हे ब्रह्मांड नायक !
मैं मुखर तुम मौन
मैं प्रकृति तुम स्वत्व
मैं बोध तुम विस्तार
मैं शिष्ट तुम विनीत ।।
मेरा अकेलापन
तुम्हारे अजनवीपन
के साथ
पूरा करना चाहता है-
साक्षर से निरक्षर
नारायण से नर
अवढरदानी से कृपण
सुप्त से उदासीन
मुदित से प्रफुल्लित
दुरभि-संधि के क्षितिज की
कालजयी-यायावरी यात्रा।।
मेरी यह प्रार्थना
तुम्हारे नील निर्वसन आकाश
कुशुम की सुरभि को
अनुभूत करें अपनी संवेदना में।।
हे आशुतोष !
मैं करील नहीं
तुम्हारे चमेली की
वह बास चाहता हूं
जो रंधों में बस
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को
निमज्जित कर दे ।।
मैं अनुगामी हूं
तुम्हारे उस वृत्त का
कायदे और करीने का
जो सौरभमय प्रभा से है भरा।।
हे चन्द्रमौलि !
मैं चाहता हूं
करना आत्मसात
तुम्हारे रश्मियों से सिंचित
कालजयी पुष्पों के मंद स्मृति मुस्कान को
और पराग की भांति छिपना निर्हैतुकी संपुट में।।
हे त्रिलोकीनाथ !
होना चाहता हूं,
मसीहा नहीं,
आदमी से आदमी
अक्षम पीढ़ी का सक्षम हस्ताक्षर
जो अपनी अदम्य जिजीविषा से ला सके
तुम्हारे नित्य अनंत विभूति का अमूल्य अलंकार
अशेष उत्सर्ग भरा चांद-तारों सा चिरंतन उपहार ।
हे ओंकारेश्वर !
चाहता हूं
तुम्हारी पश्यन्ति वियावान में
भटकनेवाली बैखरी का सहारा बन
निद्राविहीन रात्रि की पीड़ा में पहली तरंग संग
अनिकेतन की मुरेड़ पर ,जीवन का अभय संदेश शाश्वत -आश्वासन भर दे।।
चाहता हूँ मचलना
अल्हड़ पहाड़ी और नर्मदा के बीच
बन एक गहरी स्थिर निर्विकार झील
जहां तुम अहर्निस नौका खेते हुए
हजारों-हजारों साम्राज्य के उत्थान-पतन
स्वागत-विदाई का सुनाते हो संदेश ।
हे योगेश्वर !
प्रदीप्त करना चाहता हूँ
युग की शंकालु-स्वार्थी राजनीति में -
नि:स्वार्थ क्रांति का वैचारिक दावानल
जो भस्म कर दें विराट-ब्रह्मांड में धुसरित
पीड़ा के घूमते तामसिक हवि को !!
हे रचयिता !
खोलना चाहता हूं
संसृति का यथार्थ जो वह रचती है
न कि जो क्षद्म आलोचक अपने लाल-
रंग-तूलिका-स्वर से समझते और समझाते है ।।
तुम्हारी संसृति के गह्लवर में
डूब कर आज झकझोरना चाहता हूँ
उस प्रमादी-प्रतिभावान साहित्यकार को
जिसके नैसर्गिक मेधा- बीज में-
अतीत की सामर्थ्य आँखें , वर्तमान का तना
और भविष्य के फूल-पराग-मधुफल भरे हों।
हे विश्वम्भर !
स्वस्थ की प्रज्ञा-वेदी पर
समिधा-समर्पित कर
चाहता हूँ देखना बंद आँखों से
काल की- "अग्निमयसुपथाराये...
....…...................।।"
उमेश कुमार सिंह
२५/०४/२०२०