Wednesday, 30 October 2019

वासुदेव बलवंत फडके


वासुदेव बलवंत फडके
(4 नवम्बर 1845 – 17 फ़रवरी 1883)

प्रो उमेश कुमार सिंह

माना जाता है की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले वासुदेव फड़के भारत के पहले क्रांतिकारी थे  कुछ प्रमुख बातों पर नज़र डाल कर उनके समस्त व्यक्तित्व पर चिंतन करेंगे -
- उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिनगारी जलाई थी
- प्रारंभिक शिक्षा के बाद उनके पिता चाहते थे कि वह एक दुकान पर काम करें, लेकिन उन्होंने पिता की बात नहीं मानी और मुंबई आ गए
- उन्होंने जंगल में एक अभ्यास स्थल बनाया, जहां ज्योतिबा फुले और लोकमान्य तिलक भी उनके साथी थे यहां लोगों को हथियार चलाने का अभ्यास कराया जाता था
- 1871 में उनको सूचना मिली की उनकी मां की तबियत खराब है, उन दिनों वो अंग्रेजों की एक कंपनी में काम कर रहे थे वो अवकाश मांगने गए, लेकिन नहीं मिला
- अवकाश नहीं मिलने के बाद भी फड़के अपने गांव चले गए, लेकिन तब तक मां की मृत्यु हो चुकी थी इस घटना से उनका मन अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा से भर गया
- फड़के ने नौकरी छोड़ दी  अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की तैयारी करने लगे उन्होनें आदिवासियों की सेना संगठित करना प्रारम्भ की |
- 1879 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की घोषणा के साथ ही पैसे एकत्र करने के लिए कई जगहों पर डाके भी डालने शुरू किए
- तब तक महाराष्ट्र के सात जिलों में वासुदेव फड़के का प्रभाव फैल चुका था उनकी गतिविधि से अंग्रेज अफसर सहम गए थे कहा जाता है कि अंग्रेज उनके नाम से थर-थर कांपते थे
- अंग्रेज सरकार ने वासुदेव फड़के को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर 50 हजार रुपये का इनाम घोषित किया तात्पर्य यह की उनकी गतिविधियों से अंग्रेज उनके पीछे पड़ गए
- 20 जुलाई, 1879 को फड़के बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे, उसी समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया
- उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया  
- 17 फरवरी, 1883 को कालापानी की सजा काटते हुए जेल के अंदर ही देश का वीर सपूत शहीद हो गया
...............

वासुदेव बलवन्त फड़के का जन्म-स्थान महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले का 'शिरढोणे' नामक गांव है। पिता का नाम बलवंत राव और माता का नाम सरस्वती बाई था वासुदेव के दो छोटे भाई और एक बहन थी शरारती वासुदेव से घरवाले ही नहीँ तो गाँववाले भी परेशान रहते थे बैलगाड़ी चलाना उन्हें बहुत प्रिय था लेकिन वह शरारतें करने में जितना प्रवीण था उतना ही पढाई में भीवासुदेव ने बाल्यकाल में ही मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में दक्षता प्राप्त कर ली थी  

 पेशवा के ज़माने में बलवंत फडके का परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार माना जाता था किन्तु परिवार की माली हालत धीरे-धीरे डगमगा चुकी लगी थी परिणाम यह हुआ की वासुदेव के हाई स्कूल में दो कक्षाएं पास करने के बाद ही पिता ने आगे पढ़ाने से इंकार कर दिया पिता जी की इच्छा थी की वासुदेव किसी दुकान पर दस रूपये महावर पर नौकरी कर ले और घर के काम में हांथ बटाये, लेकिन वासुदेव की इच्छा पढाई करने की थी इन्होंने पिता जी से स्पष्ट कह दिया, ‘मैं अभी और पढूँगा '  जाहिर था पिता से पढाई का खर्च न मिलेगा

परिस्थिति को समझ वासुदेव घर छोड़कर, मुंबई चले आये, जहां जि० आई० पी० में 20 रूपये माहवार पर नौकरी कर ली समय के साथ चीजों को समझते हुए बाद में ग्रांट मेडिकल कॉलेज और फिनेन केमिस्ट में नौकरी की अंत में रेलवे और सैनिक अर्थविभाग में नौकरी की इसीबीच १८७६ के प्लेग और सरकार के सहायता न करने के कारण उनके मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत पैदा हो गई और नौकरी त्याग दी

वासुदेव ने नौकरी के दौरान ही विवाह किया किन्तु गृहस्थी में आघात लगा जब 28 वर्ष की आयु में पहुँचते तक पत्नी का देहांत हो गया पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह किया ईश्वर कृपा से यह पत्नी वासुदेव के साधक-जीवन के सर्वथा योग्य थी

वासुदेव पुणे में जहाँ भी वह रहते थे स्पष्ट रूप से अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करते थे और ब्रिटिश शासन का विरोध करते थे  मकान मालिक सरकार के भय से उनसे मकान खाली करा लेते थे और हर 4-5 महीने में उनको घर बदलना पड़ता था

पांच वर्ष इसी तरह बीत गये वासुदेव को माँ की गम्भीर बीमारी की खबर मिली मातृभक्ति फडके उस समय अत्यंत विचलित हो गए अंग्रेज सरकार छुट्टी को राजी नहीं थी तब उन्होंने नौकरी की परवाह न करके, बिना छुट्टी के ही घर की ओर चल पड़े मार्ग में ही माता जी के स्वर्गवास की सूचना मिली प्रार्थना-पत्र भेजा पर उस प्रार्थना पत्र को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया माँ की बीमारी-मृत्यु और श्राद्ध पर अवकाश न मिलाने से वे बड़े दुखी हुए

उनकी आँखों के सामने १२ साल की उम्र का 1857 के विद्रोह का चित्र घूम गया कैसे निष्ठुर अंग्रेज लोगो को पेड़ पर लटका कर फांसिया देते थे ऐसी-ऐसी यातनाये दी गई थी जिन्हें इतिहास में कभी लिखा नहीं जा सकेगा इन यातनाओं के विरोध का बीज उनके दिमाग में था, वह धीरे-धीरे पल्लवित होने लगा

यह ज्वाला समय के साथ भडक उठी अब वह खुलेआम दुष्ट अंग्रेजो को अपनी मातृभूमि से बाहर निकालने के लिए लोगों को तैयार करने लगे यह वह समय था जब छतरी एवं कलम भी ब्रिटेन से आते थे तब उन्होंने स्वदेशी का प्रचार प्रारंभ किया उन दिनों पेन की जगह स्र्कन्दी का प्रयोग आरम्भ कर दिया धीरे-धीरे ये क्रांतिकारी विचार लोगों में भी दृढ होने लगें चौराहे पर ढोल और थाली बजाकर लोगों को जमा करना और अंग्रेजो के विरुद्ध भाषण देना प्रारंभ किया अंग्रेजो के शोषण की कहानी इतने प्रभावी ढंग से रखते की लोगों को जोश आ जाता ।

उनका मानना था की सरकार केवल गोरों को बडे पद पर नौकरी देती है और हमारा शोषण करती है। इसलिए जब तक हम स्वतंत्र नही होंगे, सुखी नही हो सकेंगे जब तक ये लुटेरे यहाँ है सुरक्षा या शान्ति का स्वप्न भी नहीं देखा जा सकता, इसलिए मेरे भारतवासी बंधुओं उठो , जग जाओ और अंग्रेजो को उनके घर का रास्ता दिखाओ     

 ब्रिटिश काल की किसान नीति और किसानों की दयनीय दशा को देखकर वे विचलित हो उठे थे। उनका दृढ विश्वास था कि ‘स्वराज’ ही इसका निदान है। सन 1876 ईस्वी का दक्षिण का यह भयंकर अकाल था हजारों व्यक्ति और लाखों पशु भूख से मर गये सरकार ने अकाल राहत के बहुत कम काम शुरू किये  सहायता के रूप में आधा सेर अनाज प्रति माह दिया जाता था और राहत कार्य पर डेढ़ आना प्रतिदिन मजदूरी दी जाती थी अंग्रेज व्यापारी विदेशों से अन्न मंगवाकर चांदी कूट रहे थे उन्होंने स्वयं महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के गाँवों में घूम-घूमकर अकाल में लोगो के जो दुर्दशा थी उसको देखा

महाराष्ट्र के महान नेता जस्टिस रानाडे के भाषण सुनकर उन्हें लगा की मात्रभूमि के लिए कुछ करना चहिये , अंग्रेजो के बढ़ते अधिकार और भारतीयों की बढ़ती गुलामी देखकर उनके अंतर की क्रांति की चिंगारी भड़क कर शोला बन गई इस सबका प्रत्यक्ष प्रमाण वह अपने नौकरी-काल में देख ही रहे थे पर अभी वह समय नहीं आया था, क्योंकी चेतना अभी भी पूरी तरह जाग्रत नहीं हुई थी  
   
     अंतत : फडके ने व्यख्यान देना, कलम के माध्यम से लोगो तक विचार पहुँचाना प्रारम्भ कर दिया पहले उनका प्रचार केवल पूना तक ही सिमित था, लेकिन बाद में वह अन्य जगहों पर भी दौरे करने लगे, लेकिन कुछ दिनों बाद में ही उन्हें यह महसूस होने लगा की केवल भाषण से न तो जनता के मानसिक गुलामी के बीज निकाल सकते हैं और न ही अंग्रेजो को ही भारत से निकल सकते है लोग उनकी बातों तो सुनते थे, लेकिन सहायता देने की बात पर कहते - ''आप कहते तो ठीक हैं, लेकिन इतनी बड़ी सरकार की खीलाफत मुठठीभर लोग किस तरह कर सकते है ?" कुछ व्यक्तियों ने तो यहाँ तक कहा कि, '' ईश्वर की ही कृपा से अंग्रेज़ यहाँ आये है |"

इस तरह की धारणाओं से लड़ते हुए फडके बहुत निराश हो जाते थे, अंत में जिनका केवल नाम लेने से युवकों में राष्ट्रभक्ति जागृत हो जाती थी, ऐसे वासुदेव बलवंत फडके ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सशस्त्र मार्ग का अनुसरण किया। मध्यम वर्ग के पढ़े लिखे लोगों से निराश होकर वह छोटी जातियों के लोगो को विद्रोह के लिए संगठित करने लगे यह लोग साहसी थे और मरने से भी नहीं डरते थे पूना शहर के बाहर रहने वाली महाराष्ट्र की कोळी, भील तथा धांगड जातियों को एकत्र कर उन्होने 'रामोशी' नाम का क्रान्तिकारी संगठन खड़ा किया। संगठन के लिए धन की ज़रूरत थी, परन्तु धन आये कहाँ से इसलिए उन्होंने रामासियो के साथ डकेती डालने की योजना बनाई, गढ़ों तथा साहुकारों को लूटकर बहुत सा धन इकठा किया और घर परिवार छोड़कर सहियाद्री पहाडियों पर रहने लगे

     उन्ही दिनों, महाराष्ट्र में महान दुर्भिक्ष हुआ था यह समय क्रन्तिकारी विचारों के अनुकूल थी इसी समय 1879 की 13 मई को फडके ने भूतपूर्व पेशवाओं के दो महलों में आग लगा दी, क्योंकि उनमे अंग्रेजों के दफ्तर थेइस घटना से अंग्रेज़ अफसर, बोखला गए और फडके के सर पर उन्होंने इनाम की राशि और बढ़ा ‘दी लन्दन टाइम्स’ में इसका वर्णन पूरे ब्योरे के साथ छपा था, जिसे पढ़कर अंगेज़ सरकार का दमनचक्र और भी बढ़ गया

इसका प्रभाव मराठी कर्मचारियों पर भी पडारानाडे को फडके का सहायक होने के संदेह में उनका तबादला पूना से धुलिया कर दिया गयापूना की जनता पर भी कड़े निर्देश लगा दिए गए रात को 9 बजे के बाद कोई भी घर से बाहर नहीं निकल सकता था  फडके को तब विशेष प्रसिद्धि मिली जब उन्होने पुणे नगर को कुछ दिनों के लिए अपने नियंत्रण में ले लिया था।

         उन्होंने देखा कि भारत जलकर राख हो परन्तु अंग्रेजो को क्या ? वे तो मौज-मस्ती कर रहे है उन्होंने सोचा कि शहरों के लोग कुछ नही करेंगे परन्तु गाँवों और जंगलो पहाड़ो में रहने वाले आदिवासी लोगो की आत्मा अभी भी जागृत है  वे संघर्ष कर सकते है फडके ने रोजानामचा मे एक बार लिखा था "अंग्रेजी हुकूमत के कारण भारत की हजारों लाखों संताने भूखों मर रही हैं अंग्रेज शासकों का हर कम बईमानी से भरा हुआ है, जिसे हमारी जनता समझ नहीं पा रही है किसी भारतीय की तरक्की होती है, तो सारे अख़बार उसी खबर की सुर्खियों मै रंग जाते है और सभी यह कहते है की गोरे शासक कितने अच्छे है की कालो को भी सम्मान और उच्च पद दे रहे है 1 रूपये का 5 सेर गेहूं मिलने पर भी हम क्यों भूखे है ? यह कोई नहीं सोचता ''

     उन्हें शिवाजी की याद आई की कैसे शिवाजी ने मुगलों पर छापामार युद्ध के द्वारा विजय प्राप्त की थी उसने वैसे ही गोरिल्ला युद्ध आरम्भ कर दिए अब तक वह खुला संघर्ष कर रहे थे लेकिन अब उसने गुप्त संघर्ष आरम्भ कर दिया अब उसका उद्देश्य सैनिक सशस्त्र क्रान्ति थी फडके के लिए यह समय बहुत ही भयंकर था, अपने मित्रो के साथ वे एक जंगल से दूसरे  जंगल भागते रहे

जंगली जानवरों, सांपों के बीच खाने-पीने की चिंता छोड़कर वे देशभक्त क्रन्तिकायों की तरह रात-दिन क्रांति के सपने देखते इन्ही दिनों फडके के दो साथी मरे गए उनका विश्वासी सहायक दौलत राव सेनिको की गोली से मारा गया था, परन्तु दूसरा साथी पुलिस के हाथ पड़ गया था, पुलिस ने उसको ठाणे में जिंदा जला दिया था अपने दो विश्वस्त साथियों को खोकर भी उनका मनोवल बना रहा |

 धन का अभाव भी था ऐसे कठिन समय तक वह अपने एक मित्र कृष्ण जी पन्त गोगाटे के घर पर रुके, परन्तु गोगाटे की पत्नी ने यह बात किसी पडोसी को बता दी मेजर डेनियल को फडके को गिरफ्तार करने के लिए नियुक्त किया गया था खबर सुनते ही वह गोगटे के घर छापा डालने के लिए चल पड़े, परन्तु उनके पहुँचने के पहले ही गोगाटे और फडके निकल भागे, काफी समय दोनों छिपते छिपाते आगे बढ़ते रहे, लेकिन अंग्रेजो की फौज ने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी तरह भागते भागते गोगाटे भी फडके से अलग हो गए गोगाटे के अलग हो जाने पर भी उस वीर क्रन्तिकारी का मनोबल नहीं टूटा छिपाने के लिए थके फडके को कोई एकान्त स्थान नहीं मिला ,तो वह एक मंदिर में जाकर सो गए वहीँ मेजर डेनियल ने उन्हें सोते हुए ही पकड़ लिया

उनकी गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पचास हजार के इनाम की घोषणा की थी इनाम की रकम हैदराबाद निजाम द्वारा दी गई थी भारतीयों की गुलाम मानसिकता का इससे अच्छा उदाहरण कहाँ मिल सकता था ? किन्तु जैसे ही इस इनाम की घोषणा की खबर उनके कानों तक पहुंची उन्होंने तत्काल अपनी तरफ से घोषणा की कि जो भी मुंबई के गवर्नर रैंड का सर कट कर लायेगा उसे ७५ हजार का पुरस्कार देंगे

  31, अगस्त 1879 को उनके उपर मुकदमा चलाया गया और अभियोग थे बगावत, राजद्रोह एवं डकेती, फडके से अंग्रेज़ इतने ज्यादा नाराज़ थे की कोई भी वकील उनका मुकदमा लेने के लिए आगे नहीं आना चाहता था, लेकिन काका गणेश वासुदेव जोशी साहस से सामने आये उनके मित्रों ने उन्हें ऐसा करने से रोका, तो जोशी ने मुस्कुराकर कहा, '' अंग्रेज़ ज्यादा से ज्यादा मुझे भी फडके के साथ फंसी दे देंगे ..........इससे आगे तो कुछ नहीं है न ..

31 अक्टूबर,1880 को फडके जेल से भाग निकले वह सत्रह दिन तक लगातार भागते रहे, परन्तु भाषा से अपरिचित व्यक्ति कब तक छिपा रह सकता था ? अभियोग चला कर उन्हें काले-पानी का दंड दिया गया। अंत तक उनके उपर पुलिस के अत्याचार होते रहे और सन 1883 फरवरी को अत्याचार से दुर्बल होकर एडन ‘अदन’ के कारागृह में उनका देहांत हो गया।

      विचार करने की बात यह है कि क्या आज की राजनीति में फडके जैसा साहसी, वीर और त्यागी मनोवृति का कोई नेता है ? वास्तविकता तो यह है कि वासुदेव बलवंत फडके के विचार उस युग को देखते हुए, बहुत आगे के थे फडके ही वह प्रथम क्रन्तिकारी थे, जिनका ध्यान आर्थिक-प्रश्नों, स्वदेशी आन्दोलन और गुलामी की त्रासदी की ओर गया था

     कहना अनुचित न होगा कि वे ईश्वर के घर से ही जन्मजात देशभक्ति लेकर भारत माता की गोद से आये थे ।  महाराष्ट्र के वीरो की जीवन-गाथा पढने में उनकी अभिरुचि थी। शिवाजी की वीरतापूर्ण कहानियाँ पढने में उनका मन अधिक लगा करता था। वे शिवाजी का चित्र सदा अपने पास रखते थे ।  उन्हें शिवाजी की प्रेरणा मिली और जनता का प्रोत्साहन। समय और पारिस्थिति की पुकार ने उनके हृदय में देशभक्ति का जो सागर उडेला उसकी लहरों की प्रतिद्वानिया आज भी सुनी जा सकती हैं । उनके दो विवाह हुए थे पर कोई सन्तान उन्हें नहीं थी । वे स्वतंत्रता के लिए मिटकर राष्ट्र की अनगिनत संतानों के ह्रदय में अमर बन गये वासुदेव बलवंत फडके

(4 नवम्बर 1845 – 17 फ़रवरी 1883)

प्रो उमेश कुमार सिंह

माना जाता है की ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का संगठन करने वाले वासुदेव फड़के भारत के पहले क्रांतिकारी थे  कुछ प्रमुख बातों पर नज़र डाल कर उनके समस्त व्यक्तित्व पर चिंतन करेंगे -
- उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिनगारी जलाई थी
- प्रारंभिक शिक्षा के बाद उनके पिता चाहते थे कि वह एक दुकान पर काम करें, लेकिन उन्होंने पिता की बात नहीं मानी और मुंबई आ गए
- उन्होंने जंगल में एक अभ्यास स्थल बनाया, जहां ज्योतिबा फुले और लोकमान्य तिलक भी उनके साथी थे यहां लोगों को हथियार चलाने का अभ्यास कराया जाता था
- 1871 में उनको सूचना मिली की उनकी मां की तबियत खराब है, उन दिनों वो अंग्रेजों की एक कंपनी में काम कर रहे थे वो अवकाश मांगने गए, लेकिन नहीं मिला
- अवकाश नहीं मिलने के बाद भी फड़के अपने गांव चले गए, लेकिन तब तक मां की मृत्यु हो चुकी थी इस घटना से उनका मन अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा से भर गया
- फड़के ने नौकरी छोड़ दी  अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की तैयारी करने लगे उन्होनें आदिवासियों की सेना संगठित करना प्रारम्भ की |
- 1879 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की घोषणा के साथ ही पैसे एकत्र करने के लिए कई जगहों पर डाके भी डालने शुरू किए
- तब तक महाराष्ट्र के सात जिलों में वासुदेव फड़के का प्रभाव फैल चुका था उनकी गतिविधि से अंग्रेज अफसर सहम गए थे कहा जाता है कि अंग्रेज उनके नाम से थर-थर कांपते थे
- अंग्रेज सरकार ने वासुदेव फड़के को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर 50 हजार रुपये का इनाम घोषित किया तात्पर्य यह की उनकी गतिविधियों से अंग्रेज उनके पीछे पड़ गए
- 20 जुलाई, 1879 को फड़के बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे, उसी समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया
- उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया  
- 17 फरवरी, 1883 को कालापानी की सजा काटते हुए जेल के अंदर ही देश का वीर सपूत शहीद हो गया
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वासुदेव बलवन्त फड़के का जन्म-स्थान महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले का 'शिरढोणे' नामक गांव है। पिता का नाम बलवंत राव और माता का नाम सरस्वती बाई था वासुदेव के दो छोटे भाई और एक बहन थी शरारती वासुदेव से घरवाले ही नहीँ तो गाँववाले भी परेशान रहते थे बैलगाड़ी चलाना उन्हें बहुत प्रिय था लेकिन वह शरारतें करने में जितना प्रवीण था उतना ही पढाई में भीवासुदेव ने बाल्यकाल में ही मराठी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में दक्षता प्राप्त कर ली थी  

 पेशवा के ज़माने में बलवंत फडके का परिवार एक प्रतिष्ठित परिवार माना जाता था किन्तु परिवार की माली हालत धीरे-धीरे डगमगा चुकी लगी थी परिणाम यह हुआ की वासुदेव के हाई स्कूल में दो कक्षाएं पास करने के बाद ही पिता ने आगे पढ़ाने से इंकार कर दिया पिता जी की इच्छा थी की वासुदेव किसी दुकान पर दस रूपये महावर पर नौकरी कर ले और घर के काम में हांथ बटाये, लेकिन वासुदेव की इच्छा पढाई करने की थी इन्होंने पिता जी से स्पष्ट कह दिया, ‘मैं अभी और पढूँगा '  जाहिर था पिता से पढाई का खर्च न मिलेगा

परिस्थिति को समझ वासुदेव घर छोड़कर, मुंबई चले आये, जहां जि० आई० पी० में 20 रूपये माहवार पर नौकरी कर ली समय के साथ चीजों को समझते हुए बाद में ग्रांट मेडिकल कॉलेज और फिनेन केमिस्ट में नौकरी की अंत में रेलवे और सैनिक अर्थविभाग में नौकरी की इसीबीच १८७६ के प्लेग और सरकार के सहायता न करने के कारण उनके मन में अंग्रेजों के प्रति नफरत पैदा हो गई और नौकरी त्याग दी

वासुदेव ने नौकरी के दौरान ही विवाह किया किन्तु गृहस्थी में आघात लगा जब 28 वर्ष की आयु में पहुँचते तक पत्नी का देहांत हो गया पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह किया ईश्वर कृपा से यह पत्नी वासुदेव के साधक-जीवन के सर्वथा योग्य थी

वासुदेव पुणे में जहाँ भी वह रहते थे स्पष्ट रूप से अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करते थे और ब्रिटिश शासन का विरोध करते थे  मकान मालिक सरकार के भय से उनसे मकान खाली करा लेते थे और हर 4-5 महीने में उनको घर बदलना पड़ता था

पांच वर्ष इसी तरह बीत गये वासुदेव को माँ की गम्भीर बीमारी की खबर मिली मातृभक्ति फडके उस समय अत्यंत विचलित हो गए अंग्रेज सरकार छुट्टी को राजी नहीं थी तब उन्होंने नौकरी की परवाह न करके, बिना छुट्टी के ही घर की ओर चल पड़े मार्ग में ही माता जी के स्वर्गवास की सूचना मिली प्रार्थना-पत्र भेजा पर उस प्रार्थना पत्र को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया माँ की बीमारी-मृत्यु और श्राद्ध पर अवकाश न मिलाने से वे बड़े दुखी हुए

उनकी आँखों के सामने १२ साल की उम्र का 1857 के विद्रोह का चित्र घूम गया कैसे निष्ठुर अंग्रेज लोगो को पेड़ पर लटका कर फांसिया देते थे ऐसी-ऐसी यातनाये दी गई थी जिन्हें इतिहास में कभी लिखा नहीं जा सकेगा इन यातनाओं के विरोध का बीज उनके दिमाग में था, वह धीरे-धीरे पल्लवित होने लगा

यह ज्वाला समय के साथ भडक उठी अब वह खुलेआम दुष्ट अंग्रेजो को अपनी मातृभूमि से बाहर निकालने के लिए लोगों को तैयार करने लगे यह वह समय था जब छतरी एवं कलम भी ब्रिटेन से आते थे तब उन्होंने स्वदेशी का प्रचार प्रारंभ किया उन दिनों पेन की जगह स्र्कन्दी का प्रयोग आरम्भ कर दिया धीरे-धीरे ये क्रांतिकारी विचार लोगों में भी दृढ होने लगें चौराहे पर ढोल और थाली बजाकर लोगों को जमा करना और अंग्रेजो के विरुद्ध भाषण देना प्रारंभ किया अंग्रेजो के शोषण की कहानी इतने प्रभावी ढंग से रखते की लोगों को जोश आ जाता ।

उनका मानना था की सरकार केवल गोरों को बडे पद पर नौकरी देती है और हमारा शोषण करती है। इसलिए जब तक हम स्वतंत्र नही होंगे, सुखी नही हो सकेंगे जब तक ये लुटेरे यहाँ है सुरक्षा या शान्ति का स्वप्न भी नहीं देखा जा सकता, इसलिए मेरे भारतवासी बंधुओं उठो , जग जाओ और अंग्रेजो को उनके घर का रास्ता दिखाओ     

 ब्रिटिश काल की किसान नीति और किसानों की दयनीय दशा को देखकर वे विचलित हो उठे थे। उनका दृढ विश्वास था कि ‘स्वराज’ ही इसका निदान है। सन 1876 ईस्वी का दक्षिण का यह भयंकर अकाल था हजारों व्यक्ति और लाखों पशु भूख से मर गये सरकार ने अकाल राहत के बहुत कम काम शुरू किये  सहायता के रूप में आधा सेर अनाज प्रति माह दिया जाता था और राहत कार्य पर डेढ़ आना प्रतिदिन मजदूरी दी जाती थी अंग्रेज व्यापारी विदेशों से अन्न मंगवाकर चांदी कूट रहे थे उन्होंने स्वयं महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के गाँवों में घूम-घूमकर अकाल में लोगो के जो दुर्दशा थी उसको देखा

महाराष्ट्र के महान नेता जस्टिस रानाडे के भाषण सुनकर उन्हें लगा की मात्रभूमि के लिए कुछ करना चहिये , अंग्रेजो के बढ़ते अधिकार और भारतीयों की बढ़ती गुलामी देखकर उनके अंतर की क्रांति की चिंगारी भड़क कर शोला बन गई इस सबका प्रत्यक्ष प्रमाण वह अपने नौकरी-काल में देख ही रहे थे पर अभी वह समय नहीं आया था, क्योंकी चेतना अभी भी पूरी तरह जाग्रत नहीं हुई थी  
   
     अंतत : फडके ने व्यख्यान देना, कलम के माध्यम से लोगो तक विचार पहुँचाना प्रारम्भ कर दिया पहले उनका प्रचार केवल पूना तक ही सिमित था, लेकिन बाद में वह अन्य जगहों पर भी दौरे करने लगे, लेकिन कुछ दिनों बाद में ही उन्हें यह महसूस होने लगा की केवल भाषण से न तो जनता के मानसिक गुलामी के बीज निकाल सकते हैं और न ही अंग्रेजो को ही भारत से निकल सकते है लोग उनकी बातों तो सुनते थे, लेकिन सहायता देने की बात पर कहते - ''आप कहते तो ठीक हैं, लेकिन इतनी बड़ी सरकार की खीलाफत मुठठीभर लोग किस तरह कर सकते है ?" कुछ व्यक्तियों ने तो यहाँ तक कहा कि, '' ईश्वर की ही कृपा से अंग्रेज़ यहाँ आये है |"

इस तरह की धारणाओं से लड़ते हुए फडके बहुत निराश हो जाते थे, अंत में जिनका केवल नाम लेने से युवकों में राष्ट्रभक्ति जागृत हो जाती थी, ऐसे वासुदेव बलवंत फडके ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सशस्त्र मार्ग का अनुसरण किया। मध्यम वर्ग के पढ़े लिखे लोगों से निराश होकर वह छोटी जातियों के लोगो को विद्रोह के लिए संगठित करने लगे यह लोग साहसी थे और मरने से भी नहीं डरते थे पूना शहर के बाहर रहने वाली महाराष्ट्र की कोळी, भील तथा धांगड जातियों को एकत्र कर उन्होने 'रामोशी' नाम का क्रान्तिकारी संगठन खड़ा किया। संगठन के लिए धन की ज़रूरत थी, परन्तु धन आये कहाँ से इसलिए उन्होंने रामासियो के साथ डकेती डालने की योजना बनाई, गढ़ों तथा साहुकारों को लूटकर बहुत सा धन इकठा किया और घर परिवार छोड़कर सहियाद्री पहाडियों पर रहने लगे

     उन्ही दिनों, महाराष्ट्र में महान दुर्भिक्ष हुआ था यह समय क्रन्तिकारी विचारों के अनुकूल थी इसी समय 1879 की 13 मई को फडके ने भूतपूर्व पेशवाओं के दो महलों में आग लगा दी, क्योंकि उनमे अंग्रेजों के दफ्तर थेइस घटना से अंग्रेज़ अफसर, बोखला गए और फडके के सर पर उन्होंने इनाम की राशि और बढ़ा ‘दी लन्दन टाइम्स’ में इसका वर्णन पूरे ब्योरे के साथ छपा था, जिसे पढ़कर अंगेज़ सरकार का दमनचक्र और भी बढ़ गया

इसका प्रभाव मराठी कर्मचारियों पर भी पडारानाडे को फडके का सहायक होने के संदेह में उनका तबादला पूना से धुलिया कर दिया गयापूना की जनता पर भी कड़े निर्देश लगा दिए गए रात को 9 बजे के बाद कोई भी घर से बाहर नहीं निकल सकता था  फडके को तब विशेष प्रसिद्धि मिली जब उन्होने पुणे नगर को कुछ दिनों के लिए अपने नियंत्रण में ले लिया था।

         उन्होंने देखा कि भारत जलकर राख हो परन्तु अंग्रेजो को क्या ? वे तो मौज-मस्ती कर रहे है उन्होंने सोचा कि शहरों के लोग कुछ नही करेंगे परन्तु गाँवों और जंगलो पहाड़ो में रहने वाले आदिवासी लोगो की आत्मा अभी भी जागृत है  वे संघर्ष कर सकते है फडके ने रोजानामचा मे एक बार लिखा था "अंग्रेजी हुकूमत के कारण भारत की हजारों लाखों संताने भूखों मर रही हैं अंग्रेज शासकों का हर कम बईमानी से भरा हुआ है, जिसे हमारी जनता समझ नहीं पा रही है किसी भारतीय की तरक्की होती है, तो सारे अख़बार उसी खबर की सुर्खियों मै रंग जाते है और सभी यह कहते है की गोरे शासक कितने अच्छे है की कालो को भी सम्मान और उच्च पद दे रहे है 1 रूपये का 5 सेर गेहूं मिलने पर भी हम क्यों भूखे है ? यह कोई नहीं सोचता ''

     उन्हें शिवाजी की याद आई की कैसे शिवाजी ने मुगलों पर छापामार युद्ध के द्वारा विजय प्राप्त की थी उसने वैसे ही गोरिल्ला युद्ध आरम्भ कर दिए अब तक वह खुला संघर्ष कर रहे थे लेकिन अब उसने गुप्त संघर्ष आरम्भ कर दिया अब उसका उद्देश्य सैनिक सशस्त्र क्रान्ति थी फडके के लिए यह समय बहुत ही भयंकर था, अपने मित्रो के साथ वे एक जंगल से दूसरे  जंगल भागते रहे

जंगली जानवरों, सांपों के बीच खाने-पीने की चिंता छोड़कर वे देशभक्त क्रन्तिकायों की तरह रात-दिन क्रांति के सपने देखते इन्ही दिनों फडके के दो साथी मरे गए उनका विश्वासी सहायक दौलत राव सेनिको की गोली से मारा गया था, परन्तु दूसरा साथी पुलिस के हाथ पड़ गया था, पुलिस ने उसको ठाणे में जिंदा जला दिया था अपने दो विश्वस्त साथियों को खोकर भी उनका मनोवल बना रहा |

 धन का अभाव भी था ऐसे कठिन समय तक वह अपने एक मित्र कृष्ण जी पन्त गोगाटे के घर पर रुके, परन्तु गोगाटे की पत्नी ने यह बात किसी पडोसी को बता दी मेजर डेनियल को फडके को गिरफ्तार करने के लिए नियुक्त किया गया था खबर सुनते ही वह गोगटे के घर छापा डालने के लिए चल पड़े, परन्तु उनके पहुँचने के पहले ही गोगाटे और फडके निकल भागे, काफी समय दोनों छिपते छिपाते आगे बढ़ते रहे, लेकिन अंग्रेजो की फौज ने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी तरह भागते भागते गोगाटे भी फडके से अलग हो गए गोगाटे के अलग हो जाने पर भी उस वीर क्रन्तिकारी का मनोबल नहीं टूटा छिपाने के लिए थके फडके को कोई एकान्त स्थान नहीं मिला ,तो वह एक मंदिर में जाकर सो गए वहीँ मेजर डेनियल ने उन्हें सोते हुए ही पकड़ लिया

उनकी गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पचास हजार के इनाम की घोषणा की थी इनाम की रकम हैदराबाद निजाम द्वारा दी गई थी भारतीयों की गुलाम मानसिकता का इससे अच्छा उदाहरण कहाँ मिल सकता था ? किन्तु जैसे ही इस इनाम की घोषणा की खबर उनके कानों तक पहुंची उन्होंने तत्काल अपनी तरफ से घोषणा की कि जो भी मुंबई के गवर्नर रैंड का सर कट कर लायेगा उसे ७५ हजार का पुरस्कार देंगे

  31, अगस्त 1879 को उनके उपर मुकदमा चलाया गया और अभियोग थे बगावत, राजद्रोह एवं डकेती, फडके से अंग्रेज़ इतने ज्यादा नाराज़ थे की कोई भी वकील उनका मुकदमा लेने के लिए आगे नहीं आना चाहता था, लेकिन काका गणेश वासुदेव जोशी साहस से सामने आये उनके मित्रों ने उन्हें ऐसा करने से रोका, तो जोशी ने मुस्कुराकर कहा, '' अंग्रेज़ ज्यादा से ज्यादा मुझे भी फडके के साथ फंसी दे देंगे ..........इससे आगे तो कुछ नहीं है न ..

31 अक्टूबर,1880 को फडके जेल से भाग निकले वह सत्रह दिन तक लगातार भागते रहे, परन्तु भाषा से अपरिचित व्यक्ति कब तक छिपा रह सकता था ? अभियोग चला कर उन्हें काले-पानी का दंड दिया गया। अंत तक उनके उपर पुलिस के अत्याचार होते रहे और सन 1883 फरवरी को अत्याचार से दुर्बल होकर एडन ‘अदन’ के कारागृह में उनका देहांत हो गया।

      विचार करने की बात यह है कि क्या आज की राजनीति में फडके जैसा साहसी, वीर और त्यागी मनोवृति का कोई नेता है ? वास्तविकता तो यह है कि वासुदेव बलवंत फडके के विचार उस युग को देखते हुए, बहुत आगे के थे फडके ही वह प्रथम क्रन्तिकारी थे, जिनका ध्यान आर्थिक-प्रश्नों, स्वदेशी आन्दोलन और गुलामी की त्रासदी की ओर गया था

     कहना अनुचित न होगा कि वे ईश्वर के घर से ही जन्मजात देशभक्ति लेकर भारत माता की गोद से आये थे ।  महाराष्ट्र के वीरो की जीवन-गाथा पढने में उनकी अभिरुचि थी। शिवाजी की वीरतापूर्ण कहानियाँ पढने में उनका मन अधिक लगा करता था। वे शिवाजी का चित्र सदा अपने पास रखते थे ।  उन्हें शिवाजी की प्रेरणा मिली और जनता का प्रोत्साहन। समय और पारिस्थिति की पुकार ने उनके हृदय में देशभक्ति का जो सागर उडेला उसकी लहरों की प्रतिद्वानिया आज भी सुनी जा सकती हैं । उनके दो विवाह हुए थे पर कोई सन्तान उन्हें नहीं थी । वे स्वतंत्रता के लिए मिटकर राष्ट्र की अनगिनत संतानों के ह्रदय में अमर बन गये | ऐसे हुतात्मा को प्रणाम|