ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी है ।
ॐ शं नो मित्रः शं वरुण: । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विश्नुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षम ब्रह्मास्मि । त्वामेव प्रत्यक्ष्मं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यम वदिष्यामि । तन्मामवतु । तद्वक्त्रारमवातु । अवतु माम्। अवतु वक्ताराम्। ॐशांतिः शांतिः शांतिः ( कृष्ण यजुर्वेदीय तैतरीय शाखा ,तैत्तिरीयोपनिषद )
स्वर और वर्णों के उच्चारण -
महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में कहा है -
दुष्ट: शब्द: स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह ।
स वाग्वज्रो यजमानम हिनस्ति यथेन्द्रशत्रु: स्वरतोऽपराधात । ।
अर्थात स्वर या वर्ण की अशुद्धि से दूषित शब्द ठीक -ठीक प्रयोग न होने के कारण अभीष्ट अर्थ का वाचक नहीं होता । इतना ही नहीं, वह वचन रुपी वज्र यजमान/ प्रयोगकर्ता को हानि भी पहुंचाता है । जैसे ‘इंद्रशत्रु’ शब्द में स्वर की अशुद्धि हो जाने के कारण ‘वृतासुर’ स्वयं ही इंद्र के हाथ मारा गया।
अत: वेद मंत्रों का उच्चारण शिक्षा के अनुसार करना चाहिए । ‘क’ ‘ख’ आदि व्यंजन वर्णों और ‘अ’,’आ’ आदि स्वर वर्णों का उच्चारण स्पष्ट करना चाहिए ।
दन्त्य ‘स’ के स्थान पर तालव्य ‘श’ या मूर्धन्य ‘ष’ का उच्चारण नहीं करना चाहिए । ‘व’ के स्थान में ‘ब’ का उच्चरण नहीं करना चाहिए । (इसे बोलियों के संदर्भ में न लें, यथा -अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी। यह संस्कृत के मंत्रों के सम्बन्ध में व्याकरणगत सावधानी है)
मन्त्रों में स्वर भेद होने से अर्थ बदल जाता है । हस्व, दीर्घ और प्लुत आदि के मात्रा भेद को भी समझ कर उच्चारण करना चाहिए ।
हस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर हस्व का उच्चारण करने से अर्थ बदल जाते हैं, जैसे सीता और सिता ।
इसलिए बल, प्रयत्न, संधि, संहिता और महासंहिता आदि को विद्वानों, शोधार्थियों, शिक्षकों को ठीक से समझना चाहिए।
बल, प्रयत्न, संधि, संहिता और महासंहिता -
‘बल’ का अर्थ है ‘प्रयत्न’ । वर्णों के उच्चारण में उनके ध्वनि को व्यक्त करने में जो प्रयास करना पड़ता है,वही ‘प्रयत्न’ कहलाता है ।
‘प्रयत्न’ दो प्रकार के होते हैं । ‘आभ्यांतर और बाह्य’ । आभ्यांतर के पांच और बाह्य के ग्यारह भेद होते हैं ।
स्पृष्ट, ईषत्-स्पृष्ट, विवृत, ईषद-विवृत, सवृत- ये पांच आभ्यांतर हैं । विवार, संवार, श्वांस, नाद, घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण, उद्दात्त, अनुदात्त और स्वरित-ये बाह्य प्रयत्न हैं ।
‘क’ से लेकर ‘म’ तक के अक्षरों का अभ्यान्तर प्रयत्न ‘स्पृष्ट’ है; क्योंकि कंठ आदि स्थानों में प्राणवायु के स्पर्श से इनका उच्चारण होता है ।
‘क’ का बाह्य प्रयत्न विवार, श्वांस, अघोष तथा अल्पप्राण है ।
वर्णों का संवृति से उच्चारण या साम-गान की रीति ही ‘साम’ है ।
संतान का अर्थ है ‘संहिता’-संधि ।
स्वर, व्यंज्जन, विसर्ग अथवा अनुस्वार आदि अपने परवर्ती वर्णों के संयोग से कहीं-कहीं नूतन रूप धारण कर लेते हैं ।
इस प्रकार वर्णों का यह संयोग जनित विकृति भाव- ‘संधि’ कहलाती है ।
किसी स्थान विशेष स्थल में जहां ‘संधि’ बाधित होती है, वहां वर्ण में विकार नहीं आता, अत: उसे ‘प्राकृति भाव’ कहते हैं । वर्णों का उच्चारण इन्हीं छह नियमों से होता है ।
वर्णों में जो संधि होती है, उसे ‘संहिता’ कहते हैं । वही संहिता दृष्टि जब व्यापक रूप धारण करके लोक आदि को अपना विषय बनाती है, तब उसे ‘महासंहिता’ कहते हैं ।
‘संहिता’ या ‘संधि’- व्यंजन, स्वरादि, विसर्ग और अनुस्वार ये पांच प्रकार की होती है; इन्हें संधि के पांच आश्रय कहा जाता है ।
महासंहिता या महासंधि के भी पांच आश्रय- लोक, ज्योति, विद्या, प्रजा और आत्मा (शरीर) कहते हैं ।
संधि के भाग -
प्रत्येक संधि के चार भाग होते हैं - पूर्ववर्ण, परवर्ण, दोनों के मेल से होने वाला रूप तथा दोनों का संयोजक नियम । उदाहरण के साथ समझें -
पृथ्वी यह लोक ही पूर्व रूप है, स्वर्ग ही संहिता का उत्तर रूप (परवर्ण )हैं । आकाश या अन्तरिक्ष ही इन दोनों की संधि है और वायु इनका संधान (संयोजक) है । प्राणों के द्वार ही मन और इन्द्रियों के सहित जीवात्मा का प्रत्येक लोक में गमन होता है ।
अग्नि इस भूतल पर सुलभ है, अत: उसे संहिता का ‘पूर्ववर्ण’ माना है और सूर्य द्युलोक में प्रकाशित होता है; अत: उसे उत्तर रूप कहते हैं । इन दोनों से उत्पन्न होने के कारण ‘मेघ’ ही संधि है । तथा ‘विद्युत् शक्ति’ ही इस संधि की हेतु (संधान) बतायी गयी है ।
इन ज्योतियों के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले भोग्य पदार्थों को ‘जल’ का नाम दिया गया है, और इन सबकी उत्पति विजली को कारण बताया गया, ऐसा अनुमान होता है ।
आज का वैज्ञानिक भी बिजली को सब प्रकार के विकास का कारक मानता है, यह बात हमारे ऋषियों ने वेद में पहले ही बता दी थी, किन्तु परम्परा के नष्ट हो जाने से यह समझाने में दुर्लभ समझा जाता रहा है ।
इस वेद या विद्या को समझाने के लिए आचार्य को पूर्व रूप पहला वर्ण माना गया है । अन्तेवासी शिष्य उत्तररूप वर्ण है। दोनों के मिलन (संधि) से उत्पन होने वाली विद्या है, तथा गुरु के प्रवचन को श्रद्धापूर्वक सुनकर उस विद्या को धारण करना ‘संधान’ है।
इसी आधार पर संतान उत्पति को लेकर माता को पूर्वरूप , पिता को उत्तररूप तथा संतान उत्पान हेतु उद्देश्य ‘संधान’ तथा संतान का उत्पन्न होना ‘संधि’ है ।
यही सूत्र मुख को संहिता, नीचे के जबड़े को पूर्वरूप, ऊपर के जबड़े को परवर्ण, दोनों के मिलन को ‘संधि’ तथा जिह्वा (वर्ण के उत्पन्न होने से ) ‘संधान’ है ।
इस प्रकार इन मन्त्रों के द्वारा महासंहिताओं के माध्यम से विद्या, संतान, वाणी प्राप्त कर संसार के तत्वों को प्राप्त किया जाता है ।
ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी
उपनिषदों में ॐ को सर्वश्रेष्ट मन्त्र कहा गया है । यह ईश्वर स्वरुप है । इसके उच्चारण का फल परमेश्वर सम्पूर्ण वेद(ज्ञान) का फल देता है।
ॐकार नाम है, परमेश्वर नामी है । इस ईश्वर से हमें मेधा (धीर्धारणावती मेधा) प्राप्त हो जिससे हम इसकी अहेतुकी कृपा प्राप्त कर सकें ।
मेरा शरीर निरोगी हो, उपासना में बिघ्न न पड़े, जिह्वा अतिशय मधु हो, कानों से कीर्तन सुनें आदि-आदि मन्त्रों का आह्वान कर स्वाहा (इस उद्देश्य के लिए यह आहुति है ) कहें -
“यथाऽऽप: प्रवत्ता यन्ति अथा मासा अहर्जरम । एवं मां ब्रह्मचारिणी धारारायान्तु सर्वत: स्वाहा ।
अर्थात जिस प्रकार जल प्रवाह नीचे की ओर बहते-बहते समुद्र में मिल जाते हैं तथा जिस प्रकार दिन का अंत करनेवाले संवत्सररूप काल में जा रहे है, हे विधाता ! उसी प्रकार सब ओर से ब्रह्मचारी मेरे पास आयें और मैं उनकों कल्याण का उपदेश देकर कर्तव्य पथ पर चलने का मार्ग दिखा कर आप की आज्ञा का पालन कर सकूं।
उपनिषदों में व्याहृति - भू:, भुवः, स्वः और ‘मह:’ -
उपनिषदों में भू:, भुवः, स्वः और चौथी व्याहृति ‘मह:’ है और यही ‘मह:’ ब्रह्म है । भू: यह पृथ्वीलोक है तो भुवः यह अन्तरिक्ष लोक और स्वः यह स्वर्गलोक है । 'मह:' यह सूर्यलोक है ।
अर्थात् ‘भू:, भुवः, स्वः’ यह तीनों व्याव्हृतियाँ परमेश्वर के विराट शरीर रुपी इस ब्रह्माण्ड को बताने वाली हैं तो ‘मह:’ यह चौथी व्याव्हृति परमेश्वर के आत्मस्वरूप है।
‘भू:’ यह व्याहृति अग्नि का नाम होने से मानों ‘अग्नि’ ही है । यह ज्योतिस्वरूप है । ‘भुवः’ यह वायु स्वरुप है । वायु देवता त्वक -इन्द्रिय स्पर्श को प्रकाशित करनेवाली ज्योति और त्वचा भी समझना चाहिए ।
‘स्वः’ यह सूर्य है । सूर्य चक्षु -इन्द्रिय का अधिष्ठाता देवता है । ‘मह:’ यह मनो चन्द्रमा है और चन्द्रमा मन का देवता है । मन के कारण ही सभी इन्द्रिया क्रियाशील रहती हैं अत: मन ही प्रधान है ।
भू: ऋग्वेद , भुवःसामवेद, स्वःअजुर्वेद और मह: यह ब्रम्ह है । भू: प्राण, भुवःअपान, स्वःव्यान और मह अन्नं है । अन्न में ही सभी प्राण महिमायुक्त होते हैं , अत: ‘मह:’ ही ब्रह्म स्वरुप प्राण है । ( पंचम अनुवाक )
ह्रदय के भीतर जो अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाला आकाश है, उसी में विशुद्ध प्रकाश स्वरुप अविनाशी मनोमय अंतर्यामी पर पुरुष पमेश्वर विराजमान हैं, वहीं उनका साक्षात्कार हो जाता है ।
मनुष्यों के मुख में तालुओं के बीचों बीच जो एक थान के आकार का मांस -पिंड लटकता है, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘घंटी’ कहते हैं, उसके आगे केशों का मूलस्थान ब्रह्मरन्ध्र है; वहां ह्रदय देश से निकलकर घंटी के भीतर से होती हुई दोनों कपालों को भेद कर गई हुई है , जो सुषुम्ना नाम से प्रसिद्ध नाड़ी है, वही उन इंद्र नाम से कहे जाने वाले परमेश्वर की प्राप्त का द्वार है ।
अन्तकाल में वह महापुरुष उस मार्ग से शरीर के बाहर निकलकर ‘भू:’ इस नाम से अभिहित अग्नि में स्थित होता है। गीता और ईशोपनिषद् में भी यही बात कही गई है (गीता 8/24) ।
उसके बाद वायु में सतही होता है अर्थात् पृथ्वी से लेकर सूर्यलोक तक समस्त आकाश में जिसका अधिकार है, जो सर्वत्र विचरने वाली वायु का अभिमानी देवता है और जो ‘भुवः’ नाम से कहा गया है, उसी के अधिकार क्षेत्र में आता है ।
वह देवता उसे ‘स्वः’ इस नाम से कहते हुए सूर्यलोक में पहुँचा देता है , वहाँ से फिर वह ‘मह:’ इस नाम से कहे हुए ‘ब्रह्म’ में स्थित हो जाता है ।
यहाँ से यह जीव या महापुरुष ‘स्वराट’ बन जाता है । अर्थात् उस पर प्रकृति का अधिकार नहीं रहता, अपितु वह स्वयं ही प्रकृति का अधिष्ठाता बन जाता है ; क्योंकि वह मन के अर्थात् समस्त अन्त:करण समुदाय के स्वामी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, इसलिए वह वाणी, चक्षु , श्रोत आदि समस्त इन्द्रियों और उनके देवताओं का तथा विज्ञानस्वरूप बुद्धि का भी स्वामी हो जाता है ।
अर्थात् ये सब उसके अधीन हो जाते हैं । ‘आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्रणारामं मन आनंदम् ।’
आधिभौतिक और आध्यात्मिक पदार्थ -
आधिभौतिक पदार्थों को- लोक,त्योति और स्थूल पदार्थ इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है औ दूसरे भाग में - मुख्य मुख्य आध्यात्मिक (शरीर स्थित ) पदार्थों को - प्राण, करण और धातु इन तीन पंक्तियों में विभक्त करके उनका वर्णन किया है और उनके उपयोग की युक्ति बताई है ।
लोक की आधिभौतिक दिशाएं - पृथ्वीलोक,अन्तरिक्ष लोक, स्वर्गलोक, पूर्व -पश्चिम दिशाएँ आदि तथा आग्नेय, नैरित्य आदि अवांतर दिशाएं । इस प्रकार यह लोकों की आधिभौतिक पंक्ति है ।
अग्नि, वायु, सूर्य,चन्द्रमा और नक्षत्र यह ज्योतियों की आधिभौतिक पंक्ति हैं । जल, औषधियां, वनस्पतियाँ,आकाश औत पांच भौतिक स्थूल शरीर जड़ पदार्थों भी आधिभौतिक पंक्तियाँ हैं ।
इस प्रकार यह एक प्रकार का समूह है ।
प्राण, करण और धातु-
इसके आगे प्राणों की पंक्ति - प्राण, अपान, उदान, सामान और व्यान पंक्ति हैं ।
नेत्र, कान, मन, वाणी और त्वचा इस प्रकार यह करण समुदाय की पंक्ति है ।
चर्म , मांस , नाडी, हड्डी और मज्जा इस शरीर गत धातुओं की पंक्ति है ।
आधिभौतिक और आध्यात्मिक विकास में इनका आपस का सम्बन्ध है । आधिभौतिक लोक सम्बन्धी मन का चौथे प्राण - समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है ।
एक लोक का दूसरे लोक से सम्बन्ध कराने में प्राणों की ही प्रधानता है ।
दूसरी ज्योति विषयक आधिभौतिक पंक्ति से पांचवीं करन समुदाय रूप आध्यात्मिक पंक्ति का सम्बन्ध है । क्योंकि वे आधिभौतिक ज्योतियाँ इनकी सहायक हैं ।
इस प्रकार तीसरी स्थूल पदार्थों की आधिभौतिक पंक्ति का छ्ठी शरीरगत धातुओं से सम्बन्ध है क्योंकि औषधि और वनस्पतियाँ अन्न से ही मांस -मज्जा आदि की पुष्टि और वृद्धि करती हैं ।
इस प्रकार अन्नमयकोश से आनन्दमय कोश तक की यात्रा को ठीक से समझ कर अभ्यास करने से षठचक्र खुलते हैं। कोश और चक्रों के अनंत ब्रह्मांडीय स्वरूप के साथ जीव एकाकार होता है।
यहीं से अक्षर ब्रह्म से लेकर नाद -ध्वनि,शब्द ब्रह्म की एकात्मकता स्थापित होती है।
भाषा , वक्तृत्व की शुद्धता से परिपूर्ण आलेख। भारतीय ज्ञान परंपरा गहन, गूढ़ और व्यापक है । सादर
ReplyDelete👍👍👍👍बहुत शानदार लेख सर जी 👌👌👌👌
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