गुरु नानक देव
धार्मिक कट्टरता के वातावरण में गुरु नानक जी ने धर्म को उदारता की एक नई परिभाषा दी। उन्होंने अपने सिद्धान्तों के प्रसार हेतु बिना गृहस्थ आश्रम का त्याग किए एक संन्यासी की भांति परिवार के साथ रहते हुए लोगों को सत्य और प्रेम का पाठ पढ़ाया और जगह-जगह घूमकर अंधविश्वासों, पाखण्डों का जमकर विरोध किया।
वे सनातन सिद्धांत के प्रतिस्थापक थे, जिसमें सभी प्राणियों में एक ही ईश्वर का निवास माना जाता है। इसलिए वे सभी मत-पंथों को आपस में प्रतिस्पर्धा और बैर को त्याग कर साम्प्रदायिक सदभाव की स्थापना के पक्षपाती थे।
इसके लिए सभी तीर्थों की यात्रायें की और सभी मत-पंथ के लोगों को अपना शिष्य बनाया। तथा हिन्दू जीवन-दर्शन और अन्य मत पंथों की मूल एवं सर्वोत्तम शिक्षाओं को सम्मिश्रित करके सनातन संस्कृति में एक नए मत की स्थापना की जिसका मूलाधार प्रेम और समानता थी, यही बाद में सिख-धर्म कहलाया।
भारत में अपने ज्ञान की ज्योति जलाने के बाद उन्होंने मक्का-मदीना की यात्रा की और वहाँ के निवासी भी उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। 25 वर्ष के भ्रमण के पश्चात् नानक कर्तारपुर में बस गये और वहीं रहकर उपदेश देने लगे।
उनकी वाणी आज भी ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संगृहीत है। जिन-जिन स्थानों से गुरु नानक गुजरे थे वे आज तीर्थ स्थल का रूप ले चुके हैं।
गुरु नानक ने अपने उपदेशों से जिस सांप्रदायिक एकता एवं सदभाव की ज्योति जलाई थी वह आज भी प्रज्वलित है।
उनका धर्म सेवा, करुणा, प्रेम और आस्था का प्रतीक है तथा विश्वबन्धुत्व की प्रेरणा देता है।
गुरु नानक जी का जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में कार्तिक पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया।
इनके पिता का नाम कल्याणचंद या मेहता कालू जी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। इनकी बहन का नाम नानकी था। बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लडक़पन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढऩे लिखने में इनका मन नहीं लगा।
सात-आठ साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्राप्ति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोडऩे आ गए।
तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएँ घटीं जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे। बाल्यकाल से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे। नानक के सिर पर सर्प द्वारा छाया करने का दृश्य देखकर राय बुलार उनके सामने नतमस्तक हो गये।
नानक का विवाह सोलह वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था। 32 वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लडक़ों के जन्म के उपरांत 1507 में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोडक़र मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़े।
गुरु नानाक देव चारों ओर घूमकर उपदेश करने लगे। 1521 तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य-मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। इन यात्राओं को पंजाबी में ‘उदासियाँ’ कहा जाता है।
मक्का में गुरु नानक देव जी पधारे थे। नानक जी सर्वेश्वरवादी थे। मूर्तिपूजा को उन्होंने निरर्थक माना। रूढिय़ों और कुसंस्कारों के विरोध में वे सदैव तीखे रहे।
ईश्वर का साक्षात्कार, उनके मतानुसार, बाह्य साधनों से नहीं वरन् आंतरिक साधना से संभव है। उनके दर्शन में वैराग्य तो है ही साथ ही उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी नजर डाली है। संत साहित्य में नानक उन संतों की श्रेणी में हैं, जिन्होंने नारी को बड़प्पन दिया है।
उनके उपदेश का सार यही होता था कि ‘ईश्वर एक है’, उसकी उपासना हिंदू- मुसलमान दोनों के लिये हैं। मूर्तिपूजा, बहुदेवोपासना को ये अनावश्यक कहते थे।
हिंदु और मुसलमान दोनों पर इनके मत का प्रभाव पड़ता था। लोगों ने इसकी तत्कालीन इब्राहीम लोदी से शिकायत की और ये बहुत दिनों तक कैद रहे। अंत में पानीपत की लड़ाई में जब इब्राहीम हारा और बाबर के हाथ में राज्य गया तब इनका छुटकारा हुआ।
जीवन के अंतिम दिनों में इनकी ख्याति बहुत बढ़ गई और इनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ। स्वयं विरक्त होकर ये अपने परिवारवर्ग के साथ रहने लगे और दान पुण्य, भंडारा आदि करने लगे। उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर अश्विन कृष्ण 10, संवत् 1597 (22 सितंबर 1539 ईस्वी) को इनका परलोकवास हुआ।
मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए। जब कि लोग यह विचार कर रहे थे कि नानक जी अपने बेटे श्रीचन्द को अपना उत्तराधिकारी बनायेंगे। किन्तु उन्होंने परिवार को नहीं प्रतिभा को मान दिया।
नानक अच्छे कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा ‘बहता नीर’ थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी, संस्कृत और ब्रजभाषा के शब्द समा गए थे।
गुरु नानक सिखों के ऐसे गुरु (आदि गुरु) हैं , जिनके जीवन से जुड़े प्रमुख गुरुद्वारा साहिब आज भी श्रद्धा के केन्द्र तो हैं ही, उनके जीवन को भी समेटे हुए हैं-
1. गुरुद्वारा कंध साहिब- बटाला (गुरुदासपुर) गुरु नानक का यहाँ बीबी सुलक्षणा से 18 वर्ष की आयु में संवत् 1544 की 24वीं जेठ को विवाह हुआ था। यहाँ गुरु नानक की विवाह वर्षगाँठ पर प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन होता है।
2. गुरुद्वारा हाट साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) गुरुनानक ने बहनोई जैराम के माध्यम से सुल्तानपुर के नवाब के यहाँ शाही भंडार के देखरेख की नौकरी प्रारंभ की। वे यहाँ पर मोदी बना दिए गए। नवाब युवा नानक से काफी प्रभावित थे। यहीं से नानक को ‘तेरा’ शब्द के माध्यम से अपनी मंजिल का आभास हुआ था।
3. गुरुद्वारा गुरु का बाग- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) यह गुरु नानकदेवजी का घर था, जहाँ उनके दो बेटों बाबा श्रीचंद और बाबा लक्ष्मीदास का जन्म हुआ था।
4. गुरुद्वारा कोठी साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) नवाब दौलतखान लोधी ने हिसाब-किताब में गड़बड़ी की आशंका में नानकदेवजी को जेल भिजवा दिया। लेकिन जब नवाब को अपनी गलती का पता चला तो उन्होंने नानकदेवजी को छोड़ कर माफी ही नहीं माँगी, बल्कि प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन गुरु नानक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
5. गुरुद्वारा बेर साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला) जब एक बार गुरु नानक अपने सखा मर्दाना के साथ वैन नदी के किनारे बैठे थे तो अचानक उन्होंने नदी में डुबकी लगा दी और तीन दिनों तक लापता हो गए, जहाँ पर कि उन्होंने ईश्वर से साक्षात्कार किया। सभी लोग उन्हें डूबा हुआ समझ रहे थे, लेकिन वे वापस लौटे तो उन्होंने कहा- एक ओंकार सतनाम। गुरु नानक ने वहाँ एक बेर का बीज बोया, जो आज बहुत बड़ा वृक्ष बन चुका है।
6. गुरुद्वारा अचल साहिब- गुरुदासपुर अपनी यात्राओं के दौरान नानकदेव यहाँ रुके और नाथपंथी योगियों के प्रमुख योगी भांगर नाथ के साथ उनका धार्मिक वाद-विवाद यहाँ पर हुआ। योगी सभी प्रकार से परास्त होने पर जादुई प्रदर्शन करने लगे। नानकदेव जी ने उन्हें ईश्वर तक प्रेम के माध्यम से ही पहुँचा जा सकता है, ऐसा बताया।
7. गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक- गुरुदासपुर जीवनभर धार्मिक यात्राओं के माध्यम से बहुत से लोगों को सिख धर्म का अनुयायी बनाने के बाद नानकदेवजी रावी नदी के तट पर स्थित अपने फार्म पर अपना डेरा जमाया और 70 वर्ष की साधना के पश्चात सन् 1539 ई. में परम ज्योति में विलीन हो गए।
तात्पर्य यह कि नानक साहब का जीवन भारतीय सनातन परम्परा की वह उत्कृष्ट दृष्टि को प्रतिपादित करती है जो इस्लाम के संक्रमण काल में भारतीय चेतना को आत्मबोध कराने और हिन्दू से इस्लाम बने बन्धुओं के अन्दर एक ही ईश्वर का भाव पैदा करने में सहायक थी। यह बात अलग है कि इन सारे प्रयत्नों के बाद भी देश इस्लाम और ईसाइयत के ऐसे थपेड़ों को सहने को मजबूर हुआ जिसमें न केवल सिख परम्परा के गुरु का अकल्पनीय बलिदान हुआ बल्कि बार-बार हिन्दू बटा और देश के कई टुकड़े हुए। फिर भी यदि नानक देव न होत तो शायद ही हमें गुरु गोविन्द सिंह प्राप्त होते और देश की अस्मिता की पहचान स्थिर रहती। भावी पीढ़ी इस परमआत्मा की सदा ऋणी रहेगी।
प्रकाश पर्व पर नमन।
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