त्यज दुर्जन संसर्ग भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम्।।
यह श्लोक चाणक्य नीति का हिस्सा है । इसका अपेक्षित बोध है, बुरी संगति से दूर रहकर सज्जनों की संगति करनी चाहिए । यह श्लोक, ‘त्यज दुर्जन संसर्गं भज साधुसमागमम्’ दो भागों में बंटा है : ‘त्यज दुर्जन संसर्गं:’ अर्थात् ‘दुष्टों की संगति छोड़ो’ । ‘भज साधुसमागमम्:’ अर्थात् ‘सज्जनों की संगति करो’।
क्योंकि -
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जन:।
सर्पो दशति काले तु दुर्जनस्तु पदे-पदे।।
‘दुर्जन व्यक्ति और एक सांप में से, सांप बेहतर है, दुर्जन नहीं । सांप तो केवल समय आने पर ही काटता है, लेकिन दुर्जन हर कदम पर नुकसान पहुंचाता है।’
‘किरातार्जुनीयम्’ में महाकवि भारवि कहते हैं-
व्रजन्ति ते मूढधिय: पराभवं भवंति मायाविषु येन मायिन: प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृतांगान्निशिता इवेषव:।। (किरातार्जुनीयम् १/३०)
द्रोपदी युधिष्ठिर को समझाती है, वे मूर्ख सदा पराजित होते हैं, जो कपटी लोगों के प्रति कपट का आचरण नहीं करते । दुष्ट लोग सज्जनों को वैसे ही मार डालते है, जैसे कवच आदि द्वारा अनारक्षित शरीर में बाण प्रवेश कर प्राण ले लेते हैं ।
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