राष्ट्र की एकात्मता एवं अखण्डता में संविधान निर्मात बाबा साहब डॉ भीमराव आंबेडकर का योगदान
प्रो. उमेश कुमार सिंह
राष्ट्र क्या है ? एकात्मता का बोध क्या है ? अखण्डता से क्या तात्पर्य है । आइये इन तीनों शब्दों को समझते हैं फिर इसमें बाबा साहब का योगदान क्या था समझेंगे ।
राष्ट्र क्या है ? ‘भद्रं इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः तपो दीक्षां उपसेदुः अग्रे । ततो राष्ट्रं बलं ओजश्च जातम् । तदस्मै देवा उपसं नमन्तु ।। (अथर्व. १९/४१/९)
“आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रारंभ से तप किया, उससे राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें ।”
एकात्मता का बोध क्या है ? - किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति समूह की किसी भूमि के साथ एकात्मता होने के लिए प्रदीर्घ साहचर्य की आवश्यकता हुआ करती है । केवल संवैधानिक प्रावधान, कानून की धारा, संसद के प्रस्ताव के आधार पर एकात्मता निर्माण नहीं हो सकती । क्योंकि यह संविधान आदि का प्रश्न नहीं, मनोविज्ञान की बात है ।
भारत पर आर्यों के आक्रमण के पश्चिमी सिद्धांत का खंडन करते हुए डॉ. बाबा साहब आंबेडकर जी ने जो तर्क प्रस्तुत किए उनमें एक यह भी था कि, “The language in which reference to the seven rivers is made in the Rig Veda (X.75.5) is very significant. No foreigner would ever address a river in such familiar and endearing terms as "My Ganga, my Yamuna, my Saraswati', unless by long association he had developed an emotion about it. In the face of such statements from the Rig Veda, there is obviously no room for a theory of a military conquest by the Aryan race of the non-Aryan races of Dasas and Dasyus.”
डॉ. आंबेडकर जी के इस कथन के प्रकाश में निम्नलिखित मंत्र देखिए :-
(१) माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः । (अथर्व १२/१/१२) अर्थात् - मेरी माता भूमि और मैं उस मातृभूमि का पुत्र हूं ।
(२) भूमे मातः । नि धेहि मा भद्रया सुप्रतिष्ठितम् (अथर्व १२/१/८) अर्थात् हे मातृभूमि ! मुझे उत्तम रीति से सुरक्षित तथा कल्याणकर रखें ।
(३) मातरं/भूमिं धर्मणा घृताम् । (अथर्व १२/१/१७) अर्थात्- हमारी मातृभूमि की धारणा धर्म से होती है । भूमि के प्रति सबकी सामूहिक एकात्मता- सा नः माता भूमिः । (अथर्व १२/१/१०) वह हमारी माता भूमि ।
भारत में भूमि के साथ लोक समूह की इस प्रकार की एकात्मता जहां प्राचीन काल से रही है, वहीं पश्चिम में-(यूरोप) इस प्रकार की एकात्मता का निर्माण अति अर्वाचीन है । इंग्लैंड आदि देशों में यह एकात्मता अभी-अभी निर्माण हुई है । वहां ‘इंग्लिश’ भाव तो था, किन्तु भूमि के साथ एकात्मता नहीं थी । इस कारण वहां के शासकों को कहा जाता था- ‘King of the English’, ‘King of the Franks’। भूमि से एकात्मकता होने के बाद ‘King of England’, ‘King of France’ ऐसी शब्दावली प्रचलन में आई । किंग जॉन प्रथम ‘King of England’ था ।
भूमि के साथ एकात्मता निर्माण होने के पूर्व यूरोप में जितने युद्ध हुए उसका कारण रिलीजन या राजवंश था । उदाहरणार्थ, चौदहवें लुई के साथ हुए युद्ध इंग्लिश युद्ध नहीं थे ‘king's wars’ (सम्राटों के युद्ध) थे । इंग्लैंड का पहला युद्ध अठारहवी शताब्दी का “जेन्कीन्स इअर्स वार” था । (सन्दर्भ : प्रस्तावना -दत्तोपंत जी ठेगडी)
एक और मन्त्र की ओर आपका ध्यान खींचता हूँ - 1969 में कर्नाटक के उडुपी में संपन्न विश्व हिंदू परिषद का सम्मेलन हिंदू समाज के पुनर्जीवन के लिए एक ऐतिहासिक प्रसंग सिद्ध हुआ । मंच पर हिंदू धर्म के जैन, बौद्ध , वीर, शैव आदि सभी पंथ संप्रदायों के धर्माचार्य , शंकराचार्य और पीठाधीश ( हरिजनों के पीठाधीश्वर सहित ) विराजमान थे । वहां पर कर्नाटक भर से आए हुए 15000 प्रतिनिधियों के सामने इन सभी धर्माचार्यों के संयुक्त आदेश के अनुसार “ हिंदू धर्म में अस्पृश्यता के लिए स्थान नहीं है”, ऐसे आशय का प्रदीर्घ प्रस्ताव पारित हुआ । इस संदेश को सूत्र रूप में पेजावर के पूज्य मठाधीश श्री विश्वेश तीर्थ स्वामी जी ने एक नया मंत्र दिया ‘हिंदव:सोदरा: सर्वे।’
मम दीक्षा धर्म रक्षा, मम मंत्र समानता।।
सब हिंदू भारत माँ की संतान होने से सहोदर हैं, भाई हैं, इसलिए कोई हिंदू पतित नहीं हो सकता है । हमने ‘समानता’ का मंत्र लेकर ‘धर्म रक्षा’ की दीक्षा ली है ।
अखण्डता से क्या तात्पर्य है ? भारत का पूरा नाम भारत वर्ष है । यह सनातन राष्ट्र है । भारत जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है । जाग्रत देव है जिसके आध्यात्मिक सूत्र की परिधि द्वादश ज्योतिर्लिंगों, चार शंकर पीठों, इक्यावन शक्ति पीठों, इक्कीस गणपति क्षेत्र और इक्कीस सौर सिद्ध स्थलों को छूती है । परन्तु दुर्योग, ई. 1947 में विशाल भारतवर्ष का विभाजन पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है ।
समस्या के एक सूत्र को समझें कि सागरमाथा गौरीशंकर एवरेस्ट कैसे बन जाता है ? और वर्णनातीत क्षमताओं वाले महाकवि कालिदास भारत के शेक्सपियर, महान योद्धा समुद्र गुप्त भारत का नेपोलियन बोनापार्ट ?
समझना होगा भारत शब्द दो ढंग से बन सकता है- (1) भरत + अण् = भारत (भरत की सन्तति) । (2) भा: + रत = भारत (प्रकाश में रत) । इन दोनों में प्रथम मौलिक है । प्रकारान्तर से ही सही हर सनातन धर्मावलम्बी भारत के भौगोलिक विस्तार को अपने दैनिक संकल्प में याद करता है , जो इस प्रकार है -
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वंतरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरने जंबुद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे.... । इसी तरह वायु पुराण, अग्नि पुराण और विष्णु पुराण में समानार्थी श्लोक हैं ।
महर्षि पाणिनि के अष्टाध्यायी में वर्णित भारत और प्रान्तों के भूगोल के साथ यहाँ उन चार जनपदों की भी बात करते हैं जो आज भारत में नहीं हैं - (1) कपिशी या कापिशी या कपिशा (वर्तमान नाम बेग्राम काबुल से लगभग पचास मील उत्तर) (2) कापिशी से और भी उत्तर में कम्बोज जनपद था, इस समय दक्षिण एशिया का पामीर पठार है । (3) मद्र जनपद-तक्षशिला के दक्षिण-पूर्व में मद्र जनपद था, जिसकी राजधानी शाकल (वर्त्तमान में स्यालकोट) थी । (4) त्रिगर्त देश- वर्त्तमान पंजाब का उत्तर-पूर्वी भाग जो चम्बा से कांगड़ा तक फैला हुआ है, प्राचीन त्रिगर्त देश था । इसका नाम त्रिगर्त इसलिए पड़ा, क्योंकि यह तीन नदियों की घाटियों में बसा हुआ था, ये तीन नदियाँ हैं- सतलुज, व्यास और रावी ।
सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था । वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है । जबकि पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है । यह हमारी भौगोलिक अखंडता थी ।
पहले शैव फिर प्रकृति पूजक फिर बौद्ध और फिर विधर्मी बनी हमारी पश्चिमी भूमि ! 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट स्थापित किया गया । उधर मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बड़े राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे । अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधि कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया । महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं । 1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, पं. जबाहर लाल नेहरू ने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई । ‘म्यांमार, भूटान, श्रीलंका तिब्बत बिछड़े सभी बारी बारी!’ फिर एक दिन कहा गया कि भारत अब आजाद हो रहा है लेकिन हमारी जमीन बंटेगी और इसे कैसे बांटना है, यह अंग्रेज बहादुर और मुसलमान तय करेंगे । काहे की आजादी ! किन्तु इस भौगोलिक विघटन के बाद भी भारत की सांस्कृतिक अखंडता आज भी पूरे विश्व को स्पर्श करती है । यदि हमें उक्त बिंदु स्मरण रहेंगे तो फिर राष्ट्र की एकात्मता एवं अखण्डता का बोध बना रहेगा ।
डॉ. अम्बेडकर और उनका योगदान - अम्बेडकर के माध्यम से जिस एकात्मता और अखण्डता को खोजने का प्रयत्न कर रहे हैं, वह देश की, विशेष रूप से हिन्दुओं की एकात्मता की बात है और इसका केंद्र बिंदु है ‘अस्पृश्यता’ । महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण भारत में सामाजिक एकात्मता व समरसता का प्रश्न मुख्य रूप से सबके सामने लानेवाले विचारवान नेता के रूप में हम सब डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर को पहचानते हैं । बाबा साहब का जन्म जिस परिस्थिति में हुआ, वे बड़े हुए, उस परिस्थिति की यथार्थ कल्पना न होने पर, न जानेवालों का निष्कर्ष एकांगी व अपूर्ण होने की संभावना बनी रहेगी ।
महापुरुष के जन्म के लिए विशिष्ट परिस्थितियां हुआ कराती हैं । ये परिस्थितियां प्रेरक अथवा विरोधी भी हो सकती हैं । इसलिए यह ध्यान में रखना चाहिए कि प्रत्येक महापुरुष पिछली पीढ़ी के कंधे के सहारे खड़ा होकर व्यापक क्षितिज का दर्शन करता है । उस परिस्थिति को अपनी अंत:प्रेरणा, व्यक्तित्व के अंगभूत तत्वों के आधार पर योग्य दिशा व गति देना ही विभूतियुक्त पुरुष का लक्षण होता है । वह लक्षण बाबा साहब में पूरी तरह से व्यक्त होता है ।
इसका एक अन्य कारण भी है । बाबा साहब द्वार प्रवर्तित की गयी क्रांति केवल दलित क्रान्ति थी, ऐसा कहना उनकी महानता व व्यापक ध्येय दृष्टि को केवल दलितों के घेरे में बंद कर देने जैसा होगा । बाबा साहब सम्पूर्ण भारतीय समाज की सर्वांगीण क्रांति के प्रतीक थे । ‘मूकनायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ के लेखों से उनकी व्यापक भूमिका व्यक्त होती है । बाबा साहब का आग्रह था कि अस्पृश्यता केवल अस्पृश्यों का ही प्रश्न नहीं है । इसे सम्पूर्ण हिन्दू समाज का, भारत का राष्ट्रीय प्रश्न मानना चाहिए । इसलिए वे अस्पृश्योध्दार को व्यापक समाज परिवर्तन प्रक्रिया के एक अनिवार्य पहलू के रूप में देखते थे । वे मानते है कि इसकी चिंता सम्पूर्ण मानवी इतिहास के लिए भी अपूर्व है ।
तात्कालिक परिस्थिति को समझें - माना जाता है कि भारत में अंग्रेजों के आने के पूर्व भारतीय संस्कृति प्रमुख रूप से पारमार्थिक, कृषिप्रधान, ग्रामीण प्रकृति की थी । पश्चमी विचारकों का मानना है कि इस संस्कृति के आधुनीकरण, प्रयत्नवादी, उद्योगप्रधान, नगर केन्द्रित होंने की प्रक्रिया का प्रारम्भ अंग्रेजों के राज्यकाल में ही हुआ । अंग्रेजी राज्यकर्ता, प्रवासी व मिशनरियों के ध्यान में यह बात आई कि इस महान संस्कृति पर उनको शासन करना है, वह केवल शस्त्रबल के जोर पर नहीं किया जा सकेगा । अपना राज्य स्थिर करने के लिए यहाँ के समाज मन को अपने अधीन करना होगा । इस दृष्ट से समाज परिवर्तन का सहेतुक प्रयत्न अंग्रेजी सत्ता ने किया । वे समाज का आधुनिकीकरण अपने हिसाब से इतना ही करना चाहते थे की प्राचीन समाज का सांस्कृतिक ढांचा पूरी तरह से चरमरा जाए, राष्ट्रीय अस्मिता व आकांक्षा क्षीण हो, श्रध्दा भंग हो व अंग्रेजियत से सराबोर समाज का निर्माण हो सके । उन्होंने इस बात की सावधानी पहले से रखी की आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में समाज के बाकी क्षेत्रों में पहले दर्जे का नेतृत्व खड़ा न हो । ( राष्ट्रीयता और समाजवाद आचार्य नरेन्द्र देव)
अंग्रेजों ने इस परिवर्तन प्रक्रिया को प्रमुख रूप से तीन माध्यम से प्रारम्भ किया - (1) पश्चिमी पद्धति की शिक्षा (2) नवीन शासन व्यवस्था व क़ानून (3) वैज्ञानिक सुविधाओं का उपयोग । पश्चिमी पद्धति की शिक्षा व्यवस्था प्रारम्भ करने के पीछे उनका हेतु राज्य चलाने के लिए नयी राज्य-पद्धति का तंत्र आत्मसात करनेवाला आवश्यक मध्मवर्गीय नौकर पेशा वर्ग निर्माण करना । इस कारण पहले की सामाजिक व्यवस्था में जिस नौकरपेशा वर्ग का अस्तित्व नहीं था, उसका निर्माण कर पहले की सामाजिक व्यवस्था के अधिकार को नष्ट करने का प्रयत्न अंग्रेजों ने किया । इसमें अंग्रेजों को काफी सफलता भी मिली । इस शिक्षा पद्धति से समाज मन को अपने अधीन करने की उनकी योजना सफल रही ।
जहाँ भारतीय ज्ञान परम्परा में शिक्षा से व्यक्ति का मन व बुद्धि मुक्त होती है ।‘सा विद्या या विमुक्तये’ यह सार्वत्रिक लागू होने वाल नियम है । राज्यकर्ताओं को इसकी पूरी कल्पना थी कि भारतीय ज्ञान परम्परा आधारित शिक्षा का मतलब अंग्रेजी हुकूमत को यहाँ से जाने की तयारी थी ।
तात्पर्य यह कि इस नवीन शिक्षा पद्धति के कारण जिस प्रकार पहले युवाओं में भौतिक आकर्षण था और अलग प्रकार के ज्ञान के कारण चकाचौध हुए थे , भारतीय समाज को शीघ्र ही आत्मपरीक्षण करने और उसके द्वारा समाज व्यवस्था, मूल्य व्यवस्था, जीवन दृष्टि में परिवर्तन करने की आवश्यकता भी अनुभव होने लगी ।
सामान्य रूप से कहा जा सकता है कि इन शिक्षितों में आत्मनिरीक्षण के युग का आरम्भ हुआ । नए ज्ञान से स्व-समाज के सुगठन की, उत्थान की प्रामाणिक ललक दिखाई देने लगी । फिर भी रोग के पूर्ण निदान के स्थान पर रोग के लक्षणों को ही मूल रोग समझने की प्रवृत्ति ही अधिकांशत: दृष्टिगोचर होती है । उसी प्रकार सुधार की प्रेरणा बिखरी हुई व संकुचित दिखती है ।
यह सत्य है कि परिवर्तन का माध्यम विज्ञान बना जिसके कारण प्रेस, पुलिया, रेल आदि भारत में विकसित हुए । किन्तु अंग्रेजों को समझ आने लगा की शिक्षा व्यवस्था के कारण अपनी परवशता और अंग्रेजों की उपनिवेशवादी मनोवृति को यहाँ के लोग समझने लगे है । 1841 से प्रकाशित ‘बाम्बे गज़ट’ में ‘ए हिन्दू’ के नाम से भास्कर पांडुरंग तरवरकर के आठ पत्र अंग्रेजी में प्रकाशित हैं, जिनमें अंग्रेजों की रक्त शोषक वृत्ति का वर्णन था ।
महात्मा ज्योतिबा फुले का कार्य इसी समय ई.1848 में प्रारम्भ हुआ । किन्तु उनके कार्य की प्रेरणा भी अन्य सुधारकों की तरह वैयक्तिक ही थी । उन्होंने वैयक्तिक स्तर पर शिक्षा, स्त्री शिक्षा, नारी मुक्ति, जाति निर्मूलन की दृष्ट से कार्य किया । उन्होंने उसे सामूहिक व संस्थागत रूप भी दिया । न्यायमूर्ति रानाडे के व्यक्तित्व और कार्य में प्राचीन परम्परा के चिरंतन, शैली, आध्यात्मिकता की निष्ठा के साथ ही शिक्षा में से आये यूरोपीय उदारमतवादी, व्यक्तिवादी जीवन का प्रभाव था । इसलिय प्राचीन परम्परा के शास्वत जीवन मूल्यों को आधुनिक पश्चिमी जीवन मूल्यों की दृष्टि देने की आवश्यकता उन्हें अनुभव हुई । इस दृष्टि से उन्होंने स्वतंत्रता , लोकतंत्र, औद्योगिक विकास आदि के बारे में प्रबोधन करनेवाली सार्वजनिक सभा, डेक्कन सभा, वसंत व्याख्यानमाला, फीमेल हाईस्कूल, सामाजिक परिषद् जैसी संस्थाए प्रारम्भ कर महाराष्ट्र में सामाजिक संस्थाओं की नींव रखी ।
विष्णु शास्त्री ने अंगेजी शिक्षा को ‘सिंहिनी का दूध’ कहा था । परन्तु शास्त्री जोशी ने ‘महात्मा फुले समग्र बांग्मय’ ग्रन्थ की प्रस्तावना में लिखा है की ‘ अंग्रेजी विद्यारूपी सिंहिनी का दूध जन्मत: जो सिंह नहीं हैं, उन्हें कितना भी पिलाया, तो भी उससे नरसिंह नहीं बन सकता ।
तत्कालीन अंग्रेज अधिकारी मेकाले मानते थे की ‘उच्च वर्ग को शिक्षित करने पर शिक्षा रिसते हुए अपने आप निम्न वर्ग तक पहुँच जायेगी।’ ज्योति बा फुले मेकाले के इस विचार के सख्त विरोधी थे। ई.1882 में शिक्षा में सुधार के लिए बनाए गए हंटर कमीशन के सम्मुख अपनी बात रखते हुए ज्योति बा ने सम्पूर्ण शिक्षा व शूद्रातिशूद्रों में शिक्षा के प्रसार, उसमें आनेवाली कठिनाइयाँ व उनके निराकरण के लिए किये जानेवाले उपाय बड़ी निर्भीकता से रखे थे ।
सामाजिक क्रांति के मार्ग पर डॉ अम्बेडकर का पदार्पण- 19वीं ई. के प्रारम्भ से 20 सदी के पहले दो दशकों तक हुए समाज परिवर्तन व प्रबोधन पर्व की पार्श्वभूमि पर डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर का सार्वजनिक जीवन में प्रवेश समाज क्रांति के मार्ग को मोड़ देनेवाला ऊर्जा स्रोत रहा । इसीलिए सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रधानता दिलानेवाले विचारवान नेता के नाते भारत के इतिहास में डॉ आंबेडकर का असाधारण स्थान है ।
सामान्य रूप से समझें तो ज्योतिबा फुले और अम्बेडकर के सामाजिक कार्य के सूत्र समान थे । स्वयं बाबा साहब ने ज्योति बा का ऋण माना है । एकात्म समाज निर्माण करने की इन दोनों की प्रेरणा एक समान थी । फिर भी दोनों के आसपास का संस्कारी वातावरण, सामाजिक संस्थाओं के आकलन के लिए आवश्यक उपलब्ध सामग्री और व्यक्तित्व की बौद्धिक व मानसिक स्थिति में अन्तर था ।
ज्योतिबा के सामाजिक कार्य की प्रेरणा आत्मिक बुद्धि में से निर्माण हुई थी, तो डॉ. आंबेडकर आत्मानुभूति में से कार्य करने के लिए प्रवृत हुए थे । आत्मिक बुद्धि कितनी भी सवेदंशील व व्यापक हो, तब भी अस्पृश्यता की प्रत्यक्ष दाहकता का केवल अनुमान ही किया जा सकता है, उसकी अनुभूति नहीं की जा सकती । दासता की अनुभूति के अंतर को लिंकन के अनुभव और मार्टिन लूथर किंग को प्राप्त वर्ण विद्वेष की प्रत्यक्ष अनुभूति से समझा जा सकता है । (संदर्भ: डॉ अंबेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा- दत्तोपंत ठेंगड़ी)
बाबा साहब का बचपन परिवार के अत्यंत संस्कारी व धार्मिक वातावरण में बीता । उनके घर में चलनेवाले रामायण, पांडव प्रताप, ज्ञानेश्वरी व अन्य संत वांग्मय के नित्य स्वाध्याय और पठन में से निर्माण होनेवाले, भजन के दैनंदिन प्रभाव से निर्माण होने वाले धार्मिक पवित्र वातावरण का वर्णन उनके जीवनी लेखकों के कई ग्रंथों में मिलाता है ।
बाबा साहब के पिता जी इस नियम के प्रति बड़े कठोर थे । रात के आठ बजते ही बाबा साहब की दोनों बहनों, बड़े भाई व बाबा साहब को देवघर में पहुंचना अनिवार्य था । बाबा साहब कहते थे - ‘ जब मेरी बहने मीठे स्वर में पद गातीं, तब मुझे लगता था कि धर्म व धार्मिक शिक्षा मनुष्य के जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है । बहुत लोग कहते हैं की मैं ‘धर्महीन’ हूँ , परन्तु यह बात सही नहीं है ...जो मेरे सानिध्य में आये हैं, उन्हें मेरी धर्म विषयक श्रद्धा व प्रेम के बारे में मालूम है । बाबा साहब के घर में कबीर के दोहे नित्य कहे जाते थे - जात पांत पूछे ना कोई । हरि को भजे सो हरि का होई ।। ’ बाद में उनके पिता जी ने कबीर पंथ की दीक्षा भी ली । धनञ्जय कीर के अनुसार उनके घर का वातावरण ‘संत को भोजन, अमृत पान, कीर्तन सर्वदा ..’ का था । बाबा साहब को भजन-कीर्तन के प्रति प्रेम, रात को सोने के पूर्व व अन्य समय कबीर के दोहे गुनगुनाने की आदत उन्हें अपने पिता रामजी सूबेदार से प्राप्त संस्कारों के कारण थी । बाबा साहब ने समाचार-पत्र ‘मूकनायक’ के पहले अंक का प्रारम्भ ही तुकाराम के एक अत्यंत अन्वयार्थात्मक अभंग ( अब मानू क्यों भय, खोला मुंह होकर नि:शंक । जग में गूंगे का कोई नहीं होता, शर्म करने से हित नहीं होता ।) से किया था । वे ‘बहिष्कृत भारत’ के अग्रभाग पर और अन्य प्रकाशनों के प्रारम्भ में, परिस्थिति से मेल खानेवाले व विषयानुरूप सन्तों के अभंग दिया करते थे । अपने भाषणों में भी संत वचनों का उपयोग करते थे ।
घर पर ऐसे अच्छे संस्कार तो मिल रहे थे, किंतु बाहर निकलते ही अस्पृश्यता का तीव्र अहसास करानेवाले, उत्तरोत्तर अधिक विदारक अनुभव उन्हें बचपन से ही मिलने लगे थे । अस्पृश्यता का यह क्लेशकारी आत्मानुभव उनके जीवन को एक निश्चित दिशा व उस तरफ ले जाने वाली बौद्धिक व मानसिक ऊर्जा देने में कारणीभूत हुआ ।
अस्पृश्यता का दंश उन्हें बचपन से ही अनुभव में आया । बाज़ार में माँ के साथ कपड़ा खरीदने जाते तब दुकानदार दूर से ही कपड़ा दिखाता । पिता के पास कोरेगांव जाते समय का अनुभव बड़ा ही हृदय विदारक है । सारे भाइयों की दुर्दशा, अस्पृश्य मात्र होने के कारण किस प्रकार हुई थी, गरमी के मौसम में विना पानी के प्यास के कारण किस प्रकार तड़पते रहना पड़ा, सभी जानते हैं । अपने शापित बालपन की स्मृतियों को बताते समय बाबा साहब कहते थे - “ मैं अस्पृश्य हूँ, इसलिए अस्पृश्य को मिलनेवाले अपमान व अप्रतिष्ठा की मुझे कल्पना है । विद्यालय में पढ़ते समय क्रम के अनुसार विद्यार्थियों के साथ न बैठ पाना, चपरासी का घट से पानी तक न देना, नल की टोटी चपरासी खोलता तब पानी पीता आदि घटनाएं जीवंत बनी रहती हैं । बड़ोदरा सरकार के अनुदान के बदले नौकरी में भी फाइलों को दूर से मुझ पर फेंका जाता, सबके लिए पीने के पानी में से हम पानी नहीं पी सकते थे । ऐसी अनेक घटनाएं आज भी मन को विदीर्ण करती हैं ।” उनका संस्कृत भाषा से अनन्य प्रेम होने से उसे उन्होंने सीखी ।
अस्पृश्यता पर वे तिलक जी के बारे में कहते ‘यदि तिलक जी मुझ जैसे किसी व्यक्ति के बहिष्कृत समाज में जन्म लिये होते और ब्रिटिश सत्ता के कारण हुए परिवर्तन स्वरूप उन्हें उच्च शिक्षा प्राप्त हुई होती, तो वे ‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’, की गर्जना करने के स्थान पर निश्चय ही ‘अस्पृश्यता नष्टमूल करना मेरा कर्तव्य है’ कहा होता ।
‘ये यथा माम प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम ।’ गीता के इस प्रिय श्लोक के आधार पर धार्मिक व सामाजिक अधिकार प्राप्त करने के लिए ‘बाप दिखा, नहीं तो श्राद्ध कर’ का खुला आह्वान उन्होंने किया होता । बाबा साहब कहते, मेरी अंग्रेजी वक्तृता व स्पष्ट लिखने का सारा श्रेय मेरे पिता जी को जाता है । सियाजी राव ने पूछा आप किस विषय को लेकर पढ़ाई करनेवाले हो और क्यों ? बाबा साहब ने उत्तर दिया ‘ समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और विशेषकर पब्लिक फाइनेंस की पढ़ाई करने से मुझे अपने समाज की अवनत अवस्था सुधारने का मार्ग मिलेगा । उस मार्ग से समाज सुधार का कार्य करूंगा ।’ अमरीका के शैक्षणिक वातावरण में वहां के प्रोफेसर ने लाला लाजपत राय से कहा था ‘यह विद्यार्थी केवल भारतीय विद्यार्थियों में ही नहीं, अमरीकन विद्यार्थियों से भी श्रेष्ठ है ।’(संदर्भ: डॉ अंबेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा- दत्तोपंत ठेंगड़ी)
बाबा साहब का चरित्र कितना स्पष्ट था, जब लाला लाजपत राय ने उन्हें ग़दर या क्रांतिकारी संगठन में शामिल करने का प्रयास किया तो उन्होंने कहा, ‘आप स्पृश्य हिन्दू, हम अस्पृश्यों को गुलाम रखकर स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन इसी कारण अस्पृश्य आपके आन्दोलन में शामिल नहीं हो सकेंगे।’
एक स्थान पर उन्होंने कहा है - यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं होगी की अस्पृश्यों में जो ग्रन्थ संग्रह हुआ, वह उनके हिसाब से अति विशाल हैं । मुझे विश्वास है कि अस्पृश्यों के घरों पर कई दुर्लभ ग्रंथों की प्रतियां भी मिलेंगी ।’
स्पष्ट है कि धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के बाद भी वे आत्मा की मुक्ति की चिंता नहीं बल्कि समाज की चिंता करते थे ।
1942 में नागपुर में ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ के अधिवेशन में लगभग 20 हजार अस्पृश्य महिलाए शामिल हुई थी । उनके बीच भाषण में बाबा साहब कहते ‘ समाज की प्रगति को उस समाज की महिलाओं की प्रगति से मापा जा सकता है । आप इतनी बड़ी संख्या में यहाँ आई है, अत : संदेह नहीं की निश्चित ही अब अपना समाज प्रगति के मार्ग पर है । आप स्वस्थ रहें, दुर्गुणों से दूर रहें । अपने बच्चों को शिक्षित करें, उन्हें महत्त्वाकांक्षी बनाए । उनकी हीनग्रंथि दूर करें । उनका विवाह जल्दी न करें । आप स्वयं को अस्पृश्य न माने ।
मिलिंद महाविद्यालय के प्राध्यापक ने पूछा आप ब्राह्मणों के विरोधी क्यों है ? बाबा साहब ने कहा ‘ मेरा विरोध ब्राह्मण जाति से नहीं है, ब्राह्मण्य (आडम्बर / आचार और व्यवहार में अंतर ) से है ।
वे मानते थे कि अस्पृश्यता निवारण का कार्य हिन्दू समाज को एकात्म व समर्थ बनाने का कार्य है, इसलिए यह राष्ट्रीय कार्य है । इस भूमिका का उन्होंने 1935 तक के सार्वजनिक जीवन के सारे उपक्रमों- प्रबोधन-संगठन, जहां जरूरी हुआ वहां शांतिपूर्ण विधायी संघर्ष के माध्यम से निर्वहन किया । इसके पीछे की मूल भावना यही थी कि अस्पृश्य वर्ग हिन्दू समाज का अबिभाज्य अंग है, इसलिए सामाजिक न्याय की दृष्ट से समान नागरिकता, मनुष्य के रूप में जीव जीने का सामान्य अधिकार मिलना ही चाहिए । उन्होंने अस्पृश्यों के ही नहीं, उच्च वर्णों के प्रबोधन का कार्य भी किया । ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की रचना में सर्वसमावेशक की भूमिका से मान्यवरों का पदाधिकारियों में समावेश करने का उल्लेख भी मिलता है । मार्च 1927 में दलितों पर उच्चवर्ग की लाठियां चली । अनेक सर फूटे किन्तु बाबा साहब ने प्रतिकार की अनुमति नहीं दी । गीता का उद्धरण देकर वे सत्याग्रह की निष्ठा का दावा करते रहे । ब्रह्मनेत्तर वर्ग ब्राह्मणों के समान होने के स्थान पर स्पृश्यों के मुकाबले वह अपने विशिष्ट अधिकार कायम रखने के प्रति अधिक चिंतित दिखाई देता है । ऐसी स्थति में उक्त दोनों वर्गों का उपयोग न्याय व मानवीयता के अधिकार मिलने में न देखर सत्याग्रह के मार्ग से विधाई संघर्ष कर अपने अधिकार प्राप्त करने के लिये बाबा साहब ने सत्याग्रह का मार्ग अपनाया ।
बाबा साहब के इस कथन से उनके राष्ट्र निष्ठा को समझा जा सकता है- “यदि हम धर्मान्तरण के लिए आतुर होते व अस्पृश्यता से स्वयं को अथवा केवल वर्तमान पीढ़ी को मुक्त करना चाहते तो यह काम मैं पहले ही कर लेता, लेकिन हमारा प्रयास था कि हम हिन्दुधर्म में ही रहें । अखिल बहिश्रुत वर्ग के बारे में विचार करने के कारण हम अपने प्रयास सतत चला रहे हैं । तथापि किसी व्यक्ति विशेष अथवा धर्म विशेष की सहनशीलता की एक सीमा होती ही है । क्या आप यह चाहते है कि आप भले ही हमें लाते मारे, मगर हम यह कहते रहें की हम आपके ही धर्म में रहेंगे ?”
जाति व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए बाबा साहब अम्बेडकर हिन्दू समाज को अनेक मंजिल्ला भवन होने की सार्थक उपमा देते हैं, जिसमें प्रत्येक जाति की अलग-अलग मंजिलें हैं, परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि भवन में कोई सीढ़ी नहीं है । इसलिए कोई नीचे से ऊपर नहीं जा सकता । उसी प्रकार ऊपरी मंजिल के नालायक व्यक्ति को निचली मंजिल पर धकेले जाने का किसी को अधिकार नहीं है । इसका अर्थ यह है कि ऊंच-नीच की भावना गुण-अवगुण पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित है ।
वे मानते है कि अस्पृश्य व सवर्ण हिन्दुओं में वंशभेद नहीं है । अस्पृश्यता का उदय होने के पूर्व हिन्दू व अस्पृश्यों के बीच का मूल भेद टोलियों में संगठित हुए लोंगों व बाह्य आक्रमणों से परास्त हुए लोगों के स्वरूप के कारण था । कालान्तर में इधर-उधर बिखरे हुए इन पराजित लोगों को अस्पृश्य माना जाने लगा । जिस प्रकार अस्पृश्यता को वंशभेद का आधार नहीं है, उसी प्रकार व्यवसाय का आधार भी नहीं है । अस्पृश्यता निर्माण होने के दो कारण है - एक- ब्राह्मण बौद्धों का तिरस्कार किया करते थे, वैस ही तिरस्कार व द्वेष इन पराजित लोगों का किया करते थे । दो- अन्य लोगों ने गोमांस भक्षण का त्याग किया किन्तु इन लोगों ने गोमास भक्षण चालू रखा । अस्पृश्य और चंडाल दोनों पृथक है. जबकि सनातनी पंडितों ने उन्हें एक ही मान लिया ।
हिन्दू धर्म में सुधार करने के लिये बाबा साहब ने कुछ योजना रखी थी जो निम्न प्रकार से हैं , एक- सारे हिन्दुओं को मान्य हो ऐसा कोई एक ग्रन्थ हो । इसके अतिरिक्त जो वेद, शास्त्र, पुराण आदि हैं, उनको प्रामाणिक मानना छोड़ दिया जाये । उनके प्रचार पर कानूनन प्रतिबन्ध लगाया जाए । किन्तु शायद वे भी जानते थे कि उक्त शर्तें सनातन परम्परा के वृहत्तर दृष्टिकोण के प्रतिकूल थीं ।
दो- पुरोहिताई का काम करने की छूट किसी भी जाति के व्यक्ति को मिलनी चाहिए । उसके लिए सरकारी स्तर पर परीक्षा ली जानी चाहिए । इस पर शायद ही किसी को एतराज रहा होगा , कारण आज इस दिशा में काफी प्रगति भी हुई है और शंकराचार्य जी ने तो अपने जीवन में ही यह व्यवस्था बना दी थी ।
वे ब्राह्मणत्व अर्थात् (वे कबीर पंथ के दीक्षित परिवार से होने के कारण भी उन्हें बाह्य आडम्बरों से विरोध था) इसलिए मानते थे की जब तक ब्राह्मणत्व नष्ट नहीं होगा तब तक जाति नष्ट नहीं होगी । क्योंकि वे मानते थे कि प्रचलित समाज रचना से उनका जो विरोध है, उसका समबन्ध हिन्दु धर्म के मूल उदात्त तत्वों से नहीं है, उनका विरोध उस आचार्य समूह से है, जो एक और तो ऐसे हिंदुत्व के मूल तत्वों ( आत्मवत् सर्वभूतेषु या सर्वे भवन्तु सुखिन:..आदि ) का उच्चारण करते हैं और दूसरी ओर समाज में विषमता व दासता निर्माण करनेवाली व्यवस्था का समर्थन करते हैं ।
उनका मानना है कि अस्पृश्यता निवारण का कार्य हिन्दू समाज को एकात्म और सामर्थ्यशाली करने का कार्य है और अस्पृश्य वर्ग हिन्दू समाज का एक अविभाज्य अंग है, इसलिए यह श्रेयस्कर है । इस भूमिका से उन्होंने मुस्लिम मानसिकता के बारे में सवर्ण हिन्दू समाज व अपने अस्पृश्य बंधुओं को भी सतर्क किया ।
इन सबके बावजूद निम्नलिखित कारणों से डॉ बाबा साहब का राष्ट्र की एकात्मता एवं अखण्डता में दिए योगदान को विस्मरण नहीं किया जा सकता - (1) स्वयं अनुभूत दर्दों से दलित,शोषित, बंचित और उपेक्षित समाज को उस दर्द से बचना चाहते थे। (2) आचार - विचार के नाम पर जाति का आधार लेकर मनुष्य का वहिष्कार - तिरस्कार वे पाप मानते थे । (3) वे चाहते थे की हिन्दू समादर भाव से रहें । (4) उन्होंने ईसाई-मुसलामानों के धर्म (सम्प्रदायों) में न जाकर उस समय लाखों लोंगों को विधर्मी बनने से रोका । (5) उन्होंने दलित, शोषित, बंचित और उपेक्षित समाज को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर उन्हें बुद्ध के सन्देश ‘अप्प दीपो भाव’ स्वयं के पैरों पर खड़े होने की दिशा दिखाई । (6) वे जानते थे कि बौद्ध पंथ /धर्म / सम्प्रदाय सनातन दर्शन का अंग है । (7) दलित, शोषित, बंचित और उपेक्षित समाज के उत्थान के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान रख कर उन्हें स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनने का अवसर दिया । (8) देश के एक बड़े विभाजन से भी अप्रत्यक्ष रूप से रोंका, अन्यथा आज उस समय के परिवर्तित लोग (ईसाई अथवा मुसलमान ) जिनके पाले में भी जाते आज उनकी संख्या देश के डेमोग्राफी को तहस-नहस कर देती ।
सारांश यह की उनका यह योगदान चिर स्मरणीय रहेगा ।
बाबासाहेब डा भीमराव जी अम्बेडकर पर बहुत अच्छा ज्ञानवर्धक आलेख
ReplyDeleteजी। साधुवाद
Deleteबहुत अच्छा आलेख है। हार्दिक शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteजी। नमस्कार
Deleteमहत्वपूर्ण लेख 🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद
DeleteOne of the best explained devotion and dedication of Dr Babasaheb B R Ambedkar for unity of India as a nation...
ReplyDeleteसाधु
Deleteधन्यवाद
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