मैथिलीशरण गुप्त
प्रो. उमेश कुमार सिंह
मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त, 1886 चिरगाँव- झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। पिता का नाम सेठ
रामचरण और माता का नाम श्रीमती काशीबाई था। पिता रामचरण निष्ठावान् राम भक्त थे।
वे ‘कनकलता’ उपनाम से कविता करते थे। राम के विष्णुत्व में उनकी गहरी आस्था थी। माना जा
सकता है की गुप्त जी की कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक थी।
पिता जी ने बाल्यकाल में गुप्त जी के एक छंद
को पढ़कर आशीर्वाद दिया था ‘तू आगे चलकर
हमसे हज़ार गुनी अच्छी कविता करेगा’ और आज यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य मान्य हुआ। कहा जाता है की
मुंशी अजमेरी के साहचर्य में मैथिलीशरण जी का काव्य-संस्कार हुआ और वे दोहे, छप्पयों में काव्य रचना करने लगे, जो कोलकाता से प्रकाशित ‘वैश्योपकारक’ में प्रकाशित हुए।
गुप्त जी की आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
से पहली भेंट तब हुई जब वे झाँसी के रेलवे ऑफिस में चीफ़ क्लर्क थे, कालांतर में उन्हीं के मार्गदर्शन में
मैथिलीशरण जी की खड़ीबोली काव्य प्रतिभा प्रतिष्ठा प्राप्त की। द्विवेदी जी गुप्त
जी के काव्य गुरु थे। मैथिलीशरण गुप्त जी को साहित्य जगत् में ‘दद्दा’ नाम से सम्बोधित किया जाता था। इन्हें ‘आल्हा’
पढ़ने में भी
बहुत आनंद आता था।
गुप्त जी स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति
विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य जहाँ वैष्णव भावना से परिपोषित था, वहीँ युग की राष्ट्रीयता और नैतिक चेतना से
अनुप्राणित भी। लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक,
विपिनचंद्र पाल, गणेशशंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके
जीवन के आदर्श रहे।
‘अनघ’ से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि के क्रान्तिकारी स्वर हम सुन सकते
हैं, क्योंकि महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का
युवा मन तत्कालीन क्रान्तिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। बाद में वे
गांधीवाद के प्रवल समर्थक बने। 1936 में गांधी जी ने उन्हें राष्ट्रकवि का सम्बोधन दिया।
गुप्त जी की काव्य-कला का निखार महावीर
प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से आया और उनकी रचनाएँ ‘सरस्वती’
में निरन्तर
प्रकाशित होती रहीं। 1909
में उनका पहला
काव्य ‘जयद्रथ-वध’ आया। 59
वर्षों में
गुप्त जी की गद्य,
पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनूदित सब मिलाकर, हिन्दी को लगभग 74
रचनाएँ प्राप्त
हुई। इसमें दो महाकाव्य,
20 खंडकाव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं। काव्य के माध्यम से आपने संपूर्ण देश में
राष्ट्रभक्ति ज्वार फैलाया। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्रधारा का प्रवाह बुंदेलखंड के
चिरगांव से कविता के माध्यम से देश भर में प्रवाहित हुआ। उनकी प्रसिद्ध पक्ति:
‘जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।‘
दद्दा धोती और बंड्डी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत की तरह अपनी हवेली में बैठेते और वहीं से साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध करते रहे। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। मैथिलीशरण जी की प्रसिद्धि का मूलाधार भारत-भारती है। भारत-भारती उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। साथ ही साकेत और जयभारत, दोनों महाकाव्य भी उनके प्रसिद्धि के कारण बने।
उनका महाकव्य ‘साकेत’ रामकथा पर आधारित है, किन्तु इसके केन्द्र में लक्ष्मण की पत्नी
उर्मिला है। ‘साकेत’ में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के
हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चाताप को दर्शाकर उसके
चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। ‘यशोधरा’ में गौतम
बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केन्द्र में है। यशोधरा की मनःस्थितियों का मार्मिक
अंकन इस काव्य में हुआ है। ‘विष्णुप्रिया’ में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केन्द्र
में है।
माना जाता है की गुप्त जी ने रबीन्द्रनाथ
ठाकुर के ‘काव्येर उपेक्षित नार्या’ शीर्षक लेख से प्रेरणा प्राप्त कर अपने
प्रबन्ध काव्यों में उपेक्षित, किन्तु महिमामयी नारियों की व्यथा-कथा को आधुनिक चेतना के चित्रित किया।
मैथिलीशरण गुप्त की काव्य शैली में विविधता
मिलाती है,
किन्तु प्रधानता
प्रबंधात्मक इतिवृत्तमय शैली की है। उनकी ‘रंग में भंग’,
‘जयद्रथ वध’, ‘नहुष’, ‘सिद्धराज’,
‘त्रिपथक’, ‘साकेत’ आदि रचनाएँ प्रबंध शैली में ही हैं।
गुप्त जी के ये ग्रन्थ दो प्रकार के हैं- ‘खंड काव्यात्मक’ तथा ‘महाकाव्यात्मक’। साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड
काव्य के अंतर्गत आते हैं।
काव्यगत विशेषताएँ: इनके काव्य की विशेषताएँ
इस प्रकार उल्लेखित की जा सकती हैं-1.राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता,
२.गौरवमय अतीत के इतिहास और भारतीय संस्कृति की महत्ता,
३. पारिवारिक जीवन को भी यथोचित महत्ता,
४. नारी मात्र को विशेष महत्व,
५. प्रबंध और मुक्तक दोनों में लेखन,
६.शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग
किया है।
प्रमुख कृतियाँ: ‘जयद्रथ वध’,-१९१०, ‘भारत-भारती’-१९१२, ‘पंचवटी’-१९२५, ‘साकेत’-१९३३, ‘यशोधरा’-१९३२, ‘विष्णुप्रिया’-१९५७, ‘झंकार’-१९२९, ‘जयभारत’-१९५२, ‘द्वापर’-१९३६.
इस तरह गुप्त जी की ५२ से भी अधिक काव्य
रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें से कुछ अनूदित भी हैं। उन्होंने ‘मधुप’
उपनाम से ‘विरहणी ब्रजांगन’, ‘प्लासी का युद्ध’ और ‘मेघनाद वध’
नामक बंगला
काव्य कृतियों का अनुवाद किया है।
इसके साथ ही कुछ संस्कृत नाटकों के अनुवाद भी
किये। इनका ‘रुबाइयात उमरखय्याम’ भी उमर खयाम की रुबाइयों का हिन्दी रूपान्तर
है। इनकी उल्लेखनीय मौलिक रचनाओं की तालिका में- ‘रंग में भंग’, ‘जयद्रथ वध’, ‘पद्य प्रबंध’, ‘भारत भारती’, ‘शकुंतला’, ‘तिलोत्तमा’, ‘चंद्रहास’, ‘पत्रावली’, ‘वैतालिका’, ‘किसान’, ‘अनघ’, ‘पंचवटी’, ‘स्वदेश-संगीत’, ‘हिन्दू’, ‘विपथगा’, ‘शक्ति विकटभट’, ‘गुरुकुल’, ‘झंकार’, ‘साकेत’, ‘यशोधरा’, ‘सिद्धराज’, ‘द्वापर’, ‘मंगलघट’, ‘नहुष’, ‘कुणालगीत’, ‘काबा और कर्बला’, ‘प्रदक्षिणा’, ‘जयभारत’, ‘विष्णुप्रिया’
आदि आते हैं।
पुरस्कार व सम्मान: मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी
के प्रसिद्ध राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं। सन 1936 में इन्हें काकी में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया था। इनकी साहित्य सेवाओं
के उपलक्ष्य में आगरा विश्वविद्यालय तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने इन्हें डी.लिट.
की उपाधि से विभूषित भी किया। १९५२ में गुप्त जी राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए और
१९५४ में उन्हें ‘पद्मभूषण’ अलंकार से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी
पुरस्कार,
‘साकेत’ पर ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ तथा ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। ‘हिन्दी कविता’ के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है। ‘साकेत’ उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
मृत्यु: मैथिलीशरण गुप्त जी ने १२ दिसंबर, १९६४ को चिरगांव में इस देह का त्याग किया।
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