तक हंसता रहा। जून, 1716 में बंदा बैरागी ने अपना नश्वर शरीर
त्याग दिया। मानो वह चीख चीखकर आज भी रहा है," गुरु के बंधु ! कहां हो ? मनु
की संतानों की पीड़ा तुमसे कैसे देखी जाती है ?
साहस के लिए उम्र आड़े नहीं आती और जनता अपना उत्सर्ग कर उसका साथ देती है - सिखों
के नौवें गुरु श्री तेग बहादुर को औरंगजेब ने दिल्ली बुलाकर मरवा डाला था और उसकी
लाश एक चौराहे पर डालकर घोषणा कर दी थी कि जो इसका अंतिम संस्कार करेगा प्राण-दंड
मिलेगा। यह खबर गुरु गोविंद सिंह जी के पास पहुंची तो वे लाश लेने दिल्ली रवाना हो
गए, उस समय उनकी अवस्था केवल 16 साल थी। वे जब दिल्ली के निकट पहुंचे तो एक गरीब
गाड़ीवाला सिख मिला। गुरु जी से कहा, " आपको दिल्ली जाना बड़े भय की बात है "।
औरंगजेब कभी आपको नहीं छोड़ेगा। आप इसी जगह गुप्त रूप से ठहरे रहे, हम शव को यहीं ला देंगे। यह कहकर वह अपने
बेटे को साथ लेकर दिल्ली पहुंचा। उस समय तक शव काफी गल चुका था और बदबू आ रही थी।
पहरेदार भी दुर्गंध के कारण दूर बैठे थे। बूढ़े ने बेटे से कहा शव उठाने के पहले
हम दोनों में से किसी एक को प्राण त्याग ना पड़ेगा। गुरुजी के शव को ना देख कर वे
उसे ढूढेंगे। अभी तुम युवा हो इसलिए मेरा मरना ही उचित है। बेटे के उत्तर आने के
पहले पिता ने कृपाण छाती में मार ली। बेटे ने गुरु जी की शव की जगह अपने पिता का
मृत शरीर रख दिया और श्री तेग बहादुर का शव गुरु गोविंद सिंह जी तक पहुंचा दिया।
प्रणम्य हैं वे पिता-पुत्र ।
भारत की सनातन परम्परा में संत, ज्ञानी, ध्यानी हों या वीरता के लिए उत्सर्ग
करानेवाले सपूत उन सब के बीच यदि कोई समानता मिलती है तो वह है उनकी आध्यात्मिक
शक्ति। दो घटनाएँ गुरु गोविंद सिंह जी के आध्यात्मिक जीवन पर प्रकाश डालती ।
मुगल दरबार में संधिवार्ता हेतु आमंत्रित गुरु
गोविंद सिंह दिल्ली पधारे । ‘गुरु’ शब्द से वहां उपस्थित एक मौलवी के मन में रोष
था। उसे लगता था सेना संचालन का कार्य करने वाला गुरु और संत कैसे हो सकता है ? वास्तविकता
भी यही है की यह न तो मौलवी के संस्कार
में था, न ही वातावरण में । वह गुरु गोविंद सिंह जी को अपमानित करने के लिए बोला , " आप गुरु हैं तो अपने नाम की सार्थकता के लिए कुछ चमत्कार दिखलाएं ?
गुरु गोविंद सिंह हंसे। बोले- मौलवी जी चमत्कार तथा आध्यात्मिकता का कोई सीधा
संबंध नहीं है। गुरु का काम चमत्कार दिखाना नहीं, शिष्यों का मार्गदर्शन करना होता है।"
मौलवी ने पुनः
आग्रह किया " कोई चमत्कार तो दिखाना ही पड़ेगा ?
गोविंद सिंह जी
ने कहा, चमत्कार देखना
है तो आंखें खोल कर देख लो, ईश्वर ने चारों
ओर बिखेर रखे हैं। यह पृथ्वी, आकाश, तारे, वायु सभी चमत्कार हैं।"
परन्तु मौलवी
मानने को तैयार नहीं था, वह तो गुरु जी को नीचा दिखाना चाहता था। गुरु जी ने पुन: समझाने
का प्रयत्न किया, " अपने शहंशाह का चमत्कार देख लो ना ! किस प्रकार एक
व्यक्ति की शक्ति पूरे राज्य में काम करती है।"
मौलवी ने कहा,
" आप तो यह सब छोडिये, अपने स्तर पर चमत्कार दिखाइए ।"
क्रोध से भर कर
गुरु गोविंद सिंह जी ने तलवार निकालकर कहां, मेरे हाथ की चमत्कारिक शक्ति देखने की शक्ति
यदि तुझ में है तो देख ! अभी एक हाथ से तेरा सिर अलग हुआ जाता है। दरवार के
हस्तक्षेप से मौलवी की जान बची और वह शांत हो गया ।
हम जानते है की सेमेटिक पंथों में संत, मौलवी आदि की उपाधि प्रमाण-पत्र के रूप
में जूरी के माध्यम से दी जाती हैं, जबकि सनातन परंपरा में संत, ऋषि, गुरु,
ज्ञानी, मुनि आदि अर्जित साधन के परिणाम हैं ।
गुरु गोविंद सिंह जी के अध्यात्मिक जीवन का ही प्रभाव था की वे जीवन की न केवल
बाह्य स्वच्छता पर ध्यान रखते थे बल्कि आंतरिक सुचिता को भी बढ़ावा देते थे । श्रम
और सुचिता पूर्वक की गई कमाई के महत्व को वे व्यवहार से समझाते थे, सुचिता और
अहंकार रहित सेवा ही उन्हें स्वीकार थी ।
एक घटना आती है, गुरु गोविंद सिंह आनंदपुर साहिब पधारे थे।
उन्हें प्यास लगी, " कोई मुझे
पवित्र हाथों से जल पिला दे।” एक धनवान व्यक्ति उठा और जल ले आया। पात्र लेते समय उसके हाथ गुरु जी को स्पर्श कर गए ।। पूछा, " तुम्हारे हाथ तो बड़े कोमल है।"
अहंकार से प्रेरित होकर सेठ बोला, " गुरुजी मेरे बहुत से नौकर चाकर हैं, मैं कोई काम अपने हाथ से नहीं करता इसलिए
कोमल हैं।
गुरुजी ने कहा, “
जो हाथ कभी कोई सेवा नहीं की यह पवित्र कैसे हो सकते हैं, मैं तुम्हारे हाथ का जल
नहीं कर सकूंगा।”
इसी आध्यातिमक सत्ता का परिणाम था की आनंदपुर, मुक्तसर और सिरमातट की युद्ध में पुत्रों के
वलिदान के बाद भी अपूर्व साहस दिखाते हुए अपने डेढ़ हजार शिष्यों के साथ अपने
दुश्मन के चालीस हजारी मुगल बादशाही सेना को परास्त किया।
व्यक्ति की पहचान की उनकी अचूक क्षमता और सूक्ष्म दृष्टि ने व्यक्तियों को अलग
अलग काम बाटें। परिस्थिति के अनुसार जो कोमल हृदय के थे उन्हें सेवा का कार्य
सौंपा और जो हिम्मत के धनी थे उनके हाथों में तलवारे थमाई।
गुरु गोबिंद सिंह एक
लेखक भी थे, उन्होंने स्वयं कई
ग्रंथों की रचना की थी.
उन्हें विद्वानों का संरक्षक माना जाता था. कहा जाता है कि उनके दरवार में हमेशा 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति
रहती थी. इस लिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था । गुरू गोबिन्द सिंह ने
सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में
सुशोभित किया । बिचित्र नाटक
को उनकी आत्मकथा माना जाता है । यही उनके जीवन
के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का
नाम है।
वे ४२ वर्ष की उम्र में एक
मुसलमान शिष्य के हांथो धोखा खाकर ७ आक्टोबर ,१७०८ को शहीद हुए । गुरु
गोविन्द सिंह जी के अपने ही शिष्य के हनथो शहीद होने पर विचार करना पड़ता है
की जब कट्टर धर्मान्धता मनुष्य को पथ से
भ्रष्ट कर देती है तब वह नैतिकता को बचा
नहीं पाता। भारत में आज के परिदृश्य में भी यह विचारणीय है की राष्ट्र की अस्मिता
मत्वपूर्ण है की सांप्रदायिक निष्ठा । धर्म की रक्षा , संस्कृति का संवर्धन ,या राष्ट्र की अस्मिता गो
इसमें आड़े आनेवाली सांप्रदायिक अन्धता, स्वार्थी-दलीय-वंशवादी राजनीत क्या इसको
कुचलने के लिए हमें गुरु गोविन्द सिंह जी का सन्देश पर्याप्त नहीं है?
हुतात्माओं को
प्रणाम ।
umeshksingh58@gmail.com
बहुत सुंदर आलेख। हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसर आपका लेखन बहुत प्रभावी है,अन्तर्मन झकझोर देता है,आपके वृहद ज्ञान से सदैव बहुत सीखने को मिलता है
ReplyDeleteप्रणाम महोदय!
ReplyDeleteवर्तमान भारत में अधिकांश व्यक्ति, नेता जिन्हें गुरू की भूमिका निभाना है, समाज का नेतृत्व करना है वो स्वयं स्वार्थ, अहंकार(ईगो) की मोटी चादर में लिपटे
हैं। उन्हें राष्ट्र से मतलब एक अर्थ तक में सिमट कर रह गया है, और वो है- इनका अर्थ-पोषण, ईगो-पोषण। जिस राष्ट्रीयता का परिचय गुरू गोविंद सिंह ने दिया वो तो इनमें दूर-दूर तक नहीं है।
एक युवा और आपका शिष्य होने के नाते आपसे, इस देश से मेरी प्रतिज्ञा है कि कभी भी अपने स्वार्थ, अहंकार पोषण के लिए राष्ट्र व समाज अहित नहीं करूंगा।
एक एक पंक्ति पढ़ी। अभिभूत हूँ। मैंने भी गुरु गोबिंद सिंघ जी पर लिखा है, पर आपने काफी विस्तार से लिखा। बधाई।
ReplyDeleteपंकज जी आभार
Deleteआशीर्वाद
ReplyDeleteपंकज जी आभार
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी जानकारी दी है
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteहर हर बार नए नए लेख लिखकर हमारा ज्ञान बढाये धन्यवाद सर
ReplyDelete