Wednesday, 29 April 2020

समर्पण

उत्तर-दक्खिन पूर्व-पश्चिम
बैठे हैं प्रज्ज्वलित कर यज्ञकुंड
रावणी-आत्मघाती-आताताई 
जाने कितने राष्ट्रभक्त-प्राण
हुए न्योछवर अब तक वेदी पर 

बहुत हुए झूठे मानसम्मान सलामी 
शहीदी का वन्चनापूर्ण दिखावा 
कैसे कहें उन देशभक्तों को पागल 
देखा जिन्होंने दिवास्वप्न विश्वास पर

सर सेनापति वर्षों से सो रहे थे 
पहन जिरहबख्तर आजादी का बेपरवाह 
वह था जग रहा रक्षा की थाती लेकर
जो नहीं सह सकता उन्माद-आतंक का धरा पर
 
थे राष्ट्रनायक सुबिधा के पिंजर में बंद   
स्वर्ण मुद्रा में लेते रहे आनंद 
यहाँ यह रक्षक स्वतंत्रता का जिसे   भाता था नीला आकाश सदा सीमा पर

 
हाथों में पुरानी गौरव की ले सलाखें 
दिव्य क्रीड़ाओं में लगता सुदूर 
व्यथा सही सीमाओं में कितनी 
और कथा सौर्य की दी जग को थाती पर

 ऐसे वीर स्वतंत्रता प्रेमी सीमारक्षक अंत में 
अंगीकार किया पाशविक मृत्यु सही व्यथा 
हो गए शहीद दी आहूत खुद की 
परिवार हुआ नंगा भूखा प्यासा छलाव पर 

मत बहाना घड़ियाली आंशू 
मत सजाना शहीद पार्क 
हो सके तो इनकी याद में 
अपना भी एक बेटा देना वार सीमा पर

१७/०४/२०१९

Saturday, 25 April 2020

घर के सामने

घर के सामने
रोज अपने  दरवाजे से
बिखरे तिनके-तिनके को
बुहार कर
पड़ोस और अपने घर की
सीमा रेखा में
इकठ्ठा कर पड़ोसन
झाड़ू झिटक
कमर सीधी कर
एक जंग जीत लेती है।

कल सुबह फिर वही बुहारे
घांस-फूस के तिनके 
सर उठा ओंठ बंद कर
निमीलित पलकों के कोने से
उसके झाडू से अपनी पीठ सहलाने का
 इंतजार करते हैं।

मैं सोचता हूं
प्रभु ! यह दो अबोध प्राणमयी संज्ञाओं के बीच का खेल
तुम कब खत्म करोगे?
शायद नहीं भी करो!
आखिर तुम्हें जो दोनों के अहंकारों को रोज ही तुष्ट करना है।

प्रतीक्षा है तुम्हारे बड़े सींक  और नोक बाले झाड़ू की
जब समष्टि में तुम एक साथ बुहार दोगे
नहीं होंगी घरों की सीमाएं
और न ही अहंकारी सत्ताओं की अनजानी अबोध हरकतें।

कही वही झाड़ू तो नहीं चल रहा है??

(प्रो.उमेश कुमार सिंह)
17/04/20
भोपाल

सोंधी माटी

छूटी  सोंधी मांटी परदेशी मजदूर हो गया।
गांव का नन्हकू शहर आ मजबूर हो गया।।

सरहदे केवल अमीरों ने ही नहीं लांघी हैं।
ना-समझ का लांघना- असल कसूर हो गया।। 

अपनों से हाथ फैलाना  समझा अपमान था।
परायों में गुरूर  कितना मजबूर हो गया।।

दाना चुगने घर छोड़ कर उड़ा था परिंदा।
जाहिल-पंजों में तड़पने मजबूर हो गया।।

ऊंजाला लाने शहर निकला था बटोही ।
बाट-दामन में अंधियारा भरपूर हो गया।।

बड़ी हया से घूरा था जिस दरख्त-छांव को। 
हंसी पगडंडी, वही गांव आज दूर हो गया!!


उमेश कुमार सिंह
२३/०४/२०

हे ब्रह्मांड नायक

हे ब्रह्मांड नायक !

मैं मुखर तुम मौन 
मैं प्रकृति तुम स्वत्व 
मैं बोध तुम विस्तार 
मैं शिष्ट तुम विनीत ।।

मेरा अकेलापन
तुम्हारे अजनवीपन
के साथ
पूरा करना चाहता है-
साक्षर से निरक्षर
नारायण से नर 
अवढरदानी  से कृपण  
सुप्त से उदासीन 
मुदित से प्रफुल्लित 
दुरभि-संधि के क्षितिज की
कालजयी-यायावरी यात्रा।।

मेरी यह प्रार्थना 
तुम्हारे नील निर्वसन आकाश
कुशुम की सुरभि को
अनुभूत करें अपनी संवेदना में।।

हे आशुतोष !
मैं करील नहीं
तुम्हारे चमेली की 
वह बास चाहता हूं
जो रंधों में बस
मेरे सम्पूर्ण अस्तित्व को 
निमज्जित कर दे  ।।

मैं अनुगामी हूं 
तुम्हारे उस वृत्त का 
कायदे और करीने का 
जो सौरभमय प्रभा से है भरा।। 

हे चन्द्रमौलि  ! 
मैं चाहता हूं
करना आत्मसात
तुम्हारे रश्मियों से सिंचित
कालजयी पुष्पों के मंद स्मृति मुस्कान को 
और पराग की भांति छिपना निर्हैतुकी संपुट में।।

हे त्रिलोकीनाथ  !
होना चाहता हूं,
मसीहा नहीं, 
आदमी से आदमी 
अक्षम पीढ़ी का सक्षम हस्ताक्षर 
जो अपनी अदम्य जिजीविषा से ला सके
तुम्हारे नित्य अनंत विभूति का अमूल्य अलंकार 
अशेष उत्सर्ग भरा चांद-तारों सा चिरंतन उपहार ।

हे ओंकारेश्वर  !
चाहता हूं
तुम्हारी पश्यन्ति वियावान में 
भटकनेवाली बैखरी का सहारा बन 
निद्राविहीन रात्रि की पीड़ा में पहली तरंग संग 
अनिकेतन की मुरेड़ पर ,जीवन का अभय संदेश शाश्वत -आश्वासन भर दे।।

चाहता हूँ मचलना 
अल्हड़ पहाड़ी और नर्मदा के बीच 
बन एक गहरी स्थिर निर्विकार झील 
जहां तुम अहर्निस नौका खेते हुए 
हजारों-हजारों साम्राज्य के उत्थान-पतन 
स्वागत-विदाई का सुनाते हो संदेश ।

हे योगेश्वर  !
प्रदीप्त करना चाहता हूँ 
युग की शंकालु-स्वार्थी राजनीति में -
नि:स्वार्थ क्रांति  का वैचारिक दावानल
जो भस्म कर दें विराट-ब्रह्मांड में धुसरित
पीड़ा के घूमते तामसिक हवि को !!

हे रचयिता !
खोलना चाहता हूं 
संसृति का यथार्थ जो वह रचती है 
न कि जो क्षद्म आलोचक अपने लाल-
रंग-तूलिका-स्वर से समझते और समझाते है ।।

तुम्हारी संसृति के गह्लवर में 
डूब कर आज झकझोरना चाहता हूँ
उस प्रमादी-प्रतिभावान साहित्यकार को 
जिसके नैसर्गिक मेधा- बीज में- 
अतीत की सामर्थ्य आँखें , वर्तमान का तना 
और भविष्य के फूल-पराग-मधुफल भरे हों। 

हे विश्वम्भर !
स्वस्थ की प्रज्ञा-वेदी पर
समिधा-समर्पित कर 
चाहता हूँ देखना बंद आँखों से 
काल की- "अग्निमयसुपथाराये...
....…...................।।"

उमेश कुमार सिंह
२५/०४/२०२०

Friday, 24 April 2020

परदेश

छूटी  सोंधी मांटी परदेशी मजदूर हो गया।
गांव का नन्हकू शहर आ मजबूर हो गया।।

सरहदे केवल अमीरों ने ही नहीं लांघी हैं।
ना-समझ का लांघना-असल कसूर हो गया।। 

अपनों से हाथ फैलाना समझा अपमान था।
परायों में जा गुरूर कितना मजबूर हो गया।।

दाना चुगने घर छोड़ कर उड़ा था परिंदा।
जाहिल-पंजों में तड़पने मजबूर हो गया।।

ऊंजाला लाने शहर निकला था बटोही ।
बाट-दामन में अंधियारा भरपूर हो गया।।

बड़ी हया से घूरा था जिस दरख्त-छांव को। 
हंसी पगडंडी, वही गांव आज दूर हो गया

उमेश कुमार सिंह
२३/०४/२०

Wednesday, 15 April 2020

प्रार्थना

🕉🕉👏👏🕉🕉

काली रात
अदृश्य हाथो से
बुन रही है
मकड़ी-सा मृत्यु-जाल।।

बाराह- मुंह 
श्वेत-श्याम-देशों से 
लाया गया 
पीड़ा-प्रवंचना -पहाड़ का
आत्मघाती-सूत-लाल ।।

शहादती-इबादत ने ! 
चोर मुद्रा में
धर्म-निरपेक्षता का
मुखौटा /बुर्का पहन
अस्थिर-अराजक -खंद में
 देश को दिया डाल ।

भूख-हड़ताल से 
यमराज-भैंस की 
विद्रूप दस्तकारी ने
अमावस की रात
अपने ही घर
बुन दिया ग्रहण जाल ।।

गहन-तमस-गुफाओं में
निर्द्वन्द्व- निर्भय -चेतना का 
अरुण-शुभ्र- प्रकाश भर !!
हो सके मुक्त विश्व
अज्ञात भय- विषाद से
ब्रम्हांड में जय नाद हो
हे भुवनेश्वर ! 
 हे महाकाल!!

प्रो.उमेश कुमार सिंह
(16/04/2020)
भोपाल

Monday, 13 April 2020

प्रणाम प्रेरणा पुरुष को

हे दिव्यात्मा ! 
जब तक मैं तुम्हारे पास 
करता जाने का प्रयत्न
तुम्हारे भव्य मूर्ति पर 
चढ़ चुकी थीं 
अनेक मालाएं।

मैं तो परिचित था
तुम्हारी उस उपेक्षित बस्ती से
जहां संघर्ष था
धनी-निर्धन का
श्रम की अनथक साधना से 
मिट रहा था यह भेद सीढ़ी- दर -सीढ़ी।

किंतु शब्द रहित पदचापों के साथ
न जाने कब तुम्हें छू कर
धन-बली-पशु ने
अस्पृश्य बना
एक माला चढ़ा दिया ?

मैं लगता तुम्हारे गले 
तोड़ता उपेक्षित के कवच को
खोलता अस्पृश्यता की अर्गला को
पाता प्राणों से प्राणों की
महक
न जाने अमूर्त-धूर्त सत्ता ने
कब चढ़ा कर दलित की माला
खड़ी कर दी अभेद्य दीवार!! 

दलित की इस सीढ़ी ने
दिए
तुम्हें अनेकों सर्वनाम
संसद- भवन से लेकर 
हर चौराहे पर 
तुम्हें खड़ा कर दिया अकेले,
उस बस्ती से पृथक
जहां तुम्हारी देही का अस्तित्व था।।

आज उसी दलित के नाम पर
तुम्हारे कंधे का सहारा लेकर
न जाने कितने रंगों ने तुम्हारे बहुरंगी
व्यक्तित्व को बांध दिया नीले रंग की एक स्वार्थी माला में!!

बांध दिया तुम्हारे 
समुद्र के ,
अग्नि के ,
आकाश के,
जल के ,
असीम नीलिमा को।।

स्मरण दिलाता था जो
राम-कृष्ण-बुद्ध के नीले
विराट-आनन की अक्षत-आभा को।।

भ्रमित हो गयीं 
वे उपेक्षित बस्तियां
निर्धन समाज 
आज दलित की आत्मघाती सत्ता-संवेदना में।।

मेरे नायक
तुम कहां हो
मुझे नहीं ज्ञात 
पर विश्वास है समय के साथ
तुम फिर से आकर एक वार
इस दलित के सत्ता कवच को अवश्य उतार फेकोगे!!!

त्राण का अपेक्षित समाज
उस दिन हो सकता है
अपने विशाल सनातनी-हिन्दु समाज में एकात्म ।।

सूख सकती हैं 
तुम्हारे व्यक्तित्व में
थोपी गई
डाली गई
गले में
दलित , अस्पृश्यता
की क्षद्म मालाएं।।

प्रतीक्षा के साथ 
हे महामानव!!
तुम्हें  कोटि-कोटि अभिनन्दन .....


(14/04/2020
भोपाल)