प्राक्वथन
हम कृतज्ञ हैं निदेशक
साहित्य अकादमी के जिन्होंने महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों के विद्यर्थियों के
लिए व्यक्तित्व विकास और चरित्र निर्माण ” पुस्तक लिखने का मुझे अवसर दिया । अंग्रेजी
सत्ता से प्रारंभ हुई भारतीय शिक्षा के मूल्यों के सारे प्रयत्न स्वतन्त्रता के
बाद भी यथागति से चलते रहे। किन्तु संतोष का विषय यह है की राष्ट्रीय शिक्षा नीति
-2020 लागू होने के बाद मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग ने पाठ्यक्रम में
भारतीय ज्ञान परम्परा के माध्यम से विद्यार्थियों / भावी देश के नागरिकों को जीवन
मूल्य आधारित शिक्षा प्रणाली विकसित करने का प्रयत्न किया जिसमें नवीन कथ्य को
लेकर पुस्तकें सामने आ रही हैं । पुस्तक
पढ़ने के बाद सुधी पाठकों से भी हमारा विनम्र आग्रह है कि वे अपने बहुमूल्य सुझाव
देकर हमें आगे पुस्तक को परिवर्धित करने में सहयोगी हों ।
व्यक्तित्व
विकास एवं चरित्र निर्माण
इकाई एक
व्यक्तित्व विकास-
(शारीरिक,
मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास) अर्थ,
अवधारणा, व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व।
चरित्र निर्माण
(व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चरित्र) अर्थ, अवधारणा,चरित्र के कारक तत्व तथा चरित्र निर्माण के साधन।
पंचकोष- अन्नमय कोष, प्राणमय
कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष एवं
आनन्दमय कोष सामान्य परिचय अर्थ उद्देश्य
एवं महत्व।
पंचकोष विकास के लाभ तथा पंचकोष विकसित करने के साधन
ईकाई दो
शारीरिक एवं मानसिक
विकास के अर्थ,
संकल्पना-
आदर्श दिनचर्या, संतुलित
आहार, ऋतुचर्या, सूक्ष्म व्यायाम।
अष्टांग योग - यम, नियम, ईश्वर
प्राणिधान, स्वाध्याय, संतोष, धैर्य, सदाचार, अनुशासन का
अभ्यास।
अतीत का गौरव, सामाजिक
एवं नागरिकता बोध, सर्वपंथ सम्मान एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण।
राष्ट्र, राष्ट्रीयता, लोकतंत्र, स्वाधीनता, सुराज, वसुधैव कुटुम्बकम्, सह अस्तित्व।
ईकाई तीन
नैतिक और आध्यात्मिक
विकास-
अष्टांग योग -
प्राणायाम,
प्रत्याहार, धारणा, ध्यान,
समाधि।
कर्मयोग, भक्तियोग,
ज्ञानयोग का स्वेच्छानुसार जीवन में निरंतरता।
भारतीय काल गणना, वैदिक
मंत्रों का अभ्यास ।
मातृभाषा और भारतीय ज्ञान
परम्परा का स्वाभिमान और चिंतन।
महापुरुषों का जीवन चरित्र पठन।
सेवा, सहिष्णुता,
स्वावलंबन, परोपकार, समर्पण और आत्म परीक्षण
का अभ्यास।
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इकाई -एक
व्यक्तित्व विकास- (शारीरिक, मानसिक,
बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास) अर्थ , अवधारणा ,
व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व।
चरित्र निर्माण (व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय
चरित्र) अर्थ,
अवधारणा ,चरित्र के कारक तत्व तथा चरित्र
निर्माण के साधन।
पंचकोष- अन्नमय कोष , प्राणमय
कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष एवं
आनन्दमय कोष सामान्य परिचय अर्थ उद्देश्य
एवं महत्व।
पंचकोष विकास के लाभ तथा पंचकोष विकसित करने
के साधन ।
अब ब्रह्मानंद वल्ली के शान्ति पाठ में आते हैं -
ॐ सह नाववतु । सह नौ
भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वी नावधित्मस्तु । माँ विद्वीषावहै ।
ॐ शांति: शांति: शांति:
“सत्यम
ज्ञानमनन्तम ब्रहम ।” सत्य शब्द यहाँ नित्य सत्ता का बोध है । अर्थात् वे परब्रह्म
नित्य सत हैं । किसी भी काल में उनका अभाव
नहीं होता तथा वे ज्ञान स्वरुप हैं, उनमें अज्ञान का लेश भी नहीं है ।
ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र में यही बात कही गई है की यह जगत जो जड़ और चेतन
है, वह ईश्वर से परिपूर्ण हैं । उपनिषद कहता है कि सबसे पहले आकाश तत्व उत्पन्न
हुआ । आकाश से वायु तत्व, वायु से अग्नि
तत्व, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई
। पृथ्वी से नाना प्रकार की औषधियां - अनाज और मनुष्य के आहार पैदा
हुए । उसी अन्न से मनुष्य का स्थूल शरीर
पुरुष उत्पन्न हुआ । अन्न से बना
हुआ यह जो मानुष शरीरधारी पुरुष है इसकी पक्षी के रूप में कल्पना की गयी है ।
“अन्नाद्वै प्रजा: प्रजायन्ते” सब प्राणी इसकों खाते हैं तथा यह भी सब प्राणियों
को खा जता - अपने में विलीन कर लेता है,
इसलिये ‘अद्यते ,अत्ति च इति अन्नं” इस
व्युत्पत्ति के अनुसार इसका नाम अन्न है ।
यही आनमय कोष की अवधारणा है ।
दूसरे अनुवाक में प्राणमय
शरीर का वर्णन किया गया है । भाव यह है कि
पूर्वोक्त अन्न के रस से बने हुए स्थूल शरीर से भिन्न उस स्थूल शरीर के भीतर
रहनेवाला एक और शरीर है, उसका नाम ‘प्राणमय’ है । उस ‘प्राणमय’ से यह ‘अन्नमय’
शरीर पूर्ण है । अन्नमय स्थूल शरीर की अपेक्षा इसके सूक्ष्म होने के कारण प्राणमय
शरीर अन्नमय कोष के अंग- प्रत्यंग में व्याप्त है । इन प्राणों में प्राण श्रेष्ठ
है और वह मुख्य है । व्यान दाहिना पंखा
है और अपाण बाया पंख है । आकाश अर्थात् आकाश के सामान सर्वशरीर
व्यापी ‘सामान’ वायु आत्मा है क्योंकि यह
सम्पूर्ण शरीर में रस पहुंचाकर प्राणमय
शरीर को पुष्ट करता है । इसका स्थान शरीर
का मध्यभाग है तथा इसी का बाह्य आकाश से सम्बन्ध है, यह बात प्रश्नोपनिषद के
पांचवें और आठवें मन्त्रों में कही गई है । ‘अपान’ वायु को पृथ्वी अर्थात् आधिदैविक
शक्ति को रोकने वाली यह प्राणमय को पुरुष का आधार है । इसका वर्णन प्रश्नोपनिषद के तीसरे और आठवें
मन्त्र में कही गई है । “प्राणं देवा अनुप्राणान्ति” भाव यह की जितने भी देवताम
मानुष, पशु आदि शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब प्राण के सहारे ही जी रहे हैं । इसलिए यह प्राण ‘सार्वायुष’ कहलाता है । यह
प्राणियों की आयु है, इसलिए यह सबका आनी -जीवन कहलाता है यों समझकर इस प्राण की
ब्रह्मरूप से उपासना करते हैं, वे पूर्ण आयु को प्राप्त कर लेते हैं । जो सर्वात्मा परमेश्वर अन्न के रस से बने
हुए शूल शरीरधारी पुरुष का अंतरात्मा है, वही उस प्राणमय पुरुष का भी शरीर के अंतर
रहने वाला आत्मा है ।
‘तस्माद्वाएतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर
आत्मा मनोमयः ।’ प्राणमय कोष से भी सूक्ष्म और उसके भीतर रहने वाला पुरुष मनोमय
कोष है । उस मनोमय कोष से यह प्राणमय कोष सर्वत्र व्याप्त हो रहा है । एक बात और
यहाँ ध्यान रखने की है कि जिनके अक्षरों की कोई नियत नियम न हो, ऐसे मन्त्रों को ‘यजु:’ छंद के अंतर्गत समझा जता है इस
नियम के अनुसार जिस किसी वैदिक वाक्य या मन्त्र के अंत में ‘स्वाहा’ पद जोड़कर
अग्नि में आहुति दी जाती है, वह वाक्य या
मन्त्र ‘यजु:’ ही कहलाता है । इस प्रकार यजु: मन्त्र के द्वारा ही अग्नि को हविष्य
अर्पित किया जाता है, इसलिए वहां ‘यजु:’
प्रधान है । वेद मन्त्रों के वर्ण, पर और वाक्य आदि के उच्चारण के लिए पहले मन में
ही संकल्प उठाता है ; अत: संकल्पात्मक वृत्ति के द्वार मनोमय आत्मा के साथ वेद मन्त्रों का घनिष्ठ
सम्बन्ध है । इसलिए इन्हें मनोमय पुरुष के ही अंगों में स्थान दिया गया है । शरीर
में जो स्थान दोनों भुजाओं का हा, वही स्थान मनोमय पुरुष के अंगों में ऋग्वेद और
सामवेद का है । संकल्पात्मक वृति के द्वारा मनोमय पुरुष का इन सब के साथ नित्य
संम्बन्ध है ।
“ यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह । आनन्दमब्राहमणों विद्वान् ।”
इस मन्त्र में ब्रहम के आनंद को जानने वाले विद्वान् की महिमा के साथ अर्थान्तर से
उसके मनोमय शरीर की महिमा प्रकट की गयी है ।
भाव यह की परब्रहम परमात्मा का जो
स्वरुप भूत परम आनाद्द है, वहाँ तक मन, वाणी आदि समस्त इन्द्रियों के समुदाय रूप
मनोमय शरीर की भी पहंच नहीं है : परतु ब्रह्म को पाने के लिए साधन करनेवाले मानुष
को यह ब्रह्म के पास पहुंचाने में विशेष सहायक है । ये मन-वाणी आदि साधन परायण पुरुष को उन परब्रम्ह के द्वार तक
पहुंचाकर, उसे वहीं छोड़ कर स्वयं लौट आते हैं और
वह साधक उनको प्राप्त हो जाता है । ब्रह्म के आनंदमय स्वरुप को जान
लेनेवाला विद्वान् कभी भयभीत नहीं होता । मनोमय शरीर के भी अन्तर्यामी आत्मा वे ही
परमात्मा हैं जो अन्नमय कोष और प्राणमय कोष के हैं ।
चतुर्थ
अनुवाक के इस दूसरे अंश में विज्ञानमय कोष का अर्थात् विज्ञानमय शरीर का वर्णन है ।
मनोमय कोष से भी सूक्ष्म जो आत्मा है उसे विज्ञान मय कोष या शरीर कहते हैं ।
सदाचरण, सत्य भाषण, ध्यान के साथ मह: नाम से प्रसिद्ध परमात्मा पुच्छ अर्थात् आधार
है । शिक्षावल्ली पंचम अनुवाक में भू:,
भुव:,स्व: और मह: इन चार व्याह्रितियों में
मह: को ब्रह्म का स्वरुप बताया गया
है ; अत: ‘मह:’ व्याहृति ब्रह्म का नाम हा और ब्रह्म को आत्मा की प्रतिष्ठा
बर्लाना सर्वथा युक्तिसंगत है । विज्ञान
अर्थात बूढी के साथ तद्रूप हुआ जीवात्मा ही यज्ञों का अर्थात् बुद्धि से ही सम्पूर्ण कर्मों को प्रेरणा मिलती है ।
अन्नमय , प्राणमय, मनोमय की भाँती विज्ञानमय कोष में भी वही परमात्मा का निवास है ।
पांचवे अनुवाक के दूसरे
अंश में आनंदमय परम पुरुष का वर्णन मिलता है । इसके अन्दर विज्ञानमय पुरुष व्याप्त
है । प्रियता, मोड़, प्रमोद और आनंद ही परमात्मा का रूप है । इसे प्रश्न और
अनुप्रश्न से ही गुरु शिष्य समझते हैं । अनुप्रश्न उन प्रश्नों को कहते हैं जो
आचार्य के उपदेश के अनंतर किसी शिष्य के मन में उठते हैं या जिन्हें वह उपस्थित
करता है । वे तीन हैं- क्या वास्तव में ब्रह्म है कि नहीं ? जब ब्रह्म आकाश की
भाँति सर्वगत तथा पक्षपात रहित है- सम है, तब क्या वे अविद्वान को भी प्राप्त होते
है या नही ? यदि अविज्ञानी को प्राप्त नहीं होते तो सम कैसे हुए । “अथातोऽनुप्रश्ना:
। और आगे आता है- “सोऽकामयत ।”, “बहु स्याम प्रजायेयेति।” की बात आती है । “असद्वा
इदमग्र आसीत्।” ततो वै सदजायत ।”
आनंद का
विचार आरंभ करने की सूचना देकर सर्वोत्तम मनुष्य लोक से भोगों से मिल सकने वाले बड़े
से बड़े आनंद की कल्पना की गई है । भाव यह की एक मनुष्य युवा हो; वह भी
ऐसा वैसा घूमने वाला युवक नहीं -सदाचारी, अच्छे स्वभाववाला, अच्छे कुल में उत्पन्न
श्रेष्ठ पुरुषों हो , उसे संपूर्ण वेदों की
शिक्षा मिली हो, तथा शासन में ब्रह्मचारियों को सदाचार की शिक्षा देने में अत्यंत कुशल
हो, उसके संपूर्ण अंग और इंद्रियां रोग रहित समर्थ और सुदृढ़ हों, और वह सब प्रकार के
बल से संपन्न हो । फिर धन संपत्ति से भरा यह संपूर्ण पृथ्वी उसके अधिकार में आ जाए
तो यह मनुष्य का एक बड़े से बड़ा सुख है । वह मानव लोक का एक सबसे महान आनंद है ।
जो मनुष्य
योनि में उत्तम कर्म करके गंधर्व भाव को प्राप्त हुए हैं उनको ‘मनुष्य गंधर्व’ कहते
हैं । यहां इनके आनंद को उपर्युक्त मनुष्य के आनंद से सौ गुना बताया गया है। ‘मनुष्य
गंधर्व’ की अपेक्षा देव गन्धर्वों के आनंद
को 100 गुना बताया गया है।
देव गन्धर्वों के आनंद की अपेक्षा चिर स्थाई
पितृलोक को प्राप्त दिव्य विचारों के आनंद को 100 गुना बताया
गया है। इस वर्णन में चिरस्थाई लोगों में रहने वाले दिव्य पितरों के आनंद की अपेक्षा
'आजानज' नामक देवों के आनंद को 100 गुना बताया गया है । देवलोक
की एक विशेष स्थान का नाम ‘आजान’ है; जो लोग स्मृतियों में प्रतिपादित किन्हीं
पुण्य कर्मों के कारण वहां उत्पन्न हुए हैं, वे ‘आजानज’ कहलाते हैं।
स्वभाव सिद्ध
देवों के आनंद की अपेक्षा इंद्र के आनंद को सौ गुना बताया गया है। और इंद्र के आनंद
की अपेक्षा बृहस्पत के आनंद को 100 गुना बताया है। इसी तरह वृहस्पति के आनंद
की अपेक्षा प्रजापति के आनंद को 100 गुना बताया गया है। प्रजापति
के आनंद से भी हिरण्यगर्भ ब्रह्मा के आनंद को 100 गुना बताया
गया है। इस प्रकार यहां एक से दूसरे आनंद की अधिकता का वर्णन करते करते सबसे बढ़कर
हिरण्यगर्भ के आनंद को बताकर यह भाव दिखाया गया है कि इस जगत में जितने प्रकार के जो-जो
आनंद देखने सुनने तथा समझने में आ सकते हैं, वह चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो उस पूर्ण
आनंद स्वरूप परमात्मा के आनंद की तुलना में बहुत ही तुक्ष्य हैं।
तात्पर्य
की आनंद के एकमात्र केंद्र परम आनंद स्वरूप परब्रह्म परमात्मा ही सबके अंतर्यामी हैं,
इस प्रकार जो जान लेता है वह मरने पर इस मनुष्य शरीर को छोड़कर पहले बताए हुए अन्नमय, प्राणमय,मनोमय,
विज्ञानमय और आनंदमय आत्मा को प्राप्त होता है। यह अमृत्व के प्राप्त का साधन है । तप के द्वारा
जिसने चित्त को जीत लिया है, उसे शब्द रहित एकांत स्थान में स्थित
होकर संग शून्य तत्व के लिए योग का ज्ञाता बनना और धीरे-धीरे
अपेक्षा रहित बनना चाहिए। जैसे बंधन
को काटकर हंस आकाश में निशंक उड़ जाता है, वैसे ही जिसके बंधन कट गए हैं, वह जीव संसार से सदा के लिए तर जाता है,
जैसे दीपक बुझने के समय सारे तेल को जलाकर बुझ जाता है, वैसे ही योगी समस्त कर्मों को जलाकर ब्रह्म में लीन हो जाता है । साधक जब समस्त
कामनाओं से छूट जाता है और सारी एषणाओं से रहित हो जाता है, तब
वह अमरत्व को प्राप्त होता है । जो संसार बंधन को काट डालने के बाद वह बांधता नहीं
है
व्यक्तित्व विकास- (शारीरिक, मानसिक,
बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास) अर्थ , अवधारणा ,
व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व।
व्यक्तित्व विकास का अर्थ- व्यक्तित्व विकास अर्थात्
व्यक्ति का शारीरिक,
मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास । दूसरे
शब्दों में कहें तो व्यक्तित्व का समग्र विकास, सर्वांगीण विकास । व्यक्तित्व
विकास या व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शिक्षा जगत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020
के बाद विशेष रूप से उभर कर सामने आया है। वैसे तो शिक्षा का प्राथमिक उद्धेश्य ही
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का है किन्तु जब व्यक्तित्व के विकास की बात आती है तो
यह जानाना आवश्यक हो जाता है की विकास क्या है, व्यक्तित्व क्या है । इसका विकास
किस तरह से होता है ? आज इस चिंतन के क्षेत्र में बहुत विभ्रम की स्थिति फैली हुई है। शिक्षा के क्षेत्र में काम करने
वाले लोगों को इन बातों को अधिक विस्तार से, अधिक स्पष्टता
से जानने की आवश्यकता है।
शास्त्र कहते हैं अव्यक्त
ब्रह्म ने एक कामना की ‘सोऽकामयत एकोऽहं बहुस्याम प्रजायेय।’ परिणाम स्वरूप सृष्टि
का निर्माण हुआ। इस सृष्टि में ब्रह्म स्वयं अनुस्यूत होकर व्यक्त हुआ और व्यक्ति
बना। अर्थात् ब्रहम तत्व ने अपने में से ही समग्र सृष्टि का सृजन किया । वही
सृष्टि बन गयी । व्यक्तित्व इसी सृष्टि तत्व का विस्तार है । व्यक्ति के
व्यक्तित्व के अन्दर शरीर, प्राण, मन,
बुद्धि, चित्त का स्वरुप पाता गया । इसके साथ ही व्यक्तित्व के समग्र विकास में
समष्टिगत विकास का पहलू भी सामने आया । जिसमें विकास के सात पायदान आये- व्यक्ति
से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र, राष्ट्र से विश्व, विश्व से सम्पूर्ण
चराचर श्रृष्टि, चराचर श्रृष्टि से परमेष्टि की एकात्मता । यह भारतीय दृष्टि,
सनातन और वैदिक है । उसी में से चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार, ज्ञानेन्द्रियाँ,
कर्मेन्द्रिया, पंच तन्मात्रा, पंचमहाभूत आदि की उत्पत्ति हुई। उसी में से सूर्य, वायु,
पृथ्वी, जल आदि बने। उसी में से वृक्ष,
वनस्पति, पर्वत, अरण्य,
मनुष्य बने। इन सबमें वह आत्मतत्त्व स्वयं अनुस्यूत ही है। स्वयं के
इन विभिन्न स्वरूपों का सृजक भी वह स्वयं ही है। इसीलिये यह सम्पूर्ण सृष्टि मूल
रूप में एक है और आत्मतत्त्व का ही विस्तार है। इसी लिए व्यक्ति के अंदर जो भी है
वही सब कुछ समष्टि में है । ‘यत पिंडे तत ब्रहामंडे’।
व्यक्तित्व विकास की अवधारणा- 'व्यक्तित्त्व'
के मूल में 'व्यक्ति' शब्द
है 'व्यक्ति' के मूल में 'व्यक्त' शब्द है। 'व्यक्त'
का अर्थ है किसी अदृष्ट (न देखने योग्य), अनाकलनीय
(आकलन न करने योग्य), अचिन्त्य ( चिंतन न करने योग्य) तत्त्व
का दृष्ट, चिन्तनीय आकलनीय प्रकट स्वरूप। ब्रह्मा या
आत्मतत्त्व अदृष्ट, अस्पर्श्य, अश्रव्य,
अविचार्य, अनाकलनीय तत्त्व है। अर्थात् उसे हम
देख नहीं सकते, सुन नहीं सकते, छू नहीं
सकते, चख नहीं सकते, सूंघ नहीं सकते, उसके
स्वरूप को मन से या बुद्धि से जान नहीं सकते, फिर भी वह है।
अपने दायरे में नहीं है तो भी वह है। उस आत्मतत्त्व ने अपने आपको इस सृष्टि के रूप
में प्रकट किया। उसी रूप में वह हमारे लिये आकलनीय बना। इसलिए यह सम्पूर्ण सृष्टि
उस आत्मतत्त्व का प्रकट अर्थात् व्यक्त रूप है। यह व्यक्त रूप आत्मतत्त्व ने
प्रकृति के साथ मिलकर निर्मित किया । इसलिए यह व्यक्ति है। 'व्यक्ति'
की भाववाचक संज्ञा 'व्यक्तित्त्व' है। इस अर्थ में व्यक्तित्त्व जड़-चेतन सभी का होता है। हमारे शास्त्रों
ने, परम्परा ने इसीलिये जड़-चेतन सभी के व्यक्तित्व का आदर करना एवं स्वतंत्र
अस्तित्व को स्वीकार करना सिखाया है । परन्तु पिछले कुछ दशकों से पश्चिम के जीवन
दर्शन के प्रभाव से हम जड़-चेतन सभी को मनुष्य से कनिष्ठ मानकर उनका उपभोग करना
सिखाते हैं। इतना ही नहीं एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का भी उपयोग करना चाहता है।
इस हेतु भारतीय चिन्तन को समझना
आवश्यक है और भारतीय चिन्तन को समझना है तो भारतीय ग्रंथों, मनीषियों
एवं महापुरुषों के चिन्तन को समझना होगा । मनुष्य परमतत्त्व का सबसे श्रेष्ठ रूप है
और यही मनुष्य सभी प्रकार के व्यक्त रूपों में सर्वश्रेष्ठ भी है। सबसे अधिक
मात्रा में व्यक्त है। शिक्षा का उद्देश्य यदि व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास है
तो सर्वप्रथम इस व्यक्तित्व को जानना, समझना अर्थात् पंचकोश
को जानना समझना आवश्यक है।
अंग्रेजों की अवधारणा को लेकर चली
शिक्षा ने पहला यह कार्य किया की उसने भारतीय शिक्षा को हमारे पाठ्यक्रमों से धीरे
-धीरे दूर कर दिया। शिक्षा के पाठ्यक्रमों का सम्बन्ध परीक्षा, मूल्यांकन एवं
डिग्रियों तक सीमित हो गया जो बाह्य प्रमाण है। जबकि विद्यार्थी का जीवन सर्वांगीण बने, यह उसका
समग्र मूल्यांकन हो, उसके जीवन में जीवन बोध हो यह भारतीय शिक्षा की दृष्टि है ।
‘व्यक्तित्व विकास’ या ‘सर्वांगीण विकास’ का अर्थ है देश, समाज के प्रति
भक्ति, अपनत्व बोध । सिद्धांतों की स्पष्टता । विचारों का ज्ञान, अभिव्यक्ति शक्ति
का विकास । भ्रमों के निवारण की समुचित क्षमता । दायित्व बोध और परिणाम मूलक कार्य
करने का स्वभाव । यह सब किसके लिए तो स्पष्ट है राष्ट्र के लिए और राष्ट्र के
माध्यम से विश्व के लिए । तात्पर्य यह की हमारा विकास का चिंतन समग्रता का (integrated)
है, जब की पश्चिमी चिंतन (compartmental) हैं । शरीर-मन -बुद्धि-आत्मा चारों का
संतुलित विकास, इसी से सुख का निर्माण । इसके लिए विकास को चरण बध्द समझना होगा -
विद्यार्थी के दृष्टिकोण का विकास - विद्यार्थी की धारणा को स्पष्ट करना होगा ही वह
शिक्षण संस्थानों में मनोरंजन या मात्र सूचानाओं को प्राप्त करने नहीं आया है,
अपितु गंभीर सिध्दांत और सिद्धता के लिए आया है । इसलिए अपने जीवन के एक-एक दिन का
सदुपयोग कैसे करूं यह दृष्टि निर्मित हो। इसके लिए उसे यह भी समझना होगा कि विकास का
पश्चिमी माडल ‘पर्सनेलिटी डेवलपमेंट’ व्यक्तित्व विकास से सर्वथा भिन्न और बाह्य
विकास तक सीमित है । इस डेवलपमेंट में अच्छा कैसे बोलना, अच्छे
कपड़े कैसे पहनना अच्छा कैसे दिखना ? इसके साथ-साथ उसकी चाल-
दाल, हाव-भाव प्रभावी कैसे बनाना ? जैसे
बिन्दुओं को बताया सिखाया जाता है। स्वाभाविक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या यही
व्यक्तित्व विकास है ? क्या व्यक्तित्व व पर्सनेलिटी
समानार्थी शब्द है? अथवा इनमें मूलभूत अन्तर है। जब तक हम इन
प्रश्नों के उत्तर नहीं जानेंगे, तब तक छात्र का विकास कैसे
कर पायेंगे?
शारीरिक विकास - जीवन के श्रेष्ठ
उद्देश्य, स्वस्थ मन, बुद्धि, योजना और कौशल आदि सभी गुणों का आधार स्वास्थ्य
तथा शारीरिक सुदृढ़ता है । व्यक्ति की अपनी चुस्ती,फुर्ती,
स्थैर्य, क्षमता, सामूहिक नेतृत्व, सामूहिक सहयोग,अनुशासन, अत्मानुशासन अदि सभी के
विकास के लिए शरीर स्वस्थ्व होना आवश्यक है
। यही शारीरिक विकास है ।
मानसिक
एवं बौद्धिक विकास-बौद्धिक विकास हेतु संभाषण, सामूहिक चर्चा, विमर्श, वाद-प्रतिवाद
आदि के माध्यमों का उपयोग करते हुए वैदिक
परम्परा, भारतीय ज्ञान संपदा , तकनीक, उत्तरदायित्वों को समझाना होता है ।
भावनात्मक विकास से अध्यात्मिक विकास
(समष्टिगत विकास) - समाज, राष्ट्र संस्कृति, इतिहास, महापुरुषों,
मानविन्दुओं, जीवन मूल्यों के प्रति आस्था और विश्वास । भारतीय ज्ञान परम्परा,
दर्शन, उपनिषदों का अध्ययन, काल की संकल्पना को समझना, व्यक्ति, समष्टि तथा
परमेष्ठी की अवधारणा के आधार पर चारो पुरुषार्थों की यात्रा करते हुए मोक्ष
मार्गी बनाना ।
इस तरह के व्यक्ति का व्यक्तित्व के विकास के लिए भारतीय
ज्ञान परंपरा में पंचकोषीय अवधारणा का विकास किया गया है । इस पंचकोष की यात्रा
अन्नमय कोष से लेकर आनन्दमय तक क्रमशः
शरीर, प्राण, मन, बुद्धि व चित्त से
चिति तक के स्वरूप को बतलाते हैं। इनका
विकास करना ही सही अर्थों में व्यक्तित्व का विकास है। व्यक्तित्व के समग्र विकास में
व्यक्ति से लेकर समष्टिगत विकास को कहीं षडपदी कहा है तो कहीं सप्तपदी। इसे इस प्रकार
भी समझ सकते हैं- व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज,
समाज से राष्ट्र, राष्ट्र से विश्व तथा विश्व
से सम्पूर्ण सृष्टि तक एकात्म भाव का विकास करते हुए परमेष्टि में एकाकार होना।
इसे ही ऋषियों, संन्यासियों , मनीषियों ने ‘नर से नारायण’ की यात्रा कहा है। यही
व्यक्तित्व के समग्र विकास की भारतीय दृष्टि है। तभी तो योगी अरविन्द कहते हैं की
‘पश्चिम की दृष्टि तो शरीर से ऊपर उठ ही नहीं पाती, कभी कभार वे मन-बुद्धि तक पहुंचाते भी हैं तो चित्त
और चिति तो उस पाठ्यक्रम से बाहर है ।
व्यक्तित्व विकास के कारक तत्व- करक तत्वों की बात करें तो आधारभूत तत्व हैं
जैसे, पश्चिम के लिए इमानदारी उनके लिए नीति का विषय है (honesty is the best
policy) जब की भारतवर्ष के लिए ईमानदारी आस्था का विषय है । व्यक्तित्व शरीर या
वेशभूषा से नहीं आंतरिक गुणों से बनाता है
। अष्टावक्र का जनक की सभा में जाने का उदाहरण । परोपकार, मितव्ययता, आडम्बर
शून्यता,सदगति संयम, संतुलित विकास से ही संभव है । निर्माण एक विकास है । जैसे गमन यात्रा है, आयोग
तीर्थ-यात्रा है । विवेकानंद जी के शब्दों में ‘Education is an
emancipation of perfection that is already in man’ अर्थात् मनुष्य
में पहले से ही पूर्णता है। शिक्षा के अपेक्षित परिणामों को प्राप्त करने के लिए
यह आवश्यक है कि शिक्षा मातृभाषा में हो, स्वायत हो तथा
शिक्षा में परस्परानुकूलता एवं पारिवारिक
भावना हो। व्यवहार और सिद्धांत में एकरूपता अपेक्षित है । भौतिकता, आध्यात्मिकता, आधुनिकता का एक संगम शिक्षा के माध्यम
से स्थापित हो सकता है । दीनानाथ बत्रा जी
के शब्दों में Education for living and life अर्थात शिक्षा
से छात्रों को जीवन जीने की दृष्टि मिले और स्वयं का,परिवार का जीवन निर्वाह करके
समाज को भी कुछ दे सकें इतनी क्षमता निर्माण होनी चाहिए।
शिक्षा स्वायत्त हो :
किसी भी व्यक्ति,
समाज या राष्ट्र का उचित दिशा में विकास तभी संभव है, जब उसका
अस्तित्व स्वतंत्र हो । स्वतंत्रता का अर्थ है किसी भी अनावश्यक बातों की निर्भरता
से मुक्ति पाना । शिक्षा के सिद्धांत, व्यवहार एवं नीति-निर्धारण
सभी का केन्द्र बिन्दु स्वायत्तता है। इसलिये देश की शिक्षा के वास्तविक स्वरूप को
वर्तमान में पुनः स्थापित करने हेतु शिक्षा शासन, प्रशासन,
राजनीति एवं बाजार के प्रभाव से पूर्णरूप से मुक्त होनी चाहिए । देश
की वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत न्यायालय एवं चुनाव आयोग को स्वायत्तता प्राप्त
है। शिक्षा को इन दोनों संस्थाओं से अधिक स्वायत्तता होनी चाहिए । इसी प्रकार
विभिन्न स्तर के शैक्षिक संस्थानों में भी स्वायत्तता का वातावरण होना चाहिए । आचार्य
विनोबा भावे के अनुसार-शैक्षणिक व्यवस्था सरकारी नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त होनी
चाहिए । शिक्षार्थी को किसी भी बाह्य हस्तक्षेप से मुक्त, उन्मुक्त
वातावरण में विद्या अध्ययन की व्यवस्था हो । विद्या केन्द्रों की व्यवस्था पर समाज
का नियंत्रण हो, सरकार का नहीं ।
शैक्षिक परिवार की भावना : आज हमारे शैक्षिक
परिसरों में संघर्ष का माहौल दिखाई पड़ता है । शिक्षक विरुद्ध छात्र, प्रशासक
विरुद्ध कर्मचारी, प्राध्यापक विरुद्ध प्रबंधक आदि। इस हेतु
प्राध्यापक, प्राचार्य आदि के यूनियन बने हुए हैं। अधिकतर
यूनियनों में मात्र अधिकारों की बात होती है परन्तु कर्तव्य की बात नहीं होती है ।
इन सबके पीछे का कारण है परिवार की भावना का अभाव, जिसके
चलते ‘यह मेरा विद्यालय है’ ऐसा भाव बहुत ही कम लोगों में दिखाई देता है ।
सामूहिकता, पारस्परिकता एवं पारदर्शिता के बिना आत्मीयता
संभव नहीं है। आत्मीयतापूर्ण व्यवहार ही परिवार का आधार है।
व्यवहार और सिद्धांत का संतुलन वर्तमान में
अधिकतर : पाठ्यक्रम मात्र सैद्धांतिक हैं । जहां प्रायोगिक है, वहां
भी वास्तव में क्षेत्र में जाकर कार्य का अनुभव नहीं कराया जाता बल्कि प्रयोगशाला
तक सीमित है । जिससे छात्र अनुभूत ज्ञान से वंचित रहते हैं। उदाहरण के लिए,
वाणिज्य में स्नातक, परास्नातक करने वाला
छात्र बैंकिंग की पढ़ाई करने के बाद भी बैंक तो देखा तक नहीं होता; इस हेतु सभी विषयों में प्रयोगिक एवं व्यवहारिक ज्ञान का समावेश होना
चाहिए।
भौतिकता और आध्यात्मिकता का समन्वय : आज विश्व भर में इस विषय पर चर्चा
प्रारम्भ है । देश-विदेश में घटने वाली कई घटनाओं से अनुभव आ रहे हैं, जिसका उत्तर विज्ञान में नहीं मिल रहा है । दूसरी ओर विज्ञान और तकनीकी का
जिस प्रकार विकास एवं विस्तार हो रहा है इस स्थिति में आध्यात्म के साथ समन्वय
नहीं किया गया तो विज्ञान और तकनीकी मानवता को विकास के बदले विनाश की ओर ले जाएगी
। इस सन्दर्भ में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का कथन आज भी
प्रासंगिक है "हमें केवल अपने राष्ट्र की अखण्डता ही
सुरक्षित नहीं रखनी है उसके साथ अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को भी अक्षुण्ण रखना
होगा । समय आ गया है अब आध्यात्म और विज्ञान का समन्वय करने का । यह समन्वय ही
हमें आणविक युग में सुरक्षा प्रदान कर विकास की ओर उन्मुख कर सकेगा ।”
शिक्षा का एकात्म स्वरूप : वर्तमान में शिक्षा
का टुकड़ों-टुकड़ों में विचार किया जा रहा है। परिणामतः इसमें से निकलने वाले
युवकों का व्यक्तित्व भी खंडित बन रहा है और इसका प्रतिबिंब समाज जीवन में भी
दिखाई देता है । आज अपना समाज जाति, भाषा, प्रांत,
पंथ, जात-पात, अमीर-गरीब,
महिला-पुरुष, तथाकथित सवर्ण, दलित आदि में बंटा हुआ है । क्योंकि छात्रों को प्रवेश के प्रपत्र भरते
समय ही जाति, भाषा, वर्ग आदि से परिचित
कराया जाता है । हमारी विविधता को विभाजन का माध्यम बनाने के बदले एकता का माध्यम
बनाना होगा । खान-पान, भाषा, वेश-भूषा,
पंथ जाति-पाति अनेक होने के उपरान्त हम एक हैं । हमारी संस्कृति,
धर्म, परम्परा, पूर्वज
सब एक हैं । विभिन्न पंथ, सम्प्रदाय को मानने वाले एक ही
परम्परा के अंश हैं, इसका बोध हो। एक जन, एक राष्ट्र एक संस्कृति का मनोभाव बने, इसी दृष्टि
से पाठ्यक्रम का स्वरूप बनाना होगा । पाठ्यक्रम में एक दृष्टि, सातत्य के साथ एकरूपता हो ।
परंपरा एवं आधुनिकता
का समन्वय : पुराना सब श्रेष्ठ है और आधुनिक सब गलता है या पुराने को कूड़े में
डालो और आधुनिकता अपनाओ इस प्रकार की अतिमवादी मानसिकता सर्वथा अनुचित है । हमें
प्राचीन एवं आधुनिकता का समन्वय करना होगा। शिक्षा के हमारे मूलभूत सिद्धांतों के
आधार पर आधुनिक समाज की आवश्यकतानुसार शिक्षा में एक नई व्यवस्था देने का चिन्तन
करना होगा। संस्कृत और संगणक (कम्प्यूटर) का तालमेल बैठाना होगा। सीखने की पद्धति में संगणक के समावेश के साथ-साथ
संवाद माध्यम के अधिक से अधिक उपयोग को पुनः लाना होगा । कैलकुलेटर के आवश्यक
उपयोग के साथ पहाड़े का महत्व कम आंकना बड़ी भूल होगी । आधुनिक गणित के साथ वैदिक
गणित के महत्व को समझना होगा। आधुनिक सुविधायुक्त विद्यालयों के भवनों में भी
गुरु-शिष्य की श्रेष्ठ परम्परा को पुनः स्थापित करना होगा। स्वामी जी कहते
हैं-"सम्पूर्ण शिक्षा तथा समस्त अध्ययन का एकमेव उद्देश्य है व्यक्तित्व को
गढ़ना।" अभी प्रश्न यह है कि स्वामी जी के चिन्तन के अनुसार मनुष्य बनाने
वाली या व्यक्तित्व को गढ़ने वाली शिक्षा हो, कैसी? वर्तमान शिक्षा में तो जानकारियों के ढेर के अलावा बहुत कुछ दिखाई नहीं
देता है।
चरित्र निर्माण (व्यक्तिगत एवं
राष्ट्रीय चरित्र) अर्थ, अवधारणा, चरित्र
के कारक तत्व तथा चरित्र निर्माण के साधन-
चरित्र निर्माण
(व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय चरित्र) अर्थ- स्वामी विवेकानन्द
जी एवं अन्य भारतीय महापुरुषों के इस समग्र शैक्षिक - चिंतन के आधार पर आज की
शिक्षा से क्या अभिप्रेत है? मेरी दृष्टि में प्रमुख तीन बातें हैं :-1.
चरित्र-निर्माण एवं व्यक्तित्व का समग्र विकास ।2. राष्ट्रीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति ।3. राष्ट्रीय
एवं अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों, समस्याओं का समाधान ।
स्वामी विवेकानन्द के विचार से चरित्र-निर्माण
एवं व्यक्तित्व विकास एक सिक्के के दो पहलू हैं । स्वामी जी ने कहा है ‘किसी
व्यक्ति का सम्पूर्ण स्वभाव अर्थात् चरित्र ही व्यक्तित्व कहलाता है।’ स्वतंत्र
राष्ट्र में राष्ट्रीय चरित्र किस प्रकार प्रकट हो- स्वदेश, स्वभाषा, स्वधर्म का
अभिमान, प्रतिभा पलायन नहीं, खेल आदि में अंतर राष्ट्रीय जगत में स्थान, स्वदेशी
प्रोद्योगिकी का विकास । राष्ट्रीय आकांक्षा ही राष्ट्रीय चरित्र प्रकट करती है ।
राष्ट्रीय आकांक्षा का निर्माण- दुनिया में भारत का सर्वश्रेष्ठ स्थान रहे, इस
हेतु मन बनाना । इसके अनुरूप व्यवहार । भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने देखा पारसी थियटर
में ‘शकुन्तला नाटक’ दुष्यंत और शकुन्तला को फूहड़ बनाकर पेश का रहा है । स्वाभिमानी
लोग नाटक देख बीच में उठ कर चले जा रहे थे । स्वाभिमानी, राष्ट्रप्रेमी हरिश्चन्द्र
ने ‘हिंदी रंगमंच’ की स्थापना की ।
पहले महायुद्ध में एक छोटे फ्रेंच
सेना अधिकारी की हिम्मत राष्ट्रीय चरित का उदहारण है - (my right recedes.
My center gives way. Situation is excellent, I shall attack.) फ्रेंच
सैनिक कहता है “मेरी दाहिनी भुजा पीछे हट
गई है अर्थात् अपने जगह से टल गई है, हाथ बीच से टूट गया है,परिस्थिति बहुत अच्छी
है, मैं प्रत्याक्रमण करूंगा ।
चरित्र की अवधारणा: मनुष्य के
आचरण तथा व्यवहार को ‘चरित्र’ कहते हैं अर्थात् मनुष्य के सद्गुणों के समूह का नाम ही
चरित्र है। चरित्र व्यक्तित्व का निर्माण
करनेवाला एक ऐसा तत्त्व है जिससे मनुष्य का जीवन सफल बनता है। चरित्र से ही
आत्मविश्वास जाग्रत होता है और आत्मनिर्भरता उत्पन्न होती है। स्वामी विवेकानंद जी
ने प्रश्न किया है- 'चरित्र' क्या है ?
बहुत ही सरल शब्दों में समझाते हुए कहा है कि "छोटा बालक
देख-देख कर सीखता है, धीरे-धीरे वह उसकी आदत बन जाती है।
लम्बे समय तक उस प्रकार की आदतों के रहने के कारण उसी प्रकार का उनका स्वभाव बनता
है, वही चरित्र है।" चरित्र का गठन शिक्षा का उद्देश्य
है । विनम्रता विहीन ज्ञान निरर्थक है । भारत में व्यक्ति के उत्कर्ष और राष्ट्र
की उन्नति के लिए उन्नत चरित्र को बौद्धिक तथा व्यावसायिक विकास से कहीं अधिक
महत्त्वपूर्ण माना गया है । सदाचार मनुष्य का परमधर्म है, उसका
पालन मनुष्य मात्र का पुनीत कर्तव्य है एवं उसकी वृद्धि उसका पुरुषार्थ है। भारत में प्राचीन काल से लेकर नालंदा काल तक अध्यापकों
में उच्च चरित्र देखना को मिलता है ,उन गुरुओं के छात्र उनसे प्रेरणा ग्रहण कर
स्वयं चरित्रवान, सदाचारी एवं समाजसेवी बनते थे ।भारतीय
परम्परा में अध्यापक एवं विद्यार्थी दोनों परस्पर उत्तम चरित्र और श्रेष्ठ व्यवहार
की आशा रखते थे। महामाना मालवीय इसी तरह की शिक्षा के पक्षधर थे ।
शिक्षा के सम्बन्ध में भगिनी
निवेदिता मानती है कि “शिक्षा का उद्देश्य आजीविका प्राप्त करना नहीं होता है, अपितु
इसका लक्ष्य चरित्र-निर्माण, व्यक्तित्व विकास और राष्ट्र निर्माण
होना चाहिए।” वे वेद आधारित शैक्षिक सिद्धांतों का प्रयोग अपने विद्यालय में करती थीं
। उनके अनुसार, “उत्साही चरित्र का निर्माण शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए।” समझना
होगा यदि हम अपनी भावनाओं को संस्कारित या परिमार्जित नहीं करते हैं, तो हम शिक्षित नहीं हैं बल्कि हमने केवल कुछ बौद्धिक कदमताल की है,
जिसका सहारा लेकर जीविका का निर्वाह कर सकते हैं, परन्तु इस
प्रकार की शिक्षा मानवीय संवेदनाओं को नहीं कर सकती है । भगिनी निवेदिता के
अनुसार- “मूल्यपरक शिक्षा आत्मबोध कराने में सक्षम होती है। ऐसी शिक्षा संवेदनाएं
जागृत कर हमें गरीबों, दबे-कुचलों और मजदूर वर्ग में ‘शाश्वत
सत्य’ का अनुभव कराती है।”
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - “शिक्षा
विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में
ठूंस दिया गया है और जो आत्मसात हुए बिना वहां आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता
है । मेरी दृष्टि से शिक्षा का सार तथ्यों का संकलन नहीं बल्कि मन की एकाग्रता
प्राप्त करना है । हमें तो ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र बने, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य
अपने पैरों पर खड़ा हो सके।” इसीलिए वे कहते है, “हमें सर्वत्र सभी क्षेत्रों में ‘मनुष्य’
बनाने वाली शिक्षा ही चाहिए।” अच्छी आदतें
ही मूल्य हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था एवं परिवारों में मूल्यों की शिक्षा के
द्वारा बालक सदाचार सीखेगा। उनके आधार पर नैतिकता के रास्ते पर चलने हेतु वह सक्षम
होगा। "मनुष्य की भली प्रकृति को अभिव्यक्त करते हुए उसकी संकल्प शक्ति को
सबल बनाने वाली हर चीज नैतिक है' जिससे चरित्रवान नागरिक
निर्मित हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने शिष्यों के लिये चार बातें कही
हैं; वे इस प्रकार हैं :1. सत्य को
जानना। 2. सहनशील बनना 3. मुक्ति की
आकांक्षा होना तथा 4. अन्तः- इन्द्रियों और बाह्य इन्द्रियों
को नियंत्रित करने में समर्थ होना (मनोनिग्रह सीखना ) ।
स्वामी जी के उपर्युक्त बातों या
सारे विचारों का तात्पर्य यह है कि शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त छात्र कैसा होना
चाहिए? उनका व्यक्तित्व कैसा बनना चाहिए ? यहाँ मूल बात
व्यक्तित्व की है। व्यक्तित्व विकास एक प्रक्रिया है और चरित्र निर्माण उसका
परिणाम है। बालकों/छात्रों के व्यक्तित्व का विकास योग्य दिशा में होता है तो
परिणामस्वरूप उनका चरित्र श्रेष्ठ बनेगा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कई
चक्रवर्ती सम्राटों के पास अपार धन, पद, विद्या, वैभव सब कुछ था, परंतु
चरित्र नहीं था। इसलिए उनका अस्तित्व समाप्त हो गया।
चरित्र के कारक तत्व - आचरण
की प्रक्रिया को ही चरित्र कहते हैं। आचरण से ही संस्कार बनते हैं। चरित्र अनेक कारक तत्वों में मूल्य प्रथम कारक है । जीवन
मूल्यों को आत्मसात करना चरित्र के गठन की प्रथम सीढ़ी है । महर्षि अरविन्द के
अनुसार “जब से शिक्षा से जीवन मूल्यों का विछोह हो गया है, तब
से देशवासी धर्मभ्रष्ट एवं लक्ष्यभ्रष्ट हो गये।” मूल्य शिक्षा हेतु स्वतंत्र विषय,
पुस्तक या कालांश की आवश्यकता नहीं है। मूल्य शिक्षा को चार स्तर पर
विचार किया जाना अपेक्षित है - 1. पाठ्य पुस्तकों में
मूल्यों का समावेश । 2. सहशैक्षिक गतिविधियों का आयोजन । 3.
संस्थानों के परिवेश/ वातावरण की पवित्रता । 4.
शिक्षण पद्धति एवं शिक्षक का आचरण ।
व्यक्तिगत चरित्र और राष्ट्रीय
चरित्र एक सिक्के के दो पहलू हैं, अत: दोनों आवश्यक हैं । राष्ट्रीय
आवश्यकता के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि- ‘भला हो जिससे देश का ,वह काम सब किये
चालो।’ मन, वचन, कर्म से राष्ट्रहित के कार्य-राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा। पांडवों
का राष्ट्रहित में अपने ही भाइयों से लड़ना, व्यक्तिगत प्रतिष्टा की चिंता नहीं ।
श्रीकृष्ण का रणछोर कहलाना, शिवाजी का, खंडोवल्लाल एवं वाजीराव के उदाहरण । ‘वयं पंचाधिकम
सतम’। दांतों से जीव नहीं काटी जाती ।1971के युद्ध और कोरोना काल में देश-विदेश की
चिंता आदि राष्ट्रीय चरित्र और वैश्विक मानव के लक्षण हैं । स्वतंत्रता पश्चात
राज्यों का स्वेच्छा से विलय । डॉ अम्बेडकर द्वारा प्रलोभन को ठुकराकर हिन्दू
(बौद्ध) बने रहना । अन्य देशों के उदाहारण- चर्चिल (इंग्लैंड), इजराइल , जापान,
जर्मनी आदि । राष्ट्रीय चरित्र का आभाव होने से इनसे समझा जा सकता है - लार्किंस
बन्धुओं द्वारा जासूसी, शादीलाल द्वारा गुप्त फाइलों को वेचना, अलगाववाद ।
चरित्र निर्माण के साधन- मनुष्य के चरित्र का निर्माण इस बात पर भी निर्भर करता है की वह विशुद्ध भौतिकवादी (materialistic) या (non materialistic) । मैं ‘आध्यात्मिक’(spiritualistic) शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा क्योंकि जो लोग भौतिकतावादी नहीं है, वे सभी आध्यात्मिक होंगे ऐसा नहीं हैं । महापुरुषों के उपरोक्त विचारों के संदर्भ में वर्तमान शिक्षा का स्वरूप बनें, वह निम्नांकित प्रकार से किया जा सकता है- शिक्षा के उद्देश्य प्राप्त करने हेतु आधारभूत संकल्पनाएँ,1. शिक्षा मूल्य आधारित हो स्वतंत्र भारत में शिक्षा से सम्बन्धित सभी आयोगों, सभी पंथ- सम्प्रदाय के ग्रन्थों एवं सभी आधुनिक महापुरुषों ने इसकी आवश्यकता को रेखांकित किया है।
पंचकोष
पंच कोषात्मक व्यक्तित्व - योगशास्त्र
में पंचकोषात्मक व्यक्तित्व का निरूपण आता है । श्रीमद्भगवद्गीता में सात्विक, राजसिक,
तामसिक व्यक्तित्व का वर्णन है। आयुर्वेद में वात, पित्त, कफ के आधार पर मनुष्य का वर्णन किया जाता है ।
श्री अरविन्द ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
तथा शूद्र आदि चार वर्णों को स्वभाव मानकर चार प्रकार के व्यक्तित्वों का वर्णन
किया है । समझना होगा की ये सब एक ही व्यक्ति के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किये
गये विकास के कारक तत्वों का वर्णन हैं । तथापि वेद, उपनिषद,
दर्शन आदि सभी में मूल रूप से पंचकोषात्मक व्यक्तित्व का वर्णन
मिलता है । अतः हमारे शैक्षिक उद्देश्यों की दृष्टि से इसी संकल्पना को स्वीकार
करके चलना ईष्ट है । पंचकोषात्मक व्यक्तित्व की संकल्पना के अनुसार पांच कोष
इस प्रकार हैं-1. अन्नमय कोष, 2. प्राणमय कोष, 3. मनोमय कोष, 4. विज्ञानमय कोष, 5. आनन्दमय कोष । सामान्य भाषा में हम इनको शरीर, प्राण,
मन, बुद्धि और आत्मा कहते हैं, व्यावहारिक संदर्भ में आत्मा को ही
चित्त मानते हैं । अर्थात् अन्नमय कोष है, शरीर । प्राणमय कोष है, प्राण । मनोनय
कोष है, मन। विज्ञानमय कोष है, बुद्धि और आनन्दमय कोष है, चित्त । यहाँ पर कोष का
अर्थ है, आवरण अथवा स्तर । स्तर का तात्पर्य है हमारे जीवन का स्तर, हमारे तादात्म्य का स्तर। यह तादात्म्य क्या है ? हम
जब अपने आपको जानना चाहते हैं और पूछते हैं कि ‘मैं कौन हूँ’ ? तब हमारा उत्तर जैसा होता है, उसके ऊपर हमारा स्तर निश्चित होता है । यदि
हम अपने आपको शरीर मानते हैं तो हमारा तादात्म्य शरीर से है । इसका अर्थ है हम
अन्नमय कोष में जी रहे हैं। इसी प्रकार से यदि हम अपने आपको प्राण मानते हैं तो
हमारा तादात्म्य प्राण के साथ होता है। तब हम प्राणमय कोष में जी रहे हैं। इसी
प्रकार से हमारा तादात्म्य मन के साथ होता है तो मनोमय कोष, बुद्धि
के साथ है तो विज्ञानमय कोष और चित्त के साथ है तो आनन्दमय कोष में जी रहे हैं । वास्तव
में चित्त से भी ऊपर उठकर- ‘मैं आत्मा हूँ’ ऐसा जानते हैं, तब हम अव्यक्त होते हैं
। व्यक्त रूप से आत्मतत्त्व चित्त के रूप में ही अनुभव करता है । इसलिये चित्त यह
सबल ब्रहम है ।
पंचकोश
की संकल्पना :
अन्नमय कोष,
प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष, आनन्दमय कोष । सामान्य भाषा में हम
इनको शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा कहते हैं, व्यावाहरिक संदर्भ में
आत्मा को ही चित्त मानते हैं।अर्थात् अन्नमय कोश है-शरीर, प्राणमय
कोष है-प्राण, मनोमय कोश है-मन, विज्ञानमय
कोष है- बुद्धि और आनन्दमय कोष है - चित्त कोष का अर्थ है आवरण अथवा स्तर । स्तर
का तात्पर्य है, हमारे उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि जीवन का
स्तर, हमारे तादात्मय का स्तर। यह तादात्मय क्या है? जब हम अपने आपको जानना चाहते हैं और पूछते हैं कि 'मैं
कौन हूँ ? तब हमारा उत्तर जैसा होता है । उसके ऊपर हमारा
स्तर निश्चित होता है। यदि हम अपने आपको शरीर मानते हैं तो हमारा तादात्मय शरीर से
है। इसका अर्थ है हम अन्नमय कोश में जी रहे हैं। इसी प्रकार से यदि हम अपने आपको
प्राण मानते हैं तो हमारा तादात्मय प्राण के साथ होता है। तब हम प्राणमय कोष में
जी रहे हैं। इसी प्रकार से हमारा तादात्मय मन के साथ होता है तो मनोमय कोष,
बुद्धि के साथ है तो विज्ञानमय कोष और चित्त के साथ है तो आनन्दमय कोष
में जी रहे हैं । वास्तव में चित्त से भी ऊपर उठकर 'मैं
आत्मा हूँ' ऐसा साक्षात्कार होता हैं तब हम अव्यक्त होते हैं
। व्यक्त रूप से आत्मतत्त्व चित्त के रूप में ही अनुभव करता है । इसलिए चित्त सबल
है।
(1)
अन्नमय कोष : मानवी चेतना को पाँच भागों में विभक्त किया गया है । इस
विभाजन को पाँच कोष कहा जाता है। प्राणियों का स्तर इन चेतनात्मक परतों के अनुरूप
ही विकसित होता है। कृमि कीटकों की चेतना इन्द्रियों की प्रेरणा के इर्द गिर्द की
घूमती रहती है। शरीर ही उनका सर्वस्व होता है। उनका ‘स्व’
काया की परिधि में ही सीमित रहता है। इससे आगे की न उनकी इच्छा होती
है, न विचारणा न क्रिया। प्रत्येक कोष का एक दूसरे से घनिष्ठ
सम्बन्ध होता है । वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । काम, क्रोध,
लोभ, मोह, मद, मात्सर्य यह छः शत्रु और ममता, तृष्णा आदि
दुष्प्रवृत्तियाँ मनोमय कोष में छिपी रहती है। कोष साधना से उन सब का निराकरण होता
है।
अन्नमय कोश का अर्थ
है, इन्द्रिय चेतना । अन्न से शरीर बनाता है और शरीर मस्तिष्क का निर्माण होता है ।
सम्पूर्ण दृश्यमान जगत, ग्रह-नक्षत्र, तारे और पृथ्वी, आत्मा के परम सता की
अभिव्यक्ति हैं । वादिक ऋषियों ने अन्न को
ब्रह्म कहा है , यह प्रथम कोष है जहां आत्मा स्वयं को अभिव्यक्ति करती रहती है ।
इस जड़ प्रकृति जगत से भी बढ़ कर कुछ है । जड़ का अस्तित्व मानव और प्राणियों से पहले
का है । पहले पांच तत्वों (अग्नि, जल,
वायु ,पृथ्वी,आकाश ) की सत्ता ही विद्यमान थी ।
हमारा शरीर अन्नमय कोष है। अन्न से यह पुष्ट होता है और अन्न नहीं है तो
कृश होता है, इसलिये उसे अन्नमय कोष कहते हैं। शरीर दो भागों में बंटा है- बाह्य
शरीर और अन्दर का शरीर । हाथ, पैर, नाक, कान आदि सब बाहर से जो-जो भी दिखता है, वह बाह्य शरीर है । पाचनतंत्र,
श्वसनतंत्र, रूधिराभिसरण तंत्र आदि जो त्वचा
के आवरण के अन्दर के भाग हैं, वह हमारा अंदर का शरीर है । शरीर से ही हमारा सारा
व्यवहार चलता है । शरीर सबसे स्थूल अभिव्यक्ति है । शरीर एक यंत्र है। हमारे अंग
और उपांग उसके पुर्जे हैं, जो विभिन्न प्रकार के काम करते हैं । शरीर को जानने का
अर्थ है- शरीर के सभी अंग-उपांगों की रचना समझना । उनके कार्यों और कार्यपद्धति
जानना। उनकी देखभाल कैसे होती है, पुष्टि कैसे होती है और
उनको स्वस्थ रखने के लिये क्या करना चाहिये । इस सम्बन्ध में जानना ।
शरीर यन्त्र है इसलिये वह अपने आप
काम नहीं करता,
उसे चलाना पड़ता है । प्राण की शक्ति से वह काम करता है, परन्तु
विभिन्न प्रकार के कामों के लिए उसकी बहुत सुन्दर रचना बनी है । उपनिषदों में भी
शरीर को रथ की ही उपमा दी गई है। शरीर जब स्वस्थ, निरामय,
बलवान, ओजपूर्ण, सहनशील,
लोचपूर्ण और सूडोल रहता है तभी अन्नमय कोष ठीक है, ऐसा कह सकते हैं ।
शरीर भोजन, निद्रा, व्यायाम, नित्य कार्यरतता आदि से अच्छा रहता है । शरीर को ऐसा बनाना और रखना शारीरिक
विकास है । शरीर कितना ही अच्छा हो फिर भी हम शरीर नहीं हैं। शरीर हमारे लिये एक
साधन ही है । परन्तु हम अज्ञानवश शरीर ही हम हैं ऐसा मानते हैं और उसी की सज-धज को
प्रमुख कार्य मानते हैं । जब किसी का, शरीर सम्पत्ति के आधार
पर ही मूल्याकंन करते हैं या उसको पसंद या नापसंद करते हैं, तब हम अपना सही स्वरूप
भूलकर अन्नमय कोष में जी रहे होते हैं । यह साधन को ही साध्य मानना है जो अज्ञान
का परिणाम है।
अन्नमय कोश के विकास के कारक तत्त्वःभोजन
- यह अन्नमय कोष के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। भोजन उत्तम एवं पौष्टिक एवं पर्याप्त
मात्रा में हो तथा उचित पद्धति से किया जाना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये
हमारे यहाँ आहारशास्त्र विकसित किया गया है। क्यों खाना, क्या
खाना, कैसे खाना, कितना खाना, कब खाना, मौसम-शरीर के अनुसार खानपान आदि सभी बातों
के विस्तारपूर्वक निर्देश आयुर्वेद में हमें प्राप्त होते हैं । इनको ठीक रूप में
जानना स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत आवश्यक है। व्यायामः शरीर के अन्त:-बाह्य सभी
अंगों का नियमन और उनका अभ्यास आवश्यक है, यही व्यायाम है ।
अंगों की सुस्थिति, उठने, बैठने,
सोने, चलने की उचित पद्धति, अंगों की रगड़, लयबद्ध और नियमित हलचल आदि इन सबका
नित्य और नियमित अभ्यास शरीर स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है। खेल, योगाभ्यास, घरेलू कार्य, शारीरिक
श्रम आदि व्यायाम होता है। इसको भी सही स्वरूप में जानने और करने की आवश्यकता है। निद्रा
: जिस प्रकार से पोषण और व्यायाम शरीर को स्वस्थ रखते हैं और बनाते हैं उसी
प्रकार से विश्रान्ति भी आवश्यक है। निद्रा सबसे अच्छी विश्रान्ति है। पर्याप्त
मात्रा में एवं अच्छी निद्रा चाहिये। निद्रा शान्त और गहरी होती है तब अच्छी
विश्रान्ति मिलती है। कब सोना और कब नहीं सोना, कितना सोना,
कैसे सोना, बिस्तर, शयन
कक्ष कैसा होना आदि के विस्तृत निर्देश हमें योगशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में
प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार से जागृत अवस्था में आराम से बैठना, शान्ति से बैठना आदि भी विश्रान्ति के लिये आवश्यक है।प्राण और मन प्राण
जब बलवान होते हैं तो शरीर स्वस्थ रहता है, प्राण क्षीण होते
हैं तब शरीर अशक्त, कृश और रुग्ण हो जाता है। अतः शरीर को
स्वस्थ रखने के लिये प्राण बलवान होना भी आवश्यक है। उसी प्रकार मन का भी अत्यधिक
प्रभाव शरीर के स्वास्थ्य पर पड़ता है। मन का तनाव और उत्तेजना, राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व तथा वासनाएँ शरीर
के वात, पित्त, कफ को विषम बना देती
हैं, अनिद्रा का कारण बनती हैं, पाचन
क्रिया में गड़बड़ी पैदा होती है, मज्जा तन्तुओं का तनाव
बढ़ता है, रक्ताभिसरण में अवरोध निर्माण होता है, श्वसन प्रक्रिया प्रभावित होती है और शरीर अस्वस्थ हो जाता है। वर्तमान
में यह स्थिति बहुत अधिक मात्रा में लोगों में दिखाई देती है। शरीर अस्वस्थता के
मूल में मन की अस्वस्थता मूल है । मन की प्रसन्नता और शान्ति का शरीर पर अनुकूल
प्रभाव होता है । अतः शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से प्राण और मन को भी सुस्थिति में
रखना आवश्यक है। ये सब अन्नमय कोश के प्रकृतिगत कारक तत्त्व हैं । इसके साथ हमारे
दैनन्दिन जीवन की व्यवस्थायें भी जुड़ी हुई हैं। ये व्यवस्थायें स्वास्थ्य के
अनुकूल होनी चाहिये। जैसे कि भोजन तैयार करने की पद्धति, भवन
निर्माण, घर में वायु, सूर्यप्रकाश और
उचित तापमान की प्राकृतिक स्थिति, घर में पानी और पानी
निःसरण की व्यवस्था, सोने-बैठने के पलंग और मेज कुर्सी आदि
की व्यवस्था, कपड़े आदि चीजें, स्वच्छता
ये मानवनिर्मित व्यवस्थायें, शरीर स्वास्थ्य के अनुकूल बनाने
चाहिये। इसी प्रकार दाँत, मुख, केश,
पूरा शरीर स्वच्छ रखना, स्वास्थ्यप्रद आदतें
बनाना यह सब अनिवार्य है। वर्तमान में इसकी समग्र जानकारी और उसके अभाव में शरीर
की अस्वस्थता सर्वत्र दिखाई दे रही है। इस दृष्टि से इस बात की ओर अधिक से अधिक
ध्यान देने की आवश्यकता है।
अन्नमय कोष ( शारीरिक
विकास) हेतु गतिविधियाँ :- शारीरिक
शिक्षा एवं खेल को प्राथमिकता दी जाए विभिन्न प्रकार की खेल प्रतियोगिताओं का
आयोजन किया जाए ।इस हेतु छात्रों को खेल का नियमित शिक्षण दिया जाए। साहसिक प्रवासों एवं गतिविधियों का आयोजन।कैंटीन
में फास्ट-फूड,
जंक फूड एवं शीतल पेय (कोल्ड ड्रिंक्स) को प्रतिबंधित करना एवं इनके
उपयोग से होने वाले नुकसान हेतु छात्रों में जागरुकता लाना। छात्रावासों के
भोजनालय एवं कैंटीनों में शुद्ध एवं सात्विक आहार की व्यवस्था हो । वर्ष में एक
बार समग्रता से छात्रों की चिकित्सा जाँच (मेडिकल चेकअप) अनिवार्य हो । संस्थान
में सभी प्रकार की चिकित्सा व्यवस्था रहे।इसके अतिरिक्त खान-पान, रहन-सहन आदि हेतु छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास हेतु शिक्षण
की व्यवस्था करना ।
(2) प्राणमय कोष -प्राणमय
कोश अर्थात् जीवनी शक्ति। प्राण पांच प्रकार के होते हैं- प्राण, समान,उदान,
व्यान,अपान । इनके अतिरिक्त हमारे ऋषियों ने प्राण के उप प्राण भी बताये हैं -
नाग, दूरम, किंकर,देवदत्त तथा धनञ्जय आदि। उपनिषद
का ऋषि कहता है - तुम (शरीर ) और आत्मा (हृदय) प्राण में प्रतिष्ठित है । प्राण
अपान में प्रतिष्ठित है । अपान व्यान में
प्रतिष्ठित है । व्यान उदान में
प्रतिष्ठित है । उदान सामान में प्रतिष्ठित
है , जिसको नेति-नेति कहकर वर्णन किया गया
है । यह प्राणमय कोष सभी वनस्पतियों, पशु
और मानव दो भागों को मिलाकर भौतिक और आध्यात्मिक स्वरूप प्राणों से जुड़े हुए हैं ।
उसी प्रकार वाणी का मन से, मन का अपान से, प्राण का अपान से, मृत्यु का अपान से,
पांच तत्वों का तीन गुणों ( सत, रज, तम) से, गुणों का महतत्व से, महतत्व का आत्मा
से और अनंत आत्मा का परमात्मा से समलय होता है । प्राणमय कोष की क्षमता जीवनी
शक्ति के रूप में प्रकट होती है। शरीर को चलाने वाली जो ऊर्जा है, वह प्राण है।
जिसमें प्राण नहीं है , वह निर्जीव है जिसमें प्राण है, वह सजीव है। शरीर में जब
प्राण होते हैं तब वह जीवन्त शरीर कहा जाता है, जब प्राण
शरीर को छोड़ देता है, तब वह मृतदेह होता है और उसे जला दिया जाता है। प्राण जीवनी
शक्ति है । प्राण शरीर से अधिक सूक्ष्म है । वह पूर्ण शरीर में व्याप्त है । जहाँ
प्राण नहीं है वह अंग काम नहीं करता है । जिस प्रकार से बिजली स्वयं प्रवाहित नहीं
होती, किसी के आश्रय से ही वह रहती और प्रवाहित होती है,
उसी प्रकार से प्राण भी श्वास के आश्रय से संचार करता है । पूर्ण
शरीर में रस, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि सभी में अनुस्यूत होकर रहता है । प्राण के आवेग चार प्रकार के
हैं- आहार, निद्रा, भय और मैथुन । ये
चार प्राण धारणा के लिये अनिवार्य ऐसी मूल प्रवृत्तियाँ हैं । आहार का अर्थ है
अत्र, जल और वायु ग्रहण करना । ये तीन नहीं है तो प्राणधारणा
हो ही नहीं सकती । अर्थात हमारा शरीर प्राण को धारण नहीं कर सकता। प्राण स्वयं कभी
नष्ट नहीं होता। अन्न, जल और वायु नहीं होने से शरीर और
प्राण साथ में नहीं रह सकते। उनका वियोग हो जाता है। उसी को मृत्यु कहते हैं।
निद्रा विश्रान्ति है। प्राण धारणा के लिये यह भी अनिवार्य है । बिना निद्रा के
जीवन सम्भव नहीं है ।भय भी प्राण की मूल प्रवृत्ति है । प्राणधारणा के लिये वह सभी
में होती है । मैथुन इस देह के बाद दूसरे देह के माध्यम से भी देह और प्राण का सम्बन्ध
बना रहे, इसकी व्यवस्था है। जीवन इसी प्रकार निरन्तर गतिमान
और अखण्ड रहता है । इसी को वंश परम्परा कहते है । यह मूल प्रवृत्ति कामेच्छा के
रूप में जानी जाती है । यह अपने आप में बुरी बात नहीं है । वह सभी जीवन्त इकाइयों
के लिये स्वाभाविक बात है । वनस्पति, पशु, पक्षी, कीट-पतंग, मनुष्य सभी
में प्राण हैं । इसलिये वे सब सजीव हैं । इसलिये इन सभी में ये चार मूल
प्रवृत्तियाँ दिखती हैं । पत्थर, खनिज आदि में प्राण नहीं
हैं इसलिये वे निर्जीव हैं । उनमें ये मूल प्रवृत्तियों नहीं दिखाई देतीं । आहार
और निद्रा पर्याप्त मात्रा में नहीं होने से प्राण क्षीण होते हैं और शरीर दुर्बल
बन जाता है । आहार और निद्रा अव्यवस्थित होने से शरीर अस्वस्थ और रोगी बन जाता है ।
अति आहार और अतिनिद्रा से भी ऐसा ही होता है। इतना ही नहीं तो उत्साह, महत्वाकांक्षा, विधायक विचार, आत्मविश्वास,
विजिगीषु भाव आदि भी क्षीण हो जाते हैं। ओज, तेज,
कान्ति आदि भी क्षीण हो जाते हैं । इसलिये प्राणमय कोश को व्यवस्थित
रखने से जीवन यात्रा अच्छी चलती है।जब हम अपने आपको प्राणयुक्त शरीर ही मानते हैं,
उसी के साथ हमारा तादात्म्य होता है, जीवन रक्षा
ही एकमेव उद्देश्य होता है और जीने के लिये। ही खाते, पीते,
सोते हैं तो हम प्राणमय कोश में जीते हैं। परन्तु वास्तव में हम
प्राण नहीं है। हम आत्मतत्त्व ही है। प्राण तो किसी एक स्तर का हमारा व्यक्त रूप
है। इस तथ्य को नहीं जानना अज्ञान है, जानना ज्ञान है । चार
मूल प्रवृत्तियों में आहार और निद्रा का सम्बन्ध अन्नमय कोष से अधिक है और भय और
मैथुन का सम्बन्ध मनोमय कोष के साथ अधिक है । अर्थात् आहार और निद्रा को शरीर
अच्छा रखने की दृष्टि से व्यवस्थित करना चाहिये जब कि भय और मैथुन पर मानसिक विकास
की दृष्टि से नियंत्रण करना चाहिए ।
शरीर को चलाने वाली जो ऊर्जा है, वह
प्राण है। जिसमें प्राण नहीं है वह निर्जीव है, जिसमें प्राण
है, वह सजीव है शरीर में जब प्राण होते हैं तब वह जीवन्त
शरीर कहा जाता है, जब प्राण शरीर को छोड़ देता है तब वह
मृतदेह होता है। इस प्रकार प्राण जीवनी शक्ति है। प्राण शरीर से अधिक सूक्ष्म है।
वह पूर्ण शरीर में व्याप्त है। जहाँ प्राण नहीं पहुंचता है वह अंग काम नहीं करता
है। जिस प्रकार से बिजली स्वयं प्रवाहित नहीं होती किसी के आश्रय से ही यह रहती और
प्रवाहित होती है, उसी प्रकार से प्राण भी श्वास के आश्रय से
संचार करता है। पूर्ण शरीर में रस, रक्त, मज्जा, अस्थि आदि सभी में अनुस्यूत होकर रहता है।
प्राण के आवेग चार प्रकार के हैं आहार, निद्रा, भय और मैथुना ये चार प्राणधारणा के लिये अनिवार्य मूल प्रवृत्तियाँ हैं। आहार
का अर्थ है अन्न, जल और वायु ग्रहण करना। ये तीनों के ग्रहण
किये बिना शरीर नहीं चल सकता। अर्थात हमारा शरीर प्राण को धारण नहीं कर सकता।
प्राण स्वयं कभी नष्ट नहीं होता। एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तर करता है। निद्रा
विश्रान्ति है। प्राणधारणा के लिये यह भी अनिवार्य है। बिना निद्रा के जीवन सम्भव
नहीं है। भय भी प्राण की मूल प्रवृत्ति है। प्राणधारणा के लिये वह सभी में होता
है। मैथुन इस देह के बाद दूसरे देह के माध्यम से भी देह और प्राण का सम्बन्ध बना
रहे, इसकी व्यवस्था है। जीवन इसी प्रकार निरन्तर गतिमान और
अखण्ड रहता है। इसी को वंश परम्परा कहते हैं। यह मूल प्रवृत्ति काम के रूप में
जानी जाती है। यह अपने आप में बुरी बात नहीं है। वह सभी जीवन्त इकाइयों के लिये
स्वाभाविक बात है। वनस्पति, पशु, पक्षी,
कीटपतंग, मनुष्य सभी में प्राण हैं। इसलिये वे
सब सजीव है। इसलिये इन सभी में चार मूल प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। आहार और
निद्रा पर्याप्त मात्रा में नहीं होने से प्राण क्षीण होते हैं और शरीर दुर्बल बन
जाता है। आहार और निद्रा अव्यवस्थित होने से शरीर अस्वस्थ और रोगी बन जाता है।
अति-आहार और अतिनिद्रा से भी ऐसा ही होता है। इतना ही नहीं तो उत्साह, महत्वाकांक्षा, विधायक विचार, आत्मविश्वास,
विजिगीषु भाव, ओज, कान्ति
आदि भी क्षीण हो जाते हैं। इसलिये प्राणमय कोश को व्यवस्थित रखने से जीवन यात्रा
अच्छी चलती है।
जब हम अपने आपको
प्राणयुक्त शरीर ही मानते हैं, उसी के साथ हमारा तादात्मय
होता है, जीवन रक्षा ही एकमेव उद्देश्य होता है और जीने के
लिये ही खाते, पीते, सोते हैं, तो हम प्राणमय कोश में जीते हैं। परन्तु वास्तव में हम प्राण नहीं हैं। हम
आत्मतत्त्व ही हैं। प्राण तो किसी एक स्तर का हमारा व्यक्त रूप है। इस तथ्य को
नहीं जानना अज्ञान है। चार मूल प्रवृत्तियों में आहार और निद्रा का अन्नमय कोश से
और भय और मैथुन का मनोमय कोश से अधिक सम्बन्ध है।
प्राणमय कोश के विकास के कारक तत्त्व : शुद्ध, प्राणयुक्त
वायु प्राण वायु के आलम्बन से रहता है और श्वास के माध्यम से शरीर के अन्दर आता
है। सामान्य रूप से शुद्ध वातावरण में प्रतिशत प्राण वायु रहता है। प्राणयुक्त
वायु को ही प्राणवायु कहते हैं। अतः आवश्यक है कि जिस वातावरण में हम रहते हैं,
जिस वायु को हम श्वास में लेते हैं, उसमें 21 प्रतिशत की यह मात्रा बनी रहे। उसी को हम शुद्ध वायु कहते हैं। इस दृष्टि
से वायु को, वातावरण को शुद्ध रखने के हर सम्भव प्रयास करने
चाहिये।
श्वसन के माध्यम से प्राण हमारे शरीर में प्रवेश
करता है। अतः हमारी श्वसन प्रक्रिया ठीक होनी चाहिये। वैसे श्वास उच्च शिक्षा भारतीय तो हम जीवन
के प्रत्येक क्षण में लेते हैं परन्तु लम्बी, गहरी और नियमित
श्वास लेने की आदत बनानी चाहिये। ऐसी श्वास ले सकें इसलिये सीधा बैठने की आदत भी
बनानी चाहिये जिससे हमारे श्वसन मार्ग में अवरोध निर्माण न हो। श्वसनमार्ग में कफ
के कारण से भी अवरोध निर्माण होता है। अतः श्वसनमार्ग की शुद्धि भी आवश्यक है।
चेतातन्त्र की शुद्धि: चेतातन्तुओं अथवा तन्त्रिकाओं के आलम्बन से प्राण पूर्ण
शरीर में व्याप्त है। अतः चेतातन्तुओं की शुद्धि भी आवश्यक है। अर्थात् यह भी सही
है कि प्राण से चेतातन्तुओं की शुद्धि भी होती है। प्राणायाम : प्राण का
विकास करने का यह श्रेष्ठ और एकमेव मार्ग है। योगशास्त्र में इसका विस्तार से
निरूपण किया गया है। प्राण को नियमित और नियन्त्रित करने के अभ्यास से एकाग्र करके
अनेक प्रकार की सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। इसी को प्राणायाम कहते हैं। भोजन
और निद्रा : शरीर के समान ही ये दोनों प्राण को भी पुष्ट करते हैं। इस प्रकार
से जब उर्जा बढ़ती है, चेतातन्तु शुद्ध होते हैं तो
ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव शुद्ध और सूक्ष्म संवेदन बनकर मन के समक्ष प्रस्तुत होते
हैं। इसी शुद्धि के परिणामस्वरूप नेत्र निर्मल होते हैं, स्वर
मधुर हो जाता है, मुखमण्डल चमकता है, शरीर
हल्का हो जाता है ओर पूर्ण आरोग्य प्राप्त होता है। वैसे शरीर और प्राण को अलग-अलग
रखकर विचार नहीं किया जा सकता क्योंकि प्राण शरीर की ही कार्यशक्ति है। इस हेतु
प्राणमय कोश के विकास का यह महत्व ध्यान में रखकर शिक्षा का स्वरूप बनाना चाहिये।
(3) मनोमय कोष –मनोमय कोष साधारणतया
मन और बुद्धि के संयोग को माना जाता है । मन का अर्थ संकल्प और विकल्प है । हम जो
देखते, सुनते हैं अर्थात् हमारी इन्द्रियों द्वारा जब कोई संन्देश हमारे मस्तिष्क
में जाता है तो उसके अनुसार वहाँ सूचना एकत्रित
हो जाती है, और मस्तिष्क से हमारी भावनाओं के अनुसार रसायनों का श्राव होता
है, जिससे हमारे विचार बनाते हैं । जैसे विचार होते हैं उसी तरह से हमारा मन
स्पंदन करने लगता है और इस प्रकार प्राणमय कोष के बाहर एक आवरण बन जाता है, यही
हमारा मनोमय कोष होता है । मनोमय स्थिति विचारशील प्राणियों की होती है । यह और भी
ऊँची स्थिति है। मननात्-मनुश्यः । मनुष्य नाम इसलिए पड़ा कि वह मनन कर सकता है।
मनन अर्थात् चिन्तन। मनोमय कोष के विकास से ही मन का यथोचित विकास संभव होता है।
यह मन ही है जो मनुष्य के नियंत्रण में जल्दी नहीं आता है। इस पर नियंत्रण के लिए
मन की विविध अवस्थाओं को संयमित अर्थात् नियंत्रित करना पड़ता है। मन अपार
शक्तिशाली है। शरीर रथ, मन लगाम और बुद्धि सारथी के रूप में है। यदि बुद्धि रूपी सारथी कमजोर पड़ा
तो लगाम मन के हाथ में चली जाती है तब शरीर का नियंत्रण भी उसी के हाथ में आ
जायेगा। शरीर का नियंत्रण मन के हाथों में आते ही शरीर रूपी रथ को बिना सारथी के
मन उसे कुराहों पर भी ले जा सकता है। इसलिए मन का विकास अति आवश्यक हो जाता है।
अतः उसे पवित्रता का वातावरण, सज्जनों का सत्संग, आदर्श संस्कार, आनंदमय आभास, सफलतम प्रयास की छांव में रहना चाहिए।
मन में यदि - संकल्प, विश्वास, श्रद्धा, भक्ति,
प्रेम, ज्ञान, कर्म और
समर्पण है, तो आनंद प्राप्त होगा किन्तु यदि मन में विकल्प, शंका,
भ्रम, ईर्ष्या, द्रोह,
प्रतिस्पर्धा, घृणा, पशुता,
आलस्य और स्वार्थ आदि की राह पकड़ ली तो जीवन निस्सार हो जाएगा।
हमारे शास्त्रों में ‘मन’ संज्ञा अधिक व्यापक
अर्थ में प्रयुक्त हुई है। कहीं पर 'मन' अन्तःकरण
चतुष्ट्य अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और
अहंकार चारों का समावेश करने वाली, कहीं मन, बुद्धि और चित्त स्वतंत्र संज्ञाएँ हैं और 'अहंकार'
का समावेश 'चित्त' में
हो जाता है। पंचकोश की संकल्पना में मन, बुद्धि और चित्त ऐसे
ही स्तर हैं । मन प्राणों से भी सूक्ष्म है, किसी का भी
आलम्बन किये बिना रहता है। मन इच्छा करता है। मन द्वन्द्वात्मक है। मन को रुचि
अरुचि, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, सुख-दुःख, संकल्प-विकल्प होते हैं।मन विचार करता है।
ज्ञानेन्द्रियों के सभी प्रकार के संवेदनों को विचार के रूप में परिवर्तित करता
है। इस विचार स्वरूप को सुखदुःखादि द्वन्द्वात्मक स्थिति का रंग चढ़ जाता है।मन को
लोभ, मोह, मद, मत्सर,
काम, क्रोध आदि विकार होते हैं तो दया,
करुणा, अनुकम्पा, स्नेह,
सहानुभूति आदि भाव भी होते हैं। मन चंचल होता है। एकाग्र हो सकता
है।मन रुचि के विषय में आसक्त हो जाता है और सुख का अनुभव करता है। यदि रुचि के
विषय से विमुख होना पड़ा तो दुःख का अनुभव करता है।मन उत्तेजित से जाता है,
तनावयुक्त से जाता है। शान्त हो सकता है। मन की गति सृष्टि में सबसे
अधिक है। बिना किसी आलम्बन से यह जहाँ चाहे पहुँच सकता है।
मन अत्यन्त बलवान है। उसे यश में
करना बहुत कठिन होता है। मन को शान्त करना, एकाग्र करना, अनासक्त करना ही मन का विकास करना है।मन की सभी प्रकार की अवस्थाओं का
प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर का प्रभाव मन पर पड़ता है। वास्तव में हमारा
सर्वसामान्य व्यवहार मनोकायिक अर्थात् मन और शरीर दोनों के एकत्र आधार पर ही चलता
है। फिर भी शरीर से मन कही अधिक प्रभावी है। मनोविकार शरीर को अस्वस्थ कर देते
हैं। रक्तदाब, मधुमेह, अम्लपित्त,
हृदयविकार जैसी व्याधियों मनोविकार का ही परिणाम होती हैसद्गुण,
सदावार और इस अर्थ में सुसंस्कार मन का क्षेत्र है। सभी प्रकार का
संयम मन के लिये है। मन ठीक होता है सत्संग से, सेवा से,
स्वाध्याय से मन स्वस्थ होता है ध्यान से मन अच्छा होता है अच्छे
भोजन से मन के लिये असम्भव ऐसा कुछ भी नहीं है। मन की शक्ति अपरिमित है।सामान्य
रूप से हम मन के साथ तादात्म्य करके जीते हैं। हम समझते है. मन याने हम जब हम मन
के साथ तादात्म्य करके जीते हैं तो राग-द्वेष, सुख-दुःख,
मान-अपमान, रुचि अरुचि में ही हमारे व्यवहार
के प्रेरक और नियामक तत्त्व बन जाते है। हर्ष, शोक, ईर्ष्या, असूपा, कामना और
कामनापूर्ति ही जीवन का पर्याय और जीवन का लक्ष्य बन जाता है। इस स्थिति पर
नियंत्रण पाना, मन के साथ तादात्म्य छोड़ना ही विकास है।
कामक्रोधादि मन के शत्रुओं पर विजय पाकर दया, करुणा आदि
अच्छे भावों को बढ़ाना मन का विकास है।मन का प्रभाव एक ओर शरीर पर पड़ता है तो मन
दूसरी ओर बुद्धि को भी प्रभावित करता है। जब तक मन एकाग्र, शान्त
तथा अनासक्त नहीं। होता तब तक बुद्धि सही प्रकार से अपना कार्य नहीं कर सकती।
व्यवहार में या शिक्षा में बुद्धि का कार्य प्रशस्त करने के लिये मन को अच्छा
बनाना आवश्यक होता है।
मनोमय कोष मन से
सम्बन्धित है। हमारे शास्त्रों में 'मन' संज्ञा कम-अधिक व्यापक अर्थ में प्रयोग हुई है। कहीं पर 'मन' अन्तःकरण चतुष्ट्य अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार चारों का समावेश करने वाला,
कहीं मन, बुद्धि और चित्त स्वतंत्र संज्ञाएँ
हैं और 'अहंकार' का समावेश 'चित्त' में हो जाता है। पंचकोश की संकल्पना में मन,
बुद्धि और चित्त ऐसे स्तर हैं। मन प्राणों से भी सूक्ष्म है,
किसी भी आलम्बन के बिना रहता है। मन इच्छा करता है। मन
द्वन्द्वात्मक है। मन को रुचि अरुचि, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, सुख-दुःख, संकल्प-विकल्प
होते हैं। मन विचार करता है। ज्ञानेन्द्रियों के सभी प्रकार के संवेदनों को विचार
के रूप में परिवर्तित करता है। इस विचार स्वरूप को सुख, दुःख
आदि द्वन्द्वात्मक स्थिति का रंग चढ़ जाता है। लोभ, मोह,
मद, मत्सर, काम, क्रोध आदि मन के विकार होते हैं तो दया, करुणा,
अनुकम्पा, स्नेह, सहानूभूति
आदि भाव भी मन के होते हैं।मन साधारणतः चंचल होता है। परन्तु एकाग्र हो सकता है।
मन रुचि के विषय में आसक्त हो जाता है और सुख का अनुभव करता है। यदि रुचि के विषय
से विमुख होना पड़ा तो दुःख का अनुभव करता है। मन उत्तेजित, तनावयुक्त
एवं अशांत होता है, आज विश्व में समग्र के समक्ष यह बड़ी
समस्या है। परन्तु प्रयास करने से मन शान्त हो मनुष्य सकता है। मन की गति सृष्टि
में सबसे अधिक है। बिना किसी आलम्बन से वह जहाँ चाहे पहुँच सकता है। मन अत्यन्त
बलवान है। उसे वश में करना बहुत कठिन होता है। मन को शान्त, एकाग्र,
अनासक्त करना अर्थात् वश में करना ही मन का विकास करना है। मन की
सभी प्रकार की अवस्थाओं का प्रभाव शरीर पर पड़ता है और शरीर का प्रभाव मन पर पड़ता
है। वास्तव में हमारा सर्वसामान्य व्यवहार मनोकायिक अर्थात् मन और शरीर दोनों के
एकत्र आधार पर ही चलता है। फिर भी शरीर से मन कहीं अधिक प्रभावी है। मनोविकार शरीर
को अस्वस्थ कर देते हैं। रक्तचाप, मधुमेह, अम्लपित्त, हृदयविकार जैसी व्याधियाँ मनोविकार का ही
परिणाम हैं।सद्गुण, सदाचार और इस अर्थ में सुसंस्कार यह मन
के क्षेत्र हैं। सभी प्रकार का संयम मन के लिये है। मन ठीक होता है सत्संग,
सेवा और स्वाध्याय से मन स्वस्थ होता है ध्यान से। मन अच्छा होता है
अच्छे भोजन से। मन के लिये असम्भव ऐसा कुछ भी नहीं है। मन की शक्ति अपरिमित
है।सामान्य रूप से हम मन के साथ तादात्मय करके जीते हैं। हम समझते हैं, मन याने हम। जब हम मन के साथ तादात्मय करके जीते हैं तो राग-द्वेष,
सुख-दुःख, मान-अपमान, रुचि
अरुचि ये ही हमारे व्यवहार के महत्वपूर्ण और नियामक तत्व बन जाते हैं। हर्ष,
शोक, ईर्ष्या, कामना और
कामनापूर्ति ही जीवन का पर्याय और जीवन का लक्ष्य बन जाता है। इस स्थिति पर
नियंत्रण पाना, मन के साथ तादात्मय छोड़ना ही मन का विकास
है। कामक्रोधादि मन के विकारों पर विजय पाकर दया, करुणा आदि
अच्छे भावों को बढ़ाना यह भी मन का विकास है।मन का प्रभाव एक ओर शरीर पर पड़ता है
तो मन दूसरी ओर बुद्धि को भी प्रभावित करता है। जब तक मन एकाग्र, शान्त तथा अनासक्त नहीं होता तब तक बुद्धि सही प्रकार से अपना कार्य नहीं
कर सकती। व्यवहार में या शिक्षा में बुद्धि का कार्य प्रशस्त करने के लिये मन को
स्वस्थ बनाना आवश्यक होता है।
मनोमय कोश के विकास
के कारक तत्त्व :
योगाभ्यास : विश्वविद्यालय के विभिन्न संकायों एवं
महाविद्यालयों में प्रार्थना का आग्रह हो। हमारे देश में विचित्र धारणा बनी है कि
विद्यालय के छात्रों हेतु प्रार्थना की व्यवस्था है, परन्तु उच्च शिक्षा के
स्तर पर यह व्यवस्था नहीं है। जबकि वास्तव में उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों को
इसकी अधिक आवश्यकता है। * संगीत एवं विभिन्न कलाओं के शिक्षण की व्यवस्था करना। सकारात्मक
सोच से समाज परिवर्तन, सामाजिक सेवा में प्रवृत्त महानुभावों
से छात्रों को रुबरु करवाना। इस प्रकार के समाजसेवकों को संस्थानों में बुलाकर
छात्रों से संवाद कराना। तीन बार “ॐ " के उच्चारण से
कक्षा की शुरुआत हो, इसके नियमित प्रयोगों से छात्रों की
एकाग्रता का विकास एवं अनुशासन में सुधार आता है। इस प्रकार के अनुभव अनेक
विद्यालयों का है। मन की सभी शक्तियों का विकास करने के लिये और मन को वश में करने
के लिये अष्टांग योग जैसा समर्थ और कोई उपाय नहीं है। योगविद्या भारत की अमूल्य सम्पदा
है। जीवन के हर आचार और विचार के साथ, व्यवस्था और वातावरण
के साथ, तत्त्व और व्यवहार के साथ, शिक्षा
और शिक्षा पद्धति के साथ योग-दृष्टि जोड़ने की आवश्यकता है।
सत्संगति और स्वाध्याय :
मनोमय कोश के विकास के कारक तत्त्व के रूप में सत्संग एवं स्वाध्याय का बड़ा ही
महत्व है। 'सत्संग' का तात्पर्य है- सत् जनों अर्थात् सज्जनों
की संगति। हमारे आध्यात्मिक ग्रंथों उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि में इन्हें ही
संतों की संगति कहा गया है। संतों में सहनशीलता, क्षमा,
करूणा, त्याग और समर्पण जैसे मानवीय गुण होते
हैं, जो उनकी संगति या सान्निध्य से हमारे अंदर भी विकसित
होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि 'बिनु सत्संग
विवेक न होई' अर्थात् सत्संग के बिना विवेक संभव ही नहीं है
और इस विवेक के बिना स्वाध्याय का कोई मतलब नहीं है। अतः विवेकसम्पन्नता के साथ
सद्ग्रंथों के नियमित स्वाध्याय से मनोमय कोश को समृद्ध किया जा सकता है।संगीत योग
के समान ही संगीत मन के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करता है। हमारे सारे
घेतातन्त्र पर वृत्तियों पर भावों पर संगीत का प्रभाव पड़ता है। वास्तव में भारतीय
संगीत का विकास केवल मनोरंजन के लिये नहीं अपितु मन को विकसित करने की दृष्टि से
ही किया गया है। पश्चिम का संगीत मात्र मनोरंजन के लिए होता है, उससे उत्तेजना, कामुकता आदि विकार बढ़ते हैं अतः
आवश्यक है संगीत को परिष्कृत करके मन के विकास के लिये उसका प्रयोग करना। इस
दृष्टि से घर में और विद्यालय में संगीतमय वातावरण का निर्माण करना चाहिये।
भोजन : जैसा अन्न वैसा मन।
भोजन एक ओर शरीर और प्राण को पुष्ट करता है तो दूसरी ओर मन को सुसंस्कृत करता है।
इसलिये भोजन स्वच्छ और पवित्र वातावरण में बनाना चाहिये और करना भी चाहिये। भोजन
बनाने वाले के विचारों एवं भावनाओं का प्रभाव भोजन करने वाले के मन पर पड़ता है।
प्रेमपूर्ण हाथों से बना हुआ भोजन खाने वाले के मन को सुसंस्कृत बनाता है। अतः
अच्छी गृहणी का लक्षण बताते हुए स्मृति उसे 'भोज्येषु माता' कहती है भोजन को पवित्र एवं भोजन करने को यज्ञ कार्य समान मानना यह मन को
भी शुद्ध बनाता है। भोजन करते समय अच्छी मनःस्थिति होना आवश्यक है। स्वयं भोजन
करने से पूर्व गाय को, अतिथि को, अग्नि
को भोजन समर्पित करना, प्रामाणिकता से प्राप्त हुई सम्पत्ति
से ही भोजन सामग्री जुटाना आदि मन को अच्छा बनाने के लिये आवश्यक है।
सेवा कार्य : नियमित निरपेक्ष भाव से
सेवा करना,
आनन्द से सेवा करना मन को शुद्ध करने का उपाय है। गुरुसेवा, वृद्धसेवा, मातापिता उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि की
सेवा, रुग्ण सेवा, दरिद्रसेवा, वृक्षसेवा, प्राणी सेवा, अतिथि
सेवा, जन सेवा आदि विविध प्रकार से हम सेवा कार्य कर सकते
हैं। मनोमय कोश के विकास के परिणामस्वरूप एक ओर अन्नमय कोश के विकास में भी सहायता
होती है, दूसरी ओर विज्ञानमय कोश और आनन्दमय कोश के विकास का
मार्ग भी प्रशस्त होता है। आज मन के अनुकूल परिस्थितियाँ निर्माण करके शिक्षा देने
का प्रचलन बढ़ गया है। बालकों के मनोरंजन का ही ध्यान अधिक रखा जाता है।
मनोविज्ञान का विकास उसी प्रकार से किया जाता है। जैसे कि मन सब कुछ हो और मन को
संतुष्ट करना ही इतिकर्तव्यता हो । काम जीवन का लक्ष्य और अर्थ उस लक्ष्य की
प्राप्ति का साधन इस प्रकार के विचार आज व्यवहार के आधार बन गये हैं। इस आधार को
बदलकर आत्मतत्त्व को अधिष्ठान बनाकर मन को उसके अनुकूल बनाना यह शिक्षा का
उद्देश्य बनना चाहिये। अर्थात् मनोविकास यह मनुष्यरूपी प्राणी से मनुष्य रूप में
व्यक्त आत्मतत्व तक की यात्रा है।
(4) विज्ञानमय कोष- विज्ञानमय के समुचित विकास से ही
शुद्धाशुद्ध विचार पूर्णतया परिवर्तित भाव-स्वरूप धारण करते है। जब तक सत्यपूर्ण, तथ्यपूर्ण
और निरा तर्कयुक्त विचार निश्चयात्मकता की कसौटी पर खरे नही उतरते हैं, तब तक
बुद्धि की संशयात्मक यात्रा अपूर्ण की अपूर्ण ही रहती है। बुद्धि की इसी
निश्चयात्मक सकारात्मकता के विकास को ही शास्त्रकारों ने विज्ञानमय कोश की संज्ञा
दी है, इसी को महर्षि पतंजलि ने भी
विज्ञानमय कोष कहा है। इसमें अचेतन सत्ता
का भाव प्रवाह होता है । इसका निर्माण अन्तर्ज्ञान या सहज ज्ञान से होता है ।इसे
भाव-संवेदना का स्तर कह सकते हैं । दूसरों के सुख-दुख में भागीदार बनने की
सहानुभूति के आधार पर इसका परिचय प्राप्त किया जा सकता है। आत्मभाव का आत्मीयता का
विस्तार इसी स्थिति में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोष का ही नाम है। दयालु,
उदार, सज्जन, सहृदय,
संयमी, शालीन और परोपकार परायण व्यक्तियों का
अन्तराल ही विकसित होता है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की
महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। महामानवों का यही स्तर समुन्नत रहता है।
सामान्य
रूप में हम इसे बुद्धि कहते हैं। बुद्धि भी मन के ही समान बिना आलम्बन रहती है।
बुद्धि का काम है जानना 'ज्ञान' के साथ जुड़ा हुआ है। बुद्धि का काम है
निरीक्षण एवं पवन विशेषकर वर्क एवं अनुमान करना, विवेक एवं
निर्णय करना मन त्मक है, जबकि मुद्धिना।कता से निरीक्षण एवं
परीक्षण करती है। निरीक्षणका कार्य है अशोक अर्थात् प्रकार से परीक्षणका अर्थ
परखना, सभी ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से परखना विश्लेषण का
अर्थ है किसी पदार्थ या घटना के सभी भागों या अपनों को अलग-अलग करके जानना का अर्थ
है किसी पटना या पदार्थ के सभी अलग-अलग भागों या आयामों को एकत्रित करके समग्र को
जानना। किसी भी घटना के क्या-क्या कारण हो सकते हैं इसका विचार करना। अनुमान का
अर्थ है कार्य को देखकर कारण को या कारण को देखकर कार्य को जानना। इन सभी साधनों
का उपयोग करके किसी भी पटना या पदार्थ के सम्बन्ध में सड़ी और गलत स्वरूप को पृथक
करना विवेक है और उसके आधार पर कैसा व्यवहार करना चाहिये पर निर्णय है।बुद्धि अपना
विवेक और निर्णय करने का कार्य ठीक कर सके इसके लिये मन स्वस्थ होना अनिवार्य है।
क्योंकि किसी भी घटना या पदार्थ को मन अपना अर्थात् राग-द्वेष, रुचि अरुधि आदि का रंग चाकर ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करता है। तब
बुद्धि उसको शुद्ध रूप में नही जान सकती। बुद्धि को तेजस्वी, तीक्ष्ण, शुद्ध, ग्रहणशील
बनाने के लिये मन कीएकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति
आवश्यक है। प्रतिमा, प्रज्ञा, मेधा,
घी आदि बुद्धि के ही विभिन्न रूप है। बुद्धि का सम्बन्ध एक और मन के
साथ है तो दूसरी ओर चित्त के साथ है। किसी
भी पदार्थ को जैसा है, ऐसा जानना ज्ञान है । बुद्धि यही
कार्य करती है। इसलिये विज्ञानकोष बुद्धि के साथ गुथा है ।मनोमय कोश से अधिक
सूक्ष्म और अधिक परिष्कृत विज्ञानमय कोश है। सामान्य रूम में हम इसे बुद्धि कहते
हैं। बुद्धि भी मन के ही समान बिना आलम्बन रहती है। बुद्धि का काम है जानना । 'ज्ञान' शब्द 'बुद्धि ' के साथ ही जुड़ा हुआ है। बुद्धि का काम है निरीक्षण एवं परीक्षण करना,
संश्लेषण एवं विश्लेषण करना, तर्क एवं अनुमान
करना, विवेक एवं निर्णय करना। मन द्वन्द्वात्मक है, जबकि बुद्धि निश्चयात्मक। बुद्धि ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से निरीक्षण
एवं परीक्षण करती है। निरीक्षण का अर्थ है अवलोकन । अर्थात् अच्छी प्रकार से
देखना। परीक्षण का अर्थ है परखना, सभी ज्ञानेन्द्रियों की
सहायता से परखना। विश्लेषण का अर्थ है किसी पदार्थ या घटना के सभी भागों या आयामों
को अलग-अलग भाग करके समग्र को जानना। इससे विपरीत प्रक्रिया संश्लेषण है। तर्क का
अर्थ है किसी भी घटना के क्या-क्या कारण हो सकते हैं इसका विचार करना। अनुमान का
अर्थ है कार्य को देखकर उच्च शिक्षा भारतीय दृष्टि कारण या कारण को देखकर कार्य को जानना। इन सभी
साधनों का उपयोग करके किसी भी घटना या पदार्थ के सम्बन्ध में सही और गलत स्वरूप को
पृथक करना विवेक है और उसके आधार पर कैसा व्यवहार करना चाहिये यह निर्णय है। बुद्धि
अपना विवेक और निर्णय करने का कार्य ठीक कर सके इसके लिये मन स्वस्थ होना अनिवार्य
है। क्योंकि किसी भी घटना या पदार्थ को मन अपना अर्थात् राग-द्वेष, रुचि अरुचि आदि का रंग चढ़ाकर ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करता है। तब
बुद्धि उसको शुद्ध रूप में नहीं जान सकती। बुद्धि को तेजस्वी, तीक्ष्ण, शुद्ध, ग्रहणशील
बनाने के लिये मन की एकाग्रता, शान्ति, अनासक्ति आवश्यक है। प्रतिभा, प्रज्ञा, मेधा, धी, ऋतंभरा आदि बुद्धि
के ही विभिन्न रूप हैं। बुद्धि का सम्बन्ध एक ओर मन के साथ है तो दूसरी ओर चित्त के
साथ है। हम जब अपने आपको बुद्धिमान मानते हैं, हमारा
तादात्मय बुद्धि के साथ होता है तो हम विज्ञानमय कोश में जी रहे हैं। बुद्धिनिष्ठ
व्यवहार पक्षपातरहित और न्यायपूर्ण होता है। बुद्धि को अपने और पराये का भेद,
राग या द्वेष नहीं होता। सत्य और असत्य होता है, उचित और अनुचित होता है। मनोनिष्ठ व्यवहार से बुद्धिनिष्ठ व्यवहार अधिक
श्रेष्ठ है। किसी भी पदार्थ को जैसा है, वैसा जानना विज्ञान
है। बुद्धि वही कार्य करती है। इसलिये विज्ञानमय कोश को बुद्धि कहा गया है।
विज्ञानमय कोश के विकास के कारक तत्त्व : अभ्यास : विद्यालय में भाषा, गणित, विज्ञान, तर्क शास्त्र
आदि विषय बुद्धि की विभिन्न शक्तियों के विकास के लिये बहुत उपयोगी हैं। इन विषयों
को सतत एवं सातत्यपूर्ण करना ही अभ्यास है। इन विषयों के अध्ययन से बुद्धि का
विकास होता है और बुद्धि की सहायता से इन विषयों को अच्छी तरह पढ़ा जाता है।
अध्ययन पद्धति : वास्तव में अध्ययन पद्धति, विद्यालय के
विभिन्न कार्यक्रम, व्यवस्थाएँ, गतिविधियाँ
ऐसी हों जिनमें बुद्धि की विभिन्न शक्तिय उच्च शिक्षा : भारतीय दृष्टि का उपयोग
करने का अवसर प्राप्त हो। अवसर प्राप्त होने से ये शक्तियाँ अपने आप प्रयुक्त होने
लगती हैं। इसी को अध्ययन कहते हैं। जिज्ञासा जागृत करना : जिज्ञासा अर्थात् ज्ञान
प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य के अन्तःकरण में होती ही है। वह अनेक विकारों के
आवरण में दबी हुई होती है। उसे अनावृत करने से बुद्धि अपने आप क्रियाशल होने लगती
है। मन : मन की एकाग्रता, अनासक्ति और शान्ति के बिना,
न तो बुद्धि का विकास होता है न वह सद्बुद्धि होती है। श्रद्धा,
सेवा आदि : श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- श्रद्धावान् लभते ज्ञानं
तत्परः संयतन्द्रियः । अर्थात् श्रद्धा, तत्परता और
इन्द्रियसंयम होने से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है और भी कहा है- 'तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया'। अर्थात्
विनयशीलता, सेवाभाव और जिज्ञासा से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता
है। इसका तात्पर्य यही है कि मनोमय कोश के सम्यक् विकास से ही विज्ञानमय कोश का
विकास हो सकता है। अन्नमय कोश में सभी जड़ पदार्थ रहते हैं। प्राणमय कोश में सभी
प्राणी रहते हैं। मनोमय कोश में सभी प्राकृत मनुष्य रहते हैं। मनोमय कोश का विकास
करके विज्ञानमय कोश की ओर गति करना और उसमें स्थित होना मनुष्य जीवन की सही दिशा
है। अन्न के आनन्द से, इन्द्रिय सुख के आनन्द से, ज्ञान के आनन्द की ओर बढ़ना विकसित होने की दिशा है।
विज्ञानमय कोश (बौद्धिक विकास)
हेतु गतिविधियाँ :छात्रों के अध्ययन के विषय सम्बन्धित क्षेत्रों (फील्ड) में
जाकर सर्वेक्षण अध्ययन हेतु योजना बने। उदाहरण के लिए पर्यावरण कीभारतीय दृष्टि
विज्ञान के छात्रों को पर्यावरण की समस्या से ग्रस्त क्षेत्रों का भ्रमण कर उसके
समाधान हेतु परियोजना कार्य करना ।* विभिन्न विषयों पर
व्याख्यानमाला एवं स्वाध्याय मंडल का मासिक आयोजन करना । व्याख्यान के विषय में
(5) आनंदमयकोष - जीवन
में व्यक्तित्व का भी अपना एक विशेष महत्व होता है। व्यक्तित्व के आधार स्तंभ
चरित्र की धुरी पर ही टिके होते हैं। इसलिए चरित्र से व्यक्तित्व और व्यक्तित्व से
जीवन अर्थात इसी क्रम से जीवन ईश्वर स्वरूप सत्य, शिव और
सुंदर को अंततः प्राप्त कर लेता है। यह ईश्वर स्वरूप जीवन जब अन्न, प्राण, मन और बुद्धि के उत्तरोत्तर विकास के पायदानों
को चढ़ते हुए आनंद स्वरूप को प्राप्त करता है तब कहीं जाकर उसे अपने अंतिम लक्ष्य
की प्राप्ति का द्वार खुला हुआ मिल पाता है। इसी द्वार में प्रवेश करने को ही
आनंदमय कोश की फल सिद्धि या जीवन यात्रा का पूर्ण विकास कहा जा सकता है। अर्थात
इसी विकास की खातिर योगी, मुनि और ऋषि जन जन्मजन्मांतर अखंड
जप,तप,जतन करते हैं तब कहीं जाकर
उन्हें इस स्वर्गिक आनंद की अनुभूति का लाभ प्राप्त होता है। आत्म बोध-आत्म जागृति।आनंदमय कोश आत्मा की उस
मूलभूत स्थिति की अनुभूति है जिसे आत्मा का वास्तविक स्वरूप कह सकते हैं। आनंदमय
कोश जागृत होने पर जीव अपने को अविनाशी ईश्वर अंग, सत्य,
शिव, सुन्दर, मानता है।
शरीर, मन और साधन एवं सम्पर्क परिकर को मात्र जीवनोद्देश्य
के उपकरण मानता है। यह स्थिति ही आत्मज्ञान कहलाती है । यह उपलब्ध होने पर मनुष्य
हर घड़ी सन्तुष्ट एवं उल्लसित पाया जाता है।
नाभिकुंड पियूष बस
याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन
कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥
इसके नाभिकुंड में अमृत का निवास है
। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है । विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री
रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए ॥
सायक एक नाभि सर
सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा ॥
लै सिर बाहु चले
नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा ॥
एक बाण ने नाभि के
अमृत कुंड को सोख लिया । दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे ।
बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड़) पृथ्वी पर
नाचने लगा ॥
विज्ञानमय
कोश से अधिकाधिक तरल, अधिक स्वच्छ आनन्दमय कोश है। आत्मतत्व अनुभव करने के लिये जो सर्वप्रथम रूप
धारण करता है, घिरा है इसलिये इसको आत्मिक स्तर भी कहते हैं। चित्त का स्वभाव है
आनन्द, प्रेम, सौन्दर्य, स्वतन्त्रता
और राहगता। परन्तु आनन्द यह सुख या हर्ष नहीं है। सुख या हर्ष में मन के विषय है
जिसके साथ दुःख पर शोक जुड़ा हुआ है और जिसके मूल में आसक्ति होती है। आनन्द सुख और
दुख से निरपेक्ष है।प्रेम यह आसक्ति या लगाव नहीं है। आसक्ति या गायन के विषय है।
प्रेम निरपेक्ष है। सौन्दर्य भी अच्छा या बुरा अथवा रूपवान या कुरूप नहीं है। यह
उससे भी परे है।कामना, वासना, लोभ आदि
किसी भी प्रकार की बाध्यता आनन्दमय कोष में नहीं है, इसलिये वह स्वतन्त्रत है।
स्वतन्त्रता यह स्वच्छन्दता नहीं है, स्वविहार नहीं है।
स्वतन्त्रता में सभी प्रकार के बन्धनों का सभी प्रकार के दास्य का अभाव है।और इन
सभी के परिणाम स्वरूप अपना सहज स्वभाव आनन्दमय कोश की स्थिति है।अर्थात् सुख और
दुःख दोनों में आनन्द, शत्रु या मित्र दोनों के लिये प्रेम,
रूपवान या कुरूप दोनों में सौन्दर्यबोध, आपत्ति
या वैभव दोनों में स्वतन्त्रता और सभी प्रकार की स्थितियों में सहज वृत्ति यह
आनन्दमय कोश का स्तर है।यह स्थिति शरीर, प्राण, मन, बुद्धि आदि सभी स्तरों से ऊपर है, श्रेष्ठ है। जब हम अपने आपको वित्त मानते हैं तब इस स्थिति में जीते हैं।
इस स्थिति में हमारा व्यवहार सबके लिये कल्याणकारी होता है। अपने स्वयं के लिये भी
मोक्ष की ओर ले जाने वाला होता है। हमारे जीवन का व्यवहार भी शास्त्रों ने बताया
है कि 'आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय' होना
चाहिये। वह तभी होता है जब हम आनन्दमय कोश के स्तर पर पहुँचते हैं।इन पाँच कोशों
के परे है आत्मतत्त्व जो वास्तव में हम हैं। साधना से हम वहाँ तक पहुँच सकते हैं।
अपने सही स्वरूप का बोध कर सकते हैं।सामान्य रूप से हम मनोमय कोश में जीते हैं।
तभी राग-द्वेष, सुख-दुख आदि हमें बहुत प्रभावित करते हैं।
इच्छा, कामना, चाह हमें प्रेरित करती
है। इच्छापूर्ति के लिये हम पुरुषार्थ करते हैं। हम बुद्धि का कहना नहीं मानते,
मन का कहना मानते हैं। मनोमय स्तर से प्राणमय स्तर पर उतर आते हैं,
अन्नमय स्तर पर भी उतर आते हैं।परन्तु प्राणमय और अन्नमय स्तर पर
उतर आना सरल है। विज्ञानमय और आनन्दमय तक पहुँचना साधना का विषय है। अध्ययन,
अभ्यास, सत्संग, सेवा,
संयम आदि से वहाँ पहुँच सकते हैं।शिक्षा का उद्देश्य ही है हमें
मनोमय कोश के स्तर से उपर उठाना। हमारी समग्र पाठ्यचर्या उस प्रकार की बननी
चाहिये।सामान्य व्यवहार में हम प्राण को ही आत्मा मान लेते हैं। प्राण को जीव कहते
हैं, जीव को जीवात्मा या आत्मा समझते हैं। परन्तु प्राण
आत्मा नहीं है। प्राण जीवनीशक्ति है।सामान्य रूप से हम प्राण, मन आदि को चेतन मानते हैं और पत्थर आदि को जड़। परन्तु अन्नमय से लेकर
आनन्दमय कोश तक सारा का सारा विस्तार -जड़ है। यह प्रकृति का विस्तार है जो स्वभाव
से जड़ है। आनन्दमय कोश:-विज्ञानमय कोश से अधिक सूक्ष्म, अधिक
व्यापक, अधिक तरल, अधिक स्वच्छ आनन्दमय
कोश है। इसको चित्त भी कहते हैं। आत्मतत्त्व अभिव्यक्ति का अनुभव लेने के लिये जो
सर्वप्रथम रूप धारण करता है वह चित्त है। इसलिये इसको आत्मिक स्तर भी कहते हैं।
योगशास्त्र में इसको सबल ब्रह्म कहा है। शुद्ध आत्मतत्व इससे भी परे है।चित्त का
स्वभाव है आनन्द, प्रेम, सौन्दर्य,
स्वतंत्रता और सहजता । परन्तु आनन्द यह सुख या हर्ष नहीं है। सुख या
हर्ष ये मन के विषय हैं जिसके साथ दुःख या शोक जुड़ा हुआ है और जिसके मूल में
आसक्ति होती है। आनन्द सुख और दुःख से निरपेक्ष है। प्रेम आसक्ति या कामना, वासना, लोभ आदि किसी भी प्रकार की बाध्यता आनन्दमय कोश में नहीं है, इसलिये वहाँ स्वतन्त्रता ही है। स्वतन्त्रता यह स्वच्छन्दता नहीं है,
स्वैरविहार नहीं है। स्वतन्त्रता में सभी प्रकार के बन्धनों का,
सभी प्रकार के दास्य का अभाव है। और इन सभी के परिणाम स्वरूप अपना
सहज स्वभाव आनन्दमय कोश की स्थिति है। अर्थात् सुख और दुःख दोनों में समभाव,
शत्रु या मित्र दोनों के लिये प्रेम, रूपवान
या कुरूप दोनों में सौन्दर्यबोध, अभाव या वैभव दोनों में
संतोष और सभी प्रकार की स्थितियों में सहज वृत्ति यह आनन्दमय कोश का स्तर यह
स्थिति शरीर, प्राण, मन, बुद्धि आदि सभी स्तरों से ऊपर है, श्रेष्ठ है। जब हम
स्वयं को वास्तविक रूप में समझ पाते हैं तब इस स्थिति में जीते हैं। इस स्थिति में
हमारा व्यवहार सबके लिये कल्याणकारी होता है। अपने स्वयं के लिये भी मोक्ष की ओर
ले जाने वाला होता है। हमारे जीवन का व्यवहार भी शास्त्रों ने बताया है कि 'आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय' वैसा होता है। यह तभी
संभव है जब हम आनन्दमय कोश के स्तर पर पहुँचते हैं। इन पाँच कोशों के परे है,
आत्मतत्त्व जो वास्तव में हम हैं। साधना से हम वहाँ तक पहुँच सकते
हैं। अपने सही स्वरूप को बोध कर सकते हैं। सामान्य रूप से हम मनोमय कोश में जीते
हैं। तभी राग-द्वेष, सुख-दु:ख आदि हमें बहुत प्रभावित करते
हैं। इच्छा, कामना, चाह हमें प्रेरित करती है। इच्छा पूर्ति
के लिए हम पुरुषार्थ करते हैं। हम बुद्धि के अनुसार नहीं, मन
के अनुसार चलते हैं। इस प्रकार हमें सहज प्रक्रिया मनोमय से प्राणमय एवं प्राणमय
से, अन्नमय स्तर पर भी उतर आते हैं। परन्तु प्राणमय और
अन्नमय स्तर पर उतर आना सहज प्रक्रिया है। विज्ञानमय और आनन्दमय तक पहुँचना साधना
का विषय है। अध्ययन, अभ्यास, सत्संग,
सेवा, संयम आदि से वहाँ पहुँच सकते हैं। सामान्य
व्यवहार में हम प्राण को ही आत्मा मान लेते हैं। प्राण को जीव कहते हैं, जीव को जीवात्मा या आत्मा समझते हैं। परन्तु प्राण आत्मा नहीं है। प्राण
जीवनी शक्ति है।व्यक्तित्व के दो भाग हैं। एक है स्थूल शरीर और दूसरा है सूक्ष्म
शरीर । अन्नमय कोश स्थूल शरीर है, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश मिलकर सूक्ष्म शरीर
है। मृत्यु के समय दोनों शरीर अलग हो जाते हैं। स्थूल शरीर अग्नि को समर्पित हो
जाता है, सूक्ष्म शरीर दूसरे स्थूल शरीर से संयोग कर लेता है,
जिसे पुर्नजन्म कहते हैं। भारतीय विज्ञान में व्यक्तित्व का इस
प्रकार स्वरूप वर्णित है। इसी को आधार मानकर व्यक्तित्व विकास की संकल्पना भी की
गई है।
आनन्दमय कोश के
विकास के कारक तत्त्व :1. अन्नमय से लेकर विज्ञानमय
कोशों को सम्यक् विकास आनन्दमय कोश के विकास का मार्ग सरल बनाता है। इसलिये उन्हीं
कोशों का विकास करने की ओर ध्यान देना चाहिये।2. स्वार्थ
त्याग की वृत्ति, सेवाभाव और सेवाकार्य चित्त को शुद्ध करते
हैं।3. ध्यान जब परिपक्व होता है तो समाधि होती है। समाधि से
चित्त शुद्ध होता है, संस्कार उत्पन्न होते हैं।4. निरपेक्ष भाव से कर्म करने से चित्त शुद्ध होता है।5. भक्ति और प्रेम से भी चित्त शुद्ध होता है।
पंचकोष विकास के लाभ तथा पंचकोष
विकसित करने के साधन -
व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में
जिस प्रकार पंचकोशों का सर्वांगपूर्ण योगदान रहता है उसी प्रकार विशिष्ट
सांस्कृतिक मानदंडों का भी कुछ कम योगदान नहीं रहता है। ये एकमेव माध्यम मनुष्य को
पशुत्व से नारायणत्व की सुंदर छवि बनने में अतीव सहायक होते है । तन, प्राण,
मन और बुद्धि आदि के इन चारों द्वारों को पार कर जब मनुष्य आत्मा के
परम आनंदमयी द्वार को पार करता है यानि प्रवेश करता है तब कहीं जाकर उसे नितांत
परम आनंद की सहज प्राप्ति होती है। वह अवर्णनीय है। अतः यह जो परम आनंद है न इसका
स्वाद ही ऐसा है जिसे पाकर मनुष्य पूर्णतः गूंगा समान हो जाता है जिस प्रकार एक
गूंगा सबसे श्रेष्ठ और उत्तम मिष्ठान्न को खाकर भी उसका कम या ज्यादा या यों कहें
कि अच्छा या बुरा दोनों का ही किसी भी प्रकार का वर्णन नही कर पाता अपितु अंदर से
उसकी सुखद अनुभूति मात्र ही कर पाता है। लेकिन उसी की वह अपने चेहरे द्वारा सुखद,
आनंदमयी भावभंगिमा को जरूर प्रकट कर पाता है। सच में यही अवस्था
आत्मा के द्वार को पारकर या उसमे प्रवेश कर या उसको पाकर उस मनुष्य की भी होती है।
जैसी गूँगे की होती है। इसलिए मनीषियों ने उस आनंद को विभिन्न रूपों में परिभाषित
करने का भी प्रयास किया है। कि यह जो आनद है वह
परम सुख है,परम आनंद है, परम
उन्नति है, परम गति है, परम वैभव है,परम धाम है और स्वयं परमात्मा ही है। इसलिए इस महायात्रा के सभी को
सुपात्र बनकर अपने अपने जीवन को सार्थक करने का सौभाग्य प्राप्त हो।
पंचकोशीय साधना के अंतर्गत जब
व्यक्ति का व्यक्तित्व आत्मा के द्वार में प्रविष्ट होता है तब उसका मन स्वतः ही
निर्मल होने लगता है और संकल्प, विकल्प के संभ्रम से भी बाहर निकल आने
लगता है। इस प्रकार समस्त दुविधाओं के चंगुल से मुक्त होते ही चंचल मन पूर्णतः
आत्म-अनुशासित, आत्म-नियंत्रित, आत्म-केंद्रित, आत्म-संस्कारित, आत्म-प्रबोधित, आत्म-जागृत, आत्म-व्यवस्थित अवस्था को प्राप्त भी कर
लेता है अर्थात पूर्ण संस्कारित रूप को धारण कर लेता है। शास्त्रानुसार तब कहीं
जाकर उसका अर्थात मन का सर्वांगीण विकास कहा जा सकता है। इसी अवस्था को पाने के
लिए पूरा का पूरा जीवन ही लग जाता है। फलतः कहें तो इसकी साधना एक प्रकार से अति सरल भी है और अति
कठिन भी है बस जो ज्ञानी जन हैं न वे इसके सैद्धांतिक स्वरूप को समझने,पकड़ने के पीछे पड़ते हैं उन्हें तो यह निचाट कठिन ही लगती है और जो साधारण
जन हैं न वे इसके व्यवहारिक स्वरूप को पकड़ने भर का प्रयास ही करते हैं तो उन्हें यह बहुत सरल भी लगती है अतः सभी को
विनीत भाव से इसके व्यवहारिक स्वरूप के आचरण, आचमन, अनुसरण, अनुगमन और अनुपालन की ही मात्र आवश्यकता
होती है, बाकी सब स्वतः ही पूर्ण होने को विवश होने लगता है। विनय के साथ मन पर
अत्यंत तनाव न डालते हुए केवल एक सामान्य से साधक अर्थात सेवक की भांति सामान्य सा
व्यवहार अर्थात प्रयास करते हुए सभी की अपने जीवन को इसी जन्म में सार्थक, सफल और साकार करने की मनोकांक्षा पूर्ण हो।
श्रेष्ठ व्यक्तित्व का निर्माण तभी
संभव हो सकता है, जब श्रेष्ठ धर्मानुकूलित प्रकृतिस्थ वातावरण तदनुरूप प्राप्त
होगा ऐसा श्रेष्ठ वातावरण बड़े भाग्य से ही
विरलों विरलों को प्राप्त होता है वह तब प्राप्त होता है जब ईश्वर की असीम अनुकंपा होती है। ऐसी विशिष्ट अनुकंपा पूज्य गुरुओं की
प्रशन्नता से ही ईश्वर द्वारा प्रदत्त
होती है। ऐसा वातावरण यानि कैसा वातावरण अर्थात् जहाँ पर प्रकृति का यत्र तत्र सर्वत्र पसरा परमानंदमयी आनंद हो, पक्षियों
की सर्वत्र बिखरी कलरवमयी गूंज हो, जीव जंतुओं के कुलों की
आकर्षित करने वाली मनोहारी किलकारी हो, लोकमाताओं अर्थात
नदियों की कल कल करती मुस्कुराती सुरलहरी
हो, गिरिवरों की निरंतर तन तन कर नभ को छूने वाली
महत्वकांक्षा हो, ब्रह्मचारियों की विविध खेलो से युक्त
अठखेलियाँ हो, यज्ञों से उठने वाली सुगन्धित धूम्र कतारें हो,
वेदों के सस्वर पाठों का सामगान हो, संगीत की
मन, चित्त लुभावनी भावभंगिमा हो, सद्गुणों
के अक्षय भंडार से पूर्ण भरा क्षितिज समान आँगन हो, प्रेम,
आत्मीयता, स्नेह, संबंध,
सहयोग और समर्पण का अलौकिक राग हो और साथ ही सम्पूर्ण शांति का
साम्राज्य हो ऐसे ही आनंद से भरे गुरु के कुल अर्थात गुरुकुल अर्थात विद्यालय की
जब ऐसी चित्ताकर्षक छवि होगी और परिवार रूपी संकल्पना को मूर्तरूप देती सुरम्य सी
झांकी होगी तब कहीं जाकर पंचकोशीय अवधारणा की स्वप्नवत लगने वाली साधना रूपी झांकी
की छवि सगुण रूप में साकार हो सकेगी।
हीरा का वास्तविक मोल तभी उचित आंका
जा सकता है जब कोई योग्य पारखी, ईमानदार और सच्चरित्रवान जौहरी के अपने
हाथों का उसको स्पर्श प्राप्त होता है। अर्थात उसका सम्मानित मूल्य समझकर उचित
कीमत लगाता है, अन्यथा कूड़े के भाव मे ही उसका अस्तित्व सिमट कर रह जाता है। यही
अवस्था उस विद्यार्थी की भी होती है जब उसे कोई सुयोग्य गुरु का स्पर्श अर्थात
सान्निध्य मिलता है । श्रेष्ठ गुरु के मिलते ही वह हीरे के समान बहुमूल्य हो जाता
है। यदि कहीं उसके जीवन में सुयोग्य गुरु का अभाव रहा तो निश्चित ही कूड़े के ढेर
में भी बदलने में देर नही लगती है इसलिए सुयोग्य गुरु ही जीवन को गढ़ सकता है,
बना सकता है,संवार सकता है, सजा सकता है और तो और उसे शालिग्राम का रूप भी दे सकता है। संक्षेप में
कहें तो यह कि विद्यार्थी के लिए तो गुरु ही साक्षात माता, पिता
और भगवान इन तीनो ही दायित्वों का निर्वहन करता है। इसलिए गुरु जानकर नही अपितु
छानकर (ढूढ़कर)करना चाहिए क्योंकि छानने में देर तो लग सकती है अपितु जैसा जीवन को
जौहरी चाहिए वह तभी संभव होगा।
विद्यार्थी
के व्यक्तित्व के निर्माण में अभिभावक अर्थात संरक्षक या यों सरल भाषा मे कहें कि
उसके माता पिता का भी बहुत बड़ा योगदान होता है। यदि उसके अभिभावक यथा- धर्म के
दसों मान बिन्दुओं का अक्षरसः आचरण करने वाले, ईश्वर को मानने वाले, अतिथि को भगवान समझने वाले, जीवों पर दया करने वाले,
परंपराओं पर चलने वाले, प्रकृति को माँ मानने
वाले, भेदभाव रहित सोच वाले, परिश्रम
करने वाले,साहस रखने वाले, धैर्य धारण
करने वाले, विवेक और संयम के स्वभाव वाले, शक्ति को मंगल कार्य मे लगाने वाले, पराक्रम करने
में निर्भय रहने वाले, आसक्ति रहित आचरण वाले,भक्ति सहित कार्य को पूजा मानकर करने वाले, निरहंकारी
मानसिकता वाले, उत्साही होकर प्रयास करने वाले,समन्वित आचार-विचार रखने वाले, विनम्र स्वभाव वाले, सत्य का एक निष्ठा से आग्रहपूर्वक पालन करने वाले,सबका
हित करने वाले, सम्पूर्ण चराचर जगत से निश्छल प्रेम करने
वाले और सहज, सरल, सुंदर, निर्मल मैन वाले साथ ही आकर्षक, मनोहारी छवि रूपी
व्यक्तित्व वाले यदि होंगे तो निश्चय ही तदनुरूप
उनकी संताने भी होंगी। ऐसा सौभाग्य विद्यार्थी को भी ऐसे अभिभावक को पाकर
तभी प्राप्त होता है जब उसके कई जन्मों के संचित पुण्यकर्मफल फलित होते है।प्रभु
सभी विद्यार्थियों को भी ऐसा सौभाग्य
प्राप्त हो।
सुपात्र अर्थात सुयोग्य विद्यार्थी को ही गढ़ा या
निर्माण किया जा सकता है परंतु जो कुपात्र या अयोग्य है उसे कौन गढ़ या निर्माण कर
सकता है उसे तो अभिभावक,
गुरु, विद्यालय की क्या बिसात ? फिर उन्हें तो चाहे तीनो ही लोकों
की सारी महाशक्तियां भी गढ़ने में या निर्माण करने में अपनी सारी उर्जा क्यों न लगा
दें वे तो अपूर्ण के अपूर्ण ही रहेंगे क्योंकि वे तो इस प्रक्रिया के अंग हो ही
नही सकते। ऐसी ही नियति नियंता द्वारा उनकी योजना निर्धारित है। ऐसी भारतीय लोक
मान्यता है लेकिन इन सबके बाद भी साधक को अपनी साधना को अवश्य निरंतर रखना चाहिये
क्योंकि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जात नित सिल परत निशान।। इस
उक्ति को सिद्ध भी करना है जिसे भारतीय मनीषियों ने अपने दीर्घकालिक संचित अनुभवों
से भूतकाल में कभी सिद्ध किया था। अंततः हार कर बैठना यह तो विशुद्ध कायरता का ही
सूचक होता है। अतः पुरुषार्थ करना धर्म धारण करना ही कहलाता है फलतः इसी धर्म
पालना में ही जीवन जीने का रहस्य छिपा हुआ है इसलिए पुरुषार्थमय सार्थक जीवन जीने
का प्रयास ही सच्ची साधना अर्थात तपस्या है ।
सुपात्र की भारतीय संकल्पना बड़ी ही स्पष्ट है।
सुपात्र यानि कौन?
सुपात्र की विशेषताये यानि क्या? सुपात्र के
लक्षण यानि क्या? शास्त्रानुसार सुपात्र यानि वह व्यक्तित्व
है जो शारीरिक रूप से पूर्ण सिद्ध हो, प्राणिक रूप से पूर्ण
सिद्ध हो, मानसिक रूप से पूर्ण सिद्ध हो, बौद्धिक अर्थात वैचारिक रूप से पूर्ण सिद्ध हो और आत्मिक रूप से भी
पूर्णतया सिद्ध हो । यही पंचकोश आधारित
सिद्धता ही एक सफल व्यक्तित्व अर्थात सुपात्र की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि की होती है।
ऐसा व्यक्तित्व ही सम्पूर्ण सृष्टि को शारीरिक सौष्ठव से आकर्षित करने वाला,प्राणिक संकल्प से प्रभावित करने वाला, मानसिक सामर्थ्य से मोहित करने वाला,बौद्धिक प्रखरता से स्पष्टता रखने
वाला और आत्मिक चेतना से आनंदित करने वाला
विशुद्ध अर्थात निरापद होता है । जो
सुपात्र के वास्तविक स्वरूप को मूर्तरूप देने में सहायक की भूमिका भी निभाता है।
ऐसी सुपात्र जैसी ओजस्वी,तेजस्वी छवि के सान्निध्य के
सौभाग्य के सभी अधिकारी बनें।
प्राणिक सिद्धता क्या है ? इसे ढुलमुल तरीके से ही परिभाषित करने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि
इस संदर्भ में इधर कोई कुछ कहता तो उधर कोई कुछ कहता परन्तु साधारण जन को तो कुछ
भी समझ में ही नही आता क्योंकि उसको तार्किक संभ्रम की, अध्यात्म
गूढ़ की, अलौकिक शास्त्र की, विशुद्ध
ज्ञान की, निरापद तत्व ज्ञान की,उन्नत
विज्ञान की और परम आदर्श की भाषा समझ मे ही नही आती उसे जो समझ मे आती उसमे कोई कुछ कहता ही नही तो उस बेचारे का
समाधान कब, कैसे और कहां होगा जो उसे भी अन्य लोगों के समान
स्तर पर लाकर खड़ा कर सके। आइये उसके स्तर पर जाकर कुछ प्रयास करने का उद्यम शुरू
हो। वह यह कि परमात्मा ने हर जीव को गिनकर अर्थात निर्धारित स्वासें ही दी है
उन्हें हम जितने अधिक दिन तक संभाल कर या बचाकर रखेंगे उतने अधिक दिन तक हम जीवित
रहकर प्रभु के काम को कर सकेंगे और यदि उन्हें हम जल्दी जल्दी खर्च या व्यय या
नष्ट करेंगे तो उतने कम दिन ही जीवित रहकर प्रभु का कार्य कर सकेंगे ।
मानसिक सिद्धता क्या है ? इस
विषय पर भी भारत के अनेकों विद्वानों के अनेकों मत है। भारत में एक मत पर सहमत
होना उतना ही कठिन है जितना कि तराजू के एक पलड़े में एक साथ मेंढकों को तौलना,
फिर सोचिए एक मत पर सहमति संभव कैसे ? इतनी
विविधता होने के बाद भी भारत के विद्वान एक मत पर सहमत होते अवश्य दिखाई देते हैं।
वह यह कि व्यक्ति को ईश्वर को पाने के लिए सब कुछ लुटाकर अर्थात खोकर पागल होना
पड़ता है इस पागलपन से ही ईश्वर की साक्षात निकटता,उपस्थिति
का साकार,सजीव आभास किया जा सकता है। इस पागलपन के लिए
व्यक्ति को गूढ, लंबी, जटिल , टेढ़ीमेढ़ी, कठोर और
तत्वज्ञान की साधना की आवश्यकता पड़ती ही नही बस पड़ती है तो केवल उसे
कृतसंकल्पित होने की, कृतसंकल्पित होने मात्र से ही हृदय में
विश्वास पैदा होने लगता है, हृदय में विश्वास के आते ही श्रद्धा बलवती होने लगती है, श्रद्धा के बलवान होते ही हृदय में निर्मल, निश्छल
और विशुद्ध सात्विक प्रेम की गंगा बहने लगती है इसी प्रेम रूपी गंगा की धारा में
साक्षात भक्ति सगुण रूप में समाहित रहती है। विशेष बात यह है कि यह जो भक्ति है न
वह निरा अंध, मूक और बधिर ही होती है। उसकी न तो आंखे होती न ही वाणी ही होती, न ही कान होते और तो और उसकी समस्त
इंद्रियां भी शून्य अवस्था मे ही होती है। ऐसी अवस्था को ही मानसिक सिद्धता
की पराकाष्ठा कहा जा सकता है। इसलिए मानसिक सिद्धता के लिए मन का संकल्पित होना
अति आवश्यक है इसी एक संकल्प रूपी बांह को पकड़ने मात्र से मन को पूर्ण सिद्ध करने
का मार्ग सरल हो जाता है
वैज्ञानिक या बौद्धिक या वैचारिक सिद्धता क्या है । इस संदर्भ में भी अनेकों मत
और विमत हैं। लेकिन भारत की जैसी अपनी विशेषता है तदनुरूप उसकी प्रस्तुति भी
जगविदित है क्योंकि भारत के लगभग अधिकतम विद्वतजनों में पारस्परिक सहमति लगभग
असंभव सी ही रहती है। यहां तो सहमति होना अर्थात अपनी पराजय स्वीकार करना समझा
जाता है। फिर ऐसी विषम परिस्थिति में निर्णय हो ही नही सकता इसलिए मत और विमत से
ऊपर उठकर संशयात्मक नही निर्णयात्मक दृष्टिकोण अपनाकर मार्ग तय करना होगा। यह जो
निर्णयात्मक मार्ग है न वही वास्तव में भाव निर्मित मार्ग है। उसी की यात्रा जीवन
को संभ्रम से सदा सर्वदा के लिए मुक्त कर सकती है। यह जो संशयात्मक मार्ग है न वह
पूर्णतः कुमति अर्थात कुबुद्धि अर्थात दुर्बुद्धि अर्थात अविवेक जो निरा अंधकार से
परिपूर्ण प्रेरित होता है। निश्चय यही संशय, भ्रम, संभ्रम, संदेह, अविश्वास,
अश्रद्धा, मूढ़ता, दम्भ,
द्वेष, ईर्ष्या, कलह,
अज्ञान, काम, क्रोध,
लोभ, मोह और अहंकार का प्रतीक हो जाता है जो
अनाचार, अधर्म, पाखंड, दुराचार, व्यभिचार और अत्याचार की गहरी खाई बनकर पतन
के गर्त में डुबोने में सहायक भी बन जाता है। अर्थात नाना विपत्तियों का घर बन
जाता है । और यह जो निर्णयात्मक मार्ग है न वह तो सुमति अर्थात सद्बुद्धि अर्थात
सुबुद्धि या यों पूर्ण रूप से कहें कि विवेक जो शुद्ध और अशुद्ध का विशुद्ध ज्ञान
रखता है और जो उत्थान,उन्नति, सन्मार्ग,
सद्मार्ग,परम गति,परमोत्कर्ष
और मोक्ष अर्थात नाना संपत्तियों का घर जो
भाव स्वरूप बनकर परमात्मा तक पहुंचने के
लिए सारे द्वार खोल देता है और परम गति का मार्ग निष्कंटक कर देता है। वह बड़ा ही
सुखकारक होता है। यही एकमेव मार्ग जो बुद्धि के विकास से लेकर विवेक के विकास तक
और तदुपरांत भाव की अनंत गहराई के पूर्ण विकास तक का साक्षात पथप्रदर्शक बनकर पालक
की भूमिका निभाता। आइये इसी यात्रा के प्रत्यक्षदर्शी बने।
आनंद
अर्थात आत्मा की सिद्धता क्या है ? इस विषय पर भी बहुत कुछ
बोला गया है और लिखा भी गया है। आनंद की सिद्धता कोई बोलने या लिखने का विषय नही
है यह तो केवल अनुभूति का या आभास का विषय है जिसे तो केवल अंदर ही अंदर आनंद लिया
जा सकता है जैसे कोई शिशु न तो कुछ बोल सकता है, न ही कुछ कर
सकता और न ही कुछ लिख भी सकता है अपितु आनंद से भाव विभोर जरूर हो सकता है। यह जो
भाव विभोर वाली अवस्था है न वास्तव में यही सच्ची आनंदमयी या यों कहें कि आत्मा की
सर्वोन्नति की अवस्था है। यहां तक पहुंचने के लिए तत्व शुद्धि अर्थात मिट्टी स्नान,
वायु स्नान,धूप स्नान,जल
स्नान और आकाश छत के नीचे स्नान अर्थात इनकी मुक्त संगति मात्र से ही तन स्वस्थ्य
तो प्राण स्वस्थ्य, प्राण स्वस्थ्य तो मन स्वस्थ्य, मन स्वस्थ्य तो बुद्धि स्वस्थ्य और
बुद्धि स्वस्थ्य तो भाव स्वस्थ्य। भाव के स्वस्थ्य होते ही आत्मा के
सान्निध्य का मार्ग निर्बंध प्रशस्त हो जाता है। यह भाव अर्थात भक्ति यह तभी उत्पन्न होती है जब
हृदय रूपी जीवन में निश्छल प्रेम, निर्मल प्रेमयुक्त ज्ञान
और निष्काम प्रेमयुक्त कर्म की त्रिवेणी का जीवन के प्रयागराज में अभिन्न संगम होता है और तब कहीं
जाकर मोह जनित घोर अंधकार का बक्ष चीर कर भक्ति रूपी गंगा सकल संतापों को हरती हुई
परमात्मा रूपी गंगासागर से मिलने के निर्भय,निष्कंटक,
निश्चिंत और लालायित होकर निकल पड़ती है ऐसी उच्चावस्था में तो स्वयं
परमात्मा को भी अपनी सभी सुख, सुविधायें और वैभव रूपी सकल
स्वर्गिक आकर्षण को छोड़कर नंगे पांव ही दौड़कर उसे गले लगाने के लिए अर्थात आलिंगन
में भरने के लिए द्वार पर आना पड़ता है तभी
तो सर्वस्व समर्पण के कारण आत्मा परमात्मा का मुक्त मिलन संभव हो पाता है इसी
अवस्था का नाम है आनंद और आत्मिक सुख की प्राप्ति। ऐसी ही प्रभु की आलिंगन रूपी कृपा सभी को प्राप्त हो।
पंचकोशीय विकास की सिद्धता मानव
को पूर्ण मानव बनाकर पशुत्व की श्रेणी से ऊपर उठकर देवत्व के मार्ग
पर चलने का पूर्णतः अधिकारी बना देती है जहाँ पर विद्या देवी का ही निष्कंटक
साम्राज्य होता है। यह जो विद्या का सात्विक मार्ग है न, वह
बड़ा ही उत्तम मार्ग है इस मार्ग के अनुगामी होते ही विनम्रता (सरलता) स्वमेव आ ही
जाती है जब विनम्रता आ जाती है तो स्वाभाविक पात्रता (योग्यता) भी आ ही जाती है। पात्रता के साथ साथ
धन (वैभव) भी आकर द्वार पर उपस्थित हो जाता है। धन के आगमन पर धर्म का बोलबाला
बढ़ने लगता है जब जीवन में धर्म की वसंत बहार छाने लगती है तो चंहु ओर सुख ही सुख
की अमृत वर्षा होने लगती है। देखा न कि विद्या देवी न जाने कितनी ही अलौकिक
संपदाओं को लेकर जीवन मे आती है इसलिए मनीषियों ने कहा भी है कि ।। एकै साधे सब
सधें, सब साधे सब जायँ।। अतः सावधानी पूर्वक मन लगाकर अर्थात
दत्तचित्त होकर विद्या देवी की एक मात्र शरण मे चलेजाने से जीवन निरा निष्कंटक, निश्चिंत, निर्भय, निर्दोष और
निश्छल हो जाता है। यही जीवन की मुक्ति का एक अनुभव जन्य मार्ग भी है उसी के
अनुगमन मात्र से जीवन सार्थक, सफल और मोक्षाधिकारी हो सकता
है।
पंचकोशीय विकास यात्रा में आत्मा की तेजस्विता
द्विगुणित हो जाए और ओजस्विता भी द्विगुणित हो जाये साथ ही उसका सामर्थ्य भी अपारवल
में परिवर्तित होकर भगवतरूप में ही प्रकट हो जाये और चैतन्यता भी अतीव दिव्य रूप
को धारण कर नारायणत्व को प्राप्त हो जाए । वास्तव में यही आत्मा की ऊर्ध्वगति
अर्थात परमगति, मोक्षगति कहला सकती है। यह जो आत्मा की ऊर्ध्वगति की बात है न वह कहने
मात्र से नही आ सकती कि इस प्रकार सरलता से कह दिया कि वह आ गयी ऐसा नही है।
परिणामतः तेजस्विता, ओजस्विता, सामर्थ्य, चैतन्यता ही आत्मा की सर्वोन्नति है अब यह होगी कैसे? इसके लिए जो भारतीय मनीषियों ने अपने अनुभवजन्य शोधों से पूर्णतः परिष्कृत
सुगम मार्ग सुझाया है। वह अत्यंत सर्व सुलभ और सर्व ग्राह्य है बस उस पर मात्र
चलने अर्थात पालन या यों कहें कि उसके आचरणभर करने की आवश्यकता है। यह जो महामंत्र
है वह यह है कि तप करो यानि क्या करो ?
व्यवहारिक भाषा मे ऐसे कहा जा सकता है कि ऐसे ऐसे धार्मिक
कार्य करो जिससे सकल भोगों से विरक्ति हो
जाये। भोगों से विरक्ति कराने वाले वे सभी धार्मिक कार्य तप ही कहलाते हैं यथा-
व्रत, संकल्प, संयम, अनुशासन, भजन, स्मरण, मनन, चिंतन, अध्ययन ,पूजन, पठन और ध्यान आदि। इनके दर्शन से भी बदलाव आ
सकता है। इनके आचमन से भी बदलाव आ सकता है। इनके मज्जन अर्थात स्नान अर्थात इनमे
डूबने विलय, निमग्न या भक्तिरूप होने से भी बदलाव आ सकता है।
ये कोई कठिन मार्ग नहीं है बस किसी एक की बांह पकड़ लो कि भाव सागर पार हो गए फिर
अब काहे की देरी। आलस्य त्यागो और चरैवेति
चरैवेति महामंत्र के समर्पित भगव से
अनुगामी बने।
पंचकोशीय विकास यात्रा की सर्वोन्नति की आनंदमयी
उपलब्धि में जिस प्रकार विद्या और तप का विशेष योगदान रहता है उसी प्रकार दान का
भी कुछ कम योगदान नही रहता है । अर्थात दान का भी विशेष बढ़चढ़कर योगदान रहता है। अब
यह प्रश्न उठता है कि दान का किस प्रकार योगदान रहता है तो यह स्पष्ट है कि दान ही
एकमेव ऐसा सद्गुण है जो मनुष्य के हृदय में कुछ देने का भाव जगाता है जिससे निजी जीवन मे अभावग्रस्त,आवश्यकतामंद
और अपेक्षा हित प्रतीक्षितों को अपनी आय में से प्रभु की आज्ञा ही मानकर इन सभी का
भी दसवां हिस्सा है। इस पर पूरा मेरा ही अधिकार न होकर इन सभी समाज बंधु , भगिनियों का
भी उतना ही अधिकार है जितना कि मेरा है। इसी भाव की निर्मिति के लिए दान का जीवन
में विशेष महत्व रहता है। वैसे तो लौकिक जगत में दान की तीन श्रेणियां कहीं गई है
उनमे से पहली नित्य दान अर्थात आय का दसवां अंश नित्य दान देना, दूसरी नैमित्तिक दान अर्थात शुभ या अशुभ अवसरों पर दान देना और तीसरी
काम्य दान अर्थात किसी कामना की पूर्ति हेतु दान देना। गीता में भी भगवान कृष्ण ने
अर्जुन को दान का महत्व बताते हुए दान के विविध प्रकारों पर भी विशेष उल्लेख किया
है। जिनमें प्रथम है सात्विक दान अर्थात
देश, काल परिस्थिति और पात्र के अनुसार अपना कर्तव्य समझकर
दान देना , द्वितीय है राजसी दान अर्थात ईच्छा की पूर्ति के
लिए उत्साह के बिना ही दान देना और तृतीय है तामसी दान अर्थात अनुचित, काल,स्थान और पात्र को श्रद्धा के बिना ही दान देना।
इस प्रकार भारतीय वांग्मय में दान की बड़ी ही भूरिभूरि प्रशंसा के साथ साथ गुणगान भी किया गया है। अतः संक्षेप में कहा जा
सकता है कि दान ही एक ऐसा मंत्र है कि जिसे धारण करने से मनुष्य पशुत्व की श्रेणी
से मुक्त होकर दैवत्व की उच्चतर श्रेणी में प्रवेश कर आध्यात्म असीम सुख का पूर्ण
अधिकारी बन जाता है। अंतिम में यही विनम्रतापूर्वक प्रार्थना करता हूँ कि देश,
काल, परिस्थिति को ध्यान में रखकर सुपात्र को
दान देने से जीवन की सर्वांग उच्चता की समाज जगत मे अवश्य ही सुंदर प्राण प्रतिष्ठा होकर जीवन को
सूर्य समान आलोकित कर यशस्वी बनाने में सहायक हो जाती है।
पंचकोशीय विकास यात्रा में ज्ञान का भी बहुत
महत्व है। ज्ञान का सागर तो अथाह होता है जिसे जितना खोजो उतना बढ़ता ही जाता है
बिना किसी सीमा के। परंतु विस्तार से इस प्रकार जाना जा सकता है। यथा-
प्रथम- प्रामाणिक
ज्ञान को हम विज्ञान या पदार्थ ज्ञान भी कह सकते हैं जो भौतिक पदार्थों के गुणों
और विशेषताओं पर आधारित होता है और जिसकी सत्यता के प्रमाण मौजूद होते हैं। यथा-
पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा और उसके परिणामों का ज्ञान, हवाई
जहाज़ उड़ाने का ज्ञान, ऐयर कंडिशनर से ठंडक पैदा करने का ज्ञान,
मोबाइल फ़ोन से दूर दूर तक बातें कर पाने का ज्ञान और भवन निर्माण
का ज्ञान आदि।
द्वितीय-आध्यात्मिक ज्ञान जिसमें
मुख्यतः धार्मिक मान्यताएँ और भावनात्मक विषयों से सम्बंधित व्याख्यायें सम्मिलित
होती हैं, यह पूर्णतः परिकल्पनाओं और लक्षणों पर आधारित होता है। यथा-परमेश्वर
सम्बंधित ज्ञान, जन्म और मृत्यु से आगे और पीछे की अवस्था का
ज्ञान, मन की शांति और अशांति का ज्ञान, प्रेम और घृणा के कारणों का ज्ञान, विकारों और
स्वभावों का ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति के साधनों का ज्ञान आदि।
तृतीय- व्यावहारिक ज्ञान तो मुख्यतः
अनुभवों पर आधारित होता है। इसके आधार में
परिस्थितियों और समय बीतने के साथ साथ विभिन्न स्रोतों से प्राप्त विभिन्न प्रकार
का ज्ञान होता है,
जिससे व्यक्ति के आचरण,
व्यक्तित्व और चरित्र का निर्माण होता रहता है। दूसरे शब्दों में
कहें तो यह ज्ञान व्यक्ति-विशेष की विशिष्ट पहचान बनाता है। यथा-बड़ों का आदर और
सम्मान करने का ज्ञान, नम्रता का ज्ञान, दैनिक दिनचर्या का ज्ञान, कार्य स्थल पर सहयोगियों
से बर्ताव का ज्ञान, सहयोग और सहायता देने और लेने का ज्ञान,
सगे संबंधी अर्थात परिवारीजनों
के संरक्षण का ज्ञान और स्वास्थ्य सम्बन्धी सावधानियों का ज्ञान आदि। इस
प्रकार संक्षेप में कहें तो व्यक्तित्व विकास में ज्ञान का कुछ कम महत्व नही होता
है इसका दैवत्व यात्रा की पूर्णतः में
विशेष योगदान होता है।
पंचकोशीय विकास यात्रा में शील रूपी गुण का बहुत
अधिक महत्व है। मनीषियों ने कहा भी है कि जो लोग न तो विद्यावान हैं और न ही
जिनमें ज्ञान,
तप और शील आदि गुण हैं, ऐसे लोग पृथ्वी पर भार
स्वरूप होते हैं। वैसे तो शील शब्द मनुष्य के चरित्र का परिचायक है, लेकिन यह व्यापक रूप में प्रयुक्त होता है। जैसे मानवीय मूल्यों और
सामाजिक संबंधों पर आस्था होना, कोई भी ऐसा काम न करना जिससे
लज्जित होना पड़े। स्वाभाविक सौम्यता, प्रलोभनों से परे होना
और चंचलता, वाचालता आदि का न होना।
भगवान श्री राम "वाल्मीकि
रामायण" में कहते हैं कि मनुष्य भले ही बड़ा ज्ञानवान, बलवान,
कुलवान और धनवान हो, परंतु यदि वह शील से रहित
है तो वह समाज में विश्वसनीय नहीं होता और न ही किसी तरह से आदर पाता है। इसके
विपरीत यदि वह भले ही छोटे कुल का साधारण व्यक्ति हो, परंतु
शील संपन्न हो तो वह सबका विश्वास और आदर पाता है। गोस्वामी तुलसी भी कहते हैं कि
जैसे नदियां समुद्र की ओर जाती हैं यद्यपि उन्हें इनकी कामना नही होती है वैसे ही
सभी गुण और संपदाएं शीलवान व्यक्ति के पास अपने आप आ जाती हैं।
भारतीय नारी की पहचान तो केवल शील
से ही होती है। शील से रहित भारतीय नारी की कल्पना भी नहीं की जा सकती। शील गुण
जन्मजात भी होता है और संस्कार के अभ्यास से विकसित भी किया जाता है, परंतु
जीवन में जैसे प्राण आवश्यक है वैसे ही वैयक्तिक,व्यवहारिक,परिवारिक-सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक जीवन में
शील गुण का होना अनिवार्य है। शील संपन्न व्यक्ति को संतोष व शांति का अनुभव होता
है। वह न केवल स्वयं का जीवन सफल करता है, बल्कि दूसरों के
लिए प्रेरणा का स्रोत भी होता है। ऐसे बहुमूल्य दिव्य रत्न को धारण करने से जीवन
मुत्यु से निर्भय होकर अजर अमर हो जाता है।
पंचकोशीय
विकास यात्रा में गुणों का भी विशेष योगदान होता है। प्राय: जन्मजात रूप में सभी
मनुष्य अनेक सद्गुणों से युक्त होते हैं। अलग-अलग आयु में मनुष्यों के सम्मुख
उभरने वाली जीवन की असहज, कठिन और असाध्य परिस्थितियां
उन्हें उनकी मूल चेतना व स्वभाव से विमुख कर देती हैं। इन परिस्थितियों में यदि
कोई मनुष्य अपने मूल स्वभाव और मानवीय सद्गुणों के साथ डटा रहता है तो उसका जीवन न
केवल उसके लिए, बल्कि जीवन के सहज मार्ग से भटके हुए दूसरे
लोगों के लिए भी बड़ा प्रेरणास्रोत बनता
है। यदि मनुष्य हारी-बीमारी में भी अपने विनयी, सदाचारी,
दयालु, प्रेमी, करुणामयी,
परोपकारी, संयमित और मानवीय भावों से परिपूर्ण
व्यवहार को नहीं छोड़ता तो फिर दुनिया में कोई भी कष्ट उसे कष्ट प्रतीत नहीं होता।
इस विशिष्ट गुण को धारण करनेवाले मनुष्यों के जीवन में मुश्किलें आती भी हैं,
पर उन्हें विचलित किए बिना खत्म भी हो जाती हैं।
इस तरह व्यक्तित्व में समाहित
प्राकृतिक सद्गुणों के साथ अपनी आत्मचेतना को संजीवित रख हम किसी भी तरह की जीवन
परिस्थिति में हंसते-खेलते समायोजित हो जाते हैं। मानव जीवन का यह गुण सबसे महान
गुण है। व्यक्तित्व के आधार पर मनुष्य के जन्मजात गुण सभी में विद्यमान होते हैं।
कोई भी किसी भौतिक अभाव के कारण यह नहीं कह सकता कि उसके पास सद्गुणों का अभाव है।
सभी के पास व्यक्तित्व के गुणों की प्राकृतिक संपत्ति तो होती ही है। आवश्यकता
मात्र इतनी ही है कि जीवन के दुखपूर्ण और कष्टसाध्य समय में ऐसे गुणों का निरुपण
व्यक्ति स्वयं में किस दक्षता के साथ कर सकता है। ईश्वर ने मनुष्य को इसीलिए विशेष
बुद्धि प्रदान की है ताकि वह सांसारिक समस्याओं के मध्य कुंठित, भ्रमित
और विचलित न होकर अपने गुणों की सहायता से सदैव स्थिर रहे। वास्तव में सद्गुण एक
ऐसी पूंजी है, जिसका कभी क्षय नहीं होता। याद रखें, विपत्ति में सद्गुण ही काम आते हैं।
पंचकोष विकास के लाभ
-
पंचकोशीय
विकास यात्रा में धर्म का अति महत्वपूर्ण योगदान होता है। जिसको महर्षि मनु ने भी मानव धर्म ग्रंथ मनुस्मृति में धर्म की विवेचना
करते हुए लिखा है कि-
धृतिः क्षमा
दमोडस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
धर्म अथवा मानव धर्म के रूप मे मनु ने उन मानवीय
गुणों का उल्लेख किया है,
जो सभी के लिए अनुकरणीय है।--
1. धृति-धृति का
तात्पर्य जीभ अथवा जननेन्द्रियों को संयमित रखना है। जो व्यक्ति इस गुण को विकसित
कर लेता है,
वह धीर कहलाता है।
2. क्षमा-सबल होते
हुए भी उदार कार्य करना क्षमा कहलाता है, किन्तु कायरता क्षमा नही है।
3. संयम-शारीरिक और
मानसिक वासनाओं को रोककर अपने को शुद्ध और नियमित बनाना संयम है।
4. अस्तेय-सामान्यतया
अस्तेय का तात्पर्य चोरी न करना है, जो इसे अपना लेता है उसे सारी
समृद्धि अपने आप मिल जाती है।
5. शुचिता-शुचिता का
तात्पर्य पवित्रता है। शुचिता मन, जीवात्मा और बुद्धि की पवित्रता का नाम
है।
6. इन्द्रिय-निग्रह-
मानव का एक निश्चित लक्ष्य होता है। उस लक्ष्य की प्राप्ति तभी संभव है, जब
वह इन्द्रियों पर नियंत्रण रखे। इन्द्रिय निग्रह का तात्पर्य इन्द्रियों को
नियंत्रित रखना है।
7. धी-धी का अर्थ
बुद्धि है। मानव बुद्धि का समुचित विकास करना धर्म का महत्वपूर्ण लक्षण है।
8. विद्या-वेदों मे
विद्या को अत्यंत ही महत्व प्रदान किया गया है। वास्तव मे विद्या प्राप्त कर लेने
से मनुष्य काम,
क्रोध, लोभ, मोह,मद, मत्सर और मन की क्षुद्र प्रवृत्तियों से छुटकारा
प्राप्त कर लेता है।
9. सत्य- सत्य
धर्म का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। " सत्यं वद्,धर्मम्
चर" अर्थात् सत्य का अनुसरण ही धर्म का अनुसरण है। सत्य की पहचान और सत्य के
अनुसरण के समान दूसरा कोई धर्म नही है।
10. अक्रोध-जैसा गीता
मे कहा गया है कि कामनाओं की पूर्ति मे विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है
जिससे व्यक्ति असामान्य व्यवहार करने लगता है। क्रोध न करना भी मानव धर्म है।
अक्रोध के द्वारा ही मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन कर सकता है। ये धर्म की दस
सीढियां ही मानव को नारायण पद प्राप्त कराने में अतीव सहायक सिद्ध होती हैं।
पंचकोशीय
अवधारणा के अंतर्गत धर्म का वह वैयक्तिक अर्थात व्यवहारिक रूप जो जीवन को वसंत की
तरह महका देता है। वह है पितृ धर्म यथा- एक बच्चे के सपूर्ण विकास में एक पिता का
योगदान माता के योगदान से कुछ कम नहीं होता यानि कि अपने बच्चों की कठिन समस्या के
आगे पिता स्वयं एक चट्टान की तरह खड़ा हो जाता है और अपने बच्चों पर जरा सी भी आंच नहीं आने देता। पिता का
व्यक्तित्व आपको भले ही ऊपर से कठोर लगे लेकिन वो ही कठोर पिता के अंदर से अपने
बच्चों के लिए हमेंशा प्यार ही होता है। अक्सर पिता अपने बच्चों पर लाड प्यार भले
न जताएं लेकिन अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए अपना दिन रात एक कर देते है। बच्चों
के लिए एक पिता वटवृक्ष की तरह होता है जो अपने बच्चों के सुख और दुःख में हमेंशा
साथ होते हैं यानि कि एक पिता बच्चों के
लिए किसी भगवान से कम नहीं होते वो पिता ही होता है जो अपने बच्चो के सपनों को
पूरा करने की सोच रखता है और वो ही ये चाहता भी है कि मेरा बच्चा मेरे से भी ज्यादा तरक्की करे।
बच्चो की चाहे छोटी समस्या हो या बड़ी उनका समाधान केवल पिता के पास ही होता है। पिता के बिना बच्चों की जिन्दगी कटी पतंग की तरह होती है जो कहाँ ले जाएगी
ये भी मालूम नहीं होता केवल पिता ही होते हैं जो सही क्या है ? और गलत क्या है ? इसका ज्ञान देते हैं और सही रास्ते
की पहचान करवाते हैं। पिता के बिना कोई अस्तित्व ही नहीं है। जीवन में पिता होना ही बच्चों के लिए काफी है क्योकि पिता ही हमारी पहचान
होते हैं लेकिन हम पिता को जीते जी पहचान नहीं पाते। पिता का महत्व उनसे पूछो
जिनके सिर पर पिता का हाथ नहीं है । पिता का प्यार अनमोल, बेजोड़
और बहुमूल्य होता है। पिता के आशीर्वाद से ही बच्चे बड़ी से बड़ी कामयाबी हासिल कर सकते हैं। पिता
का हमारी ज़िन्दगी में होना ही काफी है क्योकि जिनके पास पिता होते है उनके पास
दुनिया की सबसे बड़ी ताकत होती है। "पितृ देवो भव"
पंचकोशीय
संकल्पना में व्यक्तित्व विकास में माँ का कोई कम योगदान नही होता है। अतः अनुभवों से तो यह स्पष्ट है कि माँ का ही
योगदान सबसे बढ़चढ़ कर होता है। सरल भाषा मे यों कहें तो यह कि ईंट और पत्थर से बने
मकान को माँ ही घर बनाती है। और जिस घर में माँ का वास हो भगवान का वास भी उसी घर
में होता है। मात्र इतना ही नहीं माँ के हाथों में भी ऐसा जादू होता है कि दुनिया
का हर स्वादिष्ट व्यंजन उसके बनाये व्यंजनों के आगे फीके लगते हैं। व्यक्ति कितना
भी बड़ा क्यों न हो जाए लेकिन अपनी माँ के लिए तो वो एक छोटा सा बच्चा ही रहता है।
संसार में जितने भी महापुरुष, साधू-संत और ज्ञानी लोग
हुए हैं सबको एक माँ ने ही जन्म दिया है। शिक्षक अगर देश के भविष्य का निर्माण करते
हैं तो माँ उस भविष्य के आधार को जन्म देती है। जब माँ हमसे दूर चली जाती है तो
हमें सदैव उसकी कमी खलती है। उसकी लोरियां याद आती हैं। उसके आँचल में बीता बचपन
प्रायः ही हमारी आँखें नम कर जाता है। जिन्दगी में हम जब भी कोई सम्मानित स्थान
प्राप्त करते हैं तो उसका श्रेय सबसे ज्यादा और सबसे पहले माँ को ही जाता है। यूँ
तो माँ अपना सारा जीवन अपने बच्चों के नाम कर देती है। लेकिन फिर भी उसके बलिदान
को वो पहचान नहीं मिल पाती जिसकी वास्तव में वह सच्ची अधिकारी होती है।
अगर कोई व्यक्ति अपनी माँ को खुश
रखता है तो उससे भगवान् भी सदा ही खुश
रखते हैं। हमें कभी भी जीवन देने वाली और पालन पोषण करने वाली माँ को दुःख नहीं
पहुँचाना चाहिए। उसके आंखों में आंशू नही आने देना चाहिए। माँ भगवान का वो वरदान
है जो बड़े बड़े भाग्यशालियों को ही मिलता है। हमें उसके पूर्ण त्याग,निस्वार्थ
समर्पण और अनथक परिश्रम को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। बल्कि यह प्रयास करना
चाहिए कि माँ सदैव प्रसन्न रहे, आनंदित रहे और तन मन धन जीवन
से सदा स्वस्थ्य रहे। इसी में सबके जीवन का सम्पूर्ण सार है।
पंचकोशीय
विकास यात्रा में पति का धर्म ईश्वर के धर्म के समान ही होता है। जैसे-घर की सारी
जरूरतों का ध्यान रखना, खाने पीने की और पहनने,
ओढ़ने की जरूरतों को पूरा करना, बच्चों को किसी
बात की कमी ना होने देना और सबका भविष्य
सुरक्षित रहे इसके लिए हमेशा चिंतित रहना, सुबह से शाम तक
कुछ रुपयों के लिए घर और बाहर वालों की और अपने अधिकारियों की खरी खोटी हमेशा
सुनना, परेशानी ऒर गम में साथ देना, सभी
के अच्छे जीवन और रहन-सहन के लिए दूरदराज जाकर सारे सगे संबंधियों को यहां तक कि
अपने माँ बाप को भी छोड़कर जंगलों में भी नौकरी करने को तैयार रहना, घर के गैस,बिजली,पानी, मकान, मरम्मत एवं रखरखाव, सुख-सुविधाओं,दवाईयों, किराना, मनोरंजन
भविष्य के लिए बचत, बैंक, बीमा, अस्पताल, स्कूल, कॉलेज,
पास-पड़ोस, ऑफिस और ऐसी ही ना जाने कितनी सारी
जिम्मेदारियों को एक साथ लेकर चलना निभाना,उनकी चिंता करना,
बीमारी में पूरा ध्यान ऒर सेवा करना, एक
बात और जब पति इतना सारा काम ऒर सबका
ध्यान रखता है तो क्या कभी वह इस बात के पैसे लेता है ? नही
न। फिर पति की कमी ही नजर क्यों आती है।
उसकी इतनी सारी खुबियां नजर क्यों नही आती हैं। अरी बहना! जब तुम दुःखी हो तो वो
तुम्हे कभी अकेला नहीं छोड़ता, वो अपने दुःख को अपने ही मन
में रखता लेकिन तुम्हें नहीं बताता ताकि तुम दुखी ना हो । हर वक्त, हर दिन तुम्हे कुछ अच्छी बातें सिखाने की ही कोशिश करता ताकि वो कुछ समय
शान्ति के साथ घर पर व्यतीत कर सके और दिन भर की परेशानियों को भुला सके। हर छोटी
छोटी बात पर तुमसे झगड़ा तो कर सकता है, तुम्हें दो बातें
बोल भी सकता है परंतु किसी और को तुम्हारे बारे में कभी कुछ नहीं बोलने देता,
तुम्हें आर्थिक मजबूती देता और तुम्हारा भविष्य भी सुरक्षित करता।
कुछ भी अच्छा ना हो फिर भी यही कहता कि चिन्ता मत करो, सब
ठीक हो जाएगा। माँ बाप के बाद तुम्हारा पूरा ध्यान रखता और हर प्रकार की सुविधा और
सुरक्षा देने का काम करता, तुम्हे चिंता ना हो इसलिए दिन भर
परेशानियों में घिरे होने पर भी तुम्हारे फ़ोन बिना खीझे सुनता और हर समस्या का
समाधान करता, चूंकि पति ईश्वर का दिया एक अनमोल उपहार है
इसलिए उसकी ईश्वर मान सेवा करना।
पंचकोशीय
अवधारणा में जो पत्नी अपने पति को ही परमगुरु,
पूज्यनीय, परमेश्वर मान कर तन, मन,
धन से, हृदय से सेवा करे, विनय भरा
व्यवहार करे, सेवा के लिए मानसिक रूप से तैयार रहे, सेवा ही अपना सदैव सौभाग्य माने, पति परायण होकर पति
आज्ञा का आदर करे, बातों को मूल्य,
महत्व दे, पति पथ विमुख हो गया हो तो उसे सही रास्ते पर लाने
, उसके मनोबल को ऊंचा उठाने, उसकी
शक्तियों को बढ़ाने के लिए प्रयास करे, पति में विश्वास रखे, सक्षम अनुभव कराए, ताकतवर अनुभव कराए ,निरंतर प्रसन्नता दे, समझने की
कोशिश करे, मन की बातें
खुलकर बताएं, दिन भर की थकान के बाद रात्रि के समय
अपनी शिकायतों का पिटारा कभी ना खोलें, कभी गुस्सा ना दिखाएं,
न ही चिल्लाएं, एक दूसरे के विचारों का आदर करें, फिर
किसी निर्णय पर पहुंचे, यदि किसी चिंता में दिखाई दे,
तो उनकी चिंता को खोजें, उन्हें बार-बार
आत्मविश्वास दें, उनका आत्म बल बढ़ाएं, समाधान के रास्ता दिखाएं, उनके मनपसंद खाने के
द्वारा पेट के रास्ते से उनके हृदय में प्रवेश करें, पति से
जुड़े सभी रिश्ते जैसे सास ससुर, देवर भाभी, जेठ, जेठानी, ननद, नंदोई, उनके मित्र सभी रिश्तो का मान करें, भूल कर भी अपने पति के सामने कभी उनकी निंदा ना करें, अपमान ना करें, पति यदि नहीं चाहते हो तो उनके सामने
अपने माता पिता और अपने परिवार, नैहर वालों की, पीहर वालों की प्रशंसा ना करें, पति के मित्रों और
प्रतिनिधियों का पति के मत अनुसार ही स्वागत सत्कार करें, किसी
भी हाल में आप अपने पति से दूर रहने को तैयार न हों, उनके
साथ ही रहना स्वीकार करें, सेवा अपना स्वभाव बनाएं, पति ही सर्वोच्च गुरु है, बाहर किसी को गुरु बनाने
ना जाए, पति के आदेश, संपत्ति को ध्यान
में रखकर सदैव निर्णय लें, यदि उनसे जाने अनजाने में कोई भूल
हो भी जाए तो बिना क्षोभ के शांत भाव से उसे सहन कर ले, पति
को अधिक से अधिक धार्मिक कार्यों में प्रवृत्त करें, उत्साहित
करें, उनके सेवा धर्म में कभी विघ्न ना डालें। संक्षेप मे,पक्के,अच्छे ,सच्चे साथी,मीत, राही बन साथ निभाना ही पत्नीधर्म है ऐसा
शास्त्रों में कहा गया है।
पंचकोशीय विकास में जब एक लड़की
या एक बेटी अपना घर छोड़कर आपके घर की पत्नी और आपके घर की बहू बनकर आती है। तब वह
आपका पूरा घर सम्भालती है,आपकी एक एक चीज का ध्यान रखती है, हर चीज गलत जगह से उठाकर सही जगह रखती है,सम्पूर्ण
जीवन आपके नाम तक कर देती है,आपको बेटी/बेटे का उपहार देकर
आपके घर को प्रकाशित करती है। यदि आप अकेले हो तो आपको पत्नी होने के साथ आपको बहन
,भाभी और माँ के जैसा प्यार भी देती है।आपकी आय कम हो तो भी
वो चूं तक नहीं करती है,आपके बुरे समय में, दुःख-दर्द में साथ देती है, बीमार होने पर आपको बच्चे
से भी बढ़कर प्यार देती है फिर भी लोग कहते हैं कि पत्नी बुरी होती है, टोकती है। अरे भैया! यदि आप गलत काम करोगे तो आपको टोकेगी ही न ? क्योंकि पत्नी तो भगवान की अनमोल वरदान होती है जो बड़े भाग्यशालियों को
मिलती है। आप अपने आपको भाग्यशाली समझिए, भाग्यवान समझिए कि कोई तो आपकी चिंता करने वाला है,
कोई तो आपका साथ देने वाला है। वरना माँ
बाप के बाद कौन पूछता है ? स्वयं मूल्यांकन कीजिये कि आपके भाई
और बहन कितने दिन तक साथ रहते हैं। पत्नी नहीं होगी तो अकेले ही रहोगे ।
पागल हो जाओगे, अपने बाल नोचने लगोगे, बीमार
होगे, विस्तर पर होगे तो कोई पूछने नहीं आएगा। इसलिए पत्नी
का सम्मान, आदर करो। पत्नी को हर वो प्रशन्नता दो जिसकी वह
सच्ची अधिकारी है। पत्नी बहुत ही भोली होती है। पत्नी आपके सुख दुःख का सच्ची साथी भी होती है। आशा, विश्वास करते है। कि आप स्वयं को अवश्य भाग्यवान समझेंगें और अपनी पत्नी
से कभी भी अनुचित बात या अनुचित व्यवहार नहीं करेंगें । पत्नी को घर की लक्ष्मी ही
समझेंगे । क्योंकि पत्नी के बिना आपका घर नहीं है, आपका
संसार नहीं है और आप स्वयं भी नही है। क्योंकि पत्नी से ही पति का जीवन पूर्ण होता
है। यही सृष्टि का शाश्वत विधान है।
पंचकोशीय विकास यात्रा में अग्रज
अर्थात बड़े भाई ही माता पिता की अनुपस्थिति में बड़े भाई के साथ साथ, माता
की और पिता की भूमिका भी निभाता है। यहां तक कि माता, पिता, संरक्षक और एक सेवक तक की भूमिका भी निभाता है। यथा- सुबह समय पर जगाने
से लेकर समय पर नहलवाने, चड्डी बनियान और कपड़े धोने, आलस्य किये बिना ताजा भोजन बनाने, गर्म गर्म भोजन
खिलाने, स्कूल के लिए टिफिन तैयार करने, समय पर साइकिल या पीठ या अंगुली पकड़कर स्कूल छोड़ने, होमवर्क
अर्थात गृहकार्य करवाने,छोटी मोटी शिकायत पर शिक्षकों या
प्राचार्य की डांट खाने, मूल्यांकन में कम अंक पाने पर सगे,
संबंधियों, पास पड़ोसियों आदि के कांटेभरे ताने,उलाहने सुनना, छुट्टी से पूर्व लेने के लिए स्कूल के द्वार पर प्रतीक्षा करना,
बाहर आने पर भले ही कोई भी, किसी भी प्रकार का
कष्ट हो सबको भुलाकर मुस्कुराकर मिलना, हंसी खुशी घर लाना,
उसका बैग व्यवस्थित रखना, उसकी स्कूल ड्रेस
उतारना और उसे व्यवस्थित टांगना तदुपरांत उसे धोकर, प्रेस करना, उसे विश्राम करने
देना, उसका होमवर्क अर्थात गृहकार्य करवाना, भोजन बनाना, प्रेमपूर्वक खिलाना, मधुर मधुर लोरियां सुनाना, अंत मे अच्छे, स्वच्छ, मुलायम विस्तर पर सुलाना । इसप्रकार सुबह से लेकर रात्रि तक की
दिनचर्या में अत्यंत व्यस्त रहकर न जाने कितने दिन, महीने,
साल बीत गए कुछ पता ही नही चला।भला उसे अपने जीवन की कब, किस समय चिंता रही यह तक भी भूल गया। यही काम तो माता पिता का होता है
इसके अलावा और कोई काम तो शेष नही बचता अर्थात
माता, पिता बनकर
अपना सर्वस्व अपने छोटे भाई, बहनों की सेवा में
निस्वार्थ भाव से समर्पित कर देता। ऐसे समर्पित भाइयो के असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। अंत मे योन कहें
कि माता पिता के नही रहने पर बड़ा भाई ही तो सारे उत्तरदायित्व अर्थात सारी
भूमिकाओं का निस्वार्थ भाव से निर्वहन
करता है । बड़ा भाई ही तो है जो उनके मन मे कभी लेशमात्र भी अनाथपन का विचार तक नही
आने देता है। धन्य है ऐसे छोटे भाई, बहन जिन्हें ऐसे बड़े भाई
का सान्निध्य या यों कहें साथ मिला हो। ऐसे बड़े भाई के उत्तरदायित्वों को
विधिपूर्वक निर्वहन करने वाले ही धरती पर श्रीराम बनकर पूजे जाते है। अर्थात भगवान
समान माने जाते हैं, जाने जाते हैं।
पंचकोशीय विकास यात्रा में अग्रज
अर्थात बड़े भाई ही माता पिता की अनुपस्थिति में बड़े भाई के साथ साथ, माता
की और पिता की भूमिका भी निभाता है। यहां तक कि माता,पिता,संरक्षक और एक सेवक तक की भूमिका भी निभाता है। यथा-सुबह समय पर जगाने से
लेकर समय पर नहलवाने, चड्डी बनियान और कपड़े धोने, आलस्य किये बिना ताजा भोजन बनाने, गर्म गर्म भोजन
खिलाने, स्कूल के लिए टिफिन तैयार करने, समय पर साइकिल या पीठ या अंगुली पकड़कर स्कूल छोड़ने, होमवर्क
अर्थात गृहकार्य करवाने,छोटी मोटी शिकायत पर शिक्षकों या
प्राचार्य की डांट खाने,मूल्यांकन में कम अंक पाने पर सगे,
संबंधियों, पास पड़ोसियों आदि के कांटेभरे ताने,उलाहने सुनना, छुट्टी से पूर्व लेने के लिए स्कूल के द्वार पर प्रतीक्षा करना,
बाहर आने पर भले ही कोई भी, किसी भी प्रकार का
कष्ट हो सबको भुलाकर मुस्कुराकर मिलना,
हंसी खुशी घर लाना, उसका बैग व्यवस्थित रखना,
उसकी स्कूल ड्रेस उतारना और उसे व्यवस्थित टांगना तदुपरांत उसे धोकर,
प्रेस करना, उसे विश्राम करने देना, उसका होमवर्क अर्थात
गृहकार्य करवाना, भोजन बनाना, प्रेमपूर्वक
खिलाना, मधुर मधुर लोरियां सुनाना, अंत
मे अच्छे, स्वच्छ, मुलायम विस्तर पर
सुलाना । इसप्रकार सुबह से लेकर रात्रि तक की दिनचर्या में अत्यंत व्यस्त रहकर न
जाने कितने दिन, महीने, साल बीत गए कुछ
पता ही नही चला।भला उसे अपने जीवन की कब, किस समय चिंता रही
यह तक भी भूल गया। यही काम तो माता पिता का होता है इसके अलावा और कोई काम तो शेष
नही बचता अर्थात माता, पिता बनकर अपना सर्वस्व अपने छोटे
भाई, बहनों की सेवा में निस्वार्थ भाव से समर्पित कर देता।
ऐसे समर्पित भाइयो के असंख्य उदाहरण भरे पड़े हैं। अंत मे योन कहें कि माता पिता के
नही रहने पर बड़ा भाई ही तो सारे उत्तरदायित्व अर्थात सारी भूमिकाओं का निस्वार्थ भाव से निर्वहन करता है । बड़ा भाई ही
तो है जो उनके मन मे कभी लेशमात्र भी अनाथपन का विचार तक नही आने देता है। धन्य है
ऐसे छोटे भाई, बहन जिन्हें ऐसे बड़े भाई का सान्निध्य या यों
कहें साथ मिला हो। ऐसे बड़े भाई के उत्तरदायित्वों को विधिपूर्वक निर्वहन करने वाले
ही धरती पर श्रीराम बनकर पूजे जाते है। अर्थात भगवान समान माने जाते हैं, जाने जाते हैं।
दीदी शब्द पढ़ते या सुनते ही उन सभी
सौभाग्यशालियों को,
जिन्हें भगवान ने बड़ी बहन रूपी वरदान प्रदान किया है, अपने सामने बड़ी बहन का ममतामयी स्वरूप साकार होते दिखने लगता है और किसी
चलचित्र की भाँति दीदी के स्नेह की फुहारों से अभिसिंचित बचपन से युवावस्था तक की
यात्रा अति गतिमान हो जाती है।
याद आती है दोनों हाथों को पकड़कर
गोल-गोल घुमाती दीदी, जो स्वयं तो घूमने का आनंद उठाती ही है,
सधे हुए हाथों से नन्ही कलाइयों को यों मजबूती से थामे रहती कि कोई
अनावश्यक शक्ति उसे छिटक कर दूर न होने दे। फिरकी का आनंद और सुरक्षा की अनुभूति
दोनों साथ-साथ। दीदी के शौक और आदतें तो बचपन में ही विरासत में मिल जाती हैं।
दीदी के काम में हाथ बँटाने में भी उतना ही आनंद आता। एक बहुत अच्छी सी दीदी का
अनुसरण स्वयं का कद बढ़ा हुआ अनुभव कराता है। शायद दीदी के विशाल व्यक्तित्व के
सामने कोई भी स्वयं को बौना अनुभव नहीं करता है। दीदी के लाड़-प्यार के साथ अनुशासन
भी होता है। पिता के अनुशासन से युवा मन के विद्रोह की अग्नि को दीदी अपने स्नेह
की शीतलता से शांत तो करती ही, अनुशासन भंग भी न होने देतीं।
अनुशासन के पीछे निहित भलाई को भली प्रकार समझाती, दीदी-प्रेरणा
का स्रोत बनी रहतीं। ससुराल जाती दीदी जहाँ रूलाई का वातावरण बनती तो उनका आना एक
उत्सव जैसा होता। चाहे ब्याह को कितने बरस हो गए हों, दीदी
के मायके आने पर उत्साह-उमंग कभी कम नहीं होता है। युवावस्था में तो दीदी का होना
और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। माता-पिता से दिल की बात कहने का साहस जहाँ प्रायः
जुट नहीं पाता वहीं दीदी से हर बात खुलकर हो जाती- चाहे ब्याह-शादी का मामला हो या
रोजी रोजगार का। हर मामले में अपनी समझबूझ से दोनों को संतुष्ट करके मिला देना
दीदी के बाएँ हाथ का खेल होता है।
प्रसन्नता का प्रत्येक पल जहाँ दीदी
के साथ बाँटना निश्चित होता है वहीं तनाव व परेशानी के अँधेरे में दीदी सदैव रोशनी
की किरण होती है। जब कोई मार्ग न सूझे तो दीदी रूपी दीपिका ही प्रकाश देती है। जब
ज्ञान का स्रोत सूखता दिखाई दे तो दीदी विद्या का वरदान होती है। बेजान हो पड़े
रहने पर दीदी मानो विद्युत का संचार हो जाती है। अपनी साधना से दीदी हमारे जीवन को
महकाती है। भगवान ऐसी दीदी सभी को मिले।
पंचकोशीय विकास संकल्पना के
अंतर्गत भारतीय वांग्मय में पुत्री धर्म
की विस्तृत चर्चा की गयी है कि पुत्री धर्म क्या है? पुत्री
धर्म मे दो कुलों की सम्पूर्ण मर्यादा समाहित है। दो कुल यानि पिता कुल और पति
कुल। इन दोनों ही क्षितिज रूपी किनारों के मध्य जिस प्रकार नदी की मर्यादा स्पस्ट है अर्थात जब जब नदी अपनी मर्यादा तोड़ती
है तो विनाश तय हो जाता है और यदि मर्यादा में ही रहती है तो समझो निर्माण तय है।
इसलिये पुत्री ने एक श्रेष्ठ माता,श्रेष्ठ पत्नी,श्रेष्ठ बहन और श्रेष्ठ पुत्री की
समस्त संकल्पनाओं रूपी भावनाओं को अपने हृदय में समाहित करना होता है। क्योंकि एक
अच्छी माता ही राष्ट्र को सुयोग, सुपात्र सदा सत्य,शिव और मंगल करने वाला सुपुत्र की
अनमोल भेंट देकर राष्ट्र को सदा सर्वदा के लिए अभय कर सकती है। एक अच्छी पत्नी ही
परिवार में प्रेरणादायी आदर्श दाम्पत्य जीवन की प्राणप्रतिष्ठा कर परिवार में
आदर्श पाठशाला की ज्योति जला सकती है। एक अच्छी बहन ही समाज में निस्वार्थ प्रेम-भरे रिश्तों की पवित्र भावनाओं
के घर घर अखंड दीप जला सकती है। इन्ही आदर्शों को अपने हृदय में समेटे हुए एक पुत्री जब दोनों कुलों के दोनों ही किनारों
को जोड़ने के लिए अपने ममता, करुणा, सेवा और समर्पण रूपी सुमंगल बाहों के आलिंगन
में भरकर सुरक्षित संभालकर नवनिर्माण के
यज्ञ को प्रज्ज्वलित करती है तब कही जाकर एक पुत्री दोनों कुलों के दीपक की अखंड बाती बन पाती है। कहा भी
गया है कि "कुल कुल बाती चना चबाती" अर्थात पुत्री को दोनों कुलों की
रक्षा यदि चने चबाकर भी करनी पड़े तो भी करनी चाहिए उसके लिए उसे कुछ भी बलिदान
देने को तैयार रहना चाहिए। अतः जब एक पुत्री द्वारा दोनों कुलों की चारित्रिक मर्यादा के पवित्र
धागे की बांह को पकड़ कर वर्तमान से भविष्य की ओर वामन भगवान के विजयी पग के समान
संकल्प लिया जाएगा तभी कहीं जाकर समाज मे पुत्री धर्म की प्रतिष्ठा की पूर्णाहुति
होना संभव हो पाएगा। यही शास्त्रानुसार
पुत्री धर्म को दर्शाया गया है।
पंचकोशीय संकल्पना के अंतर्गत शास्त्रकारों
द्वारा धर्म को अनेक प्रकार से परिभाषित किया गया है यथा- व्यष्टि धर्म, समष्टि
धर्म, सृष्टि धर्म और परमेष्ठी धर्म आदि। व्यक्ति के
जीवन की नौका व्यष्टि धर्म से शुरू होकर
विविध सोपानों को पार करती हुई परमेष्ठी
तक पहुंचती है। अब यहां पर व्यष्टि धर्म की थोड़ी चर्चा करना समीचीन लग रहा है। यह
व्यष्टि धर्म है क्या ? ऐसा लगता है कि यह तो नितांत ही
स्वान्तः सुखाय की परिसीमा से आबद्ध अनुभव होता है। यह स्वान्तः सुखाय क्या होता
है? कुछ तथ्य ध्यान में आते हैं यथा यह व्यष्टि धर्म पूर्णतः
स्व-प्रकृति पर आधारित होता है। जिसकी जैसी प्रकृति यानि स्वभाव होगा और प्रशन्नता
के लिए उसके द्वारा किए गए हरेक कार्य की पूर्णाहुति ही उसके व्यष्टि धर्म को अपनी बांहों में आबद्ध करती
है। जिस प्रकार एक शैशवावस्था के बालक को जो जो भाता है अर्थात अच्छा लगता है यदि
वह उसे सहज प्राप्त होता है तो उसमें उसे आनंद या प्रशन्नता प्राप्त होती है यदि
वह उसे प्राप्त नही होता है तो उसे अप्रशन्नता, दुख और कष्ट
की अनुभूति होती है। जिससे वह असहजता अनुभव करने लगता है। इसे और भी सरल शब्दों
में कहा जाए तो यह कि व्यष्टि धर्म नितांत निजी भावनाओं, प्रशन्नताओं,
आनंदों की पूर्ति का ही एकमात्र साधन प्रतीत होता है। इसका फल हितकर
भी हो सकता है और अहितकर भी हो सकता है क्योंकि इसकी परिधि नितांत परम स्वार्थ से
ही घिरी होती है। संक्षेप में यों कहा जा
सकता है कि व्यष्टि धर्म की नींव नितांत ही स्वार्थ की भूमि पर रखी हो सकती है जो
व्यक्ति को रावण,
दुर्योधन, जयचंद और मान सिंह आदि भी बना सकती है और राम, कृष्ण, प्रताप, शिवा भी बना
सकती है कुछ पक्का नही कहा जा सकता है क्योंकि इसका फल स्वान्तः सुखाय की भूमिका
पर ही निर्भर होता है। लौकिक जगत में इसे ही पशु धर्म भी कहा जा सकता है। अंत मे
अपनी इंद्रियों के सुख के लिए किए गए हरेक कार्य को व्यष्टि धर्म की संज्ञा भी दी
जा सकती है। यह इन्द्रिय-सुख धर्म और अधर्म दोनों को न ही मानता है और न ही समझता है। इसका अलग ही
अपना इन्द्रिय-सुख धर्म होता है इसकी
परिधि से बाहर आने पर ही व्यक्ति को अपने जीवन में मोक्ष के मार्ग का साक्षात्कार
होना संभव हो सकता है।
पंचकोशीय संकल्पना में व्यक्ति के जीवन की
विकास यात्रा मे समष्टि धर्म का विशेष महत्व बताया गया है। समष्टि धर्म को ही
समाज धर्म या सामाजिक धर्म कहा जा सकता है। इस यात्रा में व्यक्ति मैं से हम की ओर
प्रस्थान करता है। यह जो हम की भावना है न, वास्तव में यही भावना
व्यक्ति को निरा स्वार्थ के मोह पाँस से निकालकर परमार्थ के लोकहित पूर्ण त्यागमयी
मार्ग की ओर ले जाने में सहायक भी बनती है। हम की उदात्त भावना के कारण ही व्यक्ति
अपने से ऊपर उठकर अपनों के लिए सोचना प्रारम्भ करने लगता है जिससे वह अपने
स्वभावगत दोषों को स्वमेव शमन करने के लिए एक कदम आगे बढ़ाता है और उन्ही अपने स्वार्थजनित दोषों को
सद्गुणों के पथ का अभिन्न साथी बनने को भी स्वप्रवत्त होकर तैयार होने लगता है।
इसी से व्यक्ति के जीवन की लोकहित के मार्ग पर चलने की भावना का विकास होने लगता
है और फिर वह व्यक्ति धीरे धीरे समाज में अपने आप को तिरोहित करने का प्रयास भी
करने लग जाता है और अंततः व्यक्ति समाज के उन परमार्थ पूर्ण बंधनों में आनंद की
अनुभूति भी करने लग जाता है जिनसे समाज धर्म अत्यंत पुष्ट एवं बलवान बनता है। अतः
समाज धर्म के बलबान होते ही अमृतस्वरूप परिवार इकाई का उद्भव होता है जो वास्तव
में व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की सच्ची
पहली सीढ़ी होती है। जिसमे व्यक्ति को प्रेम,आत्मीयता, संबंध, सहयोग
और समर्पण जैसे श्रेष्ठ जीवनोपयोगी सन्मार्ग की जीवंत प्रतिमूर्ति बनने का आनंद और
उसकी अनुभति का सौभाग्य प्राप्त होने लगता है। यही इस यात्रा का आनंदमयी सुखद
परिणाम है जिसमें व्यक्ति निरा
स्वार्थपूर्ण मार्ग से हटकर परमार्थ के त्यागपूर्ण मार्ग का सान्निध्य प्राप्त कर परिवार
रूपी प्रथम इकाई के माध्यम से राष्ट्र की सर्वोन्नति का वामन के जैसा प्रथम पग
बनता है अर्थात जिससे व्यक्ति अपना जीवन धन्य,सार्थक,सफल भी करता है। इसी को मनीषियों ने जीवनोद्देश्य का प्रथम चरण भी कहा है।
पंचकोशीय अवधारणा में सृष्टि
धर्म क्या है ?
इसकी व्याख्या हिन्दू वांग्मय यथा- वेद,
शास्त्र, पुराण, रामायण और महाभारत आदि
में विस्तृत रूप से की गई है। यहां तक भी कहा गया है कि "माता भूमि पुत्रोह्म
पृथिव्या:" जब हम सबकी माता पृथ्वी ही है तो स्वाभाविक यह स्पष्ट है कि सभी
से कुछ न कुछ तो अपना भी रिश्ता है तभी तो मनीषयो ने भी "वसुधैव कुटुम्बकम"
का गर्व के साथ उद्घोष भी किया इसीलिए सभी स्वजनों के नव उत्थान के लिए
"कृण्वन्तो विश्वमार्यम" का महामंत्र भी दिया । इस प्रकार सभी से रिश्ता
होने के कारण अपना भी तो कुछ न कुछ कर्तव्य भी बनता है जिससे स्वजनों का जीवन स्तर
उन्नत होकर पुरषार्थ चतुष्टय की सहज प्राप्ति हो सके। वह कर्तव्य क्या बनता है ?
जैसे स्वास्थ्य, संस्कार, शिक्षा, स्वावलंबन, सुरक्षा और
सम्मान आदि सब कुछ सभी को सहज सुलभ हो सके इसके लिए मन में या हृदय में परिवार का
अमृतरूपी अंगा-अंगी भाव आये बिना तो यह संभव नही हो सकता है। इसलिए प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, संबंध,
सहयोग, समर्पण आदि की अर्थात मुक्त
प्रेम-भक्ति-कर्म की निर्मल त्रिवेणी बहाना आवश्यक हो जाता है। इसी त्रिवेणी की
मधुर पावन रज में, अखंड निर्मल धार में ही स्वजनों के
सम्पूर्ण उत्थान की कुंजी छुपी हुई है अतः इसके आये बिना वसुधैव कुटुम्बकम या
कृण्वन्तो विश्वमार्यम को चरितार्थ या प्राकट्य नही किया जा सकता है। अतः पूर्वजों
के सपनों को साकार करने के लिए पुनः पूर्वजों के चरण चिन्हों का ही अनुशरण,
अनुगमन और आचरण करने की एकमेव आवश्यकता अनुभव में आती है इसी
अनुष्ठान में तन, मन और धन से लगने के आग्रह के साथ।
पंचकोशीय विकास यात्रा में परमेष्ठि धर्म की
भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वास्तव में परमेष्ठि धर्म ही व्यक्ति को लौकिक जगत
अर्थात भौतिक जगत के मोहजनित क्षणिक बंधनों के मोममयी नातों रिश्तों से सदा सर्वदा
के लिए मुक्त कर पारलौकिक जगत के परम आनंददायी, परम
कल्याणकारी और परम मोक्षदायी सद्चित अविनासी स्वरूप परमात्म तत्व की परम तेजस्वी
आभा के परम सान्निध्य का अधिकारी बना देता
है। इस पारलौकिक जगत की प्राप्ति हेतु स्वयं ही व्यक्ति को अपने जीवन में धीरज,
क्षमा, संयम, चोरी न करना, पवित्रता, इन्द्रिय नियंत्रण,
विवेक, विद्या, सत्य, शांति आदि जैसे श्रेष्ठ सद्गुणों का आचरण करना अत्यावश्यक हो जाता है
क्योंकि ये ही एकमात्र ऐसे महामंत्र हैं जो व्यक्ति को संवेदना, संकल्प, विश्वास, श्रद्धा,
भक्ति और समर्पण आदि जैसे आदर्श
सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। जिस कारण व्यक्ति का जीवन निस्वार्थ, निष्पाप होकर परमार्थ के अखंड प्रवाह का साक्षी बन पाता है तब कहीं जाकर
व्यक्ति सेवा के पवित्र कार्य मे समर्पित होता है। अंततः स्पस्ट है कि हृदय में
सेवा धर्म के प्रवेश करते ही व्यक्ति का जीवन सहज, सरल,
सत्य, शिव और सुंदर हो जाता है सच में इसी
मार्ग में ही व्यक्ति के जीवन की परम गति का मूल मंत्र, गूढ
रहस्य छिपा हुआ है। इस मंत्र के सिद्ध होने
पर ही व्यक्ति का जीवन सफल,सार्थक हो जाता है।
व्यक्ति को व्यष्टि से परममेष्ठि तक की
महायात्रा का सुखद परिणाम तब संभव हो सकता है जब वह चतुष्टय पुरुषार्थ का अभिन्न
सान्निध्य प्राप्त करता है। यह चतुष्टय पुरुषार्थ ही व्यक्ति को सकर्मक और अकर्मक
दोनों ही मार्गों पर चलने का सही सही अर्थात क्या सत्य है?क्या
असत्य है? विवेक कराता है जिसके कारण व्यक्ति अपने इसी जीवन
मे मोक्ष रूपी अमृत तत्व को प्राप्त कर
लेने का सामर्थ्य जुटा पाता है। इसलिये इस तत्व को पाने के लिए पहले तो व्यक्ति को
धर्म के अक्षरसः पालन करने की आवश्यकता होती है। यह धर्म ही व्यक्ति को सही अर्थों
में मोक्ष तक पहुंचने का सच्चा मीत बनकर
साथ निभाता है। इसलिए व्यक्ति को जीवन मे धर्म का आचरण नितांत अपेक्षित हो जाता
है। यहां धर्म के बारे में महर्षि व्यास जी ने महाभारत में सुस्पस्ट निर्देशित
किया है कि "परोपकाराय पुण्याय, पापाय परिपीडनम"
वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरित मानस में बड़ी ही सरल परिभाषा की है कि
"परहित सरिस धर्म नहि भाई। परपीडा सम नहि अधमाई।।" इन दोनों ही
परिभाषाओं से हटकर धर्म की और कोई सरल परिभाषा हो ही नही सकती है। अतः इन्ही दोनो
परिभाषाओं के मूलतत्व के विशुद्ध आचरण के द्वारा ही व्यक्ति मोक्ष की पहली सीढ़ी को
पार करने की शक्ति पा सकता है अर्थात सुयोग्य अधिकारी हो सकता है अतः अंत में कहा
जा सकता है कि जीवनोद्देश्य की पहली
सफलता।
पुरुषार्थ की दूसरी सीढ़ी अर्थ होती है। यह जो
अर्थ है न लौकिक जगत में बड़ा ही महत्व का होता है। आज के समय मे व्यक्ति के जीवन
मे बिना अर्थ के कुछ भी काम हो नही सकता ।
न ही धर्म कर्म हो सकता और न ही अधर्म कर्म ही हो सकता। आज इसके कंधों पर ही सब
कुछ भार आ गया है। अर्थात इसी पर सब कुछ अवलंबित हो गया है। क्योंकि आज कल यही
एकमात्र संसार का सार सा बन गया है। इसी के हाथों मे सभी के जीवन नैया की पतवार भी
आ गयी है। इतना होने के बाद भी एक बात अवश्य ही विचारणीय है कि यदि अर्थ के सिर से
धर्म का नियंत्रण या हाथ हट गया तो फिर अनर्थ होने से उसको कोई भी शक्ति या यों
कहें कि कोई भी महाशक्ति भी विनाश होने से बचा नही सकती है। क्योंकि अधर्म के
मार्ग से संचित किया गया अर्थ व्यक्ति के जीते जी या ऐसा भी कह सकते कि व्यक्ति के
आँखों के सामने तक ही साथ देता है। अर्थात
व्यक्ति की आंख बंद होते ही वह पानी के बुलबुले की तरह सिर पर पैर रखकर
मानो भाग जाता है। विलुप्त हो जाता है अर्थात साथ छोड़ जाता है। अंत मे हांथ ही
मलना पड़ता है। पछताना ही पड़ता है। संक्षेप में कहें तो यह कि अधर्म से संचित अर्थ
सकल पाप की जड़ या मूल होता है। जबकि धर्म से प्रेरित होकर जब व्यक्ति द्वारा अर्थ
संग्रह या संचित या कमाया जाता है तब वह निःसंदेह एक नही बल्कि सात सात पीढ़ी तक भी
साथ नही छोड़ता है। पूर्वजों का तो यहां तक कहना है कि वह तो सैकड़ो पीढ़ी तक भी जीवन की हर घड़ी,हर
परिस्थिति में भी साथ निभाता है और आगे
आगे दीपपुंज बनकर पथ प्रशस्त भी कर जीवन को निष्कंटक भी कर करता है। वास्तव में
यही एकमात्र धर्म प्रेरित अर्थ की कामना,इच्छा, तुष्टि और लालसा ही व्यक्ति को अपने जीवनोद्देश्य के मार्ग की सफलता का
अमोघ साधन बन मार्ग प्रशस्त करती है संक्षेप में यही सन्मार्ग मनीषियों द्वारा भी
सुझाया, बताया, समझाया, निर्देशित किया गया है। परिणामतः इसी की बांह पकड़ कर भव सागर को निश्चिंत
होकर पार किया जा सकता है।
पुरुषार्थ की तीसरी सीढ़ी काम होता है। इसका भी
जीवन के नवोत्थान में कुछ कम योगदान नही होता है लेकिन यहां विद्वानों ने काम को
विविध रूपों में परिभाषित भी किया है। यथा- कोई तो इसे वासना कहता है तो कोई इसे
महत्वाकांक्षा कहता है यहीं तक यह प्रवाह नही रुकता है फिर तो कहने वालों का तांता
सा लग जाता है कि यह तो इच्छा है, लालसा है, भूख है, जिज्ञासा है, आसक्ति
है, लगाव है, संसर्ग है, संयोग है, अनुराग है,आशा है,अपेक्षा है, चाह है,उत्सुकता
है, उत्सव है,मनोरंजन है, आनंद है आदि आदि और पता नही न जाने क्या क्या कहते हैं । इतने तो सुनने
या अनुभव में आये हैं लेकिन इसका मूल भाव तो अभी
रहस्य ही लगता है। क्योंकि इसके बिना तो कार्य की गति हो ही नही सकती यह
काम ही तो है जो व्यक्ति को कुछ करने या चलने या बढ़ने या समझने या सीखने, या परिश्रम करने या जप, तप और उद्यम करने अर्थात
किसी भी प्रकार की फल सिद्धि की प्राप्ति बिना काम के हो ही नही सकती है। इसलिए
व्यक्ति को काम के वास्तविक स्वरूप को समझने या जानने या सीखने या अनुभव करने की
आवश्यकता है। जिसने काम के वास्तविक स्वरूप को जानने का प्रयास नही किया तो वे
व्यक्ति इसके ग्रास बनकर अपना ही जीवन नष्ट कर लेते है। कवियित्री महादेवी वर्मा
ने भी कहा है कि "बांध लेंगे ये तुझे
सब मोम के बंधन सजीले। पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों से पर रंगीले। चिर सजग आंखें
उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना। जाग तुझको दूर जाना।। और जो इस काम के वास्तविक
स्वरूप को जानकर अपनी काम-रूपिणी बागडोर को धर्म के हाथों में विधिवत थमा देता है
तब कहीं जाकर उसका काम मोक्ष के द्वार को प्रवेश कराने की पात्रता प्राप्त करा
पाता है। अंततः भारतीय मनीषियों ने यही काम का अंतिम उद्देश्य है ऐसा गर्व से कहा
है।
पुरुषार्थ की चौथी अर्थात अंतिम सीढ़ी मोक्ष होती है। यह मोक्ष जो है न इसको
भारतीय मनीषियों ने अपने अपने ढंग से चित्रण
किया है। जिसमें कोई तो इसे आत्मा- परमात्मा का मिलन, जन्म
- मरण के बंधनों से मुक्ति, लौकिक जगत से मुक्ति, परम-शांति, परम-उन्नति, परम-गति,
सद्गति, जीवन उद्देश्य की प्राप्ति, पारलौकिक उन्नति, निःश्रेयश की प्राप्ति और लक्ष्य
प्राप्ति आदि इस प्रकार न जाने क्या क्या ? या किन किन
विशेषणों से मोक्ष को परिभाषित किया है। संक्षेप में कहें कि यह तो बड़ी ही विचित्र
माया है या ऐसा भी कह सकते है कि यह तो
भुलभुलैयों से भरा संभ्रमित मकड़जाल है जिससे पार पाना बेचारे सामान्य-जन की क्या
विसात है यह तो बड़े बड़े ज्ञानियों और महाज्ञानियों का दंगल है। जिसने भी इसमें
प्रवेश करने की कोशिश की तो वह या तो महावाकपटु,
बुद्धिविलासी, तत्व ज्ञानी बनकर लौटेगा या जो भी थोड़ी बहुत
पूंजी होगी भी उसे भी लुटाकर या लुटपिटकर
हताश, उदास, निराश या यह कहें कि निचाट
अज्ञानी महामूर्ख बनकर लौटेगा। क्योंकि इसमें तो ज्ञानियों और महाज्ञानियों की
मुक्त कुश्ती है। इसमें दीन दुखी दुर्बल, असहाय, अक्षम, असमर्थ, नसमझ की हड्डी
पसली टूटनी ही पक्की है। इसलिए इतनी जटिल, कठिन, दुर्लभ, बुध्दि से परे, सिर के
ऊपर परिभाषा की सामान्य जन को आवश्यकता नही है। सामान्य जन को तो उसके स्तर की
अर्थात जो बिना समझाए ही अपने आप उसे समझ में आ जाये ऐसी परिभाषा की आवश्यकता है।
अतः अंत में जिन जिन कार्यों से थोड़ा ही सही संतोष, आनंद ,
आशा, उत्साह , प्रशन्नता,
विश्वास और संकल्प आदि का सुख
तन, प्राण, बुद्धि और आत्मा
अर्थात जीवन को मिले तो समझो कि वह मोक्ष के द्वार पर ही खड़ा है, मोक्ष के आलिंगन में ही है। उपर्युक्त सुखों की प्राप्ति के लिए अपने निजी
स्वार्थ से ऊपर उठकर निस्वार्थ या परोपकारी भाव से ममता एवं करुणा युक्त होकर
दूसरों की चिंता,दूसरों का भला, दूसरों
का हित, दूसरों का कल्याण और दूसरों की सेवा आदि द्वारा जो सुख भले ही क्षणिक या दीर्घ
जैसा भी हो सकता है। उसे ही संभवता लौकिक जगत में
मोक्ष कहा जा सकता है। इसी वृत्ति के आचरण द्वारा प्रेम और भक्ति से
प्रेरित मोक्ष प्राप्त हो सकता है।
"उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न
मनोरथैः" कार्य करने से ही पूर्णत्व को
अर्थात सिद्धि को प्राप्त होता है केवल मनोरथ करने मात्र से नही। इसका अर्थ
यह हुआ कि भाग्य भरोसेया भगवान भरोसे बैठे रहने से तो जीवन मे कभी सफलता का स्वाद, उन्नति
का आनंद, प्रगति का सुख आदि व्यक्ति को अपने जीवन में मिल
नही सकता है क्योंकि यदि इन सभी को पाना है तो जीवन मे कठोरता पूर्वक उद्यम,श्रम अर्थात घोर परिश्रम करना की आवश्यकता होगी।जनश्रुतियों का तो यहां तक
मानना है कि बिना पसीना बहाए तो सफलता रूपी अमृत का स्वाद चखा ही नही जा सकता है।
इसके लिए व्यक्ति को दिन रात एक करके अपना सुख चैन, भोग
विलास अर्थात सबकुछ छोड़छाड़ करके अहर्निश खपना होगा। इसके उद्यम या परिश्रम के बदले
में हो सकता है कि "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" जैसा ही फल मिले लेकिन मन
को संतोष जरूर मिलेगा क्योंकि अपने परिश्रम का फल अर्थात् कठोर परिश्रम द्वारा
कमाई हुई सपत्ति या धन एक पीढ़ी तक ही नहीं बल्कि सात सात पीढ़ी तक या ऐसा भी कहा जा
सकता है कि सैकड़ों पीढ़ी तक भी साथ निभाता है अर्थात साथ नही छोड़ता है। अन्ततः वह
स्वाभिमान से सिर उठाकर चलने का अपूर्व साहस भी देता है। शास्त्रों में यह भी कहा
गया है कि धर्म पूर्वक कमाई हुयी संपत्ति
या संचित धन ही वास्तव में पुरुषार्थ के उद्देश्य को सुस्पस्ट करता है। इसलिए
चतुष्टय पुरुषार्थ के मूल मर्म या तत्व को समझकर भाग्य भरोसे या भगवान भरोसे न
रहकर धर्म प्रेरित पुरुषार्थ का मात्र सान्निध्य ही जीवन को निरापद आनंद प्रदान कर
सकता है।
आदर्श,
सार्थक, सफल और श्रेष्ठ
व्यक्तित्व को अपने जीवन में सफलता को प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम, मेहनत व लगन के साथ साथ धैर्य की भी आवश्यकता होती है। धैर्य व्यक्तित्व
को निखारने वाला एक अनमोल गुण है। इसे प्राप्त करने के लिए मन को साधना पड़ता है।
संक्षेप में कहें तो यह कि धैर्यशील बनने के लिए व्यक्ति को अपनी भावनाओं पर
नियंत्रण करने का निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि
धैर्य सफलता की कुंजी है। धैर्य की शक्ति से व्यक्ति जीवन में आए हर अवसर का लाभ
उठा सकता है। विपत्ति कितनी भी बड़ी क्यों ना आ जाए लेकिन घबराना नहीं चाहिए।
क्यों कि वह स्थाई नहीं है। इस संसार में कुछ भी स्थाई नहीं है। जो आज है वह कल
नहीं रहेगा। विश्वास रखें और धैर्य बनाए रखें। सब पार
हो जाएगा,सब ठीक हो जाएगा। जीवन में जब भी कोई विपत्ति आए, धैर्य रखने के लिए सकारात्मक सोचना चाहिए और अपने को अंदर से मजबूत बनाओ,
सकारात्मक होकर चलो, जीवन में नया अवश्य आनंद
मिलेगा । साथ ही आशावादी बनिए, अपने मन में निराशा को हावी न
होने दो। यह कार्य आज नहीं हुआ है तो कल हो जाएगा, सब
ठीक हो जाएगा ऐसा मन में विश्वास रखो। जीवन, मरण, सुख, दुख, संयोग, वियोग जो भी कुछ है वह सब विधिना के
आश्रित है। इनको अनुकूलता हो तब भी स्वीकार करना है और
प्रतिकूलता हो तब भी स्वीकार करना है। क्योंकि
"कारज धीरे होत
है काहे होत अधीर।
समय पाए तरुवर फलै
केतो सींचो नीर।।"
धैर्य रखने का यह
तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि आप कार्य न
करें, निरंतर कोशिश करते रहें, लगातार प्रयत्नशील रहें, मन की आशा को जगाए रखिए, जब तक सांस है तब तक आस है
यही मन को धैर्य देगा और यही बड़ी शक्ति भी बनेगा। जीवन
में सुखी रहना है तो धैर्यवान अवश्य बनें
व्यक्तित्व विकास में "क्षमा"
मानवता और जीवन की महत्ता को समर्पित एक अप्रतिम अनुष्ठान है।अहिंसा और करुणा से
भीगा मन क्षमा को जन्म देता है।
मानव जीवन में आत्मसंयम अर्थात दमन की आवश्यकता
को सभी विचारशील व्यक्तियों ने स्वीकारा है। सांसारिक व्यवहारों और संबंधों को
परिष्कृत तथा सुसंस्कृत रूप में स्थित रखने के लिए आत्मसंयम अर्थात दमन की अत्यंत
आवश्यकता है । संसार के प्रत्येक क्षेत्र में, जीवन के हर पहलू पर सफलता,
विकास एवं उत्थान की ओर अग्रसर होने के लिए आत्मसंयम की बहुत
उपयोगिता है।
आत्मसंयम
के कठिन रास्ते पर चलने वालों को कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। संक्षेप
में कहा जा सकता है कि आत्मसंयम को अच्छे लोगों की संगति एवं सात्विक वातावरण में
रह कर ही पाया जा सकता है।
व्यक्तित्व विकास
में अस्तेय गुण का भी होना आवश्यक है। अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। किसी वस्तु
का मूल्य चुकाए बिना या परिश्रम किए बिना उस वस्तु को प्राप्त करना भी चोरी है।
जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं हैं उसे पाने की इच्छा बीजरूप में चोरी ही मानी
जाएगी। मन पर नियंत्रण करते हुए इस दुर्गुण से बचना अस्तेय व्रत है। काम, क्रोध, लोभ आदि मनो-विकारों के
कारण अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है। सभी इंद्रियों में मन अत्यंत सूक्ष्म
होने के कारण इससे होने वाली चोरी सूक्ष्मतम होती है। किसी वस्तु को देखकर मन
ललचाता है। लालच या प्रलोभन के वशीभूत होने पर अस्तेय व्रत का पालन संभव नहीं है।
किसी वस्तु की आवश्यकता न होने पर भी उसे प्राप्त कर व्यर्थ वस्तुओं का अंबार लगा
लेना परिग्रह कहलाता है,जो अस्तेय व्रत का शत्रु है। यदि
नैतिक मूल्यों को स्थापित करना है तो आर्थिक मर्यादा निश्चित करते हुए संयम आवश्यक
है। तभी न केवल हमारे तनाव दूर होंगे,बल्कि हमें सुख व संतोष
भी प्राप्त होगा। आज उपभोगवाद का दौर चल रहा है। ऐसे समय में अस्तेय व्रत की
प्रासंगिकता बढ़ गई है। इसके द्वारा ही हम उपलब्ध साधनों का सीमित उपभोग करते हुए
सुखी और संतुष्ट जीवन बिता सकते हैं। महात्मा गांधी ने अपने एकादश व्रतों में
अस्तेय को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के साथ अस्तेय को
जीवन का अभिन्न अंग माना है। अस्तेय एक मानसिक संकल्प है,
जिससे मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, क्योंकि संसार का
समस्त कार्य-व्यापार मन ही संचालित करता है। मन ही कर्ता,
साक्षी और विवेकी है। मन के वश में होने पर अस्तेय व्रत का पालन सब प्रकार से किया
जा सकता है। मन को हम सत्य द्वारा पवित्र बना सकते हैं। अस्तेय व्रत साधने के लिए
संतोष का सद्गुण अपनाना आवश्यक होगा। अतः स्पस्ट है कि सारे व्रत या संकल्प एक
दूसरे से जुडे़ हैं। इसलिए अस्तेय की प्राप्ति के लिए सत्य, अहिंसा
आदि व्रतों का भी पालन करना होगा। संतोष के बिना परिग्रह समाप्त नहीं किया जा सकता
है और न ही चोरी समाप्त हो सकेगी। इसलिए सुखमय जीवन और स्वस्थ समाज, सर्वसमर्थ राष्ट्र के लिए अस्तेय व्रत परमावश्यक है।
व्यक्तित्व विकास में इन्द्रिय
निग्रह एक आवश्यक भाग है।इंद्रिय निग्रह के भी दो भाग हैं। प्रथम अंत:करण और
द्वितीय बहि:करण। मन, बुद्धि, अहंकार
और चित्त-इनकी संज्ञा अंत:करण है और दस इंद्रियों की संज्ञा बहि:करण है। बहि:करण
की इंद्रियों के भी दो भाग हैं- प्रथम
ज्ञानेंद्रिय व द्वितीय कर्मेद्रिय। नेत्र,
कान, जीभ, नाक और त्वचा
ज्ञानेन्द्रिय हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आंख से रंग और रूप, कानों
से शब्द, नाक से सुगंध-दुर्गंध, जीभ से
स्वाद-रस और त्वचा से गर्म व ठंडे का ज्ञान होता है। इसी प्रकार वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय और
गुदा-यह पांच कर्मेन्द्रियां हैं जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है वास्तव
में वही सच्चा जितेंद्रिय कहलाता है। जितेंद्रिय होना साधना व अभ्यास से ही संभव
होता है। अतः इंद्रिय-निग्रही होना चाहिए ऐसा प्रयास सदा ही करना चाहिए जो मनुष्य
इंद्रिय-निग्रह कर लेता है वह कभी पराजित नहीं हो सकता है और न ही किसी भी प्रकार
से पराजित किया जा सकता है क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने वाली इंद्रियों के
फेर में पड़ता ही नही है। अतः मनुष्य के लिए इंद्रिय-निग्रह ही मुख्य धर्म है।
क्योंकि इंद्रियां बड़ी ही प्रबल होती हैं और यहां तक कि वे मनुष्य को अंधा तक भी कर देती हैं। इसीलिए
मनुस्मृति में भी कहा गया है कि मनुष्य को स्वयं अपनी ही युवा मां, बहिन और बेटी से भी एकांत में कभी भी बातचीत नहीं करनी चाहिए क्योकि मानव
हृदय बड़ा दुर्बल होता है अतः सावधानी पूर्वक इन्द्रिय निग्रह की जीवन मे आवश्यकता
है क्योंकि यही एकमेव मार्ग जीवन को सन्मार्ग का अधिकारी बना सकता है।
व्यक्तित्व विकास में विद्या का विशेष योगदान
रहता है। यह विद्या क्या है? कैसी है? विद्या से ही मनुष्य असली सम्पत्ति का स्वामी
बनता है। विद्यावान व्यक्ति विनयी हो जाता है, विनय से
योग्यता आ जाती है तथा योग्यता से धन प्राप्त कर लेता है तथा इसके पश्चात् मनुष्य
को सच्चे सुख तथा शान्ति की प्राप्ति होती है। विद्या ऐसा धन है जिसे जितना भी
बाँटो उतना ही बढ़ता है, इसे कोई चुरा नहीं सकता, डाकू लूट नहीं सकता, भाई बाँट नहीं सकता, न पानी गला सकता है और न ही आग से जल सकती है। संसार के हर व्यक्ति को
सम्मान, यश, ख्याति, धन, मान सब कुछ विद्या से ही प्राप्त होती है। संसार
में जितने भी महान तथा यशस्वी व्यक्ति हए हैं, वे विद्या से
ही महान बने हैं। विद्यावान व्यक्ति अपनी अद्भुत विशेषताओं के कारण सदा ही
प्रशंसनीय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति समाज के लिए, देश
के लिए, घर के लिए, परिवार के लिए,
स्वयं के लिए कलंकहीन जीवन जीता है। कभी भी ऐसा इंसान न तो भूखा
रहता है न ही किसी को भूखा रखता है क्योंकि उसके पास विद्यारूपी धन होता है
व्यक्तित्व विकास में मानव के जीवन में सत्य का बहुत महत्व होता है क्योंकि
सत्य ही वह माध्यम है,
जिसके द्वारा हम किसी व्यक्ति पर विश्वास कर पाते हैं। सत्य ही वह
कारण है जिसके द्वारा इस संसार में मानवता बची हुई है। सत्य सदैव अपरिवर्तनशील
होता है जबकि झूठ परिस्थिति या समय के
अनुसार बदलता रहता है। सत्य भले ही कड़वा हो सकता है, परंतु
कभी भी गलत नहीं हो सकता जबकि झूठ मीठा तो बहुत हो सकता है परंतु कभी भी सही नहीं
हो सकता। यही कारण है कि मानव समाज में सत्य का बहुत महत्व है और सदैव सत्य बोलने
वाले व्यक्ति को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। इतिहास में भी अनेकों ऐसे
उदाहरण मिलते हैं जिसमें व्यक्ति ने सत्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।
राजा हरिश्चंद्र उनमें से एक हैं जिन्होंने सदैव सत्य का साथ दिया और समय आने पर
सत्य के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। यही कारण है कि आज राजा हरिश्चंद्र के
आगे सत्यवादी अवश्य लगाया जाता है। सत्य के विषय में किसी महापुरुष का वचन भी है
कि सत्य को परेशान किया जा सकता है परंतु पराजित नहीं। सत्य को शुरू में बहुत
परेशानियां झेलनी पड़ सकती है परंतु अंत में जीत सदैव सत्य की ही होती है। आज तक
ऐसा कभी नहीं हुआ कि सत्य की हार हुई हो और झूठ की जीत। किसी व्यक्ति को जीवन में उन्नति करने के लिए सच्चा होना अत्यंत ही आवश्यक
है क्योंकि सत्य का मार्ग सदैव व्यक्ति को उन्नति की ओर ही ले जाता है। सत्यवादी
व्यक्ति को कभी भी किसी बात का भय नहीं होता है, वह सदैव
निडर रहता है। वहीं दूसरी ओर झूठ का मार्ग अपनाने वाला व्यक्ति अपनी बर्बादी की ओर
बढ़ता जाता है और उसे सदैव उसके द्वारा बोले गए झूठ के पकड़े जाने का भय होता है।
इसलिए सत्य के मार्ग को सबसे उत्तम मार्ग बताया गया है क्योंकि इस मार्ग पर चलने
वाले व्यक्ति की जीत अवश्य होती है। वह व्यक्ति सदैव अपने परिजनों एवं समाज की
दृष्टि में सम्माननीय होता है और प्रत्येक व्यक्ति उसके प्रति आदर का भाव रखता है।
वह व्यक्ति जहां भी जाता है, सत्यवादी होने के कारण सम्मान
पाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को सत्य ही बोलना चाहिए और इसे अपने जीवन में
धारण करना चाहिए।
सीमन्तोन्नयन संस्कार
का भी विशेष महत्व होता है। यथा-चार मास का होने के बाद गर्भस्थ पिण्ड का शारीरिक
विकास तीव्रता से होता हैं अब उसके हृदय आदि अंग निर्मित होने लगते हैं और हृदय के
प्रकट होने से उसके अन्दर चैतन्य शक्ति का प्रादुर्भाव होने लगता हैं। इसी के साथ
माता के शरीर में भी विलक्षण शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होने लगता है–वह यह
कि माता अब “दौहद”अर्थात दो हृदय वाली
हो जाती है–एक शिशु का और दूसरा स्वयं अपना। हृदय चैतन्य
स्थान है इसलिए चेतना के प्रादुर्भाव के साथ गर्भस्थ जीव इन्द्रियों के अर्थ में
रूचि करने लगता हैं फलतः माता के हृदय पर इच्छाएं प्रतिबिंबित होती हैं जिन्हें
पूरा करना गर्भस्थ बालक के शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक विकास
के लिए आवश्यक है। माता को कभी किसी विशेष वास्तु आदि
की खाने की इच्छा अनायास होने लगती है आदि यह सब गर्भस्थ शिशु के हृदय व चेतना के
कारण ही होता है। यह संस्कार अत्यंत
सौभाग्य का विषय है।
दशमासाञ्छशयान:
कुमारो अधि मातरि!
निरैतु जीवो अक्षतों
जीवन्त्या अधि!! (ऋग्वेद 5/75/9)
हे परमात्मन, दस
माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण
करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले।
व्यक्तित्व विकास में
जातकर्म संस्कार का भी कोई कम योगदान नही होता है। यहां जातकर्म का तात्पर्य है -
वे क्रियायें जो बच्चे के उत्पन्न होने पर की जाती
हैं - जैसे गृह की स्वच्छता, बालक का स्नान, नाभि छेदन, दुग्ध पान आदि।
ये सभी क्रियाएं प्रायः घर पर सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाती हैं लेकिन ऋषियों ने
नवजात शिशु को मात्र एक शरीर के रूप में न देखकर अपितु एक
आत्मा के रूप में भी देखा है। उनकी दृष्टि केवल बाह्य शरीर पर नहीं बल्कि
उसके अन्दर विद्यमान अंगुष्ठ के आकार में विराज रही चैतन्य आत्मा पर भी पड़ी। उस सद्योजात शिशु की आत्मा को प्रत्यक्ष रूप में संस्कार गुरु ही दे सकते हैं इस संस्कार द्बारा ही बालक को
दीर्घायु, तेजस्विता, पराक्रम आदि शुभ
गुणों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस संस्कार से ही
शिशु की आत्मा का अपूर्व पोषण होता है तब कहीं जाकर वह
शिशु क्रमशः वृद्धि करता हुआ एक चैतन्य व्यक्तित्व का रूप धारण कर चैतन्य जगत में
प्रकट होकर देवत्व को प्राप्त होता है। तत्पश्चात मानवीय मर्यादाओं की प्राण
प्रतिष्ठा कर सृष्टि को अभय प्रदान करता है।
दशमासांछाशयान: कुमारो अधि मातरि!
निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!! (ऋग्वेद
5/75/9) 2
दशमासाञ्छशयान:
कुमारो अधि मातरि!
निरैतु जीवो अक्षतों
जीवन्त्या अधि!! (ऋग्वेद 5/75/9)
हे परमात्मन, दस
माह तक माता के गर्भ में रहने वाला सुकुमार जीव प्राण धारण
करता हुआ अपनी प्राण शक्ति सम्पन्न माता के शरीर से सुखपूर्वक बाहर निकले।
व्यक्तित्व विकास में
जातकर्म संस्कार का भी कोई कम योगदान नही होता है। यहां जातकर्म का तात्पर्य है -
वे क्रियायें जो बच्चे के उत्पन्न होने पर की जाती हैं - जैसे गृह की
स्वच्छता, बालक का स्नान, नाभि छेदन,
दुग्ध पान आदि। ये सभी क्रियाएं प्रायः
घर पर सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाती हैं लेकिन ऋषियों ने नवजात शिशु को मात्र एक
शरीर के रूप में न देखकर अपितु एक आत्मा के रूप में भी
देखा है। उनकी दृष्टि केवल बाह्य शरीर पर नहीं बल्कि
उसके अन्दर विद्यमान अंगुष्ठ के आकार में विराज रही चैतन्य आत्मा पर भी पड़ी। उस सद्योजात शिशु की आत्मा को प्रत्यक्ष रूप में संस्कार गुरु ही दे सकते हैं इस संस्कार द्बारा ही
बालक को दीर्घायु, तेजस्विता, पराक्रम
आदि शुभ गुणों का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इस संस्कार
से ही शिशु की आत्मा का अपूर्व पोषण होता है तब कहीं
जाकर वह शिशु क्रमशः वृद्धि करता हुआ एक चैतन्य व्यक्तित्व का रूप धारण कर चैतन्य
जगत में प्रकट होकर देवत्व को प्राप्त होता है। तत्पश्चात मानवीय मर्यादाओं की
प्राण प्रतिष्ठा कर सृष्टि को अभय प्रदान करता है।
दशमासांछाशयान: कुमारो अधि मातरि!
निरैतु जीवो अक्षतों जीवन्त्या अधि!! (ऋग्वेद
5/75/9) 2.
व्यक्तित्व विकास में नामकरण संस्कार का भी
योगदान रहता है। नामकरण संस्कार संपन्न करने के संबंध में विद्वानों का कहना है कि
जन्म के 10 वें दिन सूतिका का शुद्धिकरण यज्ञ कराकर नामकरण संस्कार कराया जाता है।
नामकरण संस्कार में दो तरह के नाम रखने का विधान है। एक गुप्त नाम जिसे सिर्फ जातक
के माता पिता जानते हों तथा दूसरा प्रचलित नाम जो लोक व्यवहार में उपयोग में लाया
जाये। पहला गुप्त नाम- रखने का कारण जातक को मारक, उच्चाटन आदि तांत्रिक
क्रियाओं से बचाना है। प्रचलित नाम पर इन सभी क्रियाओं का असर नहीं होता विफल हो
जाती हैं। गुप्त नाम बालक के जन्म के समय ग्रहों की खगोलीय स्थिति के अनुसार
नक्षत्र राशि आदि का विवेचन कर के रख जाता
है। इसे राशि नाम भी कहा जाता है। बालक की ग्रह दशा भविष्य फल आदि इसी नाम से देखे
जाते हैं। विवाह के समय जातक जातिकियों के कुंडली का मिलाप भी राशि नाम के अनुसार
होता है। सही और सार्थक नामकरण के लिए बालक के जन्म का समय, जन्म
स्थान, और जन्म तिथि का सही होना अति आवश्यक है।
दूसरा लोक प्रचलित नाम - योग्य
ब्राह्मण या ऋषि बालक के गुणों के अनुरूप बालक का नामकरण करते हैं। जैसे राम,
लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न का गुण और स्वभाव देख
कर ही महर्षि वशिष्ठ ने उनका नामकरण किया था। लेकिन आजकल यह लोक प्रचलित नाम
सामान्यतः माता पिता नाना नानी के रूचि के अनुसार रखा जाता है। इस नाम से बालक के
व्यवसाय, व्यवसाय में किसी पुरुष से शत्रुता और मित्रता आदि
के ज्ञान के लिए किया जाता है।
व्यक्तित्व विकास में अन्नप्राशन संस्कार का भी
विशेष योगदान रहता है। अन्न प्राशन संस्कार के लिए नियत विधान के पीछे यह भाव था
कि माता लाड़- प्यार के कारण शिशु को अनिश्चित काल तक अपना स्तनपान न कराती रहे।
इससे माता तथा शिशु दोनों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है तथा शिशु को अन्य ठोस
पोषक आहार न मिलने से उसका सम्यक रूप से शारीरिक विकास भी नहीं हो सकेगा। अतः समय
आने पर इसे अवश्य किया जाना चाहिए। पाँचवें महीने के बाद किये जाने के पीछे यह भाव
है कि हमारी शारीरिक व बौद्धिक अभिवृद्धि में जिन तीन प्रकार के पदार्थों का
योगदान होता है,
वे हैं - (१) पेय, (२)लेह्य/ चूस्य (३) भोज्य,
शिशु- स्वास्थ्य विज्ञानियों का कहना है कि प्रारंभिक पाँच- छः
महीने तक शिशु की भोजन- पाचन प्रणाली इतनी पुष्ट नहीं होती कि वह पेय के अतिरिक्त
अन्य किसी पदार्थ का पाचन कर सके। किंतु अब वह स्थिति विकसित हो चुकी होती है,
जबकि उसे शारीरिक अभिवृद्धि के लिए माता के दुग्ध अथवा अन्य पेय
पदार्थों के अतिरिक्त अन्नादि पदार्थों की भी आवश्यकता होने लगती है। जीवन धारण के
लिए हमारे दार्शनिकों ने अन्न को प्राण ब्रह्म, यज्ञ और
विष्णु कहा है। किंतु पेय पर निभर रहने वाला शिशु उसे अभी भोज्य ( ठोस ) रूप में
ग्रहण नहीं कर सकता। दन्ताभाव के कारण न तो वह उसका चर्वण ही कर सकता है और न उसकी
पाचन क्रिया ही उसे पचाने के लिए पुष्ट हुई होती है।
व्यक्तित्व विकास में चूड़ाकर्म- मुंडन संस्कार
की धार्मिक मान्यता भारतीय शास्त्रों में अत्यंत महत्वपूर्ण
बतायी गयी है कि चूड़ाकर्म संस्कार से बच्चों को उनके पूर्व जन्म के पापों
से मुक्ति मिल जाती है। अकाल मृत्यु की संभावना कम हो
जाती है। बौद्धिक विकास की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
व्यक्तित्व विकास में विद्यारम्भ
संस्कार का भी विशेष योगदान रहता है। इसलिये प्रत्येक अभिभावक का यह परम पुनीत
धर्म कर्तव्य है कि बालक को जन्म देने के
साथ-साथ आई हुई जिम्मेदारियों में से भोजन, वस्त्र आदि की
शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने पर उसकी शिक्षा-दीक्षा का भी प्रबन्ध करे।
व्यक्तित्व
विकास में कर्णवेध संस्कार का भी विशेष महत्व होता है। भारतीय मनीषी या यों कहें
कि भारतीय वैज्ञानिक तो यहां तक भी कहते हैं कि कर्णवेध अर्थात कान छिदवाने से सुनने की क्षमता बढ़ जाती है।
व्यक्तित्व विकास में यज्ञोपवीत, उपनयन, जनेऊ संस्कार
का भी महत्व है। व्यक्तित्व विकास में
वेदारम्भ संस्कार का भी बड़ा महत्व है। पूर्णतः ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है
वेदारम्भ संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब
ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का।
एक बालक अपने जन्म के पांच से आठ
वर्षों के पश्चात गुरुकुल चला जाता है तथा पच्चीस वर्ष की आयु तक केवल गुरुकुल में
ही रहता है। इस दौरान उसके आसपास दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण व्यक्ति रहते है।
व्यक्तित्व विकास में विवाह संस्कार का भी बहुत बड़ा योगदान होता है।
भारतीय-संस्कृति में अनेक प्रकार के विवाह प्रचलित रहे है। मनुस्मृति के अनुसार
विवाह-ब्राह्म,
देव, आर्ष, प्राजापत्य,
असुर, गंधर्व, राक्षस और
पैशाच 8 प्रकार के होते हैं। उनमें से प्रथम 4 श्रेष्ठ और
अंतिम 4 क्रमशः निकृष्ट माने जाते हैं। विवाह के लाभों में यौनतृप्ति, वंशवृद्धि, मैत्रीलाभ, साहचर्य
सुख, मानसिक रूप से परिपक्वता, दीर्घायु,
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति प्रमुख है।
शास्त्रों के अनुसार मृत-शरीर या स्थूल-शरीर का
दाहसंस्कार 24 घंटों के अंदर-अंदर वेद नियमों के अनुसार कर देना चाहिए। क्योंकि यह
पूरा ब्रह्माण्ड पंचतत्व से बना है ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर का निर्माण भी
पंचतत्वों से ही हुआ है। ये पांच तत्व- पृथ्वी ( मिटटी ), जल (
वाष्प ), वायु ( हवा ), अग्नि ( आग )
और आकाश ( नभ ) है। ये पांच तत्व सर्वत्र विद्यमान हैं।
आस्था का अर्थ है किसी विषय-वस्तु के प्रति
विश्वास का भाव। साधारण शब्दों में ज्ञान के आधार के बिना किसी भी परिकल्पना को सच
मान लेना आस्था कहलाता है। परन्तु इसका व्यापक अर्थ भी है जो बुद्धि के पार है।
क्योंकि किसी परिकल्पना पर विश्वास कर लेने के लिए बुद्धिमता की जरूरत नहीं है।
आस्था के व्यापक अर्थ को जानने के लिए ज्ञान की और बुद्धिमता की जरूरत पड़ती
है।आस्था मनुष्य को विरासत से भी प्राप्त होती है। साधारण मनुष्य उसी में विश्वास
कर लेता है जिसके विषय में पुरखे उसे सुनाते हैं। विश्वास मनुष्य की मूल प्रकृति
है जबकि आस्था उसके संस्कारों का परिणाम होती है।
व्यक्तित्व में चेतन
तत्त्व हैं- आत्मत्त्व जड़ और चेतन दोनों से परे है। शरीर, प्राण,
मन, बुद्धि, चित्त
(आत्मा) एक दूसरे के साथ संपृक्त रूप में ही रहते हैं। इस शरीर को आश्रय बनाकर
रहते हैं।इस पूर्ण व्यक्तित्व के दो भाग हैं। एक है स्थूल शरीर और दूसरा है,
सूक्ष्म शरीर । अन्नमय कोश स्थूल शरीर है, प्राणमय,
मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोश मिलकर
सूक्ष्म शरीर है। मृत्यु के समय दोनों शरीर 'अलग हो जाते हैं।
स्थूल शरीर अग्नि को समर्पित हो जाता है, सूक्ष्म शरीर दूसरे
स्थूल शरीर से संयोग कर लेता है, जिसे पुर्नजन्म कहते
हैं।भारतीय विज्ञान में व्यक्तित्व का इस प्रकार स्वरूप वर्णित है। इसी को आधार
मानकर व्यक्तित्व विकास की संकल्पना भी की गई है। अगले अध्याय में व्यक्तित्व
विकास की संकल्पना पर विचार किया गया है
व्यक्तित्व विकास
पंचकोशात्मक -होता है यह देखा अब देखना विकास होता है, विकास
के है
पंचकोष विकसित करने
के साधन -
अन्नमय कोष - विकास
शरीर शरीर के विकास के आयाम इस प्रकार है:-माता के गर्भाशय में आता है तब वह बीज
रूप में होता है। शरीर के कोई भी अवश्य बने हुए नहीं होते हैं। परन्तु प्रकार के
बीज में पूरा वटवृक्ष समाया होता है उसी प्रकार में भी पूरा मानव शरीर समाया हुआ
होता है। धीरे- धीरे आपके शरीर के अंग-प्रत्यंग प्रकट होने लगते हैं और जन्म के
समय तक पूर्ण शरीर बन जाता है।जन्म के समय शरीर बहुत छोटा होता है। समय के प्रवाह
के साथउसकी वृद्धि होती है। इस वृद्धि की ऊंचाई, मोटाई, वजन आदि परिमाणों से मापा जाता है। शरीर के अंगोपांगों की वृद्धि का क्रम
स्वाभाविक है। वंशानुक्रम से हीउसकी ऊँचाई, मोटाई, वर्ण, आकृति आदि निश्चित होते हैं। उन्हें चाहे जैसे
बदला नहीं जाता। यह बात ठीक है कि आहार आदि उचित होने से यह वृद्धि उचित ढंग से
होती है और विकृत आहार-विहार से इसमें कुछ बाधा निर्माण होती है। परन्तु सामान्य
रूप से शरीर वृद्धि की सीमा माता-पिता के माध्यम से निश्चित होती है।
2. बल शरीर काम करता
है। उसे काम करने के लिये ताकत चाहिये, शक्ति चाहिये। मांसपेशियों,
रक्त, हड्डियाँ ज्ञानतन्तु आदि बलवान होने से
शरीर अच्छी तरह से काम कर सकता है।
3. लोट: शरीर के सभी
अंग एक दूसरे के साथ जुड़े हैं। उन-उन अंगों के कार्य के अनुसार ये जोड़ विभिन्न
प्रकार के होते हैं। विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिये विभिन्न प्रकार से शरीर को
मोड़ना पड़ता है। यह मोदना सभी अच्छा होता
है जब शरीर में लोच हो। नित्य अभ्यास से शरीर में लोच सकता है। शरीर में बात, मेद,
कफ आदि बढ़ता है तब भी सोच कम होता है और जकदन बढ़ती है। तब दर्द भी
होता है और कार्यक्षमता भी कम होती है।
4. कुशलता विभिन्न
अंगों के विभिन्न कार्य होते हैं। जैसे कि पैरचलते हैं, हाथ
पकड़ते हैं, वाणी बोलती है आदि। ये सारे बाह्य अंगअपना-अपना
काम सुचारु रूप से करें, यही कुशलता है। कार्य करने
मेंशुद्धता, सुन्दरता, निश्चितता,
गति और लयबद्धता आना कुशलता काविकास है।
५. निरामयता -सभी प्रकार
के आन्तरिक अंग अपना-अपना कार्य सुचारु रूप से करें इसको ही निरामयता कहते हैं।
पेट ठीक से भोजन पचाता हो,
हृदय ठीक से रक्त का संचार करता हो, फेफड़े ठीक
ढंग से श्वास-प्रश्वास की क्रिया करते हों, मांसपेशियाँ
सुदृढ हों, शरीर में वात, पित्त,
कफ आदि उचित मात्रा में हो, रस, रक्त, मांस आदि धातु सम मात्रा में हो, आन्तरिक शुद्धि की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से होती हो तब हम निरामय हैं,
ऐसा मान सकते हैं। सामान्य भाषा में हम निरामयता को स्वास्थ्य भी
कहते हैं। परन्तु स्वास्थ्य शब्द बहुत व्यापक है और सभी पंचकोशों पर लागू होता है।
'स्व' में स्थित होने को 'स्वस्थ' कहते हैं और उसी के लिये संज्ञा है 'स्वास्थ्य' । निरामयता को हम शरीर स्वास्थ्य कह सकते
हैं।
६. तितिक्षा -जब निरामयता
और बल की प्राप्ति होती है तो तितिक्षा भी आती है। विपरीत परिस्थितियों को सह पाना
तितिक्षा है,
अर्थात् सर्दी, गरमी, वर्षा
आदि की मार सह पाना, भूख, प्यास,
जागरण आदि भी कुछ मात्रा में सह पाना, जल्दी
नहीं थकना, लगे रहकर काम कर पाना आदि तितिक्षा के रूप हैं।
यह तितिक्षा जितनी अधिक है उतना विकास अधिक हुआ माना जाएगा।
अन्नमय कोश के विकास
के अर्थात् उपरोक्त गुणों के विकास के कारक तत्व :
१. भोजन : अन्नमय कोश
के लिये यह सर्वाधिक आवश्यक ऐसी बात है। उत्तम भोजन पौष्टिक होता है, पर्याप्त
मात्रा में होता है, युक्त अर्थात् उचित होता है, उचित पद्धति से किया जाता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिये पूरा का पूरा
आहारशास्त्र विकसित किया गया है। क्यों खाना, क्या खाना,
कैसे खाना, कितना खाना, कब
खाना आदि सभी बातों के विस्तारपूर्वक निर्देश आयुर्वेद में हमें प्राप्त होते हैं।
इनको ठीक रूप में जानना शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत आवश्यक है।
२. व्यायाम- शरीर के सभी आन्तर्वाह्य अंगों का नियमन और
अभ्यास आवश्यक है,
यही व्यायाम है। अंगों की सुस्थिति, उठने
बैठने, सोने, चलने की उचित पद्धति,
अंगों की रगड, लयबद्ध और नियमित हलचल, इन सबका नित्य और नियमित अभ्यास आदि शरीर स्वास्थ्य के लिये आवश्यक है।
इसका भी शास्त्र भारत में अच्छा विकसित हुआ। खेल, योगाभ्यास,
घरेलू कार्य कवायद आदि के रूप में घर में, आंगन
में, मैदान में, विद्यालय में, व्यायामशाला में आनन्द और उपयोगिता के साथ व्यायाम प्राप्त होता है। इसको
भी सही स्वरूप में जानने और करने की आवश्यकता है।
३. निद्रा - जिस प्रकार
से पोषण और व्यायाम शरीर को स्वस्थ रखते हैं और बनाते हैं उसी प्रकार से
विश्रान्ति मीआवश्यक है। निद्रा सबसे अच्छी विश्रान्ति है। पर्याप्त मात्रा में
निद्रा चाहिये,
अच्छी निद्रा चाहिये। निद्रा शान्त और गहरी होती है तब अच्छी
विश्रान्ति मिलती है। कब सोना और कब नहीं सोना, कितना सोना,
कैसे सोना, बिस्तर, शयन
कक्ष कैसा होना आदि के विस्तृत निर्देश हमें योगशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में
प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार से जागृत अवस्था में आराम से बैठना, शान्ति से बैठना आदि भी विश्रान्ति के लिये आवश्यक है।
४. प्राण- और मन प्राण
जब बलवान होते हैं तो शरीर स्वस्थ रहता है, प्राण क्षीण होते हैं तब शरीर
अशक्त, कृश और रुग्ण हो जाता है। तितिक्षा भी कम हो जाती है।
अतः शरीर को स्वस्थ रहने के लिये प्राण बलवान होना भी आवश्यक है। उसी प्रकार से मन
का भी अत्यधिक प्रभाव शरीर के स्वास्थ्य पर पड़ता है। मन की तनाव और उत्तेजनापूर्ण
स्थिति, राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि
द्वन्द्व तथा वासनायें शरीर के वात, पित्त, कफ को विषम बना देते हैं, अनिद्रा का कारण बनते हैं,
पाचन क्रिया में गड़बड़ी पैदा होती है, मज्जातन्तुओं
के याका तनाव बढ़ता है, रक्ताभिसरण में अवरोध निर्माण होता है,
श्वसनप्रक्रिया प्रभावित होती है और शरीर अस्वस्थ हो जाता है।
वर्तमान में यह स्थिति बहुत अधिक मात्रा में दिखाई देती है। शरीर अस्वास्थ्य के
मूल में मन का ही अस्वास्थ्य कारण भूत होता है। मन की प्रसन्नता और शान्ति का
अनुकूल प्रभाव होता है। अतः शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से प्राण और मन को भी
सुस्थिति में रखना आवश्यक है।ये सब अनमय कोश के प्रकृतिगत कारक तत्त्व है। इसके
साथ हमारे दैनन्दिन जीवन की व्यवस्थायें भी जुड़ी हुई हैं। ये व्यवस्थायें शरीर
स्वास्थ्य के अनुकूल होनी चाहिये जैसे कि भोजन तैयार करने की पद्धति, भवन निर्माण, घर में वायु, सूर्यप्रकाश
और उचित तापमान की प्राकृतिक स्थिति, घर में पानी और पानी
निःसरण की व्यवस्था, सोने, बैठने के
पलंग और मेज कुर्सी आदि की व्यवस्था, कपड़े आदि चीजें,
स्वच्छता ये सब मानवनिर्मित व्यवस्थायें, शरीर
स्वास्थ्य के अनुकूल होनी चाहिये। इसी प्रकार से हमारे दैनिक व्यक्तिगत कार्य भी
शरीर स्वास्थ्य के अनुकूल बनाने चाहिये। अर्थात् दाँत, मुख,
केश, पूरा शरीर स्वच्छ रखना, नाखून आदि काटना, कपड़े, जूते,
मोजे आदि स्वच्छ रखना, स्वास्थ्यप्रद आदतें
बनाना यह सब अनिवार्य हैं। वर्तमान में इसकी सम्यक् जानकारी और उसके अभाव में
सम्यक् प्रयोग होता नहीं है इसलिये शरीर का अस्वास्थ्य व्यक्तिगत और सामुदायिक
स्तर पर सर्वमान्य बात हो गई है। यह दुर्लक्षित भी है। शरीर स्वास्थ्य के लिये
अनुकूलता तो दूर, प्रतिकूलता ही सार्वत्रिक हो गई है। इस
दृष्टि से इस बात की ओर अधिक से अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
2. प्राणमय कोश का
विकास-जैसा
कि पिछले अध्याय में कहा है, शरीर केवल यन्त्र है। वह प्राण रूपी उर्जा
से ही कार्य करता है। प्राण जीवनी शक्ति है।प्राण का स्रोत है सूर्य जब तक सूर्य
है तब तक प्राण है और जब तक प्राण है तब तक हम जीवित हैं। सूर्य से प्राण, वायु के माध्यम से, वायु के आलम्बन से हमारे चारों
ओर व्याप्त है। श्वास के माध्यम से यह वायु में व्याप्त, प्राण
वायु के रूप में हमारे शरीर में हम ग्रहण करते हैं और नान्तुओं के माध्यम से
सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों के अनुसार प्राण
के भिन्न-भिन्न नाम है जैसे कि प्राण अपान, उदान, समान और प्यानप्राणमय कोश के विकास के आयाम इस प्रकार हैं-.
1. प्राण बलवान होना
प्राण यदि बलवान है तो जीवनी शक्ति अधिक है, प्राण क्षीण है तो जीवनी
शक्ति कम होती है। जीवनीशक्ति कार्यशक्ति, उत्साह, विजिगीषा, महत्वाकांक्षा, साहस,
पराक्रम आदि के रूप में प्रकट होती है। शरीर की सुडोलता, सुन्दरता या वृद्धि से यह जीवनी शक्ति है। जैसे की टमाटर दिखने में लाल,
चमकदार और बढ़े-बड़े हों तो भी उसमें सत्त्व कम हो सकता है जिसके
परिणाम स्वरूप पेट तो भरता है परन्तु पोषण नहीं मिलता उसी प्रकार शरीर सुन्दर और
सुबोल तो होता है परन्तु प्राण बलवान नहीं है तो जीवनी शक्ति कम ही होती है।
2. प्राण सन्तुलित
होना प्राणशक्ति अधिक भी हो तो भी उस का सन्तुलित होना भी आवश्यक है। यहाँ जिस
प्रकार से प्राण आवश्यक हो उस प्रकार से उसका उपयोग हो सके ऐसी स्थिति को सन्तुलन
कहते हैं। उदाहरण के लिये भोजन के बाद पाचनतन्त्र को प्राणशक्ति की अधिक आवश्यकता
होती है। अध्ययन के समय चेतातन्त्र को प्राणशक्ति की अधिक आवश्यकता होती है। इस
प्रकार से प्राणशक्ति जब नियन्त्रित होती है तब उसका उचित उपयोग हो सकता है।
3. प्राण एकाग्र होना
जिस प्रकार मन को एकाग्र किया जाता है। उसी प्रकार से प्राण को भी एकाग्र किया जा
सकता है। उदाहरण के लिये किसी बहुत भारी चीज उठाने के लिये मन की एकाग्रता के
साथ-साथ प्राण की भी एकाग्रता चाहिये। प्राण जब एकाग्र होता है तो अधिक से अधिक
शारीरिक शक्ति प्रकट होती है।प्राणिक आवेग चार प्रकार के हैं जिन्हें मूल
प्रवृत्तियां कहते हैं। ये चार आवेग है आहार, निद्रा, भय और मैथुन। इनका विवरण पूर्व के अध्याय में भी आ गया है और अन्नमय कोश
के अन्तर्गत भी आ गया है। उसके अनुसार आहार और निद्रा का सम्बन्ध अन्नमय कोश के
साथ है। आहार और निद्रा से न्नमय कोश का सम्पक् विकास होता है। फिर भी सत्य है कि
आहार और निद्रा प्राण के कारण ही अनुभव में आते हैं। अर्थात शरीर के माध्यम से
व्यवहत होने वाली ये प्राण की ही क्रियाएं हैं।भय और मैथुन का सम्बन्ध मनोमय कोश
के साथ है फिर भी ये प्राणिक आवेग ही हैं। भय यह प्राणरक्षा के भाव से प्रेरित है।
व्यवहार से सभी प्रकार के छोटे या बड़े भय का मूल है प्राण हानि का भय अर्थात्
मृत्यु का भय, अर्थात् प्राण और शरीर के विच्छेद का भय। जैसे
व्यक्ति बिल्ली से डरता हो, सर्दी, गरमी
या भूखे रहने से डरता हो, खो जाने का भय हो, परीक्षा में असफल होने का भय हो, चोट लगने का भय हो,
सभी प्रकार के भय के मूल में मृत्यु का ही भय रहता है। परन्तु यह भी
सत्य है कि मनोमय कोश के विकास से मृत्यु के भय के ऊपर विजय प्राप्त की जा सकती
है।प्राण रक्षा का ही दूसरा स्वरूप है, वंशपरम्परा की
प्रेरणा। किसी भी स्थिति में शरीर शाश्वत नहीं रह सकता है। प्राण कितने भी बलवान
हों, सन्तुलित हों तो भी कभी न कभी शरीर जीर्ण होगा ही और उस
शरीर को त्यागना ही पड़ेगा। उस स्थिति में उसी शरीर से दूसरे शरीर का निर्माण करना,
यह प्राण का ही आवेग है और प्राण रक्षा का दूसरा स्वरूप है। यही
मैथुन है, यही काम है। इसी को वंशानुक्रम भी कहते हैं। यह
मैथुन प्राण की मूल प्रवृत्ति है। मनोमय और ऊपर के अन्य कोशों के विकास से इस पर
भी नियंत्रण पाया जा सकता है।वैसे प्राणिक आवेगों को अच्छा या बुरा मानना उचित
नहीं है। ये चारों मूल प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक हैं। वे न अच्छी हैं, न बुरी। वे केवल मनुष्य में ही नहीं तो सभी जीवित प्राणियों में होती है।
शास्त्रों में कहा गया है- - आहारनिद्राभयमैथुनञ्च सामान्यमेतद् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेषः धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥ अर्थात् आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये पशु और मनुष्य दोनों समान
हैं। मनुष्य में धर्म विशेष है जो पशुओं में नहीं है। इसलिये बिना धर्म मनुष्य पशु
के समान ही है।इसका अर्थ है कि मनुष्य की विशेषता मनोमय कोश से से प्रारम्भ होती
है। परन्तु शरीर और प्राण पर मन का, बुद्धि आदि का नियंत्रण
रह सके और धर्माचरण के लिये शरीर और प्राण काम में आ सके इसलिये अत्रमय कोश के
समान ही प्राणमय कोश का भी विकास होना चाहिए।
प्राणमय कोश के विकास
के कारक तत्व-
१. शुद्ध, -प्राणयुक्त
वाप प्राण वायु के आलम्बन से रहता है और श्वास के माध्यम से शरीर के अन्दर आता है।
सामान्य रूप से शुद्ध वातावरण में २१ प्रतिशत प्राण रहता है। प्राणयुक्त वायु को
ही प्राणवायु कहते हैं। अतः आवश्यक है कि जिस वातावरण में हम रहते हैं, जिस वायु को हम श्वास में लेते हैं, उसमें २१
प्रतिशत की यह मात्रा बनी रहे। उसी को शुद्ध वायु कहते हैं। इस दृष्टि से वायु को
वातावरण को शुद्ध रखने के हर सम्भव प्रयास करने चाहिये। वायु प्रदूषण को हर सम्भव
नष्ट करना चाहिये।
२. सही श्वसन
प्रक्रिया श्वास के माध्यम से प्राण हमारे शरीर में प्रवेश करता है। अतः हमारी
श्वसन प्रक्रिया ठीक होनी चाहिये। वैसे श्वास तो हम जीवन के प्रत्येक क्षण में लेते
हैं तथापि वह उचित स्वरूप की नहीं होती। लम्बी, गहरी और नियमित श्वास लेने की
आदत बनानी चाहिये। ऐसी श्वास ले सकें इसलिये सीधा बैठने की आदत भी बनानी चाहिये
जिससे हमारे श्वसन मार्ग में अवरोध निर्माण न हो। श्वसनमार्ग में कफ के कारण से भी
अवरोध निर्माण होता है। अतः श्वसनमार्ग की शुद्धि भी आवश्यक है। कफ बने नहीं यह भी
आवश्यक है।
३.
चेतातन्त्र की शुद्धि - चेतातन्तुओं अथवा तन्त्रिकाओं के आलम्बन से
प्राण पूर्ण शरीर में व्याप्त है। अतः चेतातन्तुओं की शुद्धि भी आवश्यक है।
अर्थात् यह भी सही है कि प्राण से चेतातन्तुओं की शुद्धि भी होती है।
४.
प्राणायाम -प्राण
का विकास करने का यह श्रेष्ठ और एकमेव मार्ग है। योगशास्त्र में इसका विस्तार से
निरूपण किया गया है। प्राण को नियमित और नियन्त्रित करने के अभ्यास से एकाग्र करके
अनेक प्रकार की सिद्धियां भी प्राप्त होती है।
५.
भोजन और निवा शरीर- के समान ये दोनों प्राण को भी पुष्ट करते हैं। इस प्रकार
से जब उर्जा बचती है,
चेतातन्तु शुद्ध होते हैं तो ज्ञानेन्द्रियों के अनुभव शुद्ध और
सूक्ष्म संवेदन बनकर मन के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। इसी शुद्धि के परिणामस्वरूप
नेत्र निर्मल होते हैं, स्वर मधुर हो जाता है, मुखमण्डल चमकता है, शरीर हल्का हो जाता है और पूर्ण
आरोग्य प्राप्तहोता है। वैसे शरीर और प्राण को अलग-अलग रखकर विचार नहीं किया जा
सकता क्योंकि प्राण शरीर की ही कार्यशक्ति है। दूसरी ओर प्राण को मन से भी
स्वतंत्र करके विचार नहीं किया जासकता क्योंकि मन के विकास के लिये भी प्राण की
आवश्यकता होती है। प्राणमय कोश के विकास का यह महत्व ध्यान में रखकर
शिक्षाक्रमबनाना चाहिये।
मनोमय कोश का विकास-उपनिषद में व्यक्तित्व का
वर्णन इस प्रकार से किया है। शरीर रथ है, बुद्धि सारथी है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, मन लगाम हैं, सारे विषय गोचर है और आत्मा उस रथ में बैठा हुआ रची है। अर्थात् पाँच
कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखने वाला और कार्य में
प्रवृत्त करने वाला मन है। मन कर्मेन्द्रिय भी है और ज्ञानेन्द्रिय भी है।
कर्मेन्द्रिय के रूप में मन का सम्बन्ध प्राण और शरीर के साथ है, ज्ञानेन्द्रिय के रूप में मन का सम्बन्ध बुद्धि के साथ है। मनोमय कोश के
विकास के आयाम१. एकाग्रता मन स्वभाव से चंचल हैं, अनेकाग्र
है, गतिमान है। उसकी गति अकल्पनीय है। उसकी अनेकाग्रता भी
अद्भुत है। किसी मनोविज्ञानी ने कहा है कि मन एक सैकण्ड में ३०० विषयों पर एक के
बाद एक अपने आपको लगाता है। परन्तु इसको एकाग्र करने से उतनी ही अकल्पनीय शक्ति
सम्पादित होती है। मन एकाग्र होता है तभी बुद्धि किसी विषय पर सम्यक् ज्ञान
प्राप्त कर सकती है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि मुझे यदि फिर से अध्ययन का
अवसर प्राप्त हो तो बाकी सब छोड़कर मैं एकाग्रता का ही अभ्यास करूंगा। मन एकाग्र
होने पर शेष सब अध्ययन तो बहुत सरल हो जायेगा। एकाग्रता का अर्थ है किसी एक विषय
पर मन का निरन्तर लगा रहना।२. शान्ति सामान्य रूप से मन उत्तेजनाग्रस्त रहता है।
भय से प्रेरित होकर तनावग्रस्त रहता है। भय, शोक, चिन्ता, हर्ष आदि सभी इसी के विकार हैं। उत्तेजना के
कारण बुद्धि की धारणा शक्ति को हानि होती है। मन की उत्तेजित अवस्था उबलते हुए
पानी के समान है जिसमें किसी भी पदार्थ का प्रतिबिम्ब खण्ड-खण्ड होकर ही दिखाई
देता है। इस उत्तेजना और तनाव को दूर करके मन को शान्त बनाना ही मानसिक विकास है।
शान्ति से प्रसन्नता, धैर्य, सुख और
ज्ञान की प्राप्ति होती है।3. अनासक्ति - मन का स्वभाव है
कहीं न कहीं चिपक जाना। ऐसे चिपक जाना कि उससे अलग होना ही नहीं। यदि बलात् दूर
होना भी पड़े तो अत्यन्त दुख का अनुभव करना। शरीर के अन्य स्थान पर अन्य समय में,
अन्य लोगों के साथ मन रह सकता है, चिपक सकता
है। इस आसक्ति को कम करते-करते निःशेष करना मानसिक विकास है।४. छन्दों की समाप्ति
मन का स्थायी भाव द्विधाभाव है, द्वन्द्वात्मकता है। संकल्प,
विकल्प, राग-द्वेष, हर्ष-शोक,
सुख-दुःख, रुचि अरुचि आदि मन का स्वभाव है। इस
द्वन्द्वात्मकता को मिटाकर निश्चयात्मकता की ओर मन को ले जाना मन का विकास करना
है।१९. विकारों से मुक्ति मन हमेशा काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि से लिप्त रहता है। इसी से वह अनाचार को
प्रेरित होता है। ये हमारे षड्रिपु हैं जो मन के साथ लगे हुए हैं। इनसे मन को
मुक्त करना मानसिक विकास है।६. सद्गुण एवं सदाचार मन को दया, करुणा, स्नेह, कृतज्ञता,
विनयशीलता, अनुकम्पा, ऋजुता,
मित्रता आदि गुणों से युक्त करना और इन गुणों से प्रेरित होकर सेवा,
दान, परोपकार आदि से युक्त सदाचारी बनाना मानसिक
विकास है।मन की कार्यपद्धति और अवस्था के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता में बहुत
मार्मिक वर्णन किया है।ध्यायतो विषयान्पुस सास्तेषूपजायते । सगात्सणायते कामः
कामात्क्रोधोऽभिजायते।क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।स्मृतिषशाद्
बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति। अर्थात विषयों में लगे रहने से आसक्ति निर्माण
होती है, आसक्ति से काम, काम से क्रोध,
क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से स्मृति भ्रंश होता
है, स्मृति बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से हमारा
ही नाश होता है। अर्थात् सभी समस्याओं की जद मन ही है।७. बुद्धि के वश में करना
ऐसा नहीं है कि मन अपने आप में एकाग्र नहीं होता। जिसमें आसक्ति है उसमें वह अपने
आप एकाग्र हो ही जाता है। यह एकाग्रता बहुत बलवान भी होती है।परन्तु ऐसी एकाग्रता
विकास नहीं है। विकास है इष्ट विषय में एकाग्र करना। बुद्धि के या चित्त के लिये
जो विषय इष्ट हैं उसमें एकाग्र करना। अर्थात् मन को बुद्धि या चित्त के वश में
करना, उसके साधन के रूप में प्रयुक्त करना।
मनोमयकोश के विकास के
कारक तत्व-१.
योगाभ्यास मन की सभी शक्तियों का विकास करने के लिये और मन को वश में करने के लिये
अष्टांग योग जैसा समर्थ और कोई उपाय नहीं है। अतः विश्व के किसी भी कोने में मनोमय
कोश के विकास के लिये योगाभ्यास अनिवार्य करना पड़ेगा। योगविद्या भारत की अमूल्य
सम्पदा है। आज भारत में उसको स्वीकार और प्रचार करना पड़ेगा। जीवन के हर आचार और
विचार के साथ,
व्यवस्था और वातावरण के साथ, तत्त्व और
व्यवहार के साथ, शिक्षा और शिक्षा पद्धति के साथ योग-दृष्टि
जोड़ने की आवश्यकता है।२. संगीत- योग के समान ही संगीत मन के विकास में महत्वपूर्ण
योगदान करता है। हमारे सारे चेतातन्त्र पर, वृत्तियों पर,
भावों पर संगीत का प्रभाव पड़ता है। वास्तव में भारतीय संगीत का
विकास केवल मनोरंजन के लिये नही अपितु गम को विकसित करने की दृष्टि से ही किया गया
है। आज हम संगीत को अपनाते है परन्तु उससे उत्तेजना, कामुकता
आदि विकार बढ़ते है अतः आवश्यक है संगीत को परिष्कृत करके मन के विकास के लिये उसका
प्रयोग करना। इस दृष्टि से घर में और विद्यालय में संगीतमय वातावरण का निर्माण
करना चाहिये।३. भोजन जैसा अन्न वैसा मन भोजन एक ओर शरीर और प्राण को पुष्ट करता है
तो दूसरी ओर मन को सुसंस्कृत करता है। इसलिये भोजन स्वच्छ और पवित्र वातावरण में
बनाना भी चाहिये और करना भी चाहिये। भोजन बनाने वाले के विचारों एवं भावनाओं का
प्रभाव भोजन करने वाले के मन पर पड़ता है। प्रेमपूर्ण हाथों से बना हुआ भोजन खाने
वाले के मन को सुसंस्कृत बनाता है। अतः अच्छी गृहणी का लक्षण बताते हुए स्मृति उसे
'भोज्येषु 'माता' कहती है। भोजन को पवित्र मानना, भोजन करने को
यज्ञकार्य मानना मन को भी शुद्ध बनाता है। भोजन करते समय अच्छी मनःस्थिति होना
आवश्यक है। स्वयं भोजन करने से पूर्व गाय को, अतिथि को,
अग्नि को भोजन समर्पित करना, प्रामाणिकता से
प्राप्त की हुई सम्पत्ति से ही भोजन सामग्री जुटाना आदि मन को अच्छा बनाने के लिये
आवश्यक है।४. सत्संग और स्वाध्याय सज्जनों की संगति से मन धीरे-धीरे शान्त होता है,
स्वच्छ होता है। सद्ग्रन्थों का वाचन स्वाध्याय है। इसका निरन्तर
अभ्यास करना चाहिये।५. सेवाकार्य नियमित-निरपेक्ष भाव से सेवा करना, आनन्द से सेवा करना मन को शुद्ध करने का उपाय है। गुरुसेवा, वृद्धसेवा, मातापिता की सेवा, रुग्णसेवा,
दरिद्रसेवा, वृक्षसेवा, प्राणी
सेवा, अतिथि सेवा, जन सेवा आदि विविध
प्रकार से हम सेवा कार्य कर सकते हैं।वर्तमान में नैतिक शिक्षा की अनिवार्यता की
आवश्यकता का अनुभव आ रहा है। वह मन के कारण जो समस्यायें निर्माण हुई हैं उसका ही
परिणाम है।मनोमय कोश के विकास के परिणामस्वरूप एक ओर अन्नमय कोश के विकास में भी
सहयता होती है, दूसरी ओर विज्ञानमय और आनन्दमय कोश के विकास
का मार्ग भी प्रशस्त होता है। पाश्चात्य विचारों के प्रभाव के कारण आज मनोनुकूल
परिस्थितियों निर्माण करके शिक्षा देने का प्रचलन बढ़ गया है। बालकों के मनोरंजन का
ही ध्यान अधिक रखा जाता है। मनोविज्ञान का विकास भी उसी प्रकार से किया, जाता है। जैसे कि मन ही सब कुछ हो और मन को सन्तुष्ट करना ही इतिकर्तव्यता
हो। काम जीवन का लक्ष्य और अर्थ उस लक्ष्य की प्राप्ति का साधन इस प्रकार के विचार
आज व्यवहार के आधार बन गये हैं। इस आधार को बदलकर आत्मतत्त्व को अधिष्ठान बनाकर मन
को उसके अनुकूल बनाना यह शिक्षा का उद्देश्य बनना चाहिये। अर्थात् मनोविकास यह
मनुष्यरूपी प्राणी से मनुष्य के रूप में व्यक्त आत्मतत्त्व तक की यात्रा है।
४. विज्ञानमय कोष का
विकास-विज्ञानमय
कोश है बुद्धि बुद्धि का वर्णन पूर्व में किया ही गया है। इस कोश के विकास के
प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं१. ग्रहण करने की शक्ति का विकास बुद्धि ज्ञानेन्द्रियों
के अनुभवों को ग्रहण करती है। ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन, मन
के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। मन इस संवेदनों को विचारों में अनूदित करता है। इन
विचारों को मन की विभिन्न अवस्थाओं का रंग चढ़ता है। ये विचार बुद्धि के समक्ष
प्रस्तुत होते हैं। मन यदि शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध रूप में प्रस्तुत होते हैं।
मन यदि रागद्वेषादि से युक्त है तो विचार उसी से लिप्त होकर प्रस्तुत होते हैं। मन
यदि उत्तेजनापूर्ण अवस्था में है तो विचार खण्ड-खण्ड होकर बुद्धि के समक्ष
प्रस्तुत होते हैं। जिस स्थिति में मन ने विचारों को प्रस्तुत किया उसी स्वरूप में
बुद्धि उसे ग्रहण करती है। बुद्धि की यह ग्रहणशीलता कम या अधिक होती है। यह
ग्रहणशक्ति यदि कम है तो उसे बढ़ाना बुद्धि का विकास है।२. धारणाशक्ति का विकास
बुद्धि ने जो ग्रहण किया उसे हमेशा धारण भी करना चाहिये। यदि धारणशक्ति कम है तो
ग्रहण करने के बाद भी वह बुद्धि में रहता नहीं है। इस धारणाशक्ति को बढ़ाना बुद्धि
का विकास है।३. स्मृति का विकास ग्रहण किया हुआ, धारण किया
हुआ स्मृति में भी रहना चाहिये। वास्तव में जो अनुभव चित्त पर संस्कार के रूप में
अंकित हो गये उनकी स्मृति बनती है। स्मरणशक्ति का विकास भी बुद्धि विकास है।
कल्पनाशक्ति
का विकास बुद्धि के विकास के साथ भी सम्बन्धित है और चित्त की शक्ति के साथ भी। का
उपयोग करके बुद्धि निर्माण करती है। तर्क से भी परे जाकर कुछ करती है।का विकास
किसी भी पदार्थ या घटना का स्यूत से लेकर सूक्ष्म अवलोकन करना ही निरीक्षण करना
है। वैसे यह स्की से होता है। परन्तु आंखों को पदार्थ दिखने के बाद भी उसे देखना
नहीं होता। हम देखते हैं परन्तु निरीक्षण नहीं करते। सेब-सूम और समग्र निरीक्षण
करना निरीक्षण शक्ति का विकास है।5. का विकास परीक्षण करना ही
परखना है। यह पाँचों इन्द्रियों का विषय है। इन्द्रियों के संवेदन जिनको मन
विचारों में अनुदित करके प्रस्तुत करता है उनको परखकर उनको जानना यह परीक्षण है।
उदाहरण के लिये रंग, आकृति, स्वाद,
गंध आदि को परखना और जानना यह परीक्षणशक्ति का विकास है। इस शक्ति
का स्थूल से सूक्ष्म तक विकास होता है। अर्थात् लाल और पीले को अलग से जानना यह
स्थूल परीक्षण है। परन्तु खाकी रंग में कौन कौन से रंगों का संयोजन है यह जानना
सूक्ष्म परीक्षण है।७. वर्क करना एक ही कार्य के लिये कितने प्रकार के कारण हो
सकते हैं इसका विचार करना तर्क शक्ति है। इसका विकास करना तर्क शक्ति का विकास है।
उदाहरण के लिये एक व्यक्ति का घर एक भवन की दसवीं मंजिल पर है, परन्तु जब वह लिफ्ट से चढ़ता है तो आठवीं मंजिल तक चढ़ता है और शेष दो
मंजिल सीढ़ियां चढ़कर जाता है। इस कार्य के कितने ही प्रकार के कारण हो सकते हैं।
जो कम प्रकार के कारण ही सोच सकता है, उसकी तर्कशक्ति का
विकास कम हुआ है। जो अधिकाधिक कारण सोच सकता है उसकी तर्कशक्ति का विकास अधिक हुआ
है, ऐसा हम कह सकते हैंअनुमान शक्ति का विकास कार्य देखकर
कारण को जानना अनुमानशक्ति का विकास है। यथा धुआं है वहाँ अग्नि का ज्ञान, जहाँ गीली जमीन देखी वहाँ वर्षा का ज्ञान अनुमानशक्ति के कारण से होता है।
९. विश्लेषण शक्ति का विकास किसी भी पदार्थ या घटना के सभी अंगों को अलग-अलग करने
की शक्ति ही विश्लेषण की शक्ति है।साम्य, भेद जानना, तुलना करना भी इसी का स्वरूप है। विभिन्न प्रकार सेवर्गीकरण करने का भी
समावेश इसी में होता है। स्थूल से सूक्ष्म विश्लेषणकर पाना इस शक्ति का विकास
है।१०. संश्लेषण शक्ति का विकास विभिन्न आयामों को एकत्रित करके, विभिन्न पहलुओं को स्वतंत्र रूप से जानकर उनको एकत्रित रूप से जानना,
समग्रता में जानना ही संश्लेषण शक्ति का विकास है। विभिन्नता में
समानता को जानना, विविधता में एकता को जानना, मूल तत्त्वों एवं सिद्धान्तों को जानना, एक साथ
व्यापकता में समग्रता में एवं सूक्ष्मता में जानना संश्लेषणशक्ति का विकास है।इन
शक्तियों का विकास होता है तब बुद्धि विवेक कर सकती है और निर्णय कर सकती है। वैसे
ज्ञान के क्षेत्र में विवेक और निर्णय एक ही है परन्तु निर्णय व्यवहार के लिये भी
होता है। इन शक्तियों का विकास होने से बुद्धि के लिये कोई भी विषय कठिन नहीं होता,
कोई भी विषय अगम्य नहीं रहता।बुद्धि वास्तव में ज्ञानशक्ति है।कभी
कभी हम सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। वास्तव में बुद्धि
स्वयं तो ज्ञान की शक्ति है। वह दुष्टबुद्धि या दुर्बुद्धि तब होती है जब वह मन के
अधीन होती है और मन को वश में नहीं कर सकती। मन यदि अच्छा नहीं बना है तो जो भी
विचार वह बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करता है वे सब अशुद्ध ही होते हैं, रागद्वेषयुक्त ही होते हैं। उनके आधार पर किये गये। सारे के सारे निर्णय
गलत हो जाते हैं। तब बुद्धि भी दुष्टचक्र में फंस जाती है। अतः मन ठीक होना बुद्धि
ठीक होने के लिये आवश्यक है।
विज्ञानमय
कोश के विकास के कारक तत्व-१. अभ्यास विभिन्न शक्तियों को प्रयुक्त होने
का क्षेत्र प्राप्त होना और उसमें उनको अभ्यास करने का अवसर मिलना, विकास
का सरल उपाय है। विद्यालय में भाषा, गणित, विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि विषय बुद्धि की विभिन्न
शक्तियों के विकास के लिये बहुत उपयोगी है। इन विषयों के अध्ययन से बुद्धि का
विकास होता है और बुद्धि की सहायता से इन विषयों को अच्छी तरह पढ़ा जाता है। फिर भी
प्राथमिक कक्षाओं में ये विषय बुद्धिविकास के ही प्रमुख रूप से साधन है, न कि जानकारी के।२. अध्ययन पद्धति वास्तव में अध्ययन पद्धति, विद्यालय के विभिन्न कार्यक्रम, व्यवस्थायें,
गतिविधियां ऐसी हो जिनमें बुद्धि की विभिन्न शक्तियों का उपयोग करने
का अवसर प्राप्त हो अवसर प्राप्त होने से ये शक्तियाँ अपने आप प्रयुक्त होने लगती
हैं।३. जिज्ञासा जागृत करना जिज्ञासा अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य
के अन्तः करण में होती ही है। वह अनेक विकारों के आवरण में दबी हुई होती है। उसे
अनावृत करने से बुद्धि अपने आप प्रयुक्त होने लगती है।४. मन मन की एकाग्रता,
अनासक्ति और शान्ति के बिना, सद्गुण (और
सदाचार के बिना न तो बुद्धि का विकास होता है न वह सद्बुद्धि होती है। ५. श्रद्धा,
सेवा आदि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है।श्रद्धावल्लभते ज्ञानं तत्परः
संयतेन्द्रियः । अर्थात् श्रद्धा, तत्परता और इन्द्रियसंयम
होने से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है और भी कहा है- 'तद्विद्धि
प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । अर्थात विनयशीलता, सेवाभाव
और जिज्ञासा से ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इसका तात्पर्य यही है कि मनोमय कोश
के सम्यक् विकास से ही विज्ञानमय कोश का विकास हो सकता है।अन्नमय कोश में सभी जड़
पदार्थ रहते हैं। प्राणमय कोश में सभी प्राणी रहते हैं। मनोमय कोश में सभी प्राकृत
मनुष्य रहते हैं। मनोमय कोश का विकास करके विज्ञानमय कोश की ओर गति करना और उसमें
स्थित होना मनुष्य जीवन की सही दिशा है। अन्न के आनन्द से, इन्द्रिय
सुख के आनन्द से, ज्ञान के आनन्द की ओर बढ़ना विकसित होने की
दिशा है।सच्ची शिक्षा का यह महत्वपूर्ण विषय होना चाहिये। (५) आनन्दमय कोश का
विकास
5.
आनन्दमय कोश -
चित्त है,
सवल ब्रह्म है। आत्मतत्त्व इसमें वास करता है। यह कोश आत्मतत्त्व के
प्रकाश से आलोकित है। मनुष्य के व्यक्तित्व की यह सबसे प्रगत अवस्था है। इस कोश के
विकास के आयाम इस प्रकार है-१. चित्र को शुद्ध करना चित्त पर सभी प्रकार के
संस्कार होते हैं। ये ज्ञानज, कर्मज और भावज होते हैं। चित्त
पर पूर्वजन्म के संस्कार भी होते हैं और आनुवांशिक संस्कार भी होते हैं। इन
संस्कारों से वित्त को मुक्त करना ही चित्त को शुद्ध करना है। चित्त जब शुद्ध रहता
है तो साफ दर्पण के समान रहता है जिसमें आत्मतत्त्व साफ प्रतिबिम्बित होता है। जब
विभिन्न प्रकार के संस्कारों से युक्त रहता है तो धूल की परत छाये हुए दर्पण के समान
रहता है जिसमें आत्मतत्त्व का प्रतिबिम्ब अस्पष्ट झलकता है। यदि इन संस्कारों की
परतें एक के ऊपर एक ऐसे अनेक हैं तब तो यह दर्पण आत्मतत्त्व को जरासा भी
प्रतिबिम्बित नहीं कर सकता। इसलिये चित्त को शुद्ध करना चाहिये।२. चित्त शुद्ध
होते ही अपना मूल स्वरूप प्रकट करता है। वह है प्रेमस्वरूप, आनन्दस्वरूप,
सौन्दर्यबोध से युक्त, स्वतन्त्र और सहज । इस
स्थिति में सृजनशीलता का विकास होता है। ब्रह्मानन्द सहोदर आनन्द का अनुभव कराने
वाला काव्य, संगीत, दर्शन, अन्तःप्रज्ञा आदि इसी कोश में इसी अवस्था में उत्पन्न होते हैं। इसी
स्थिति में हम स्वस्वरूप में स्थित होते हैं। आनन्दमय कोश के विकास के कारक तत्व१.
अन्नमय से लेकर विज्ञानमय कोशों का सम्यक् विकास आनन्दमय कोश के विकास का मार्ग
सरल बनाता है। इसलिये उन्हीं कोशों का विकास करने की ओर ध्यान देना चाहिए।२.
स्वार्थ त्याग की वृत्ति और सेवाभाव और सेवाकार्य चित्त को शुद्ध करते हैं।३.
ध्यान जब परिपक्व होता है तो समाधि होती है। समाधि से चित्त शुद्धहोता है, संस्कार दग्धबीज होते हैं।४. निरपेक्षभाव से कर्म करने से चित्त शुद्ध
होता है।भक्ति और प्रेम से चित्त शुद्ध होता है।वैसे तो 'आहार
शुद्ध सत्वशुद्धिः' ऐसा भी शास्त्रवचन है। (६) पंचकोश विकास
का समन्वित स्वरूप -वास्तव में हमारे व्यक्तित्व के ये पाँच कोश एक दूसरे से
सर्वथा अलग नहीं है। सभी एक दूसरे से सम्बन्धित हैं। एक दूसरे से प्रभावित होते
हैं और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इनके विकास के कई आयाम एक समान है, विकास के कारक तत्त्व भी एक समान है। उदाहरण के लिये भोजन सम्बन्ध सभी
कोशों के साथ है। योगाभ्यास का सम्बन्ध भी सभी कोशों के साथ है। अतः व्यक्तित्व तो
एक और अखण्ड है, केवल विकास के सोपान और प्रक्रिया समझने के
लिये उसके भाग किये गये हैं। काव्यक्तित्व के विकास की इस संकल्पना पर आधारित सारी
शिक्षा की एवं सारे व्यवहार की रचना भारत में की गई है। इस संकल्पना को समझना
मूलभूत रूप से आवश्यक है।
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