साकेत की उर्मिला
प्रो. उमेश कुमार सिंह
प्रथम तो यह की उर्मिला, यशोधरा या विष्णुप्रिया को उपेक्षित नारी कहना उचित नहीं है और मेरी समझ में यह गुप्त जी को भी उचित नहीं लगता यदि उनसे कोई कहता तो । उन्होंने तो वास्तव में रविन्द्र नाथ टैगोर के आलेख से यह शब्द ले लिया। इसलिए यह कहना उचित होगा की राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने भारतीय काव्य में ओझल नारियों का अपने काव्य हेतु चयन किया। उन्होंने अपने काव्य में एक ओर भारतीयता, संस्कृति, राष्ट्र, समाज तथा राजनीति के विषय में नये प्रतिमानों को प्रतिष्ठित किया, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के अंत:सम्बंधों के आधार पर इन्हें नवीन बोध भी प्रदान किया है।
पराधीन भारत में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की अमर कृति ‘साकेत’ का प्रथम प्रकाशन सन् १९३३ में हुआ था। साकेत काव्य-लक्षणों से युक्त महाकाव्य है। महाकाव्य में गणेश और सरस्वती का मंगलाचरण करने के साथ श्रीराम को पुरुषोत्तम कहा जाता है। महाकाव्य की कथा बारह सर्गों में है।
महाकाव्य में राम, सीता, लक्ष्मण, कैकेयी के साथ ऊर्मिंला को भी केंद्र में रखा गया है। गुप्त जी उर्मिला के माध्यम से भारतीय नारी के उद्दात चरित्र का चित्रण तथा विरह की विभिन्न परिस्थितियों का वर्णन किया गया है।
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ की कथावस्तु का चयन द्वितीय पायदान पर खड़े पात्रों को प्रथम श्रेणी में लेकर काव्य का नवीन दृष्टि से निरूपण किया है। गुप्तजी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। वह युग जातीय जागरण और राष्ट्रीय स्वतंत्रता का काल था। वे युगीन समस्याओं के प्रति अत्यंत गम्भीर हैं। उनका राष्ट्र-प्रेमी कवि-ह्रदय देश की तत्कालीन दशा से क्षुब्ध है। वे साम्प्रदायिक और सामाजिक कुरीतियों को देश की दुर्दशा का मूल कारण मानते थे। उन्हें राष्ट्रीयता का जागरण धार्मिक और सामाजिक सुधारों में दिखाई देता है।
नारी की दुरावस्था तथा दीनों-असहायों की पीड़ा से उनका हृदय करुणाप्लावित हो उठता है। परिणाम यह होता है कि उनके अनेक काव्य-ग्रंथ नारियों की पुनर्प्रतिष्ठा एवं पीड़ित के प्रति सहानुभूति से भरे पड़े हैं। ‘साकेत’ में कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यन्त मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चाताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्ज्वल पक्ष प्रस्तुत किया है। गुप्त जी की ये पंक्तियां सहृदय पाठकों में करुणा उत्पन्न करती है-
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।
एक समुन्नत, सुगठित और सशक्त राष्ट्र तभी हो सकता है, जब राष्ट्र में नैतिकता से युक्त आदर्श-समाज, मर्यादित एवं स्नेहसिक्त परिवार और उदात्त चरित्र वाले नर-नारी हों। इस स्थिति को परिभाषित करने तथा राष्ट्र के निर्माण की दिशा में कवि ने भारतीय प्राचीन आख्यानों को काव्य का वर्ण्य विषय बनाया। उनके सभी पात्र एक नया अभिप्राय लेकर पाठक के सामने आते हैं। जयद्रथवध, साकेत, पंचवटी, सैरन्ध्री, बक-संहार, यशोधरा, द्वापर, नहुष, जयभारत, हिडिम्बा, विष्णुप्रिया एवं रत्नावली आदि रचनाएं, इसके उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं।
गुप्त जी तात्कालिक परिस्थिति को ही नहीं तो भविष्य को पहचानते हुए भारतीय संयुक्त परिवार को अपने ग्रंथों में सर्वोपरि महत्व देते हैं। उन्होंने नैतिकता और मर्यादा से युक्त सहज सरल पारिवारिक व्यक्ति को ही श्रेष्ठ माना। वे मानते है की उदात्त गुणों का प्रादुर्भाव श्रेष्ठ नायक से ही हो सकता। ध्यान रखने की बात है की नारी पत्रों का चयन पौराणिक आख्यानों से है, साथ ही सभी नारियां उच्च कुल की है।
डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है- ‘‘मैथिलीशरण गुप्त ने सम्पूर्ण भारतीय पारिवारिक वातावरण में उदात्त चरित्रों का निर्माण किया है। उनके काव्य शुरू से अंत तक प्रेरणा देने वाले हैं। उनमें व्यक्तित्व का स्वत: समुच्छित उच्छ्वास नहीं है, पारिवारिक व्यक्तित्व का और संयत जीवन का विलास है। वस्तुत: गुप्तजी पारिवारिक जीवन के कथाकार है। परिवार का अस्तित्व नारी के बिना असंभव है। इसीलिए वे नारी को जीवन का महत्वपूर्ण अंग मानते हैं। नारी के प्रति उनकी दृष्टि रोमानी न होकर मर्यादावादी और सांस्कृतिक रही है। वे अपने नारी पात्रों में उन्हीं गुणों की प्रतिष्ठा करते हैं, जो भारतीय कुलवधू के आदर्श माने गये हैं। उनकी दृष्टि में नारी भोग्या नहीं अपितु पुरुष का पूरक अंग है। इसीलिए उनके काव्य में नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व स्वाभिमान, दर्प और स्वावलम्बन का समुचित चित्रण हुआ है।”
साकेत के नवम सर्ग का प्रारंभ अष्टम सर्ग के उस बिंदु से होता है जब चित्रकूट में उर्मिला के माता-पिता भी आ पहुचाते हैं। सीता कहती हैं-
एक घड़ी भी बीत न पाई, बहार से कुछ वाणी आई ।
सीता कहती थीं कि – “अरे रे, आ पहुंचे पितृपद भी ।
और कविवर जनक का परिचय कुछ इस प्रकार कराते हैं-
दो वंशों में प्रकट करके पावनी लोक-लीला
सौ पुत्रों से अधिक जिनकी पुत्रियाँ पूतशीला ,
त्यागी भी है शरण जिनके, जो अनासक्त गेही,
राज- योगी जय जनक वे पुन्यदेही, विदेही।
और यही से प्रारंभ होता है उर्मिला का वियोग –
मानस मंदिर में सती, पति की प्रतिमा थाप’
जलती-सी उस विरह में बनी आरती आप !
बड़ी लम्बी उलाहना या सखियों से मन की तरह- तरह की बात उर्मिला वियोग अवस्था में करती है-
हृदयस्थित स्वामी की स्वजनि, उचित क्यों नहीं अर्चा;
मन सब उन्हें चढ़ावे, चन्दन की एक क्या चर्चा ?
करो किसी की दृष्टि को शीतल सदय कपूर,
इन आँखों में आप ही नीर भरा भरपूर ।
मेरी चिन्ता छोड़ो, मग्न रहो नाथ, आत्मचिन्तन में,
बैठी हूँ मैं फिर भी, अपने इस नृप-निकेतन में।
उनके काव्य में नारी अधिकारों के प्रति सजग, मेधावी, समाज-सेविका, साहसी, त्यागी, शीलवान और तपस्विनी के रूप में सामने आती हैं-
एक अनोखी मैं ही
क्या दुबली हो गई सखी,घर में?
देख, पद्मिनी भी तो
आज हुई नालशेष निज सर में।
गुप्तजी का व्यक्तित्व आस्था प्रधान है। इस आस्था के दर्शन उनके काव्य में होते हैं-
प्रियतम के गौरव ने
लघुता दी है मुझे, रहें दिन भारी।
सखि, इस कटुता में भी
मधुरस्मृति की मिठास, मैं बलिहारी!
आस्था का विखंडन गुप्तजी के लिए असहनीय है। नारी के प्रति पुरुष का अनुचित आचरण उन्हें स्वीकार नहीं, इसीलिए ‘द्वापर’ में विधृता के माध्यम से इन पंक्तियों को प्रस्तुत करते हैं-
नर के बांटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई
माँ बेटी या बहिन हाय, क्या संग नहीं लाई॥’’
माना जाता है की द्विवेदी जी के ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ से गुप्त जी को ‘साकेत’ लिखने की प्रेरणा मिली। विचारणीय है की ‘भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती’ का स्वर निनाद करनेवाला कवि कैसे विरहिणी नारियों के दु:ख से द्रवित हो जाते हैं। और उनके चयन को भी समझाना होगा की परिवार में रहती हुई पतिवियुक्ता नारी की पीड़ा को गुप्तजी पाठकों को अनुभव कराते हैं, जो आधुनिक साहित्य की दुर्लभ काव्य दृष्टि है।
गुप्त जी ने जिन वियोगिनी नारी पात्रों उर्मिला, यशोधरा और विष्णुप्रिया को लिया है वह समझने योग्य है। उर्मिला का पति भात्र-प्रेमी है, तो यशोधरा का पति लोके-कल्याण को अग्रषित और विष्णुप्रिया का पति सामाजिक सरोकारों से लेकर मानवीय संवेदना से भरा है।
उनका करुण विप्रलम्भ तीनों पात्रों में सर्वाधिक मर्मस्पर्शी तो है किन्तु उसका सन्देश केवल नारी की व्यक्तिगत पीड़ा नहीं बल्कि वह राष्ट्रजगारण का हेतु बनती है। त्याग तीनों का केंद्र विन्दु है। उनके जीवन संघर्ष, उदात्त विचार और आचरण की पवित्रता, मानवीय जिजीविषा और सोदेश्यता के लिए तप को प्रमाणित करते हैं-
तपोयोगि, आओ तुम्हीं, सब खेतों के सार,
कूड़ा-कर्कट हो जहाँ, करो जला कर छार।
आया अपने द्वार तप, तू दे रही किवाड़,
सखि, क्या मैं बैठूँ विमुख ले उशीर की आड़?
आलि, इसी वापी में हंस बने बार बार हम विहरे,
सुधकर उन छींटों की मेरे ये अंग आज भी सिहरे।
गुप्तजी की तीनों नायिकाएं विरह ताप में तपती है किन्तु अपने तन-मन को भस्म नहीं करती वरन् उनका विरह त्याग का उत्कृष्ट उदहारण बनता है और उनके आत्मविश्वास को देखिये-
क्या क्षण क्षण में चौंक रही मैं?
सुनती तुझसे आज यही मैं।
तो सखि, क्या जीवन न जनाऊँ?
इस क्षणदा को विफल बनाऊँ?
अरी, सुरभि, जा, लौट जा, अपने अंग सहेज,
तू है फूलों में पली, यह काँटों की सेज!
‘साकेत’ की उर्मिला इसलिए भी लोगों का ध्यान आकर्षित कराती है क्योकि यह रामायण और रामचरितमानस में वह स्थान नहीं पाती जो यहाँ है जो सीता को मिला है । बाद में भी उर्मिला की विरहिणी नारी के जीवन वृत्त और पीड़ा की अनुभूतियों का वर्णन आख्यानकारों ने नहीं किया है। उर्मिला की विशेषता यह भी है की अपनी चारों बहनों में वही एक ऐसी है, जिसके हिस्से में चौदह वर्षों के लिए पतिवियुक्ता होने का दु:ख मिला है। उनकी अन्य तीनों बहने पतियों के साथ रहती हैं। यह बात अलग है की भरत नंदीवन में तपस्यारत हैं तो सीता कुछ वर्ष लंका में रहने बाध्य है।
इन चौदह वर्षों में अयोध्या में क्या हुआ होगा, उर्मिला की जिम्मेदारियां कितनी बढ़ गई होंगी ? घर में तीन वृद्ध सासें और जेठानी भरत की पत्नी मांडवी, देवरानी शत्रुघ्न की पत्नी। देवर जो अयोध्या के निकट नंदीग्राम में झोपड़ी बना कर रह रहा है। सास कैकेयी जो उनके खुद के निर्णय के कारण सबसे अलग-थलग उपेक्षा सह रही है। कौशल्या का राजगद्दी पर बैठता हुआ पुत्र वन चला गया। सुमित्रा भी पुत्र वियोग में दु:खी है।
ऐसे वातावरण में अपने को संभालने के साथ पूरे परिवार में सामाजस्य बिठाने का भार उर्मिला ने ही अपने कंधो पर ले रखा है । यह देख कर क्या ऐसा नहीं लगता की सीता के त्याग से उर्मिला का त्याग बड़ा है। क्योंकि हम देखते हैं की राम सीता-लक्ष्मण के वन गमन के पश्चात वे ही परिवार का मुख्य आधार स्तम्भ थी। ध्यान देने की बात यह है की उर्मिला का चौदह वर्ष का जागरण एक ऐसी तपस्या है जिसे समझना आसान नहीं है।
गुप्तजी की उर्मिला, आदर्श की प्रतिमा है और कर्तव्य की वेदी पर चढ़कर स्वामी के कर्त्तव्य पथ पर अपने को अन्य बहनों से बिना ईष्या बलिदान कराती है-
अपने अतुलित कुल में
प्रकट हुआ था कलंक जो काला,
वह उस कुल-बाला ने
अश्रु-सलिल से समस्त धो डाला।
साकेत का नवम सर्ग उर्मिला के उच्छवासों और तप्त आंशुओं से भीगा हुआ है। उर्मिला अपने आराध्य की प्रतिष्ठा करके अपने आप आरती की ज्वाला बनकर जल रही है-
मानस-मंदिर में सती, पति की प्रतिमा थाप,
जलती सी उस विरह में, बनी आरती आप।
आँखों में प्रिय मूर्ति थी, भूले थे सब भोग,
हुआ योग से भी अधिक उसका विषम-वियोग।
आठ पहर चौंसठ घड़ी स्वामी का ही ध्यान,
छूट गया पीछे स्वयं उससे आत्मज्ञान।‘
गुप्तजी ने साकेत में उर्मिला को मूर्तिमति उषा, सुवर्ण की सजीव प्रतिमा कनक लतिका, कल्पशिल्पी की कला आदि कहकर उसके शारीरिक सौंदर्य की अनुपम झांकी प्रस्तुत की है। चित्रकूट को आधार बना उर्मिला अपना परिचय देती है, दूसरी बात यह भी है की जहाँ-जहाँ लखन है वहां उर्मिला अपने को पाती है-
मिथिला मेरा मूल है और अयोध्या फूल,
चित्रकूट को क्या कहूँ, रह जाती हूँ भूल!
सिद्ध-शिलाओं के आधार,
उर्मिला प्रेम एवं विनोद से परिपूर्ण हास-परिहासमयी रमणी है। उसका हास-परिहास बुद्धिमत्तापूर्ण है, लक्ष्मण जब उर्मिला की मंजरी-सी अंगुलियों में यह कला देखकर अपना सुधबुध भूल जाते हैं और मत्त गज-सा झूम कर उर्मिला से अनुनय करते हैं-
‘कर कमल लाओ तुम्हारा चूम लूं।‘
इसके प्रत्युत्तर में उर्मिला अपना कमल-सा हाथ पति की ओर बढ़ाती हुई मुस्कराती है और विनोद भरे शब्दों में कहती है-
‘मत्त गज बनकर, विवेक न छोड़ना।
कर कमल कह, कर न मेरा तोड़ना।’
एक ओर उसका दाम्पत्य जीवन अत्यन्त आल्हाद एवं उमंगों से भरा हुआ है तो दूसरी ओर उसमें त्याग, धैर्य एवं बलिदान की भावना अत्यधिक मात्रा में विद्यमान है। लक्ष्मण के वन गमन का समाचार सुनकर उसके हृदय में भी सीता की भांति वन-गमन की इच्छा होती है, परन्तु लक्ष्मण की विवशता देखकर वह अपने प्रिय के साथ चलना उचित नहीं समझती। वह अपने हृदय में धैर्य धारण करके अपने मन को यह कह कर समझा लेती है-
‘तू प्रिय-पथ का विघ्न न बन
आज स्वार्थ है त्याग धरा।
हो अनुराग विराग भरा।
तू विकार से पूर्ण न हो
शोक भार से चूर्ण न हो॥’
उर्मिला अत्यन्त भोली-भाली सुकुमार एवं कोमल हृदयवाली भी है। राज-सुखों में पली हुई वह नवयौवना वियोग का दु:ख क्या होता है, उसे नहीं जानती-
स्वामि-सहित सीता ने
नन्दन माना सघन-गहन कानन भी,
वन उर्मिला बधू ने
किया उन्हीं के हितार्थ निज उपवन भी !
इसीलिए अपने प्रियतम पति लक्ष्मण के बिछुड़ते ही वह अपने धैर्य को सम्हाल नहीं पाती-
‘यह विवाद वह हर्ष कहों अब देता था जो फेरी
जीवन के पहले प्रभाव में आँख खुलीं जब मेरी।
अपने पति के बारे में यही कामना करती है-
‘करना न सोच मेरा इससे।
व्रत में कुछ विघ्न पड़े जिससे॥‘
उर्मिला को चौदह वर्षों का विरहकाल व्यतीत करना आसान नहीं है। उसके पास लक्ष्मण के साथ बिताये हुए सुखमय जीवन की स्मृतियों के सिवाय कुछ भी नहीं है-
दीपक-संग शलभ भी
जला न सखि, जीत सत्व से तम को,
क्या देखना – दिखाना
क्या करना है प्रकाश का हमको?
एक-एक पल पर्वत सा प्रतीत होता है, किन्तु विरह के इस वृहत काल को तो गुजारना ही होगा। वेदना से उर्मिला का संवाद –
वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोड़ी है तू ने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में,
ओ प्रिय-विशिख-अनी!
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु-सनी,
तू ही उष्ण उसे रक्खेगी मेरी तपन-मनी!
आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्टि-जनी!
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी!
अरी वियोग-समाधि, अनोंखी, तू क्या ठीक ठनी,
अपने को, प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राण-धनी।
यह निश्चय करके उर्मिला सेवा का मार्ग अपना लेती है। वह अपनी सासों की सेवा करती है, रसोई बनाती है-
बनाती रसोई, सभी को खिलाती,
इसी काम में आज मैं तृप्ति पाती।
रहा किन्तु मेरे लिए एक रोना,
खिलाऊँ किसे मैं अलोना-सलोना?
किसानों की दशा पूछती रहती है-
‘पूछी थी सुकालदशा मैंने आज देवर से’
इतना ही नहीं, वह नगर की जितनी प्रोषित पतिकाएं हैं, उनकी सुध-बुध लेती है। उनके हाल-चाल जानने के लिए आतुर रहती है। क्योकि उसे बार-बार चित्रकूट याद आता है-
साल रही सखि, माँ की
झाँकी वह चित्रकूट की मुझको,
बोलीं जब वे मुझसे—
‘मिला न वन ही न गेह ही तुझको!’
जात तथा जमाता समान ही
मान तात थे आये,
पर निज राज्य न मँझली
माता को वे प्रदान कर पाये!
दिन-रात स्वामी के ध्यान में डूबने के कारण वे स्वयं को भी भूल गई हैं। लेकिन उसे यह विश्वास है की जैसे हम यहाँ जल रहीं हैं ऐसे ही वह लक्षमण भी दुखी होंगे!
पतंगे का दीपक के प्रति समर्पण को गुप्त जी उर्मिला के माध्यम से किस तरह व्याख्यायित कर रहे हैं वह प्रेरणादायी है, अदभुत हैं। जीतनी बार पढ़े एक नया अर्थबोध कराता है। दीपक और पतंगे की लम्बी वार्ता मनो उर्मिला और लक्ष्मण की वार्ता हो-
दोनों ओर प्रेम पलता है।
सखि, पतंग भी जलता है
हा! दीपक भी जलता है!
सीस हिलाकर दीपक कहता—
‘बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
पर पतंग पड़ कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
जले नही तो मरा करे क्या?
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है।
कहता है पतंग मन मारे—
‘तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
क्या न मरण भी हाथ हमारे?
शरण किसे छलता है?’
दोनों ओर प्रेम पलता है।
दीपक के जलनें में आली,
फिर भी है जीवन की लाली।
किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
किसका वश चलता है?
दोनों ओर प्रेम पलता है।
जगती वणिग्वृत्ति है रखती
,उसे चाहती जिससे चखती;
काम नहीं, परिणाम निरखती।
मुझको ही खलता है।
दोनों ओर प्रेम पलता है।
मन-मंदिर में अपने पति की प्रतिमा स्थापित करके उर्मिला विरह की अग्नि में जलते हुए खुद आरती की ज्योति बन गई है। यह संकेत सर्ग के प्रारंभ में ही गुप्त जी दे दे देते है-
करुणे, क्यों रोती है? ‘उत्तर’ में और अधिक तू रोई-
‘मेरी विभूति है जो, उसको ‘भव-भूति’ क्यों कहे कोई?’
ऐसे में जब विरह में कामदेव पूरे ऋतु साज के साथ आकर सताता है तब उर्मिला के संवाद आत्मविश्वास से भरे दिखाई देते हैं –
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नहीं भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह-यह हर-नेत्र निहारो!
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!
आँखों में प्रिय की मूर्ति बसाकर सभी मोह-माया को त्याग करउर्मिला का जीवन एक योगी के जीवन से भी ज्यादा कठिन और कष्टदायक है। कितनी कारुणिक पंक्तियाँ हैं ये ! सखियों की वार्ता –
लिख कर लोहित लेख, डूब गया है दिन अहा !
ब्योम-सिन्धु सखि, देख, तारक-बुद्बुद दे रहा !
बता अरी, अब क्या करूँ, रुपी रात से रार,
भय खाऊँ, आँसू पियूँ, मन मारूँ झखमार!
वनवास से वापस लौटने के पश्चात् भी लक्ष्मण उर्मिला से दूर-दूर ही रहे। सीता जी के समझाने के बाद वे उर्मिला से मिलने उनके कक्ष में गए। वहाँ उर्मिला की दशा देखकर वे तड़प उठे, क्योंकि उर्मिला मात्र हड्डियों का ढाँचा बनकर रह गईं थीं। उनकी उस दशा को गुप्त जी ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है —
‘जो आज्ञा ! लक्ष्मण गए कुटी में ,
ज्यों घुसे सूर्य-कर-निकर सरोज-पुटी में।
जाकर परन्तु जो वहां उन्होंने देखा,
तो दिख पड़ी कोणस्थ उर्मिला-रेखा।
यह काया है या शेष उसी की छाया,
क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया !’
इन पंक्तियों का सार है ‘उर्मिला की काया’ शरीर केवल एक छाया मात्र दिख रही है अर्थात नाम का शरीर रह गया है। वियोग की पीड़ा ने उनको एक रेखा समान बना दिया है। किन्तु वह काया को मिलन के लिए तो रखती है-
कहाँ जायँगे प्राण ये लेकर इतना ताप?
प्रिय के फिरने पर इन्हें फिरना होगा आप।
तभी तो सीता जी ने लक्ष्मण से कहा था कि ‘हजारों सीता मिलकर भी उर्मिला के त्याग की बराबरी नहीं कर सकतीं।’
१९८८ के संस्करण में गुप्त जी का लिखा यह विचार उर्मिला की समापन की इन पक्तियों के साथ उल्लेखित हैं- “ यों तो ‘साकेत’ दो वर्ष पूर्व ही पूरा हो चुका था ; परन्तु नवम सर्ग में तब भी कुछ शेष रह गया था और मेरी भावना के अनुसार आज भी वह अधूरा। यह भी अच्छा ही है। मैं चाहता था की मेरे साहित्यिक जीवन के साथ ही ‘साकेत’ की समाप्ति हो, परन्तु जब ऐसा नहीं हो सका, तब उर्मिला की निम्नोक्ति आशा निराशामायी उक्तियों के साथ उनका क्रम बनाये रखाना ही मुझे उचित जन पड़ता है-
कमल, तुम्हारा दिन है और कुमुद, यामिनी तुम्हारी
कोई हताश क्यों हो, आती सब की सामान बरी ।
धन्य कमल, दिन जिसके, धन्य कुमुद, रत साथ में जिसके,
दिन और रात दोनों, होते हैं हाय ! हाथ में किसके ?
बेहद ही रोचक।
ReplyDeleteBahut sundar aalekh
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