जीवन निर्माण में श्रीमद्भगवत गीता में तीन प्रकार के तप बताए गये हैं-
१. शरीर तप (गीता- १७/१४) - जीवन श्रेष्ठ होने का अर्थ है श्रेष्ठ आचरण- नसरुद्दीन एक राज्य का शासक था। परन्तु वह अवकाश के समय टोपियां बनाना था उससे जो धन प्राप्त होता था उसी से अपना खर्च चलाता था ।
नसरुद्दीन की पत्नी स्वयं खाना बनाया करती थी । एक बार खाना बनाते समय उनका हाथ जल गया। वह सोचने लगी कि एक शासक की पत्नी होते हुए भी उसे एक नौकर तक उपलब्ध नहीं ।
उन्होंने अपने पति से कहा, ‘आप इतने बड़े राज्य के शासक हैं, क्या आप हमारे लिये भोजन पकाने वाले एक नौकर का भी प्रबन्ध नहीं कर सकते ?’
नसरुद्दीन ने उत्तर दिया - ‘‘भाग्यवान! नौकर रखा जा सकता है, बशर्ते कि हम अपने सिद्धान्तों से डिग जाएं ।
राज्य, धन, वैभव तो प्रजा का है । हम तो उसके रक्षक मात्र हैं । उसका उपयोग अपने लिए करें, यह तो बेईमानी होगी। बात पत्नी को समझ में आ गई।’’
२. मानस तप (गीता -१७/१६)- सूर्य का प्रकाश लेकर दो किरणें चलीं। एक कीचड़ में गिरी तो दूसरी पास उग रहे कमल के फूल पर गिरी। जो फूल पर गिरी वह दूसरी से बोली - ‘देखो ! जरा दूर रहना। मुझे छूकर कहीं अपवित्र न कर देना।’
कीचड़ वाली किरण यह सुनकर हँसी और बोली - ‘बहन! जिस सूर्य का प्रकाश हम दोनों ले कर चलीं हैं, उसे सारे संसार में अपना प्रकाश भेजने में संकोच नहीं तो ये आपस में मतभेद कैसा ?
और फिर यदि हम ही इस कीचड़ को नहीं सुखायेगी तो पुष्प को उपयोगी खाद कैसे मिल सकेगी ?’
यह सुन दूसरी किरण अपने दंभ पर लज्जित हो गई।
३. वाणी तप (गीता-१७/१५)- व्यास जी ने गणेश जी से महाभारत लिखवाया। महाभारत पूरा हुआ तो व्यास जी ने गणेश जी से पूछा,‘महाभाग! मैंने २४ लाख शब्द बोलकर लिखाए, लेकिन आश्चर्य है इस बीच में आप एक शब्द भी नहीं बोले। सर्वथा मौन रहे?
गणेश जी ने उत्तर दिया ‘बादरायण ! बड़े कार्य सम्पन्न करने हेतु शक्ति की आवश्यकता होती है और शक्ति का आधार संयम है। संयम ही समस्त सिद्धियों का प्रदाता है। वाणी का संयम न रख सका होता तो आपका ग्रंथ तैयार कैसे होता। यह वाणी का तप है।
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