संकल्प के मायने, राष्ट्र का संदेश - प्रो उमेश कुमार सिंह
पिछले तीन महीनों में देश का माहौल ऐसा दिखाई दे रहा था मानो स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध लड़ा जा रहा हो।
एक ओर एक दल और एक व्यक्ति निशाने पर तो दूसरी ओर अलग-अलग अखाड़े के नकली महामंडलेश्वर, अनाम शंकराचार्य के साथ विषकुंभी ले कर निकल पड़े थे। लक्ष्य था नमों को अस्त और भारत की सनातन विचारधारा को ध्वस्त करना।आहुतियाँ देती अभारतीय मानसिकता और नफरत रखने और फैलाने में सन्नद्ध पड़ोसी।
विरोधियों का यह अभियान यदि सरकार और उसके कामकाज पर होता तो शायद उसे कुछ सफलता मिल भी सकती थी किन्तु जब वह व्यक्ति आधारित हुआ तभी उसमें लडख़ड़ाहट आई और घाव में नमक तब पड़ गया जब राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्नों पर भी निशाना साधना प्रारंभ कर दिया।
और यह लड़ाई सनातन विचारधारा और एक खानदान विशेष की विचारधारा या सत्तापोषितधारा और सेवाभावी विचार के बीच आ कर रुक गई। उसका ताप केवल पश्चिम बंगाल तक ही नहीं तो समूचे देश में फैल गया ।
विरोधियों से चूक तब हुई जब उन्होंने देश के प्रधान के विदेशी दौरों की हँसी उड़ानी प्रारंभ की, हवाई यात्रा की सरकार, सूट-बूट की सरकार।
वे भूल गये प्रधानमंत्री के २०१४ से २०१९ तक के विदेशी दौरे को , जिसके कारण चीन, अमरीका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि के साथ विश्व के अनेक इस्लामिक देशों , आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े देशों के बीच न केवल भारत की साख स्थापित हुई बल्कि विश्व भर में भारत के सबल नेतृत्व का विश्वास पैदा किया।
विदेशी सत्ताएँ इस बात को मानने को मजबूर हो गई कि भारत में इस सत्ता के रहते दीर्घकालिक संम्बन्ध बनाने में ही भलाई है क्योंकि जल्द फैसला लेना और उसका क्रियान्वयन करना इसकी फिदरत में है।
देश का अल्पसंख्यक समुदाय चाहे वह इस्लाम का अनुयायी हो ईसाईयत का उसे भी अपनी जड़ता को तोडऩा पड़ा। भले ही वह जड़ता अभी ‘सब को साथ’ चलने की हिचक के साथ ही पग बढ़ाई हो।
किन्तु ‘सब के विश्वास’ की मंशा जिस तरह से नेतृत्व के अन्दर झलक रही थी उसमें बिना किसी भेदभाव के सुविधाओं को देना प्रमुख था।
भारत में राष्ट्रीयता से बड़ा कोई मुद्दा नहीं कमोवेश सभी प्रदेशों को समझ में आ गया। और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को छोडक़र भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी और अजेय सरकार के रूप में सामने आई है।
इसीलिए सरकार के सपथ के पूर्व ही एन.डी.ए. के नेता चुनने जाने के बाद श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपने मन्तव्य को प्रकट करते हुए तीन संकल्प बताये। जरा उन पर भी विचार कर ले फिर आगे बढ़ा जाये। तीन संकल्प -
‘१. बदइरादे या बदनीयत से कोई काम नहीं करूँगा। २. मैं मेरे लिए कुछ नहीं करूँगा। ३. मेरा पल-पल और मेरा कण-कण देशवासियों को समर्पित होगा।, जब आप मेरा मूल्यांकन करें तो संकल्पपों के इस तराजू पर जरूर कसना, कमी रह जाए तो कोसना भी।’ - नरेन्द्र मोदी
हमारे पाठकों ने इस पर विचार अवश्य किया होगा कि भावी प्रधानमंत्री को यह संकल्प क्यों लेना पड़ा। जरा इसकी पृष्ठभूमि की तलास की जाये । इसके तलाश के लिए पिछले सत्तर साल के राजनैतिक यात्रा को देखना होगा। एक नजर डालें -
१. 'बदइरादे या बदनीयत से कोई काम नहीं करूँगा।'
बदइरादा और बदनियती कि यह स्थित क्यों आती है , स्पष्ट है सत्ता में बने रहने की बदनियति और उसके लिए विपक्ष के दमन का बदइरादा है।
बदनियती के दो उदाहरण - देश में दो विचारधाराएं लगभग १९२५ में प्रकट होकर आती हैं। एक रा.स्व.संघ के रूप में सनातन धारा, दूसरी -नक्सलवाड़ी से उद्घाटित अभारतीय, असहिष्णुधारा।
पहली धारा तत्कालीन सत्ता के अनुरूप नहीं थी क्योंकि वह भारतीय परम्परा के आधार पर आने वाले स्वाधीन भारत में स्वावलम्बी, स्वाभिमानी समाज खड़ा करना चाहती थी। विश्व की कल्याण कामना उसका ध्येयपथ है।
दूसरी धारा अधिकार की अंधी लड़ाई की उदघोषणा के साथ सेमेटिक पंथों की अनुगामी बन देश की परम्परा को न केवल नष्ट करना बल्कि देश को ही टुकड़े -टुकड़े करने हेतु लक्ष्यबद्ध थी और है।
दूसरा उदाहरण आपातकाल और १९८४ का नरसंहार हमारे समाने हैं, जो एक तरह से जलियावाला ही था।
कई दलों ने दूसरी धारा का चयन किया या यू भी कह सकते हैं कि बेताल की तरह वह उसके ऊपर सवार हो गई और दो बातें सामने आईं।
एक- पिछड़ा, दलित, वनवासी, गिरिवासी अपनी ही दयनीय स्थिति में बना रहे और उसके लिए विदेशों से अरबों की धनसामग्री लेकर ईसाईयत अपनी धर्मान्तरण की मंशा पूरी करती रहे। परिणाम, धर्मान्तरित वनवासियों में से ही बहुतायत में नक्सली बन रहे हैं। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार एवं पूृर्वांचल से लेकर छत्तीसगढ़, आंध इसके उदाहरण हैं।
सम्प्रदाय विशेष को वोट के लालच में देश के अन्दर अनाधिकृत रूप से प्रवेश देना और उनके द्वारा विधान सभा और लोक सभा भी लड़ लेना किसी भी देश के लिए कितना घातक हो सकता है, अकल्पनीय है।
बहुसंख्यक समाज को दबाने, उसके हित में कार्य कर रहे संगठनों को दबाने, राजनीतिक दलों को (आपातकाल) दबाने का कार्य बदनियती और बदइरादे को प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
इतना ही नहीं तो अभी देश भर में एक ट्रेंड चल पड़ा है कि सरकार बदली तो सरकार के प्रमुख सलाकार भा.प्र. सेवा के अधिकारी बदलों फिर अन्य सभी अधिकारियों को बदला दो। कौन अच्छा कार्य कर रहा है , कौन तटस्थ भाव से कार्य कर रहा है, समीक्षा का भी अवकाश नहीं।
बदलो, मारो , काटो और इसका नमूना हाल ही में सत्ता प्राप्त देश के अनेक राज्यों में दिखाई दे रहा है। केरल और पश्चिम बंगाल में तो देशभक्त सामान्य नागरिक हिंसा का शिकार बन रहा है।
भाजपा नेहरू जी की सरकार के बाद दूसरी बार अपने बल पर पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई और वह भी कहीं पुराने सत्तादलों के रास्ते पर न उतर जाये उसे रोकने का संकल्प न केवल स्वयं लेना बल्कि पूरी भाजपा और सहयोगी दलों को संदेश देना, देश के लिए सुप्रभात ही हो सकता है।
२. "मैं मेरे लिए कुछ नहीं करूँगा।"
यह संकल्प क्यों आया - स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस का अध्यक्ष पद सम्हालने वाले पं. मोती लाल नेहरू १९१९ से दो साल रहे। पं. जवाहर लाल नेहरू ०८, श्रीमती इंदिरा गाँधी ०७ साल, राजीव गाँधी ०६ साल, सोनिया गांधी १९ साल और राहुल गाँधी दो साल से हैं।
क्षेत्रीय दलों में लालू जी की, मुलायम सिंह की, मायावती जी की , सिबू सोरेन की , बीज पटनायक की, ममता बेनर्जी की , साथ ही जनतादल यूनाइटेड, एआईडीएमके, डी एम के, तेलगू देशम , उत्तर में पी पी पार्टियां आदि-आदि।
इन दलों के प्रधान चाहे वह अपने सूबे के रहा हों या देश के उनके कार्य देश के हित कम, अपने परिवार और व्यवसाय के हित ज्यादा साधे, प्रमाण चल रहे नाना प्रकार के मुकदमें हैं।
राजनैतिक दल परिवार के दल बन गयें। कई कई के तो पूरा परिवार जमानत पर घूम रहा है। देश में जाति और सम्प्रदाय का ध्रुवीकरण हुआ। गरीब गरीब होता गया और अमीरों की संख्या बल के साथ अमीर की पूंजी में निरन्तर बढ़ोत्तरी होती गई। कुछ तो कुछ धंधा-पानी भी करते रहे किन्तु कइयों ने तो हाथ में हाथ रख कर भी विश्व के धनाढ्यों की सूची में अपना नाम लिखवाया।
ऐसे में कोई प्रधान यदि यह संकल्प लेता है कि मैं अपने लिए अर्थात् न केवल व्यक्तिगत जीवन में अपितु पारिवारिक जीवन , मित्र मण्डली में किसी के लिए कोई ऐसा काम नहीं करूँगा जो लोकतंत्र और संविधान की मर्यादा के प्रतिकूल हो तो इसे शुभ मानना चाहिए।
३. "मेरा पल-पल और मेरा कण-कण देशवासियों को समर्पित होगा।"
सत्ता सेवा है, भोग नहीं। यह संकल्प ही समर्पण का मूल है। अपने घर का त्याग, परिवार का त्याग, समाज की संकीर्णता से बाहर, प्रदेश की संकीर्णता से बाहर, राष्ट्र की प्रखरता के साथ विश्व के कल्याण का मार्ग इसी के लिए प्रशस्त करना। त्यजेदेकम कुलस्यार्थे ..। मेरा पल-पल अर्थात् जीवन की अंतिम सांस तक का संकल्प । मेरा कण-कण अर्थात् देह के हर कोश के संचलन तक देशहित का संकल्प।
राजपथ में राजा और महराजा बन कर नहीं सेवा के मार्ग से ही जाना है । अपने - अपने पूजा-पंथों की मान्यताओं को निजी जीवन में निर्वहन करने केदारनाथ से मक्का और येरूशलम तक जाने की स्वतंत्रता हैं किन्तु राजपथ की यात्रा संविधान को सरमाथे पर रख कर ही करना होगी।
चुनाव प्रचार के बीच मोदी जी ने कुछ संदेश सभी दलों के लिए, कुछ एनडीए के लिए तो कुछ अपनी पार्टी के लिए दिये हैं।
आपको ध्यान में आया होगा कि भाजपा की जिन प्रांतों में पिछली सरकारें रहीं हैं वहाँ सत्ता पक्ष का अध्यक्ष कमजोर होता गया और मुख्यमंत्री दल और सत्ता दोनों के केन्द्र में आ गया। पत्रकार वार्ता में मोदी जी ने उस महत्वाकांक्षा को तोडऩे का कडक़ संदेश दिया ‘हमारे लिए हमारे दल का अध्यक्ष ही सब कुछ होता है।’
पत्रकार वार्ता में कही यह बात यदि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री समझे होते तो तीनों सरकारें आज भी उनके पास होती। शायद यह संदेश वर्तमान और आनेवाली भाजपा की सरकारें समझ सकेंगी।
इस समझ के साथ सरकार के लक्ष्य पूर्ति का मार्ग होगा - ‘सब का साथ, सब का विकास’ और ‘सब का विश्वास।’
सरकार बनी, प्रश्न खड़े होंगे कि आखिर उसके सामने प्राथमिकताएँ क्या हैं? क्या सरकार की प्राथकिता एक ओर ‘भारत की अखण्डता और एकात्मता’ तो दूसरी ओर ‘नर सेवा नारायण सेवा’ होगी ?
चैलेंज जहाँ भारत की अखण्डता के लिए धारा ३७० वा ३५ ए समाप्त करना है, वहीं समान नागरिक संहिता और राममंदिर निर्माण है।
एक ओर घुसपैठियों की पहचान है तो अभारतीय मानसिकता का भारतीयकरण भी है।
धर्मान्तरण पर रोक है तो धर्मान्तरण से घर वापसी भी है।
इसके समाधान के लिए स्मरण करें मोदी जी का भाषण - हमारी पिछली सरकार को हमने नहीं देश की जनता ने चलाई है, कभी साथ-साथ चल तो कभी दो कदम आगे चलकर।
अर्थात् जन आन्दोलन और जन विश्वास को प्राप्त कर इनका समाधान करना है। चीन- भारत-भूटान सीमा, बंग्लादेश की सीमा की घुसपैठ और विवाद भी इसी काल के विषय हैं। पाकिस्तान की हथियार बन्दनीति और गिलगिट, बल्तिस्तान की भारत की ओर आशाभरी टकटकी का समाधान भी अपेक्षित है।
नक्सलियों के उपद्रव तो संवैधानिक कमजोरियों का फायदा उठाते प्रांतों के गलत मनसूबों को भी लाइन में लाना है।
भ्रष्टाचार पर जिस तरह पहले कार्यकाल में सरकार ने कामयाबी पायी है उसे आगे बनाये रखना और न्यायपालिका, तथा अन्य संस्थाओं पर उठाए गये फरेबी अन्दोलनों को मुहतोड़ जबाब भी देना है।
शिक्षा की नई नीति, भारत की चिति-चेतना पोषित शिक्षा पद्धति भी ला कर युवायों को राजगारोंमुखी शिक्षा देना भी एक बड़ा चैलेंज है।
भाषाई शिक्षा और कुकुरमुत्तों के समान फलते-फूलते अंग्रेजी संस्थानों पर अंकुश और हिन्दी और अपनी मातृभाषाओं के आधार पर आवश्यकतानुसार उच्च और शोध की शिक्षा देना भारत की सरकार के सामने चुनौती है।
आंतरिक सुरक्षा और देश के अन्दर पिछले सैकड़ों साल के हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई सम्बन्धों का भारतीयकरण करना, धर्माधारित शिक्षा बन्द करना। पिछड़े समाज की, वंचितों को दी जाने वाली शिक्षा आधुनिक और देशानुकूल बनाना भी सरकार के सामने चैलेंज है ।
किन्तु इसके लिए केवल वोट देकर बहुमत दे देने से काम नहीं चलेगा। तो आगे आकर समाज जागरण, व्यक्ति-व्यक्ति के अन्दर देशानुराग पैदा करना होगा।
गरीब और गरीब का सहायक दो ही वर्गों का परिचय इस समाज में अपेक्षित है। इसमें हमारे जातीय स्वाभिमान, धार्मिक आस्थाएँ और विश्वास आड़े नहीं आने चाहिए। ‘देश हमें देता है सब कुछ हम भी तो कुछ देना सीखे ’ का भाव जागरण पैदा करना होगा।
दूसरी तरफ देश भर के ब्यूरोक्रेट्सों को अपनी कार्यशैली में परिवर्तन करना होगा। पश्चिम बंगाल में पुलिस-प्रधानों के रवैया या अन्य प्रांतों में गिरगिट की तरह सत्ता के साथ रंग बदलते भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों को अपने मैन्युयल और संविधान के दायरे में काम करना होगा। सत्ता में रहने के मोहपाश से बाहर आ कर लोकहित में उनसे कार्य की अपेक्षा है। भ्रष्टाचार की रोकथाम में उनकी पहली चौकीदारी है। तंत्र यदि भ्रष्ट होता है तो उसमें पहली सीढ़ी यहीं से जाती है।
नोटबंदी के विपक्ष के विषवमन को पचाकर जिस तरह जनता ने सरकार को पुन: वापस लाकर विश्व में कीर्तिमान स्थापित कराया है- व्यापारी, ठेकेदार, व्यवसायियों को समझाना होगा।
कंकड़-पत्थर खा जाने वाली मशीन बने सेवकों के लिए भी समझने का अवसर है। पीए, ओएसडी एक सांचे में ढल गये हैं उन्हें भी पटरी में लाना किसी भी सरकार के लिए चुनौती है, इसे प्रदेश और देश की सरकारों को समझना होगा।
विपक्षी दलों को भी अपनी नादानी को छोड़ कर भले ही टुकड़े -टुकड़े में हों किन्तु टुकड़े-टुकड़े गैंग के सम्मोहन से बाहर आकर अखण्डता और एकात्मता के लिए सरकार के साथ सकारात्मक हाथ बढ़ाना होगा। संविधान को प्रणाम का अर्थ भी यही है।
इस सब बातों को ध्यान में रखते हुए यदि देश चलेगा तो निश्चित रूप से जन-गण का संदेश सार्थक होगा। नान्या: पंथा:।
Umeshksingh58@gmail.com
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