" बाजार मध्यकाल में भी था कबीर , सूर और तुलसी ने बाजार की ओर नहीं देखा , बाजार बनते मनुष्य को रोका ।
आज फिर साहित्यकार का यही दायित्व है । क्या आज के साहित्यकारों में सामर्थ है कि वह अपने को बाजार बनने से रोक पाएंगे ? "
यह प्रश्न है नव निकष के प्रधान संपादक डॉ लक्ष्मी कांत पांडे जी का (अप्रेल २०२१ अंक) ।
वे नव निकष के संपादकीय में चिंता व्यक्त करते हैं, " आज बाजार मनुष्य के अधीन नहीं मनुष्य बाजार के अधीन है।"
प्रश्न उठाते हैं और कहते हैं कि " मनुष्य की इस पराधीनता का परिणाम है कि मनुष्य की चेतना से जुड़े सभी तत्व बाजार के अधीन हो गए हैं ।
साहित्य भी उसी मानवीय प्रज्ञा का परिणाम है ।
जिसका उद्देश्य ही मानवीय मूल्यों का विकास और मानवीय जीवन की व्याख्या है । साहित्य उपज व्यक्ति मन की है किन्तु उसका उद्देश्य समाज से भी आगे लोक मन की है, जिसके कारण वह जड़ और चेतन को एक रूप देखता है। आज मनुष्य बाजार के अधीन है उसके द्वारा रचित होने के कारण साहित्य भी बाजार के अधीन हो जाता है , और वह लोग से जुड़ने की जगह बाजार से जुड़ने की कोशिश करता है । उसमें लोक हित गौण और शून्य हो जाता है। और व्यक्ति हित प्रमुख हो जाता है ।"
वे इसके गंभीर परिणाम की ओर संकेत करते हैं- " तब साहित्य में मूल्य नहीं होते वह बाजार में अपनी कीमत लगाता है और फिर वह स्वतंत्र चेता नहीं लिखता है , बल्कि बाजार जो चाहता है वह लिखता है। वह उनकी आलोचना नहीं करता ना उनकी व्याख्या। "
वे आगे कहते हैं जब
साहित्य में मूल्यों का क्षरण होता है तो उसकी आलोचना का क्या अर्थ है ?
फिर भी वे अपेक्षा रखते हैं कि " यह भी ध्रुव सत्य है कि बाजार में बिकते मनुष्य को बाजार से निकालकर मनुष्य बनाने की सामर्थ्य किसी में है तो वह साहित्य में है।"
नव निकष का सम्पादकीय आज के साहित्यिक संस्थाओं, पत्रिकाओं, लेखकों को गहरा संदेश दे रहा है। विश्वास है हम सब इस बाजार वाद से सजग हो लोक जीवन और लोक मूल्यों को साहित्य में निरन्तर स्थापित करने का प्रयत्न करेंगे।
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