Tuesday, 22 October 2019

सावरकर के बहाने


              सावरकर के बहाने

(सन्दर्भ: सावरकर पर इंदिरा से सबक सीखे कांग्रेस- शेखर गुप्ता )

विषय सावरकर को भारत रत्न देने की मांग से जुड़ा था।  समझ में नहीं आता लिखते समय पहली लाइन में ही उन्होंने भारत रत्न देने की मांग से जुड़े " विवाद" जैसे शब्द का प्रयोग वाक्य में क्यों किया? 

   वे यह तो चाहते हैं कि कांग्रेस को  मनमोहन सिंह जी के दिए बयान के आधार पर सावरकर जी का सम्मान करना चाहिए, लेकिन ' उनकी विचारधारा से सहमत नहीं है'  को कांग्रेस को अपना लेना चाहिए।


यह बड़ी मजे की बात है शेखर गुप्ता जैसे वरिष्ठ पत्रकार मनमोहन सिंह जी के आधे वक्तव्य से कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी को दिशा देना चाहते हैं । वहीं आलेख के अंत में वे लिखते हैं , डॉ मनमोहन सिंह जैसा गैर पेशेवर राजनेता भी इसे समझता है लेकिन उनकी पार्टी उनकी बात नहीं सुनती।

पेशेवर शब्द भी क्यों । क्या  गांधी, नेहरू , श्माया प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल जी , जयप्रकाश नारायण, लाल बहादुर शास्त्री आदि पेशेवर थे ?

   जो दल वर्षों से राजनीति को सेवा कह रहा है, जनता को जनार्दन कह हर पांच साल में दण्डवत होता है ,उसके दस साल के नेतृत्व को गैर पेशेवर कहकर या इस शब्द का राजनीतिक व्यक्तियों के लिए उपयोग कर इसके माध्यम से राजनीति को पेशा कहना चाहते हैं?


ऊपर की पहली पंक्ति और आलेख की अंतिम पंक्ति दोनों को अगर जोड़कर पढ़ा जाए तो जो तथ्य सामने आते हैं  कि - इंदिरा गांधी ने 1970 में सावरकर के सम्मान में टिकट जारी किया।
- उनकी मृत्यु पर श्रद्धांजलि देते हुए शेखर गुप्ता के शब्दों में (सतर्कता पूर्वक चुने गए) में कहा... तथा इंदिरा गांधी ने सावरकर के जीवन पर चित्र बनवाया था ,और उनकी स्मृति में बने कोष के लिए ₹11000 दिए थे जो आज के ₹500000 के बराबर हैं।

शेखर गुप्ता नरसिंहाराव का उदाहरण देकर ही बताना चाहते हैं कि इंदिरा गांधी ने उक्त कृतियों के द्वारा हिंदुत्व पर नरमी बरतने का दृष्टिकोण रखा था।

शेखर गुप्ता का आलेख ध्वनित करता है इंदिरा गांधी को हिंदुत्व के प्रति इस उदारता के लिए ,नरसिंहा राव  की तरह  किनारा कर देना चाहिए था !! लेकिन उस समय कोई ऐसा इंदिरा जी के सामने बोलने वाला नेता नहीं था।


तो क्या सावरकर जी को सम्मान देना शेखर जी गलती मानते हैं?

आगे भी इंदिरा जी को उस आर एस एस का और जनसंघ का विरोधी बताते हुए, आपातकाल में 60 से 70% आर एस एस और जनसंघ से जुड़े लोगों को जेल में डालने के कारण हिंदुत्व का विरोधी खड़ा करते हैं , लेकिन बांग्लादेश के गठन को उनकी हिन्दुत्व की शक्ति बताते हैं।

शेखर गुप्ता के बयान से आज जब भाजपा सरदार पटेल , महात्मा गांधी, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस,  लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं पर आगे बढ़कर उनकी राष्ट्रीय छवि को समान रूप से जैसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दत्तोपंत ठेगड़ी ,डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी की तरह भव्य आयोजनों के माध्यम से आगे लाना चाह रहे हैं, उसे शेखर गुप्ता इंदिरा गांधी की दृष्टि के  विपरीत मानते हैं।

 वे  लिखते हैं,  इसलिए वह नहीं चाहती थी कि आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले किसी भी व्यक्ति को आर एस एस अपने पाले में ले जा सके.”।

आश्चर्य है कि शेखर जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार यह कैसे कह और लिख सकते हैं कि जिन स्वतंत्रता सेनानियों की एक लंबी कतार इस देश में है वे जो उस समय गांधीजी के नाते,  सर्वोदय के नाते , राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के नाते, कांग्रेस-आन्दोलन से जुड़े थे , वे सब के सब वर्तमान कांग्रेस-दल के सदस्य थे।

सावरकर को भी एक ऐसा व्यक्ति बताते हैं जो आर एस एस के करीब है, उसमें तमाम खामियां और कमियां हैं, इसके बावजूद उनकी स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका थी।

 स्पष्ट है कि किंतु परंतु के साथ देश का किसी भी दल का व्यक्ति सावरकर को स्वतंत्रता आंदोलन की भूमिका से बाहर नहीं कर सकता।

बड़ी मजे की बात है शेखर गुप्ता लिखते लिखते सावरकर के प्रति इंदिरा जी की उदारता, जिसके कारण इंदिरा जी की एक अच्छी छवि खड़ी होती है उसको भी तोड़ देते हैं , जब लिखते हैं इंदिरा गांधी सावरकर जी को r.s.s. को देना नहीं चाहती थी ?

  क्या इसका तात्पर्य यह नहीं है कि  इंदिरा गांधी का सावरकर के प्रति किया गया सारा उदारवाद केवल इसलिए था कि उन्हें आशंका थी की आर एस एस सावरकर जी को  अपने कब्जे में ले लेगा?

 कुछ भी हो इससे तो सावरकर के उस व्यक्तित्व का परिचय ही प्राप्त होता है ,जिसे  खोलना सभी चाहते हैं ,लेकिन घूंघट लगाकर!


वे पटेल का उदाहरण देते हैं , पटेल RSS को पसंद नहीं करते थे , और उदाहरण देते हैं कि  महात्मा गांधी की हत्या के बाद पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था,  लेकिन यह उजागर नहीं करते कि इस गलती को नेतृत्व को समझाने वाले भी पटेल जी ही  थे।

 और कहते हैं नेहरू और पटेल के मतभेद का फायदा उठाकर  भाजपा पटेल जी को अपने पाले में खींच ले गई। इसका अफसोस झलकता है।

पंडित मदन मोहन मालवीय को भी  वे  'कट्टर ' हिंदू बताते हैं। मेरा मानना है, यह 'कट्टर घोर आपत्तिजनक शब्द' पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे व्यक्ति के लिए शेखर गुप्ता का उपयोग करना उनके पत्रकारिता की दूषित मानसिकता को उजागर करता है।


 पहली बात तो यह कि व्यक्ति कट्टर हो सकता है , हिंदू कट्टर नहीं होता ,हिंदुत्व नहीं होता और पंडित मदन मोहन मालवीय जैसा नवनीत के समान हृदय वाला कट्टर कैसे हो सकता है? यह शेखर गुप्ता को विचार करना चाहिए।

शेखर गुप्ता कहते हैं इंदिरा जी  ने लोकलुभावन समाजवादी -आर्थिक विचारों का प्रयोग किया और वाम विचारधारा को अपनाया। लेकिन लिखते हैं कि इंदिरा जी ने इसको राजनीति में हावी नहीं होने दिया।

 इंदिरा जी की विशेषता बताते हुए लिखते हैं उन्होंने हिंदू पहचान को कभी नहीं त्यागा । रुद्राक्ष माला, पूजा जैसे धार्मिक प्रतीकों से दूरी  नहीं बनाई।

यहां दो बातें  हैं की इंदिरा जी पर आरोप तो लगाते हैं , वामपंथी और लोकलुभावन समाजवादी होने का लेकिन उससे उनको बचाते भी हैं ,और धार्मिक होने के लिए हिंदू पहचान के रूप में उन बातों को गिनाते हैं। करता हिंदू कोई आई कार्ड है , जिसके लिए रुद्राक्ष आवश्यक है ? यह उनकी अपनी चेतना की पोषक सामग्री भी तो हो सकती है ? इसे हिंदू होने न होने से जोड़ना कहां तक उचित है ?

 रुद्राक्ष की माला और पूजा वस्तुत: कर्मकांड की पहचान हो सकती है, आराधना की पद्धति हो सकती है, लेकिन हिन्दुत्व की सम्पूर्ण पहचान कैसे हो सकती है ?

 कर्मकांड तो  बड़े-बड़े वामपंथी भी करते थे  और करते हैं (श्री पाद  डांगे हो या अन्य), जिनके घरों में जन्म-विवाह -मृत्यु के संस्कार हों , सभी में धार्मिक कर्मकांड हुआ करते हैं। यह बात अलग है चौराहों पर,  अबोध भीड़ के सामने दुनिया के मजदूरों एक और नास्तिकता की बात करते हैं । संभवत:  इसी संकोच से शेखर गुप्ता दुधारी कलम चलाते हैं।

     शेखर गुप्ता अनजाने ही आर एस एस के मूल विचार और चिंतन को उजागर करते हैं। ऑर्गेनाइजर के तत्तकालीन संपादक शेषाद्री चारी के हवाले से कहते हैं, इंदिरा गांधी ने कभी जनसंघ  को हिंदू दल नहीं कहा और इसका कारण था कि वे देश की बहुसंख्यक आस्था को अपने सबसे बड़े विरोधी के हवाले नहीं करना चाहती थी।

और इसका कारण यह था कि बनिया जैसा छोटा सा शब्द , (जो कभी गांधीजी जैसे विराट व्यक्तित्व के लिए भी उछाल दिया जाता हो, ) राजनीति में सदा हाशिए पर चला जाता है,का जनसंघ के लिए प्रयोग किया गया।

शेखर गुप्ता वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व को इंदिरा गांधी का उदाहरण देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि जिसे इंदिरा जी बनिया कहती थी उसे आज के नेतृत्व  ने हिंदुत्व की लड़ाई में बदल दिया।

एक और  अधूरा सच कहने का प्रयत्न शेखर गुप्ता करते हैं कि इंदिरा गांधी के पहले और बाद की कांग्रेस में यही अंतर है कि इंदिरा जी वाम बुद्धिजीवियों को अपना दरबारी बनाए रखा और उनके विचारों को अपनी राजनीति में प्रयोग किया किंतु राजनीति में हावी नहीं होने दिया।

 वे लिखते हैं आज  के जमाने में कांग्रेस ने उन बुद्धिजीवियों को अपनी राजनीति पर हावी होने दिया।


शेखर गुप्ता जी चाहे जिस बात को इंगित करना चाहते हो परंतु यह सच है कि स्वतंत्रता के साथ ही वामपंथी तत्कालीन सत्ता के पीठ पर बैठकर भारत की शिक्षा, संस्कृति , काला, श्रम और आर्थिक नियोजन जैसे विषयों पर अपनी चलाते रहे हैं।

बाद में वे कांग्रेस के एजेंडे को स्पष्ट करते हुए और अंत में यह बताने का प्रयत्न करते हैं कि सोनिया जी इंदिरा जी और जवाहरलाल नेहरू में क्या अंतर है और आज राष्ट्रवाद और समाजवाद को भाजपा के पाले में चले जाने का अपना दर्द और कांग्रेस की कमजोरी बताते हैं।

कुल मिलाकर फिर बात स्पष्ट है कि शेखर गुप्ता मानते हैं कि जनसंघ को इंदिरा जी हिंदू दल नहीं कहती थी।

पता नहीं क्यों शेखर गुप्ता को इतनी लंबी पत्रकारिता के बाद भी  यह क्यों समझ में नहीं आया कि आर एस एस या भाजपा  हिंदू दल नहीं है।

अगर RSS को हिंदू स्वयंसेवक संघ ही बनना होता तो कौन रोक सकता था?

वस्तुत: उसका नाम और उसके राष्ट्रीय शब्द के अंतर्गत जो व्यापकता है उसमें वे सारे उत्तर -दक्षिण -पूरब -पश्चिम, बाम- दक्षिण , दल-दलीय आ जाते हैं,जो  इस  राष्ट्र , संस्कृति, धर्म , जीवन- दर्शन, जीवन- मूल्य को चाहने वाले हैं, उनकी उपासना पद्धति कुछ भी हो।

राष्ट्रीयता से समाविष्ट हिंदुत्व उन सब की वह प्रयोगशाला है जिसमें मानव कल्याण का ही नहीं जीवमात्र के कल्याण  का  अमृत्व- प्रकाश -पुंज फैलता है।

इसलिए चर्चा में शब्दों को लाते समय चाहे सावरकर जी के लिए हो या पं मदन मोहन मालवीय जी के लिए उसके गंभीर अर्थों को या शास्त्र की शब्दावली में कहें तो उनके अर्थ -ध्वनियों को अगंभीरता के साथ नहीं प्रयोग करना चाहिए अन्यथा ऐसे आलेख चटकारे लेकर पढ़ें तो जा सकते हैं लेकिन रसास्वादन कर बुद्धि और मानसिक चेतना को पौष्टिक खुराक नहीं दे सकते।

उमेश कुमार सिंह
पूर्व निदेशक, साहित्य अकादमी

3 comments:


  1. राष्ट्रीयता से समाविष्ट हिंदुत्व उन सब की वह प्रयोगशाला है जिसमें मानव कल्याण का ही नहीं जीवमात्र के कल्याण का अमृत्व- प्रकाश -पुंज फैलता है। सावरकर जी को भारतरत्न मिलना चाहिए

    ReplyDelete
  2. राजनीति की जानकार नहीं हूँ लेकिन शब्दों के अर्थों और भावों को बखूबी समझती हूँ ! शब्दों को तौल कर बोलना चाहिए लेकिन देखा यह जाता है कि राजनीतिक भाषा साहित्यिक भाषा की बलि दे देती है ! किसी के बारे में कुछ भी बोल देना,अक्सर देखा जाता है ऐसा होता है ! दुःख होता है देख कर, पढ़कर कि कितना भी विद्वान व्यक्ति हो विपक्ष में जाते ही उसके बारे में कुछ तो भी मनगढ़ंत कह दिया जाता है ! यह भारतीय संस्कृति नहीं है ! न ही संस्कार ! आपका आलेख बहुत अच्छा है ! सटीक जानकारी देता है ! धन्यवाद आपको !

    ReplyDelete