Thursday, 8 December 2022

बघेली लोक संस्कृति

बघेल बंश का उदय
                 गुजरात के गुर्जर प्रतिहारों से चालुक्य वंश जिन्हें सोलंकी कहा जाता था  उनका एक क्षेत्र था अन्हिलवाडा . वहां पर कुमार पाल नाम का सोलंकी राजा हुआ जिसके बाद  बग्रपल्ली  में बाघ्रदेव का परिचय आता है। बाघ्रदेव अपने दो नातियों कर्णदेव के पुत्र जिनका विवाह कलचुरियों के यहाँ हुआ था और जिन्हें वान्धवगढ़ का किलामिला था के पुत्र भीमल देव और बीसलदेव को लेकर बाघ्रदेव प्रयाग आते हैं और वापसी में कालिंजर बांदा के पास है के लोधी राजा के यहाँ रुकते है जहां राजभर के राजा ने राज कर रखा था ।राजभर की तरफ से भीमदेव युद्ध करते है और लोधी राजा का प्रधान मंत्री तिवारी धोका देता है और लोधी हार जाता है । बाद में भीमदेव रीवा राज्य के तिवारियों को सिंह और अधरजिया तिवारी की उपाधि देते हैं जो आज भी प्रचालन में है ।भर राज्य को बुल्लारदेव दिल्ली सल्तनत से मुक्त कराते है और महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते हैं ।बुल्लारदेवी की पत्नी  माल देवी शीतला देवी का मंदिर बनवाती है और एक तालाब का निर्माण भी करवाती है जिसे आज भी रानी तालाब के नाम से जाना जाता है।इनके बाद वीरन देव राजा बनाते है , यह काल लगभग १३८९ से १४३८ का है । इनका राज्य प्रयाग से अमरकंटक तक माना जाता है । इस राजवंश की एक लम्बी परम्परा है जो लगभग १२३५ से प्रारम्भ होती है . इनके राजवंश में राजरामचन्द्र अकवर के काल के थे जिनसे अकबर ने  तानसेन मैहर और बीरवल सिहावल के पास दे थे को मांग लिया था. १६१८ में विक्रमादित्य ने रीवा की राजधानी बसाई थे .विक्रमादित्य शेरशाह सूरी के समय के थे ।राजा अनूप सिंह ने अनूपपुर बसाया जो आज शहडोल जिले से स्वतंत्र जिला बन चुका है .  राजा भाव सिंह ने होत्र कल्पद्रुम की रचना के तथा रेवा में महामृत्युंजय का मंदिर बनवाया . इन्ही की पत्नी अजब कुमारी ने  शारदा मंदिर और रानितालाब बनवाया . 
राजा अजीत सिंह के जमाने में शाहालम के पुत्र अकबर द्वितीय का जन्म रेवा के मुकुंदपुर में हुआ . १८५४ से यहाँ के राजा  रघुराज सिंह थे जिन्होंने स्वतंत्रा आन्दोलन में भाग लिया .  उनके नेतृत्व में  ठाकुर रणमत सिंह (जिनके नाम पर रेवा में टी आर एस कालेज जाना जाता है ), श्याम सिंग (जिनके नाम से श्यामशाह मेडिकल कालेज रीवा है ), और पंजाब सिंग तथा धीर सिंह ने अंग्रेजों से युद्ध किया. ईस्ट इंडिया कंपनी को  ईस्ट इण्डिया रेलवे के लिए इन्होने ही अंग्रेजों को जमीन दी .  व्यंकट रमण (तीन साल ) के गद्दी पर बैठे और  ‘बघेल खंड नाटक कंपनी बनाई . गुलाब सिंह १९१८ से १९४६ तक महात्मा गाँधी के आन्दोलन में भागीदारी की . राजा मार्तंड सिंह जो बघेलखंड और बुंदेलखंड सहित ३५ रियासतों को मिलाकर सम्मिलित रियासत के बिन्ध्यप्रदेश के अंतिम शासक बने. इन्होने ही १९५१ में सफ़ेद शेर पकड़ा जिसका नाम मोहन थी .
परन्तु पहले बघेलखंड का संक्षिप्त  परिचय।
बघेलखण्ड का परिचय- (रामपुर बघेलान निवासी स्व. लखन प्रताप सिंह ‘उरगेश’) के शब्दों में- ‘‘बिन्ध्य की कैमोर और मेकल श्रृंखलाओं की चोटियों, घाटियों और उपत्यकाओं के बीच बसा हुआ, बघेलखण्ड प्रकृति देवी के शिशु की क्रीड़ा-भूमि सा शोभायमान लगता है। उत्तर भाग में जिसके मस्तक पर पुण्यतोया तमसा का मन्थर प्रवाह चल रहा है; जिसके शीर्ष भाग पर पुरवा, चचाई, क्योटी और बहुती के जल प्रपात, चतुरानन की भाँति चरणनख के पवित्र जल से पतित पावन नर्मदा और सोनभद्र का उद्गम है और एक विपरीत दिशा में जुहिला (ज्वाला गंगा) अपने उर्मिल प्रवाह से पर्वत मालाओं को विदीर्ण करती हुई घाटियों में बल खाती हुई बहती चली जा रही है; जहाँ पर सोन मूड़ा, कपिल धारा, दूध धारा जैसे जल प्रपात लाखों यात्रियों का चित्त रंजन करते हैं; जिसके पूर्वी भाग के सीधी-ङ्क्षसगरौली के गहन वन्य-प्रदशों में भगवान् भास्कर के स्वागतार्थ उषा प्रति प्रभात में स्वर्णभा बिखेर देती है; जहाँ पर भारतीय संस्कृति की प्रतीक रावण-माड़ा की तपोभूमि की अनेक गुफाएं और पहाडिय़ों की चोटियों से झरनों के उर्मिल प्रवाह की  बेगवती धारायें तथा करसुआ के लहराते हुए कदलीवन बरबस अपनी ओर चित्त खींच लेते हैं; जिसके पश्चिमी भाग में पन्ना और अजयगढ़ की नयनाभिराम घाटियों के दृश्य प्रारंभ होते हैं; जिसके एक छोर से दूसरे छोर तक सोहागी, छुहिया, गोरसरी, कोहरा खोह, हरदी घाट, किरर, करेंगरा, बदरापानी, उमर गोहान और जालेश्वर की घाटियोँ अपनी अलौकिक धुंधकार छवि से मनुष्य की बुद्धि को आश्चर्य चकित कर देती हैं; जहाँ की गन्धयुक्त वायु का प्रत्येक झोंका प्राणों में एक नया आह्लाद, नया उन्माद और नया अल्हड़पन जाग्रत करता है।’’ 
बघेलखण्ड को विन्ध्यप्रदेश भी कहते हैं। विन्ध्यप्रदेश (15 अगस्त, 1947 को रीवा रियासत के अंतिम नरेश महाराजा मार्तण्ड सिंह ने अन्य रियासतों की तरह अपनी रियासत को भारतीय संघ में विलय के लिये हस्ताक्षर कर दिया। 4 अपे्रल, 1948 को एन.वी. गाडगिल  ने रीवा आकर विन्ध्यप्रदेश के निर्माण की घोषणा की। रीवा नरेश महाराजा मार्तण्ड सिंह को राज्य प्रमुख तथा पन्ना नरेश यादवेन्द्र सिंह को उपराज्य प्रमुख बनाया गया। 10जुलाई, 1948 को कप्तान अवधेश प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। 1950 में मार्तण्ड सिंह ने राजप्रमुख का पद छोड़ा दिया। 1956 में विन्ध्य प्रदेश का विलय  होकर म.प्र. एक नया राज्य हो गया।) या  बघेल खण्ड (‘गुजरात ते आये दुइ भाई: भिम्मनदेव जेठे बीसलदेव लहुरे। कालिंजरहि आय भरराजा के चाकर भें।’ अर्थात दिल्ली के खिलजी सुलतान के हमले के बाद जब गुजरात के अंतिम बघेला, राजा कर्ण बघेला को उसके व्यभिचार पर अन्हिवाड़ा पट्टन से हटाया गया (लगभग 1297 ई.) तब भगदड़ में जिसे जहाँ सिर छुपाने की जगह मिली वे वहीं भागे, इसी में उक्त दोनों भाई भी आये और कालान्तर में उनके वंशजों ने रीवा रियासत बनाई और इस क्षेत्र का नाम बघेलखंड पड़ा।),   प्रकृति के इस सुन्दर रंग-मंच पर जो गीतोत्सव अनन्त काल से पल्लवित होते आये हैं, उनमें स्वभावत: जीवन की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति प्रकृति के उपादानों के माध्याम से हुई है। 
बुन्देली और बुन्देलों का बघेलखण्ड पर प्रभाव- यह प्रभाव किस तरह से बना इसका एक उदाहरण देखें- ‘कप्तान पागसन pogson बुन्देलों के इतिहास (1828 ई.) में लिखते हैं कि ‘जब अली बहादुर ने जसवंत राय नायक के हादसे का समाचार सुना तो उसे अपने बहादुर, वफादर सेनापति के मारे जाने पर ऐसा धक्का लगा कि उसने अपनी पगड़ी उतार दी और शपथ खाई कि, जब तक रीवाँ वालों से बदला नहीं लूँगा, पगड़ी नहीं पहनूँगा। हिम्मत बहादुर ने आकर तसल्ली और दिलासा दिया और भविष्य के लिये  आशा दिलाई।’ 
     
बघेलखंड के त्योहार एवं लोकगीत: परम्परा और ऐतिहासिकता
 विशेषताएं -  रीवा में सुपारी के खिलौने, उचेहरा में  कांसे और पीतल के वर्तन , पंचमाठा शंकराचारी ने विश्राम किया था , तान सेन , बीरवल ,बाणभट्ट की जन्मभूमि , छुहिया पहाड़ , विध्यचाल , सफ़ेद शेर , मांडा की गुफाएं , 
       साहित्य के प्रति शास्त्रीय दृष्टि जब तक प्रमुख रही, लोक साहित्य गौण रहा। वर्तमान युग में मनुष्य के प्रति दृष्टि के बदलने से मृतत्व का महत्व उत्तरोतर बढ़ा और नयी खोजों के माध्यम से मानव इतिहास की गहराइयों में भी प्रवेश हुआ । परिणामस्वरूप जिन विषयों को उपेक्षित माना जा रहा था, उन्हें महत्व मिलना प्रारम्भ हुआ। जिस तरह प्रागैतिहासिक चित्रकला, लोककला, बालकला आदि ने कला के क्षेत्र में नया चिंतन विकसित किया, उसी तरह ही साहित्य के क्षेत्र में लोकगीत, लोककथाएँ और लोकभाषाएँ अत्याधुनिक अध्ययन का केन्द्र  बन गईं। 
 लोकोत्सव के अध्ययन का विषय भी सामने आया। साथ में एक प्रश्र भी ध्यान में आया कि इन लोकोत्सव के पीछे का कारण क्या है? मनुष्य के जीवन में केवल सुख की पूर्णिमा ही नहीं, दु:ख की अमावश्या भी आती है। मनुष्य अपने लाख पुरुषार्थों से जब दु:ख को नहीं मिटा पाता तो अपने को भाग्य के भरोसे छोड़ देता है। तब भीषण झंझावतों से टकराकर, आँधी-तूफान के थपेड़े सहकर, रास्ते की पथरीली चट्टानों को पार करते हुए भी मानव के मन में आस्था का एक अखण्ड दीप जलता है। यह वहीं आस्था है जिसके बल पर पार्वती शिव को पाने अखण्ड तपस्या करती हैं। यह वहीं आस्था है, जिसके सहारे सीता अशोक बाटिका में रह पाती है। यह वहीं आस्था है, जब राम कहते हैं ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाहिं पर बचन न जाई।’ आस्था तप का आधार होता है और तुलसीदास कहते हैं ‘तप अधार सब सृष्टि भवानी’ आदि। 
हमारे जीवन में व्रत और त्योहार क्रमश: श्रेय और प्रेय के प्रतीक हैं। व्रतों में हम उस असीम के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हैं जो अलौकिक है, कल्याणकारी है, जो हमारे असत् कर्मों का मेटनहार है। हमारी आस्था ने ही कहा ‘भावी मेट सकहिं त्रिपुरारी।’ त्यौहार हमारे सामाजिक जीवन के चित्र हैं। त्योहारों का मार्ग प्रेय का मार्ग है। ये जीवन के लौकिक आधार हैं, इनसे हम आपसी मनोमालिन्य मिटाते हैं। सामाजिक समरसता को बढ़ाते हैं। 
त्योहारों की आन्तरिक धारा पूरे देश में एक होते हुए भी उसके बाह्य स्वरूपों में क्षेत्र के आधार पर भिन्नता दिखाई देती है। बघेलखण्ड के उत्सवों का भी परिचय कुछ इसी प्रकार है। यहाँ उसी को देखने का प्रयत्न करेंगे। 
बघेलखंड में रायसा रासो का संक्षिप्त संस्करण एवं शैली के रूप में पाया जाता है किन्तु यह पृथ्वी राज रासों के समान काल्पनिक नहीं है। आदित्य प्रताप ङ्क्षसह अजीत फते नायक रायसा, जिसे बघेलखंड का आल्हा भी कहते हैं की भूमिका में लिखते हैं-“रासो परंपरा से भिन्न इस ग्रंथ में युद्ध का कोई काल्पनिक कारण अथवा कोई संयोगिता न होकर यशवंत राव पेशवा के बुंदेलखंड को अधीनस्थ करने के बाद रीवा को आधीन करने के प्रयास के कारण हुआ। वह एक विशाल वाहिनी लेकर बढ़ा। .... घटना चाहे जितनी मामूली रही हो पर रीवा के संन्दर्भ में उसका अहम महत्व है। छत्तीसगढ़ की बोली और भाषा जो बघेली के बहुत निकट थी। मरहठों और मरहठी प्रभाव के कारण भिन्न हुई। किन्तु मरहठों का आधिपत्य यहाँ नहीं हो सका अत: बघेली और बघेलखंड का जो रूप रामगढ़ी और गोंड़ी से विकसित हुआ तथा  अपभ्रंशों से छनकर आया वह अपनी अस्मिता के साथ आज भी सामयिक परिवर्तनों के साथ बरकरार है।’
वीर काव्यों में जीवन से अधिक मृत्यु का मूल्य रेखांकित किया जाता रहा है चाहे वह देशी काव्य हो या परदेशी या विदेशी। फिरदौसी ने युद्ध के नगाड़ से अमरत्व के स्वर नहीं जीवन की क्षणिकता के स्वर मुखर किए हैं। इस क्षणिक जीवन का मूल्य प्राणों के उत्सर्ग में है-
‘नक्कारा आवाज आयद बेरुँ, के दूनस्त दूनस्त दुनयाए दूं’ ।
इसी तरह नायक रायसा में भी है- 
‘नायक आयो सुनि परयो, खर भर शहर मझार’
अंग्रेजी कवि टैनिसन ने भी लिखा है- - “ There’s not the question why, ther’s but do and die in the valley of death.”  युद्ध भूमि ही मृत्यु की घाटी है।  यही भाव अजीत फतेह में श्यामशाह (जिनके नाम से रीवा मेडिकल कालेज का नामकरण है) के लिये व्यक्ति किया गया है- ‘सनमुख रण का मरना अति भाग, लेगधार मुख धेउब कारिख लाग।’ अथवा ‘वीरन को तेग धार काशी है।’ वह युग देश के लिए जीन नहीं मरना मांगता था जबकि आज मरने नहीं देश के लिए जीने की आवश्यकता है।
बघेलखण्ड में त्योहार और उनके गीत-  बघेलखण्ड में त्योहारों की एक लम्बी परम्परा है। यहाँ यदि हम ऋतुओं को आधार बना कर इन उत्सवों को देखें तो लगभग वे सभी उत्सव यहाँ मनाये जाते हैं, जो सम्पूर्ण भारत में। साथ ही यहाँ एक बात ध्यान में रखनी पडग़ी की बघेलखण्ड का सांस्कृतिक परिवेश जहाँ बुंदेलखण्ड से प्रभावित है, वहीं कुछ भाग उत्तरप्रदेश के लोक परम्परओं को समेटें है। दूसरी बात यह कि यहाँ केवल उन्हीं उत्सवों का विचार किया जा रहा है जिनका अपना सामाजिक समरसता में महत्व है अथवा शौर्य की परंपरा को बताते हैं। 
कजरी नवमी- श्रावण नवमी को यह व्रतोत्सव प्रारंभ होता है। इसे जातीय उत्सव भी कहते हैं। इसमें कुछ विशेष जाति की स्त्रियाँ सोलह श्रृंगार करके गाती  बजाती हैं और नियत स्थान पर जाकर मिट्टी लाती हैं। मिट्टी के वर्तन में गेहँू अथवा जौ बोकर ढँककर वे ऐसे स्थान पर रख देती है जहाँ पौधे को हवा और धूप न लगे। इसे बुन्देलखंड में भुजलियाँ तथा बघेलखंड में कजरियां या खुजलंइया कहते हैं। इसका सम्बन्ध महोवा से भी है। किन्तु बघेलखंड में इस व्रत ने उत्सव का स्थान बना लिया है। इसका प्रारंभ कैसे हुआ इसे तो ठीक से आज भी कोई बता नहीं पाता किन्तु लगभग अस्सी वर्ष तक के लोगों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि उनकी जानकारी में यह उत्सव मनाया जाता है। पहले यह उत्सव गोविन्द गढ़ के तालाव में मनाया जाता था। वहाँ गजरियां सेराने अर्थात पानी  में धोने और  बहाने महिलाएँ जाती थी। गीत और संगीत होते थे। पुरुष लोग अपने करतब दिखाते और सन्ध्या होते राज्य के महाराजा भी वहाँ पहुँचते और सब उनका अभिवादन करते। वहाँ  किसी भी प्रकार का ऊँच-नीच, छुआ-छूत का कोई भेद भाव नहीं होता। सब लोग अपास में वर्ष भर का  मनोमालिन्य मिटाते। राजसाही के खत्म होते -होते धीरे-धीरे यह उत्सव गाँव-गाँव तक पहुँचा और विशिष्ट जाति या परितवार के दायरे से निकल कर आम जनता का उत्सव हो गया।  
इस अवसर पर झूला झूलने की प्रथा भी है। इसमें ननद के माध्यम से पति का स्मरण किया जाता है। यथा- 
कउन रंग मुंगवा कउन रंग मोतिया/ कउन रंग ननंदी के बिरना/ लाल रंग मंूगा सुपेत रंग मोतिया / संवरे रंग ननंदी के बिरना। 
गीत में एक लोक मर्यादा है। ऐसा लगता है वनवास की सीता अपने पति का परिचय ग्राम वासियों से करा रही हो।
दूसरा गीत- उत्सव में हमारी परंपरा कैसी मिलती है, इस गीत  में कान्हा और गोपियों के माध्यम से बताया गया है।
सखिया चला चली दरसन का, / ब्रज मां झूलि रहे गोपाल,/ कारे झूले कौंन झुलावैं, / को रे खींचै डोर,/ सखिया चला .......  , कान्हा झूले, गोपि झुलावैं, सखियाँ खीचैं डोर, सखिया चला .......  / काहेन काठ का बना हिंडोलना,/काहेन लागी डोर,/ सखिया चला .......  चंदन काठ का बना रे हिंडोलना,/ रेशम लागीं डोर/ सखिया चला ......।             
इसी तरह इस अवसर पर गाया जाने वाला गीत- बिन्ध्य के पहार,/ पानी बरसै ललकार,/ चद्दर भीजैं रंगेदारी अरे सांवलिया,/ सावनवा के लहरा अरे सांवलिया,/ विन्ध्याचंल के पंडा,/ उइ हाथ माँ लीन्हें डंडा,/ चलावैं एसेी सनकी अरे सांवलिया, / सावनवा के लहरा अरे सांवलिया।
अर्थात पति पत्नी तीर्थ यात्रा के लिये विन्ध्याचल क्षेत्र गये हैं। पत्नी कहती है देखो यहाँ विन्ध्याचल पर्वत पर पानी कितने जोरों से बरस रहा है। अरे मेरी यह रंग-विरंगी चादर भीग रही है। यह सावन की बहार है। यह हाथ में डंडा लिये विन्ध्याचल का पंडा कितना शरारती हैं देखो यह कैसे इशारे कर रहे हैं। प्रियतम् पानी जोरों से बरस रहा है, मेरी रंगीन चादर भींग रही है यह सावन की बहार है। यह उत्सव महोवा में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है जिसमें अल्हा-ऊदल की शौर्य परम्परा को स्मरण किया जाता है। 
नैकहाई का बिरहा- यह शौर्य का उत्सव आज भी बिन्ध्य क्षेत्र में देखा जा सकता है, जो कई-कई हप्ते चलता है, जिसमें कई-कई गाँव के लोग इकठ्ठे होते हैं। नैकहाई का युद्ध सन् 1796 की रीवा नरेश महाराजा अजीत सिंह जी के राज्यकाल की एक विशेष घटना है। मरहठों के मुखिया अली बहादुर ने यशवन्तराव नायक को एक बड़ी सेना के साथ रीवा पर चढ़ाई करने के लिए भेजा। रीवा पहुँचकर यशवन्तराव ने रीवा से दक्षिण दो मील पर डेरा डाल दिया, जिसे आजकल नैकहाई के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ पर सैकड़ों छोटी-छोटी छतरी और मन्दिर वीरों के स्मारक रूप में बने हैं। शत्रु के अभियान पर महाराज  अजीतसिंह अपने को लडऩे में असमर्थ पाकर सन्धि करने का तैयार हो गये, किन्तु महारानी कुन्दन कुंवरि को यह अपमान सहन नहीं हो सका। उन्होंने चुनौती का प्रतीक पान का बीड़ा राज दरबार में भिजवाया। बाँदी ने दरवार में पान का बीड़ा प्रस्तुत करते हुए महारानी के शब्द दोहरये कि ‘‘यदि कोई वीर है तो बीड़ा उठाये और युद्ध-भमि की ओर प्रस्थान करे, नहीं तो साथ में चूडिय़ां भी हैं, पहिनकर महल के भीतर बैठो, मैं स्वयं रणभूमि जाने को तैयार हूँ’ अन्त में वीर कलन्धर सिंह करचुली ने बीड़ा उठाया और उसी ने नायक को अपने भाले से आहत कर धराशायी कर दिया। इतने में किसी बघेले ने तलवार से उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। उस समय  से भेड़ बकरियों को चराने वाले अहीर-गड़रियों के मुख से यह शौर्य गीत सुना जाता रहा। गीत की विशेषता यह है कि आज भी यह उत्सव के प्रसंग पर गाया जाता है। इस गीत को मंगलाचरण के साथ प्रारंभ किया जाता है। कुछ पंक्तियां- 
शुकुल पक्ष रामनवमी का ठाकुर जलमे अजुधिया राम / ....... / ....... / रीवा केर साहिवी रयकवा हमसे बरनि न जाय।/ गीत लम्बा है,यहाँ दिया जाना सम्भव नहीं। 
पूना सितार में अपने राज दरबार में बैठा-बैठा महाराज अत्यन्त सुन्दर विचार बाँधता है।  वह अपने नायक से कहता है, मैंने तीन राज्य समाप्त किये हैं और  अब मेरा ध्यान रीवा की तरफ झुका है । नायक बघेलों का गौरव अब समाप्त करो । किन्तु यशवन्त राव की पत्नी कहती है,  रीवा में तुलसी चबूतरा है, सरूपा हाथी है, रीवा को जीतना सरल नहीं  है। तुलसी चबूतरा आज भी गाँव में उस स्थान को कहते हैं, जहाँ शाम को अपने-अपने काम से निपटकर किसान एकत्र हो दु:ख-सुख की बाते करते हैं। अर्थात सामूहिकता और एकता का प्रतीक था तुलसी चबूतरा।
शैलोत्सव- वर्षा ऋतु के बाद जब आसमान धुल जाता है, धरती धुल जाती है तो शरद ऋतु की बिखरी हुई चाँदनी धरती पर उतर आती है और अपनी ज्योतिर्मयी किरणों से मानव ह़ृदय को जगमगा देती है। लोगों में उल्लास फूट पड़ता है। इस अवसर पर यहाँ चाँदनी रातों में शैला खेलने का चलन है। शैला खेलने के लिये सवा हाथ की रूल के आकार की चिकने और बजने वाले काठ की लकड़ी तैयार की जाती है जो ‘रकत बिलार’ नामक जंगली लकड़ी से तैयार की जाती है। लोग छह या आठ की संख्या में गोलाकार घेरा बाँध कर खड़े हो जाते हैं और हर एक व्यक्ति अपने दायें बायें दोनों तरफ की बढ़ती हुई लकडिय़ों पर चोट करते हैं। यह खेल दो प्रकार का होता है, एक तो लकडिय़ों की दौड़ कमर से नीचे तक चलती है और लोग झुककर लकड़ी  संभालते हैं और दूसरे-शैला की लकडिय़ों की दौड़ कन्धे से ऊपर चलती है। इसमें लोग उँचे हाथों शैला खेलते हैं। साथ में ढोलक का स्वर ताल पर गूंजता रहता है और हुर ज-हा हा-हा का शब्द भी। गीत एक पार्टी शुरू करती है, दूसरा उसका जबाव देता है। कुछ शैला गीत इस प्रकार है, जो इन उत्सवों में  गाये जाते हैं-  ऐ हाँ एक अ चम्भौ हम देखेन / हाँ हाँ एक अचम्भौ हम देखेन/ कि कुंआ माँ आगी लाग/ कांदौ पानी अरे सब जरिगा/ मछरीवौ के आँच न लाग/ हुर ज-हा- हा- हा
दूरसा गीत- ये हाँ ना कहाँ बाद न कहौं बूँदौ / औ नहि बदरे कै रेख/ मैं तोसे पूछौं आल्हा ऊदल/ या काहेन कै अँधियार/  हुर ज-हा- हा-हा
यह गीत क्या अमीर खुसरो, कबीर को याद नहीं दिलाते। ध्यान रखने की बात यह है कि यह गीत हमारे चरबाहे, गड़रियों, अहीरों की प्रतिभा के परिचायक हैं। जिनसे सारा सभ्य समाज झूम उठता है। खो जाता है एक नैसर्गिक चेतना में। 
रामनवमी भगतोत्सव- ‘भगत गीत’ विशेष रूप से नव दुर्गा के दिनों में यह सप्ताह भर चलने बाला उत्सव है। किसान से लेकर मजदूर तक अपने सारे काम बन्द कर इसमें डूब जाता है। चैत्र शुक्ल द्वितीया से नौवी तक इस उत्सव को मनाते हैं। द्वितीया को जवा बोया जाता है, जबा बोये जाने के दिन से ही उस स्थान पर भगत गीत गाये जाते हैं। अन्त में एक लम्बे जुलूस में जवा देवी के मंन्दिर तक लाया जाता है। इसमें काली खप्पर लेकर नाचती चलती है। कुछ पण्डों को देवियाँ आती हैं। वे अपने गालों में आर-परा ‘बाना छेद’ लेते हैं। सारा हिन्दू समाज इसमें उत्साह से सम्मिलित होता है। कुछ गीत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- काहे का पेड़ पछितिया मं सोहे,/ का सोहे भवन दुआर हो मां,/ नीम का पेड़ पछितिया सोहे,/ बरा सोहै भवन दुआर हा मां। 
गीत में शारदा देवी के झूला झूलने की बात आई है, साथ ही मनुष्य का प्रकृति से अटूट सम्बन्ध दिखाई देता है। यह भी सामाजिक सौहाद्र तथा समरसता का अचूक उत्सव है।
विहग विवाहोत्सव गीत - मानव जीवन के संस्कारों को करते तो हमने देखा सुना है किन्तु बघेल खंड में पक्षियों के विवाह भी कराये जाते है, (ध्यान रहे बघेलख्ंड में आम के पेड़ का फल आम लगाने बाला तब तक नहीं खाता जाता जब तक कि उस पेड़ का विवाह नहीं कर दिया जाता। और इस अवसर पर भी लगभग छोटा-मोटा समूहिक कार्यक्रम आयोजित होता है।) पक्षी ही  बराती और पक्षी ही घराती होते हैं। पक्षी ही पक्षी का स्वागत सत्कार करते हैं। गीत की कुछ पंक्तियां-  रनै चिरैया अवसर करती हैं,/ लीला रेमुनिया के व्याह होते हैं।/ तब कौआ पाती लाता है / तब चील मसाल दिखाता है।/तब चन्दुल सुदिन विचरते हैं/ ....... / ....... / गरैया चाउर छरती है। 
प्रकृति और मनुष्य का साथ कवि की कल्पना हो सकती है। किन्तु ये गीत उत्सव प्रसंगों पर गाये जाते हैं।
बघेलखंड विस्तृत भूप्रदेश है। वर्षों तक यह रेल मार्ग से अछूता रहा है। यहाँ की जनपदीय लोकसंस्कृति का भण्डार लोकजीवन में अब भी सुरक्षित है। यहाँ की कोल जाति जिसका दादर इतना लोकप्रिय है कि उस समाज के प्रत्येक उत्सवों में गाया जाता है जिसकी एक पंक्ति में रात भर नृत्य और मादर की थाप चलती रहती है। बघेलखंड का शैला नृत्य ही आज गुजरात का डाण्डया रास है। राई के  गीत और उन पर आधारित नृत्योत्सव अपनी परम्परा को आज भी अक्षुण बनाए हैं। बघेल खंड के उत्सवों की एक विशेषता यह है कि उसके प्रत्येक उत्सव का चाहे वह तीज-त्योहार के हो, होली, दीपावली के हो प्रत्येक के अपने गीत हैं।
उक्त के अतिरिक्त बिन्घ्य का फाग बहुत प्रसिद्ध है। इसकी अपनी शैली है जिसमें नगरिया बाद्य का प्रयोग विशिष्ट माना जाता है, इसे हर कोई  नहीं  बजा पाता। होलिकोत्सव के समय लगभग एक माह तक यह गीतोत्सव त्योहार के रूप में मनाया जाता है। आजकल इसके ब्लाक, जिला स्तर पर प्रतियोगिताएँ भी होंने लगी हैं। इसमें कई तरह के गीत गाये जाते हैं, जिन्हें फाग राई, डग्गा -एक ताल, डग्गा -तीन ताल, डग्गा -चौताल, फाग दहका, फाग नारदी, कबीर आदि हैं। इस में हिन्दू समाज के सभी जाति, वर्ग के लोग समरस भाव से एक साथ बैठकर पूरी मस्ती के साथ रात भर गाते बजाते हैं। नगरिया एक ऐसा वाद्य यंत्र है कि रात में इसकी आवाज चार से पाँच किलोमीटर तक सुनाई देती है। यह फाग कभी -कभी कई दिनों तक निरन्तर चलता है।  
अन्त में कह सकते हैं कि बघेलखंड के लोकोत्सव और लोकगीत पारम्परिक संस्कारों  को लिए हुए हैं। इनके माध्यम से बघेलखंड और उसके साथ समवर्ती समाजों की सांस्कृतिक संरचना को जानने और समझने में सहायता मिलता है। इतना ही नहीं हमारी समाजशास्त्रीय दृष्टि और ऐतिहासिक दृ़ष्टि का भी पता चलता है ।
                                                                                      प्रो. उमेश कुमार सिंह

No comments:

Post a Comment