ईकाई दो
शारीरिक एवं मानसिक विकास के अर्थ, संकल्पना-
आदर्श दिनचर्या, संतुलित आहार, ऋतुचर्या, सूक्ष्म व्यायाम।
अष्टांग योग -यम-नियम , ईश्वर प्राणिधान, स्वाध्याय, संतोष, धैर्य, सदाचार, अनुशासन का अभ्यास।
अतीत गौरव, सामाजिक एवं नागरिकता बोध, सर्वपंथ सम्मान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण।
राष्ट्र, राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, स्वाधीनता, सुराज, वसुधैव कुटुम्बकम्, सह अस्तित्व।
शारीरिक एवं मानसिक विकास के अर्थ, संकल्पना-
पिछले अध्याय में हमने पंचकोशात्मक व्यक्तित्व विकास की संकल्पना को समझने का प्रयास किया। व्यक्तित्व विकास का वह एक आयाम था। दूसरा आयाम व्यक्तित्व विकास का, व्यापक संदर्भ में है। मनुष्य अकेले में नहीं जीता सबके बीच, सबके साथ सम्बन्धित होकर, सबसे प्रभावित होते हुए, सबको प्रभावित करते हुए जीता है। इस जीवन का विकास कैसे होता है और शिक्षा ने उसमें क्या भूमिका निभानी चाहिये? इसका विचार भी हमने करना चाहिये। विकास के इन स्तरों का विचार इस अध्याय में किया गया है।विकास के स्तर इस प्रकार है:-१. व्यक्ति- 'मनुष्य का जब जन्म होता है तब उसका व्यक्तिगत जीवन - इस जन्म का प्रारम्भ होता है और मृत्युपर्यन्त चलता है। उसका यह पंचकोशात्मक व्यक्तित्व समय के साथ विकसित होता रहता है। उसकी कर्मन्द्रियाँ कार्य करती हैं, शरीर के सभी संस्थान अपना-अपना कार्य करते हैं। उनकी •अपनी-अपनी आवश्यकतायें होती हैं। अपनी-अपनी क्षमतायें होती हैं। अपनी-अपनी विकास की पद्धति होती हैं। इन सबका विस्तृत वर्णन गत अध्याय में हमने पदा है।मनुष्य व्यक्तिगत स्तर पर अपना विकास करे, अपनी क्षमतायें बढ़ाये, अपनी इच्छा एवं आवश्यकताओं की पूर्ति करे, पूर्ति करने का सामर्थ्य जुटाये यह सब आवश्यक है। व्यक्तिगत रूप से शरीर स्वस्थ, सुन्दर, बलवान, कुशल हो प्राण बलवान एवं संतुलित हों; मन एकाग्र, शान्त, अनासक्त, सद्भाव युक्त हो; बुद्धि तेजस्वी, कुशाग्र एवं विवेकपूर्ण हो; चित प्रसन्न एवं शुद्ध हो इसके लिये व्यक्ति ने हर सम्भव प्रयास करने चाहिये। शिक्षा ने इसकी योजना करनी चाहिये अर्थात इसको अपना महत्वपूर्ण उद्देश्य बनाना चाहिये। इसको ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या, पाठयक्रम, पाठ्य पुस्तकें, पाठन पद्धति निर्धारित होनी चाहिये। व्यक्ति स्वयं स्वतन्त्र, स्वावलम्बी, बुद्धिमान, गुणवान, पराक्रमी, कुशल बने यह देखना व्यक्ति का, परिवार का, समाज का, शासन का, सभी का लक्ष्य होना चाहिये। विकास प्रक्रिया का यह प्रथम सोपान है।परन्तु व्यक्ति कितना भी समर्थ हो वह अकेला नहीं जीता है। वह उसके लिये सम्भव भी नहीं है और वह अच्छा भी नहीं लगता। इसका मूल कारण यह है कि वह किसी न किसी रूप में सभी से जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिये जुदा उसकी देठ पंचमहाभूत की बनी हुई है तो सृष्टि के सारे निर्जीव पदार्थ भी पक्ष महाभूत के ही बने हुए हैं। अर्थात् उस स्तर पर वह निर्जीव पदार्थों से हुआ है। प्राणमय कोश के स्तर पर वह सभी जीवित प्राणियों एवं वनस्पति जगत के साथ जुड़ा हुआ है।
आदर्श दिनचर्या, संतुलित आहार, ऋतुचर्या, सूक्ष्म व्यायाम-
आदर्श दिनचर्या-
संतुलित आहार-
ऋतुचर्या-
सूक्ष्म व्यायाम- योग मन, शरीर और आत्मा का मेल है । एक बार जीवन में जब इन तीनों में मेल हो जाता है, तो हम पूर्णता की और बढ़ते हैं । व्यायाम योग, योग का प्रथम चरण माना जा सकता है, जिससे शरीर सधता है । हम कोई भी शारीरिक व्यायाम करें उसका गहरा और स्थाई परिणाम होता है । इसलिए अगर व्यवस्थित और चरणबद्ध तरीके से पहले व्यायाम योग फिर आसन और फिर साँस -प्रस्वास आदि क्रियाएं करते हुए चलते हैं, तो योग की दिशा में बढ़ना प्रारम्भ होता है । व्यायाम योग के साथ प्रारम्भ कर योग करेंगे तो योग केवल चित्त, मन को ही शांत नहीं करता, बल्कि शरीर को भी स्वस्थ करता है और शरीर में शक्ति भी बढ़ाता है । व्यायाम योग के पहले शरीर संचालन की क्रिया करनी चाहिए । फिर द्रुति गति के व्यायाम योग अपनी क्षमता के आधार पर करना चाहिए ।
शारीरिक और मानसिक शक्ति बढ़ाने के नियम: योग केवल शरीर को खींचना ही नहीं है, शरीर को खींचते रहने से कार्य क्षमता में कमी आती है । योग कामकाजी शक्ति बढ़ाता है जो कि प्रतिदिन के कार्यों में जैसे- उठना, झुकना, बैठना, चलना आदि में सहायता करता है । अधिकतर योग मुद्राएं, विपरीत रूप से विशिष्ट श्वास पद्धति के साथ मिलकर केंद्रित और संकुचन की एक श्रृंखला बनाती हैं, जो लचीलेपन, गतिशीलता और शक्ति में लाभ पैदा करती हैं ।
अष्टांग योग -यम-नियम , ईश्वर प्राणिधान, स्वाध्याय, संतोष, धैर्य, सदाचार, अनुशासन का अभ्यास-
(1) यम-‘अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:’ (अ) अहिंसा- मन, वाणी और शरीर से किसी प्राणी को कभी किसी प्रकार किचिंत मात्र भी दु:ख न देना ‘अहिंसा’ है ।परदोष दर्शन का सर्वथा त्याग भी इसी के अन्तर्गत है । ‘अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।’ जब योगी का अहिंसा भाव पूर्णतया दृढ़ स्थिर हो जाता है, तब उसके निकटवर्ती हिंसक जीव भी वैर भाव से रहित हो जाते हैं । इतिहास ग्रन्थों में जहाँ मुनियों के आश्रमों की शोभा का वर्णन आता है, वहाँ वन जीवों में स्वाभाविक बेर का अभाव दिखलाया गया है । यह उन ऋषियों के अहिंसा भाव की प्रतिष्ठा का द्योतक है। (ब) सत्य- सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम’ जो योगी सत्य का पालन करने में पूर्णतया परिपक्व हो जाता है, उसमें किसी प्रकार की कमी नहीं रहती, उस समय वह स्वयं कर्तव्य पालन रूपी क्रियाओं के फल का आश्रय बन जाता है । जो कर्म किसी ने नहीं किया है, उसका भी फल उसे प्रदान कर देने की शक्ति उस यागी में आ जाती है, अर्थात जिसको जो वरदान, शाप या आशीर्वाद देता है, वह सत्य हो जाता है । इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर या अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा ही भाव प्रकट करने के लिये प्रिय और हितकर तथा दूसरे को उद्वेग उत्पन्न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं उनका नाम सत्य है । (स) अस्तेय- ‘अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम’’। जब साधक में चोरी का अभाव पूर्णतया प्रतिष्ठित हो जाता है, तब पृथ्वी में जहाँ कहीं भी गुप्त स्थान में पड़े हुए समस्त रत्न उसके सामने प्रकट हो जाते है। अर्थात उसकी जानकारी में आ जाते हैं। दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना ‘स्तेय’ चोरी है, इसमें सरकार की टैक्स की चोरी घूसखोरी भी सम्मिलित है। इन सब प्रकार की चोरियों का अभाव ‘अस्तेय’ है। (द) ब्रह्मचर्य- ‘ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यालाभ:’। जब साधक में ब्रह्मचर्य की पूर्णतया दृढ़ स्थिति हो जाती है तब उसके मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर में अपूर्व शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है। साधारण मनुष्य उनकी बराबरी नही कर पाते। मन, वाणी और शरीर से होनवाले सब प्रकार के मैथुनों की सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ‘ब्रह्मचर्य’ हैं । ‘‘कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा। सर्वत्र मैथुनत्यागी ब्रह्मचर्य प्रचक्षते’’।। (गरुण.पूर्व.आचार 238.6) अत: साधक को चाहिये कि न तो कामदीपन करनेवाले पदार्थों का सेवन करे, न ऐसे दृष्यों को ही मन में लावे तथा स्त्रियों का और स्त्री साहित्य को पढ़े और न ही ऐसे पुरुषों का संग करे जो स्त्री पर आसक्त हों। (ई) अपरिग्रह- अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथन्तासंबोध:। जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता है, तब उसे अपना पूर्व और वर्तमान जन्म की सब बातें मालूम हो जाती हैं । यह ज्ञान भी संसार में वैराग्य उत्पन्न करनेवाला और जन्म-मरण से छुटकारा पाने के लिए योगसाधना में प्रवृत करने वाला है। अपने स्वार्थ के लिये ममता पूर्वक धन, सम्पति और भोग-सामग्री का संचय करना ‘परिग्रह’ है, इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है।
(2) नियम- ‘‘शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा:’’। (क) शौच- जल, मृतिकादि के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाहर की शुद्वि है, इसके सिवा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथा योग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी बाहरी शुद्धि के ही अन्तर्गत है। जप, तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्त:करण के राग-द्वेषादि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है। (ख)संतोष- कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए उसका जो कुछ परिणाम हो तथा प्रारब्ध के अनुसार अपने-आप जो कुछ भी प्राप्त हो एवं जिस अवस्था और परिस्थिति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाय, उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की भी कामना या तृष्णा न करना संतोष है । (ग) तप- वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके करने में शारीरिक, मानसिक कष्ट सहने की सामर्थ्य ‘तप’ है । (घ) स्वाध्याय- अध्ययन (वेद, शास्त्र, महापुरूषों के जीवन चरित्र) तथा ऊँकार आदि किसी नाम का जप ‘स्वाध्याय’ है । (ड) ईश्वर प्राणिधान - ईश्वर के नाम, गुण, लीला, ध्यान, प्रभाव में अपने को पूर्णत: समर्पित कर देना ईश्वर प्राणिधान है। तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान के माध्यम से अर्थात नियमों के पालन अथवा क्रियायोग से हम अपने क्लेशों को नष्ट करते हैं या क्लेशों से मुक्त होते हैं।
(3) आसन - आसन का स्थान तृतीय है, इसके अंतर्गत- बैठना, बैठने का आधार, बैठने की विशेष प्रक्रिया, बैठ जाना इत्यादि आता है । जबकि गोरक्षपीठ द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है । चित्त की स्थिरता, शरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है ।
उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायाम आदि उत्तरवर्ती साधन क्रमों में सहायता, चित्त स्थिरता, शारीरिक एवं मानसिक सुख दायी आदि । पंतजलि ने मन की स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है । प्रयत्न शैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है । इसके सिद्ध होने पर द्वंद्वों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता, किन्तु पातंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया । उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे-पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है । इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य में मिलता है ।
शरीर को पुष्ट करने वाले मुख्य यौगिक व्यायाम या मुद्राएं- त्रिकोणासन, वीरभद्रासन, गोमुखासन, नटराजासन , एकपादासन, वृक्षासन, ताडासन, उत्कटासन आदि हैं, जिन्हें तीन प्रकार से समझा जा सकता है- बैठकर : पद्मासन, वज्रासन, सिद्धासन, मत्स्यासन, वक्रासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन, गोमुखासन, पश्चिमोत्तनासन, ब्राह्म मुद्रा, उष्ट्रासन, गोमुखासन । पीठ के बल लेटकर : अर्धहलासन, हलासन, सर्वांगासन, विपरीतकर्णी आसन, पवनमुक्तासन, नौकासन, शवासन आदि । पेट के बल लेटकर : मकरासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, विपरीत नौकासन आदि । पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार - ‘स्थिरसुखमासनम्’ अर्थात् सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है या जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी हो, वह आसन है । इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आसन वह है जो आसानी से किए जा सकें तथा हमारे जीवन शैली में विशेष लाभदायक प्रभाव डाले ।
अतीत गौरव, सामाजिक एवं नागरिकता बोध, सर्वपंथ सम्मान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण-
राष्ट्र, राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, स्वाधीनता, सुराज, वसुधैव कुटुम्बकम्, सह अस्तित्व- दूसरा एक तथ्य यह भी है कि ये सारे विकास के स्तर क्रमिक हैं। इनमें से किसी को भी दुर्लक्षित करके आगे नहीं बढ़ा जाता। एक परिपक्व होने के बाद ही दूसरा सम्भव हो जाता है। आज भारतीय नागरिकता को संकुचित मानकर विश्वनागरिकता की बात बोलने वाले कई लोग मिल जाते हैं। परन्तु भारतीय नागरिकता के बिना विश्व नागरिकता का स्तर प्राप्त हो नहीं सकता। विश्व नागरिकता के बिना भी भारतीय नागरिकता प्राप्त हो सकती है परन्तु इससे उल्टा सम्भव नहीं है। भारतीय नागरिकत्व परिपक्व हो जाने के बाद ही विश्व नागरिकता सम्भव है। यदि हम विश्व नागरिकता को प्राप्त करते हैं तो भारतीय नागरिकता को हानि नहीं होती, अपितु वह और पुष्ट होती है। यदि भारतीय नागरिकता को हानि होती है तो कहीं न कहीं हमारा दोष है यह मानना चाहिये। अर्थात हम विश्व कल्याण की बात करेंगे तो भारत के कल्याण के विरोधी वह नहीं होना चाहिये। विश्वप्रेम की स्थिति पर पहुंचने से भारतप्रेम और प्रगाद होना चाहिये।
इस मूलभूत कारण से उसका जीवन अकेले में न सम्भव है न आनन्दयुक्त है।सबके साथ सम्बन्धित रहकर जीने के जो स्तर बनते हैं वे उसके विकास के सोपान बनते हैं। वे सोपान इस प्रकार है:-
2. परिवार-व्यक्तिगत के बाद तुरन्त का जो स्तर है वह पारिवारिक स्तर है। बालक का जन्म होता है तब वह माता के गर्भाशय से ही इस सृष्टि में आता है। इसलिये उसका प्रथम सम्बन्ध माता से है। माता-पिता के व्यक्तित्व से उसका जन्म हुआ है। इसलिये उसका सम्बन्ध पिता से है। यह सम्बन्ध इतना घनिष्ठ है कि बालक वास्तव में माता-पिता के व्यक्तित्व का ही विस्तार माना गया है। इस अर्थ में वह सम्पूर्ण कुल परम्परा की अगली कड़ी है। उसके माता-पिता के अन्य पुत्र-पुत्रियाँ भी है। वे उसके भाई-बहन हैं। उनसे भी उसका सम्बन्ध है। उसके माता-पिता के भाई-बहन, माता-पिता, उनकी संन्ताने है। अर्थात् एक बहुत बड़ा समुदाय है जिसके साथ वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में रक्त सम्बन्ध से जुड़ा है। आगे चलकर उसका विवाह होता है तो दूसरे कुल से उसका सम्बन्ध जुड़ता है। उसके आधार पर फिर उसकी सन्तानें होती है। तो कुल परम्परा आगे बढ़ती है। इस विशाल समुदाय को परिवार कहते हैं, कुटुम्ब कहते हैं। विभिन्न प्रकार के सभी सम्बन्धों को एक संकल्पना में समाविष्ट करने के लिये कुटम्ब-कबीला भी कहते हैं, गौत्र भी कहते हैं।परिवार की संकल्पना का मूल है रक्त सम्बन्ध यह सम्बन्ध अन्नमय कोश से प्रारम्भ होकर आनन्दमय कोश तक पहुँचता है। जब बालक का जन्म होता है तो वह अपने आप कुछ भी नहीं कर सकता। अपने परिवार जनों पर ही उसे निर्भर रहना पड़ता है। परिवार के सभी लोग उसका लालन-पालन करते हैं, उसकी सहायता करते हैं। धीरे- धीरे वह शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर की सभी बातें परिवार के वातावरण में अनुभव से, अनुकरण से, अभ्यास से सीखता है। इसीलिये कहते हैं कि माता बालक की प्रथम गुरु है और परिवार प्रथम पाठशाला ।परिवार के सम्बन्ध प्रेम के होते हैं, आत्मीयता के होते हैं। स्नेहमय वातावरण में वह दूसरों का विचार करना, दूसरों के लिये कष्ट सहना, दूसरों के लिये त्याग करना, दूसरों की सेवा करना आदि सभी के संस्कार पाता है, क्योंकि उसकी प्रथम गुरु माता प्रेम, त्याग, सेवा, कष्ट की साक्षात् प्रतिमा होती है और इन सबको ग्रहण करने वाला वह स्वयं होता है। परिवार के अन्य सदस्य भी इसी प्रकार का भाव एवं व्यवहार उसके प्रति रखते हैं। स्वयं स्नेह, सेवा आदि पाता है इसलिये वह यह सब देना भी सीखता है। अर्थात् स्नेह, प्रेम, त्याग, सेवा, सुरक्षा आदि सब स्वाभाविक रूप से उसके चरित्र निर्माण के आधार बनते हैं।परिवार का परिचय अपने परिवार को पहचानना, सम्बन्धों को 8 जानना, सम्बन्धित व्यक्तियों को जानना, उसके स्वभाव का परिचय प्राप्त करना आदि सब व्यक्ति ने करना होता है। सभी के प्रति यथायोग्य स्नेह और आदर की भावना का विकास परिवार में होता है। स्नेह और आदर दर्शन के लिये, सेवा करने के लिये कई कार्य करने होते हैं। वे सब कार्य करने की कुशलता प्राप्त करना भी परिवार में ही होता है। उनके साथ वार्तालाप करने के लिये भाषा सीखना भी परिवार में ही होता है। परिवार की व्यवस्था -परिवार का मूर्त रूप है घर घर यह स्थूलरूप में भवन होता है। इस भवन में सभी प्रकार की व्यवस्थायें होती हैं। मनुष्यव्यक्तिगत जीवन में जो भी क्रिया-कलाप करता है अर्थात खाता है, सोता है, रहता है, लिखता है, पढ़ता है उसकी व्यवस्था घर में ही होती है। घर को स्वच्छ रखा जाता है, घर को सुविधापूर्ण बनाया जाता है, घर को सजायाजाता है। घर की ये सारी व्यवस्थायें जानना, करना, सम्हालना प्रत्येक व्यक्ति को आना चाहिये।परिवार का वातावरण- घर आश्रय स्थान है, घर आनन्द-प्रमोदका स्थान है, घर संस्कार प्राप्त करने का स्थान है, घर पवित्र स्थान है, घर लालन-पालन प्राप्त करने का स्थान है, पर प्रेम और आत्मीयता पाने का स्थान है। अतः घर का वातावरण प्रेमपूर्ण संस्कारक्षम, पवित्र ऐसा बनाना चाहिये। पालक के लिये बाकी सभी परिवारजन ऐसा वातावरण बनाते है। धीरे-धीरे बालक बड़ा होता है और ऐसा वातावरण बनाये रखने में स्वयं भी योगदान करता है। बाद में ऐसा वातावरण स्वयं निर्माण करना भी सीखता है। सीखते- सीखते उसका करना और सिखाना भी हो जाता है।
पारिवारिक कार्य - घर में सब साथ मिलकर रहते है। अपनी- -अपनी शारीरिक-मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति वहां पाते है। अतः परिवार के मिलकर कुछ कार्य होते हैं। भोजन बनाना, घर स्वच्छ रखना, कपड़े धोना, बर्तन साफ करना, पूजा करना, अतिथि सत्कार करना, घर की सजावट करना, छोटे बच्चों को सम्हालना, वृद्धों की, बड़ों की सेवा करना, पालतू पशु-पक्षियों की देखभाल करना, नौकर-चाकरों की देखभाल करना, कुल के व्रत, उत्सव, त्यौहार मनाना, अर्थोपार्जन करना आदि सब परिवार के कार्य है। ये सारे कार्य सीखना और करना पारिवारिक जीवन के विकास के लिये आवश्यक है।
कुल परम्परा - कुल रक्त सम्बन्ध से बनता है। वंश परम्परा से उसका इतिहास बनता है। अनेकानेक व्यक्तियों तक उसकी व्याप्ति होती है। कुल के कुछ आचार, विचार, दृष्टिकोण, लाक्षणिकतायें, विशेषतायें होती है। इन परम्पराओं को जानना, अपनाना, इनके विषय में गारव अनुभव करना, इनको बनाये रखने में अपना योगदान देना, उसमें समयानुकूल परिवर्तन करना, उन्हें पुरस्कृत करना पारिवारिक जीवन विकास के लिये आवश्यक है।
संक्षेप में कहें तो परिवार-भावना, परिवार व्यवस्था, परिवार का वातावरण, परिवार की परम्परा ये सब पारिवारिक स्तर के विकास के आयाम हैं। इस प्रकार के विकास का मुख्य केन्द्र तो घर ही है। फिर भी इसका ज्ञानात्मक पक्ष विद्यालयीन पाठ्यचर्या का विषय होना चाहिये।
3. समाज-व्यक्ति का एक व्यक्तिगत जीवन होता है। दूसरा पारिवारिक जीवन होता है। परिवार से आगे समाज होता है। समाज और समाज जीवन ये हमारे लिये बहुत परिचित शब्द हैं। हजारों वर्षों से हमारी समाज व्यवस्था बनी हुई है। समाज व्यवस्था की मूल इकाई परिवार है। यह बात ध्यान में रखने योग्य परिवार भाषा इस दिशा में आधारभूत तरण है। परिवार आ रोटी में उसके ही होते है। उसकी होते हैं।के सकती होते हैं।दिलकर एक समागताभिन्न जाति सम्प्रदाभाषा, रीतिरिवाज के लोग रहते हैं। कितने हीहोते हैं। इन सभी विविधताओं से मुक्त समाज के साथ आनीयता बना यह सामाजिक विकास का प्रथम चरण है। समाज के साथ समरस होना, सामाजिक दायित्व का बोध होना इस समाज का अंग हूँ इसका अनुभव करमा प्रत्येक व्यक्ति से अपेक्षित है।समाज को शुद्र एवं सुयवस्थित रखने के लिये कुछ व्यवस्थायें होती है। इसका बहुत ही प्राथमिक स्तर के सार्वजनिक पाणी, प्रकाश, वायु, पानी निःसरण, स्वच्छता, आरोग्य आदि की व्यवस्थायें। इन व्यवस्थाओं को बनाये रखना और बनाना, इनका अनुशासनपूर्ण उपयोग करना सामाजिक विकास है।आज की स्वीकृत धारणा यह है कि सारी की सारी सार्वजनिक व्यवस्थायें 'शासन द्वारा होंगी। उनको बनाये रखने का काम भी शासन का ही है। परन्तु मूल भारतीय विचार के अनुसार समाज के धनी परिवारों का इस दायित्व में बहुत बड़ा योगदान होता था। अपने धन का बहुत बड़ा हिस्सा सर्वजन समाज के उपयोग के लिये जलाशय, उद्यान, सदाव्रत (रामरोटी), विश्रामगृह, धर्मशाला चौपाल आदि बनवाने में खर्च होता था। यह सामाजिक दायित्व बोध है, समाज के प्रति आत्मीयता का कृतिरूप है। समाज के किसी भी व्यक्ति को भूखा न रहना पड़े यह सबकी चिन्ता का विषय होता है।"समाज के कई संस्कार होते हैं। ये सामाजिक चेतना के केन्द्र होते हैं। विद्यालय, देवस्थान, सन्त महात्माओं के मठ या आश्रम, पुस्तकालय एवं वाचनालय आदि सब ऐसे संस्कार केन्द्र हैं। समाज को यहाँ से प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्राप्त होते हैं। ये बहुत बड़े शिक्षा के भी केन्द्र होते हैं। इनका पोषण करना इनसे ज्ञान एवं मार्गदर्शन ग्रहण करना, इनके प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का भाव रखना सामाजिक विकास के ही आयाम हैं।समाज को धारण करने वाली कई संस्थायें हैं। वे हैं- परिवार संस्था, वर्णाश्रमव्यवस्था, विवाह संस्था, आचार्य संस्था आदि। इन संस्थाओं के उद्देश्य, कार्य प्रणाली, महत्व आदि सब समझना, उनका पालन करना, उसके अनुसार अपने जीवन को ढालना, उन्हें पुष्ट करना और अपने बाद में आने वाली पीढ़ी को संस्कार, शिक्षा और अनुशासन के रूप में देना हमारा सामाजिक कर्तव्य है।समाज जीवन को अनुप्राणित करने वाली बहुत सामाजिक परम्पराये होती है। ये हैं पर्व, त्यौहार, उत्सव, मेले आदि। ये सब सार्वजनिक होते हैं। तब उनको मनाने की कुछ सर्वसम्मत ऐसी पद्धतियाँ होती हैं। उदाहरण के रूप में सभी पर्वों, उत्सवों में दान, धनदान, अन्नदान आदि और देवदर्शन जुड़ा ही हुआ है। अनेक उत्सवों में सत्संग कीर्तन, कथाश्रवण आदि जुदा हुआ है। जैसे कि विशाल सत्संग, विशाल यज्ञ का आयोजन, रामकथा, भागवत कथा, सामूहिक सत्यनारायण पूजा एवं कथा, कुम्भ मेला आदि। ये सब समाज जीवन में आनन्द, उल्लास, समरसता, संस्कार, शिक्षा, स्नेह, पोषण, रक्षण, आश्रय आदि सबको प्राप्त हो इसीलिये होते हैं। इस दृष्टि से इसका ज्ञानयुक्त, श्रद्धापूर्ण अनुसरण करना चाहिये। यदि ज्ञान युक्त अनुसरण होगा तो समयानुकूल परिवर्तन होकर यह परिष्कृत होता रहेगा। यदि ज्ञानविहीन होगा तो अन्धश्रद्धा और निरर्थक कर्मकाण्ड बन जायेगा। इनमें विकृति आयेगी और समाज के लिये हानिकारक होगा। ऐसा नहीं होने देना यह प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक दायित्व है।समाज को धारण करने के लिये भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था भी होनी चाहिये। इसके लिये कृषि, गोपालन, भिन्न-भिन्न व्यवसाय, कला कारीगरी, व्यापार उद्योग आदि सब होते हैं। इन भिन्न-भिन्न व्यवसायों में अपनी रुचि, क्षमता और संस्कार के अनुसार अपना व्यवसाय चुनना, उसे पूर्ण दक्षता से सीखना, पूर्ण हृदय से समाज की सेवा के रूप में करना, उससे जो धन की प्राप्ति होती है उसे समाज देवता के प्रसाद के रूप में ग्रहण करना, सबके साथ बाँट कर उसका उपभोग करना हमारा सामाजिक दायित्व है। वास्तव में अन्न, जल, वायु, कपड़ा, आश्रय आदि सभी को सहज ही उपलब्ध हो सके, उसके लिये उसे मोहताजी न करनी पड़े ऐसी समाज व्यवस्था आदर्श व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति यदि अपना-अपना दायित्व समझता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है तो ऐसी आदर्श व्यवस्था सहज रूप से हो सकती है।संक्षेप में समाज के साथ आत्मीयता, समरसता, समाज के प्रति सेवा भाव, उसके प्रति दायित्व का बोध, परम्पराओं का पालन, व्यवसाय आदि सब जानना, मानना और करना सामाजिक विकास है। सामाजिक विकास करने के केन्द्र परिवार, विद्यालय, समाज स्वयं, मंदिर, मठ, कीर्तन, सत्संग आदि सब है। विद्यालय के अनेकविध विषयों का नियोजन इसी प्रकार का विकास करने के लिये हुआ है। यह तथ्य ध्यान में रखकर इन्हें पढ़ाने की योजना करनी चाहिये।
4. राष्ट्र - जिसे हम प्रचलित भाषा में राज्य कहते हैं उससे राष्ट्र की संकल्पना अधिक व्यापक है। एक भू—भाग, उसमें निवास करने वाला समाज, उस समाज के व्यवहार को संचालित एवं प्रेरित करने वाली संस्कृति, उसकी सारी व्यवस्थाओं को संचालित एवं नियंत्रित करने वाला शासन, उसके पर्वत नदियाँ, अरण्य, समुद्र, उसको वैचारिक आधार देने वाला जीवन दर्शन - ये सब मिलकर राष्ट्र बनता है। राष्ट्र इस प्रकार से बहुआयामी, विविध आयामी इकाई है।सामाजिक स्तर से आगे बढ़कर हम राष्ट्र के साथ समरस होते हैं, तब हमारा राष्ट्रीय स्तर का विकास हुआ है, ऐसा माना जायेगा।राष्ट्र के भू भाग का अर्थ है उसकी भौगोलिक सीमायें। हमारा राष्ट्र भारत है। भारत की भौगोलिक सीमायें हिमालय और पश्चिम, दक्षिण, पूर्व समुद्र से बनती है। हमारा इस भू-भाग के साथ भक्त और आराध्य देवता जैसा सम्बन्ध है। हम भारत को भारत माता कहते हैं, उसकी स्तुति करते हैं, उसकी कृपा चाहते हैं, उसका रक्षण करने के लिये सब कुछ बलिदान करने के लिये सिद्ध रहते हैं। हिमालय हमारे लिये देवतात्मा है। नदियां हमारे लि मातायें हैं। सागर भारत माता के चरण पखारता है। हमारी मातृभूमि लक्ष्म सरस्वती, दुर्गा का समवेत स्वरूप है।इस प्रकार की देश भक्ति का भाव राष्ट्रीय विकास का आधारभ आयाम है। यह देश भक्ति जब कृतिशील होती है तो हम देश की आि समृद्धि की रक्षा करते हैं, उसमें वृद्धि करते हैं। देश की सीमाओं की रक्षा करने के लिए उद्यत रहते हैं। देश पर आक्रमण नहीं होने देते। जिससे देश का नुकसान न हो ऐसा कोई काम नहीं करते हैं। देशवासी होने से गौरव का अनुभव करते हैं। ज्ञान, विज्ञान के क्षेत्र में भी देश का विकास हो इसलिए अध्ययन करते हैं। विचारों के, कला के, साहित्य के, उद्योगों के क्षेत्र में देश का विकास हो इसलिये प्रयत्नशील और उद्योगशील रहते हैं। विश्व में पेंश की प्रतिष्ठा, सम्मान और गौरव बढ़े इस प्रकार के प्रयत्न करते हैं।राष्ट्र का एक माग है शासन और प्रशासन । हमारा राष्ट्रीय स्तर का विकास होता है तब हम शासन और प्रशासन की सभी व्यवस्थायें बनाने में सहयोग करते हैं, और स्वयं के आवरण से उसे बनाये रखते हैं। उदाहरण के लिये कानून का पालन करना, मताधिकार का योग्य उपयोग करना सार्वजनिक स्थानों की, सरकारी स्थानों की सुरक्षा करना, न्याय-तन्त्र, दण्ड-विधान आदि का सम्मान करना, संविधान को पवित्र मानना और उसका भंग नहीं करना, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रभाषा, राष्ट्रप्रतीक का गलती से भी अपमान नहीं करना आदि शासन और प्रशासन का आदर करना है। इस दिशा में हमारा विकास होना चाहिये।राष्ट्र जीवन की परम्पराओं का अनुसरण करना, हमारे पूर्वजों के प्रति गौरव और श्रद्धा का भाव रखना हमारे श्रद्धाकेन्द्रों के प्रति पूज्य भाव रखना, हमारी संस्कृति को ठीक रूप से जानना, मानना और उसको व्यवहार में लाना, अपने व्यवहार से उसे समृद्ध बनाना ये सभी हमारे विकास के आयाम हैं।राष्ट्र जीवन का आधार एक ओर हमारी संस्कृति होती है तो दूसरी और जीवन दर्शन होता है यह जीवन दर्शन हमारे सभी विचार, भावना और व्यवहार के लिए आधार होता है। इस जीवन दर्शन का अध्ययन करना, उसे आत्मसात् करना, उसके अनुसार हमारा व्यवहार बनाना यह हमारे राष्ट्रीय स्तर का विकास है।राष्ट्र जीवन का और एक प्रमुख अंग है, धर्म । धर्म तो राष्ट्र को धारण करता है। अतः धर्म का पालन सबके लिये अनिवार्य है। धर्म, यह सम्प्रदाय नहीं है, पूजा पद्धति नहीं है, व्रत उपवास आदि नहीं है। धर्म विश्व को धारण करने वाली सर्वव्यापक, सर्वसमावेशक, शाश्वत ऐसी वैश्विक व्यवस्था है। इसका करना हमारे लिये हमारे समाज के लिये राष्ट्र के लिये तिकारक है। यह हमारे पर है।राष्ट्र जीवन के सार काहो इसलिये हमें शिक्षा की आवश्यकता है। वास्तव में जीवन के सभी आयामों में इस प्रकार से अनुस्यूत होनी चाहिये जैसे दाल सब्जी में नमक, शरीर में प्राण और शब्दों में अर्थ इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, धर्म, संस्कृति आदि सभी विषयों की रचना राष्ट्रजीवन आत्मसात् करने के लिये ही होती है।
5. विश्व- में एक से अधिक राष्ट्र होते है। इन सबके धर्म, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, जीवन दर्शन आदि एक दूसरे से भिन्न होते है। मनुष्य क विकास राष्ट्रीय स्तर से भी आगे बढ़ता है। तब वह वैश्विक स्तर पर पहुंचता है। सभी धर्मों को समझता है, उनकी तुलना करता है। सभी संस्कृतियों को जानने का प्रयास करता है, उसका अनुभव लेता है। वह सभी से समरस होने काप्रयास करता है। सभी के प्रति प्रेम और आदर का भाव विकसित करता है। विश्व का इतिहास, भूगोल, धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, जीवन दर्शन आदि का अध्ययन इसी दृष्टि से किया जाता है।
6. सृष्टि-इस विश्व में केवल मनुष्य ही नहीं है तो पशु, पक्षी, प्राणी, वृक्ष, वनस्पति, पर्वत, नदी, समुद्र, धरती और आकाश आदि सब है। इस सृष्टि में पंचमहाभूत है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र हैं। मनुष्य इस सृष्टि का ही एक अंश है। शास्त्रवचन कहता है- यत्पिण्डे सत् बह्माण्डे अर्थात पूर्ण ब्रह्माण्ड का एक अंश मनुष्य है। हमने पूर्व अध्याय में देखा है कि ब्रह्म का व्यक्त रूप यह सृष्टि है। इस सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकात्मता का अनुभव करना सृष्टि स्तर तक विकसित होना है। इस एकात्मता का अनुभव जिन्होंने किया है, ऐसे उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं ।घास पर व्यक्ति चलता है तो उस घास के उपर के पदचिह्न श्री रामकृष्ण के पीठ पर दिखाई देते हैं। गाय को मार पड़ती है तो कोड़े के निशान उनकी पीठ पर दिखाई देते है और मार की पीड़ा का अनुभव भी होता है। श्री ज्ञानेश्वर आदेश देते हैं और दीवार चलने लगती है। संत एकनाथ कुत्ते को मी पी की रोटी खिलाते हैं।इस एकात्मता के तत्त्व के और अनुभव के आधार पर लोक व्यवहार भी बना हुआ है। हम कहते हैं कि रात्रि में पेद सो जाते है। हम चीटी को आटा, पशु-पक्षियों को दाना, प्राणियों को खाना देने में पुण्य समझते हैं। तुलसी, नीम, जल, अन्न आदि को पवित्र मानते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पंचमहाभूतों को देवता मानते हैं और उनका आदर करते हैं।ऐसा करने से व्यवहार में भी हमारी कितनी ही समस्यायें दूर हो जाती अथवा पैदा ही नहीं होती। जैसे कि जागतिक हिंसाचार, पर्यावरण का प्रदूषण और धर्म एवं राष्ट्र के नाम पर दुश्मनी जैसे संकट एकात्मता आदि ऐसा विकास कर सकते हैं
7. परमेष्टि-विकास का यह अन्तिम सोपान है और पूर्णता है। जब चेतन दोनों एक ही है, वह एक तत्व ब्रह्म है और में वह ब्रह्म हूँ ऐसा साक्षात्कार ही यह पूर्णत्व है। हमारा महावाक्य है 'सर्व खलु इदं ब्रह्म' जो यह सब है वह ब्रह्म ही है। समाधि में योगी अनुभव करता है 'अहं ब्रह्मास्मि' जिस ब्रह्म ने स्वयं व्यक्त होते-होते मनुष्य का रूप धारण किया था वह मनुष्य अब जानता है कि वास्तव में ऐसा ही और मूल रूप में में मनुष्य नहीं हूँ परन्तु ब्रह्म ही हूँ।ऐसा अनुभव हमारे भक्ति ग्रंथों में दर्शन ग्रन्थों में, उपनिषदों में सर्वत्र मिलता है। ऐसे योगियों के चरित्र भी पढ़ने को मिलते हैं। इस स्तर तक विकसित व्यक्तियों का व्यवहार कैसा होता है इसका वर्णन भी मिलता है। श्रीकृष्ण स्वयं इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं और श्रीमद्भागवत इसी तत्त्व का व्यवहार शास्त्र है। भारत में विकास की यही कल्पना की गई है। हमारे शान्तिपाठ में ब्रह्म से लेकर भूत मात्र तक की शान्ति की कामना की गई है। मनुष्य जीवन का लक्ष्य भी यही बताया गया है। जन्मजन्मान्तर में मनुष्य इसी दिशा में यात्रा करता है। सर्वसामान्य लोगों में, यहाँ तक कि अनपढ़ और अन्यथा दुष्ट आचरण वाले मनुष्यों में भी यह बोध अन्तर्मन में अवस्थित है। भारत का यह मूल स्वभाव है। सहस्रों वर्षों में यह स्वभाव बना है, ऋषि-मुनियों ने इसका दर्शन किया है और अपनी तपश्चर्या से बनाये रखा है।क्षा का उद्देश्य है बालक के व्यक्तित्व का इस दिशा में विकास करना। व्यक्तित्व का आत्मतत्त्व की अनुभूति तक का विकास और परिवार से एकात्मता से लेकर परमेष्टि के साक्षात्कार तक का ज्ञान, भक्ति और कर्म के आधार पर विकास दोनों मिलकर समग्र विकास होता है और यही शिक्षा का लक्ष्य है।दूसरे एक तथ्य और ध्यान रखने योग्य है। किसी भी एक स्तर पर विकास स्तर के विकास का विरोधी नहीं है, वैकल्पिक नहीं है, पर्यायी भी नहीं है। अर्थात् पारिवारिक विकास से व्यक्तिगत विकास की हानि नहीं होती है, सामाजिक विकास से व्यक्तिगत विकास की हानि नहीं है। ये सभी स्तर एकमेक के पूरक है और पोषक भी हैं। इन स्तरों में निरन्तरता है। ये एक दूसरे से. अलग और एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं है। एक विकसित होते-होते उसके आगे का हो जाता है। इसको हम आकृति के माध्यम से इस प्रकार से बता सकते हैं। हमारी व्यक्ति से लेकर परमेष्टि तक की एक ही रेखा है अर्थात् व्यक्ति और परमेष्टि में विकास के स्तर का ही अन्तर है। भर्तृहरि ने कहा है- अयं जिन परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ अर्थात् हम छोटे होते हैं, छोटे अन्तःकरण चाले होते हैं, तो अपने-परावे का भेद करते हैं परन्तु उदारचरित अर्थात् विकसित हो जाते हैं, बड़े होते हैं। तो सारी पृथ्वी हमारा परिवार हो जाती है।
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