Saturday, 9 August 2025

*जय स्वदेश -जय स्वदेशी

'स्व' आत्मबोध है। 'स्वदेशी' उसी का प्रकटीकरण है।
अतः 
* स्वदेशी व्यक्ति के जीवन में हिस्सा बने।
* परिवार के सदस्य स्वदेशी को प्राथमिकता दें।
* कार्यालय, व्यापारिक केन्द्रों में स्वदेशी वस्तुओं की उपलब्धता रहे।
* स्वदेशी वस्तुओं की गुणवत्ता उत्तम कोटि की हो।
* ऐसे कम्पनियों को सरकारी मदद न मिले जिसमें विज्ञापन ज़्यादा और वस्तु की गुणवत्ता कम हो।
* विद्यालयों में भारतीयता पर जोर हो।
* राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता आचार, व्यवहार में आदर्श सादगी वर्तें।

लाभ - 
* आर्थिक संकट से जूझ रहे सामान्य मध्यम वर्गीय परिवारों को राहत मिलेगी।
* आर्थिक सम्पन्नता प्राप्त समूहों को सादगी पूर्ण जीवन जीने के लिए अभ्यास का अवसर मिलेगा।
* राजनेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी जनता के व्यवहार के अनुरूप अपना आचरण बनाना होगा।
* उपदेशक, प्रवचन कर्ताओं को समाज के सादे जीवन से सीख मिलेगी।
* गरीब, वंचित भी सर उठा कर समानता का भाव बोध कर सकेगा।

राष्ट्रीय पक्ष 

* राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी।
* लघु कुटीर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा।
* स्वदेश में निर्मित वस्तुएं बेरोज़गारी दूर करेंगी।
* स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता बढ़ेगी।
* अमेरिका जैसे देश बार-बार मूर्खता नहीं करेंगे।
* पड़ोसी चीन भी अपने व्यवहार में बदलाव लायेगा।
* भारत विश्व को सादगी, सुचिता और आत्मनिर्भरता का संदेश दे सकेगा।

कैसे होग -
* व्यक्तिगत उपयोग में धीरे-धीरे स्वदेशी चीजों का उपयोग।
* घर के छोटे बड़े सदस्यों के बीच करणीय बातों की सहज समयानुकूल चर्चा।
* घर के भोजन को विज्ञापन आधारित रेसिपी से यथासंभव दूरी बनाते हुए वातावरण को अनुकूलित करना।
* तेल, साबुन,सोड़ा आदि घरेलू चीजों में स्वदेशी का उपयोग।
* धीरे -धीरे नवीन बड़ी और मंहगी चीजों को खरीदते समय स्वदेश निर्मित चीजों को प्राथमिकता देनी चाहिए।

*जय स्वदेश -जय स्वदेशी।

अंत में परिणाम में धैर्य-

* धीरे -धीरे रे मना धीरे से सब होय।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय।।
…................

✅ यहाँ भारत में स्वदेशी सामान क्रय करने हेतु कुछ लघु और प्रभावशाली श्लोगन दिए जा रहे हैं:-

1. "स्वदेशी अपनाओ, देश आत्मनिर्भर बनाओ!"
2. देश भक्ति रखो दम खम, स्वदेशी वस्त्र पहला कदम।
3. हर खरीदी हो भारत हितैषी, करो टेरिफ की ऐसी तेसी।
4. "विदेशी छोड़ो, स्वदेशी जोड़ो!"
5. "राष्ट्रहित में उठे हर हाथ– स्वदेशी की ही हो हर बात!
6. आत्मबल से बढ़ेगा भारत, स्वदेशी से सजेगा भारत।
7. स्वदेशी की भक्ति, स्वदेश की शक्ति।
8. अपना देश स्वदेशी माल, राष्ट्र रक्षा देखभाल।
9. स्थानीय बने सामान लाओ, भारत को भव्य बनाओ।
10. खरीदी स्वदेश की , सोच अपने देश की।
...............
रक्षा बंधन की शुभकामनाएं 🙏

चर्पटिमंजरी


चर्पटिमंजरी 

स्तोत्र 

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः । कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायु ॥

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते । प्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥

अग्ने वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः । करतलभिक्षा तरुतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥२॥

यावद् वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रकतः । पश्चाध्दावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे ॥३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः । पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः ॥४॥

भगवद‍गीता किञ्चितधीता गङ्गाजललवकणिका पीता । सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्या यमः किं कुरुते चर्चाम ॥५॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम् ॥६॥

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः । वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ॥७॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम् । इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥८॥

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः । पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ॥९॥

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः । नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ॥१०॥

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम् । एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय वारम्वारम् ॥११॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः । इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ॥१२॥

गेयं ग‍ीतानामसह्स्रं ध्येयं श्रीपतिरुपमजस्रम् । नेयं सज्जनसङ्गे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥१३॥

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे । गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥१४॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाध्दन्त शरीरे रोगः । यद्यपि लोके मरणं शरणं तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥१५॥

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः । नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ॥१६॥

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम् । ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥

॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं चर्पटपंजरिकास्तोत्रं संपूर्णम् ॥

मैं ममत्व हूं, समत्व हूं, बर्धत्व हूं"

"मैं ममत्व हूं, समत्व हूं, बर्धत्व हूं"

* टुकड़े पर बिके, कोहनी पर टिके, गमले में उगे, न धूप सही,न आंधी जानी,बस दिखावे के धनी, बातें करते ऊंचे आकाश की।

* आत्मचिंतन इन्हें करना है या आत्ममंथन उन्हें करना है जिन्होंने धूप सही, जमीन में उगे, फंसी हैं जड़ें जिनकी जड़ो में। 

* चिंतनीय वे हैं जो परिस्थित के कारण बौने हैं या वे जो मन: स्थिति के। क्या बरगदों ने ही अपने शौक के लिए गमलों में बौने पैदा नहीं किये हैं?

* बौने वे हैं जिन्हें बरगद ने उठने नहीं दिया या बौने वे हैं जो बरगद से दूर उगे, सुविधा भोगी और अब बरगद से बड़े हैं। 

* उन्हें बरगद के ऊपर ही देखने की आदत हो गई है। वो डरते हैं कि कहीं बरगद के नीचे देखा तो हमारे महल और उसकी झोपड़ी का अंतर हमारी बची कुची नैतिकता को रौंद न दे।

* धूप,आंधी तो दूर्वा ने सहा और देखा है,जिसे रौंदा है तथाकथित बरगदों की जाल भरी जड़ों ने। 

* वह तो दूर्वा की जीजिविषा है कि वह रौंदी जाकर भी दूने उत्साह से छिछल कर छिछोरों को अपनी अस्मिता का परिचय दे रही है। 

* क्योंकि जब बाढ़ आती है, बिजली चमकती है,मेघ तांडव करते हैं तब यदि कोई पानी में डूब कर, बिजली के ताप के सुलझ से बच कर, मेघों के गर्जन को राग मल्हार मान कर साथ में गुनगुनाने लगती है। वह दूर्वा ही तो है।

* वह दूर्वा ही तो है जो भोर तक बेसुध मौन , शताब्दियों की चली आ रही निशाचारी माया से बचने समाधि में चली जाती है।

* दरअसल परम्परा के बरगद, पीपल और रसाल सदा से कुचले दीमक के शरणस्थली रहे हैं। वहीं कबीर,सूर, तुलसी बढ़े,पले है। 

* वहां कोई कागभुशुण्डि बनते हैं,तो किसी की शम्भु समाधि लगती है,तो कोई ध्यान लगाता है और कोई आत्मचिंतन -मंथन करता है। 

* तभी वह बुद्धत्व को प्राप्त होता है। संघं शरणं गच्छामि और धम्म की ओर बढ़ता है।

* किंतु सुविधा भोगी बना तथाकथित बरगद?? कभी इस दल-दल में कभी उस दल-दल में सडांध दल में दाल गला रहा होता है। 

* अभी तक भारतीय गौरवशाली परम्परा  की उसी बात को मान्यता मिलती थी जिसे पश्चिम अच्छा कहता था। अब मान्यता उसे जिसे देश का अहिंदू कहे। है न, आत्म गौरव की अबूझ पहेली?

* शरद और बसंत के छुटपुट बादल पानी की बूंदें छिड़क सकते हैं किन्तु चातक और धरती को तो स्वाती नक्षत्र, आषाढ़ की पहली बूंद,  सावन की रिमझिम और भादौं की भदोही ही तृप्त कर सकती है। 

* बौने, कुबड़े, अपाहिज और अन्त्यज अब विकलांग नहीं, दिव्यांग हैं। वे धंसते,उठते, वृक्षों की जड़ थामें, चट्टानों की बांहों में लिपटे हिमालय हैं, किंतु तथाकथित साधकों की चतुराई से अंजान हैं।

* वे विंध्याचल की विनम्रता हैं जो अगस्त्य के आश्वासन पर टिके और झुके हैं। वे महेंद्र हैं जहां परशुराम शरण पाते हैं। उनमें भरी है मलयानिल की नष्ट न होने वाली,संसार को तृप्त करने वाली सुगंध।

* वे संगम हैं जहां सरस्वती का दिखावा नहीं है। वे कालिंदी हैं जिसे कालिया के जहर पीने की आदत है। और भी बहुत कुछ 🙏🚩

सादर

श्रावण,चतुर्थी, 
27/7/25

मणिं दत्वा

जिज्ञासा -मणिं दत्त्वा ततः सीता हनूमन्तमथाब्रवीत् । अभिज्ञानमभिज्ञातमेतद् रामस्य तत्त्वतः (१)मणि देने के पश्चात् सीता हनुमान्‌ जी से बोलीं- 'मेरे इस चिह्न को भगवान् श्री रामचन्द्र जी भलीभाँति पहचानते हैं (१) मणिं दृष्ट्वा तु रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति । वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च (२)'इस मणि को देखकर वीर श्रीराम निश्चय ही तीन व्यक्तियों का- मेरी माता का, मेरा तथा महाराज दशरथ का एक साथ ही स्मरण करेंगे ॥ २ ॥(श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणे एकोनचत्वानरिंश: सर्ग:)दूसरे श्लोक में सीता कहती हैं,इस मणि को देखकर वीर श्रीराम निश्चय ही तीन व्यक्तियों का- मेरी माता का, मेरा तथा महाराज दशरथ का एक साथ ही स्मरण करेंगे। बाल्मीकि जी तीनों के स्मरण का कारण नहीं बताते।मैं जो अनुमान लगा पा रहा हूं, 'यहां माता अर्थात् मायका, मेरा अर्थात सीता के वर्तमान परिस्थिति का,(इस मणि का प्रसंग दूसरी वार सर्ग 66/4 में आता है, जहां हनुमान जी जब श्रीराम को मणि देते हैं और सीता का संदेश बताते हैं कि इसे देखकर श्रीराम को जनन्या,मेरी और दशरथ का स्मरण होगा,तब राम कहते हैं,यह मणि हमारे श्वसुर ने सीता को दिया था। इसे देख कर मुझे वैदेहस्य, पिता दशरथ के दर्शन हो रहे हैं और ऐसा लग रहा है मानो सीता मिल गई है।यह मुद्रिका जनक को इंद्र ने दी थी।)  दशरथ याने ससुराल का।'⭐'मेरा ऐश्वर्य पूर्ण मायका, चक्रवर्ती सम्राट की बहू, अजेय राम की पत्नी।'⭐⭐क्या यह भी संकेत है कि आपातकाल में प्रत्येक बेटी /पत्नी/बहू को यही तीन स्मरण आते हैं?⭐⭐⭐और भी बहुत कुछ हो सकता है। बाल्मीकि कविपुंगव जो ठहरे।…............⭐ वृहत्तर कुटुम्ब के निहितार्थ।⭐⭐ कुटुम्ब का स्वाभिमान।⭐⭐⭐ कुटुम्ब की रक्षा में अपनी सुरक्षा।…...#परिवार प्रवोधन #अतीत का गौरव

Friday, 8 August 2025

तिब्बती साहित्य की विशेषताएं

तिब्बती साहित्य की विशेषताएं इस प्रकार हैं:

1. *बौद्ध धर्म का प्रभाव*: तिब्बती साहित्य पर बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव है, जिसमें बुद्ध की शिक्षाएं, दर्शन, और प्रार्थनाएं शामिल हैं।

2. *आध्यात्मिकता*: तिब्बती साहित्य में आध्यात्मिकता एक महत्वपूर्ण विषय है, जिसमें जीवन के उद्देश्य, आत्म-ज्ञान, और मोक्ष की खोज शामिल है।

3. *कविता और गद्य*: तिब्बती साहित्य में कविता और गद्य दोनों शैलियों का समावेश है, जिनमें प्रार्थनाएं, स्तोत्र, और दार्शनिक ग्रंथ शामिल हैं।

4. *तिब्बती संस्कृति का प्रतिबिंब*: तिब्बती साहित्य तिब्बती संस्कृति, इतिहास, और परंपराओं का प्रतिबिंब है, जो तिब्बती लोगों के जीवन और मूल्यों को दर्शाता है।

5. *प्रतीकात्मकता*: तिब्बती साहित्य में प्रतीकात्मकता का उपयोग किया जाता है, जिसमें विभिन्न प्रतीकों और चिन्हों के माध्यम से आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारों को व्यक्त किया जाता है।

6. *लामाओं की भूमिका*: तिब्बती साहित्य में लामाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है, जिन्होंने तिब्बती बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को प्रसारित करने और साहित्यिक परंपरा को बनाए रखने में योगदान दिया है।

इन विशेषताओं के साथ, तिब्बती साहित्य एक अद्वितीय और समृद्ध साहित्यिक परंपरा है जो तिब्बती संस्कृति और बौद्ध धर्म के मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है।

Friday, 1 August 2025

प्रार्थना

            
॥ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॥

शुचिता मन्त्र-
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्ग तोऽपिवा । 
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यान्तरः शुचिः ॥ 

ॐ सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्त्यादि हेतवे।
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नमः ।।

ईशावास्योपनिषद

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।

केनोपनिषद्
छंदोपनिषद 

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राण श्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि।
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोत् अनिराकरणमस्त्व निराकरणं मेऽस्तु । 
 तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु 
 धर्मास्ते मयि सन्तु, ते मयि सन्तु ॥
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 


प्रश्नोपनिषद् 
मुण्डकोपनिषद्
माण्डूक्योपनिषद् 

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा
भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । 
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवां सस्तनूभिर्व्यशेम
 देवहितं यदायुः ॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥ 
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

ऐतरेयोपनिषद्

ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि। 
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीः ।
अनेनाधीतेनाहोरात्रान्सन्दधामृत्यं वदिष्यामि।  सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु ।  अवतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥ 
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!

तैत्तिरीयोपनिषद

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम्  ।
ॐ शान्तिः । शान्तिः शान्तिः ।

श्वेताश्वतरोपनिषद्

ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
 सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै। 
ॐ शान्तिः शान्तिः ॥ शान्तिः !!!


बृहदारण्यकोपनिषद् -

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः शान्ति:

...............
 हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। 
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ।।15 ॥

…....….............

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मिन्समूह  तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि  योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि ||16||
…........................
 वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त  शरीरम् ।
 ॐ क्रतो स्मर कृतः स्मर क्रतो स्मर कृतः स्मर ॥ 17॥
…....................
अग्रे नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान् । 
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
…….....

 शिवमानसपूजा

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं 
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम्। 
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा 
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥
 सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं 
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्। 
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं 
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।।
छत्रै चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं  निर्मलं 
वीणाभेरिमृदंङ्गकाहलकला गीतं च नित्यं तथा।
 साष्टांग प्रणति: स्तुतिर्बहुविधा होतत्समस्तं मया।।
 सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ 
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं।
 पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः । 
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वागिरो ।।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ 
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् । 
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व 
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥
….....................
                  अथ ध्यानम् 

ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्धपद्मासनस्थं
पीतं वासो वसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् । वामाङ्कारूढ़सीतामुखकमलमिलल्लोचनंनीरदाभं
नानालङ्कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डलं रामचन्द्रम् ॥
              …..................

ध्यानम्

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं
 चारुचन्द्रावतंसं
 रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं 
परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम् ।
 पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृत्तिं 
वसानं
 विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं 
पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥

..............
मत्स्यं कूर्मं वराहं च वामनं च जनार्दनम् ।
गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं माधवं मधुसूदनम् ॥ 
पद्मनाभं सहस्राक्षं वनमालिं हलायुधम्
गोवर्धनं हृषीकेशं वैकुण्ठं पुरुषोत्तमम् ॥
विश्वरूपं वासुदेवं रामं नारायणं हरिम् ।
दामोदरं श्रीधरं च वेदाङ्गं गरुडध्वजम् ॥
अनन्तं कृष्णगोपालं जपतो नास्ति पातकम्।।
..............
अजं शाश्वतं कारणं कारणानां
 शिवं केवल भासकं भासकानाम् ।
 तुरीयं तमः पारमाद्यन्तहीनं
 प्रपद्ये परं पावनं द्वैतहीनम् ॥ ७ ॥ 

नमस्ते नमस्ते विभो विश्वमूर्ते 
नमस्ते नमस्ते चिदानन्दमूर्ते । 
नमस्ते नमस्ते तपोयोगगम्य
 नमस्ते नमस्ते श्रुतिज्ञानगम्य ॥ ८ ॥ 

प्रभो शूलपाणे विभो विश्वनाथ 
महादेव शम्भो महेशं त्रिनेत्र ।
 शिवाकान्त शान्त स्मरारे पुरारे
 त्वदन्यो वरेण्यो न मान्यो न गण्यः ॥ ९॥

शंम्भो महेशं करुणामय शूलपाणें 
गौरीपते पशुपते  पशुपाशनाशिन् । 
काशीपते करुणया जगदेतदेक -
स्त्वं हंसि पासि विदधासि महेश्वरोऽसि ।। १० ।।

 त्वत्तो जगद्भवति देव भव स्मरारे 
त्वय्येव तिष्ठति जगन्मृण विश्वनाथ।
 त्वय्येव गच्छति लयं जगदेतदीश
लिङ्गात्मकं हर चराचरविश्वरूपिन् ॥ ११॥
             .............

                बालकाण्ड

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ।।1।।


भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तः स्थमीश्वरम्।।2।।

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।3।।

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ।।4।।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्।।5।।

यन्मायावशवर्तिं विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्।।6।।

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।।7


अयोध्या काण्ड 

 यस्याड्के च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके 
भाले बालविद्युर्गले च गरलं यश्योरसि व्यालराट् । 
सोऽयं भूतिविभूषणः सुरवर: सर्वाधिप: सर्वदा
 शर्वः सर्वगतः शिवः शशिनिभिः श्रीशङ्करः पातुमाम् ॥ 

प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा च मम्ले वनवासदु:खतः ।
 मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंञ्जुल मलमङ्गलप्रदा ॥

 नीलाम्बुजश्यामलकोमलांङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् ।
 पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥


अरण्य काण्ड 
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।

मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं 
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् ।

राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभित
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ 


किष्किन्धाकाण्ड

कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबलौ विज्ञानधामावुभौ 
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ ।

 मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि नः ।

 ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं 
चाव्ययं 
श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा ।

 संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं 
धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ।

सुंदर काण्ड
 शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
 ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् । 
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम् ॥ १ ॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा । 
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे 
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ २ ॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
 सकलगुणनिधान वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥ ३ ॥

लंकाकांड 
रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
 योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् । 
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
 वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ १ ॥

 शंङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम् ।
 काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं 
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम् ॥ २ ॥

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम् ।
 खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे ॥ ३ ॥

उत्तरकांड 
 केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं
 शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्। 

पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं 
बन्धुना सेव्यमानं
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ।। १ ।।

कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ ।
 जानकी करसरोजलालितो चिन्तकस्य मनभृङ्गसंङ्गिनौ ॥ २ ॥

कुन्दइन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम्। 
कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ॥ ३ ॥

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अथ सप्तश्लोकी दुर्गा

देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ  हि कार्य सिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः ।

श्रुणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥

 ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः , अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थ सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । 
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥ 

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि । 
दारिद्रधदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥४॥

सर्वस्वरूपे  सर्वेशे  सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥५॥

रोगानशेषानपहंसि  तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां  विपन्नराणां
 त्वामाश्रिता  ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ ६ ॥

सर्वाबाधाप्रशमनं   त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ॥

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सिद्ध कुंजिका स्तोत्र -

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय 
ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।

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तत्त्व शुद्धि -
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥ 
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्व तत्त्वं शोधयामि नमः स्वाह।।

 भगवती का ध्यान पञ्चोपचार-

ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । 
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम् ॥ 

ध्यात्वा देवीं पञ्चपूजां कृत्वा योन्या प्रणम्य च।
 आधारं स्थाप्य मूलेन स्थापयेत्तत्र पुस्तकम् ॥

(1) शापोद्धार - करें-

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिका देव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा । " -

 इक्कीस इक्कीस बार उत्कीलन हेतु जप करें-

“ ॐ श्रीं क्लीं ह्वीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।"

 (3) मृत संजीवनी विद्या का जप - पुनः मृत सञ्जीवनी विद्या का जप मूल सात-सात बार - निम्नाङ्कित मन्त्र से करें-

'ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसञ्जीवन विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।”

- 4 ) सप्तशती - शाप - विमोचन मन्त्र - एक सौ आठ बार जप करने का विधान है-

'ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूँ ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।

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श्री दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र – संस्कृत श्लोक

॥ ॐ श्री दुर्गायै नमः ॥

॥ईश्वर उवाच॥

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने॥
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भव मोचनी।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः॥३॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः॥४॥

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥५॥

 अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।
पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ॥६॥

 अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥७॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः॥८॥

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ॥९॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥१०॥

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः॥१२

अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला॥१३॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥
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श्री शिव कवच



'ॐ सर्वाय क्षितिमूर्तये नमः। 
ॐ भवाय जलमूर्तये नमः। 
ॐ रुद्राय अग्निमूर्तये नमः। 
ॐ उग्राय वायुमूर्तये नमः।
 ॐ भीमाय आकाशमूर्तये नमः। 
ॐ पशुपतये यजमानमूर्तये नमः। 
ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः।
 ॐ ईशानाय सूर्यमूर्तये नमः।


विनियोगः
ॐ अस्य श्रीशिव-कवच-स्तोत्र-मंत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः अनुष्टप् छन्दः।

श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवता। ह्रीं शक्तिः। रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्।

 श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव-कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगः।
 
ऋष्यादि-न्यासः
श्री ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टप् छन्दभ्यो नमः मुखे । श्रीसदा-शिव-रुद्रो देवतायै नमः हृदि । ह्रीं शक्तये नमः नाभौ । रं कीलकाय नमः पादयो । श्रीं ह्री क्लीं बीजाय नमः गुह्ये । 

श्रीसदा-शिव-प्रीत्यर्थे शिव कवच-स्तोत्र-पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे

कर-न्यासः –
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नमः ।

 ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने अनामिकाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।

अङ्ग-न्यासः -
ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ ह्लां सर्व-शक्ति-धाम्ने ईशानात्मने हृदयाय नमः । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ नं रिं नित्य-तृप्ति-धाम्ने तत्पुरुषात्मने शिरसे स्वाहा । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ मं रुं अनादि-शक्‍ति-धाम्ने अघोरात्मने शिखायै वषट् । 

 ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्र-शक्ति-धाम्ने वाम-देवात्मने कवचाय हुं ।  

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ वां रौं अलुप्त-शक्ति-धाम्ने सद्यो जातात्मने नेत्र-त्रयाय वौषट् । 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वाला-मालिने ॐ यं रः अनादि-शक्ति-धाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट् ।  

              ॥ अथ ध्यानम् ॥

वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं काल कण्ठमरिन्दमम् ।
 सहस्र-करमत्युग्रं वंदे शंभुमुमा-पतिम् ॥ 
               ।। मूल-पाठ ।।  

मां पातु देवोऽखिल-देवतात्मा, 
संसार-कूपे पतितं गंभीरे । 
तन्नाम-दिव्यं वर-मंत्र-मूलं, 
धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ १ ॥

 सर्वत्र मां रक्षतु विश्‍व-मूर्ति
र्ज्योतिर्मयानन्द-घनश्‍चिदात्मा । 
अणोरणीयानुरु-शक्‍तिरेकः, 
स ईश्‍वरः पातु भयादशेषात् ॥ २ ॥

यो भू-स्वरूपेण बिभात विश्‍वं, 
पायात् स भूमेर्गिरिशोऽष्ट-मूर्तिः ।
 योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति, 
सञ्जीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥ ३ ॥

कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा, 
सर्वाणि यो नृत्यति भूरि-लीलः ।
 स काल-रुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादि-भीतेरखिलाच्च तापात् ॥ ४ ॥

 प्रदीप्त-विद्युत् कनकावभासो, 
विद्या-वराभीति-कुठार-पाणिः । चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः, 
प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्रम् ॥ ५ ॥

कुठार-खेटांकुश-पाश-शूल-कपाल-ढक्काक्ष-गुणान् दधानः ।
 चतुर्मुखो नील-रुचिस्त्रिनेत्रः, 
पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ ६ ॥

कुन्देन्दु-शङ्ख-स्फटिकावभासो, 
वेदाक्ष-माला वरदाभयांङ्कः । 
त्र्यक्षश्‍चतुर्वक्त्र उरु-प्रभावः, सद्योऽधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ ७ ॥

वराक्ष-माला-भय-टङ्क-हस्तः, 
सरोज-किञ्जल्क-समान-वर्णः । 
त्रिलोचनश्‍चारु-चतुर्मुखो मां, 
पायादुदीच्या दिशि वाम-देवः ॥ ८ ॥

वेदाभ्येष्टांकुश-पाश-टङ्क-कपाल-ढक्काक्षक-शूल-पाणिः । 
सित-द्युतिः पञ्चमुखोऽवताम् 
मामीशान-ऊर्ध्वं परम-प्रकाशः ॥ ९ ॥

मूर्धानमव्यान् मम चंद्र-मौलिर्भालं ममाव्यादथ भाल-नेत्रः ।
 नेत्रे ममाव्याद् भग-नेत्र-हारी, 
नासां सदा रक्षतु विश्‍व-नाथः ॥ १० ॥

पायाच्छ्रुती मे श्रुति-गीत-कीर्तिः, कपोलमव्यात् सततं कपाली ।
 वक्त्रं सदा रक्षतु पञ्चवक्त्रो, 
जिह्वां सदा रक्षतु वेद-जिह्वः ॥ ११ ॥ 

कण्ठं गिरीशोऽवतु नील-कण्ठः, 
पाणि-द्वयं पातु पिनाक-पाणिः । 
दोर्मूलमव्यान्मम धर्म-बाहुर्वक्ष-
स्थलं दक्ष-मखान्तकोऽव्यात् ॥ १२ ॥

ममोदरं पातु गिरीन्द्र-धन्वा, 
मध्यं ममाव्यान्मदनान्त-कारी ।
 हेरम्ब-तातो मम पातु नाभिं, 
पायात् कटिं धूर्जटिरीश्‍वरो मे ॥ १३ ॥

ऊरु-द्वयं पातु कुबेर-मित्रो,
 जानु-द्वयं मे जगदीश्‍वरोऽव्यात् । 
जङ्घा-युगं पुङ्गव-केतुरव्यात्, 
पादौ ममाव्यात् सुर-वन्द्य-पादः ॥ १४ ॥

महेश्‍वरः पातु दिनादि-यामे,
 मां मध्य-यामेऽवतु वाम-देवः । 
त्र्यम्बकः पातु तृतीय-यामे,
 वृष-ध्वजः पातु दिनांत्य-यामे ॥ १५ ॥

पायान्निशादौ शशि-शेखरो मां,
 गङ्गा-धरो रक्षतु मां निशीथे । 
गौरी-पतिः पातु निशावसाने, 
मृत्युञ्जयो रक्षतु सर्व-कालम् ॥ १६ ॥

अन्तःस्थितं रक्षतु शङ्करो मां,
 स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थित माम् ।
 तदन्तरे पातु पतिः पशूनां,
 सदा-शिवो रक्षतु मां समन्तात् ॥ १७ ॥

तिष्ठन्तमव्याद् ‍भुवनैकनाथः, 
पायाद्‍ व्रजन्तं प्रथमाधि-नाथः । 
वेदान्त-वेद्योऽवतु मां निषण्णं,
 मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥ १८ ॥

 मार्गेषु मां रक्षतु नील-कंठः, 
शैलादि-दुर्गेषु पुर-त्रयारिः । 
अरण्य-वासादि-महा-प्रवासे, 
पायान्मृग-व्याध उदार-शक्तिः ॥ १९ ॥

 कल्पान्तकाटोप-पटु-प्रकोप-
स्फुटाट्ट-हासोच्चलिताण्ड-कोशः ।
 घोरारि-सेनार्णव-दुर्निवार-
महा-भयाद् रक्षतु वीर-भद्रः ॥ २० ॥

 पत्त्यश्‍व-मातङ्ग-रथावरूथ-
सहस्र-लक्षायुत-कोटि-भीषणम् । 
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनाश्छिन्द्यान्मृडो घोर-कुठार-धारया ॥ २१ ॥

निहन्तु दस्यून् प्रलयानिलार्च्चिर्ज्ज्वलन् त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
 शार्दूल-सिंहर्क्ष-वृकादि-हिंस्रान् सन्त्रासयत्वीश-धनुः पिनाकः ॥ २२ ॥

दुःस्वप्न-दुःशकुन-दुर्गति-दौर्मनस्य-
दुर्भिक्ष-दुर्व्यसन-दुःसह-दुर्यशांसि ।
 उत्पात-ताप-विष-भीतिमसद्‍-गुहार्ति-व्याधींश्‍च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥ २३ ॥

        अमोघ शिव कवच 
             (संस्कृत में)

ॐ नमो भगवते सदा-शिवाय ,सकल-तत्त्वात्मकायसर्व-मन्त्र-स्वरूपाय ,सर्व-यंत्राधिष्ठितायसर्व-तंत्र-स्वरूपाय,
 सर्व-तत्त्व-विदूराय ।

ब्रह्म-रुद्रावतारिणे , नील-कण्ठायपार्वती-मनोहर-प्रियायसोम-सूर्याग्नि-लोचनाय भस्मोद्‍-धूलित-विग्रहाय ।

महा-मणि-मुकुट-धारणाय, माणिक्य-भूषणाय ,सृष्टि-स्थिति-प्रलय-काल
-रौद्रावताराय , दक्षाध्वर-ध्वंसकाय ।

महा-काल-भेदनायमूलाधारैक-निलयाय , तत्त्वातीताय, गंगा-धराय ,सर्व-देवाधि-देवायषडाश्रयाय, वेदान्त-साराय ।

त्रि-वर्ग-साधनायानन्त-
कोटि- ब्रह्माण्ड- नायकायानन्त-
वासुकि-तक्षक-कर्कोट-शङ्‍ख-
कुलिक-पद्म-महा-पद्मेत्यष्ट-
महा-नाग-कुल-भूषणाय।

 प्रणव-स्वरूपाय, चिदाकाशाय ,
आकाश-दिक्स्वरूपाय,
 ग्रह-नक्षत्र-मालिने सकलाय ।

कलङ्क-रहितायसकल-लोकैक कर्त्रे ,
सकल-लोकैक-भर्त्रे सकल-लोकैक-संहर्त्रे 

सकल-लोकैक-गुरवे ,सकल-लोकैक-साक्षिणे ,सकल-लोकैक-वर-प्रदाय,
 सकल-लोकैक-शङ्कराय।

 शशाङ्क-शेखराय ,शाश्‍वत-निजावासाय ,
निराभासाय ,निरामयाय ,निर्मलाय, निर्लोभाय।

 निर्मदाय, निश्‍चिन्ताय,निरहङ्काराय निरंकुशाय निष्कलंकाय, निर्गुणाय ,
निष्कामाय, निरुपप्लवाय ।

निरवद्याय ,निरन्तराय निष्कारणाय, निरातङ्काय , निष्प्रपंचाय, निःसङ्गायनिर्द्वन्द्वाय , निराधाराय ।

निरोगाय, निष्क्रोधाय निर्मलाय, निष्पापाय ,
निर्भयाय, निर्विकल्पाय ,निर्भेदाय, निष्क्रियाय ।

निस्तुलाय, निःसंशाय ,
निरञ्जनाय , निरुपम-विभवाय,
 नित्य-शुद्ध-बुद्धि-परिपूर्ण-सच्चिदानन्दाद्वयाय, परम-शान्त-स्वरूपाय ,
तेजोरूपाय, तेजोमयाय ।

जय जय रुद्र महा-रौद्र ,महावतार महा-भैरव काल-भैरव ,कपाल-माला-धर, खट्वाङ्ग-खङ्ग-चर्म- पाशाङ्कुश-डमरु-शूल- चाप-बाण-गदा-शक्ति- भिन्दिपाल-तोमर-मुसल-मुद्-गर-पाश-परिघ- भुशुण्डी-शतघ्नी-चक्राद्यायुध ।

भीषण-कर-सहस्र-मुख-दंष्ट्रा-
कराल-वदन-विकटाट्ट-हास-
विस्फारित, ब्रह्माण्ड-मंडल ,नागेन्द्र-
कुण्डल, नागेन्द्र-वलय ,नागेन्द्र-चर्म-धर, मृत्युञ्जय, त्र्यम्बक, त्रिपुरान्तक, विश्‍व-रूप, विरूपाक्ष ,विश्‍वेश्वर ,वृषभ-वाहन, विश्वतोमुख !

सर्वतो रक्ष, रक्ष । मा ज्वल ज्वल । महा-मृत्युमप-मृत्यु-भयं नाशय-नाशय- ! 
चोर-भय-मुत्सादयोत्सादय । 
विष-सर्प-भयं शमय शमय । 

चोरान् मारय मारय । 
मम शत्रुनुच्चाट्योच्चाटय । 
त्रिशूलेन विदारय विदारय ।
 कुठारेण भिन्धि भिन्धि । 
खड्‌गेन छिन्धि छिन्धि । 

खट्‍वांगेन विपोथय विपोथय । 
मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय । 
वाणैः सन्ताडय सन्ताडय । 
रक्षांसि भीषय भीषय । 

अशेष-भूतानि विद्रावय विद्रावय । कूष्माण्ड-वेताल-मारीच-गण-ब्रह्म-
राक्षस-गणान्‌ संत्रासय संत्रासय । 
ममाभयं कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्‍वासयाश्‍वासय । 

नरक-महा-भयान्मामुद्धरोद्धर 
सञ्जीवय सञ्जीवय क्षुत्तृड्‌भ्यां मामाप्याययाप्याय दुःखातुरं मामानन्दयानन्दय शिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादय मृत्युञ्जय 
त्र्यंबक सदाशिव ! नमस्ते नमस्ते नमस्ते ।

  ।। इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तरकखण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।।