यह केवल महाराष्ट्र का सवाल नहीं है, इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में, देशहित में देखना होगा। बंगाल से लेकर केरल तक पूरी तरह इसी रोग से ग्रसित हैं।
भाषा और क्षेत्र का सम्मान अनुचित नहीं है, किंतु उसका प्रतिशत होना चाहिए। अन्यथा भावना जब भड़कती है तो वह आरक्षण की तरह संविधान की ढाल लेकर प्रस्तुत होती है।
दरअसल यह एक बात की प्रतीक है कि क्षेत्रीयता, भाषा, भूषा, भजन, भोजन व्यक्ति और सामाजिक जीवन के ऐसे उपांग हैं, जिनसे व्यक्ति हो या समाज सामूहिक सामाजिक भाव में बह जाता है।
ऐसे में यदि इसे भड़काया जाये तो यह सकारात्मक और नकारात्मक किसी भी दिशा में जा सकता है।
शिवसेना+ ने इसे राजनीतिक ढाल बनाया। मराठी मानुष का नारा,जय महाराष्ट्र का नारा।
अंततः निराश,हताश, राजनीति में हांसिए पर आये ठाकरे बंधुओं ने इसे एक वार फिर अवसर में बदलने का प्रयास किया है।
किंतु वे भूल गए कि परिस्थितियां सदैव एक समान नहीं रहती और नारों की भी एक निश्चित समय तक ताकत और चमक रहती है।
धीरे-धीरे जाप से भी माला घिसती है। कमजोर होती है।चमक खोती है। महाराष्ट्र की महानता महा में है। इस बात को दोनों को समझना होगा।
चिंतनीय पक्ष सताधरी (बेर्रा) की है। जो महाराष्ट्र में भाजपा की खिचड़ी उबलते ही+ पानी के छीटे मार देते हैं और वह पक ही नहीं पाती।
जब पेट में गुड़- गुड़ हो रही हो, अधपकी दलिया हो या खिचड़ी वह हाजमा के लिए ज्यादा घातक होती है।
सत्ता लोभियों के स्टेटमेंट्स को सत्ता धारियों को ही काटना चाहिए। अन्यथा जनता अब बहुत ज्यादा मराठी भाषी -मानुष हो या हिंदी विरोधी व्यवहार पर शा़त नहीं रहेगी।
देश 2025 में खड़ा है। कोई भी नेतृत्व सत्ताधारी, पक्ष -प्रतिपक्ष हो या संगठन उसे अपनों से नहीं परकीय मानसिकता से लड़ना होगा।
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