मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा क्यों आवश्यक
-प्रो. भरण शरण
सिंह
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (हृश्वक्क-२०२०) में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए इस बात की अनिवार्यता की गयी है। इस विषय को लेकर कुछ लोगों (कूट आंग्ल प्रेमी) द्वारा सामान्य जन के मन में यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि हमारा बच्चा 6वीं कक्षा से अर्थात 12 वर्ष की उम्र में ABCD पढऩा प्रारंभ करेगा। जब कि ऐसा नहीं है,अभी तक प्रचलित शिक्षा नीति में का 10$2 प्रावधान था जिसमें प्राथमिक शिक्षा कक्षा 5 तक मानी जाती थी। एन.ई.पी.-2020 में ५$३$३$४ किया गया है। अब जो प्राथमिक शिक्षा होगी उसमें प्री-स्कूलिंग के 3 वर्ष तथा स्कूलिंग के 2 वर्ष होगें अर्थात् प्राथमिक शिक्षा की आयु 3-8 वर्ष की होगी। इस आयु के बाद अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं में अध्ययन के विकल्प खुले रहेंगे।
मातृभाषा मेंं प्राथमिक शिक्षा क्योंं होना चाहिए इस विषय को लेकर कुछ उदाहरणों के साथ अपनी बात रखँूगा। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व चीन के महान दार्शनिक कनफ्यूशियस ने भाषा को लेकर कहा था, ‘‘ समाज की गलतियों या खराबियों को सिर्फ समाज की भाषा को ठीक करके ही खत्म किया जा सकता है क्योंकि भाषा अगर गलत हो जाए तो गलत बोला जाएगा, गलत बोला जाए तो गलत सुना जाएगा, और गलत कहकर जो गलत सुनाया गया है, उस पर जो अमल किया जाएगा वह गलत ही होगा और गलत अमल का परिणाम हमेशा गलत ही हुआ करता है। इसलिए गलत समाज की गलत बुनियाद हमेशा गलत भाषा ही डालती है।’’
नवजागरण काल के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर किन्तु अंग्रेजी से प्रभावित राजा राममोहन राय ने हिंदी की स्वीकार्यता सम्पर्क भाषा के रूप में तो मानी किन्तु उसे ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं माना। जिसका फायदा उठाकर मेकाले ने हमें अंग्रेजी का मुलम्मा पहना दिया। यह अंग्रेजों की भारत को सदा अपना दास बनाये रखने की दूरगामी चाल थी।
महात्मा गाँधी इस चाल को समझते थे इसीलिए उन्होंने अपने स्वराज के अभियान में मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा को कभी नहीं छोड़ा। वे देख चुके थे कि किस प्रकार शासक वर्ग भाषा की सामाजिक सापेक्षता और उसके ऐतिहासिक क्रम को कुचल डालते हैं। विश्व इस औपनिवेशिक मानसिकता का शिकार हुआ है। भारत में भी इस्लाम और अंग्रेजों के आगमन के साथ फारसी और अंग्रेजी ने अपना आधिपत्य बनाया।
गांधी के भाषा सम्बन्धी चिन्तन पर विचार करते हुए दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए- पहला कि वे स्थानीय या प्रान्तीय स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में सम्बद्ध प्रांत की भाषा के समर्थक थे। दूसरा यह कि समय निष्पादन के लिए आपसी सम्पर्क एवं राजनीतिक तथा प्रशासनिक कार्यों के निष्पादन के माध्यम के रूप में एक राष्ट्रभाषा (हिन्दी) के वे प्रबल समर्थक रहे। गांधी का मत था कि जो मातूभाषा से सच्चा प्रेम करता है, वह राष्ट्रभाषा के प्रति भी वैसा ही भाव रखता है। यह बात अलग है कि स्वतंत्रता के बाद गांधी की बातों का ध्यान में नहीं रखा गया जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में जोर दिया गया है। आइये इसे समझने का प्रयत्न करें।
गांधी हिन्द स्वराज में लिखते हैं, ‘‘हमें अपनी सभी भाषाओं को चमकाना चाहिए।’’ ‘इंडियन ओपिनियन’ में शिक्षा में मातृभाषा का स्थान विषय पर कहते हैं, ‘‘भारतीय युवक संस्कार सम्पन्न भारतीय की भांति यदि अपनी मातृभाषा पढ़ या बोल नहीं सकता तो उसे शर्म आनी चाहिए। भारतीय बच्चों और उनके माता-पिता को अपनी मातृभाषाएँ पढऩे के बारे में जो लापरवाही देखी जाती है, वह अक्षम्य है। इससे तो उनके मन में अपने राष्ट्र के प्रति रत्ती-भर भी अभिमान नहीं रहेगा।’’ आगे लिखते हैं, ‘‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता अर्थात् परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। .. इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति-चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो-इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धांत को भूल जाने के खतरा मोल ले रहे हैं।’’
4 फरवरी, 1916 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह वक्तव्य (जहाँ गांधी जी को छोडक़र शेष लोगों ने अंग्रेजी में भाषण दिया था), ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। .. मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया जाएगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिम्ब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्ति किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार में उठ जाना ही अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्र में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। (श्रोताओं की..नहीं..नहीं।) फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते। हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’’
बापू ने 15/10/1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा, ‘‘मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वेदश भक्त कहलाने लायक नहीं है।’’ वे मानते थे कि ‘‘जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं हो सकेगा। गांधी जी की इस बात में बड़ा दम है कि- १. सारी जनता को नये ज्ञान की जरूरत है।, २. सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती।,३. यदि अंग्रेजी पढऩे वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है, तो सारी जनता को नया ज्ञान मिलना असम्भव है।’’ अत: मैं प्रार्थना करूँगा कि ‘‘आपस के व्यवहार में और जहाँ जहाँ हो सके वहाँ सब लोग मातृभाषा का ही उपयोग करें। और विद्यार्थियों के सिवा जो महाशय यहाँ आये हैं, वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का भगीरथ प्रयत्न करें।’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियाँ भी होती हैं। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधारण को नहीं पहचानते। जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। वे हम पर भरोसा नहीं करते। यदि यही स्थिति अधिक समय तक कायम रही तो एक दिन वायसराय लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाऐगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’
‘यंग इण्डिया’ में गाँधी जी भाषा के पक्ष में ‘देशी भाषाओं का हित’ लेख में विदेशी विद्वान को उद्धृत करते हुए, ‘‘सेंट पॉल्स कैथिड्रल कॉलेज, कलकत्ता के प्रिंसिपल रेवनेंड डब्ल्यू. ई.एस.हालैंड अपनी गवाही में लिखते हैं कि ‘जापान ने अपनी भाषा के प्रयोग से एक ऐसी शिक्षा प्रणाली खड़ी कर दी है जिसका पाश्चात्य जगत सम्मान करता है।’’ कोलकाता में ही अखिल भारतीय समाज-सेवा-सम्मेलन में उनका भाषण, ‘पहली और सबसे बड़ी समाज-सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हम इस स्थित से पीछे हटें, देशी भाषाओं का अपनायें, और सभी प्रांत अपना-अपना समस्त कार्य अपनी देशी भाषाओं में तथा राष्ट्र का कार्य हिंदी में प्रारम्भ कर दें।’’
अब जरा पूज्य सुदर्शन जी को समझे वे हमेशा कहते थे कि किसी भी भाषा का अंग्रेजी अनुवाद तो किया जा सकता है किन्तु उस भाव को जो मातृभाषा में प्राप्त होता है उस भाव का अनुवाद नहीं किया जा सकता। कहा जाता है कि माँ, शिशु की प्रथम शिक्षक (Mother is the first Teacher of Child)÷ होती है। बच्चे का जिस परिवेष में लालन-पालन होता है और उस परिवेष में जिस भाषा का उपयोग होता है वह बालक के मन-मस्तिष्क मे गहरा प्रभाव डालती है और न केवल प्रभाव डालती है बल्कि उस प्रकार की आकृति उसके मस्तिष्क में बनती है एवं उसी अनुरूप उसके भाव भी निर्मित होते है। माँ-मंदिर कहने से जो भाव बालक के मन में बनेगें वह Mother -Temple कहने से नहीं बनेगें। पूज्य सुदर्शन जी मीरॉंबाई के भजन का उदाहरण देते थे -
मेरे तो गिरधर गोपाल-दूसरो न कोई
जा के सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई।।
यहाँ पर जैसे मीराँ का नाम आता है उनकी कृष्ण भक्ति और मेवाड का सिसोदिया राजवंश का चित्रण होता है। गिरधर-कहने पर गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले कृष्ण का स्वरूप मस्तिष्क में बनता है। गिरधर या गिरधारी का अंग्रेजी अनुवाद Cattleman, Cow-Boy, Shepherd ;k Neatherd होगा जो मातृभाषा का विकल्प नहीं होगा। इसी प्रकार गोपाल-शब्द सुनने मात्र से गायों के मध्य बांसुरी बजाते कृष्ण की मोहक छवि मानस पटल पर स्वमेव आ जाती है। गोपाल-गौपाल का अंग्रेजी अनुवाद Cattleman, Cow-Boy, Shepherd ;k Neatherd तथा मोर मुकुट का अर्थ Peacock feather Crown होगा। इन शब्दों से गैर-अंग्रेजी भाषी शिशुओं में वह अनुभूति उत्पन्न नहीं कर पायेगें जो उसकी मातृभाषा के शब्द कर पायेगें। Temple शब्द से वह श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न नहीं होगी जो मंदिर शब्द से होगी।
सारांश यह कि विज्ञान भी मानता है कि मनुष्य में मस्तिष्क का विकास 6 वर्ष की उम्र तक ही होता है, शेष विकास परिवेष/अनुभव/बाह्य वातावरण पर निर्भर करता है। गांधी जी भी मानते हैं कि ‘‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है वह असह्य है। वह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएँ नहीं बना सकते और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग, जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं। ..हम मातृभाषी जगदीशचन्द्र बसु, प्रफुल्लचन्द्र राय को देखकर मोहान्ध हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि हमने पचास वर्ष तक मातृभाषा द्वारा शिक्षा पायी होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देख कर हमें अचम्भा न होता।’’
शिक्षा नीति-2020 में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की जो
अनिवार्यता की गयी है वह उपरोक्त विषयों को ध्यान में रखकर की गयी है। विकसित और
स्वतंत्र देशों में भी ऐसा किया जाता है। अन्त में भारतेन्दु हरिष्चन्द के कथन के
साथ बात समाप्त करता हूँ- ‘निज भाषा उन्नति
हवै सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिअय न हिय को सूल।।’
संपर्क - अध्यक्ष
म.प्र.निजी विश्वविद्यालय
विनियामक आयोग,
भोपाल
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