Wednesday, 24 July 2024
दुंदुभी
Sunday, 21 July 2024
ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी है
ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी है ।
ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवातु । अवतु माम्। अवतु वक्ताराम्। ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद )
स्वर और वर्णों के उच्चारण -
महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है -
दुष्ट: शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानम हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोऽपराधात । ।
अर्थात स्वर या वर्ण की अशुद्धि से दूषित शब्द ठीक -ठीक प्रयोग न होने के कारण अभीष्ट अर्थ का वाचक नहीं होता । इतना ही नहीं, वह वचन रुपी वज्र यजमान/ प्रयोगकर्ता को हानि भी पहुंचाता है । जैसे ‘इंद्रशत्रु’ शब्द में स्वर की अशुद्धि हो जाने के कारण ‘वृतासुर’ स्वयं ही इंद्र के हाथ मारा गया।
अत: वेद मंत्रों का उच्चारण शिक्षा के अनुसार करना चाहिए । ‘क’ ‘ख’ आदि व्यंजन वर्णों और ‘अ’,’आ’ आदि स्वर वर्णों का उच्चारण स्पष्ट करना चाहिए ।
दन्त्य ‘स’ के स्थान पर तालव्य ‘श’ या मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण नहीं करना चाहिए । ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का उच्चरण नहीं करना चाहिए । (इसे बोलियों के संदर्भ में न लें, यथा -अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी। यह संस्कृत के मंत्रों के सम्बन्ध में व्याकरणगत सावधानी है)
मन्त्रों में स्वर भेद होने से अर्थ बदल जाता है । हस्व, दीर्घ और प्लुत आदि के मात्रा भेद को भी समझ कर उच्चारण करना चाहिए ।
हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व का उच्चारण करने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे सीता और सिता ।
इसलिए बल, प्रयत्न, संधि, संहिता और महासंहिता आदि को विद्वानों, शोधार्थियों, शिक्षकों को ठीक से समझना चाहिए।
बल, प्रयत्न, संधि, संहिता और महासंहिता -
‘बल’ का अर्थ है ‘प्रयत्न’ । वर्णों के उच्चारण में उनके ध्वनि को व्यक्त करने में जो प्रयास करना पड़ता है,वही ‘प्रयत्न’ कहलाता है ।
‘प्रयत्न’ दो प्रकार के होते हैं । ‘आभ्यांतर और बाह्य’ । आभ्यांतर के पांच और बाह्य के ग्यारह भेद होते हैं ।
स्पृष्ट, ईषत्-स्पृष्ट, विवृत, ईषद-विवृत, सवृत- ये पांच आभ्यांतर हैं । विवार, संवार, श्वांस, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उद्दात्त, अनुदात्त और स्वरित-ये बाह्य प्रयत्न हैं ।
‘क’ से लेकर ‘म’ तक के अक्षरों का अभ्यान्तर प्रयत्न ‘स्पृष्ट’ है; क्योंकि कंठ आदि स्थानों में प्राणवायु के स्पर्श से इनका उच्चारण होता है ।
‘क’ का बाह्य प्रयत्न विवार, श्वांस, अघोष तथा अल्पप्राण है ।
वर्णों का संवृति से उच्चारण या साम-गान की रीति ही ‘साम’ है ।
संतान का अर्थ है ‘संहिता’-संधि ।
स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं ।
इस प्रकार वर्णों का यह संयोग जनित विकृति भाव- ‘संधि’ कहलाती है ।
किसी स्थान विशेष स्थल में जहां ‘संधि’ बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता, अत: उसे ‘प्राकृति भाव’ कहते हैं । वर्णों का उच्चारण इन्हीं छह नियमों से होता है ।
वर्णों में जो संधि होती है, उसे ‘संहिता’ कहते हैं । वही संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है, तब उसे ‘महासंहिता’ कहते हैं ।
‘संहिता’ या ‘संधि’- व्यंजन, स्वरादि, विसर्ग और अनुस्वार ये पांच प्रकार की होती है; इन्हें संधि के पांच आश्रय कहा जाता है ।
महासंहिता या महासंधि के भी पांच आश्रय- लोक, ज्योति, विद्या, प्रजा और आत्मा (शरीर) कहते हैं ।
संधि के भाग -
प्रत्येक संधि के चार भाग होते हैं - पूर्ववर्ण, परवर्ण, दोनों के मेल से होने वाला रूप तथा दोनों का संयोजक नियम । उदाहरण के साथ समझें -
पृथ्वी यह लोक ही पूर्व रूप है, स्वर्ग ही संहिता का उत्तर रूप (परवर्ण )हैं । आकाश या अन्तरिक्ष ही इन दोनों की संधि है और वायु इनका संधान (संयोजक) है । प्राणों के द्वार ही मन और इन्द्रियों के सहित जीवात्मा का प्रत्येक लोक में गमन होता है ।
अग्नि इस भूतल पर सुलभ है, अत: उसे संहिता का ‘पूर्ववर्ण’ माना है और सूर्य द्युलोक में प्रकाशित होता है; अत: उसे उत्तर रूप कहते हैं । इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ‘मेघ’ ही संधि है । तथा ‘विद्युत् शक्ति’ ही इस संधि की हेतु (संधान) बतायी गयी है ।
इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है, और इन सबकी उत्पति विजली को कारण बताया गया, ऐसा अनुमान होता है ।
आज का वैज्ञानिक भी बिजली को सब प्रकार के विकास का कारक मानता है, यह बात हमारे ऋषियों ने वेद में पहले ही बता दी थी, किन्तु परम्परा के नष्ट हो जाने से यह समझाने में दुर्लभ समझा जाता रहा है ।
इस वेद या विद्या को समझाने के लिए आचार्य को पूर्व रूप पहला वर्ण माना गया है । अन्तेवासी शिष्य उत्तररूप वर्ण है। दोनों के मिलन (संधि) से उत्पन होने वाली विद्या है, तथा गुरु के प्रवचन को श्रद्धापूर्वक सुनकर उस विद्या को धारण करना ‘संधान’ है।
इसी आधार पर संतान उत्पति को लेकर माता को पूर्वरूप , पिता को उत्तररूप तथा संतान उत्पान हेतु उद्देश्य ‘संधान’ तथा संतान का उत्पन्न होना ‘संधि’ है ।
यही सूत्र मुख को संहिता, नीचे के जबड़े को पूर्वरूप, ऊपर के जबड़े को परवर्ण, दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा जिह्वा (वर्ण के उत्पन्न होने से ) ‘संधान’ है ।
इस प्रकार इन मन्त्रों के द्वारा महासंहिताओं के माध्यम से विद्या, संतान, वाणी प्राप्त कर संसार के तत्वों को प्राप्त किया जाता है ।
ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी
उपनिषदों में ॐ को सर्वश्रेष्ट मन्त्र कहा गया है । यह ईश्वर स्वरुप है । इसके उच्चारण का फल परमेश्वर सम्पूर्ण वेद(ज्ञान) का फल देता है।
ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी है । इस ईश्वर से हमें मेधा (धीर्धारणावती मेधा) प्राप्त हो जिससे हम इसकी अहेतुकी कृपा प्राप्त कर सकें ।
मेरा शरीर निरोगी हो, उपासना में बिघ्न न पड़े, जिह्वा अतिशय मधु हो, कानों से कीर्तन सुनें आदि-आदि मन्त्रों का आह्वान कर स्वाहा (इस उद्देश्य के लिए यह आहुति है ) कहें -
“यथाऽऽप: प्रवत्ता यन्ति अथा मासा अहर्जरम । एवं मां ब्रह्मचारिणी धारारायान्तु सर्वत: स्वाहा ।
अर्थात जिस प्रकार जल प्रवाह नीचे की ओर बहते-बहते समुद्र में मिल जाते हैं तथा जिस प्रकार दिन का अंत करनेवाले संवत्सररूप काल में जा रहे है, हे विधाता ! उसी प्रकार सब ओर से ब्रह्मचारी मेरे पास आयें और मैं उनकों कल्याण का उपदेश देकर कर्तव्य पथ पर चलने का मार्ग दिखा कर आप की आज्ञा का पालन कर सकूं।
उपनिषदों में व्याहृति - भू:, भुवः, स्वः और ‘मह:’ -
उपनिषदों में भू:, भुवः, स्वः और चौथी व्याहृति ‘मह:’ है और यही ‘मह:’ ब्रह्म है । भू: यह पृथ्वीलोक है तो भुवः यह अन्तरिक्ष लोक और स्वः यह स्वर्गलोक है । 'मह:' यह सूर्यलोक है ।
अर्थात् ‘भू:, भुवः, स्वः’ यह तीनों व्याव्हृतियाँ परमेश्वर के विराट शरीर रुपी इस ब्रह्माण्ड को बताने वाली हैं तो ‘मह:’ यह चौथी व्याव्हृति परमेश्वर के आत्मस्वरूप है।
‘भू:’ यह व्याहृति अग्नि का नाम होने से मानों ‘अग्नि’ ही है । यह ज्योतिस्वरूप है । ‘भुवः’ यह वायु स्वरुप है । वायु देवता त्वक -इन्द्रिय स्पर्श को प्रकाशित करनेवाली ज्योति और त्वचा भी समझना चाहिए ।
‘स्वः’ यह सूर्य है । सूर्य चक्षु -इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता है । ‘मह:’ यह मनो चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का देवता है । मन के कारण ही सभी इन्द्रिया क्रियाशील रहती हैं अत: मन ही प्रधान है ।
भू: ऋग्वेद , भुवःसामवेद, स्वःअजुर्वेद और मह: यह ब्रम्ह है । भू: प्राण, भुवःअपान, स्वःव्यान और मह अन्नं है । अन्न में ही सभी प्राण महिमायुक्त होते हैं , अत: ‘मह:’ ही ब्रह्म स्वरुप प्राण है । ( पंचम अनुवाक )
ह्रदय के भीतर जो अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाला आकाश है, उसी में विशुद्ध प्रकाश स्वरुप अविनाशी मनोमय अंतर्यामी पर पुरुष पमेश्वर विराजमान हैं, वहीं उनका साक्षात्कार हो जाता है ।
मनुष्यों के मुख में तालुओं के बीचों बीच जो एक थान के आकार का मांस -पिंड लटकता है, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘घंटी’ कहते हैं, उसके आगे केशों का मूलस्थान ब्रह्मरन्ध्र है; वहां ह्रदय देश से निकलकर घंटी के भीतर से होती हुई दोनों कपालों को भेद कर गई हुई है , जो सुषुम्ना नाम से प्रसिद्ध नाड़ी है, वही उन इंद्र नाम से कहे जाने वाले परमेश्वर की प्राप्त का द्वार है ।
अन्तकाल में वह महापुरुष उस मार्ग से शरीर के बाहर निकलकर ‘भू:’ इस नाम से अभिहित अग्नि में स्थित होता है। गीता और ईशोपनिषद् में भी यही बात कही गई है (गीता 8/24) ।
उसके बाद वायु में सतही होता है अर्थात् पृथ्वी से लेकर सूर्यलोक तक समस्त आकाश में जिसका अधिकार है, जो सर्वत्र विचरने वाली वायु का अभिमानी देवता है और जो ‘भुवः’ नाम से कहा गया है, उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है ।
वह देवता उसे ‘स्वः’ इस नाम से कहते हुए सूर्यलोक में पहुँचा देता है , वहाँ से फिर वह ‘मह:’ इस नाम से कहे हुए ‘ब्रह्म’ में स्थित हो जाता है ।
यहाँ से यह जीव या महापुरुष ‘स्वराट’ बन जाता है । अर्थात् उस पर प्रकृति का अधिकार नहीं रहता, अपितु वह स्वयं ही प्रकृति का अधिष्ठाता बन जाता है ; क्योंकि वह मन के अर्थात् समस्त अन्त:करण समुदाय के स्वामी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, इसलिए वह वाणी, चक्षु , श्रोत आदि समस्त इन्द्रियों और उनके देवताओं का तथा विज्ञानस्वरूप बुद्धि का भी स्वामी हो जाता है ।
अर्थात् ये सब उसके अधीन हो जाते हैं । ‘आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्रणारामं मन आनंदम् ।’
आधिभौतिक और आध्यात्मिक पदार्थ -
आधिभौतिक पदार्थों को- लोक,त्योति और स्थूल पदार्थ इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है औ दूसरे भाग में - मुख्य मुख्य आध्यात्मिक (शरीर स्थित ) पदार्थों को - प्राण, करण और धातु इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है और उनके उपयोग की युक्ति बताई है ।
लोक की आधिभौतिक दिशाएं - पृथ्वीलोक,अन्तरिक्ष लोक, स्वर्गलोक, पूर्व -पश्चिम दिशाएँ आदि तथा आग्नेय, नैरित्य आदि अवांतर दिशाएं । इस प्रकार यह लोकों की आधिभौतिक पंक्ति है ।
अग्नि, वायु, सूर्य,चन्द्रमा और नक्षत्र यह ज्योतियों की आधिभौतिक पंक्ति हैं । जल, औषधियां, वनस्पतियाँ,आकाश औत पांच भौतिक स्थूल शरीर जड़ पदार्थों भी आधिभौतिक पंक्तियाँ हैं ।
इस प्रकार यह एक प्रकार का समूह है ।
प्राण, करण और धातु-
इसके आगे प्राणों की पंक्ति - प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान पंक्ति हैं ।
नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा इस प्रकार यह करण समुदाय की पंक्ति है ।
चर्म , मांस , नाडी, हड्डी और मज्जा इस शरीर गत धातुओं की पंक्ति है ।
आधिभौतिक और आध्यात्मिक विकास में इनका आपस का सम्बन्ध है । आधिभौतिक लोक सम्बन्धी मन का चौथे प्राण - समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है ।
एक लोक का दूसरे लोक से सम्बन्ध कराने में प्राणों की ही प्रधानता है ।
दूसरी ज्योति विषयक आधिभौतिक पंक्ति से पांचवीं करन समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है । क्योंकि वे आधिभौतिक ज्योतियाँ इनकी सहायक हैं ।
इस प्रकार तीसरी स्थूल पदार्थों की आधिभौतिक पंक्ति का छ्ठी शरीरगत धातुओं से सम्बन्ध है क्योंकि औषधि और वनस्पतियाँ अन्न से ही मांस -मज्जा आदि की पुष्टि और वृद्धि करती हैं ।
इस प्रकार अन्नमयकोश से आनन्दमय कोश तक की यात्रा को ठीक से समझ कर अभ्यास करने से षठचक्र खुलते हैं। कोश और चक्रों के अनंत ब्रह्मांडीय स्वरूप के साथ जीव एकाकार होता है।
यहीं से अक्षर ब्रह्म से लेकर नाद -ध्वनि,शब्द ब्रह्म की एकात्मकता स्थापित होती है।
राम का चारित्रिक वैशिष्ट्य
(4)
राम का चारित्रिक वैशिष्ट्य
वाल्मीकि रामयण में महर्षि वाल्मीकि ने नारद जी से प्रश्न किया कि ‘इस समय सारे भूमण्डल और नव द्वीपों में ऐसा कौन सा अपूर्व मेधावी, विद्वान, परोपकारी, ज्ञान-विज्ञान में पारंगत, धर्मात्मा तथा समस्त सद्गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति है ? जो मनुष्य मात्र का ही नहीं, चर-अचर और प्राणि मात्र का कल्याण करने के लिये सदैव तत्पर रहता हो? जिसने अपने पराक्रम और त्याग से संपूर्ण इन्द्रियों, विषय-वासनाओं एवं मन को वश में कर लिया हो, जो कभी क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृतियों के वशीभूत न होता हो? यदि ऐसा कोई महापुरुष आपकी दृष्टि में आया हो तो कृपया संपूर्ण वृतान्त मुझे सांगोपांग सुनाइये ।
प्रश्न के उत्तर में महर्षि नारद कहते हैं - ‘हे मुनिराज! ऐसी महान विभूति का नाम रामचन्द्र है। उन्होंने वैवस्वत मनु के वंश में महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया है। वे अत्यंत वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करनेवाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादा पुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत वत्सल, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं।’
अब ज़रा राम के संपूर्ण चारित्रिक वैशिष्ट्य को जो बाल्मीकि-नारद संवाद में रामायण में आया है, कुबेरनाथ जी के शब्दों में समझें - ‘रामकथा सविता-कथा है। इसकी प्रकृति सूर्यात्मक है और यह द्यु-मण्डल का काव्य है जो सगुण सृष्टि के विकास का ‘आदि’ रूप है। इसी से यह ‘आदिकाव्य’ कहा जाता है। इसका अधिदेवता है विष्णु का सवितारूप जो सोम और अग्नि के ‘विस्तार’ रूपों का आदि बिन्दु है। क्रियाशक्ति-प्रधान होने से यह ‘गार्हस्थ्य’ का महाकाव्य है।
यह बात धनुर्भग के अवसर पर ही स्पष्ट हो जाती है। रामचन्द्र ने जब धनुष तोड़ा तो उसके तीन खण्ड हो गये। वह शिव-पिनाक त्रिगुणात्मक प्रकृति का प्रतीक था जो शिव के वाम भाग में रहती है। ऊपरवाला खण्ड ज्ञान-खण्ड था जो व्योम में चला गया। नीचेवाला खण्ड इच्छा-खण्ड था जो पाताल में प्रवेश कर गया। रह गया मध्य-खण्ड जो क्रिया-खण्ड था। उसे ही राम ने धरती पर रख दिया।
रामावतार में ज्ञान और इच्छा यवनिका के पीछे ठेल दिए जाते हैं। रंगमंच
पर क्रियाशक्ति ही खेलती है। इस काव्य का आदर्श ही है ‘अनासक्त पुरुषार्थ-योग’ ।’ जिसे
राम के चरित्र में पाते हैं ।
राम के क्रिया योग में गृहस्थ धर्म
और नागरिक धर्म का अत्यधिक महत्व है। इसलिए रामकथा में गृहस्थ जीवन का सम्पूर्ण
वृत्त उतर आया है। राम कथा का आधार मानवीय धरातल है। इसमें गृहस्थ और नागरिक शील
है।
कुबेरनाथ जी कहते हैं, ‘कथा के अन्दर अर्थ का त्रिपुर है। मानवीय धरातल पर यह कथा है पारिवारिक शील के आदर्शों की। अधिदैवी धरातल पर यह कथा है देवासुर-द्वन्द्व की, जिसमें राम प्रच्छन्न ‘इन्द्र’ हैं। परन्तु शाश्वत तल पर यह कथा है द्यु-मण्डल के सविता की। राम द्यु-मण्डल के सविता (सगुण परमात्मा), अन्तरिक्ष के इन्द्र तथा पार्थिव-मण्डल के राजा राम तीनों के प्रतीक हैं।
सविता सूर्य का आदिरूप है। इन्द्र भी बारह आदित्यों में से एक है। राघव राम सूर्यवंशी हैं। अतः तीनों स्तर पर राम सूर्य-प्रतीक से जुड़े हैं। कथा में राम को विष्णु का अवतार कहा गया है। विष्णु आदित्य है। विष्णु ही नारायणरूप सविता तथा सहस्रशीर्षा परमात्मा भी है।’ राम सूर्य की ही तरह ‘शरण्यं सर्वभूतानां’ - पुरुष हैं।
सूर्य ‘ऋत’ का नियामक और ऋत का अनुगामी रहता है। उसके ‘ऋत’ (विधान या नियमचक्र) का छन्द कभी पतित नहीं होता, कभी टूटता नहीं। मनुष्य जीवन में ‘शील’ ही ऋतरूप है। राम के शील का छन्द कभी पतित नहीं होता। वे ऋत-मार्ग से कभी भ्रष्ट नहीं होते। इसी से उन्हें ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ कहा गया है।
ऋत की मर्यादा का शत-प्रतिशत निर्वाह सूर्य की ही तरह वे भी करते हैं। रावण इस ऋत को अस्वीकार करता है। फलतः वह ‘अनृत’ का प्रतीक बन जाता है।’
आइये ‘ऋत’ की स्वीकारोक्ति के साथ ‘अनृत’ के प्रतीकों को राम-धाम-पधारने / दर्शन करने का आमंत्रण दें, अन्यथा राम का बुलावा तो सब को एक न एक दिन आयेगा ही क्योंकि राम का शील ही उनका ऋत है !
Thursday, 18 July 2024
saket ki urmila साकेत की उर्मिला
प्रथम तो यह की उर्मिला, यशोधरा या विष्णुप्रिया को उपेक्षित नारी कहना उचित नहीं है और मेरी समझ में यह गुप्त जी को भी उचित नहीं लगता यदि उनसे कोई कहता तो । उन्होंने तो वास्तव में रविन्द्र नाथ टैगोर के आलेख से यह शब्द ले लिया। इसलिए यह कहना उचित होगा की राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने भारतीय काव्य में ओझल नारियों का अपने काव्य हेतु चयन किया। उन्होंने अपने काव्य में एक ओर भारतीयता, संस्कृति, राष्ट्र, समाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठित किया, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के अंत:सम्बंधों के आधार पर इन्हें नवीन बोध भी प्रदान किया है।
एक घड़ी भी बीत न पाई, बहार से कुछ वाणी आई ।
और कविवर जनक का परिचय कुछ इस प्रकार कराते हैं-
साकेत का नवम सर्ग उर्मिला के उच्छवासों और तप्त आंशुओं से भीगा हुआ है। उर्मिला अपने आराध्य की प्रतिष्ठा करके अपने आप आरती की ज्वाला बनकर जल रही है-
एक-एक पल पर्वत सा प्रतीत होता है, किन्तु विरह के इस वृहत काल को तो गुजारना ही होगा। वेदना से उर्मिला का संवाद –
यह निश्चय करके उर्मिला सेवा का मार्ग अपना लेती है। वह अपनी सासों की सेवा करती है, रसोई बनाती है-
किसानों की दशा पूछती रहती है-
Sunday, 7 July 2024
बाजार और साहित्य
कामायनी, श्रद्रा का चरित्र- चरित्र
श्रद्धा
का चरित्र-चित्रण
प्रो उमेश कुमार सिंह
‘कामायनी’ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित आधुनिक काल का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है। जिसके मुख्य पात्र मनु, श्रद्धा और इड़ा हैं। यह एक कठिन और प्रौढ़ कृति है। कामायनी में जहाँ एक ओर युग चिंता है तो दूसरी ओर कलात्मक अभिव्यक्ति से भरी दृष्टि भी । कामायनी को आलोचक सघन छायावादी प्रबंधकाव्य भी मानते हैं ।
प्रसाद जी ने कामायनी की कथा और उसके पत्रों को ऐतिहासिक माना है। आमुख में वे लिखते है, “ आर्य साहित्य में मानवों के आदिपुरुष मनु का इतिहास वेदों से लेकर पुराणों और इतिहास में बिखरा हुआ मिलता है। मन्वंतर के अर्थात् मानवता के नवयुग के प्रवर्तक के रूप में मनु को ऐतिहासिक पुरुष ही मानना उचित है ।”
साथ ही प्रसाद जी कामायनी के रूपक तत्वों पर भी विचार करते हुए कहते हैं, “ यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाध्य है । यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है। इसलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए सांकेतिक अर्थ की अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमशःश्रद्दा और इड़ा से भी लग जाता है ।”
वस्तुतः इस संसार में असाधारण अवस्था में जड़-चेतन सभी समरस दिखाई देते हैं । सुन्दर साकार अद्वैत चेतना शोभित होती है। जिससे सघन आनन्द की अनुभूति होती है । प्रसाद जी कामायनी के माध्यम से अन्तर्जगत और बहिर्जगत का सामरस्य ही जीवन की चरम सिद्धि है, को प्रतिपादित करते हैं। इस तरह सृष्टि के उद्भव और विकास के मूल में सामरस्य से आनन्द की सिद्धि ही ‘कामायनी’ का उदेश्य है।
विश्व की करुण कामनामूर्त श्रद्धा जगत में स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली मनु के जीवन की वास्तविक पथ प्रदर्शिका है। मनु के निराश एवं व्यथित जीवन में कर्म की प्रेरणा उत्पन्न करने वाली श्रद्धा उन्हें,‘तप नहीं, केवल जीवन सत्य का पाठ’ पढ़ा कर, कर्तव्य की ओर अग्रसर करती है। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि न लिया जाये की श्रद्धा तप के महत्व को नकार रही है ( इसे अंतिम बिंदु में देखेंगे)। मनु को उत्साहित कर उनके सम्मुख प्रगति एवं मानवता के विकास का द्वार खोलती है। जिसके माध्यम से संपूर्ण विश्व के कल्याण का पथ-प्रदर्शित होता है ।
श्रद्धा के चरित्र की विशेषताएं इस प्रकार समझी जा सकती हैं-
1. सच्ची प्रेमिका एवं आदर्श पत्नी: व्यापक चरित्र- श्रद्धा का चरित्र अत्यंत व्यापक है। उसकी छाया केवल मनु को ही शीतलता प्रदान नहीं करती, वरन् उसका प्रेम प्राणि-मात्र के लिए है। उसके स्पर्श से सारी वसुधा चेतनशील बनती है। सारी वसुधा इसका कुटुंब है। मनु की प्रणयिनी के रूप में वह उनके उदास जीवन में आशा की किरण भर देती है। वह मनु के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण के साथ दांपत्य प्रेम का निर्वहन करती है।
मनु एक रात उसे छोड़कर भाग जाते हैं। गर्भवती श्रद्धा के ऊपर बज्रपात होता है।इसकी सारी आशाएं धूल में मिल जाती हैं। परंतु वह विचलित नहीं होती। वह प्रेम के वास्तविक महत्व को समझती है। उसका प्रेम महान था। उसे मनु पर तनिक भी रोष नहीं होता। विरह के दिन भी वह अपने पुत्र मानव के साथ समय व्यतीत करती है और यह कामना करती है कि मनु जहां भी रहे सुखी रहें। उसके तपस्या का ही परिणाम था कि एक दिन मनु उसे प्राप्त होते हैं और उसका आनंद लोक भरा जीवन फिर से प्रारंभ हो जाता है।
मनु द्वारा त्याग दिए जाने के बाद भी वह उनसे प्रेम करती है और सारस्वत प्रदेश पहुँच कर उनका उद्धार करती है और अंत में ग्लानि से भरे हुए मनु के मन को शांत कर उसको आनंद से भर देती है। वह मनु के सामने सुनहरे सपनों का राज्य खड़ा कर देती है। तात्पर्य यह कि श्रद्धा का चरित्र अत्यंत व्यापक एवं महान है।
श्रद्धा का संपूर्ण जीवन दूसरों की भलाई और मंगल कामना के लिए समर्पित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उसे रागात्मिका वृत्ति माना है क्योंकि उसका स्वच्छ ह्रदय रत्ननिधि है जो दया, माया, ममता, क्षमा, मधुरिमा, सहानुभूति विश्वास से अनुप्राणित है। वह मनु के समक्ष बिना शर्त निःस्वार्थ समर्पण द्वारा उनके हृदय के तारों को जोड़ देती है। फलतः वे दुबारा कर्मपथ पर अग्रसर होते हैं। वह प्रलय की फलश्रुति के रूप में शक्ति के जो विद्युत्कण निरुपाय होकर बिखर गए हैं, उन्हें दुबारा समन्वित करके सम्पूर्ण मानवता को विजयिनी बनाना चाहती है।
शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त
विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय।
समन्वय उनका करें समस्त
विजयिनी मानवता हो जाय ॥
वह मनु पर पड़े आसुरी प्रभावों को निष्प्रभ करने का प्रयत्न करती है। उन्हें हिंसा से विमुख करके सत्कर्मों की ओर भारतीय चेतना के साथ उन्मुख करती है-
अपने में भर सबकुछकै से व्यक्ति विकास करेगा
यह एकान्त स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।
औरों को हँसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ ॥
2. आत्म विस्तार की साकार प्रेरणा: श्रद्धा बाहर से जितनी सौम्य और महान है उसका अंतर्मन भी उतना ही विशाल है। प्रेम की सीमा उसके परिवार तक सीमित नहीं। वह निरंतर अपना आत्म विस्तार करती है, उसका चरित्र अत्यंत दृढ़ है। परिणाम मनु के हृदय की काली छाया समाप्त हो जाती है।
सब का सुख उसके जीवन का लक्ष्य है। इड़ा के सम्मुख भी नवीन जीवन दर्शन का मार्ग प्रशस्त कर उसे शासक बनाती है। प्रसाद जी ‘कामायनी’ में जगत् की अकेली मंगल कामना श्रद्धा के माध्यम से विश्व मानवतावाद की प्रतिष्ठा भी करते हैं। कवि ने श्रद्धा के माध्यम से इस दुख-दग्ध जगत की मनुष्यता को ‘मधुरिमा में अपना ही मौन एक सोया सन्देश महान’ देने का कार्य किया है।
श्रद्धा विश्व मानवता की प्रतिष्ठा करते हुए मनु को संग्रह वृत्ति से बचने और सबको सुखी बनाने के लिए प्रेरित कराती है । प्रसाद जी ‘कामायनी’ में जगत् की अकेली मंगल कामना श्रद्धा के माध्यम से विश्व मानवता की प्रतिष्ठा भी करते हैं। वह स्पष्ट शब्दों में कहती है कि सुख को स्वयं में केन्द्रित करके मनुष्य न तो खुद सुखी रह सकता है और न ही इस संसार को सुखी बना सकता है। यदि कलियाँ ही सारा सौरभ अपने भीतर बंद का लें और मकरंद की बूँदें विखेरने से पलट जाएँ तो क्या होगा ? ऐसी स्थिति में उनका खिलाना ही संभव नहीं।
ये मुदित कलियाँ दल में सब सौरभ बंदी का लें।
सरस न हो मकरंद बिंदु से खुलकर तो ये मर लें
सूखे झड़े और तब कुचले सौरभ को पाओगे ।
फिर आमोद कहाँ से मधुमय वसुधा पर लाओगे
फिर श्रद्धा मनु की उस नई मानवता पर भी प्रश्न करती है जिसकी वे रूप रचना करने जा रहे हैं। वह अत्यन्त चिन्तित है और सोचती है कि मनु ऐसी किस मनुष्यता का विकास करना चाहता है जिसमें एक दूसरे के खा जाने की प्रवृत्ति प्रबल हो :
मनु! क्या यही तुम्हारी होगी उज्ज्वल नव मानवता?
जिसमें सब कुछ ले लेना हो हंत, बची क्या शवता?
प्रसाद की श्रद्धा मनु द्वारा विकसित मानवता की समीक्षा के उपरान्त उनका उन्नयन करती है। उनमें ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की विराट भावना भरकर यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि सबकी सेवा ही अपनी सेवा है। इसी में अपना सुख है। अणु-अणु अपने हैं। यह चेतना ही मनु को भेद-मुक्त करती है जिससे वे पूर्णतः अभाव मुक्त हो जाते हैं। वे अन्ततः श्रद्धा के माध्यम से शक्ति के विद्युत्कणों के समन्वय द्वारा मानवता को विजयिनी बनाने का विकल्प उपलब्ध कराते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा है , “ ज्ञान प्रसार के ही भीतर भाव प्रसार होता है , मनुष्य में ज्ञान -प्रसार के साथ -साथ भाव -प्रसार क्रमशः बढ़ता गया है । अपने परिजनों , अपने सम्बन्धियों , अपने पड़ोसियों, अपने देवासियों तथा मनुष्य-मात्र और प्राणी -मात्र तक से प्रेम करने भर को जगह उसके ग्रिदय में बन गई है ।”
3- लोकमंगल और विश्व प्रेम की उपासिका: श्रद्धा दया, माया, ममता, शक्ति, साहस और प्रेम आदि गुणों की साक्षात मूर्ति है। मनु को निराश्रित एवं असहाय अवस्था में देखकर उसका ह्रदय द्रवीभूत हो जाता है। वह उनकी जीवन संगिनी बनकर उसको क्रियाशील बनाने को तत्पर हो उठती है। अपनी सहज प्रवृत्तियां से वह मनु को एक नवीन संस्कृत की प्रतिष्ठा करने को प्रेरित करती है। अपनी सहज दृष्टि के कारण मानवता की प्रतिष्ठा करती है वह कहती है-
‘दया, माया, ममता लो आज,
मधुरिमा लो अगाध विश्वास।
हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ
तुम्हारे लिए खुला है पास।।’
तभी तो आचार्य शुक्ल लिखते हैं , “ श्रद्धा करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, वह दूसरों की पीड़ा का संवेदन ही तो है।” मनु के लिए जो सवेदन केवल इन्द्रिय बोध है, वही प्रजा के लिए अनुभूति -
‘हम संवेदनशील हो चले, यही मिला सुख
कष्ट समझाने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुःख’
कामायनी जैसे महाकाव्य के लिए यह आवश्यक था कि महत्कार्य की सिद्धि प्राप्ति के लिए एक प्रेरक और अनुकरणीय चरित्र की उद्भावना भी हो। प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ को नायिका-प्रधान महाकाव्य बनाया । महाकाव्य में यदि मनु आधुनिक मनुष्य की मानसिक जटिलताओं और बौद्धिक-वैज्ञानिक संस्करण के प्रतीक हैं तो श्रद्धा प्रसाद के आदर्शों, मूल्यबोध और भारतीय नारी के श्रेष्ठतम गुणों का समन्वित रूप है ।
श्रद्धा का व्यक्तित्व नारी के अप्रतिम गुणों से अनुप्राणित है। उसमें प्रसाद साहित्य के सभी स्त्री पात्रों के चरित्र का समुच्चय देखा जा सकता है। चाहे तितली का साहस, देवसेना का त्याग, अलका की शक्ति, मधूलिका का देश प्रेम और साल्वती का सौन्दर्य या कमला का रूप सभी मानो एक साथ घनीभूत हो उठे हैं। प्रसाद ने उसे मानवीय सद्वृत्तियों तथा सद्भावों के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है। फलत: वह श्रेय और प्रेय का समन्वित रूप है। ‘श्रद्धा’ सर्ग में ‘कामायनी’ के रूप -वर्णन के द्वारा रहस्य -भावना की बड़ी ही अनूठी व्यंजना हुई है -
और देखा वह सुंदर दृश्य
नयन का इंद्रजाल अभिराम;
कुसुम -वैभव में लता सामान
चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम
4 . मातृत्व की अनुपम विभूति: श्रद्धा का संपूर्ण जीवन लोकमंगल के लिए समर्पित है। वह नहीं चाहती की सभ्यता के पापों का फिर से प्रभाव बढ़े। वह इस कलंक को सदा के लिए धोना चाहती है। मनु से आग्रह करती है-
‘बनो संसृति के मूल रहस्य,
तुम ही से फैलीगी वह बेल,
विश्व भर सौरभ से भर जाये
सुमन के सुंदर खेलो खेल।।’
‘समर्पण लो सेवा का सार,
सजल संसृति कि यह पतवार
आज से यह जीवन उत्सर्ग
इसी पदतल में विगत विकार।।’
परिणाम यह होता है कि मनु कर्म में रत होते हैं। श्रद्धा का सहयोग उनके सुखों का सूचक होता है। परंतु आसुरी वृत्तियों से प्रभावित मनु उसके इस समर्पण का रहस्य समझ नहीं पाते। वे इसे शरीर का ही समर्पण समझते हैं और उसकी जड़ देह में ही अनुरक्त हो जाते हैं। परिणामत: मनु के सामने बाधाओं का नवीन इतिहास साकार होना प्रारंभ हो जाता है।
श्रद्धा समझती है कि वह माता है उसका अपना एक ‘मानव’ नाम का पुत्र है। उसे माता के कर्तव्यों का पालन करना है। वह पुत्र मानव पर पति वियोग की छाया नहीं पड़ने देती। सपने में मनु के ऊपर आई विपत्ति को देख वह मानव के साथ सारस्वत प्रदेश पहुंच जाती है। उसे देख घायल मनु अपने दुख को भूल जाते हैं और उन्हें श्रद्धा साक्षात मातृत्व की मूर्ति दिखाई पड़ती है-
‘मनु ने देखा कितना विचित्र
वह मातृमूर्ति थी विश्वमूर्ति।’
श्रद्धा समकालीन साहित्य जगत् की अकेली मंगल कामना है । उसके शरीर का प्रत्येक परमाणु अनन्त रमणीय सौन्दर्य से उद्भासित है । प्रसाद की यह अल्हड़ किशोरी अप्रतिम सौन्दर्य का साकार विग्रह होकर भी अतिशय संवेदनशील भी है। वह हृदय के सुन्दर सत्य की खोज में निकली है और उसे हिमालय को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो एक छोर से दूसरे छोर तक धरती में सिकुड़न पड़ गई है। इस तरह प्रसाद ने हिमालय के लिए जिस बिम्ब का सृजन किया है, वह सर्वथा मौलिक, ताजा और अनछुआ है। उसकी यही संवेदनात्मक दृष्टि हिमालय के भीतर ‘मधुरिमा में अपनी ही मौन, एक सोया सन्देश महान’ का संधान कर लेती है। यह प्रलयकाल के सर्वग्रासी तांडव से निराश, दुखी और विरक्त मनु में जीवन के प्रति आसक्ति एवं स्वीकृति का भाव भरती है। वह ‘तप नहीं केवल जीवन सत्य’ की प्रतिष्ठा द्वारा विश्व की दुर्बलता और पराजय को शक्ति एवं विजय में रूपान्तरित करने का मंत्र देती है:
‘विश्व की दुर्बलता बल बने, पराजय का बढ़ता व्यापार।
हँसाता रहे उसे सविलास, शक्ति का क्रीड़ामय संसार ।।
श्रद्धा के बहुआयामी व्यक्तित्व के अन्तर्गत उसका गृहिणी रूप भी आता है। वह आदर्श गृहिणी की भाँति गृह-सज्जा में रत होती है। वह पशुओं के ऊन से वस्त्र के लिए तकली भी चलाती है और अपने होनेवाली संतान के लिए सुख का आयोजन करती है। वह शिशु मानव को जन्म देकर उसके पालन-पोषण, संस्कार अस्तित्व निर्माण का दायित्व भी निभाती है। नारी का चरम रूप उसका मातृत्व है, जिसे प्रसाद जी ने श्रद्धा के माध्यम से साकार किया है। वह प्रणयन मनु द्वारा ठुकराए जाने के बावजूद उसकी विपत्ति सहचरी बनती है। जब मनु इड़ा पर अतिचार करने के लिए उद्यत होते हैं और उन्हें प्रजा घायल कर देती है तब श्रद्धा वहां पहुंचकर न केवल उनका उपचार करती है अपितु ‘म्यूजिकल थेरेपी’ द्वारा उन्हें होश में भी लाती है।
भारतीय नारी की मूर्ति है। श्रद्धा के चरित्र में हमें भारतीय नारीत्व का चरम मिलता है। वह समस्त भारतीय नारी जाति की आदर्श है। उसकी सबसे महान विभूति है- दया, ममता एवं मानव कल्याण। ह्रदय से महान श्रद्धा का सौंदर्य अनुपम है। उसकी स्नेहमयी वाणी और उसका रूप सौंदर्य ही मन को उसके प्रेम में बद्ध कर देता है। प्रसाद जी कहते हैं, वह शरीर से जितनी सुंदर है, आत्मा से भी उतनी महान है -
‘हृदय की अनुकृति वाह्य उदार
एक लंबी काया उन्मुक्त,
मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल,
सुशोभित हो सौरभ संयुक्त!’
5 . साहस, विश्वास और दृढ़ निश्चय की अटल प्रतीक: श्रद्धा इच्छा, ज्ञान और कर्म की समन्वयककारिणी है। श्रद्धा विश्वास की अनुपम प्रतीक है। उसका यह विश्वास उसे आदि से अंत तक अपने आदर्शों में स्थिर रखता है। उसे अपने कर्तव्यों का भली-भांति ज्ञान है। उसका ह्रदय स्फटिक के समान स्वच्छ है। उसके हृदय में छल या संशय नहीं है। मनु उससे छल करते हैं। फिर भी उसे आत्मविश्वास है कि उसका पति उसे अवश्य मिलेगा। ‘वह भोला इतना नहीं छली
मिल जाएगा हूं प्रेम पली।।’
श्रद्धा अपनी स्मृति मात्र से इच्छा, ज्ञान और कर्म के बिंदुओं का एकीकरण करती है। जीवन में संघर्ष, विप्लव का मूल कारण है- इच्छा, ज्ञान एवं कर्म के बिंदुओं का अलग-अलग होना। इन तीनों का समन्वय ही जीवन में सुख एवं शांति का सूचक है। इसी कारण श्रद्धा अस्थिर एवं आकुल मन को इच्छा, ज्ञान एवं कर्म के प्रदेशों में घूमाती हुई अपने स्मृति में उनका एकीकरण करती है। यह संपूर्ण मानवता के लिए संदेश है।
श्रद्धा का साहस एवं उसका निश्चय ही उसे महान बनाता है । मनु जब घबरा उठे हैं, उनके हृदय में उथल-पुथल मचती है तब श्रद्धा ही उन्हें मुस्कुराती हुई शांत करती है। प्रवल झंझावात, भीषण तूफान उसे नहीं रोक पाते। थके हुए मनु को अपने वचनों से वह शांति प्रदान करती है। मनु कहते हैं-
‘ कहां ले चली हो अब मुझको,
श्रद्धे ! मैं थक चला अधिक हूं,
साहस छूट गया है मेरा,
निस्संबल भग्नाश पथिक हूं।।’
‘लौट चलो इस वात चक्र से,
मैं दुर्बल अब चल न सकूंगा!!’
परंतु आगे बढ़कर लौटना श्रद्धा के लिए मान्य नहीं। वाह सांत्वना प्रदान करती हुई कहती है-
‘दे अवलंब विकल साथी को
कामायनी मधुर स्वर बोली,
हम बढ़ दूर निकल आए अब,
करने का अवसर न ठिठोली।’
‘ घबराओ मत, यह समतल है,
देखो तो हम कहां आ गए
मनु ने देखा आंख खोलकर
जैसे कुछ कुछ त्राण पा गये!!!"
उसके चरित्र की विराटता, पर दुख कातरता और भव्यता के प्रति मनु नतमस्तक होकर उसे ‘सर्वमंगला’ की उपाधि देते हैं। वह इसे सार्थक करते हुए अपने स्मिति के प्रभाव से इच्छा-क्रिया-ज्ञान लोक को परस्पर सयुंक्त और समरस कर देती है, जिससे मनु ही नहीं इड़ा, मानव समेत समस्त सारस्वतवासी अखंड आनंद में डूब जाते हैं ।
प्रसाद जी इसके व्यक्तित्व का विकास विश्व कल्याणी के रूप में करते हैं और स्वयं उसे जगत की अकेली मंगल कामना कहते हैं। वह मानसरोवर के तट पर विकसित एक ज्योतिष्मती वनबेली है । वह विश्व की पुलकित चेतना और पूर्ण काम की प्रतिमा है । वह चेतना का उज्ज्वल वरदान है और वसुधा का गौरव जिसके विहंसने से जग-जग मुखरित हो उठाता है । वह कामायनी के प्रकर्ष पर पहुंचकर आदर्श एवं अप्रतिम भारतीय नारी के व्यक्तित्व का अतिक्रमण करते हुए विश्व कल्यान्मायी अलौकिक नारी में रूपांतरित हो जाती है ।
उसके व्यक्तित्त्व की उज्ज्वलता से महाकाव्य को भी अपूर्व अर्थदीप्ति प्राप्त होती है । तात्पर्य यह की इससे अधिक भव्य, ललित, उद्दात्त और अनंत रमणीय सौन्दर्य से युक्त, सर्वगुण संपन्न नारी चरित्र आधुनिक महाकाव्यों में दुर्लभ है । वास्तव में श्रद्धा का चरित्र कामायनी का मेरुदंड है ।
6 . प्रेम और त्याग की अनुकरणीय आदर्श: श्रद्धा के जीवन का सबसे महान पक्ष त्याग है। प्रेम और त्याग की श्रद्धा प्रतिमा है। अपना सर्वस्व लुटा कर वह मानवता का कल्याण करती है। उसका मन इड़ा को भी अपने में समेट लेने को मचल उठता है। जब इड़ा उससे क्षमा मांगती है तब श्रद्धा मुड़ कर दुखित इड़ा को गौर से देखती है, ‘पीछे मुड़ श्रद्धा ने देखा,
वह इड़ा मलिन छवि की रेखा।
ज्यों राहु ग्रस्त सी शशि लेखा
जिस पर विषाद की विष रेखा।।"
इड़ा के इस रूप को देखकर उसका ह्रदय द्रवित हो उठता है-
‘बोली, तुमसे कैसी विरक्ति,
तुम जीवन की अंधांनुरक्ति,
मुझसे बिछुड़े को अवलंबन,
देकर तुमने रखा जीवन तुम आशामयि!’
‘चिर आकर्षण तुम मादकता की अवनत धन,
मनु के मस्तक की चिर अतृप्ति,
तुम उत्तेजित चंचला शक्ति।।’
वह आगे कहती है-
‘मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ , मैं पाती हूं, खो देती हूँ ।’
‘इससे ले उसको देती हूँ , मैं दुख को सुख कर लेती हूँ ।’
‘अनुराग भरी हूं मधुर घोर, चिर विस्मृति सी हूं रही डोल!!!’
श्रद्धा के चरित्र की पराकाष्ठा यह है कि वह अपने एकमात्र पुत्र मानव को भी इड़ा सौंप देती है-
‘तू क्षमा न करो कुछ आ रही,
जलती छाती की दाह रही,
तो ले ले जो निधि पास रही,
मुझको बस अपनी राह रही!!’
‘मैं अपने मनु को खोज चली,
सरिता, मरु, नग या कुंजगली-
वह भोला इतना नहीं छली,
मिल जाएगा हूं प्रेम पली।।’
और मानव के पूछने पर-
‘मां मुझे छोड़कर कहां जा रही हैं?
मुझे इस प्रकार अकेला ना छोड़।’
वह उत्तर देती है-
‘ है सौम्य! इड़ा का शुचि दुलार-
हर लेगा तेरा व्यथा भार।
यह तर्कमयी तू श्रद्धय,
तू मननशील कर कर्म अभय-
इसका तू सब संताप निश्चय ,
हर ले ! हो मानव भाग्य उदय,
सबका समरसता का प्रचार,
मेरे सुत! सुन मां की पुकार।।"
इस प्रकार श्रद्धा का चरित्र प्रेम
और त्याग से भरा है। वह मानवता की प्रगति, विश्व कल्याण हेतु समर्पित है।
कामायनी के इस चरित्र को आज विश्व यदि ग्रहण करें तो मानव के सारे
ग्रहण दूर हो सकते हैं।