Thursday, 29 December 2022

उदार मोमबत्ती

मित्र!
तुम्हारे उदार मोमबत्ती को 
प्रज्ज्वलित करने तत्पर हैं 
हमारे दीपक की 
सहस्त्र सहस्त्र उर्ध्वगामी शिखाएं,

एक टुकड़ा केक का केकड़ा 
धस गया भारत की मांटी पर
मलाई बन कर,

पुराने मंदिरों की हिल गई हैं नींव
जगह ले लिया है दीपकों का
कुछ विदेशी मतांतरित मोमबत्तियां ने।

हृदय तल की मौन प्रार्थना
गुम हो गई पुस्तकों के क्षद्म-सेवी
नख- दंती पृष्ठों पर

मेरी कविता ने जो रचा था
वसुंधरा के सद्भावना का आकाश
डसता जा रहा है ....रचा है जो.. 

पहुंचे तुम तक 
मेरी भगवाच्छादित ज्ञान रश्मियां
सत्य का संदेश लेकर।।
-उमेश
29/12/21

Saturday, 17 December 2022

मध्यप्रदेश, छग और राजस्थान की सरकारें क्या बदली ऐसी तीखी शब्दमर्यादा को तिलांजलि देती प्रतिक्रियाएं आ रही हैं कि मानों इन राज्यों का भूगोल खगोल ही बदल गया।
तर्पण करना है तो कुलांचे मारती सत्ता सुख की आसक्ति को करिए। भविष्य की आकाक्षाओं को आगत के स्वागत के लिये रखिये।
प्रार्थना और प्रयत्न यह रहे कि जन और तंत्र सुरक्षित रहे। नेताओं की शब्दमर्यादा अभी और टूटेगी। समाज जातीय सम्मोहन मे और प्राप्ति की आकांक्षाओं मे पतंगा बन रहा है उसे सम्हालने की आवश्यकता है।
भीष्म की प्रतिज्ञा और अर्जुन का मोह दोनों साथ रहेंगे। द्रोपदी का चीरहरण अवश्यंभावी है।काल की कठिन यात्राएं भीम को चाहे जितना उत्तेजित करें युधिष्ठिर का धैर्य नही टूटेगा ऐसा विश्वास आवस्यक है।कृष्ण जब तक हमारे भावबोध मे हैं धृतराष्ट्र विजयी नहीं हो सकता। गाधारी को चाहिए कि वह यथार्थ का बोध करे।अन्यथा कुलनाश सुनिश्चित है।
युयुत्सु की आवाज़ जिन्दा हो कौरवगण उसे समझे तभी शकुन की कायरता से बच सकेंगे।
सरकारी तंत्र को भगवा से नीला, सफेद, हरा होने मे समय नहीं लगता।उसके पास सिंहासन से बधे रहने की प्रतिज्ञा है। किन्तु नारद तो केवल नारायण के भक्त है। साहित्यिक संस्थाओं के कितने नारद तटस्थ रह पाते हैं देखने का अवसर है।

बघेली लोक संस्कृति

 

 

 

 

 

                                                                        बघेल खंड और उसकी लोक संस्कृति

                 गुजरात के गुर्जर प्रतिहारों से चालुक्य वंश जिन्हें सोलंकी कहा जाता था,  उनका एक क्षेत्र था अन्हिलवाडा । वहां पर कुमार पाल नाम का सोलंकी राजा हुआ जिसके बाद  बाघ्रपल्ली  में बाघ्रदेव का परिचय आता है । बाघ्रदेव का पुत्र था कर्णदेव जिनका विवाह कलचुरियों के यहाँ हुआ था और जिन्हें वान्धवगढ़ का किला मिला था ।  कर्णदेव  के  दो पुत्र भीमल देव और बीसलदेव को लेकर बाघ्रदेव प्रयाग आते हैं ।  तीर्थ यात्रा से  वापसी में कालिंजर (बांदा) में  लोधी राजा के यहाँ रुकते हैं  जहां राजभर के राजा ने राज कर रखा था । राजभर की तरफ से भीमदेव युद्ध करते हैं और लोधी राजा का प्रधानमंत्री तिवारी धोका देता है और लोधी हार जाता है । बाद में भीमदेव रीवा राज्य के तिवारियों को सिंह और अधरजिया तिवारी की उपाधि देते हैं, जो आज भी प्रचालन में है । राजभर राज्य को बुल्लारदेव दिल्ली सल्तनत से मुक्त कराते हैं  और महाराजाधिराज की उपाधि धारण करते हैं । बुल्लारदेव की पत्नी  माल देवी शीतला देवी का मंदिर बनवाती है, वही देवी बघेलों की कुलदेवी मानी जाती है । इनके बाद वीरन देव राजा बनाता है, यह काल लगभग 1389 से 1438 का है । इनका राज्य प्रयाग से अमरकंटक तक माना जाता है । इस राजवंश की एक लम्बी परम्परा है जो लगभग 1235 से प्रारम्भ होती है । इनके राजवंश में राजा रामचन्द्र थे जिनका समकालीन दिल्ली का शासक अकबर था । इन्हीं से अकबर ने  तानसेन (मैहर) और बीरवल (सिहावल)  को मांग लिया था । 1618 में विक्रमादित्य (यह विक्रमादित्य उज्जैन से अलग थे ) ने रीवा की राजधानी बसाई थे । विक्रमादित्य शेरशाह सूरी के समय के थे । राजा अनूप सिंह ने अनूपपुर बसाया जो आज शहडोल जिले से स्वतंत्र जिला बन चुका है ।  राजा भाव सिंह ने ‘होत्र कल्पद्रुम’ की रचना की तथा रीवा में ‘महामृत्युंजय’ का मंदिर बनवाया। इन्हीं की पत्नी अजब कुमारी ने  शारदा मंदिर और रानी तालाब बनवाया ।

यह रीवा का सौभाग्य है कि दो सौ वर्ष पूर्व रीवा राज्य के तत्कालीन महाराजा विश्वनाथ सिंह जूदेव द्वारा रचित हिंदी का पहला नाटक आनंद रघुनंदन विश्व इतिहास पटल में दर्ज हो चुका है।

माधवगढ़ का किला एक ऐतिहासिक किला है। यह किला सतना जिले में स्थित है। यह सतना जिलें का एक दर्शनीय स्थल है, आप किलें को बाहर से देख सकते है, क्योकि किलें के अंदर जाना मना था। 

माधवगढ़ का किला सतना जिले में तमस नदी के किनारे स्थित है। यह एक प्राचीन किला है। माधवगढ़ किले का निर्माण रीवा रियासत के महाराजा विश्वनाथ सिंह जूदेव के द्वारा किया गया था। यह किला 18 वीं शताब्दी में बनाया गया था। यह किला बघेली स्टाइल में  है। यह किला बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है।

              पहले रीवा राज्य और कालांतर में विंध्य प्रदेश की राजधानी बनाने के बाद से रीवा राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना रहा है। विंध्य प्रदेश के  गठन विघटन और समाजवादी आंदोलन की वजह से सन 1946 से 1956 तक लगातार यहां की राजनीतिक गतिविधियां राष्ट्रीय सुर्खियों में रही। महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का यहां व्यापक प्रभाव रहा ।कप्तान अवधेश प्रताप सिंह , राजभान सिंह तिवारी,यहां कांग्रेस की नींव रखने वालों में से थे। दोनों नेताओं ने कांग्रेस के कराची अधिवेशन में भाग लिया। सन 1920 में नागपुर अधिवेशन के निर्णय के मुताबिक बघेलखंड कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ। 30 मई, 1931 को कटनी के धर्मशाला में बघेलखंड कांग्रेस कमेटी का विधिवत गठन किया गया । यादवेंद्र सिंह इसके प्रथम अध्यक्ष, कप्तान अवधेश प्रताप सिंह मंत्री व राजभान सिंह तिवारी कोषाध्यक्ष हुए । 1932 के चुनाव में कप्तान अवधेश प्रताप सिंह बघेलखंड कांग्रेस कमेटी के निर्वाचित अध्यक्ष बने। कांग्रेस कमेटी ने उस समय छेड़े गए सभी राष्ट्रव्यापी आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा की । चाहे वह सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या फिर भारत छोड़ो आंदोलन । आजादी के बाद से मध्य प्रदेश के गठन तक यहां की राजनीति संक्रमण काल के दौर से गुजरी । इसी दरमियान समाजवादी दल का अभ्युदय हुआ, जो आगे चलकर कांग्रेस के मुकाबले एक सशक्त राजनीतिक रूप में स्थापित हुआ। विंध्य के प्रमुख राजनीतिक घटनाओं को दो काल खंडों में बांटा जा सकता है ,विंध्य प्रदेश व उसके बाद ।

              देश 15 अगस्त, 1947 को आजाद हो गया। रीवा राज्य के राज्य प्रमुख नरेश मार्तण्ड सिंह ही थे । कांग्रेस का समानांतर संगठन था। आजादी के बाद आसन्न प्रश्न था कि रीवा राज्य के भारत संघ में विलय का। तत्कालीन गृह मंत्री बल्लभ भाई पटेल ने इसे अंजाम देने कैबिनेट सचिव मेनन को भेजा । श्री मेनन राज्य प्रमुख मार्तण्ड सिंह की उपस्थिति में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं से बातचीत की। अंततः यह  सहमति बनी कि बघेलखंड और बुंदेलखंड की उस रियासतों को मिलाकर विंध्य प्रदेश का गठन हो। इसके दो मुख्य मंडल हों एक बुंदेलखंड का, जिसकी राजधानी नौगांव हो और दूसरा बघेलखंड का। रीवा नरेश राज्य प्रमुख बने और पन्ना नरेश को उप राज्य प्रमुख बनाने पर सहमत हुई। इस तरह 4 अप्रैल 1948 को  विंध्य प्रदेश का विधिवत गठन हुआ । बुंदेलखंड मंत्रिमंडल के प्रधानमंत्री कामता प्रसाद सक्सेना व मंत्री गण थे लालाराम बाजपेई, रामसहाय तिवारी और गोपाल शरण सिंह बघेल खंड मंत्रिमंडल के प्रधानमंत्री बने आर. एन. देशमुख मंत्री गण थे यशवंत सिंह, यादवेंद्र सिंह, इंद्र बहादुर सिंह और शंभूनाथ शुक्ला । 

              3 जून, 1948 को बघेलखंड बुंदेलखंड को मिलाकर संयुक्त विंध्य प्रदेश बना। 10 जुलाई को कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व में मंत्रिमंडल का गठन किया गया। जिसमें कामता प्रसाद सक्सेना उप प्रधानमंत्री, राव शिव बहादुर सिंह, हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह, सत्यदेव, गोपाल शरण सिंह, चतुर्भुज पाठक मंत्री बने। यह मंत्रिमंडल 14 अप्रैल, 1949 तक चला ।

               इसी बीच कांग्रेस में सोशलिस्ट गुट सक्रिय हो गया। रीवा में जगदीश जोशी के नेतृत्व में कांग्रेस सोशलिस्ट की नींवें सन 1946 में रखी जा चुकी थी । राष्ट्रीय सचिव मोहनलाल गौतम ने इसे विधिवत मान्यता दे दी । श्री जोशी के नेतृत्व में सोशलिस्ट गुट में यमुना प्रसाद शास्त्री, कृष्णपाल सिंह, श्रीनिवास तिवारी, अच्युतानंद मिश्र, शिवकुमार शर्मा सिद्धिविनायक द्विवेदी, आदि सक्रिय हो गए । यह सभी नेता किशोर उम्र के थे, फिर भी पूरी शिद्दत के साथ राजनीति में दखल रखते थे । सोशलिस्ट गुट के जरिए यहां की राजनीति में दो समानांतर धाराएं खड़ी हो गई । एक बुजुर्ग के वर्चस्व वाली कांग्रेस पार्टी जो कि सत्ता में काबिज थी । और दूसरी युवा तुर्कों का सोशलिस्ट गुट । जब तक यह गुट कांग्रेसका एक अंग बना रहा, तब तक यह सत्ता प्रतिष्ठान के खिलाफ मुखर था।

              महाराजा गुलाब सिंह निर्वासन व्यतीत कर रहे थे । समाजवादी युवाओं की सहानुभूति गुलाब सिंह के साथ थी । वह उनके पक्ष में यहां वातावरण तैयार करने में लगे थे। सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े कांग्रेश के बुजुर्ग नेता राजप्रमुख मार्तण्ड सिंह के साथ थे । आशय यह कि समकालीन राजनीति में राजपरिवार की केंद्रीय भूमिका थी । स्टूडेंट कांग्रेस पूरी तरह सोशलिस्ट के प्रभाव में थी। जगदीश जोशी जैसे तत्कालीन युवा नेताओं के पीछे छात्रों, युवाओं का हुजूम मर मिटने को तत्पर था । जयप्रकाश नारायण यहां की युवकों के लिए आदर्श थे, और जगदीश जोशी उनके हीरो । समाजवादी गुट तत्कालीन मंत्रिमंडल के खिलाफ था । क्योंकि इनका मानना था कि विंध्य प्रदेश का मंत्रिमंडल भूतपूर्व सामंतों से भरा पड़ा है ।

 सन 1948 में नाशिक सम्मेलन में सोशलिस्ट गुट कांग्रेस से अलग हो गया । समाजवादी दल (सोशलिस्ट पार्टी) का विधिवत गठन हो गया।इसी दरम्यान शासन की शह पर किसानों को बेदखली शुरू हुई । नवगठित सोशलिस्ट पार्टी की ज्वलंत मुद्दा किसानों व मजदूरों से जुड़ा हुआ मिल गया । इन मुद्दों को लेकर वे अपने आंदोलन को समूचे विंध्य में फैलाया। उसे धारदार बनाया ।

              रीवा में समाजवादियों के आंदोलन ने डॉ राम मनोहर लोहिया को काफी प्रभावित किया। आजादी की पहली सालगिरह 15 अगस्त, 1948 को डॉ राम मनोहर मनोहर लोहिया यहां आए, तो युवकों का सैलाब उमड़ पड़ा। किसानों का आंदोलन समाजवादियों के नेतृत्व में तेजी से फैला । उसी समय डॉक्टर लोहिया जी जिनका रीवा से निरंतर संपर्क बना रहा, एक "पाँव रेल में, एक पाँव जेल में" नारा दिया 1949 के सोशलिस्ट पार्टी के पटना सम्मेलन में रीवा से जगदीश जोशी, यमुना प्रसाद शास्त्री, श्री निवास तिवारी के नेतृत्व में समाजवादी युवकों का जत्था पटना भाग लेने गया। इस अधिवेशन में श्री जोशी जी सोपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में आ गए । जबकि उनकी उम्र चुनाव लड़ने तक कि नहीं थी। वही आचार्य नरेंद्र देव, डॉक्टर लोहिया, जयप्रकाश, अच्युत वर्धन का मार्गदर्शन मिला व नए जोश के साथ समाजवादी रीवा लौटे ।

              इस दरम्यान विंध्य प्रदेश के कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल 9 माह की अल्प अवधि में ही बर्खास्त कर दिया गया। राज्य में प्रशासनिक अस्थिरता और अराजकता थी। गृहमंत्री सरदार पटेल यह धारणा बना चुके थे कि विंध्य प्रदेश को मध्य प्रदेश, मध्य प्रांत के साथ विलय कर दिया जाए ।किसानों की बेदखली के खिलाफ आंदोलन के बाद समाजवादियों को यह बड़ा मुद्दा मिल गया । डॉक्टर लोहिया ने आंदोलन छेड़ने का निर्देश दिया। 2 जनवरी 1950 से आंदोलन की विधिवत शुरुआत हुई।आंदोलनकारी चक्का जाम करने बस स्टैंड पहुंचे । वहां पुलिस से झड़प हुई आंदोलन के पहले दिन ही पुलिस ने गोली चलाई। अजीज, गंगा और चिंताली, विंध्य प्रदेश के विलीनीकरण आंदोलन के खिलाफ शहीद हो गए।

              जगदीश जोशी, यमुना प्रसाद शास्त्री, श्री निवास तिवारी, सिद्धिविनायक द्विवेदी, शिवकुमार शर्मा, अच्युतानंद मिश्रा आदि नेता गिरफ्तार कर केंद्रीय कारागार में डाल दिए गए । यहां आंदोलनकारियों और अधिकारियों के बीच कहा सुनी हुई, तो उन्हें मैहर जेल भेज दिया गया । फरवरी 1950 को सोशलिस्ट पार्टी की ओर से हिंद किसान पंचायत का सम्मेलन आयोजित किया गया।यह ऐतिहासिक सम्मेलन शहर के बाहर पुष्पराज नगर (तब निपनिया) में आयोजित किया गया । 2 महीने तक आंदोलनकारी नेताओं को मैहर जेल में रखा गया ।  सम्मेलन के दिन ही मैहर से इन्हें रिहा कर दिया गया। सम्मेलन प्रारंभ होने के कुछ पश्चात, यह नेता जब पहुंचे तो खुद डॉक्टर लोहिया ने जोशी, यमुना, श्रीनिवास जिंदाबाद जिंदाबाद का नारा लगवाकर इनका अभिवादन किया । समाजवादियों ने आंदोलन को इस मुकाम तक पहुंचा दिया कि सरकार को हारकर विंध्य प्रदेश का विलय रोकना पड़ा । पर विंध्य प्रदेश को सी क्लास प्रदेश घोषित कर दिया । जो कि सीधे केंद्र शासन आधीन था । केंद्र ने यहां चीफ कमिश्नर की जगह लेफ्टिनेंट गवर्नर की पदस्थापना कर दी। श्री के.सन्यानम को गवर्नर बनाकर भेजा । 

              इसी बीच समाजवादियों ने नए नारे के साथ नया आंदोलन शुरू कर दिया । " विंध्य प्रदेश बचाएंगे, धरना सभा बनाएंगे । अंततः विंध्य प्रदेश की विधानसभा के लिए विधिवत चुनाव की घोषणा कर दी गई।

              तत्कालीन विंध्य प्रदेश में विधानसभा की 60 सीटें थी । युवा तुर्क समाजवादियों ने नए जोश के साथ चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। तब तक कांग्रेस के मुकाबले समाजवादी दल स्थापित हो चुका था । सन 1954 में आचार्य जे.बी. कृपलानी ने किसान मजदूर प्रजा पार्टी का गठन कर दिया । अवधेश प्रताप सिंह मंत्रिमंडल में सदस्य रहे बैकुंठपुर के इलाकेदार हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह को पार्टी की प्रदेश इकाई का अध्यक्ष बना दिया गया । विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हो गई। चुनाव मैदान में कांग्रेस,सोशलिस्ट पार्टी, किसान मजदूर प्रजा पार्टी,राम राज्य परिषद प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में उभरे ।

              1952 के प्रथम लोकसभा व विधानसभा के चुनाव के कशमकश मे मुख्यरूप से कांग्रेस समाजवादी दल के बीच ही रही । लोकसभा में कांग्रेस के उम्मीदवार विजयी हुए, जबकि विधानसभा चुनाव में समाजवादियों को कुछ सफलता जरूर मिली । विंध्य प्रदेश के समय रीवा जिले में 11 विधानसभा क्षेत्र थे। मऊगंज विधानसभा क्षेत्र से 2 सदस्य निर्वाचित होते थे । अन्य विधानसभा क्षेत्र थे हनुमना, त्योंथर, गढ़ी , सेमरिया, सिरमौर रीवा, रायपुर (मुकुंदपुर) । इस चुनाव में कांग्रेस को 6 सीटों पर त्योंथर, गढ़ी, सेमरिया, सिरमौर मनगवां, गुढ़, रीवा रायपुर तथा मुकुंदपुर में विजय मिली । सोशलिस्ट पार्टी में 11 विधानसभा क्षेत्रों में 12 स्थानों पर अपने उम्मीदवार खड़े सोपा ने रीवा, मनगवां, मऊगंज की आरक्षित सीट जीत ली ।  जगदीश जोशी रीवा से, श्रीनिवास तिवारी मनगवां से निर्वाचित हो गए । जबकि तीसरे प्रमुख नेता यमुना प्रसाद शास्त्री सिरमौर क्षेत्र से हारौल नर्वदा प्रसाद सिंह से चुनाव हार गए । हरौल की किसान मजदूर पार्टी को 1 सीट सिरमौर की मिली। शेष चुनाव हार गए । रीवा के प्रथम अजा विधायक मऊगंज से सोपा के सहदेई निर्वाचित हुए । मऊगंज सामान्य से निर्दलीय सोमेश्वर सिंह जीते। जबकि हनुमना की सीट रामराज परिषद की ईश्वराचार्य ने जीती । विंध्य प्रदेश की विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ उभरी । कांग्रेस की राजनीति में पंडित शंभूनाथ शुक्ल सर्वमान्य नेता के रूप में उभरे । वहां कप्तान अवधेश प्रताप सिंह, राजभान सिंह तिवारी व यादवेंद्र सिंह का अवसान प्रारंभ हो गया । अवधेश प्रताप सिंह यद्दपि राज्यसभा के निर्वाचित हुए ।

               दूसरी ओर समाजवादी नेता धूमकेतु तरह राजनीति में छा गए । सन 1952 में चुनाव जीतकर आए जगदीश जोशी व श्रीनिवास तिवारी दोनों के चुनाव की वैधता के उम्र को लेकर चुनौती दी गई । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाजवादी युवा तुर्कों को यहां की जनता ने सिर माथे पर बिठाया ।

               विंध्य प्रदेश के 60 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को 44 सीटें, सोशलिस्ट पार्टी को 11 सीटें, किसान मजदूर प्रजा पार्टी को 3 सीटें, रामराज परिषद को 2 सीटें मिली। विधायिका के इतिहास में जगदीश जोशी को सबसे कम उम्र का नेता प्रतिपक्ष बनने का गौरव प्राप्त हुआ । उनका चुनाव अदालत ने उम्र के सवाल पर रद्द कर दिया । पंडित शम्भूनाथ शुक्ला, विंध्य प्रदेश के प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री बने । जबकि प्रजामंडल के अध्यक्ष रहे शिवानंद( सतना) प्रथम विधानसभा अध्यक्ष बने । पंडित शंभूनाथ शुक्ला मंत्रिमंडल के सदस्यों में थे लालाराम बाजपेई (गृह) श्री गोपाल शरण सिंह ( कृषि लोक निर्माण) महेंद्र कुमार मानव (शिक्षा), दान बहादुर सिंह (वन) विस्तारोपरांत दशरथ जैन शामिल किए गए । इस विस्तार में बाजपेई व मानव हटा दिए गए ।

               इस चुनाव में समाजवादी राजनीति को उस वक्त गहरा धक्का लगा, जब इसके शीर्ष नेता आचार्य नरेंद्र देव व जे.बी. कृपलानी चुनाव हार गए। डॉक्टर लोहिया और जयप्रकाश नारायण चुनाव लड़े ही नहीं। इसी निराश के बीच सन 1953 में पचमढ़ी में सोपा का सम्मेलन हुआ। यहां यह तय हुआ कि समान विचारधारा वाली पार्टियों का विलय होना चाहिए। सोपा की बंबई में कार्यसमिति की बैठक हुए, उसमें किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलय स्वीकार कर लिया गया । नए राजनीतिक दल का नाम प्रजा सोशलिस्ट पार्टी रखा गया। हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह को विंध्य की इकाई का अध्यक्ष बना दिया गया। सन् 1955 में हैदराबाद सम्मेलन में प्रसोपा का पुनः विघटन हुआ । दो दल अस्तित्व में आए प्रसोपा व सोपा । प्रसोपा के नेता आचार्य नरेंद्र देव थे । व  सोपा के डॉक्टर राम मनोहर लोहिया । रीवा में यमुना प्रसाद शास्त्री ने प्रसोपा की कमान संभाली । जबकि सोपा जगदीश जोशी, श्रीनिवास तिवारी के नेतृत्व में संगठित हुआ ।

              इसी बीच राज्यों के पुनर्गठन आयोग ने विंध्य प्रदेश, मध्य प्रांत और महाकौशल को मिलाकर मध्य प्रदेश के गठन का प्रारूप बना । विलीनीकरण की तलवार विंध्य प्रदेश पर लटकी हुई थी । सरदार पटेल ने इस पर दखल दिया । समाजवादी दल के नेताओं ने विलीनीकरण के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया । लोहिया का मार्गदर्शन इस आंदोलन को मिला । यहां कांग्रेस का पूर्ण बहुमत था । बुंदेलखंड क्षेत्र के प्रायः सभी जनप्रतिनिधि विलय के पक्ष में थे । कांग्रेस के स्थानीय प्रमुख नेता बिल के मसौदे पर दबाव बस या स्वेच्छा से दस्तखत कर आए । आंदोलन और उग्र हुआ जिसकी परिणति विधानसभा के भवन के भीतर प्रदर्शनकारियों ने बलात प्रवेश किया व सत्ताधारी दल के प्रतिनिधियों के साथ मारपीट व छीना झपटी हुई । प्रदर्शन और आंदोलन  विंध्यप्रदेश के अस्तित्व को नहीं बचा सका । नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश की विधिवत घोषणा कर दी गई । प्रदेश का अस्तित्व विलीन हो गया ।

 

 

              राजा अजीत सिंह के जमाने में शाह आलम का पुत्र अकबर द्वितीय का जन्म रीवा के मुकुंदपुर (गोविन्दगढ़ के पास ) में हुआ था । 1854 से यहाँ के राजा रघुराज सिंह थे, जिन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया ।  उनके नेतृत्व में  ठाकुर रणमत सिंह (जिनके नाम पर रीवा में (टी आर एस) ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय जाना जाता है ), श्याम सिंह (जिनके नाम से श्यामशाह मेडिकल कालेज रीवा है ), और पंजाब सिंह तथा धीर सिंह ने अंग्रेजों से युद्ध किया । ईस्ट इंडिया कंपनी को  ईस्ट इण्डिया रेलवे के लिए इन्होंने  ही जमीन दी थी ।  व्यंकट रमण (तीन साल ) के गद्दी पर बैठे और जिन्होंने  ‘बघेल खंड नाटक कंपनी बनाई । गुलाब सिंह १९१८ से १९४६ तक महात्मा गाँधी के आन्दोलन में भागीदारी की राजा मार्तंड सिंह जो बघेलखंड और बुंदेलखंड सहित ३५ रियासतों को मिलाकर सम्मिलित रियासत के बिन्ध्यप्रदेश के अंतिम शासक बनेइन्होने ही १९५१ में सफ़ेद शेर पकड़ा जिसका नाम मोहन थी .

परन्तु पहले बघेलखंड का संक्षिप्त  परिचय ।

              बघेलखण्ड का परिचय- (रामपुर बघेलान निवासी स्व. लखन प्रताप सिंह उरगेश’) के शब्दों में- ‘‘बिन्ध्य की कैमोर और मेकल श्रृंखलाओं की चोटियों, घाटियों और उपत्यकाओं के बीच बसा हुआ, बघेलखण्ड प्रकृति देवी के शिशु की क्रीड़ा-भूमि सा शोभायमान लगता है। उत्तर भाग में जिसके मस्तक पर पुण्यतोया तमसा का मन्थर प्रवाह चल रहा है; जिसके शीर्ष भाग पर पुरवा, चचाई, क्योटी और बहुती के जल प्रपात, चतुरानन की भाँति चरणनख के पवित्र जल से पतित पावन नर्मदा और सोनभद्र का उद्गम है और एक विपरीत दिशा में जुहिला (ज्वाला गंगा) अपने उर्मिल प्रवाह से पर्वत मालाओं को विदीर्ण करती हुई घाटियों में बल खाती हुई बहती चली जा रही है; जहाँ पर सोन मूड़ा, कपिल धारा, दूध धारा जैसे जल प्रपात लाखों यात्रियों का चित्त रंजन करते हैं; जिसके पूर्वी भाग के सीधी-ङ्क्षसगरौली के गहन वन्य-प्रदशों में भगवान् भास्कर के स्वागतार्थ उषा प्रति प्रभात में स्वर्णभा बिखेर देती है; जहाँ पर भारतीय संस्कृति की प्रतीक रावण-माड़ा की तपोभूमि की अनेक गुफाएं और पहाडिय़ों की चोटियों से झरनों के उर्मिल प्रवाह की  बेगवती धारायें तथा करसुआ के लहराते हुए कदलीवन बरबस अपनी ओर चित्त खींच लेते हैं; जिसके पश्चिमी भाग में पन्ना और अजयगढ़ की नयनाभिराम घाटियों के दृश्य प्रारंभ होते हैं; जिसके एक छोर से दूसरे छोर तक सोहागी, छुहिया, गोरसरी, कोहरा खोह, हरदी घाट, किरर, करेंगरा, बदरापानी, उमर गोहान और जालेश्वर की घाटियोँ अपनी अलौकिक धुंधकार छवि से मनुष्य की बुद्धि को आश्चर्य चकित कर देती हैं; जहाँ की गन्धयुक्त वायु का प्रत्येक झोंका प्राणों में एक नया आह्लाद, नया उन्माद और नया अल्हड़पन जाग्रत करता है।’’

              बघेलखण्ड को विन्ध्यप्रदेश भी कहते हैं । विन्ध्यप्रदेश (15 अगस्त, 1947 को रीवा रियासत के अंतिम नरेश महाराजा मार्तण्ड सिंह ने अन्य रियासतों की तरह अपनी रियासत को भारतीय संघ में विलय के लिये हस्ताक्षर कर दिया। 4 अप्रैल , 1948 को एन.वी. गाडगिल ने रीवा आकर विन्ध्यप्रदेश के निर्माण की घोषणा की । रीवा नरेश महाराजा मार्तण्ड सिंह को राज्य प्रमुख तथा पन्ना नरेश यादवेन्द्र सिंह को उपराज्य प्रमुख बनाया गया । 10जुलाई, 1948 को कप्तान अवधेश प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। 1950 में मार्तण्ड सिंह ने राजप्रमुख का पद छोड़ा दिया। 1956 में विन्ध्य प्रदेश का विलय  होकर म.प्र. एक नया राज्य हो गया।) या  बघेल खण्ड (गुजरात ते आये दुइ भाई: भिम्मनदेव जेठे बीसलदेव लहुरे। कालिंजरहि आय भरराजा के चाकर भें।अर्थात दिल्ली के खिलजी सुलतान के हमले के बाद जब गुजरात के अंतिम बघेला, राजा कर्ण बघेला को उसके व्यभिचार पर अन्हिवाड़ा पट्टन से हटाया गया (लगभग 1297 ई.) तब भगदड़ में जिसे जहाँ सिर छुपाने की जगह मिली वे वहीं भागे, इसी में उक्त दोनों भाई भी आये और कालान्तर में उनके वंशजों ने रीवा रियासत बनाई और इस क्षेत्र का नाम बघेलखंड पड़ा।), प्रकृति के इस सुन्दर रंग-मंच पर जो गीतोत्सव अनन्त काल से पल्लवित होते आये हैं, उनमें स्वभावत: जीवन की अनुभूतियों की अभिव्यक्ति प्रकृति के उपादानों के माध्याम से हुई है।

बुन्देली और बुन्देलों का बघेलखण्ड पर प्रभाव- यह प्रभाव किस तरह से बना इसका एक उदाहरण देखें- कप्तान पागसन pogson बुन्देलों के इतिहास (1828 ई.) में लिखते हैं कि जब अली बहादुर ने जसवंत राय नायक के हादसे का समाचार सुना तो उसे अपने बहादुर, वफादर सेनापति के मारे जाने पर ऐसा धक्का लगा कि उसने अपनी पगड़ी उतार दी और शपथ खाई कि, जब तक रीवाँ वालों से बदला नहीं लूँगा, पगड़ी नहीं पहनूँगा। हिम्मत बहादुर ने आकर तसल्ली और दिलासा दिया और भविष्य के लिये  आशा दिलाई।

    

बघेलखंड के त्योहार एवं लोकगीत: परम्परा और ऐतिहासिकता

 विशेषताएं -  रीवा में सुपारी के खिलौने, उचेहरा में  कांसे और पीतल के वर्तन , पंचमाठा शंकराचारी ने विश्राम किया था , तान सेन , बीरवल ,बाणभट्ट की जन्मभूमि , छुहिया पहाड़ , विध्यचाल , सफ़ेद शेर , मांडा की गुफाएं ,

       साहित्य के प्रति शास्त्रीय दृष्टि जब तक प्रमुख रही, लोक साहित्य गौण रहा। वर्तमान युग में मनुष्य के प्रति दृष्टि के बदलने से मृतत्व का महत्व उत्तरोतर बढ़ा और नयी खोजों के माध्यम से मानव इतिहास की गहराइयों में भी प्रवेश हुआ । परिणामस्वरूप जिन विषयों को उपेक्षित माना जा रहा था, उन्हें महत्व मिलना प्रारम्भ हुआ। जिस तरह प्रागैतिहासिक चित्रकला, लोककला, बालकला आदि ने कला के क्षेत्र में नया चिंतन विकसित किया, उसी तरह ही साहित्य के क्षेत्र में लोकगीत, लोककथाएँ और लोकभाषाएँ अत्याधुनिक अध्ययन का केन्द्र  बन गईं।

 लोकोत्सव के अध्ययन का विषय भी सामने आया। साथ में एक प्रश्र भी ध्यान में आया कि इन लोकोत्सव के पीछे का कारण क्या है? मनुष्य के जीवन में केवल सुख की पूर्णिमा ही नहीं, दु:ख की अमावश्या भी आती है। मनुष्य अपने लाख पुरुषार्थों से जब दु:ख को नहीं मिटा पाता तो अपने को भाग्य के भरोसे छोड़ देता है। तब भीषण झंझावतों से टकराकर, आँधी-तूफान के थपेड़े सहकर, रास्ते की पथरीली चट्टानों को पार करते हुए भी मानव के मन में आस्था का एक अखण्ड दीप जलता है। यह वहीं आस्था है जिसके बल पर पार्वती शिव को पाने अखण्ड तपस्या करती हैं। यह वहीं आस्था है, जिसके सहारे सीता अशोक बाटिका में रह पाती है। यह वहीं आस्था है, जब राम कहते हैं रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाहिं पर बचन न जाई।आस्था तप का आधार होता है और तुलसीदास कहते हैं तप अधार सब सृष्टि भवानीआदि।

हमारे जीवन में व्रत और त्योहार क्रमश: श्रेय और प्रेय के प्रतीक हैं। व्रतों में हम उस असीम के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हैं जो अलौकिक है, कल्याणकारी है, जो हमारे असत् कर्मों का मेटनहार है। हमारी आस्था ने ही कहा भावी मेट सकहिं त्रिपुरारी।त्यौहार हमारे सामाजिक जीवन के चित्र हैं। त्योहारों का मार्ग प्रेय का मार्ग है। ये जीवन के लौकिक आधार हैं, इनसे हम आपसी मनोमालिन्य मिटाते हैं। सामाजिक समरसता को बढ़ाते हैं।

त्योहारों की आन्तरिक धारा पूरे देश में एक होते हुए भी उसके बाह्य स्वरूपों में क्षेत्र के आधार पर भिन्नता दिखाई देती है। बघेलखण्ड के उत्सवों का भी परिचय कुछ इसी प्रकार है। यहाँ उसी को देखने का प्रयत्न करेंगे।

बघेलखंड में रायसा रासो का संक्षिप्त संस्करण एवं शैली के रूप में पाया जाता है किन्तु यह पृथ्वी राज रासों के समान काल्पनिक नहीं है। आदित्य प्रताप ङ्क्षसह अजीत फते नायक रायसा, जिसे बघेलखंड का आल्हा भी कहते हैं की भूमिका में लिखते हैं-“रासो परंपरा से भिन्न इस ग्रंथ में युद्ध का कोई काल्पनिक कारण अथवा कोई संयोगिता न होकर यशवंत राव पेशवा के बुंदेलखंड को अधीनस्थ करने के बाद रीवा को आधीन करने के प्रयास के कारण हुआ। वह एक विशाल वाहिनी लेकर बढ़ा। .... घटना चाहे जितनी मामूली रही हो पर रीवा के संन्दर्भ में उसका अहम महत्व है। छत्तीसगढ़ की बोली और भाषा जो बघेली के बहुत निकट थी। मरहठों और मरहठी प्रभाव के कारण भिन्न हुई। किन्तु मरहठों का आधिपत्य यहाँ नहीं हो सका अत: बघेली और बघेलखंड का जो रूप रामगढ़ी और गोंड़ी से विकसित हुआ तथा  अपभ्रंशों से छनकर आया वह अपनी अस्मिता के साथ आज भी सामयिक परिवर्तनों के साथ बरकरार है।

वीर काव्यों में जीवन से अधिक मृत्यु का मूल्य रेखांकित किया जाता रहा है चाहे वह देशी काव्य हो या परदेशी या विदेशी। फिरदौसी ने युद्ध के नगाड़ से अमरत्व के स्वर नहीं जीवन की क्षणिकता के स्वर मुखर किए हैं। इस क्षणिक जीवन का मूल्य प्राणों के उत्सर्ग में है-

नक्कारा आवाज आयद बेरुँ, के दूनस्त दूनस्त दुनयाए दूं

इसी तरह नायक रायसा में भी है-

नायक आयो सुनि परयो, खर भर शहर मझार

अंग्रेजी कवि टैनिसन ने भी लिखा है- - “ There’s not the question why, ther’s but do and die in the valley of death.”  युद्ध भूमि ही मृत्यु की घाटी है।  यही भाव अजीत फतेह में श्यामशाह (जिनके नाम से रीवा मेडिकल कालेज का नामकरण है) के लिये व्यक्ति किया गया है- सनमुख रण का मरना अति भाग, लेगधार मुख धेउब कारिख लाग।अथवा वीरन को तेग धार काशी है।वह युग देश के लिए जीन नहीं मरना मांगता था जबकि आज मरने नहीं देश के लिए जीने की आवश्यकता है।

बघेलखण्ड में त्योहार और उनके गीत-  बघेलखण्ड में त्योहारों की एक लम्बी परम्परा है। यहाँ यदि हम ऋतुओं को आधार बना कर इन उत्सवों को देखें तो लगभग वे सभी उत्सव यहाँ मनाये जाते हैं, जो सम्पूर्ण भारत में। साथ ही यहाँ एक बात ध्यान में रखनी पडग़ी की बघेलखण्ड का सांस्कृतिक परिवेश जहाँ बुंदेलखण्ड से प्रभावित है, वहीं कुछ भाग उत्तरप्रदेश के लोक परम्परओं को समेटें है। दूसरी बात यह कि यहाँ केवल उन्हीं उत्सवों का विचार किया जा रहा है जिनका अपना सामाजिक समरसता में महत्व है अथवा शौर्य की परंपरा को बताते हैं।

कजरी नवमी- श्रावण नवमी को यह व्रतोत्सव प्रारंभ होता है। इसे जातीय उत्सव भी कहते हैं। इसमें कुछ विशेष जाति की स्त्रियाँ सोलह श्रृंगार करके गाती  बजाती हैं और नियत स्थान पर जाकर मिट्टी लाती हैं। मिट्टी के वर्तन में गेहँू अथवा जौ बोकर ढँककर वे ऐसे स्थान पर रख देती है जहाँ पौधे को हवा और धूप न लगे। इसे बुन्देलखंड में भुजलियाँ तथा बघेलखंड में कजरियां या खुजलंइया कहते हैं। इसका सम्बन्ध महोवा से भी है। किन्तु बघेलखंड में इस व्रत ने उत्सव का स्थान बना लिया है। इसका प्रारंभ कैसे हुआ इसे तो ठीक से आज भी कोई बता नहीं पाता किन्तु लगभग अस्सी वर्ष तक के लोगों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि उनकी जानकारी में यह उत्सव मनाया जाता है। पहले यह उत्सव गोविन्द गढ़ के तालाव में मनाया जाता था। वहाँ गजरियां सेराने अर्थात पानी  में धोने और  बहाने महिलाएँ जाती थी। गीत और संगीत होते थे। पुरुष लोग अपने करतब दिखाते और सन्ध्या होते राज्य के महाराजा भी वहाँ पहुँचते और सब उनका अभिवादन करते। वहाँ  किसी भी प्रकार का ऊँच-नीच, छुआ-छूत का कोई भेद भाव नहीं होता। सब लोग अपास में वर्ष भर का  मनोमालिन्य मिटाते। राजसाही के खत्म होते -होते धीरे-धीरे यह उत्सव गाँव-गाँव तक पहुँचा और विशिष्ट जाति या परितवार के दायरे से निकल कर आम जनता का उत्सव हो गया। 

इस अवसर पर झूला झूलने की प्रथा भी है। इसमें ननद के माध्यम से पति का स्मरण किया जाता है। यथा-

कउन रंग मुंगवा कउन रंग मोतिया/ कउन रंग ननंदी के बिरना/ लाल रंग मंूगा सुपेत रंग मोतिया / संवरे रंग ननंदी के बिरना।

गीत में एक लोक मर्यादा है। ऐसा लगता है वनवास की सीता अपने पति का परिचय ग्राम वासियों से करा रही हो।

दूसरा गीत- उत्सव में हमारी परंपरा कैसी मिलती है, इस गीत  में कान्हा और गोपियों के माध्यम से बताया गया है।

सखिया चला चली दरसन का, / ब्रज मां झूलि रहे गोपाल,/ कारे झूले कौंन झुलावैं, / को रे खींचै डोर,/ सखिया चला .......  , कान्हा झूले, गोपि झुलावैं, सखियाँ खीचैं डोर, सखिया चला .......  / काहेन काठ का बना हिंडोलना,/काहेन लागी डोर,/ सखिया चला .......  चंदन काठ का बना रे हिंडोलना,/ रेशम लागीं डोर/ सखिया चला ......।            

इसी तरह इस अवसर पर गाया जाने वाला गीत- बिन्ध्य के पहार,/ पानी बरसै ललकार,/ चद्दर भीजैं रंगेदारी अरे सांवलिया,/ सावनवा के लहरा अरे सांवलिया,/ विन्ध्याचंल के पंडा,/ उइ हाथ माँ लीन्हें डंडा,/ चलावैं एसेी सनकी अरे सांवलिया, / सावनवा के लहरा अरे सांवलिया।

अर्थात पति पत्नी तीर्थ यात्रा के लिये विन्ध्याचल क्षेत्र गये हैं। पत्नी कहती है देखो यहाँ विन्ध्याचल पर्वत पर पानी कितने जोरों से बरस रहा है। अरे मेरी यह रंग-विरंगी चादर भीग रही है। यह सावन की बहार है। यह हाथ में डंडा लिये विन्ध्याचल का पंडा कितना शरारती हैं देखो यह कैसे इशारे कर रहे हैं। प्रियतम् पानी जोरों से बरस रहा है, मेरी रंगीन चादर भींग रही है यह सावन की बहार है। यह उत्सव महोवा में बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है जिसमें अल्हा-ऊदल की शौर्य परम्परा को स्मरण किया जाता है।

नैकहाई का बिरहा- यह शौर्य का उत्सव आज भी बिन्ध्य क्षेत्र में देखा जा सकता है, जो कई-कई हप्ते चलता है, जिसमें कई-कई गाँव के लोग इकठ्ठे होते हैं। नैकहाई का युद्ध सन् 1796 की रीवा नरेश महाराजा अजीत सिंह जी के राज्यकाल की एक विशेष घटना है। मरहठों के मुखिया अली बहादुर ने यशवन्तराव नायक को एक बड़ी सेना के साथ रीवा पर चढ़ाई करने के लिए भेजा। रीवा पहुँचकर यशवन्तराव ने रीवा से दक्षिण दो मील पर डेरा डाल दिया, जिसे आजकल नैकहाई के नाम से पुकारा जाता है। यहाँ पर सैकड़ों छोटी-छोटी छतरी और मन्दिर वीरों के स्मारक रूप में बने हैं। शत्रु के अभियान पर महाराज  अजीतसिंह अपने को लडऩे में असमर्थ पाकर सन्धि करने का तैयार हो गये, किन्तु महारानी कुन्दन कुंवरि को यह अपमान सहन नहीं हो सका। उन्होंने चुनौती का प्रतीक पान का बीड़ा राज दरबार में भिजवाया। बाँदी ने दरवार में पान का बीड़ा प्रस्तुत करते हुए महारानी के शब्द दोहरये कि ‘‘यदि कोई वीर है तो बीड़ा उठाये और युद्ध-भमि की ओर प्रस्थान करे, नहीं तो साथ में चूडिय़ां भी हैं, पहिनकर महल के भीतर बैठो, मैं स्वयं रणभूमि जाने को तैयार हूँअन्त में वीर कलन्धर सिंह करचुली ने बीड़ा उठाया और उसी ने नायक को अपने भाले से आहत कर धराशायी कर दिया। इतने में किसी बघेले ने तलवार से उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। उस समय  से भेड़ बकरियों को चराने वाले अहीर-गड़रियों के मुख से यह शौर्य गीत सुना जाता रहा। गीत की विशेषता यह है कि आज भी यह उत्सव के प्रसंग पर गाया जाता है। इस गीत को मंगलाचरण के साथ प्रारंभ किया जाता है। कुछ पंक्तियां-

शुकुल पक्ष रामनवमी का ठाकुर जलमे अजुधिया राम / ....... / ....... / रीवा केर साहिवी रयकवा हमसे बरनि न जाय।/ गीत लम्बा है,यहाँ दिया जाना सम्भव नहीं।

पूना सितार में अपने राज दरबार में बैठा-बैठा महाराज अत्यन्त सुन्दर विचार बाँधता है।  वह अपने नायक से कहता है, मैंने तीन राज्य समाप्त किये हैं और  अब मेरा ध्यान रीवा की तरफ झुका है । नायक बघेलों का गौरव अब समाप्त करो । किन्तु यशवन्त राव की पत्नी कहती है,  रीवा में तुलसी चबूतरा है, सरूपा हाथी है, रीवा को जीतना सरल नहीं  है। तुलसी चबूतरा आज भी गाँव में उस स्थान को कहते हैं, जहाँ शाम को अपने-अपने काम से निपटकर किसान एकत्र हो दु:ख-सुख की बाते करते हैं। अर्थात सामूहिकता और एकता का प्रतीक था तुलसी चबूतरा।

शैलोत्सव- वर्षा ऋतु के बाद जब आसमान धुल जाता है, धरती धुल जाती है तो शरद ऋतु की बिखरी हुई चाँदनी धरती पर उतर आती है और अपनी ज्योतिर्मयी किरणों से मानव ह़ृदय को जगमगा देती है। लोगों में उल्लास फूट पड़ता है। इस अवसर पर यहाँ चाँदनी रातों में शैला खेलने का चलन है। शैला खेलने के लिये सवा हाथ की रूल के आकार की चिकने और बजने वाले काठ की लकड़ी तैयार की जाती है जो रकत बिलारनामक जंगली लकड़ी से तैयार की जाती है। लोग छह या आठ की संख्या में गोलाकार घेरा बाँध कर खड़े हो जाते हैं और हर एक व्यक्ति अपने दायें बायें दोनों तरफ की बढ़ती हुई लकडिय़ों पर चोट करते हैं। यह खेल दो प्रकार का होता है, एक तो लकडिय़ों की दौड़ कमर से नीचे तक चलती है और लोग झुककर लकड़ी  संभालते हैं और दूसरे-शैला की लकडिय़ों की दौड़ कन्धे से ऊपर चलती है। इसमें लोग उँचे हाथों शैला खेलते हैं। साथ में ढोलक का स्वर ताल पर गूंजता रहता है और हुर ज-हा हा-हा का शब्द भी। गीत एक पार्टी शुरू करती है, दूसरा उसका जबाव देता है। कुछ शैला गीत इस प्रकार है, जो इन उत्सवों में  गाये जाते हैं-  ऐ हाँ एक अ चम्भौ हम देखेन / हाँ हाँ एक अचम्भौ हम देखेन/ कि कुंआ माँ आगी लाग/ कांदौ पानी अरे सब जरिगा/ मछरीवौ के आँच न लाग/ हुर ज-हा- हा- हा

दूरसा गीत- ये हाँ ना कहाँ बाद न कहौं बूँदौ / औ नहि बदरे कै रेख/ मैं तोसे पूछौं आल्हा ऊदल/ या काहेन कै अँधियार/  हुर ज-हा- हा-हा

              यह गीत क्या अमीर खुसरो, कबीर को याद नहीं दिलाते। ध्यान रखने की बात यह है कि यह गीत हमारे चरबाहे, गड़रियों, अहीरों की प्रतिभा के परिचायक हैं। जिनसे सारा सभ्य समाज झूम उठता है। खो जाता है एक नैसर्गिक चेतना में।

रामनवमी भगतोत्सव- भगत गीत विशेष रूप से नव दुर्गा के दिनों में यह सप्ताह भर चलने बाला उत्सव है। किसान से लेकर मजदूर तक अपने सारे काम बन्द कर इसमें डूब जाता है। चैत्र शुक्ल द्वितीया से नौवी तक इस उत्सव को मनाते हैं। द्वितीया को जवा बोया जाता है, जबा बोये जाने के दिन से ही उस स्थान पर भगत गीत गाये जाते हैं। अन्त में एक लम्बे जुलूस में जवा देवी के मंन्दिर तक लाया जाता है। इसमें काली खप्पर लेकर नाचती चलती है। कुछ पण्डों को देवियाँ आती हैं। वे अपने गालों में आर-परा ‘बाना छेदलेते हैं। सारा हिन्दू समाज इसमें उत्साह से सम्मिलित होता है। कुछ गीत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- काहे का पेड़ पछितिया मं सोहे,/ का सोहे भवन दुआर हो मां,/ नीम का पेड़ पछितिया सोहे,/ बरा सोहै भवन दुआर हा मां।

गीत में शारदा देवी के झूला झूलने की बात आई है, साथ ही मनुष्य का प्रकृति से अटूट सम्बन्ध दिखाई देता है। यह भी सामाजिक सौहाद्र तथा समरसता का अचूक उत्सव है।

विहग विवाहोत्सव गीत - मानव जीवन के संस्कारों को करते तो हमने देखा सुना है किन्तु बघेल खंड में पक्षियों के विवाह भी कराये जाते है, (ध्यान रहे बघेलख्ंड में आम के पेड़ का फल आम लगाने बाला तब तक नहीं खाता जाता जब तक कि उस पेड़ का विवाह नहीं कर दिया जाता। और इस अवसर पर भी लगभग छोटा-मोटा समूहिक कार्यक्रम आयोजित होता है।) पक्षी ही  बराती और पक्षी ही घराती होते हैं। पक्षी ही पक्षी का स्वागत सत्कार करते हैं। गीत की कुछ पंक्तियां-  रनै चिरैया अवसर करती हैं,/ लीला रेमुनिया के व्याह होते हैं।/ तब कौआ पाती लाता है / तब चील मसाल दिखाता है।/तब चन्दुल सुदिन विचरते हैं/ ....... / ....... / गरैया चाउर छरती है।

प्रकृति और मनुष्य का साथ कवि की कल्पना हो सकती है। किन्तु ये गीत उत्सव प्रसंगों पर गाये जाते हैं।

बघेलखंड विस्तृत भूप्रदेश है। वर्षों तक यह रेल मार्ग से अछूता रहा है। यहाँ की जनपदीय लोकसंस्कृति का भण्डार लोकजीवन में अब भी सुरक्षित है। यहाँ की कोल जाति जिसका दादर इतना लोकप्रिय है कि उस समाज के प्रत्येक उत्सवों में गाया जाता है जिसकी एक पंक्ति में रात भर नृत्य और मादर की थाप चलती रहती है। बघेलखंड का शैला नृत्य ही आज गुजरात का डाण्डया रास है। राई के  गीत और उन पर आधारित नृत्योत्सव अपनी परम्परा को आज भी अक्षुण बनाए हैं। बघेल खंड के उत्सवों की एक विशेषता यह है कि उसके प्रत्येक उत्सव का चाहे वह तीज-त्योहार के हो, होली, दीपावली के हो प्रत्येक के अपने गीत हैं

उक्त के अतिरिक्त बिन्घ्य का फाग बहुत प्रसिद्ध है। इसकी अपनी शैली है जिसमें नगरिया बाद्य का प्रयोग विशिष्ट माना जाता है, इसे हर कोई  नहीं  बजा पाता। होलिकोत्सव के समय लगभग एक माह तक यह गीतोत्सव त्योहार के रूप में मनाया जाता है। आजकल इसके ब्लाक, जिला स्तर पर प्रतियोगिताएँ भी होंने लगी हैं। इसमें कई तरह के गीत गाये जाते हैं, जिन्हें फाग राई, डग्गा -एक ताल, डग्गा -तीन ताल, डग्गा -चौताल, फाग दहका, फाग नारदी, कबीर आदि हैं। इस में हिन्दू समाज के सभी जाति, वर्ग के लोग समरस भाव से एक साथ बैठकर पूरी मस्ती के साथ रात भर गाते बजाते हैं। नगरिया एक ऐसा वाद्य यंत्र है कि रात में इसकी आवाज चार से पाँच किलोमीटर तक सुनाई देती है। यह फाग कभी -कभी कई दिनों तक निरन्तर चलता है। 

अन्त में कह सकते हैं कि बघेलखंड के लोकोत्सव और लोकगीत पारम्परिक संस्कारों  को लिए हुए हैं। इनके माध्यम से बघेलखंड और उसके साथ समवर्ती समाजों की सांस्कृतिक संरचना को जानने और समझने में सहायता मिलता है। इतना ही नहीं हमारी समाजशास्त्रीय दृष्टि और ऐतिहासिक दृ़ष्टि का भी पता चलता है ।

                                                                                      प्रो. उमेश कुमार सिंह