ईकाई तीन
नैतिक और आध्यात्मिक विकास
अष्टांग योग - प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग का स्वेच्छानुसार जीवन में निरंतरता
भारतीय काल गणना, वैदिक मंत्रों का अभ्यास
मातृभाषा और भारतीय ज्ञान परम्परा का स्वाभिमान और चिंतन
महापुरुषों का जीवन चरित्र पठन- राष्ट्रीय भाव जागरण हेतु- 12 जनवरी स्वामी विवेकानन्द जयंती के उपलक्ष्य में कार्यक्रमों की योजना बने।• 23 जनवरी सुभाष चन्द्र बसु (बोस) की जयंती पर रक्तदान कार्यक्रम आयोजित करना। सुभाष बाबू ने कहा था "तुम मुझेखून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।" * इसी प्रकार श्रीनिवास रामानुजन, महात्मा गाँधी, सरदार पटेल जैसे विभिन्न महापुरुषों की जयंतियाँ मनाई जाएं।★ 15 अगस्त एवं 26 जनवरी आदि राष्ट्रीय पर्वो के अवसर पर होने वाले कार्यक्रमों में शिक्षकों एवं छात्रों की सम्पूर्ण सहभागिता हो ।• प्राकृतिक आपदाएँ, महामारी, विदेशी आक्रमण जैसी विशेष परिस्थिति में छात्रों एवं अध्यापकों की सक्रिय हो ।* अन्तर्राज्य छात्र जीवन दर्शन जैसे प्रकल्प का नियमित आयोजन। (छात्रों का विभिन्न राज्यों में प्रवास)• एन.सी.सी., एन.एस.एस. स्काउट गाईड की सभी संस्थानों में व्यवस्था हो। • यातायात नियंत्रण व्यवस्था में छात्रों की सहभागिता ।• अन्य गतिविधियाँ• विर्मश केन्द्र की व्यवस्था हो ( प्रत्येक महाविद्यालय में) जिसके माध्यम से छात्रों की विभिन्न समस्याओं का समाधान हो एवं उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो सके। जिसमें - 1. व्यावसायिक मार्गदर्शन 2. व्यक्तिगत समस्याओं एवं आवश्यकताओं हेतु मार्गदर्शन 3. युवावय की समस्या का समाधान 4. साक्षात्कार (इंटरव्यू) की कला का प्रशिक्षण। 5. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराना 6. सामान्य ज्ञान (जनरल नॉलेज) का शिक्षण आदि।
सेवा, सहिष्णुता, परोपकार, समर्पण और आत्मपरीक्षण का अभ्यास
नैतिक और आध्यात्मिक विकास-
अष्टांग योग - प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि-
आष्टांग योग- यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टवगांनि।।’
(1) प्राणायाम (अनुलोम-विलोम) : योग के माध्यम से योगी प्राणवायु को अपान वायु में और अपान वायु को प्राण वायु में हवन करते हैं । अन्य लोग परिमित भोजन सेवी होकर प्राण और अपान की गति को रोक कर प्राणायाम करते हुए इन्द्रियों को प्राणों में हवन करते हैं । प्राणायाम अर्थात प्राणवायु का विस्तार तीन प्रकार से होता है- पूरक, कुम्भक और रेचक । जब वायु नाक और मुख से आती जाती रहती है तब उसे प्राण कहते हैं और जो वायु मल मूत्र को बाहर निकाल देती है, वह अपान है । प्राण गति को रोकना ही कुम्भक है । पूरक, कुम्भक और रेचक ये तीन प्राणायाम के अंग हैं ।
अनुलोम का अर्थ सीधा और विलोम का अर्थ उल्टा होता है । यहां पर सीधा का अर्थ है नासिका या नाक का दाहिना छिद्र और उल्टा का अर्थ नाक का बायां छिद्र है । अर्थात अनुलोम-विलोम प्राणायाम में नाक के दाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो बायीं नाक के छिद्र से सांस बाहर निकालते है । इसी तरह यदि नाक के बाएं छिद्र से सांस खींचते हैं, तो नाक के दाहिने छिद्र से सांस को बाहर निकालते हैं ।अनुलोम-विलोम प्राणायाम को कुछ योगीगण 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहते हैं । (i) विधि: अपनी सुविधानुसार पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन अथवा सुखासन में बैठ जाएं । दाहिने हाथ के अंगूठे से नासिका के दाएं छिद्र को बंद कर लें और नासिका के बाएं छिद्र से 4 तक की गिनती में सांस को भरे और फिर बायीं नासिका को अंगूठे के बगल वाली दो अंगुलियों से बंद कर दें । तत्पश्चात दाहिनी नासिका से अंगूठे को हटा दें और दायीं नासिका से सांस को बाहर निकालें । अब दायीं नासिका से ही सांस को 4 की गिनती तक भरे और दायीं नाक को बंद करके बायीं नासिका खोलकर सांस को 8 की गिनती में बाहर निकालें । इस प्राणायाम को 5 से 15 मिनट तक कर सकते हैं । (ii) लाभ : फेफड़े शक्तिशाली होते हैं । सर्दी, जुकाम व दमा की शिकायतों से काफी हद तक बचाव होता है । हृदय बलवान होता है । गठिया के लिए फायदेमंद है । मांसपेशियों की प्रणाली में सुधार करता है । पाचन तंत्र को दुरुस्त करता है । तनाव और चिंता को कम करता है । पूरे शरीर में शुद्ध ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाता है । (iii) सावधानियां: कमजोर और एनीमिया से पीड़ित रोगी इस प्राणायाम के दौरान सांस भरने और सांस निकालने (रेचक) की गिनती को क्रमश: चार-चार ही रखें । अर्थात चार गिनती में सांस का भरना तो चार गिनती में ही सांस को बाहर निकालना है । स्वस्थ रोगी धीरे-धीरे यथाशक्ति पूरक-रेचक की संख्या बढ़ा सकते है । कुछ लोग समयाभाव के कारण सांस भरने और सांस निकालने का अनुपात 1:2 नहीं रखते । वे बहुत तेजी से और जल्दी-जल्दी सांस भरते और निकालते हैं । इससे वातावरण में व्याप्त धूल, धुआं, जीवाणु और वायरस, सांस नली में पहुंचकर अनेक प्रकार के संक्रमण को पैदा कर सकते हैं । अनुलोम-विलोम प्राणायाम करते समय यदि नासिका के सामने आटे जैसी महीन वस्तु रख दी जाए, तो पूरक व रेचक करते समय वह न अंदर जाए और न अपने स्थान से उड़े। अर्थात सांस की गति इतनी सहज होनी चाहिए कि इस प्राणायाम को करते समय स्वयं को भी आवाज न सुनायी पड़े ।
(2) प्रत्याहार : प्रत्याहार का मतलब है असंगता । इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है । प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है । अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं । सोते समय अदि तुम चिंता चिंताओं से घिर जाओ तो तुम्हें नीद नहीं आएगी , ऐसे में मन से आते विचारों को अलग करना प्रत्याहार है
(3) धारणा-
(4) ध्यान-
(5) समाधि-
कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग का स्वेच्छानुसार जीवन में निरंतरता-
भारतीय काल गणना, वैदिक मंत्रों का अभ्यास-
मातृभाषा - विद्यार्थी के भाषा के विकास का अध्ययन बहुत ही रोचक है । बड़े अध्ययन का यह निष्कर्ष है की जीवन की प्रारंभिक अवस्था में शब्दों और नामों का उपयोग जो भाषा के सर्वप्रथम मूलतत्व हैं, जीवन के एक निश्चित समय पर आते हैं । हर व्यक्ति प्रकृति द्वारा एक पूर्व स्थापित कार्यक्रम का अपने समय के साथ और अक्षरश: पालन कर रहा है की कोई भी पुरानी प्रणाली का स्कूल इसकी बराबरी नहीं कर सकता, चाहे वह कितना ही सुगठित हो । इस अवधि में व्यक्ति हो या विद्यार्थी अपनी भाषा की सभी विषमताएं और व्याकरणिक संरचनाएं आदि बिना गलती किए गये, सही-सही सीख लेता है । तब बड़े होने पर किसी भी अन्य भाषा को सिखाना उसके लिए बहुत ही सहज होता है । जब हम महाविद्यालयों /विश्वविद्यालयों के छात्रों की बात करते हैं तो समझना होगा की तीन वर्ष का होते -होते बच्चा मनुष्य के रूप में अपने -व्यक्तित्व को स्थापित कर लेता है । तात्पर्य यह की तीन वर्ष में स्कूल जाने वाला विद्यार्थी पहले ही मनुष्य बन चुका होता है । मनो वैज्ञानिकों का मानना है की यदि वयस्कों की क्षमता की तुलना बच्चे से की जाये तो एक बच्चा तीन वर्ष की आयु में जितना का लेता है, उतना हम साथ वर्ष के कठिन परिश्रम से कर पाएंगे ।
शिक्षा में किसी सुधार का आधार स्वयं मनुष्य का व्यक्तित्व होना चाहिए । साथ ही यह नहीं भूलना चाहिए की मनुष्य का विकास केवल विश्वविद्यालय में नहीं होता, वरन उसका मानसिक विकास उसके जन्म से ही शुरू हो जाता है और उसके ह्सुरु के तीन वर्षों में सबसे तेजी से होता है । इसका एक महत्वपूर्ण कारण है की ‘विकास पूर्व जन्मों की एक श्रृंखला है ।’मनुष्य के विकास का प्रमुख पक्ष मानसिक विकास है । मनुष्य अपनी गतिविधियों के लिए अपने मानसिक निर्देशन एवं आदेश परनिर्भर रहता है । बुद्धि, मनुष्य में सर्व प्रथम विकसित होती है । अन्य सारे विकास बुद्धि पर ही निर्भर करते हैं ।
भाषा के कारण ही समुदायों और राष्ट्रों का निर्माण होता हा और भाषा के कारण ही मनुष्य अन्य जीविओं से भिन्न है और भारतीय पृथ्वी पर मानुष के आने से पहले भाषा का अस्तित्व नहीं था और भाषा है क्या ? केवल थोड़ी सी, हवा थोड़ी सी, आवाज आपस में मिल कर भाषा बन जाती है । भाषा की आवाजें स्वयं में अर्थहीन हैं । सामने रखा हुआ लोटा, और लोटा शब्द में कोई तर्कयुक्त समबन्ध नहीं है । इस आवाज का अर्थ इसीलिए है क्योंकि मनुष्यों ने इसे एक विशेष अर्थ देना सीकर कर लिया है । यही बात सब शव्दों के लिए कही जा सकती है । यह किसी मानव समाज के सदस्यों के बीच समझौते की अभिव्यक्ति है और जो इस सझौटे से परिचित है, वे ही इसे समझ सकते है । दूसरे समुदाय, मित्र आवाजों से इन्हीं विचारों को व्यक्त करते हैं, जिसके लिए उनमें सहमति होती है । भाषा एक दीवार है जो मानव समुदाय को चारों और से घेरती है और उसे अन्य समुदायों से पृथक कराती है । इसीलिए शायद मानव मस्तिस्क में शब्द का सदा से कुछ रहस्यमय मूय रहा है । मनुष्य जिस भाषा का प्रयोग करता है वह उसकी मानसिक आवश्यकताओं द्वारा विक्सित होती है । हम कह सकते है की भाषा मानव विचारों के साथ विकसित होती हैं । वास्तव में भाषा उच्च श्रेणी की अभिव्यक्ति है। भाषा की क्लिष्टता भाषा के विलुप्त होने का कारन बनती है । प्रारंभ में हमें प्रतीत होता है की भाषा प्रकृति की देन है । किन्तु अध्ययन में ध्यान आया है की यह प्रीति से परे है । वह सामूहिक बुद्धि की रचना है जो प्रकृति पर अध्यारोपित कर दी गई है । मनुष्य भाषा को बाल्यकाली से ही अवशोषण करता है । विदेश में जहाँ हम वयस्क भाषाओँ को पहचान तक नहीं पाते वहीं विद्यार्थी अनेक भाषाओं को सुनता है और अपनी खुद की यांत्रिक विधि से रचना में सामर्थ्य हो जाता है ।यह सचेत कार्य का परिणाम नहीं है । इसका प्रारंभ अचेतन की गहराइयों से होता है । जबकि वयस्क सचेत रूप से भाषा को सीखता है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘‘दुनिया में भाषा के रूप में हिंदी का महत्त्व बढ़ रहा है। हिंदी भाषा को समृद्ध बनाने के लिए अन्य भारतीय भाषाओं से जोडऩा होगा और डिजिटल दुनिया में इसका उपयोग बढ़ाना होगा। हमें भाषा की विरासत को सहेजने की जरूरत है, आने वाले वर्षों में भाषा का बहुत बड़ा बाजार बनने वाला हैं। आज दुनिया से भाषाएँ लोप हो रही हैं, अगर हम अपनी भाषा को समृद्ध नहीं बना सके तो हिंदी पर भी यही खतरा आ जाएगा। जानकार बताते हैं कि डिजिटल वर्ल्ड में तीन भाषाओं का ही बोलबाला रहने वाला है- अॅग्रेजी, चीनी और हिंदी । टेक्नोलॉजी की दुनिया में भाषा का बाजार बढऩे वाला है। इमसें हिंदी की अहमियत बढऩे वाली है ।’’ भाषा की महत्ता प्राय: उसके लुप्त होने पर ही लगती है अत: हमें अभी से चेतना होगा कि हिन्दी की अस्मिता बनी रहे। यह प्रत्येक पीढ़ी का कर्तव्य है कि भाषाई विरासत को सुरक्षित रखते हुए भावी पीढ़ी को स्थानान्तरित करे। भाषा जीवन की तरह चेतन होती है। यह हवा के झोंके की तरह विचारों की सुगंध को पीढ़ी-दर-पीढ़ी समेटे चलता है। भाषा को तकनीक के अनुरूप परिवर्तित करना है। सबको जोडऩे वाली भाषा की ताकत को सामने लाना है। ‘‘स्वतंत्रता के पश्चात् दो दशकों तक विदेश नीति पर आभिजात्य नेताओं और नौकरशाहों का प्रभाव रहा। इसी कारण विदेश नीति की आधार शिला अॅग्रेजी पर रखी गई, जो आज भी कायम है। भारत में लोगों और तंत्र के बीच संवाद की भाषा हिंदी होनी चाहिए, न कि अॅग्रेजी। ७० प्रतिशत भारतीय हिंदी पढ़ते, लिखते है जबकि केवल २ प्रतिशत भारतीय अॅग्रेजी जानते हैं। १९६३ में राजभाषा अधिनियम बनाया गया और इसके अनुपालन में लागू करने के लिए १९७६ में ‘संसदीय राजभाषा समिति’ का गठन किया गया है। विश्व के सभी राष्ट्रों के राजनयिक अपनी भाषा में बात करते हैं। जब हम विदेशों में अपनी भाषा में बात करेंगे, तभी लोग हमारे राष्ट्रीय हितों, रुचियों और संस्कृति को समझ सकेंगे। यदि भारत सरकार की नीतियाँ हिंदी में आएँगी तो विदेश नीति भी इससे अनछुई नहीं रहेगी। सरकार को हिंदी पर एक विश्व नीति बनानी चाहिए।
पिछले चालीस वर्षों के दौरान आयोजित नौ विश्व हिंदी सम्मेलनों का एक मात्र उद्देश्य हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र की कार्यालयी भाषा में सम्मिलित करना रहा है । किंतु इस दिशा में अपेक्षित प्रगति नहीं मिल पाई है । इसके लिए वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ के 193 सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत यानि 129 देशों के समर्थन की आवश्यकता है । जिस तरह से भारत के संयुक्त संघ में विश्व योग दिवस संबधित प्रस्ताव पर 177 देशों ने अपनी सहमति दर्ज कराई, उससे उम्मीद बँधी है कि आनेवाले दिनों में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल होने में मुश्किल नहीं आएगी । विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर हिंदी, अॅग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं के साथ क्षेत्रीय भाषाओं में भी जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए ।
विभिन्न स्वरूपों में हिंदी का प्रयोग भारत के पड़ोसी देशों और ऐसे देश, जिनमें भारतीय मूल के बहुत लोग रहते हैं, वहाँ होता है। यूरोप और अमेरिका में भी हिंदी की उपस्थिति अनेक रूपों में है। जिससे देशवासी गौरवान्वित होते है और पूरे राष्ट्र का मनोबल ऊँचा उठाता है। हिंदी सिखाने से ज्यादा भारत में इस बात की आवश्यकता है कि विदेशी भाषाओं को हिंदी माध्यम से सिखाने के लिए शिक्षण सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ। अनुवाद और भाषातंर के संसाधनों में हिंदी और विदेशी भाषाओं के शब्दकोशों का विशेष महत्त्व है। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के लिए संकल्प। संसदीय राजभाषा समिति द्वारा विदेश स्थित दूतावासों/मिशनों के निरीक्षण के संबंध में आनेवाली बाधाओं पर विचार किया जाना चाहिए।विदेश मंत्रालय को मूल हिंदी में टिप्पण एवं अन्य कार्यों को करना चाहिए।भारतीय राजनयिकों को हिंदी में बातचीत एवं कार्य करना चाहिए। विदेशों में हिंदी के प्रचार -प्रसार के लिए केंद्रीय स्तर पर एक संस्था की स्थापना होनी चाहिए। भारत द्वारा किए गए बहुपक्षीय और द्विपक्षीय संधि / करारों की हिंदी प्रति को भी मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध करवाया जाना चाहिए।
प्रशासन में हिंदी : इस सत्र की अध्यक्षता मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने की। मुख्य वक्ता के रूप में श्री चंद्रकला पंडिया ने कहा कि अनुवाद दो संस्कृतियों का साझा भावनात्मक संवाद है। ऐसे में दैनिक जीवन हो या शासन-प्रशासन, प्रत्येक स्तर पर इस संवाद से स्वराज की प्राप्ति हो। ‘ट्रांसलेशन’ का अर्थ पारवाहन है और ‘अनुवाद’ का अर्थ है किसी की कही बात को दूसरी भाषा में कहना। प्रश्न उठता है कि पारवाहन किसका? अर्थ, विचार, भाव या अनुभूति का? कार्यालयीन हिंदी अर्थ, विचार के पारवाहन पर केंद्रित होती है। प्रशासनिक स्तर पर यह पारवाहन पत्राचार व रपट लेखन, प्रश्नोत्तर आदि में देख सकते हैं।
कार्यालयीन हिंदी के अनुवाद के परिप्रेक्ष्य में दो महत्त्वपूर्ण बिंदु हैं, अधिकांश कार्यालयों में पहला बिंदु पत्राचार होता है और दूसरा बिंदु रपट बनाना, प्रश्नों के उत्तर देना है। ऐसी स्थिति में प्रथम दृष्ट्या अनुवादक को चाहिए कि वह संस्कृत की तत्समी प्रवृत्ति से मुक्त होकर हमारी संस्कृति के मुख्य केंद्र बहुवचनीयता की ओर उन्मुख होकर, देशज भाषाओं के सहज सर्वस्वीकृत शब्दों का इस्तेमाल करे।
प्रो. महेंद्र पाल शर्मा ने कहा कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अहिंदी भाषी नेताओं ने भी हिंदी को अपनाया। कार्यालयों में हिंदी अनुवादक के खाली पद भरे जायें।
प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि अहिन्दी प्रांतों से हिन्दी प्रांतों में आये अधिकारियों को तीन भागों में विभक्त कर, पहला, जहाँ का व्यवहार हिंदी में नहीं है जैसे कि दक्षिण भारत के सभी प्रांत, असम के सभी प्रांत और उत्तर पूर्व भारत के भी कई प्रांत आते हैं। दूसरा, ऐसे प्रांत जहाँ हिंदी को समझने में कठिनाई का अनुभव कम होता है, जैसे कि गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, असम एवं त्रिपुरा आदि। तीसरा, ऐसी भाषा जो हिंदी से काफी मिलती-जुलती है, उसको हमने तीसरे वर्ग में रखा है इसके अंतर्गत हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, पंजाब। इस क्षेत्र के लोगों को, जो हिंदी समझ तो सकते हैं, लेकिन उसे लिख-पढ़ नहीं सकते, हिन्दी सिखाई जाये।
अनुशंसाएँ
१.संस्कृत तत्सम शब्दावली से उन्मुख होकर देशज भाषाओं के सरल शब्दों और सरलीकृत शब्दों का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए।
२. अपनी मातृभाषा में हस्ताक्षर करें।
३. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, संघ लोक सेवा आयोग या राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में मूल रूप से प्रश्न-पत्र हिंदी में बनाए जाए, आवश्यक हो तो अॅग्रेजी का पाठ उपलब्ध कराया जाए।
४. शब्दावली आयोग को निर्देश दिया जाए कि हिंदी के शब्द निर्माण में व्यावहारिक शब्दों पर बल दिया जाए।
५. अल्पकालिक पारंपरिक हिंदी शिक्षण पर जोर दिया जाए। तथा हिंदी में काम करना, बोलना, लिखना, पढऩा सिखाया जाए।
विज्ञान क्षेत्र और हिंदी : सत्र के अध्यक्ष केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने ‘जय-जवान, जय किसान’ के साथ ‘जय विज्ञान’ को जोड़ा था। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी सदैव वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करते हैं। सम्मेलन वास्तव में भारत का इतिहास बनने की क्षमता रखता है और ऐसा प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। आज देश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत विभिन्न संस्थानों एवं प्रयोगशालाओं में सोशल मीडिया, यू-ट््यूब एवं फेसबुक के माध्यम से वैज्ञानिक जानकारी हिंदी भाषा में जनता को उपलब्ध करायी जा रही है। देश में प्राचीन काल से ही विज्ञान एवं चिकित्सा की समृद्धशाली परंपरा रही है और भारत से वैज्ञानिक ज्ञान, पश्चिमी देशों में पहुँचा और फिर वही ज्ञान विदेशी भाषाओं के माध्यम से भारत में वापस आया।
डॉ. शिवगोपाल मिश्र ने तीन मुख्य विषयों पर बात की। पहल- हिंदी वैज्ञानिक साहित्य अवतरण। दूसरे, हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य के पल्लवन, पुष्पन तथा फलन। तीसरे,हिंदी में विज्ञान लेखन की भावी संभावनाएँ।
डॉ. नरेंद्र कुमार सहगल ने कहा कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिक विभाग द्वारा विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए भारत ज्ञान-विज्ञान जत्थों का आयोजन किया गया, जिससे कि विज्ञान की पहुँच देश के सुदूर क्षेत्रों तक जनभागीदारी के साथ हुई। इसी विभाग द्वारा आकाशवाणी के सौजन्य से निर्मित १४४ कडिय़ोंवाले रेडियो धारावाहिक ‘मानव का विकास’ का निर्माण किया गया, जो एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान संचार का दस्तावेज है।
प्रो. मोहनलाल छीपा ने ऐसे तीन शिक्षकों की जानकारी दी जिन्होंने देश में पहली बार हिंदी माध्यम से अपना स्नातकोत्तर (एम.डी.) का शोध ग्रंथ लिखा है। उन्होंने हिंदी माध्यम से चिकित्सा शिक्षा को प्रोत्साहन देने संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए।
डॉ. बालकृष्ण सिन्हा ने कहा कि प्राचीन काल से ही भारतीय आध्यात्मिक तत्त्व चिंतन और भौतिक विज्ञान के अभूतपूर्व विकास से प्रभावित होकर सारा संसार मुक्तकंठ से उसका गान करता था। संकल्पनाओं और पदार्थों की विवेचना के लिए समृद्ध वैज्ञानिक शब्दावली थी। प्राचीन भारत में गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन, अर्थशास्त्र, भाषाशास्त्र आदि की पारिभाषिक शब्द संपदा काफी समृद्ध थी। थिसॉरस की जिस पद्धति को अब पश्चिम में व्यापक स्वीकृति मिल रही है, वह संस्कृत भाषा की हजारों वर्षों पुरानी निघंटु पद्धति का ही रूपांतरण है। शब्दों के निगमन के कारण इन्हें निघंटु कहा जाता है। आयोग द्वारा अब तक लगभग नौ लाख तकनीकी शब्दों के हिंदी पर्यायों का निर्माण किया जा चुका है, जो आयोग द्वारा प्रकाशित विभिन्न प्रकाशनों में उपलब्ध हैं। मानक शब्दावली के काफी शब्द एवं पर्याय वेबसाइट पर भी उपलब्ध हैं।
श्री सुभाष चंद्र लखेड़ा ने कहा भारत सरकार में अनेक मंत्रालय एवं संस्थाएं हैं। ऐसी प्रमुख संस्थाओं में राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद््, विज्ञान प्रसार, राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं सूचना संसाधन संस्थान और राष्ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद्् शामिल हैं। विज्ञान सृजन की तरह विज्ञान संचार का काम भी एक मिशन के रूप में लिया जाना चाहिए। अगर विज्ञान संचार करना है तो उसमें हमारे मीडिया की भूमिका भी सकारात्मक होनी चाहिए। वर्तमान में डीआरडीओ प्रयोगशालाओं से ४५ गृह पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। इन पत्रिकाओं में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विषयक मौलिक लेख प्रकाशित किए जाते हैं। रक्षा अनुसंधान एवं युद्धविज्ञान से संबंधित विज्ञान लेखन को बढ़ावा देने के लिए सन्् १९८२ में ‘रक्षा मंत्रालय पुरस्कार’ योजना आरंभ की गई है एवं १९८५ से ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास राजभाषा पुरस्कार’ की शुरू की गई है।
अनुशंसाएँ :
१. देश के सभी वैज्ञानिक, चिकित्सा एवं अभियांत्रिकी प्रयोगशालाओं एवं संस्थानों में विज्ञान संचार इकाई की स्थापना की जाए एवं विज्ञान संचार के लिए विज्ञान प्रयोगशालाओं में पदों का सृजन किया जाए।
२. विज्ञान एवं तकनीकी प्रयोगशालाओं द्वारा सोशल मीडिया पर हिंदी में विज्ञान सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित की जाए।
३. हिंदी में दैनिक विज्ञान समाचार-पत्र का प्रकाशन हो।
४. जिन दो विषयों जैसे सूचना प्रौद्योगिकी एवं अंतरिक्ष में भारत का कार्य महत्त्वपूर्ण है, उसमें अधिकाधिक मूल जानकारी हिंदी में प्रकाशित की जाना चाहिए।
५. चिकित्सा क्षेत्र में नियामक संस्थाओं द्वारा एक निश्चित समय-सीमा में सभी चिकित्सा परीक्षाओं में हिंदी भाषा में लिखने की छूट प्राप्त हो। चिकित्सा शिक्षण द्विभाषीय माध्यम से हो।
६. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के नवीन एवं समसामयिक विषयों पर योजनाबद्ध तरीके से पुस्तकों को विकसित किया जाए।
७. डिजिटल इंडिया के तहत प्राचीन भारत के वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित दुर्लभ ग्रंथों जैसे ‘भारत की संपदा’ आदि साहित्य को नि:शुल्क वेबसाइट पर उपलब्ध कराया जाए, इसके अलावा विज्ञान विश्वकोश का प्रकाशन हिंदी मेंं किया जाए।
संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी: सत्र की अध्यक्षता श्री अशोक चक्रधर ने की। मुख्य वक्ता सर्वश्री हर्ष कुमार ने ‘हिंदी के विकास में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका’, विजय कुमार मल्होत्रा ने, ‘हिन्दी में शिक्षण-प्रशिक्षण और ई-अधिगम (ई-लर्निंग)’, आदित्य चौधरी ने ‘कम्प्यूटर, ई-मेल, इंटरनेट और डिजिटल इंडिया में हिंदी’, बालेंदु शर्मा दधीच ने ‘संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी : रोजगारमूलक संभावनाएँ’ एवं सुजय लेले ने ‘देवनागरी के संरक्षण और संवर्धन के लिए इंस्क्रिप्ट’ विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
अनुशंसाएँ :
१. डिजिटल इंडिया का लक्ष्य हो कि आम आदमी भी अपने स्मॉर्टफोन के जरिए दिन-प्रतिदिन के कार्य सुगमता से कर सके।
२.भारत के प्रत्येक घर में डिजटिलाइजेशन को पहुँचाने के लिए कम्प्यूटर की भाषा हिंदी होनी चाहिए।
३. भावी कम्प्यूटर संवादात्मक होने चाहिए, जो कम्प्यूटर प्रयोक्ताओं की समस्याओं को सुनकर उनका समाधान दे सके।
४. हिंदी और भारतीय भाषाओं के लिए एक वैश्विक विषयवस्तु प्रबंधन प्रणाली बने, ताकि भाषा और लिपि के मानकीकरण की समस्या दूर हो सके।
५. विदेशी भाषाओं में दक्षता हेतु उन भाषाओं की परीक्षाएँ विश्वभर में आयोजित होती हैं।
६. भारत सरकार ने जो सर्च इंजन हिंदी में बनाया है, वह आम जनता तक पहुँचाया जाए। तथा बीमा, चिकित्सा बैंक आदि क्षेत्रों में हिंदी कम्प्यूटर प्रणाली की बाधाएँ शीघ्रातिशीघ्र दूर की जाएँ।
विधि एवं न्यायिक क्षेत्र में हिंदी और भारतीय भाषाओं का प्रयोग : सत्र की अध्यक्षता पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री केशरीनाथ त्रिपाठी ने की। मुख्य वक्ता श्री शंभूनाथ श्रीवास्तव ने कहा कि हिंदी को भी जनभाषा से न्यायालय की भाषा बनाकर न्यायिक कार्यों में विधि व्यवस्था के अंदर संवैधानिक दायरे में वर्तमान परिस्थितियों में सभी कार्य में उच्च न्यायालय तक प्रयोग करने की तुरंत अनुमति दी जानी चाहिए। उच्च न्यायालय के शपथपत्रों व अभिवचनों को भी हिंदी देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए।
श्री दयाशंकर मिश्र ने बताया कि न्यायालय में अॅग्रेजी के तर्कों से वादकारियों का शोषण हो रहा है, जिसे समाप्त कर वादकारियों को उसकी निजभाषा में न्याय मिले।
श्री श्रीपति मधुकर खिखडक़र ने कहा कि आजादी के ६८ वर्ष बाद भी विधि क्षेत्र में न्यायिक कार्य हिंदी भाषा में पूर्णतया दिशाहीन है। मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालय व उसकी दो खंडपीठों में हिंदी देवनागरी में कार्य होना बंद हो गया है। उत्तर प्रदेश की भाँति मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय में भी हिंदी स्थापित हो सकती है।
श्री केशरीनाथ त्रिपाठी ने कहा उच्च न्यायालयों की भाषा हिन्दी बनाने के लिए वर्तमान परिस्थितियों में हमें योजनाबद्ध प्रयास की आवश्यकता है। इसके लिऐ सुदृढ़ इच्छाशति और मानसिकता में परिवर्तन लाकर सकारात्मक दृष्टि से सोचना होगा। भारत के संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों के अंतर्गत कार्रवाई कर, हिंदी भाषा के प्रयोग को अनुमन्य किया जा सकता है। विधि क्षेत्र में हिंदी भाषा के पठन-पाठन की आवश्यकता है। श्री त्रिपाठी ने एक ऐसा ‘मानक विधि शब्दकोश’ बनाने का आग्रह किया, जिसमें हिंदी-अॅग्रेजी भाषा के विधिक शब्दों के भारत के संविधान में अनुमन्य सभी भाषाओं के शब्दार्थ, पर्यायवाची व समानांतर शब्द तथा उनके अर्थ हों और आवश्यकतानुसार नए शब्दों का निर्माण भी किया जाए। इससे अहिंदी भाषी प्रदेशों में हिंदी के प्रयोग में सुविधा होगी।
अनुशंसाएँ :
१. उन प्रदेशों में जहाँ उच्च न्यायालय में व उस प्रदेश की भाषा में वादपत्र, शपथपत्र, अभिवचन तथा अभिलेख या तर्क प्रस्तुत करना अनुमन्य है, वहाँ हिंदी में भी आदेश, निर्णय व अज्ञप्ति दिए जाने के लिए संविधान के अनुच्छेद ३४८ (२) की व्यवस्था में कार्य करने की अनुमति सभी उच्च न्यायालयों को तुरंत दी जाए।
२. राजभाषा अधिनियम के अंतर्गत अब तक कानून बने सभी संकल्पों को, जो उच्चतम न्यायालय व उच्च न्यायालयों में हिंदी को स्थापित करने के लिए संसद से पारित हो चुके हैं उनको समयबद्ध रूप में भारत सरकार क्रियान्वित करने की व्यवस्था सुनिश्चित करने की दिशा में कदम उठाए।
सुझाव एवं अनुशंसाएँ :
१. बाल साहित्य अकादमी की स्थापना।
२. बाल साहित्य में देशी-विदेशी महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों, पौराणिक पात्रों से संबंधित जीवनियाँ, भारतीय संस्कृति तथा मानव मूल्य और वैश्विक साहित्य को यथा संभव स्थान मिलना चाहिए।
३. एन.सी.ई.आर.टी. और अन्य शैक्षणिक संस्थानों के पाठ्यक्रमों में बाल साहित्य को स्थान मिलने के साथ ही इसके निर्माण में बाल साहित्यकारों का सहयोग लेना चाहिए।
४. भविष्य में आयोजित होने वाले विश्व हिंदी सम्मेलनों के दौरान आयोजित होने वाले बाल साहित्य सत्र में विद्वानों के साथ ही बच्चों को भी आमंत्रित किया जाना चाहिए।
६. फिल्म सेंसर बोर्ड की भाँति बाल साहित्य के मानकीकरण और दृश्य माध्यमों में दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों का बच्चों की रुचि, आवश्यकता और योग्यता के अनुसार वर्गीकृत करने के लिए बाल साहित्य बोर्ड जैसी संस्थाओं का गठन होना चाहिए।
७. बाल पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले साहित्य में अन्य भाषा के स्तरीय साहित्यों का अनुवाद और पुनर्लिखित साहित्यिक कृतियों को भी स्थान मिलना चाहिए। ा भी है।
अन्य भाषा-भाषी राज्यों में हिंदी : सत्र के अध्यक्षीय उद््बोधन में श्री शेषारत्नम्् ने कहा कि विश्व हिंदी सम्मेलन का नारा ‘हिंदी कल, आज और कल’ का आशय स्पष्ट है कि हिंदी कल भी थी, आज भी है, और कल भी रहेगी। हिंदी संपर्क की भाषा होनी चाहिए।
प्रो. बी.वाई. ललितांबा ने कहा कि विश्व हिंदी सम्मेलन का स्लोगन (नारा) सार्थक है। स्वतंत्रता सेनानियों ने हिंदी को पराधीन भारत से लेकर स्वतंत्र भारत तक संपर्क की भाषा बनाया।
प्रो. एम. ज्ञानम्् ने कहा कि हड़प्पा काल में हमें भाषा का सांकेतिक रूप देखने को मिलता है। इससे स्पष्ट होता है कि सांकेतिक संपर्क हड़प्पा संस्कृति में भी मौजूद थै। जैन, बौद्ध धर्म से लेकर हिंदी के कई रूप देखने को मिलते हैं।
प्रो. सुशीला थॉमस ने कहा कि हिंदी देश का एक सूत्र में पिरोनेवाली भाषा है। भारत बहुभाषी एवं सांस्कृतिक विशालता वाला देश है। भारतीय भाषाओं की प्रकृति के अनुसार हिंदी के रूप अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन इनका स्रोत एक ही है।
डॉ. रामचंद्र राय ने कहा कि भारत में ६०० भाषाएँ हैं, जिनमें से २०० भाषाएँ पूर्वोत्तर में बोली जाती हैं। हिंदी सामान्य वर्ग की भाषा है। १९७२ में पूर्वोत्तर को पूर्वांचल के नाम से जाना जाता था। पूर्वोत्तर के भौगोलिक क्षेत्र चीन, तिब्बत, बर्मा और बांग्लादेश से घिरे हुए हैं। इनकी भाषा एवं बोलियों का प्रभाव भी पूर्वोत्तर पर पड़ा है। मिजोरम एवं आसाम चीनी, तिब्बती कूनके का है। पूर्वोत्तर में हिंदी को सँवारने का कार्य सैनिकों, उत्तर भारत के व्यापारियों और फिल्मकारों ने किया है। पूर्वोत्तर में ईसाईयों ने रोमन के द्वारा हिंदी भाषा को लिपिबद्ध किया है। पूर्वोत्तर के विद्यालयों में प्राथमिक स्तर पर हिंदी पढ़ाई जाती है। पूर्वोत्तर में हिंदी विश्वविद्यालयों में भी हिंदी की समस्या नहीं है।
डॉ. वल्लभ राव ने कहा कि आंध्र प्रदेश में अधिकतम निजी विद्यालयों में हिंदी नहीं पढ़ाई जाती है, जो हिंदी के विकास में बाधा है।
अनुशंसाएँ :
१. स्वैच्छिक संस्थाएँ हिंदी भाषा के विकास के लिए पत्रिकाएँ इत्यादि का प्रकाशन करें।
२. वाद-विवाद एवं निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया जाना चाहिए।
३. हिंदी संस्थाओं के मध्य समन्वय की आवश्यकता है।
४. शब्दावली आयोग को हिंदी संस्थाओं से जुडऩा चाहिए।
५. हिंदी संस्थाओं को हिंदीत्तर विद्वानों से जोड़ें।
हिंदी पत्रकारिता और संचार माध्यमों में भाषा की शुद्धता : विषय प्रतिपादक वरिष्ठ पत्रकार श्री राजेन्द्र शर्मा ने कहा कि हिंदी पर संचार माध्यमों के माध्यम से प्रबल आक्रमण हो रहा है और दुर्योग से हिंदी के समाचार-पत्र इसका माध्यम बन रहे हैं। एक समय था जब एक संस्थान ने हिंदी के विकास में अहम भूमिका निभाई, आज वहीं संस्थान हिंदी के स्वरूप को बिगाड़ रहा है। जितने बड़े समाचार-पत्र हैं, उन सबने हिंदी के माध्यम से अपना साम्राज्य स्थापित किया, लेकिन आज उन्होंने हिंदी के समाचार-पत्र को द्विभाषीय बना दिया है और अॅग्रेजी में सामग्री घरों में पहुँचा रहे हैं। हिंदी पहले ‘भारतीयता’ की अभिव्यक्ति का साधन थी अब ‘इंडिया’ की अभिव्यक्ति का साधन बन गई है।
सत्र की अध्यक्षा वरिष्ठ साहित्यकार एवं ‘हिंदुस्तान’ की पूर्व संपादक श्रीमती मृणाल पांडे ने अपना विरोध दर्ज करते हुए कहा कि इस सम्मेलन से साहित्य का नाता तोड़ दिया गया है। साहित्यकारों को खारिज कर दिया गया है। सम्मेलन से साहित्य को खारिज करने का विरोध साहित्यकारों को ही नहीं, बल्कि पत्रकारों को भी करना चाहिए। मैं बीस साल से चिंता व्यक्त करती रही हूँ कि मीडिया के स्वामित्व पर विचार होना चाहिए। देश के ग्यारह संस्थानों ने अस्सी प्रतिशत मीडिया अपने हाथ में ले लिया है। अब संपादक संस्थान नहीं हैं। अब केवल आकर्षक छपाई और साज-सज्जा पर ध्यान दिया जाता है। भाषाई पत्रकारों के साथ भेदभाव का मुद्दा उठाते हुए कहा कि अॅग्रेजी के पत्रकार हवाई यात्रा कर सकते हैं, लेकिन भाषाई पत्रकार को थ्री-व्हीलर के लिए भी अनुमति लेनी होती है। हिंदी के नाम पर ‘विलाप’ होता है। जमीनी सवाल है रोजी-रोटी। हिंदी में कुछ संस्थानों को प्रचुर मात्रा में राजाश्रय मिल रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार व जनसत्ता के पूर्व संपादक श्री ओम थानवी ने कहा कि जो कुछ सत्र के संयोजक राजेंद्र शर्मा जी ने कहा उससे मैं सहमत हूँ। हालाँकि विषय में शुद्धता शब्द तकलीफ पहुँचाता है। उसकी जगह पर स्वच्छता हो सकता है। हालाँकि यह शुद्धिवाद का दौर है, जो धर्म, समाज, राजनीति और संचार मामलों में थोड़ा डराता है।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री नरेंद्र कोहली ने कहा कि साहित्य और संचार माध्यमों कि समान आधार, विषय, चिंतन और विचार भी हो सकते हैं, किंतु वे अनिवार्य नहीं हैं। इन दोनों का समान और अनिवार्य आधार तो भाषा ही है। एक युग था, जब समाचार-पत्रों और साहित्य की भाषा में कोई विशेष अंतर नहीं था। क्योंकि तब पत्रकारिता और साहित्य में कोई दूरी नहीं थी। तब समाचार-पत्रों के माध्यम से साहित्य पाठक तक पहुँचा भी था। पत्रकारिता में राजनीति का महत्त्व तब भी था, किंतु वह राष्ट्रीय राजनीति थी और वह साहित्य की न विरोधी थी, न उससे दूर थी।
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने कहा कि इस सत्र का विषय ‘भाषा की शुद्धता’ नहीं, ‘भाषा की स्वच्छता’ रखते तो ज्यादा उपयुक्त रहता। हिंदी भाषा को लेकर मैं गहरे दर्द और निराशा से बात करता हूँ। लेकिन ऐसा मैं हिंदी प्रेम के कारण कहता हूँ। मुझे शुद्ध और प्रांजल हिंदी पसंद है। उर्दू और अॅग्रेजी भी पसंद है। लगभग ५००० शब्द ऐसे हैं, जो तुर्की, अफगानी, फारसी के शब्द हैं। उनके बगैर हिंदी ही नहीं है। उर्दू-हिंदी सहोदरी हैं। एक ही गर्भ से पैदा हुई हैं। पाकिस्तान के भाषाविद् हैं तारिक रहमान, उन्होंने लिखा है कि उर्दू तो हिंदी से निकलती है। हिंदी मीडिया में आज जो हो रहा है, वह धीमा जहर जैसा है, जिससे हिंदी की हत्या हो रही है।
अनुशंसाएँ :
१. यह विश्व हिंदी सम्मेलन देश के सभी संचार माध्यमों ओर उनके प्रबंधकों/संपादकों/प्रमुखों से आग्रह करता है कि वो अपने-अपने संचार माध्यमों (सभी तरह के टी.वी. चैनल, समाचार-पत्र, रेडियो एफएम चैनल, विज्ञापन दाता, विज्ञापन एजेंसियाँ, डिजिटल मंच) से यह सुनिश्चित करें कि उनकी हर तरह की विषय वस्तु से हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं की अस्मिता के मूलरूप लिपि को कमजोर और खंडित करने वाली कोई भी बात न हो।
२. यह सम्मेलन भारत सरकार से यह अनुरोध करता है कि आयोग देश के सभी राज्यों और भाषाओं से जुड़े सभी पक्षों के साथ समन्वय और सहयोग करके समयबद्ध तरीके से योजना बनाए और काम करे। यह हर वर्ष संसद के सामने अपनी प्रगति का लेखा जोखा भी प्रस्तुत करें।
३. यह सम्मेलन भारत सरकार से आग्रह करता है कि देश की सभी निजी और सरकारी शिक्षा संस्थाओं में माध्यम, भाषा के रूप में मातृ/स्थानीय भाषाओं में शिक्षण अनिवार्य रूप से उच्चतम प्राथमिकता के साथ लागू किया जाए।
४. हिंदी सहित भारतीय भाषाओं की लिपियों को लोप ना होने दे और किसी भाषा के संदेश को उसकी लिपि में ही संप्रेषित करना सुनिश्चित करे।
५. यह सम्मेलन इंडियन ब्रॉडकास्टर्स फेडरेशन (आई.बी.एफ.) और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बी.ई.ए.) और इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी (आई.एन.एस.) और उनके जैसी सभी माध्यमों के संगठनों से अनुरोध करता है कि वे अपने-अपने माध्यमों और मंचों में हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं के अस्तित्व, अस्मिता, रूप और स्वच्छता को सुनिश्चित करें और उनके सवंर्धित करने में योगदान करें।
६. यह सम्मेलन संस्तुति करता है कि हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार माध्यमों के सम्यक और समग्र विकास के लिए अटल बिहारी वाजपेयी केंद्रीय हिंदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की स्थापना की जाए। भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देकर कार्यारंभ किया जाए। साथ ही महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पत्रकारिता पाठ््यक्रम के केंद्र देश के अन्य राज्यों में भी स्थापित किए जाएँ।
गिरमिटिया देशों में हिंदी : सत्र की अध्यक्षता गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिंहा ने की। डॉ. मनोहर पुरी ने कहा कि दास प्रथा के विकल्प के रूप में औप-निवेशकीय शक्तियों ने गिरमिटिया मजदूरी का प्रारंभ किया। प्रो. रामनरेश मिश्र ने कहा कि गिरमिटिया देशों की जातीय अस्मिता एवं संस्कृति की सूत्रधार हिंदी है।
श्री आर.के. सिन्हा ने कहा कि हिंदी के प्रचार में गिरमिटिया की बलवती भूमिका रही है। उन्हें जिन-जिन देशों में ले जाया गया, वहाँ उनके माध्यम से हिंदी पहुँची और विकसित हुई।
श्रीमती लीला देवी दुखन लछुमन ने गिरमिटिया देशों में हिंदी प्रचार-प्रसार की खुलकर प्रशंसा की। दूरदर्शन और चलचित्र हिंदी प्रचार के आकर्षक आधार बन गए हैं।
डॉ. सरिता बुद्ध ने ‘रिश्ते-नाते की शब्दावली और गिरमिटिया’ विषय को प्रतिपादित करते हुए कहा कि भोजपुरी भाषा का प्रारंभ भोपाल नगरी से शुरू होकर गिरमिटिया तक पहुँचा है। गिरमिटिया देशों में पाठशालाओं एवं महाविद्यालयों में अवधी-भोजपुरी भाषा में हिंदी को मिश्रित रूप में पढ़ाया जाता है।
श्रीमती मृदुला सिन्हा ने कहा गिरमिटिया देशों के प्रवासियों के द्वारा हिंदी को जीवित नहीं बल्कि गतिशील बनाने के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए।
विदेशों में हिंदी शिक्षण : सत्र की अध्यक्षता डॉ. प्रेम जनमेजय ने की। मुख्य वक्ता सर्वश्री मारिया नजेशी ने ‘विदेशों में हिंदी-शिक्षण: एक मूल्यांकन’, करुणा शर्मा ने ‘विदेशों में हिंदी-शिक्षण और पाठ््य-सामग्री की एकरूपता’, मोहम्मद इस्माइल ने ‘विदेशों में हिंदी शिक्षण का सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास’ एवं श्रीमती गुलनाज अब्दुल मजीद ने ‘अरब देशों में हिंदी शिक्षण’ विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
अनुशंसाएँ :
१. सी.बी.एस.ई. की तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर के बोर्ड का गठन हो।
२. पाठ््यक्रम की एकरूपता हो परन्तु विभिन्न देशों के आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित हों।
३ . हिंदी शिक्षण में आधुनिक तकनीक के प्रयोग पर बल दिया जाए। इंटरएक्टिव, मल्टीमीडिया पर आधारित नई शिक्षण सामग्री के निर्माण में आवश्यकतानुसार विद्यामूलक और आर्थिक सहायता प्रदान की जाए।
४. विदेशों में अध्यापन करने वाले शिक्षक स्थानीय शिक्षकों के लिए कार्यशाला आयोजित करें।
५. ई-बुक लाइब्रेरी का निर्माण किया जाए।
विदेशियों के लिए भारत में हिंदी अध्ययन की सुविधा : मुख्य वक्ता डॉ. नंद किशोर पांडेय ने ‘विदेशियों के लिए हिंदी प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं के सामंजस्य और विस्तार’ की बात कही, किरण माला सिंह ने ‘दूरस्थ प्रणाली द्वारा विदेशियों को हिंदी शिक्षण’ एवं डॉ. विनोद बाला अरुण ने ‘विदेशी छात्रों के लिए पाठ्यक्रम की एकरूपता’ विषय पर अपने विचार व्यक्त किए।
अनुशंसाएँ :
१. मानक भाषा/वर्तनी तय होनी चाहिए। ताकि विदेशी विद्यार्थियों को शब्द को पढऩे, लिखने एवं उच्चारण में किसी भी प्रकार की दुविधा न हो।
२. पाठ्यक्रम में यदि संबंधित देश की जानकारी भी जोड़ ली जाए तो अच्छा होगा।
३. भाषा के साथ-साथ पाठ्यक्रम में भारतीय संस्कृति, दर्शन, एवं अध्यात्म की जानकारी को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
४. भारत में विदेशी विद्यार्थियों को हिंदी का शिक्षण कराने वाले विभिन्न संस्थानों के मध्य सामंजस्य होना चाहिए।
देश और विदेश में प्रकाशन समस्याएँ एवं समाधान : अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री बल्देव भाई ने कहा कि भारत में पुस्तक प्रकाशन की परंपरा अत्यधिक प्राचीन है। पुस्तक जिस रूप में सामने आती है, उसके पीछे पूरी तकनीक है। भारत वैश्विक स्तर पर तीसरा बड़ा प्रकाशक देश है। भारत में प्रतिवर्ष १ लाख से अधिक नई पुस्तकें प्रकाशित होती हैं।
श्री राजनारायण गति ने कहा कि मॉरीशस मेें सालाना औसतन ५ पुस्तकें प्रकाशित होती है। वहाँ पुस्तक के संपादन, संशोधन, प्रूफशोधन में समस्याएँ आती हैं। इस संदर्भ में व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराया जाना चाहिए, जिससे हिंदी को विस्तार मिल सके। भारत में प्रकाशन खर्च कम है, लेकिन मॉरीशस में यही खर्च काफी बढ़ जाता है। साथ ही वहाँ पर पुस्तकों का बाजार उपलब्ध नहीं है। १२ लाख की आबादी के देश में एक भी हिंदी अखबार नहीं है क्योंकि पढऩेवाले काफी कम हैं। मॉरीशस तथा विदेशों के बच्चों के लिये हिंदी में पुस्तकें तैयार होनी चाहिए।
डॉ. ऋता शुक्ला ने कहा कि फादर कामिल बुल्के कहते थे कि ‘चार जने बैठो तब भी हिंदी के लिये कार्यशालाओं का आयोजन करो ताकि विश्व पटल पर हिंदी महारानी की तरह स्थापित हो जाए। हिंदी, संस्कृत की बिटिया है।’
अनुशंसाएँ:
१. विज्ञान, प्रबंधन, वित्त, अर्थशास्त्र, चिकित्सा, अभियांत्रिकी आदि ज्ञान-विज्ञान की मौलिक-प्रामाणिक हिंदी पुस्तकों के लेखन के लिये लेखकों को परियोजना देकर इनके प्रकाशन-वितरण की व्यवस्था भी करना चाहिए। हिंदी में प्रमाणिक शब्दकोशों और विश्वकोश का निर्माण होना चाहिए।
२. पुस्तक संस्कृति का विकास करने के लिये प्रभावी कदम उठाने चाहिए। पुस्तकें पढऩे के लिये प्रोत्साहन कार्ययोजना बनाकर पुस्तकालयों को सबल और सुदृढ़ करना चाहिए। ई-पुस्तकालयों को भी विकसित किया जाना चाहिए।
३. हिंदी पुस्तकें शुद्ध और निर्दोष प्रकाशित हों, इस हेतु संपादन-संशोधन-प्रूफशोधन के विधिवत् व्यावसायिक प्रशिक्षण की सुविधा उपलब्ध की जानी चाहिए।
४. अप्रवासी हिंदी लेखकों को प्रोत्साहित करने के लिये कार्यशालाएँ आयोजित की जाएँ। तदुपरांत विभिन्न लेखन प्रतियोगिताएँ करके उनमें से पुरस्कृत पांडुलिपियों का प्रकाशन किया जाए।
५. विभिन्न राज्य ग्रंथ अकादमियों और सरकारी प्रकाशनों की उपलब्धता सुलभ हों। उनमें पुस्तकें प्रकाशित करने की प्रक्रिया सरल की जाए।
६. विदेशों में पुस्तकें हवाई डाक से भेजना अत्यंत व्ययसाध्य है। अत: समुद्री डाक से पुस्तकें भेजने की जो सुविधा पहले उपलब्ध थी, उसे पुन: प्रारंभ किया जाये।
अंतिम दिन १२ सितंबर को विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन पर हिंदी के क्षेत्र में विशेष योगदान देनेवाले ३१ विद्वानों, जिनमें सर्वश्री अनूप भार्गव (अमेरिका), स्नेह ठाकुर (कनाडा), हैंस बर्गर वैसलर (जर्मनी), अकिरा ताकाशाही (जापान), उषा शुक्ला (दक्षिण अफ्रीका), कमला रामलखन (त्रिनिदाद व टोबैगो), नीलम कुमार (फिजी), देइमान्त्स वालास्यूनस (लिथुआनिया), सार्तजे वेरवेक (बेल्जियम), अजामिल माताबादल, गुलशन सुखलाल (मॉरीशस), कैलाश बुधवार, उषा राजे (यूके), इंदिरा गजिएवा (रूस), दशानायके मुडियान्सेलाग इंदिरा (श्रीलंका), सुरजन परोही (सूरीनाम), इस्माइल (सऊदी अरब), प्रभात कुमार भट्टाचार्य, एन. चंद्रशेखरन, हरिराम मीणा, माधुरी जगदीश, के.के. अग्रवाल, अन्नू कपूर, अहेम कामई, परमानंद पांचाल, आनंद मिश्रा, नागेश्वर सुंदरम, मधु धवन, अनंत राम त्रिपाठी, प्रभाकर श्रोत्रिय, व्यासमणि त्रिपाठी, आदित्य चौधरी, को ‘विश्व हिंदी सम्मान’ से अलंकृत किया गया।
. शिक्षा मातृभाषा में हो विश्व में भाषा सम्बन्धित अनेक अध्ययन सर्वेक्षण हुए हैं। सभी का निष्कर्ष एक ही है कि शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए। विश्व के सभी उन्नत राष्ट्रों में वहां की जनभाषा, शासन-प्रशासन एवं शिक्षा का माध्यम वहां-वहां की भाषा में ही है। इस हेतु शिक्षा का माध्यम सभी स्तर पर मातृभाषा में आवश्यक है। छात्रों के समझदार होने के बाद उनकी इच्छा और क्षमता के अनुसार भाषाओं का शिक्षण प्राप्त कर सके, उस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए। गाँधी जी अंग्रेजी भाषा को लादने को विद्यार्थी समाज के प्रति 'कपटपूर्ण कृत्य' समझते थे। उनका स्पष्ट मानना था कि विदेशी भाषा को माध्यम बनाना, बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि करता है। गाँधी जी कहते हैं कि "यदि मुझे कुछ समय के लिए निरंकुश बना दिया जाए तो मैं विदेशी भाषा में शिक्षा को तुरन्त बन्द कर दूंगा।"
भारतीय ज्ञान परम्परा का स्वाभिमान और चिंतन-
महापुरुषों का जीवन चरित्र पठन-
सेवा, सहिष्णुता, परोपकार, समर्पण और आत्मपरीक्षण का अभ्यास- शिक्षा व्यवसाय नहीं सेवा का माध्यम हो हमारे यहाँ शिक्षा :- को कभी व्यवसाय नहीं माना गया। ज्ञानदान को सबसे श्रेष्ठ दान माना गया है। शिक्षक का एक निश्चित वेतन, टी.ए., डी.ए., या छात्रों का निश्चित शुल्क यह व्यवस्था प्राचीन काल में नहीं थी। इसलिये अमीर के बालकों को अच्छे विद्यालय में और गरीब के बालकों को कम अच्छे विद्यालय में प्रवेश, ऐसा नहीं था। सबके लिये समान अवसर थे। लेकिन आज शिक्षा में व्यापारीकरण की समस्या ने एक भयानक रूप ले लिया है। छात्रों शिक्षकों का संबंध गुरु-शिष्य के बजाय ग्राहक एवं व्यवसायी जैसा हो गया है। शिक्षक और प्रबंधक का सम्बन्ध कर्मचारी एवं मालिक का हो गया है। पिछले कुछ दशकों से आचार्य या गुरु नौकर बन गये हैं। आज पैसे के आधार पर प्रवेश से हमारी प्रतिभाएँ कुंठित हो रही हैं। जिससे वर्ग भेद को बढ़ावा मिल रहा है। इसमें भी जबसे वैश्वीकरण की प्रक्रिया उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि चली, जिसके परिणाम स्वरूप निजीकरण बढ़ा। अधिकतर स्थानों पर निजीकरण यानी व्यापारीकरण का गणित सिद्ध होता दिखाई देता है। शिक्षा के दायित्व को सरकार एवं समाज दोनों स्वीकार करें, यह आवश्यक है। सरकार ही सारी शिक्षा चलाये यह भी संभव नहीं हैं, और सरकार शिक्षा से सम्पूर्ण हाथ खींच लें यह भी ठीक नहीं है। इस हेतु समाज की शिक्षा में सहभागिता बढ़ानी होगी और शिक्षा में सभी छात्रों को समान अवसर मिले ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना होगा। • स्वामी जी के उपनिषद् सम्बन्धी विचार उपनिषद् शक्ति की विशाल खान हैं। उनमें ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान हैं, कि वे समस्त संसार को तेजस्वी कर सकते हैं। उनके द्वारा समस्त संसार पुनर्जीवित एवं शक्ति सम्पन्न हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द भली भाँति समस्त जातियों को सभी मतों को, समस्त सम्प्रदाय के दुर्बल, दुःखी और पददलित लोगों को उच्च स्वर से पुकार कर स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने और मुक्त हो जाने के लिए कहते हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक - स्वाधीनता – यही उपनिषदों का मूल मंत्र है। महापुरुषों के शिक्षा सम्बन्धित उक्त विचारों को साकार स्वरूप में क्रियान्वित करने हेतु उपनिषद् में वर्णित पंचकोश को आधार बनाकर व्यक्तित्व के समग्र विकास की संकल्पना को पूरा किया जा सकता है।
• पर्यावरण- हमारे चारो ओर का परिवेश ही पर्यावरण है। भूमि, जल, वायु, आकाश, जन्तु एवं पादप सभी मिलकर इसका निर्माण करते हैं। परन्तु, दुर्भाग्य से आज यह दूषित हो चुका है। इसका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव न केवल मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहा है, बल्कि इससे समस्त जीवमात्र पर खतरा मंडराने लगा है। वैश्विक तापन और जलवायु परिवर्तन के कारण समस्त सृष्टि पर संकट छा गया है। इसलिए सृष्टि का सर्वाधिक विवेकशील प्राणी होने के कारण हम मनुष्यों के लिए पर्यावरण का संरक्षण प्राथमिक दायित्व का विषय है। ध्यातव्य है कि पर्यावरण के प्रदूषण का प्रत्यक्ष प्रभाव व्यक्ति के अन्नमय कोश एवं प्राणमय कोश दोनों पर पड़ता है।
उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि - उपयोग करो एवं फेंकों (यूज एन्ड थ्रो) प्लास्टिक मुक्त परिसर की योजना।
• वर्ष में कम से कम एक बार पौधारोपण का आयोजन करना एवंउनके संरक्षण संवर्धन की व्यवस्था करना। * सभी महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के भवनों, छात्रावासों सहित उच्च शिक्षा के सभी संस्थानों में जल संचयन (वाटर हार्वेस्टिंग) की व्यवस्था की जाए।
• छात्रावास के भोजनालय में बची हुई खाद्य सामग्री एवं वृक्षों के पत्तों आदि का जैविक खाद बनाने के प्रकल्प (प्रोजेक्ट) हेतु उपयोग किया जाए।* कार्यक्रमों में टेबल पर पानी की बोतल न रखते हुए गिलास में पानी ढक कर रख सकते हैं।अशुद्ध पानी के पुनः उपयोग की व्यवस्था करें। * भोजन समारोह या कार्यक्रमों में भोजन के बाद बचे पानी कोइकट्ठा करने की व्यवस्था रखें। * बिजली, पंखे की जितनी आवश्यकता हो उतना ही प्रयोग करें, जहाँ कोई नहीं है, वहां इसे तुरंत बंद करने हेतु छात्रों में जागरुकता लाई जाए।• वातानुकूलन यंत्र (एयरकंडीशन) का प्रयोग अतिआवश्यक होने पर ही करें।पेय जल हेतु प्लास्टिक की बोतल का प्रयोग न करें।प्लास्टिक या थर्मोकोल के कप या प्लेट का उपयोग स्वयं तथा विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में तथा अपने पारिवारिक या सामाजिक कार्यक्रमों में न करें।दाने की व्यवस्था करें। • फास्टफूड एवं शीतल पेय का प्रयोग न करें एवं महाविद्यालयों/विश्वविद्यालयों के कैन्टीन में भी न रखें। कार्यक्रमों में स्वागत हेतु पुष्पगुच्छ या पुष्प माला के स्थान पर अच्छी पुस्तकें या अन्य उपयोगी वस्तुएं देने की पद्धति विकसित करें।
स्था में पर्यावरण परिषद् (क्लब) का गठन करें। स्वच्छता-स्वयं के शरीर एवं मन की स्वच्छता से लेकर हम जहाँ रहते हैं. कार्य करते हैं, जिस स्थान का प्रयोग करते हैं वहाँ की स्वच्छता एक प्रकार से स्वच्छता का स्वभाव बने इस हेतु सामूहिक रूप से नियमित स्वच्छता अभियान चलाने की योजना बने।विकास बनाम पर्यावरण सुरक्षा । समर्थ समृद्ध भारत ।हमारा संस्थान, आदर्श संस्थान।
दैनन्दिन व्यवहार में देशभक्ति ।दैनन्दिन व्यवहार में आध्यात्मिकता । छात्रों हेतु परिसंवादों, कार्यशालाओं एवं संगोष्ठियों का आयोजन; जिससे छात्रों को आलेख, शोध-पत्र आदि तैयार करने का शिक्षण मिले। नियमित रूप से वार्षिक पत्रिका निकालने की योजना । छात्रों के विषयों एवं संकायों के अनुसार अध्ययन प्रवास (स्टडी टूर) का आयोजन। विभिन्न कार्यक्रमों तथा प्रतियोगिताओं का आयोजन।शिक्षा | भारतीय दृष्टि 1. खेल प्रतियोगिताएँ 2. सांस्कृतिक कार्यक्रम 3. प्रश्नमंच (क्विज). वक्तृत्व कला एवं निबंध जैसी विभिन्न कलाओं के प्रतियोगिताओं का आयोजन। • छात्रों को नागरिक कर्तव्य (सिविक सेन्स) के बारे में शिक्षण दिया जाए। वर्ष के प्रारम्भ में विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय स्तर से कक्षाओं के स्तर तक आदर्श महाविद्यालय/विश्वविद्यालय बनाने हेतु गोष्ठियों का आयोजन और आये हुए सुझावों को प्राथमिकता के आधार पर क्रियान्वित करना।विभिन्न स्थानों एवं दीवारों पर विवेकानन्द एवं अन्य महापुरुषों के विचारों को लिखा जाए।हर कक्षा में नोटिस बोर्ड हो। जिसमें छात्रों की मौलिक कृतियों को स्थान मिले। • आनंदमय कोश (आध्यात्मिक विकास) हेतु गतिविधियाँ :आस-पड़ोस की झुग्गी में छात्रों के माध्यम से बाल संस्कार केन्द्र शुरू करना । प्रत्येक महाविद्यालय एक गांव एवं विश्वविद्यालय दस गांवों को गोद ले। समाज के वास्तविक दर्शन हेतु विभिन्न प्रकार के शिविरों का आयोजन। उदाहरण के लिए श्रमानुभव शिविर, ग्राम्य-जीवन-दर्शन शिविर, चल शिविर आदि की योजना ।प्रत्येक छात्र, शिक्षक, कर्मचारी के जन्मदिवस पर ब्लैक बोर्ड पर बधाई संदेश लिखना । एक दान पेटी रखना, स्वेच्छा से अपने जन्मदिन पर दान की परम्परा बने। इस पैसे का प्रयोग सामाजिक कार्य हेतु हो।विश्वविद्यालय परिवार में किसी के मृत्यु पर प्रार्थना सभा में अथवा अन्य प्रकार से श्रद्धांजलि देने की परम्परा स्थापित करना । गरीब छात्रों हेतु विवेकानन्द कोश की स्थापना - इस हेतु छात्रों एवं उच्च शिक्षा : भारतीय दृष्टि शिक्षकों के परिवार में अच्छे-बुरे प्रसंगों के निमित्त दान करने की परम्परा बनाना।छात्रों के द्वारा भोजनालय एवं महाविद्यालय की केन्टीन कासंचालन। • सत्यनिष्ठा की दूकान का प्रयोग।विश्वविद्यालय केन्द्र तथा प्रत्येक महाविद्यालयों के द्वार पर या अन्य योग्य स्थान पर सरस्वती माता एवं विवेकानन्द की प्रतिमा स्थापित की जाए।• भवनों, कक्षाओं के नाम विभिन्न महापुरुषों के नाम से हो। * बगीचे (गार्डन) के रास्तों के नाम वैज्ञानिकों के नाम दे सकते हैं। उपरोक्त विषयों एवं कार्यों हेतु समितियों के गठन करने के बाद कार्यशालाओं के आयोजन द्वारा व्यवहारिक रूप में क्रियान्वित किया जाये।इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालयां के पाठ्यक्रमों में सुधार तथा आधारभूत विषयों के अल्पकालीन पाठ्यक्रमों का प्रारंभ करके छात्रों के चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास के द्वारा समग्रता दी जा सकती है। ० आधारभूत विषयों पर अल्पकालीन पाठ्यक्रम
मूल्य शिक्षा योग- पर्यावरण जैविक खेती • स्वरक्षण आदि के प्रमाण-पत्र एवं डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू हों।• वैदिक गणित • विवेकानन्द, श्रीनिवास रामानुजन, महात्मा गाँधी, दीनदयाल उपाध्याय जैसे महापुरुषों के नाम पर 'अध्ययन पीठों' को स्थापित करना चाहिए।• विश्वविद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रम में सुधार एवं नयापन लाने हेतु प्रयास* हर विषय के आरम्भ में प्रथम पाठ उस विषय के भारतीय इतिहास का हो ।• पाठ्यक्रम में स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरुषों के चिन्तन- विचारों को जोड़ने की योजना बने। उप शिक्षा भारतीय उदाहरण विवेकानन्द का शैक्षिक चिंतन, शिक्षक-शिक्षण (बी.एड.) में जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार प्रत्येक विषय के अंतर्गत नैतिक मूल्य, आध्यात्मिकता आदि बातें जोड़ने की योजना बने।* पढ़ाने की पद्धति में व्यावहारिकता लाने, विभिन्न प्रकार के प्रयोगों को बढ़ावा देने, नैतिक मूल्यों के समावेश करने एवं आधुनिक तकनीकी के प्रयोग आदि प्रयासों हेतु योजना बने।* देश एवं समाज की आवश्यकता के अनुसार अनुसंधान कार्य हो। साथ ही स्वामी विवेकानन्द का शैक्षिक चिन्तन तथा अनेक महापुरुषों के चिन्तन पर भी शोधकार्य के लिए छात्रों को प्रेरित किया जाए।* पुस्तकालय में विवेकानन्द एवं अन्य महापुरुषों के साहित्य रखने की तथा छात्रों में उन्हें पढ़ने की आदत बढ़े इस हेतु योजना बने।1. कोशों की उपरोक्त संकल्पना को आधार बनाकर विभिन्न गतिविधियों द्वारा छात्रों के विकास की योजना : किशोर एवं युवा अवस्था में छात्रों में अतिऊर्जा (सुपर एनर्जी) होती है, उसको सकारात्मक दिशा देने (चेनेलाइज) एवं उनके व्यक्तित्व के विकास तथा चरित्र निर्माण एवं नैतिक मूल्यों के स्थापन हेतु सह शैक्षिक गतिविधियाँ आदर्श रूप होती हैं।महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के अंतर्गत शिक्षा में उपरोक्त प्रयोगों एवं पाठ्यक्रमों में सुधार के द्वारा छात्रों की आत्मा पर से अज्ञानता का आवरण हटाने का ही प्रयास है।इन प्रयासों के द्वारा छात्रों के व्यक्तित्व के समग्र विकास एवं चरित्र निर्माण के द्वारा वह देश और समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति एवं राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए सक्षम होगा। यही स्वामी विवेकानन्द एवं भारत के अन्य महापुरुषों के शैक्षिक चिंतन से संबंधित विचारों का सार है।
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