Wednesday, 24 July 2024

दुंदुभी



पुराने वर्ष के कर्मों की दुंदुभि
आगत वर्ष के हर पृष्ठ पर
छोड़ रही है काल झंझा से
मर्माहत -उन्मादी थाप 

यद्यपि युग दे रहा है
बदलाव का संकेत 
तथापि हम अंजान अबोध से 
एक नये हृदयहीन अध्याय के 
नये पृष्ठ पर 
निर्मम इतिहास के लिए
लिख रहे हैं अर्थार्थी काव्य।

बर्बादियों की प्रेतात्मा 
भविष्य के अग्रदूत को 
घसीटकर
खड़ा करेगी भारती के भाल पर ?

या
ध्वस्त होगी बर्बरता ?
होगा नव-युग निर्माण 
राम-रज शिला पर ?
नष्ट होगी श्याम-स्याह
दासता की मानसिकता 
क्या-क्या रह सकेगा शेष ?

जलतरंगी नये पृष्ठों पर
घड़ी आ गई है 
स्वर्ण अक्षरों के गुम्फन के लिए 
बज रहे नगाड़ों में
सप्त स्वरों के कालातीत युग्म!!

चल रहा सदियों से 
वीभत्स उत्सव 
रुकेगा 
सजकर प्रेम और मृत्यु के 
भयंकर नृत्य में ।

तपःपूत पावन मनुष्य का
श्रम मोती 
लोभ बंद सीपी से परे
हिरण्यमयी चिता भस्म पर समाधि लेगा!!!

आगत सृष्टि के लिए 
कालजयी सुरध्वनि
कर सकेगी नई सर्जना का सूत्रपात ।

व्यथा से उन्मुक्त होकर 
आस्था को दृढ़मूल करने
लिखूंगा नया पृष्ठ
हे नरोत्तम!
शुभ संकेत होगा
फिर तुम्हारे रामराज्य का।

Sunday, 21 July 2024

ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी है

 ॐकार नाम है,  परमेश्वर नामी है ।

              ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं  ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवातु । अवतु माम्। अवतु वक्ताराम्। ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद )

स्वर और वर्णों के उच्चारण -

     महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है - 

दुष्ट: शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । 

स वाग्वज्रो यजमानम हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोऽपराधात । । 

अर्थात  स्वर या वर्ण की अशुद्धि से दूषित शब्द ठीक -ठीक प्रयोग न होने के कारण अभीष्ट अर्थ का वाचक नहीं होता । इतना ही नहीं, वह वचन रुपी वज्र यजमान/ प्रयोगकर्ता को हानि भी पहुंचाता है । जैसे  ‘इंद्रशत्रु’ शब्द में स्वर की अशुद्धि हो जाने के  कारण ‘वृतासुर’ स्वयं ही इंद्र के हाथ मारा गया।

     अत: वेद मंत्रों का उच्चारण शिक्षा के अनुसार करना चाहिए । ‘क’ ‘ख’ आदि व्यंजन वर्णों और ‘अ’,’आ’ आदि स्वर वर्णों का उच्चारण स्पष्ट करना चाहिए ।  

दन्त्य ‘स’ के स्थान पर तालव्य ‘श’ या मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण नहीं करना चाहिए । ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का उच्चरण नहीं करना चाहिए । (इसे बोलियों के संदर्भ में न लें, यथा -अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी।  यह संस्कृत के मंत्रों के सम्बन्ध में व्याकरणगत सावधानी है)

मन्त्रों में स्वर भेद होने से अर्थ बदल जाता है । हस्व, दीर्घ और प्लुत आदि के मात्रा भेद को भी समझ कर उच्चारण करना चाहिए । 

हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व का उच्चारण करने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे सीता और सिता ।

इसलिए बल, प्रयत्न, संधि, संहिता और महासंहिता आदि को विद्वानों, शोधार्थियों, शिक्षकों को ठीक से समझना चाहिए।

बल, प्रयत्न, संधि, संहिता और महासंहिता -

 ‘बल’ का अर्थ है ‘प्रयत्न’ । वर्णों के उच्चारण में उनके ध्वनि को व्यक्त करने में जो प्रयास करना पड़ता है,वही ‘प्रयत्न’ कहलाता है । 

‘प्रयत्न’ दो प्रकार के होते हैं । ‘आभ्यांतर और बाह्य’ । आभ्यांतर के पांच और बाह्य के ग्यारह भेद होते हैं ।

 स्पृष्ट, ईषत्-स्पृष्ट, विवृत, ईषद-विवृत, सवृत- ये पांच आभ्यांतर हैं । विवार, संवार, श्वांस, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उद्दात्त, अनुदात्त और स्वरित-ये बाह्य प्रयत्न हैं ।

 ‘क’ से लेकर ‘म’ तक के अक्षरों का अभ्यान्तर प्रयत्न ‘स्पृष्ट’ है; क्योंकि कंठ आदि स्थानों में प्राणवायु के स्पर्श से इनका उच्चारण होता है 

 ‘क’ का बाह्य प्रयत्न विवार, श्वांस, अघोष तथा अल्पप्राण है । 

वर्णों का संवृति से उच्चारण  या साम-गान की रीति ही ‘साम’ है । 

संतान का अर्थ है ‘संहिता’-संधि । 

स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं । 

इस प्रकार वर्णों का यह  संयोग जनित विकृति भाव- ‘संधि’ कहलाती है ।

 किसी स्थान विशेष स्थल में जहां ‘संधि’ बाधित होती है, वहां वर्ण में  विकार नहीं आता, अत: उसे ‘प्राकृति भाव’ कहते हैं । वर्णों का उच्चारण इन्हीं छह नियमों से होता है ।

      वर्णों में जो संधि होती है, उसे ‘संहिता’ कहते हैं । वही संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है, तब उसे ‘महासंहिता’ कहते हैं । 

‘संहिता’ या ‘संधि’- व्यंजन, स्वरादि, विसर्ग और अनुस्वार ये पांच प्रकार की होती है; इन्हें संधि के पांच आश्रय कहा जाता है ।

 महासंहिता या महासंधि के भी पांच आश्रय- लोक, ज्योति, विद्या, प्रजा और आत्मा (शरीर) कहते हैं । 

संधि के भाग -

प्रत्येक संधि के  चार भाग होते हैं - पूर्ववर्ण, परवर्ण, दोनों के मेल से होने वाला रूप तथा दोनों का संयोजक नियम । उदाहरण के साथ समझें -

पृथ्वी यह लोक ही पूर्व रूप है, स्वर्ग ही संहिता का उत्तर रूप (परवर्ण )हैं । आकाश या अन्तरिक्ष ही इन दोनों की संधि है और वायु इनका संधान (संयोजक) है । प्राणों के द्वार ही मन और इन्द्रियों के सहित जीवात्मा का प्रत्येक लोक में गमन होता है । 

      अग्नि इस भूतल पर सुलभ है, अत: उसे संहिता का ‘पूर्ववर्ण’ माना है और सूर्य द्युलोक में प्रकाशित होता है; अत: उसे उत्तर रूप कहते हैं । इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ‘मेघ’ ही संधि है । तथा ‘विद्युत् शक्ति’ ही इस संधि की हेतु (संधान) बतायी गयी है । 

  इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है, और इन सबकी उत्पति विजली को कारण बताया गया, ऐसा अनुमान होता है । 

  आज का वैज्ञानिक भी बिजली को सब प्रकार के विकास का  कारक मानता है, यह बात हमारे ऋषियों ने  वेद में पहले ही बता दी थी, किन्तु परम्परा के नष्ट हो जाने से यह समझाने में दुर्लभ समझा जाता रहा है ।

        इस वेद या विद्या को समझाने के लिए आचार्य को पूर्व रूप पहला वर्ण माना गया है । अन्तेवासी शिष्य उत्तररूप वर्ण है।  दोनों के मिलन (संधि) से उत्पन होने वाली विद्या है, तथा गुरु के प्रवचन को श्रद्धापूर्वक सुनकर उस विद्या को धारण करना ‘संधान’ है।

 इसी आधार पर संतान उत्पति को लेकर माता को पूर्वरूप , पिता को उत्तररूप तथा संतान उत्पान हेतु उद्देश्य ‘संधान’ तथा संतान का उत्पन्न होना ‘संधि’ है । 

यही सूत्र मुख को संहिता, नीचे के जबड़े को पूर्वरूप, ऊपर के जबड़े को परवर्ण, दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा  जिह्वा (वर्ण के उत्पन्न होने से ) ‘संधान’ है । 

इस प्रकार इन मन्त्रों के द्वारा महासंहिताओं के माध्यम से विद्या, संतान, वाणी प्राप्त कर संसार के तत्वों को प्राप्त किया जाता है । 

 ॐकार नाम है,  परमेश्वर नामी

      उपनिषदों में ॐ को सर्वश्रेष्ट मन्त्र कहा गया है । यह ईश्वर स्वरुप है । इसके उच्चारण का फल परमेश्वर सम्पूर्ण वेद(ज्ञान) का फल देता है।

 ॐकार नाम है,  परमेश्वर नामी है । इस ईश्वर से हमें मेधा (धीर्धारणावती मेधा) प्राप्त हो जिससे हम इसकी अहेतुकी कृपा प्राप्त कर सकें ।

 मेरा शरीर निरोगी हो, उपासना में बिघ्न न पड़े, जिह्वा अतिशय मधु हो, कानों से कीर्तन सुनें आदि-आदि मन्त्रों का आह्वान कर स्वाहा (इस उद्देश्य के लिए यह आहुति है ) कहें -

 “यथाऽऽप: प्रवत्ता यन्ति अथा मासा अहर्जरम । एवं मां ब्रह्मचारिणी धारारायान्तु सर्वत: स्वाहा ।

 अर्थात जिस प्रकार जल प्रवाह नीचे की ओर बहते-बहते समुद्र में मिल जाते हैं तथा जिस प्रकार दिन का अंत करनेवाले संवत्सररूप काल में जा रहे है, हे विधाता ! उसी प्रकार सब ओर से ब्रह्मचारी मेरे पास आयें और मैं उनकों कल्याण का उपदेश देकर कर्तव्य पथ पर चलने का मार्ग दिखा कर आप की आज्ञा का पालन कर सकूं।

उपनिषदों में  व्याहृति - भू:, भुवः, स्वः और ‘मह:’ -

    उपनिषदों में भू:, भुवः, स्वः और चौथी व्याहृति ‘मह:’ है और यही ‘मह:’ ब्रह्म है । भू: यह पृथ्वीलोक है तो  भुवः यह अन्तरिक्ष लोक और स्वः यह स्वर्गलोक है । 'मह:' यह  सूर्यलोक है । 

अर्थात्  ‘भू:, भुवः, स्वः’ यह तीनों व्याव्हृतियाँ परमेश्वर के विराट शरीर रुपी इस ब्रह्माण्ड को बताने वाली हैं तो  ‘मह:’ यह चौथी व्याव्हृति परमेश्वर के आत्मस्वरूप है।

 ‘भू:’ यह व्याहृति अग्नि का नाम होने से मानों ‘अग्नि’ ही है ।  यह ज्योतिस्वरूप है । ‘भुवः’ यह वायु स्वरुप है । वायु देवता त्वक -इन्द्रिय स्पर्श को प्रकाशित करनेवाली ज्योति और त्वचा भी समझना चाहिए ।

 ‘स्वः’ यह सूर्य है ।  सूर्य चक्षु -इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता है ।  ‘मह:’ यह  मनो चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का देवता है । मन के कारण ही सभी इन्द्रिया क्रियाशील रहती हैं अत: मन ही  प्रधान है ।

 भू: ऋग्वेद , भुवःसामवेद, स्वःअजुर्वेद और मह: यह ब्रम्ह है । भू: प्राण, भुवःअपान, स्वःव्यान और मह अन्नं है । अन्न में ही सभी प्राण महिमायुक्त होते हैं , अत: ‘मह:’ ही ब्रह्म स्वरुप प्राण है । ( पंचम अनुवाक )

          ह्रदय के भीतर जो अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाला आकाश है, उसी में विशुद्ध प्रकाश स्वरुप अविनाशी मनोमय अंतर्यामी पर पुरुष पमेश्वर विराजमान हैं, वहीं उनका साक्षात्कार हो जाता है । 

मनुष्यों के मुख में  तालुओं के बीचों बीच  जो एक थान के आकार का मांस -पिंड लटकता है, जिसे  बोलचाल की भाषा में ‘घंटी’ कहते हैं, उसके आगे केशों का मूलस्थान ब्रह्मरन्ध्र है; वहां ह्रदय देश से निकलकर घंटी के भीतर से होती हुई दोनों कपालों को भेद कर गई हुई है , जो सुषुम्ना नाम से प्रसिद्ध  नाड़ी है,  वही उन इंद्र नाम से कहे जाने वाले परमेश्वर की प्राप्त का द्वार है ।

 अन्तकाल में वह महापुरुष उस मार्ग से शरीर के बाहर निकलकर ‘भू:’ इस नाम से अभिहित अग्नि में स्थित होता है।   गीता और ईशोपनिषद् में भी यही बात कही गई है (गीता 8/24) । 

उसके बाद वायु में सतही होता है अर्थात् पृथ्वी से लेकर सूर्यलोक तक समस्त आकाश में जिसका अधिकार है, जो सर्वत्र विचरने वाली वायु का अभिमानी देवता है और जो  ‘भुवः’ नाम से कहा गया है, उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है ।  

वह देवता उसे  ‘स्वः’ इस नाम से कहते हुए सूर्यलोक में पहुँचा देता है , वहाँ से फिर वह ‘मह:’ इस नाम से कहे हुए ‘ब्रह्म’ में स्थित हो जाता है । 

यहाँ से यह जीव या महापुरुष ‘स्वराट’ बन जाता है ।  अर्थात् उस पर प्रकृति का अधिकार नहीं रहता, अपितु  वह  स्वयं ही प्रकृति का अधिष्ठाता बन जाता है ; क्योंकि वह  मन के अर्थात् समस्त अन्त:करण समुदाय के स्वामी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, इसलिए वह वाणी, चक्षु , श्रोत आदि समस्त इन्द्रियों और उनके देवताओं का तथा विज्ञानस्वरूप बुद्धि का भी स्वामी हो जाता है । 

अर्थात् ये सब उसके अधीन हो जाते हैं । ‘आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्रणारामं मन आनंदम् ।’

       आधिभौतिक और आध्यात्मिक पदार्थ -

  आधिभौतिक पदार्थों  को- लोक,त्योति और स्थूल पदार्थ इन तीन पंक्तियों  में विभक्त करके उनका वर्णन किया है औ दूसरे भाग में -  मुख्य मुख्य आध्यात्मिक (शरीर स्थित ) पदार्थों को - प्राण, करण और धातु इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है और उनके उपयोग की युक्ति बताई है ।

       लोक की आधिभौतिक दिशाएं - पृथ्वीलोक,अन्तरिक्ष लोक, स्वर्गलोक, पूर्व -पश्चिम दिशाएँ आदि तथा आग्नेय, नैरित्य आदि अवांतर दिशाएं । इस प्रकार यह लोकों की आधिभौतिक पंक्ति है । 

अग्नि, वायु, सूर्य,चन्द्रमा और नक्षत्र यह ज्योतियों की आधिभौतिक पंक्ति हैं । जल, औषधियां, वनस्पतियाँ,आकाश औत पांच भौतिक स्थूल शरीर जड़ पदार्थों भी आधिभौतिक पंक्तियाँ हैं । 

इस प्रकार यह एक प्रकार का समूह है । 

प्राण, करण और धातु-

इसके आगे प्राणों की पंक्ति - प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान पंक्ति हैं । 

 नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा इस प्रकार यह करण समुदाय की पंक्ति है । 

 चर्म , मांस , नाडी, हड्डी और मज्जा इस शरीर गत धातुओं  की पंक्ति है ।

 आधिभौतिक और आध्यात्मिक विकास में इनका आपस का  सम्बन्ध है । आधिभौतिक लोक सम्बन्धी मन का चौथे प्राण - समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है । 

एक लोक का दूसरे लोक से सम्बन्ध कराने में प्राणों की ही प्रधानता है  

 दूसरी ज्योति विषयक आधिभौतिक पंक्ति से पांचवीं करन समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है ।  क्योंकि वे आधिभौतिक ज्योतियाँ  इनकी सहायक हैं ।  

इस प्रकार तीसरी स्थूल पदार्थों की आधिभौतिक पंक्ति का छ्ठी शरीरगत धातुओं से सम्बन्ध है क्योंकि औषधि और वनस्पतियाँ अन्न से ही मांस -मज्जा आदि की पुष्टि और वृद्धि करती हैं ।   

इस प्रकार अन्नमयकोश से आनन्दमय कोश तक की यात्रा को ठीक से समझ कर अभ्यास करने से षठचक्र खुलते हैं। कोश और चक्रों के अनंत ब्रह्मांडीय स्वरूप के साथ जीव एकाकार होता है। 

यहीं से अक्षर ब्रह्म से लेकर नाद -ध्वनि,शब्द ब्रह्म की एकात्मकता स्थापित होती है। 

 


राम का चारित्रिक वैशिष्ट्य

 

                                    (4)

         राम का चारित्रिक वैशिष्ट्य

        वाल्मीकि रामयण में महर्षि वाल्मीकि ने नारद जी से प्रश्न किया कि ‘इस समय सारे भूमण्डल और नव द्वीपों में ऐसा कौन सा अपूर्व मेधावी, विद्वान, परोपकारी, ज्ञान-विज्ञान में पारंगत, धर्मात्मा तथा समस्त सद्गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति है ? जो मनुष्य मात्र का ही नहीं, चर-अचर और प्राणि मात्र का कल्याण करने के लिये सदैव तत्पर रहता हो? जिसने अपने पराक्रम और त्याग से संपूर्ण इन्द्रियों, विषय-वासनाओं एवं मन को वश में कर लिया हो, जो कभी क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृतियों के वशीभूत न होता हो? यदि ऐसा कोई महापुरुष आपकी दृष्टि में आया हो तो कृपया संपूर्ण वृतान्त मुझे सांगोपांग सुनाइये ।

              प्रश्न के उत्तर में महर्षि नारद कहते हैं - हे मुनिराज! ऐसी महान विभूति का नाम रामचन्द्र है। उन्होंने वैवस्वत मनु के वंश में महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया है। वे अत्यंत वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करनेवाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादा पुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत वत्सल, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं।’

अब ज़रा राम के संपूर्ण चारित्रिक वैशिष्ट्य को जो बाल्मीकि-नारद संवाद में रामायण में आया है, कुबेरनाथ जी के शब्दों में समझें - ‘रामकथा सविता-कथा है। इसकी प्रकृति सूर्यात्मक है और यह द्यु-मण्डल का काव्य है जो सगुण सृष्टि के विकास का ‘आदि’ रूप है। इसी से यह ‘आदिकाव्य’ कहा जाता है। इसका अधिदेवता है विष्णु का सवितारूप जो सोम और अग्नि के ‘विस्तार’ रूपों का आदि बिन्दु है। क्रियाशक्ति-प्रधान होने से यह ‘गार्हस्थ्य’ का महाकाव्य है।

  यह बात धनुर्भग के अवसर पर ही स्पष्ट हो जाती है। रामचन्द्र ने जब धनुष तोड़ा तो उसके तीन खण्ड हो गये। वह शिव-पिनाक त्रिगुणात्मक प्रकृति का प्रतीक था जो शिव के वाम भाग में रहती है। ऊपरवाला खण्ड ज्ञान-खण्ड था जो व्योम में चला गया। नीचेवाला खण्ड इच्छा-खण्ड था जो पाताल में प्रवेश कर गया। रह गया मध्य-खण्ड जो क्रिया-खण्ड था। उसे ही राम ने धरती पर रख दिया।

रामावतार में ज्ञान और इच्छा यवनिका के पीछे ठेल दिए जाते हैं। रंगमंच पर क्रियाशक्ति ही खेलती है। इस काव्य का आदर्श ही है ‘अनासक्त पुरुषार्थ-योग’ ।’ जिसे राम के चरित्र में पाते हैं  ।

राम के क्रिया योग में गृहस्थ धर्म और नागरिक धर्म का अत्यधिक महत्व है। इसलिए रामकथा में गृहस्थ जीवन का सम्पूर्ण वृत्त उतर आया है। राम कथा का आधार मानवीय धरातल है। इसमें गृहस्थ और नागरिक शील है।

कुबेरनाथ जी कहते हैं, ‘कथा के अन्दर अर्थ का त्रिपुर है। मानवीय धरातल पर यह कथा है पारिवारिक शील के आदर्शों की। अधिदैवी धरातल पर यह कथा है देवासुर-द्वन्द्व की, जिसमें राम प्रच्छन्न ‘इन्द्र’ हैं। परन्तु शाश्वत तल पर यह कथा है द्यु-मण्डल के सविता की। राम द्यु-मण्डल के सविता (सगुण परमात्मा), अन्तरिक्ष के इन्द्र तथा पार्थिव-मण्डल के राजा राम तीनों के प्रतीक हैं।

सविता सूर्य का आदिरूप है। इन्द्र भी बारह आदित्यों में से एक है। राघव राम सूर्यवंशी हैं। अतः तीनों स्तर पर राम सूर्य-प्रतीक से जुड़े हैं। कथा में राम को विष्णु का अवतार कहा गया है। विष्णु आदित्य है। विष्णु ही नारायणरूप सविता तथा सहस्रशीर्षा परमात्मा भी है।’ राम सूर्य की ही तरह ‘शरण्यं सर्वभूतानां’ - पुरुष हैं। 

सूर्य ‘ऋत’ का नियामक और ऋत का अनुगामी रहता है। उसके ‘ऋत’ (विधान या नियमचक्र) का छन्द कभी पतित नहीं होता, कभी टूटता नहीं। मनुष्य जीवन में ‘शील’ ही ऋतरूप है। राम के शील का छन्द कभी पतित नहीं होता। वे ऋत-मार्ग से कभी भ्रष्ट नहीं होते। इसी से उन्हें ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ कहा गया है।

 ऋत की मर्यादा का शत-प्रतिशत निर्वाह सूर्य की ही तरह वे भी करते हैं। रावण इस ऋत को अस्वीकार करता है। फलतः वह ‘अनृत’ का प्रतीक बन जाता है।’

 आइये ‘ऋत’ की स्वीकारोक्ति के साथ ‘अनृत’ के प्रतीकों को राम-धाम-पधारने / दर्शन करने का आमंत्रण दें, अन्यथा राम का बुलावा तो सब को एक न एक दिन आयेगा ही क्योंकि राम का शील ही उनका ऋत है !

Thursday, 18 July 2024

saket ki urmila साकेत की उर्मिला

साकेत की उर्मिला
 प्रो. उमेश कुमार सिंह 

प्रथम तो यह की उर्मिलायशोधरा या विष्णुप्रिया को उपेक्षित नारी कहना उचित नहीं है और मेरी समझ में यह गुप्त जी को भी उचित नहीं लगता यदि उनसे कोई कहता तो । उन्होंने तो वास्तव में रविन्द्र नाथ टैगोर के आलेख से यह शब्द ले लिया। इसलिए यह कहना उचित होगा की राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने भारतीय काव्य में ओझल नारियों का अपने काव्य हेतु चयन किया। उन्होंने अपने काव्य में एक ओर भारतीयता,  संस्कृतिराष्ट्रसमाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठित कियावहीं दूसरी ओर व्यक्तिपरिवारसमाज और राष्ट्र के अंत:सम्बंधों के आधार पर इन्हें नवीन बोध भी प्रदान किया है।

पराधीन भारत में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की अमर कृति साकेत’ का प्रथम प्रकाशन सन् १९३३ में हुआ था। साकेत काव्य-लक्षणों से युक्त महाकाव्य है। महाकाव्य में गणेश और सरस्वती का मंगलाचरण करने के साथ श्रीराम को पुरुषोत्तम कहा जाता है। महाकाव्य की कथा बारह सर्गों में है। 

महाकाव्य में रामसीतालक्ष्मणकैकेयी के साथ ऊर्मिंला को भी केंद्र में रखा गया है। गुप्त जी उर्मिला के माध्यम से भारतीय नारी के उद्दात चरित्र का चित्रण तथा विरह की विभिन्न परिस्थितियों का वर्णन किया गया है। 
     मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत’ की कथावस्तु का चयन द्वितीय पायदान पर खड़े पात्रों को प्रथम श्रेणी में लेकर काव्य का नवीन दृष्टि से निरूपण किया है। गुप्तजी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। वह युग जातीय जागरण और राष्ट्रीय स्वतंत्रता का काल था। वे युगीन समस्याओं के प्रति अत्यंत गम्भीर हैं। उनका राष्ट्र-प्रेमी कवि-ह्रदय देश की तत्कालीन दशा से क्षुब्ध है। वे साम्प्रदायिक और सामाजिक कुरीतियों को देश की दुर्दशा का मूल कारण मानते थे। उन्हें राष्ट्रीयता का जागरण धार्मिक और सामाजिक सुधारों में दिखाई देता है।

      नारी की दुरावस्था तथा दीनों-असहायों की पीड़ा से उनका हृदय करुणाप्लावित हो उठता है। परिणाम यह होता है कि उनके अनेक काव्य-ग्रंथ नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति से भरे पड़े हैं। ‘साकेत’ में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया हैसाथ ही कैकेयी के पश्चाताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। गुप्त जी की ये पंक्तियां सहृदय पाठकों में करुणा उत्पन्न करती है-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।

       एक समुन्नतसुगठित और सशक्त राष्ट्र तभी हो सकता है, जब राष्ट्र में  नैतिकता से युक्त आदर्श-समाजमर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र वाले नर-नारी हों। इस स्थिति को परिभाषित करने तथा राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कवि ने भारतीय प्राचीन आख्यानों को काव्य का वर्ण्य विषय बनाया। उनके सभी पात्र एक नया अभिप्राय लेकर पाठक के सामने आते हैं। जयद्रथवधसाकेतपंचवटीसैरन्ध्रीबक-संहारयशोधराद्वापरनहुषजयभारतहिडिम्बाविष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं, इसके उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं।
        गुप्त जी तात्कालिक परिस्थिति को ही नहीं तो भविष्य को पहचानते हुए भारतीय संयुक्त परिवार को अपने ग्रंथों में सर्वोपरि महत्व देते हैं। उन्होंने नैतिकता और मर्यादा से युक्त सहज सरल पारिवारिक व्यक्ति को ही श्रेष्ठ माना। वे मानते है की उदात्त गुणों का प्रादुर्भाव श्रेष्ठ नायक से ही हो सकता। ध्यान रखने की बात है की नारी पत्रों का चयन पौराणिक आख्यानों से हैसाथ ही सभी नारियां उच्च कुल की है।
           डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है- ‘‘मैथिलीशरण गुप्त ने सम्पूर्ण भारतीय पारिवारिक वातावरण में उदात्त चरित्रों का निर्माण किया है। उनके काव्य शुरू से अंत तक प्रेरणा देने वाले हैं। उनमें व्यक्तित्व का स्वत: समुच्छित उच्छ्वास नहीं हैपारिवारिक व्यक्तित्व का और संयत जीवन का विलास है।  वस्तुत: गुप्तजी पारिवारिक जीवन के कथाकार है। परिवार का अस्तित्व नारी के बिना असंभव है। इसीलिए वे नारी को जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। नारी के प्रति उनकी दृष्टि रोमानी न होकर मर्यादावादी और सांस्कृतिक रही है। वे अपने नारी पात्रों में उन्हीं गुणों की प्रतिष्ठा करते हैंजो भारतीय कुलवधू के आदर्श माने गये हैं। उनकी दृष्टि में नारी भोग्या  नहीं अपितु पुरुष का पूरक अंग है। इसीलिए उनके काव्य में नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व स्वाभिमानदर्प और स्वावलम्बन का समुचित चित्रण हुआ है।

साकेत के नवम सर्ग का प्रारंभ अष्टम सर्ग के उस बिंदु से होता है जब चित्रकूट में उर्मिला के माता-पिता भी आ पहुचाते हैं। सीता कहती हैं-

एक घड़ी भी बीत न पाईबहार से कुछ वाणी आई ।
सीता कहती थीं कि – “अरे रेआ पहुंचे पितृपद भी ।

और कविवर जनक का परिचय कुछ इस प्रकार कराते हैं-
दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला
सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला ,
  त्यागी भी है शरण जिनकेजो अनासक्त गेही,
  राज- योगी जय जनक वे पुन्यदेहीविदेही।   

और यही से प्रारंभ होता है उर्मिला का वियोग 
मानस मंदिर में सतीपति की प्रतिमा थाप
जलती-सी उस विरह में बनी आरती आप !

    बड़ी लम्बी उलाहना या सखियों से मन की तरह- तरह की बात उर्मिला वियोग अवस्था में करती है-
हृदयस्थित स्वामी की स्वजनिउचित क्यों नहीं अर्चा;
मन सब उन्हें चढ़ावेचन्दन की एक क्या चर्चा ?
करो किसी की दृष्टि को शीतल सदय कपूर,
इन आँखों में आप ही नीर भरा भरपूर ।
मेरी चिन्ता छोड़ोमग्न रहो नाथआत्मचिन्तन में,
बैठी हूँ मैं फिर भीअपने इस नृप-निकेतन में।

उनके काव्य में नारी अधिकारों के प्रति सजगमेधावीसमाज-सेविकासाहसीत्यागीशीलवान और तपस्विनी के रूप में सामने आती हैं-

एक अनोखी मैं ही
क्या दुबली हो गई सखी,घर में?
देखपद्मिनी भी तो
आज हुई नालशेष निज सर में।

गुप्तजी का व्यक्तित्व आस्था प्रधान है। इस आस्था के दर्शन उनके काव्य में होते हैं-

प्रियतम के गौरव ने
लघुता दी है मुझेरहें दिन भारी।
सखिइस कटुता में भी
मधुरस्मृति की मिठासमैं बलिहारी!

 आस्था का विखंडन गुप्तजी के लिए असहनीय है। नारी के प्रति पुरुष का अनुचित आचरण उन्हें स्वीकार नहींइसीलिए द्वापर’ में विधृता के माध्यम से इन पंक्तियों को प्रस्तुत करते हैं-

नर के बांटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई
माँ बेटी या बहिन हायक्या संग नहीं लाई॥’’

माना जाता है की द्विवेदी जी के कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ से   गुप्त जी को साकेत’ लिखने की प्रेरणा मिली। विचारणीय है की भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती’ का स्वर निनाद करनेवाला कवि कैसे विरहिणी नारियों के दु:ख से द्रवित हो जाते हैं। और उनके चयन को भी समझाना होगा की परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को गुप्तजी पाठकों को अनुभव कराते हैंजो  आधुनिक साहित्य की दुर्लभ काव्य दृष्टि है। 
           गुप्त जी ने जिन वियोगिनी नारी पात्रों उर्मिलायशोधरा और विष्णुप्रिया को लिया है वह समझने योग्य है। उर्मिला का पति भात्र-प्रेमी है, तो यशोधरा का पति लोके-कल्याण को अग्रषित और विष्णुप्रिया का पति सामाजिक सरोकारों से लेकर मानवीय संवेदना से भरा है। 
    उनका करुण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी तो है किन्तु उसका सन्देश केवल नारी की व्यक्तिगत पीड़ा नहीं बल्कि वह राष्ट्रजगारण का हेतु बनती है। त्याग तीनों का केंद्र विन्दु है। उनके जीवन संघर्षउदात्त विचार और आचरण की पवित्रता, मानवीय जिजीविषा और सोदेश्यता के लिए तप को प्रमाणित करते हैं-

तपोयोगिआओ तुम्हींसब खेतों के सार,
कूड़ा-कर्कट हो जहाँकरो जला कर छार।
आया अपने द्वार तपतू दे रही किवाड़,
सखिक्या मैं बैठूँ विमुख ले उशीर की आड़?
आलिइसी वापी में हंस बने बार बार हम विहरे,
सुधकर उन छींटों की मेरे ये अंग आज भी सिहरे।

 गुप्तजी की तीनों नायिकाएं विरह ताप में तपती है किन्तु अपने तन-मन को भस्म नहीं करती वरन् उनका विरह त्याग का उत्कृष्ट उदहारण बनता है और उनके आत्मविश्वास को देखिये-

क्या क्षण क्षण में चौंक रही मैं?
सुनती तुझसे आज यही मैं।
तो सखिक्या जीवन न जनाऊँ?
इस क्षणदा को विफल बनाऊँ?
अरीसुरभिजालौट जाअपने अंग सहेज,
तू है फूलों में पलीयह काँटों की सेज!

    साकेत’ की उर्मिला इसलिए भी लोगों का ध्यान आकर्षित कराती है क्योकि यह रामायण और रामचरितमानस में वह स्थान नहीं पाती जो यहाँ है जो सीता को मिला है । बाद में भी उर्मिला की विरहिणी नारी के जीवन वृत्त और पीड़ा की अनुभूतियों का वर्णन आख्यानकारों ने नहीं किया है। उर्मिला की विशेषता यह भी है की अपनी चारों बहनों में वही एक ऐसी हैजिसके हिस्से में चौदह वर्षों के लिए पतिवियुक्ता होने का दु:ख मिला है। उनकी अन्य तीनों बहने पतियों के साथ रहती हैं। यह बात अलग है की भरत नंदीवन में तपस्यारत हैं तो सीता कुछ वर्ष लंका में रहने बाध्य है।

इन चौदह वर्षों में अयोध्या में क्या हुआ होगा, उर्मिला की जिम्मेदारियां कितनी बढ़ गई होंगी ? घर में तीन वृद्ध सासें और जेठानी भरत की पत्नी मांडवी, देवरानी शत्रुघ्न की पत्नी।  देवर जो अयोध्या के निकट नंदीग्राम में झोपड़ी बना कर रह रहा है। सास कैकेयी जो उनके खुद के निर्णय के कारण सबसे अलग-थलग उपेक्षा सह रही है। कौशल्या का राजगद्दी पर बैठता हुआ पुत्र वन चला गया। सुमित्रा भी पुत्र वियोग में दु:खी है।

 ऐसे वातावरण में अपने को संभालने के साथ पूरे परिवार में सामाजस्य बिठाने का भार उर्मिला ने ही अपने कंधो पर ले रखा है । यह देख कर क्या ऐसा नहीं लगता की सीता के त्याग से उर्मिला का त्याग बड़ा है। क्योंकि हम देखते हैं की राम सीता-लक्ष्मण के वन गमन के पश्चात वे ही परिवार का मुख्य आधार स्तम्भ थी। ध्यान देने की बात यह है की उर्मिला का चौदह वर्ष का जागरण एक ऐसी तपस्या है जिसे समझना आसान नहीं है।

गुप्तजी की उर्मिलाआदर्श की प्रतिमा है और कर्तव्य की वेदी पर चढ़कर स्वामी के कर्त्तव्य पथ पर अपने को अन्य बहनों से बिना ईष्या बलिदान कराती है-
अपने अतुलित कुल में
प्रकट हुआ था कलंक जो काला,
वह उस कुल-बाला ने
अश्रु-सलिल से समस्त धो डाला।

 
     साकेत का  नवम सर्ग  उर्मिला के उच्छवासों और तप्त आंशुओं से भीगा हुआ है। उर्मिला अपने आराध्य की प्रतिष्ठा करके अपने आप आरती की ज्वाला बनकर जल रही है-

मानस-मंदिर में सतीपति की प्रतिमा थाप,
जलती सी उस विरह मेंबनी आरती आप।
आँखों में प्रिय मूर्ति थीभूले थे सब भोग,
हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग।
आठ पहर चौंसठ घड़ी स्वामी का ही ध्यान,
छूट गया पीछे स्वयं उससे आत्मज्ञान।
                
गुप्तजी ने साकेत में उर्मिला को मूर्तिमति उषासुवर्ण की सजीव प्रतिमा कनक लतिकाकल्पशिल्पी की कला आदि कहकर उसके शारीरिक सौंदर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। चित्रकूट को आधार बना उर्मिला अपना परिचय देती हैदूसरी बात यह भी है की जहाँ-जहाँ लखन है वहां उर्मिला अपने को पाती है-
मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल,
चित्रकूट को क्या कहूँरह जाती हूँ भूल!
सिद्ध-शिलाओं के आधार,

उर्मिला प्रेम एवं विनोद से परिपूर्ण हास-परिहासमयी रमणी है। उसका हास-परिहास बुद्धिमत्तापूर्ण है, लक्ष्मण जब उर्मिला की मंजरी-सी अंगुलियों में यह कला देखकर अपना सुधबुध भूल जाते हैं और मत्त गज-सा झूम कर उर्मिला से अनुनय करते हैं-

कर कमल लाओ तुम्हारा चूम लूं।‘

इसके प्रत्युत्तर में उर्मिला अपना कमल-सा हाथ पति की ओर बढ़ाती हुई मुस्कराती है और विनोद भरे शब्दों में कहती है-

मत्त गज बनकरविवेक न छोड़ना।
कर कमल कहकर न मेरा तोड़ना।

एक ओर उसका दाम्पत्य जीवन अत्यन्त आल्हाद एवं उमंगों से भरा हुआ है तो दूसरी ओर उसमें त्यागधैर्य एवं बलिदान की भावना अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। लक्ष्मण के वन गमन का समाचार सुनकर उसके हृदय में भी सीता की भांति वन-गमन की इच्छा होती हैपरन्तु लक्ष्मण की विवशता देखकर वह अपने प्रिय के साथ चलना उचित नहीं समझती। वह अपने हृदय में धैर्य धारण करके अपने मन को यह कह कर समझा लेती है-

तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन
आज स्वार्थ है त्याग धरा।
हो अनुराग विराग भरा।
तू विकार से पूर्ण न हो
शोक भार से चूर्ण न हो॥

उर्मिला अत्यन्त भोली-भाली सुकुमार एवं कोमल हृदयवाली भी है। राज-सुखों में पली हुई वह नवयौवना वियोग का दु:ख क्या होता हैउसे नहीं जानती-

स्वामि-सहित सीता ने
नन्दन माना सघन-गहन कानन भी,
वन उर्मिला बधू ने
किया उन्हीं के हितार्थ निज उपवन भी !

इसीलिए अपने प्रियतम पति लक्ष्मण के बिछुड़ते ही वह अपने धैर्य को सम्हाल नहीं पाती-

यह विवाद वह हर्ष कहों अब देता था जो फेरी
जीवन के पहले प्रभाव में आँख खुलीं जब मेरी।

अपने पति के बारे में यही कामना करती है-
करना न सोच मेरा इससे।
व्रत में कुछ विघ्न पड़े जिससे॥

उर्मिला को चौदह वर्षों का विरहकाल व्यतीत करना आसान नहीं है। उसके पास लक्ष्मण के साथ बिताये हुए सुखमय जीवन की स्मृतियों के सिवाय कुछ भी नहीं है-
दीपक-संग शलभ भी
जला न सखिजीत सत्व से तम को,
क्या देखना – दिखाना
क्या करना है प्रकाश का हमको?

एक-एक पल पर्वत सा प्रतीत होता हैकिन्तु विरह के इस वृहत काल को तो गुजारना ही होगा। वेदना से उर्मिला का संवाद –

वेदनेतू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोड़ी है तू नेतू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैंसाल हृदय में
ओ प्रिय-विशिख-अनी!

ठंडी होगी देह न मेरीरहे दृगम्बु-सनी,
तू ही उष्ण उसे रक्खेगी मेरी तपन-मनी!
अभाव की एक आत्मजेऔर अदृष्टि-जनी!
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी!

अरी वियोग-समाधिअनोंखीतू क्या ठीक ठनी,
अपने कोप्रिय कोजगती को देखूँ खिंची-तनी।
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनीपाऊँ प्राण-धनी।

 
     यह निश्चय करके उर्मिला सेवा का मार्ग अपना लेती है। वह अपनी सासों की सेवा करती हैरसोई बनाती है-
बनाती रसोईसभी को खिलाती,
इसी काम में आज मैं तृप्ति पाती।
रहा किन्तु मेरे लिए एक रोना,
खिलाऊँ किसे मैं अलोना-सलोना?

 
किसानों की दशा पूछती रहती है-
पूछी थी सुकालदशा मैंने आज देवर से

इतना ही नहींवह नगर की जितनी प्रोषित पतिकाएं हैंउनकी सुध-बुध लेती है। उनके हाल-चाल जानने के लिए आतुर रहती है। क्योकि उसे बार-बार चित्रकूट याद आता है-

साल रही सखिमाँ की
झाँकी वह चित्रकूट की मुझको,
बोलीं जब वे मुझसे—
मिला न वन ही न गेह ही तुझको!
जात तथा जमाता समान ही 
मान तात थे आये,
पर निज राज्य न मँझली 
माता को वे प्रदान कर पाये!

दिन-रात स्वामी के ध्यान में डूबने के कारण वे स्वयं को भी भूल गई हैं। लेकिन उसे यह विश्वास है की जैसे हम यहाँ जल रहीं हैं ऐसे ही वह लक्षमण भी दुखी होंगे! 

   पतंगे का दीपक  के प्रति समर्पण को गुप्त जी उर्मिला के माध्यम से किस तरह  व्याख्यायित  कर रहे हैं वह  प्रेरणादायी है, अदभुत हैं। जीतनी बार पढ़े एक नया अर्थबोध कराता है। दीपक और पतंगे की लम्बी वार्ता मनो उर्मिला और लक्ष्मण की वार्ता हो- 

दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखिपतंग भी जलता है
 हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता—
बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।

कहता है पतंग मन मारे—
तुम महानमैं लघुपर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।

दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
,उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहींपरिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।

मन-मंदिर में अपने पति की प्रतिमा स्थापित करके उर्मिला विरह की अग्नि में जलते हुए खुद आरती की ज्योति बन गई है। यह संकेत सर्ग के प्रारंभ में ही गुप्त जी दे दे देते है-

करुणेक्यों रोती है? ‘उत्तर’ में और अधिक तू रोई-
मेरी विभूति है जोउसको भव-भूति’ क्यों कहे कोई?’

ऐसे में जब विरह में कामदेव पूरे ऋतु साज के साथ आकर सताता है तब उर्मिला के संवाद आत्मविश्वास से भरे दिखाई देते हैं 

मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनीकुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदनपटुतुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलतातुम्हें विफलताठहरोश्रम परिहारो।
नहीं भोगनी यह मैं कोईजो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह-यह हर-नेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्पतुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लोयह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!

आँखों में प्रिय की मूर्ति बसाकर सभी मोह-माया को त्याग करउर्मिला का जीवन एक योगी के जीवन से भी ज्यादा कठिन और कष्टदायक है। कितनी कारुणिक  पंक्तियाँ हैं ये ! सखियों की वार्ता 

लिख कर लोहित लेखडूब गया है दिन अहा !
ब्योम-सिन्धु सखिदेखतारक-बुद्बुद दे रहा !
बता अरीअब क्या करूँरुपी रात से रार,
भय खाऊँआँसू पियूँमन मारूँ झखमार!

 वनवास से वापस लौटने के पश्चात् भी लक्ष्मण उर्मिला से दूर-दूर ही रहे।  सीता जी के समझाने के बाद वे उर्मिला से मिलने उनके कक्ष में गए। वहाँ उर्मिला की दशा देखकर वे तड़प उठे, क्योंकि उर्मिला मात्र हड्डियों का ढाँचा बनकर रह गईं थीं।  उनकी उस दशा को गुप्त जी ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है 
जो आज्ञा ! लक्ष्मण गए कुटी में ,
ज्यों घुसे सूर्य-कर-निकर सरोज-पुटी में।
जाकर परन्तु जो वहां उन्होंने देखा,
तो दिख पड़ी कोणस्थ उर्मिला-रेखा।
यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया !

इन पंक्तियों का सार है उर्मिला की काया’ शरीर केवल एक छाया मात्र दिख रही है अर्थात नाम का शरीर रह गया है। वियोग की पीड़ा ने उनको एक रेखा समान बना दिया है। किन्तु वह काया को मिलन के लिए तो रखती है-
कहाँ जायँगे प्राण ये लेकर इतना ताप?
प्रिय के फिरने पर इन्हें फिरना होगा आप।
तभी तो सीता जी ने लक्ष्मण से कहा था कि हजारों सीता मिलकर भी उर्मिला के त्याग की बराबरी नहीं कर सकतीं।
१९८८ के संस्करण में गुप्त जी का लिखा यह विचार उर्मिला की समापन की इन पक्तियों के साथ उल्लेखित हैं- “ यों तो साकेत’ दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था परन्तु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी वह अधूरा। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था की मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही साकेत’ की समाप्ति होपरन्तु जब ऐसा नहीं हो सकातब उर्मिला की निम्नोक्ति आशा निराशामायी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाये रखाना ही मुझे उचित जन पड़ता है-
कमलतुम्हारा दिन है  और कुमुदयामिनी तुम्हारी
कोई हताश क्यों हो, आती सब की सामान बरी ।
धन्य कमलदिन जिसकेधन्य कुमुदरत साथ में जिसके,
दिन और रात दोनोंहोते हैं हाय ! हाथ में किसके ?

Sunday, 7 July 2024

बाजार और साहित्य

" बाजार मध्यकाल में भी था कबीर , सूर और तुलसी ने बाजार की ओर नहीं देखा , बाजार बनते मनुष्य को रोका । 
आज फिर साहित्यकार का यही दायित्व है । क्या आज के साहित्यकारों में सामर्थ है कि वह अपने को बाजार बनने से रोक पाएंगे ? "

यह प्रश्न है नव निकष के प्रधान संपादक डॉ लक्ष्मी कांत पांडे जी का (अप्रेल २०२१ अंक) ।

वे नव निकष के संपादकीय में चिंता व्यक्त करते हैं,  " आज बाजार मनुष्य के अधीन नहीं मनुष्य बाजार के अधीन है।" 
 प्रश्न उठाते हैं और कहते हैं कि " मनुष्य की इस पराधीनता का परिणाम है कि मनुष्य की चेतना से जुड़े सभी तत्व बाजार के अधीन हो गए हैं ।
साहित्य  भी उसी मानवीय प्रज्ञा का परिणाम है ।
जिसका उद्देश्य ही मानवीय मूल्यों का विकास और मानवीय जीवन की व्याख्या है । साहित्य उपज व्यक्ति मन  की है  किन्तु उसका उद्देश्य समाज से भी आगे लोक मन की है,  जिसके कारण वह जड़ और चेतन को एक रूप देखता है। आज मनुष्य बाजार के अधीन है उसके द्वारा रचित होने के कारण  साहित्य भी बाजार के अधीन हो जाता है  , और वह लोग से जुड़ने की जगह बाजार से जुड़ने की कोशिश करता है । उसमें लोक हित गौण और शून्य हो जाता है। और व्यक्ति हित प्रमुख हो जाता है ।"

वे इसके गंभीर परिणाम की ओर संकेत करते हैं- " तब साहित्य में मूल्य नहीं होते वह बाजार में अपनी कीमत लगाता है और फिर वह स्वतंत्र चेता नहीं  लिखता है , बल्कि बाजार जो चाहता है वह लिखता है। वह उनकी आलोचना नहीं करता ना उनकी व्याख्या। " 

वे आगे कहते हैं जब  
साहित्य में मूल्यों का क्षरण होता है तो उसकी आलोचना का क्या अर्थ है ? 

फिर भी वे अपेक्षा रखते हैं कि " यह भी ध्रुव सत्य है कि बाजार में बिकते मनुष्य को बाजार से निकालकर मनुष्य बनाने की सामर्थ्य किसी में है तो वह साहित्य में है।" 

नव निकष का सम्पादकीय आज के साहित्यिक संस्थाओं, पत्रिकाओं, लेखकों को गहरा संदेश दे रहा है। विश्वास है हम सब इस बाजार वाद से सजग हो लोक जीवन और लोक मूल्यों को साहित्य में निरन्तर स्थापित करने का प्रयत्न करेंगे।

कामायनी, श्रद्रा का चरित्र- चरित्र



श्रद्धा का चरित्र-चित्रण


                                                                                                   प्रो  उमेश कुमार सिंह

 

           ‘कामायनी’ जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित आधुनिक काल का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है। जिसके मुख्य पात्र मनु, श्रद्धा और इड़ा हैं। यह एक कठिन और प्रौढ़ कृति है। कामायनी में जहाँ एक ओर युग चिंता है तो दूसरी ओर कलात्मक अभिव्यक्ति से भरी दृष्टि भी । कामायनी को आलोचक सघन छायावादी प्रबंधकाव्य भी मानते हैं ।

        प्रसाद जी ने कामायनी की कथा और उसके पत्रों को ऐतिहासिक माना है। आमुख में वे लिखते है, “ आर्य साहित्य में मानवों के आदिपुरुष मनु का इतिहास वेदों से लेकर पुराणों और इतिहास में बिखरा हुआ मिलता है। मन्वंतर के अर्थात् मानवता के नवयुग के प्रवर्तक के रूप में मनु को ऐतिहासिक पुरुष ही मानना उचित है ।”

          साथ ही प्रसाद जी कामायनी के रूपक तत्वों पर भी विचार करते हुए कहते हैं, “ यदि श्रद्धा और मनु अर्थात् मनन के सहयोग से मानवता का विकास रूपक है, तो भी बड़ा ही भावमय और श्लाध्य है । यह आख्यान इतना प्राचीन है कि इतिहास में रूपक का भी अद्भुत मिश्रण हो गया है। इसलिए मनु, श्रद्धा और इड़ा इत्यादि अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए सांकेतिक अर्थ की अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का सम्बन्ध क्रमशःश्रद्दा और इड़ा से भी लग जाता है ।”

        वस्तुतः इस संसार में असाधारण अवस्था में जड़-चेतन सभी समरस दिखाई देते हैं । सुन्दर साकार अद्वैत चेतना शोभित होती है। जिससे सघन आनन्द की अनुभूति होती है । प्रसाद जी कामायनी के माध्यम से अन्तर्जगत और बहिर्जगत का सामरस्य ही जीवन की चरम सिद्धि है, को प्रतिपादित करते हैं। इस तरह सृष्टि के उद्भव और विकास के मूल में सामरस्य से आनन्द की सिद्धि ही ‘कामायनी’ का  उदेश्य है।

        विश्व की करुण कामनामूर्त श्रद्धा जगत में स्फूर्ति उत्पन्न करने वाली मनु के जीवन की वास्तविक पथ प्रदर्शिका है। मनु के निराश एवं व्यथित जीवन में कर्म की प्रेरणा उत्पन्न करने वाली श्रद्धा उन्हें,‘तप नहीं, केवल जीवन सत्य का पाठ’ पढ़ा कर, कर्तव्य की ओर अग्रसर करती है। किन्तु इसका अर्थ यह कदापि न लिया जाये की श्रद्धा तप के महत्व को नकार रही है ( इसे अंतिम बिंदु में देखेंगे)। मनु को उत्साहित कर उनके सम्मुख प्रगति एवं मानवता के विकास का द्वार खोलती है। जिसके माध्यम से संपूर्ण विश्व के कल्याण का पथ-प्रदर्शित होता है ।

           श्रद्धा के चरित्र की विशेषताएं इस प्रकार समझी जा सकती हैं-

1. सच्ची प्रेमिका एवं आदर्श पत्नी: व्यापक चरित्र- श्रद्धा का चरित्र अत्यंत व्यापक है। उसकी छाया केवल मनु को ही शीतलता प्रदान नहीं करती, वरन् उसका प्रेम प्राणि-मात्र के लिए है। उसके स्पर्श से सारी वसुधा चेतनशील बनती है। सारी वसुधा इसका कुटुंब है। मनु की प्रणयिनी के रूप में वह उनके उदास जीवन में आशा की किरण भर देती है। वह मनु के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण के साथ दांपत्य प्रेम का निर्वहन करती है।

        मनु  एक रात उसे छोड़कर भाग जाते हैं। गर्भवती श्रद्धा के ऊपर बज्रपात होता है।इसकी सारी आशाएं धूल में मिल जाती हैं। परंतु वह विचलित नहीं होती। वह प्रेम के वास्तविक महत्व को समझती है। उसका प्रेम महान था। उसे मनु पर तनिक भी रोष नहीं होता। विरह के दिन भी वह अपने पुत्र मानव के साथ समय व्यतीत करती है और यह कामना करती है कि मनु जहां भी रहे सुखी रहें। उसके तपस्या का ही परिणाम था कि एक दिन मनु उसे प्राप्त होते हैं और उसका आनंद लोक भरा जीवन फिर से प्रारंभ हो जाता है।

       मनु द्वारा त्याग दिए जाने के बाद भी वह उनसे प्रेम करती है और सारस्वत प्रदेश पहुँच कर उनका उद्धार करती है और अंत में ग्लानि  से भरे हुए मनु के मन को शांत कर उसको आनंद से भर देती है। वह मनु के सामने सुनहरे सपनों का राज्य खड़ा कर देती है। तात्पर्य यह कि श्रद्धा का चरित्र अत्यंत व्यापक एवं महान है। 

        श्रद्धा का संपूर्ण जीवन दूसरों की भलाई और मंगल कामना के लिए समर्पित है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उसे रागात्मिका वृत्ति माना है क्योंकि उसका स्वच्छ ह्रदय रत्ननिधि है जो दया, माया, ममता, क्षमा, मधुरिमा, सहानुभूति विश्वास से अनुप्राणित है। वह मनु के समक्ष बिना शर्त निःस्वार्थ समर्पण द्वारा उनके हृदय के तारों को जोड़ देती है। फलतः वे दुबारा कर्मपथ पर अग्रसर होते हैं। वह प्रलय की फलश्रुति के रूप में शक्ति के जो विद्युत्कण निरुपाय होकर बिखर गए हैं, उन्हें दुबारा समन्वित करके सम्पूर्ण मानवता को विजयिनी बनाना चाहती है। 

शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त 

विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय।

समन्वय उनका करें समस्त

 विजयिनी मानवता हो जाय ॥

   वह मनु पर पड़े आसुरी प्रभावों को निष्प्रभ करने का प्रयत्न करती है। उन्हें हिंसा से विमुख करके सत्कर्मों की ओर भारतीय चेतना के साथ उन्मुख करती है-

अपने में भर सबकुछकै से व्यक्ति विकास करेगा

यह एकान्त स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।

औरों को हँसते देखो मनु हँसो और सुख पाओ

अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओ ॥

  2. आत्म  विस्तार की साकार प्रेरणा: श्रद्धा बाहर  से जितनी सौम्य और महान है उसका अंतर्मन भी उतना ही विशाल है। प्रेम की सीमा उसके परिवार तक सीमित नहीं। वह निरंतर अपना आत्म विस्तार करती है, उसका चरित्र अत्यंत दृढ़ है। परिणाम मनु के हृदय की काली छाया समाप्त हो जाती है। 

    सब का सुख उसके जीवन का लक्ष्य है। इड़ा के सम्मुख भी नवीन जीवन दर्शन का मार्ग प्रशस्त कर उसे शासक बनाती है। प्रसाद जी ‘कामायनी’ में जगत् की अकेली मंगल कामना श्रद्धा के माध्यम से विश्व मानवतावाद की प्रतिष्ठा भी करते हैं।  कवि ने श्रद्धा के माध्यम से इस दुख-दग्ध जगत की मनुष्यता को ‘मधुरिमा में अपना ही मौन एक सोया सन्देश महान’ देने का कार्य किया है।

       श्रद्धा  विश्व मानवता की प्रतिष्ठा करते हुए मनु को संग्रह वृत्ति से बचने और सबको सुखी बनाने के लिए प्रेरित कराती है । प्रसाद जी ‘कामायनी’ में जगत् की अकेली मंगल कामना श्रद्धा के माध्यम से विश्व मानवता की प्रतिष्ठा भी करते हैं। वह स्पष्ट शब्दों में कहती है कि सुख को स्वयं में केन्द्रित करके मनुष्य न तो खुद सुखी रह सकता है और न ही इस संसार को सुखी बना सकता है। यदि कलियाँ  ही सारा सौरभ अपने भीतर बंद का लें और मकरंद की बूँदें विखेरने से पलट जाएँ तो  क्या होगा ?  ऐसी स्थिति में उनका खिलाना ही संभव नहीं।

ये मुदित कलियाँ दल में सब सौरभ बंदी का लें।

सरस न हो मकरंद बिंदु से खुलकर तो ये मर लें 

सूखे झड़े  और तब कुचले सौरभ को पाओगे ।

फिर आमोद कहाँ से मधुमय वसुधा पर लाओगे 

      फिर श्रद्धा मनु की उस नई मानवता पर भी प्रश्न करती है जिसकी वे रूप रचना  करने जा रहे हैं। वह अत्यन्त चिन्तित है और सोचती है कि मनु ऐसी किस मनुष्यता का विकास करना चाहता है जिसमें एक दूसरे के खा जाने की प्रवृत्ति प्रबल हो :

मनु! क्या यही तुम्हारी होगी उज्ज्वल नव मानवता?

जिसमें सब कुछ ले लेना हो हंत, बची क्या शवता?

    प्रसाद की श्रद्धा मनु द्वारा विकसित मानवता की समीक्षा के उपरान्त उनका उन्नयन करती है। उनमें ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की विराट भावना भरकर यह सोचने के लिए प्रेरित करती है कि सबकी सेवा ही अपनी सेवा है। इसी में अपना सुख है। अणु-अणु अपने हैं। यह चेतना ही मनु को भेद-मुक्त करती है जिससे वे पूर्णतः अभाव मुक्त हो जाते हैं।  वे अन्ततः श्रद्धा के माध्यम से शक्ति के विद्युत्कणों के समन्वय द्वारा मानवता को विजयिनी बनाने का विकल्प उपलब्ध कराते हैं।

   आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा है , “ ज्ञान प्रसार के ही भीतर भाव प्रसार होता है , मनुष्य में  ज्ञान -प्रसार के साथ -साथ  भाव -प्रसार क्रमशः बढ़ता गया है । अपने परिजनों , अपने सम्बन्धियों , अपने  पड़ोसियों, अपने देवासियों तथा मनुष्य-मात्र और प्राणी -मात्र तक से प्रेम करने भर को जगह उसके ग्रिदय में बन गई है ।”

 3लोकमंगल और विश्व प्रेम की उपासिका: श्रद्धा दया, माया, ममता, शक्ति, साहस और प्रेम आदि गुणों की साक्षात मूर्ति है। मनु को निराश्रित एवं असहाय अवस्था में देखकर उसका ह्रदय द्रवीभूत हो जाता है। वह उनकी जीवन संगिनी बनकर उसको  क्रियाशील बनाने को तत्पर हो उठती है। अपनी सहज प्रवृत्तियां से वह मनु को एक नवीन संस्कृत की प्रतिष्ठा करने को प्रेरित करती है। अपनी सहज दृष्टि के कारण मानवता की प्रतिष्ठा करती है वह कहती है-

‘दया, माया, ममता लो आज,

मधुरिमा लो अगाध विश्वास।

हमारा हृदय रत्न निधि स्वच्छ

तुम्हारे लिए खुला है पास।।’

       तभी तो आचार्य शुक्ल लिखते हैं , “ श्रद्धा करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, वह दूसरों की पीड़ा का संवेदन ही तो है।” मनु के लिए जो सवेदन केवल इन्द्रिय बोध है, वही प्रजा के लिए अनुभूति -

‘हम संवेदनशील हो चले, यही मिला सुख

कष्ट समझाने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुःख’

      कामायनी जैसे महाकाव्य के लिए यह आवश्यक था कि महत्कार्य की सिद्धि प्राप्ति के लिए एक प्रेरक और अनुकरणीय चरित्र की उद्भावना भी हो। प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ को नायिका-प्रधान महाकाव्य बनाया । महाकाव्य में यदि मनु आधुनिक मनुष्य की मानसिक जटिलताओं और बौद्धिक-वैज्ञानिक संस्करण के प्रतीक हैं तो श्रद्धा प्रसाद के आदर्शों, मूल्यबोध और भारतीय नारी के श्रेष्ठतम गुणों का समन्वित रूप है ।

        श्रद्धा का व्यक्तित्व नारी के अप्रतिम गुणों से अनुप्राणित है। उसमें प्रसाद साहित्य के सभी स्त्री पात्रों के चरित्र का समुच्चय देखा जा सकता है। चाहे तितली का साहस, देवसेना का त्याग, अलका की शक्ति, मधूलिका का देश प्रेम और  साल्वती का सौन्दर्य या कमला का रूप सभी मानो एक साथ घनीभूत हो उठे हैं। प्रसाद ने उसे मानवीय सद्‌वृत्तियों तथा सद्भावों के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है। फलत: वह श्रेय और प्रेय का समन्वित रूप है। ‘श्रद्धा’ सर्ग में ‘कामायनी’ के रूप -वर्णन के द्वारा रहस्य -भावना की बड़ी ही अनूठी व्यंजना हुई है -

और देखा वह सुंदर दृश्य

नयन का इंद्रजाल अभिराम;

कुसुम -वैभव में लता सामान

चन्द्रिका से लिपटा घनश्याम

      4 . मातृत्व की अनुपम विभूति:  श्रद्धा का संपूर्ण जीवन लोकमंगल के लिए समर्पित है। वह नहीं चाहती की सभ्यता के पापों का फिर से प्रभाव बढ़े। वह इस कलंक को सदा के लिए धोना चाहती है। मनु से आग्रह करती है-

‘बनो संसृति के मूल रहस्य,

तुम ही से फैलीगी वह बेल,

विश्व भर सौरभ से भर जाये

सुमन के सुंदर खेलो खेल।।’

‘समर्पण लो सेवा का सार,

सजल संसृति कि यह पतवार

आज से यह जीवन उत्सर्ग

इसी पदतल में विगत विकार।।’

     परिणाम यह होता है कि मनु कर्म में रत होते हैं। श्रद्धा का सहयोग उनके सुखों का सूचक होता है। परंतु आसुरी वृत्तियों से प्रभावित मनु उसके इस समर्पण का रहस्य समझ नहीं पाते। वे इसे शरीर का ही समर्पण समझते हैं और उसकी जड़ देह में ही अनुरक्त हो जाते हैं। परिणामत: मनु के सामने बाधाओं का नवीन इतिहास साकार होना प्रारंभ हो जाता है।

      श्रद्धा समझती है कि वह माता है उसका अपना एक ‘मानव’ नाम का पुत्र है। उसे माता के कर्तव्यों का पालन करना है। वह पुत्र मानव पर पति वियोग की छाया नहीं पड़ने देती। सपने में मनु के ऊपर आई विपत्ति को देख वह मानव के साथ सारस्वत प्रदेश पहुंच जाती है। उसे देख घायल मनु अपने दुख को भूल जाते हैं और उन्हें श्रद्धा साक्षात मातृत्व की मूर्ति दिखाई पड़ती है-

‘मनु ने देखा कितना विचित्र

वह मातृमूर्ति थी विश्वमूर्ति।’

       श्रद्धा समकालीन साहित्य जगत् की अकेली मंगल कामना है । उसके शरीर का प्रत्येक परमाणु अनन्त रमणीय सौन्दर्य से उद्भासित है । प्रसाद की यह अल्हड़ किशोरी अप्रतिम सौन्दर्य का साकार विग्रह होकर भी अतिशय संवेदनशील भी है। वह हृदय के सुन्दर सत्य की खोज में निकली है और उसे हिमालय को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो एक छोर से दूसरे छोर तक धरती में सिकुड़न पड़ गई है। इस तरह प्रसाद ने हिमालय के लिए जिस बिम्ब का सृजन किया है, वह सर्वथा मौलिक, ताजा और अनछुआ है। उसकी यही संवेदनात्मक दृष्टि हिमालय के भीतर ‘मधुरिमा में अपनी ही मौन, एक सोया सन्देश महान’ का संधान कर लेती है। यह प्रलयकाल के सर्वग्रासी तांडव से निराश, दुखी और विरक्त मनु में जीवन के प्रति आसक्ति एवं स्वीकृति का भाव भरती है। वह ‘तप नहीं केवल जीवन सत्य’ की प्रतिष्ठा द्वारा विश्व की दुर्बलता और पराजय को शक्ति एवं विजय में रूपान्तरित करने का मंत्र देती है:

‘विश्व की दुर्बलता बल बने, पराजय का बढ़ता व्यापार।

हँसाता रहे उसे सविलास, शक्ति का क्रीड़ामय संसार ।।

      श्रद्धा के बहुआयामी व्यक्तित्व के अन्तर्गत उसका गृहिणी रूप भी आता है। वह आदर्श गृहिणी की भाँति गृह-सज्जा में रत होती है। वह पशुओं के ऊन से वस्त्र के लिए तकली भी चलाती है और अपने होनेवाली संतान के लिए सुख का आयोजन करती है। वह शिशु मानव को जन्म देकर उसके पालन-पोषण, संस्कार अस्तित्व निर्माण का दायित्व भी निभाती है। नारी का चरम रूप उसका मातृत्व है, जिसे प्रसाद जी ने श्रद्धा के माध्यम से साकार किया है। वह प्रणयन मनु द्वारा ठुकराए जाने के बावजूद उसकी विपत्ति सहचरी बनती है। जब मनु इड़ा पर अतिचार करने के लिए उद्यत होते हैं और उन्हें प्रजा घायल कर देती है तब श्रद्धा वहां पहुंचकर न केवल उनका उपचार करती है अपितु ‘म्यूजिकल थेरेपी’ द्वारा उन्हें होश में भी लाती है। 

        भारतीय नारी की मूर्ति है। श्रद्धा के चरित्र में हमें भारतीय नारीत्व का चरम मिलता है। वह समस्त भारतीय नारी जाति की आदर्श है। उसकी सबसे महान विभूति है- दया, ममता एवं मानव कल्याण। ह्रदय से महान श्रद्धा का सौंदर्य अनुपम है। उसकी स्नेहमयी  वाणी और उसका रूप सौंदर्य ही मन को उसके प्रेम में बद्ध कर देता है। प्रसाद जी कहते हैं, वह शरीर से जितनी सुंदर है, आत्मा से भी उतनी महान है -

‘हृदय की अनुकृति वाह्य उदार

एक लंबी काया उन्मुक्त,

मधु पवन क्रीड़ित ज्यों शिशु साल,

सुशोभित हो सौरभ संयुक्त!’

 

      5 . साहस, विश्वास और दृढ़ निश्चय की अटल प्रतीक:  श्रद्धा इच्छा, ज्ञान और कर्म की समन्वयककारिणी है। श्रद्धा विश्वास की अनुपम प्रतीक है। उसका यह विश्वास उसे आदि से अंत तक अपने आदर्शों में स्थिर रखता है। उसे अपने कर्तव्यों का भली-भांति ज्ञान है। उसका ह्रदय स्फटिक के समान स्वच्छ है। उसके हृदय में छल या संशय नहीं है। मनु उससे छल करते हैं। फिर भी उसे आत्मविश्वास है कि उसका पति उसे अवश्य मिलेगा।                                                     ‘वह भोला इतना नहीं छली

मिल जाएगा हूं प्रेम पली।।’

       श्रद्धा अपनी स्मृति मात्र से इच्छा, ज्ञान और  कर्म  के बिंदुओं का एकीकरण करती है। जीवन में संघर्ष, विप्लव का मूल कारण है- इच्छा, ज्ञान एवं कर्म के बिंदुओं का अलग-अलग होना। इन तीनों का  समन्वय ही जीवन में सुख एवं शांति का सूचक है। इसी कारण श्रद्धा अस्थिर एवं आकुल मन को इच्छा, ज्ञान एवं कर्म के प्रदेशों में घूमाती हुई अपने स्मृति में उनका एकीकरण करती है। यह संपूर्ण मानवता के लिए संदेश है।  

       श्रद्धा का साहस एवं उसका निश्चय ही उसे महान बनाता है । मनु जब घबरा उठे हैं, उनके हृदय में उथल-पुथल मचती है तब श्रद्धा ही उन्हें मुस्कुराती हुई शांत करती है। प्रवल झंझावात, भीषण तूफान उसे नहीं रोक पाते। थके हुए मनु को अपने वचनों से वह शांति प्रदान करती है। मनु कहते हैं-

‘ कहां ले चली हो अब मुझको,

श्रद्धे ! मैं थक चला अधिक हूं,

साहस छूट गया है मेरा,

निस्संबल भग्नाश पथिक हूं।।’

‘लौट चलो इस वात चक्र से,

मैं दुर्बल अब चल न सकूंगा!!’

परंतु आगे बढ़कर लौटना श्रद्धा के लिए मान्य नहीं। वाह सांत्वना प्रदान करती हुई कहती है-

‘दे अवलंब विकल साथी को

कामायनी मधुर स्वर बोली,

हम बढ़ दूर निकल आए अब,

करने का अवसर न ठिठोली।’

‘ घबराओ मत, यह समतल है,

देखो तो हम कहां आ गए

मनु ने देखा आंख खोलकर

जैसे कुछ कुछ त्राण पा गये!!!"

         उसके चरित्र की विराटता, पर दुख कातरता और  भव्यता के प्रति मनु नतमस्तक होकर उसे ‘सर्वमंगला’ की उपाधि देते हैं। वह इसे सार्थक करते हुए अपने स्मिति के प्रभाव से इच्छा-क्रिया-ज्ञान लोक को परस्पर सयुंक्त और समरस कर देती है, जिससे मनु ही नहीं इड़ा, मानव समेत समस्त सारस्वतवासी अखंड आनंद में डूब जाते हैं । 

      प्रसाद जी इसके व्यक्तित्व का विकास विश्व कल्याणी के रूप में करते हैं और स्वयं उसे जगत की अकेली मंगल कामना  कहते हैं। वह मानसरोवर के तट पर विकसित एक ज्योतिष्मती वनबेली है । वह विश्व की पुलकित चेतना और पूर्ण काम की प्रतिमा है । वह चेतना का उज्ज्वल वरदान है और वसुधा का गौरव जिसके विहंसने से जग-जग मुखरित हो उठाता है । वह कामायनी के प्रकर्ष पर पहुंचकर आदर्श एवं अप्रतिम भारतीय नारी के व्यक्तित्व का अतिक्रमण करते हुए विश्व कल्यान्मायी अलौकिक नारी में रूपांतरित हो जाती है ।

       उसके व्यक्तित्त्व की उज्ज्वलता से महाकाव्य को भी अपूर्व अर्थदीप्ति  प्राप्त होती है । तात्पर्य यह की इससे अधिक भव्य, ललित, उद्दात्त और अनंत रमणीय सौन्दर्य से  युक्त, सर्वगुण संपन्न नारी चरित्र आधुनिक महाकाव्यों में दुर्लभ है । वास्तव में श्रद्धा का चरित्र कामायनी का मेरुदंड है ।

      6 . प्रेम और त्याग की अनुकरणीय आदर्श: श्रद्धा के जीवन का सबसे महान पक्ष त्याग है। प्रेम और त्याग की श्रद्धा प्रतिमा है। अपना सर्वस्व लुटा कर वह मानवता का कल्याण करती है। उसका मन इड़ा को भी अपने में समेट लेने को मचल उठता है। जब इड़ा उससे क्षमा मांगती है तब श्रद्धा मुड़ कर दुखित इड़ा को गौर से देखती है,                                    ‘पीछे मुड़ श्रद्धा ने देखा,

वह इड़ा मलिन छवि की रेखा।

ज्यों राहु ग्रस्त सी शशि लेखा

जिस पर विषाद की विष रेखा।।"

इड़ा के इस रूप को देखकर उसका ह्रदय द्रवित हो उठता है-

‘बोली, तुमसे कैसी विरक्ति,

तुम जीवन की अंधांनुरक्ति,

मुझसे बिछुड़े को अवलंबन,

देकर तुमने रखा जीवन तुम आशामयि!’

‘चिर आकर्षण तुम मादकता की अवनत धन,

मनु के मस्तक की चिर अतृप्ति,

तुम उत्तेजित चंचला शक्ति।।’

वह आगे कहती है-

‘मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ , मैं पाती हूं, खो देती हूँ ।’

‘इससे ले उसको देती हूँ , मैं दुख को सुख कर लेती हूँ ।’

‘अनुराग भरी हूं मधुर घोर, चिर विस्मृति सी हूं रही डोल!!!’

श्रद्धा के चरित्र की पराकाष्ठा यह है कि वह अपने एकमात्र पुत्र मानव को भी इड़ा सौंप देती है-

‘तू क्षमा न करो कुछ आ रही,

जलती छाती की दाह रही,

तो ले ले जो निधि पास रही,

मुझको बस अपनी राह रही!!’

‘मैं अपने मनु को खोज चली,

सरिता, मरु, नग या कुंजगली-

वह भोला इतना नहीं छली,

मिल जाएगा हूं प्रेम पली।।’

और मानव के पूछने पर- 

‘मां मुझे छोड़कर कहां जा रही हैं?

मुझे इस प्रकार अकेला ना छोड़।’

वह उत्तर देती है-

‘ है सौम्य! इड़ा का शुचि दुलार-

हर लेगा तेरा व्यथा भार।

यह तर्कमयी तू श्रद्धय,

तू मननशील कर कर्म अभय-

इसका तू सब संताप निश्चय ,

हर ले ! हो मानव भाग्य उदय,

सबका समरसता का प्रचार,

मेरे सुत! सुन मां की पुकार।।"

      इस प्रकार श्रद्धा का चरित्र प्रेम और त्याग से भरा है। वह मानवता की प्रगति, विश्व कल्याण हेतु समर्पित है।
कामायनी के इस चरित्र को आज विश्व यदि ग्रहण करें तो मानव के सारे ग्रहण दूर हो सकते हैं।