शिक्षक और विद्यार्थी
(भाग-एक)
‘ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!! ’
शिक्षक का जीवन आध्यात्मिकता से भरपूर होना चाहिए। वातावरण में इसका प्रभाव पड़ता है। शिक्षक की चित्त शुद्धि स्वयं के लिए ही नहीं बल्कि विद्यार्थी और समाज के कल्याण के लिए भी आवश्यक है।
भौतिक जगत से भी अधिक सत्य एक सूक्ष्म मनोजगत् है। विचार एक तरह के मानसिक स्पन्दन होते हैं। ये स्पन्दन हमारे अन्दर से निकलकर निरन्तर बाह्य मनोजगत् में प्रसारित हो रहते हैं। यदि विचारों का स्पन्दन शुभ है तो वे विचारों के शुभ तरंगों को उत्पन्न करते हैं। तब जो भी इन शुभ स्पन्दनों के संस्पर्श में आता है, उसे लाभ होता है।
इतना ही नहीं तो शुभ तरंगें हमारे लिए भी शुभ विचारों का पुन: चिन्तन आसान कर देती हैं परिणामत: अशुभ चिन्तन के बाद हमारे चारों ओर का दूषित वातावरण पुन: शुभ तरंगों से परिव्याप्त हो जाता है। और तब धीरे-धीरे अशुभ विचारों का उठना भी रुक जाता है। जब शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच ऐसा वातावरण एक दीर्घ काल तक बना रहता है तब शिक्षक और विद्यार्थी के मानसिक स्पन्दन सामान्यत: एक सरीखे होते जाते हैं।
शिक्षक को ध्यान रखना होता है कि यदि उसके जीवन में सामन्जस्य नहीं है तो वह विद्यार्थी को भी कष्ट पहुँचाएगा। विद्यार्थी के प्रति क्रोधित होने से पूर्व हम स्वयं पर क्रोधित होते हैं। विद्यार्थी के प्रति सहानुभूति रखें यदि कोई विद्यार्थी नाराज हो तो उसके प्रति भी सहानुभूति रखें। ऐसे भी अवसर आयेंगे जब विद्यार्थी को डाँटना पड़ेगा। उनके प्रति कड़े शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा तब अपने आत्मसंतुलन को खोये बिना भी यह काम किया जा सकता है।
यदि शिक्षक आत्मसंतुष्ट हो तो दूसरे में भी तादात्म्य और संतुलन पैदा होगा। यदि शिक्षक चंचल और असंतुष्ट हो तो बाहरी और भीतरी दोनों प्रकार की समस्याएँ पैदा होंगी। शिक्षक को सब के साथ मिलकर काम करना चाहिए। लेकिन आसक्त भाव से नहीं। विचलित होकर नहीं। दयालु हो कर पर अंधे हो कर नहीं।
दु:ख और कष्ट स्वयं महान शिक्षक होते हैं। उन्हें सहन करना शिक्षक-धर्म है। एक उत्कृष्ट शिक्षक सदा ही एक अच्छा विद्यार्थी भी होता है। दु:खों और कष्टों को भूमा की ओर मोडक़र उन्हें भी अपनी प्रगति के साधन बनाता है।
सत्य की तीव्र अभिलाषा विद्यार्थी को दु:खों और कष्टों के बावजूद लक्ष्य की ओर ले जाती है। इसलिए शिक्षक और विद्यार्थी किसी भी समाज के क्यों न हों यदि वे अपने सभी कार्यों को ईश्वराभिमुख करने का प्रयत्न करें और आपस में विश्वास अर्जित कर ले तो दोनों का जीवन प्रेरक हो जाता है।
जीवन के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास करना ही शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा जब अर्थ के लक्ष्य में धर्माधारित होती है तो उसकी कामनाएँ भी पवित्र होती हैं और वह शिक्षक-शिक्षार्थी के साथ ही समाज को भी मोक्षगामी बनाती है।
शिक्षक-शिक्षार्थी अपने नित्य प्रति के जीवन में भी धर्म को उतारने का प्रयत्न करते हैं तो दोनों के अन्दर का श्रद्धावान भक्त श्रमपूर्वक दूसरो के समक्ष करुणा और प्रेम को प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है।
यदि शिक्षक दूसरो की सहायता करना चाहता है तो उसका एक मात्र उपाय यह है कि ऐसा जीवन यापन करे, जो दूसरों के लिए उदाहरण स्वरूप हो। शिक्षक को यह उदाहरण अपने जीवन के द्वारा प्रदान करना होगा। लोगों के सामने विचारों की ढेर ईटें रखने से कोई लाभ नहीं होगा। चरित्ररूपी जिस भवन का शिक्षक निर्माण करेगा, उसे लोग देखना और उसे आत्मसात करना चाहेंगे।
आवश्यक है कि शिक्षक और शिष्य के चारो ओर जो कुछ हो रहा है, उसके प्रति दोनों सजग रहें, और संतुलित दृष्टिकोण रखें तभी समाज का जीवन शांतिपूर्ण होगा। और शांति, प्रवित्रता, पंच निष्ठा, श्रद्धा आदि विभिन्न सद्गुण समाज में दोनों के कार्यों द्वारा अभिव्यक्त होंगे।
जब शिक्षक स्वयं सद्गुणों को अपने जीवन में पालन करता है, तो ही उपदेश और आदेश देने का कोई लाभ होता है अन्यथा विद्यर्थियों को व्यर्थ तंग नहीं करना चाहिए। विद्यार्थियों में आध्यात्मिकता का संचार मौन रहकर किया जा सकता है। उचित रूप से आध्यात्मिकता देने पर वे उसे शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं। हमें केवल अग्रि प्रज्वलित करना है, वे उसकी स्वाभाविक गर्मी के लिए उसके चारो ओर इकठ्ठे हो जाएँगे।
यह खेद का विषय है कि आध्यात्मिक अनुभूति के लिए बहुत कम शिक्षक प्रयत्नशील होते हैं। किन्तु यदि कुछ लोग जो आध्यात्मिक हो गये हैं, वे ही तीव्र साधना करें, तो इस दुनिया को और अच्छा बना सकते हैं। वे दूसरों का भी आध्यात्मिक कल्याण कर सकते हैं।
दूसरों की सेवा और सहायता करना प्रत्येक शिक्षक और विद्यार्थी के जीवन का एक अनिवार्य अंग बन जाना चाहिए। विभिन्न प्रकार की सहायताओं में आध्यात्मिक सहायता सर्वोत्कृष्ट है। इसकी आज विश्व में सब से अधिक आवश्यकता है। जिन्हें आवश्यकता है, उन्हें आध्यात्मिक निर्देश देना, मार्गदर्शन प्रदान करना हमें अपना कर्तव्य समझना चाहिए। यदि हम ऐसा न कर सके तो दूसरों की बौद्धिक अथवा भौतिक सहायता करनी चाहिए। यदि यह हमारी आंतरिक प्रार्थना हो तो यह किसी से कम नहीं।
सब शिक्षक और विद्यार्थी एकाएक आध्यात्मिक नहीं बन सकते। दूसरों की आध्यात्मिक सहायता करने से पहले अपने को आध्यात्मिक होना होगा। स्वामी विवेकानन्द जी ऐसे ही कुछ व्यक्ति के तलाश में थे जो उच्चतम आदर्श के लिए अपना जीवन समर्पित कर दें। तन, मन और वचन की पवित्रता के आदर्श के लिए अपना सर्वस्व न्योंछावर कर दें तथा उस आदर्श को प्राप्ति के लिए हर कठिनाई का सामना करने को प्रस्तुत हो।
यह ध्यान रखें कि हम सम्पूर्ण शिक्षक और विद्यार्थी समूह में परिवर्तन नहीं ला सकते, हम समूचे विद्यार्थी समुदाय को आध्यात्मिक भी नहीं बना सकते, किन्तु हम उन कतिपय शिक्षक और विद्यार्थियों के जीवन को अवश्य बदल सकते हैं, जो निष्ठावान् हैं तथा जिनका मानस बन गया है।
‘ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै। ॐ शान्ति:! शान्ति:!! शान्ति:!!! ’हे परमात्मा हम शिक्षक और विद्यार्थी दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों का साथ साथ पालन करें। हम साथ -साथ विद्या-सम्बन्धी सामर्थ्य को प्राप्त करे। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम द्वेष न करें। त्रिविध ताप की शांति हो।’
This is mythological explanation of the quality of a teacher and cent percent seems theoretically correct but in the market economy the external forces influence the behaviour of teachers which ultimately affects the students and teachers relationship.
ReplyDeleteFelt immense happiness to read elevating and ennobling views on the need and relevance of making spirituality an essential part of teaching and learning. All great saints and scriptures all over the world have unanimously underlined the importance of spiritual path for an all round development of personality and meaningful living with the ideal of bahujan sukhai and bahujan hitai
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