Friday, 2 June 2023

ईकाई दो

 ईकाई दो

शारीरिक एवं मानसिक विकास के अर्थसंकल्पना-

आदर्श दिनचर्यासंतुलित आहारऋतुचर्यासूक्ष्म व्यायाम।

अष्टांग योग -यम-नियम ईश्वर प्राणिधानस्वाध्यायसंतोषधैर्यसदाचारअनुशासन का अभ्यास।

अतीत गौरवसामाजिक एवं नागरिकता बोधसर्वपंथ सम्मान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण।

राष्ट्रराष्ट्रीयतालोकतंत्रस्वाधीनतासुराजवसुधैव कुटुम्बकम्सह अस्तित्व।

 

शारीरिक एवं मानसिक विकास के अर्थसंकल्पना-

पिछले अध्याय में हमने पंचकोशात्मक व्यक्तित्व विकास की संकल्पना को समझने का प्रयास किया। व्यक्तित्व विकास का वह एक आयाम था। दूसरा आयाम व्यक्तित्व विकास काव्यापक संदर्भ में है। मनुष्य अकेले में नहीं जीता सबके बीचसबके साथ सम्बन्धित होकरसबसे प्रभावित होते हुएसबको प्रभावित करते हुए जीता है। इस जीवन का विकास कैसे होता है और शिक्षा ने उसमें क्या भूमिका निभानी चाहियेइसका विचार भी हमने करना चाहिये। विकास के इन स्तरों का विचार इस अध्याय में किया गया है।विकास के स्तर इस प्रकार है:-१. व्यक्ति'मनुष्य का जब जन्म होता है तब उसका व्यक्तिगत जीवन - इस जन्म का प्रारम्भ होता है और मृत्युपर्यन्त चलता है। उसका यह पंचकोशात्मक व्यक्तित्व समय के साथ विकसित होता रहता है। उसकी कर्मन्द्रियाँ कार्य करती हैंशरीर के सभी संस्थान अपना-अपना कार्य करते हैं। उनकी अपनी-अपनी आवश्यकतायें होती हैं। अपनी-अपनी क्षमतायें होती हैं। अपनी-अपनी विकास की पद्धति होती हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन गत अध्याय में हमने पदा है।मनुष्य व्यक्तिगत स्तर पर अपना विकास करेअपनी क्षमतायें बढ़ायेअपनी इच्छा एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करेपूर्ति करने का सामर्थ्य जुटाये यह सब आवश्यक है। व्यक्तिगत रूप से शरीर स्वस्थसुन्दरबलवानकुशल हो प्राण बलवान एवं संतुलित होंमन एकाग्रशान्तअनासक्तसद्भाव युक्त होबुद्धि तेजस्वीकुशाग्र एवं विवेकपूर्ण होचित प्रसन्न एवं शुद्ध हो इसके लिये व्यक्ति ने हर सम्भव प्रयास करने चाहिये। शिक्षा ने इसकी योजना करनी चाहिये अर्थात इसको अपना महत्वपूर्ण उद्देश्य बनाना चाहिये। इसको ध्यान में रखकर पाठ्यचर्यापाठयक्रमपाठ्य पुस्तकेंपाठन पद्धति निर्धारित होनी चाहिये। व्यक्ति स्वयं स्वतन्त्रस्वावलम्बीबुद्धिमानगुणवानपराक्रमीकुशल बने यह देखना व्यक्ति कापरिवार कासमाज काशासन कासभी का लक्ष्य होना चाहिये। विकास प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है।परन्तु व्यक्ति कितना भी समर्थ हो वह अकेला नहीं जीता है। वह उसके लिये सम्भव भी नहीं है और वह अच्छा भी नहीं लगता। इसका मूल कारण यह है कि वह किसी न किसी रूप में सभी से जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिये जुदा उसकी देठ पंचमहाभूत की बनी हुई है तो सृष्टि के सारे निर्जीव पदार्थ भी पक्ष महाभूत के ही बने हुए हैं। अर्थात् उस स्तर पर वह निर्जीव पदार्थों से हुआ है। प्राणमय कोश के स्तर पर वह सभी जीवित प्राणियों एवं वनस्पति जगत के साथ जुड़ा हुआ है।

 

आदर्श दिनचर्यासंतुलित आहारऋतुचर्यासूक्ष्म व्यायाम-

              आदर्श दिनचर्या-

              संतुलित आहार-

               ऋतुचर्या-

             सूक्ष्म व्यायाम-  योग मनशरीर और आत्मा का मेल है । एक बार जीवन में जब इन तीनों में  मेल हो जाता हैतो हम पूर्णता की और बढ़ते हैं । व्यायाम योग, योग का प्रथम चरण माना जा सकता हैजिससे शरीर सधता है । हम कोई भी शारीरिक व्यायाम करें उसका गहरा और स्थाई परिणाम होता है । इसलिए अगर व्यवस्थित और चरणबद्ध तरीके से पहले व्यायाम योग फिर आसन और फिर साँस -प्रस्वास आदि क्रियाएं करते हुए चलते हैं, तो योग की दिशा में बढ़ना प्रारम्भ होता है । व्यायाम योग के साथ प्रारम्भ कर योग करेंगे तो योग केवल चित्तमन को ही शांत नहीं करता, बल्कि शरीर को भी  स्वस्थ करता है और शरीर में शक्ति भी बढ़ाता है । व्यायाम योग के पहले शरीर संचालन की क्रिया करनी चाहिए ।  फिर द्रुति गति के व्यायाम योग अपनी क्षमता के आधार पर करना चाहिए । 

             शारीरिक और मानसिक शक्ति बढ़ाने के नियम: योग केवल शरीर को खींचना ही नहीं हैशरीर को खींचते रहने से कार्य क्षमता में कमी आती है । योग कामकाजी शक्ति बढ़ाता है जो कि प्रतिदिन के कार्यों में जैसे- उठनाझुकनाबैठनाचलना आदि में सहायता करता है । अधिकतर योग मुद्राएंविपरीत रूप से विशिष्ट श्वास पद्धति के साथ मिलकर केंद्रित और संकुचन की एक श्रृंखला बनाती हैंजो लचीलेपनगतिशीलता और शक्ति में लाभ पैदा करती हैं ।

अष्टांग योग -यम-नियम ईश्वर प्राणिधानस्वाध्यायसंतोषधैर्यसदाचारअनुशासन का अभ्यास-

(1) यम-‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’ (अ) अहिंसा- मनवाणी और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किचिंत मात्र भी दु:ख न देना ‘अहिंसा’ है ।परदोष दर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है । ‘अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।’ जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़ स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर भाव से रहित हो जाते हैं । इतिहास ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों की शोभा का वर्णन आता हैवहाँ वन जीवों में स्वाभाविक बेर का अभाव दिखलाया गया है । यह उन ऋषियों के अहिंसा भाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है। (ब) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम’ जो योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिपक्व हो जाता हैउसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहतीउस समय वह स्वयं कर्तव्य पालन रूपी  क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है । जो कर्म किसी ने नहीं किया हैउसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस यागी में आ जाती हैअर्थात जिसको जो वरदानशाप या आशीर्वाद देता हैवह सत्य हो जाता है । इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकरसुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया होठीक वैसा ही भाव प्रकट करने के लिये प्रिय और हितकर तथा दूसरे को उद्वेग उत्पन्न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं उनका नाम सत्य है । (स) अस्तेय- ‘अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम’’। जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता हैतब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते है।  अर्थात उसकी जानकारी में आ जाते हैं। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करनाछल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना ‘स्तेय’ चोरी हैइसमें सरकार की टैक्स की चोरी घूसखोरी भी सम्मिलित है। इन सब प्रकार की चोरियों का अभाव ‘अस्तेय’ है। (द) ब्रह्मचर्य- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:’। जब साधक में ब्रह्मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति  हो जाती है तब उसके मनबुद्धिइन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। साधारण मनुष्य उनकी बराबरी नही कर पाते। मनवाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ‘ब्रह्मचर्य’ हैं । ‘‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते’’।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) अत: साधक को चाहिये कि न तो कामदीपन करनेवाले पदार्थों का सेवन करेन ऐसे दृष्यों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों का और स्त्री साहित्य को पढ़े और न ही ऐसे पुरुषों का संग करे जो स्त्री पर आसक्त हों। (ई) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता हैतब उसे अपना पूर्व और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करनेवाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधना में प्रवृत करने वाला है। अपने स्वार्थ के लिये ममता पूर्वक धनसम्पति और भोग-सामग्री का संचय करना ‘परिग्रह’ हैइसके अभाव का नाम अपरिग्रह है।

             (2) नियम- ‘‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:’’। (क) शौच- जलमृतिकादि के द्वारा शरीरवस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाहर  की शुद्वि हैइसके सिवा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथा योग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी  बाहरी शुद्धि के ही अन्तर्गत है। जपतप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्त:करण के राग-द्वेषादि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है। (ख)संतोष- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जायउसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है । (ग) तप- वर्णआश्रमपरिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिकमानसिक कष्ट सहने की सामर्थ्य ‘तप’ है । (घ) स्वाध्याय- अध्ययन (वेदशास्त्रमहापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है । (ड) ईश्वर प्राणिधान - ईश्वर के नामगुणलीलाध्यानप्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्राणिधान है। तपस्वाध्यायईश्वर प्राणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं।

             (3) आसन - आसन का स्थान तृतीय है, इसके अंतर्गतबैठनाबैठने का आधारबैठने की विशेष प्रक्रिया, बैठ जाना इत्यादि  आता है । जबकि गोरक्षपीठ द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है । चित्त की स्थिरताशरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है ।

              उच्च स्वास्थ्य की प्राप्तिशरीर के अंगों की दृढ़ताप्राणायाम आदि उत्तरवर्ती साधन क्रमों में सहायताचित्त स्थिरताशारीरिक एवं मानसिक सुख दायी आदि । पंतजलि ने मन की स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है । प्रयत्न शैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है । इसके सिद्ध होने पर द्वंद्वों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता, किन्तु पातंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया । उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे-पद्मासनभद्रासन आदि) किया है । इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य में मिलता है ।

             शरीर को पुष्ट करने वाले मुख्य यौगिक व्यायाम या मुद्राएं- त्रिकोणासनवीरभद्रासनगोमुखासन,  नटराजासन एकपादासनवृक्षासनताडासनउत्कटासन आदि हैंजिन्हें तीन प्रकार से समझा जा सकता है-  बैठकर : पद्मासनवज्रासनसिद्धासनमत्स्यासनवक्रासनअर्ध-मत्स्येन्द्रासनगोमुखासनपश्चिमोत्तनासनब्राह्म मुद्राउष्ट्रासनगोमुखासन । पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासनहलासनसर्वांगासनविपरीतकर्णी आसनपवनमुक्तासननौकासनशवासन आदि । पेट के बल लेटकर : मकरासनधनुरासनभुजंगासनशलभासनविपरीत नौकासन आदि । पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार - ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है  या जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी होवह आसन है । इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आसन वह है जो आसानी से किए जा सकें तथा हमारे जीवन शैली में विशेष लाभदायक प्रभाव डाले ।

 

अतीत गौरवसामाजिक एवं नागरिकता बोधसर्वपंथ सम्मान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण-

 

राष्ट्रराष्ट्रीयतालोकतंत्रस्वाधीनतासुराजवसुधैव कुटुम्बकम्सह अस्तित्व- दूसरा एक तथ्य यह भी है कि ये सारे विकास के स्तर क्रमिक हैं। इनमें से किसी को भी दुर्लक्षित करके आगे नहीं बढ़ा जाता। एक परिपक्व होने के बाद ही दूसरा सम्भव हो जाता है। आज भारतीय नागरिकता को संकुचित मानकर विश्वनागरिकता की बात बोलने वाले कई लोग मिल जाते हैं। परन्तु भारतीय नागरिकता के बिना विश्व नागरिकता का स्तर प्राप्त हो नहीं सकता। विश्व नागरिकता के बिना भी भारतीय नागरिकता प्राप्त हो सकती है परन्तु इससे उल्टा सम्भव नहीं है। भारतीय नागरिकत्व परिपक्व हो जाने के बाद ही विश्व नागरिकता सम्भव है। यदि हम विश्व नागरिकता को प्राप्त करते हैं तो भारतीय नागरिकता को हानि नहीं होतीअपितु वह और पुष्ट होती है। यदि भारतीय नागरिकता को हानि होती है तो कहीं न कहीं हमारा दोष है यह मानना चाहिये। अर्थात हम विश्व कल्याण की बात करेंगे तो भारत के कल्याण के विरोधी वह नहीं होना चाहिये। विश्वप्रेम की स्थिति पर पहुंचने से भारतप्रेम और प्रगाद होना चाहिये।

इस मूलभूत कारण से उसका जीवन अकेले में न सम्भव है न आनन्दयुक्त है।सबके साथ सम्बन्धित रहकर जीने के जो स्तर बनते हैं वे उसके विकास के सोपान बनते हैं। वे सोपान इस प्रकार है:-

2. परिवार-व्यक्तिगत के बाद तुरन्त का जो स्तर है वह पारिवारिक स्तर है। बालक का जन्म होता है तब वह माता के गर्भाशय से ही इस सृष्टि में आता है। इसलिये उसका प्रथम सम्बन्ध माता से है। माता-पिता के व्यक्तित्व से उसका जन्म हुआ है। इसलिये उसका सम्बन्ध पिता से है। यह सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि बालक वास्तव में माता-पिता के व्यक्तित्व का ही विस्तार माना गया है। इस अर्थ में वह सम्पूर्ण कुल परम्परा की अगली कड़ी है। उसके माता-पिता के अन्य पुत्र-पुत्रियाँ भी है। वे उसके भाई-बहन हैं। उनसे भी उसका सम्बन्ध है। उसके माता-पिता के भाई-बहनमाता-पिताउनकी संन्ताने है। अर्थात् एक बहुत बड़ा समुदाय है जिसके साथ वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में रक्त सम्बन्ध से जुड़ा है। आगे चलकर उसका विवाह होता है तो दूसरे कुल से उसका सम्बन्ध जुड़ता है। उसके आधार पर फिर उसकी सन्तानें होती है। तो कुल परम्परा आगे बढ़ती है। इस विशाल समुदाय को परिवार कहते हैंकुटुम्ब कहते हैं। विभिन्न प्रकार के सभी सम्बन्धों को एक संकल्पना में समाविष्ट करने के लिये कुटम्ब-कबीला भी कहते हैंगौत्र भी कहते हैं।परिवार की संकल्पना का मूल है रक्त सम्बन्ध यह सम्बन्ध अन्नमय कोश से प्रारम्भ होकर आनन्दमय कोश तक पहुँचता है। जब बालक का जन्म होता है तो वह अपने आप कुछ भी नहीं कर सकता। अपने परिवार जनों पर ही उसे निर्भर रहना पड़ता है। परिवार के सभी लोग उसका लालन-पालन करते हैंउसकी सहायता करते हैं। धीरे- धीरे वह शारीरिकमानसिक व बौद्धिक स्तर की सभी बातें परिवार के वातावरण में अनुभव सेअनुकरण सेअभ्यास से सीखता है। इसीलिये कहते हैं कि माता बालक की प्रथम गुरु है और परिवार प्रथम पाठशाला ।परिवार के सम्बन्ध प्रेम के होते हैंआत्मीयता के होते हैं। स्नेहमय वातावरण में वह दूसरों का विचार करनादूसरों के लिये कष्ट सहनादूसरों के लिये त्याग करनादूसरों की सेवा करना आदि सभी के संस्कार पाता हैक्योंकि उसकी प्रथम गुरु माता प्रेमत्यागसेवाकष्ट की साक्षात् प्रतिमा होती है और इन सबको ग्रहण करने वाला वह स्वयं होता है। परिवार के अन्य सदस्य भी इसी प्रकार का भाव एवं व्यवहार उसके प्रति रखते हैं। स्वयं स्नेहसेवा आदि पाता है इसलिये वह यह सब देना भी सीखता है। अर्थात् स्नेहप्रेमत्यागसेवासुरक्षा आदि सब स्वाभाविक रूप से उसके चरित्र निर्माण के आधार बनते हैं।परिवार का परिचय अपने परिवार को पहचाननासम्बन्धों को 8 जाननासम्बन्धित व्यक्तियों को जाननाउसके स्वभाव का परिचय प्राप्त करना आदि सब व्यक्ति ने करना होता है। सभी के प्रति यथायोग्य स्नेह और आदर की भावना का विकास परिवार में होता है। स्नेह और आदर दर्शन के लियेसेवा करने के लिये कई कार्य करने होते हैं। वे सब कार्य करने की कुशलता प्राप्त करना भी परिवार में ही होता है। उनके साथ वार्तालाप करने के लिये भाषा सीखना भी परिवार में ही होता है। परिवार की व्यवस्था -परिवार का मूर्त रूप है घर घर यह स्थूलरूप में भवन होता है। इस भवन में सभी प्रकार की व्यवस्थायें होती हैं। मनुष्यव्यक्तिगत जीवन में जो भी क्रिया-कलाप करता है अर्थात खाता हैसोता हैरहता हैलिखता हैपढ़ता है उसकी व्यवस्था घर में ही होती है। घर को स्वच्छ रखा जाता हैघर को सुविधापूर्ण बनाया जाता हैघर को सजायाजाता है। घर की ये सारी व्यवस्थायें जाननाकरनासम्हालना प्रत्येक व्यक्ति को आना चाहिये।परिवार का वातावरण- घर आश्रय स्थान हैघर आनन्द-प्रमोदका स्थान हैघर संस्कार प्राप्त करने का स्थान हैघर पवित्र स्थान हैघर लालन-पालन प्राप्त करने का स्थान हैपर प्रेम और आत्मीयता पाने का स्थान है। अतः घर का वातावरण प्रेमपूर्ण संस्कारक्षमपवित्र ऐसा बनाना चाहिये। पालक के लिये बाकी सभी परिवारजन ऐसा वातावरण बनाते है। धीरे-धीरे बालक बड़ा होता है और ऐसा वातावरण बनाये रखने में स्वयं भी योगदान करता है। बाद में ऐसा वातावरण स्वयं निर्माण करना भी सीखता है। सीखते- सीखते उसका करना और सिखाना भी हो जाता है।

पारिवारिक कार्य - घर में सब साथ मिलकर रहते है। अपनी- -अपनी शारीरिक-मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति वहां पाते है। अतः परिवार के मिलकर कुछ कार्य होते हैं। भोजन बनानाघर स्वच्छ रखनाकपड़े धोनाबर्तन साफ करनापूजा करनाअतिथि सत्कार करनाघर की सजावट करनाछोटे बच्चों को सम्हालनावृद्धों कीबड़ों की सेवा करनापालतू पशु-पक्षियों की देखभाल करनानौकर-चाकरों की देखभाल करनाकुल के व्रतउत्सवत्यौहार मनानाअर्थोपार्जन करना आदि सब परिवार के कार्य है। ये सारे कार्य सीखना और करना पारिवारिक जीवन के विकास के लिये आवश्यक है।

कुल परम्परा - कुल रक्त सम्बन्ध से बनता है। वंश परम्परा से उसका इतिहास बनता है। अनेकानेक व्यक्तियों तक उसकी व्याप्ति होती है। कुल के कुछ आचारविचारदृष्टिकोणलाक्षणिकतायेंविशेषतायें होती है। इन परम्पराओं को जाननाअपनानाइनके विषय में गारव अनुभव करनाइनको बनाये रखने में अपना योगदान देनाउसमें समयानुकूल परिवर्तन करनाउन्हें पुरस्कृत करना पारिवारिक जीवन विकास के लिये आवश्यक है।

संक्षेप में कहें तो परिवार-भावनापरिवार व्यवस्थापरिवार का वातावरणपरिवार की परम्परा ये सब पारिवारिक स्तर के विकास के आयाम हैं। इस प्रकार के विकास का मुख्य केन्द्र तो घर ही है। फिर भी इसका ज्ञानात्मक पक्ष विद्यालयीन पाठ्यचर्या का विषय होना चाहिये।

3. समाज-व्यक्ति का एक व्यक्तिगत जीवन होता है। दूसरा पारिवारिक जीवन होता है। परिवार से आगे समाज होता है। समाज और समाज जीवन ये हमारे लिये बहुत परिचित शब्द हैं। हजारों वर्षों से हमारी समाज व्यवस्था बनी हुई है। समाज व्यवस्था की मूल इकाई परिवार है। यह बात ध्यान में रखने योग्य परिवार भाषा इस दिशा में आधारभूत तरण है। परिवार आ रोटी में उसके ही होते है। उसकी होते हैं।के सकती होते हैं।दिलकर एक समागताभिन्न जाति सम्प्रदाभाषारीतिरिवाज के लोग रहते हैं। कितने हीहोते हैं। इन सभी विविधताओं से मुक्त समाज के साथ आनीयता बना यह सामाजिक विकास का प्रथम चरण है। समाज के साथ समरस होनासामाजिक दायित्व का बोध होना इस समाज का अंग हूँ इसका अनुभव करमा प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षित है।समाज को शुद्र एवं सुयवस्थित रखने के लिये कुछ व्यवस्थायें होती है। इसका बहुत ही प्राथमिक स्तर के सार्वजनिक पाणीप्रकाशवायुपानी निःसरणस्वच्छताआरोग्य आदि की व्यवस्थायें। इन व्यवस्थाओं को बनाये रखना और बनानाइनका अनुशासनपूर्ण उपयोग करना सामाजिक विकास है।आज की स्वीकृत धारणा यह है कि सारी की सारी सार्वजनिक व्यवस्थायें 'शासन द्वारा होंगी। उनको बनाये रखने का काम भी शासन का ही है। परन्तु मूल भारतीय विचार के अनुसार समाज के धनी परिवारों का इस दायित्व में बहुत बड़ा योगदान होता था। अपने धन का बहुत बड़ा हिस्सा सर्वजन समाज के उपयोग के लिये जलाशयउद्यानसदाव्रत (रामरोटी)विश्रामगृहधर्मशाला चौपाल आदि बनवाने में खर्च होता था। यह सामाजिक दायित्व बोध हैसमाज के प्रति आत्मीयता का कृतिरूप है। समाज के किसी भी व्यक्ति को भूखा न रहना पड़े यह सबकी चिन्ता का विषय होता है।"समाज के कई संस्कार होते हैं। ये सामाजिक चेतना के केन्द्र होते हैं। विद्यालयदेवस्थानसन्त महात्माओं के मठ या आश्रमपुस्तकालय एवं वाचनालय आदि सब ऐसे संस्कार केन्द्र हैं। समाज को यहाँ से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त होते हैं। ये बहुत बड़े शिक्षा के भी केन्द्र होते हैं। इनका पोषण करना इनसे ज्ञान एवं मार्गदर्शन ग्रहण करनाइनके प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का भाव रखना सामाजिक विकास के ही आयाम हैं।समाज को धारण करने वाली कई संस्थायें हैं। वे हैं- परिवार संस्थावर्णाश्रमव्यवस्थाविवाह संस्थाआचार्य संस्था आदि। इन संस्थाओं के उद्देश्यकार्य प्रणालीमहत्व आदि सब समझनाउनका पालन करनाउसके अनुसार अपने जीवन को ढालनाउन्हें पुष्ट करना और अपने बाद में आने वाली पीढ़ी को संस्कारशिक्षा और अनुशासन के रूप में देना हमारा सामाजिक कर्तव्य है।समाज जीवन को अनुप्राणित करने वाली बहुत सामाजिक परम्पराये होती है। ये हैं पर्वत्यौहारउत्सवमेले आदि। ये सब सार्वजनिक होते हैं। तब उनको मनाने की कुछ सर्वसम्मत ऐसी पद्धतियाँ होती हैं। उदाहरण के रूप में सभी पर्वोंउत्सवों में दानधनदानअन्नदान आदि और देवदर्शन जुड़ा ही हुआ है। अनेक उत्सवों में सत्संग कीर्तनकथाश्रवण आदि जुदा हुआ है। जैसे कि विशाल सत्संगविशाल यज्ञ का आयोजनरामकथाभागवत कथासामूहिक सत्यनारायण पूजा एवं कथाकुम्भ मेला आदि। ये सब समाज जीवन में आनन्दउल्लाससमरसतासंस्कारशिक्षास्नेहपोषणरक्षणआश्रय आदि सबको प्राप्त हो इसीलिये होते हैं। इस दृष्टि से इसका ज्ञानयुक्तश्रद्धापूर्ण अनुसरण करना चाहिये। यदि ज्ञान युक्त अनुसरण होगा तो समयानुकूल परिवर्तन होकर यह परिष्कृत होता रहेगा। यदि ज्ञानविहीन होगा तो अन्धश्रद्धा और निरर्थक कर्मकाण्ड बन जायेगा। इनमें विकृति आयेगी और समाज के लिये हानिकारक होगा। ऐसा नहीं होने देना यह प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक दायित्व है।समाज को धारण करने के लिये भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था भी होनी चाहिये। इसके लिये कृषिगोपालनभिन्न-भिन्न व्यवसायकला कारीगरीव्यापार उद्योग आदि सब होते हैं। इन भिन्न-भिन्न व्यवसायों में अपनी रुचिक्षमता और संस्कार के अनुसार अपना व्यवसाय चुननाउसे पूर्ण दक्षता से सीखनापूर्ण हृदय से समाज की सेवा के रूप में करनाउससे जो धन की प्राप्ति होती है उसे समाज देवता के प्रसाद के रूप में ग्रहण करनासबके साथ बाँट कर उसका उपभोग करना हमारा सामाजिक दायित्व है। वास्तव में अन्नजलवायुकपड़ाआश्रय आदि सभी को सहज ही उपलब्ध हो सकेउसके लिये उसे मोहताजी न करनी पड़े ऐसी समाज व्यवस्था आदर्श व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति यदि अपना-अपना दायित्व समझता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है तो ऐसी आदर्श व्यवस्था सहज रूप से हो सकती है।संक्षेप में समाज के साथ आत्मीयतासमरसतासमाज के प्रति सेवा भावउसके प्रति दायित्व का बोधपरम्पराओं का पालनव्यवसाय आदि सब जाननामानना और करना सामाजिक विकास है। सामाजिक विकास करने के केन्द्र परिवारविद्यालयसमाज स्वयंमंदिरमठकीर्तनसत्संग आदि सब है। विद्यालय के अनेकविध विषयों का नियोजन इसी प्रकार का विकास करने के लिये हुआ है। यह तथ्य ध्यान में रखकर इन्हें पढ़ाने की योजना करनी चाहिये।

4. राष्ट्र - जिसे हम प्रचलित भाषा में राज्य कहते हैं उससे राष्ट्र की संकल्पना अधिक व्यापक है। एक भूभागउसमें निवास करने वाला समाजउस समाज के व्यवहार को संचालित एवं प्रेरित करने वाली संस्कृतिउसकी सारी व्यवस्थाओं को संचालित एवं नियंत्रित करने वाला शासनउसके पर्वत नदियाँअरण्यसमुद्रउसको वैचारिक आधार देने वाला जीवन दर्शन - ये सब मिलकर राष्ट्र बनता है। राष्ट्र इस प्रकार से बहुआयामीविविध आयामी इकाई है।सामाजिक स्तर से आगे बढ़कर हम राष्ट्र के साथ समरस होते हैंतब हमारा राष्ट्रीय स्तर का विकास हुआ हैऐसा माना जायेगा।राष्ट्र के भू भाग का अर्थ है उसकी भौगोलिक सीमायें। हमारा राष्ट्र भारत है। भारत की भौगोलिक सीमायें हिमालय और पश्चिमदक्षिणपूर्व समुद्र से बनती है। हमारा इस भू-भाग के साथ भक्त और आराध्य देवता जैसा सम्बन्ध है। हम भारत को भारत माता कहते हैंउसकी स्तुति करते हैंउसकी कृपा चाहते हैंउसका रक्षण करने के लिये सब कुछ बलिदान करने के लिये सिद्ध रहते हैं। हिमालय हमारे लिये देवतात्मा है। नदियां हमारे लि मातायें हैं। सागर भारत माता के चरण पखारता है। हमारी मातृभूमि लक्ष्म सरस्वतीदुर्गा का समवेत स्वरूप है।इस प्रकार की देश भक्ति का भाव राष्ट्रीय विकास का आधारभ‍ आयाम है। यह देश भक्ति जब कृतिशील होती है तो हम देश की आि समृद्धि की रक्षा करते हैंउसमें वृद्धि करते हैं। देश की सीमाओं की रक्षा करने के लिए उद्यत रहते हैं। देश पर आक्रमण नहीं होने देते। जिससे देश का नुकसान न हो ऐसा कोई काम नहीं करते हैं। देशवासी होने से गौरव का अनुभव करते हैं। ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में भी देश का विकास हो इसलिए अध्ययन करते हैं। विचारों केकला केसाहित्य केउद्योगों के क्षेत्र में देश का विकास हो इसलिये प्रयत्नशील और उद्योगशील रहते हैं। विश्व में पेंश की प्रतिष्ठासम्मान और गौरव बढ़े इस प्रकार के प्रयत्न करते हैं।राष्ट्र का एक माग है शासन और प्रशासन । हमारा राष्ट्रीय स्तर का विकास होता है तब हम शासन और प्रशासन की सभी व्यवस्थायें बनाने में सहयोग करते हैंऔर स्वयं के आवरण से उसे बनाये रखते हैं। उदाहरण के लिये कानून का पालन करनामताधिकार का योग्य उपयोग करना सार्वजनिक स्थानों कीसरकारी स्थानों की सुरक्षा करनान्याय-तन्त्रदण्ड-विधान आदि का सम्मान करनासंविधान को पवित्र मानना और उसका भंग नहीं करनाराष्ट्रध्वजराष्ट्रभाषाराष्ट्रप्रतीक का गलती से भी अपमान नहीं करना आदि शासन और प्रशासन का आदर करना है। इस दिशा में हमारा विकास होना चाहिये।राष्ट्र जीवन की परम्पराओं का अनुसरण करनाहमारे पूर्वजों के प्रति गौरव और श्रद्धा का भाव रखना हमारे श्रद्धाकेन्द्रों के प्रति पूज्य भाव रखनाहमारी संस्कृति को ठीक रूप से जाननामानना और उसको व्यवहार में लानाअपने व्यवहार से उसे समृद्ध बनाना ये सभी हमारे विकास के आयाम हैं।राष्ट्र जीवन का आधार एक ओर हमारी संस्कृति होती है तो दूसरी और जीवन दर्शन होता है यह जीवन दर्शन हमारे सभी विचारभावना और व्यवहार के लिए आधार होता है। इस जीवन दर्शन का अध्ययन करनाउसे आत्मसात् करनाउसके अनुसार हमारा व्यवहार बनाना यह हमारे राष्ट्रीय स्तर का विकास है।राष्ट्र जीवन का और एक प्रमुख अंग हैधर्म । धर्म तो राष्ट्र को धारण करता है। अतः धर्म का पालन सबके लिये अनिवार्य है। धर्मयह सम्प्रदाय नहीं हैपूजा पद्धति नहीं हैव्रत उपवास आदि नहीं है। धर्म विश्व को धारण करने वाली सर्वव्यापकसर्वसमावेशकशाश्वत ऐसी वैश्विक व्यवस्था है। इसका करना हमारे लिये हमारे समाज के लिये राष्ट्र के लिये तिकारक है। यह हमारे पर है।राष्ट्र जीवन के सार काहो इसलिये हमें शिक्षा की आवश्यकता है। वास्तव में जीवन के सभी आयामों में इस प्रकार से अनुस्यूत होनी चाहिये जैसे दाल सब्जी में नमकशरीर में प्राण और शब्दों में अर्थ इतिहासभूगोलनागरिकशास्त्रधर्मसंस्कृति आदि सभी विषयों की रचना राष्ट्रजीवन आत्मसात् करने के लिये ही होती है।

5. विश्व-  में एक से अधिक राष्ट्र होते है। इन सबके धर्मसंस्कृतिइतिहासभूगोलजीवन दर्शन आदि एक दूसरे से भिन्न होते है। मनुष्य क विकास राष्ट्रीय स्तर से भी आगे बढ़ता है। तब वह वैश्विक स्तर पर पहुंचता है। सभी धर्मों को समझता हैउनकी तुलना करता है। सभी संस्कृतियों को जानने का प्रयास करता हैउसका अनुभव लेता है। वह सभी से समरस होने काप्रयास करता है। सभी के प्रति प्रेम और आदर का भाव विकसित करता है। विश्व का इतिहासभूगोलधर्मसंस्कृतिसाहित्यकलाजीवन दर्शन आदि का अध्ययन इसी दृष्टि से किया जाता है।

6. सृष्टि-इस विश्व में केवल मनुष्य ही नहीं है तो पशुपक्षीप्राणीवृक्षवनस्पतिपर्वतनदीसमुद्रधरती और आकाश आदि सब है। इस सृष्टि में पंचमहाभूत है। सूर्यचन्द्रनक्षत्र हैं। मनुष्य इस सृष्टि का ही एक अंश है। शास्त्रवचन कहता है- यत्पिण्डे सत् बह्माण्डे अर्थात पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक अंश मनुष्य है। हमने पूर्व अध्याय में देखा है कि ब्रह्म का व्यक्त रूप यह सृष्टि है। इस सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकात्मता का अनुभव करना सृष्टि स्तर तक विकसित होना है। इस एकात्मता का अनुभव जिन्होंने किया हैऐसे उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं ।घास पर व्यक्ति चलता है तो उस घास के उपर के पदचिह्न श्री रामकृष्ण के पीठ पर दिखाई देते हैं। गाय को मार पड़ती है तो कोड़े के निशान उनकी पीठ पर दिखाई देते है और मार की पीड़ा का अनुभव भी होता है। श्री ज्ञानेश्वर आदेश देते हैं और दीवार चलने लगती है। संत एकनाथ कुत्ते को मी पी की रोटी खिलाते हैं।इस एकात्मता के तत्त्व के और अनुभव के आधार पर लोक व्यवहार भी बना हुआ है। हम कहते हैं कि रात्रि में पेद सो जाते है। हम चीटी को आटापशु-पक्षियों को दानाप्राणियों को खाना देने में पुण्य समझते हैं। तुलसीनीमजलअन्न आदि को पवित्र मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पंचमहाभूतों को देवता मानते हैं और उनका आदर करते हैं।ऐसा करने से व्यवहार में भी हमारी कितनी ही समस्यायें दूर हो जाती अथवा पैदा ही नहीं होती। जैसे कि जागतिक हिंसाचारपर्यावरण का प्रदूषण और धर्म एवं राष्ट्र के नाम पर दुश्मनी जैसे संकट एकात्मता आदि ऐसा विकास कर सकते हैं

7. परमेष्टि-विकास का यह अन्तिम सोपान है और पूर्णता है। जब चेतन दोनों एक ही हैवह एक तत्व ब्रह्म है और में वह ब्रह्म हूँ ऐसा साक्षात्कार ही यह पूर्णत्व है। हमारा महावाक्य है 'सर्व खलु इदं ब्रह्मजो यह सब है वह ब्रह्म ही है। समाधि में योगी अनुभव करता है 'अहं ब्रह्मास्मिजिस ब्रह्म ने स्वयं व्यक्त होते-होते मनुष्य का रूप धारण किया था वह मनुष्य अब जानता है कि वास्तव में ऐसा ही और मूल रूप में में मनुष्य नहीं हूँ परन्तु ब्रह्म ही हूँ।ऐसा अनुभव हमारे भक्ति ग्रंथों में दर्शन ग्रन्थों मेंउपनिषदों में सर्वत्र मिलता है। ऐसे योगियों के चरित्र भी पढ़ने को मिलते हैं। इस स्तर तक विकसित व्यक्तियों का व्यवहार कैसा होता है इसका वर्णन भी मिलता है। श्रीकृष्ण स्वयं इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं और श्रीमद्भागवत इसी तत्त्व का व्यवहार शास्त्र है। भारत में विकास की यही कल्पना की गई है। हमारे शान्तिपाठ में ब्रह्म से लेकर भूत मात्र तक की शान्ति की कामना की गई है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य भी यही बताया गया है। जन्मजन्मान्तर में मनुष्य इसी दिशा में यात्रा करता है। सर्वसामान्य लोगों मेंयहाँ तक कि अनपढ़ और अन्यथा दुष्ट आचरण वाले मनुष्यों में भी यह बोध अन्तर्मन में अवस्थित है। भारत का यह मूल स्वभाव है। सहस्रों वर्षों में यह स्वभाव बना हैऋषि-मुनियों ने इसका दर्शन किया है और अपनी तपश्चर्या से बनाये रखा है।क्षा का उद्देश्य है बालक के व्यक्तित्व का इस दिशा में विकास करना। व्यक्तित्व का आत्मतत्त्व की अनुभूति तक का विकास और परिवार से एकात्मता से लेकर परमेष्टि के साक्षात्कार तक का ज्ञानभक्ति और कर्म के आधार पर विकास दोनों मिलकर समग्र विकास होता है और यही शिक्षा का लक्ष्य है।दूसरे एक तथ्य और ध्यान रखने योग्य है। किसी भी एक स्तर पर विकास स्तर के विकास का विरोधी नहीं हैवैकल्पिक नहीं हैपर्यायी भी नहीं है। अर्थात् पारिवारिक विकास से व्यक्तिगत विकास की हानि नहीं होती हैसामाजिक विकास से व्यक्तिगत विकास की हानि नहीं है। ये सभी स्तर एकमेक के पूरक है और पोषक भी हैं। इन स्तरों में निरन्तरता है। ये एक दूसरे से. अलग और एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं है। एक विकसित होते-होते उसके आगे का हो जाता है। इसको हम आकृति के माध्यम से इस प्रकार से बता सकते हैं। हमारी व्यक्ति से लेकर परमेष्टि तक की एक ही रेखा है अर्थात् व्यक्ति और परमेष्टि में विकास के स्तर का ही अन्तर है। भर्तृहरि ने कहा है- अयं जिन परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ अर्थात् हम छोटे होते हैंछोटे अन्तःकरण चाले होते हैंतो अपने-परावे का भेद करते हैं परन्तु उदारचरित अर्थात् विकसित हो जाते हैंबड़े होते हैं। तो सारी पृथ्वी हमारा परिवार हो जाती है।

 

 

 

 

 

 

 

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