Friday, 28 May 2021

बुद्धिजीवी

एक पोस्ट पर निजी दृष्टि -

'बुद्धिजीवी' भी उन्हीं मानुषों का गढ़ा शब्द है, जिन्होंने  बुद्धि और मान दोनों के 'स्वत्व' को नष्ट किया है।

श्रीमद्भागवत् गीता (अध्याय- 18 - 30/31/32) में  बुद्धि को सात्त्विक, राजस और तामस कहा गया है।

सात्त्विक बुद्धि प्रवृत्ति -निवृत्त, कार्य-अकार्य, भय- अभय, बंधन और मोक्ष को अवगत कराती है।

राजस के प्रभाववाली बुद्धि धर्म-अधर्म, कर्त्तव्य-अकर्तव्य के यथार्थ रूप को नहीं समझ सकती।

तामस बुद्धि अधर्म को धर्म और सभी विषयों को विपरीत रूप से देखती है।

तथाकथित 'बुद्धिजीवियों'' को  राजस और तामस श्रेणी में रखा जा सकता है। प्रथम श्रेणी के प्रखर बुद्धिजीवी (राजस) जो सात्विक बुद्धि को न समझ कर व्यवहार करता है। 

जबकि बुद्धिजीवी (तामस) सभी सात्त्विक कर्मो को (वाम नजरिये) विपरीत दृष्टि से देखता है।

बुद्धिजीवी एक तामसिक आन्दोलन है जो चारों पुरुषार्थों के विपरीत अर्थात्  सदा सत्य के विरोध में उवाच करता है।

 इसे साहित्य (देह साहित्य) , संगीत (पॉप संगीत), कला ( धार्मिक-सांस्कृतिक मानविंदुओं का खंडन) , राजनीति ( परिवार हितार्थ, दल हितार्थ, राज-नीति  विरोधी) धर्म में (पाखंड , कट्टरता तथा सेवा के नाम पर धर्म परिवर्तन ) के रूप में देखा जा सकता है।

सात्त्विक सत्ताशीर्ष और  सनातन परम्परा और संस्कृति सदैव इसके लक्ष्य और भक्ष्य हैं।

इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान (विवेक -बुद्धि, सात्त्विक बुद्धि) को चाहिए कि वह-
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्तित: सततं भव।।(18/57-गीता)

विवेक बुद्धि (सात्त्विक बुद्धि, व्यवसायात्मक बुद्धि-योग )  के द्वारा अपने आप को राष्ट्र के लिए निर्हेतुक भाव के साथ समर्पित कर मानुष शब्द (मानुष हौं तो वह्यै रसखान ....) को सार्थक करें।

 क्योंकि "सठ सुधरहिं सतसंगत पाई" ऐसा तुलसी बाबा का विश्वास है।

जय हो कुछ तो लिख रहे हैं- (करत करत अभ्यास से जड़मति होय सुजान। रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान।। ) बुद्धि का मान बढ़े।

 और  रसखान की आकांक्षा अनुसार भारतभूमि में मानुष जन्म की चरितार्थता सिद्ध हो।

  प्रणाम👏

Tuesday, 25 May 2021

संकल्प के मायने, राष्ट्र का संदेश

संकल्प के मायने, राष्ट्र का संदेश - प्रो उमेश कुमार सिंह

पिछले तीन महीनों में देश का माहौल ऐसा दिखाई दे रहा था मानो स्वतंत्रता संग्राम का युद्ध लड़ा जा रहा हो। 

एक ओर एक दल और  एक व्यक्ति निशाने पर तो दूसरी ओर अलग-अलग अखाड़े के नकली महामंडलेश्वर, अनाम शंकराचार्य के साथ विषकुंभी ले कर  निकल पड़े थे। लक्ष्य था नमों को अस्त और भारत की सनातन विचारधारा को ध्वस्त करना।आहुतियाँ देती अभारतीय मानसिकता और नफरत रखने और फैलाने में सन्नद्ध पड़ोसी। 

विरोधियों का यह अभियान  यदि सरकार और उसके कामकाज पर होता तो शायद उसे कुछ सफलता मिल भी सकती थी किन्तु जब वह व्यक्ति  आधारित हुआ तभी उसमें लडख़ड़ाहट आई और घाव में नमक तब पड़ गया जब राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्नों  पर भी निशाना साधना प्रारंभ कर दिया। 

और यह लड़ाई सनातन विचारधारा  और एक खानदान विशेष की विचारधारा या सत्तापोषितधारा  और सेवाभावी विचार के बीच आ कर रुक गई। उसका ताप केवल पश्चिम बंगाल तक ही नहीं तो समूचे देश में फैल गया । 

विरोधियों से चूक तब हुई जब उन्होंने देश के प्रधान के विदेशी दौरों की हँसी उड़ानी प्रारंभ की, हवाई यात्रा की सरकार, सूट-बूट की सरकार। 

वे भूल गये  प्रधानमंत्री  के  २०१४ से २०१९ तक के विदेशी दौरे को , जिसके कारण चीन, अमरीका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि के साथ विश्व के अनेक इस्लामिक देशों , आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े देशों के बीच न केवल भारत की साख स्थापित हुई बल्कि विश्व भर में भारत के सबल नेतृत्व का विश्वास पैदा किया। 

विदेशी सत्ताएँ इस बात को मानने को मजबूर हो गई कि भारत में इस सत्ता के रहते दीर्घकालिक संम्बन्ध बनाने में ही भलाई है क्योंकि जल्द फैसला लेना और उसका क्रियान्वयन करना इसकी फिदरत में है। 

देश का अल्पसंख्यक समुदाय चाहे वह इस्लाम का अनुयायी हो ईसाईयत का उसे भी अपनी जड़ता को तोडऩा पड़ा। भले ही वह जड़ता अभी ‘सब को साथ’ चलने की  हिचक के साथ ही पग बढ़ाई हो। 

किन्तु ‘सब के विश्वास’ की मंशा जिस तरह से नेतृत्व के अन्दर झलक रही थी उसमें बिना किसी भेदभाव के सुविधाओं को देना प्रमुख था। 

भारत में राष्ट्रीयता से बड़ा कोई मुद्दा नहीं कमोवेश सभी प्रदेशों  को समझ में आ गया। और दक्षिण भारत के कुछ राज्यों को छोडक़र भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी और अजेय सरकार के रूप में सामने आई है। 

इसीलिए सरकार के सपथ के पूर्व ही एन.डी.ए. के नेता चुनने जाने के बाद श्री नरेन्द्र मोदी जी ने अपने मन्तव्य को प्रकट करते हुए तीन संकल्प बताये। जरा उन पर भी विचार कर ले फिर आगे बढ़ा जाये। तीन संकल्प -
‘१. बदइरादे या बदनीयत से कोई काम नहीं करूँगा। २. मैं मेरे लिए कुछ नहीं करूँगा। ३. मेरा पल-पल और मेरा कण-कण देशवासियों को समर्पित होगा।, जब आप मेरा मूल्यांकन करें तो संकल्पपों के इस तराजू पर जरूर कसना, कमी रह जाए तो कोसना भी।’ - नरेन्द्र मोदी  

हमारे पाठकों ने इस पर विचार अवश्य किया होगा कि  भावी  प्रधानमंत्री को यह संकल्प क्यों लेना पड़ा। जरा इसकी पृष्ठभूमि की तलास की जाये ।  इसके तलाश के लिए पिछले सत्तर साल के राजनैतिक यात्रा को देखना होगा।  एक नजर डालें -
 १. 'बदइरादे या बदनीयत से कोई काम नहीं करूँगा।' 
बदइरादा और बदनियती कि यह  स्थित क्यों आती है , स्पष्ट है सत्ता में बने रहने की बदनियति  और उसके लिए विपक्ष के दमन का बदइरादा है। 

बदनियती के दो उदाहरण - देश में दो विचारधाराएं लगभग १९२५ में प्रकट होकर आती हैं। एक रा.स्व.संघ के रूप में सनातन धारा, दूसरी -नक्सलवाड़ी से उद्घाटित अभारतीय, असहिष्णुधारा। 

पहली धारा तत्कालीन सत्ता के अनुरूप नहीं थी क्योंकि वह भारतीय परम्परा के  आधार पर आने वाले स्वाधीन भारत में स्वावलम्बी, स्वाभिमानी समाज खड़ा करना चाहती थी। विश्व की कल्याण कामना उसका ध्येयपथ है। 

दूसरी धारा अधिकार की अंधी लड़ाई की उदघोषणा के साथ सेमेटिक पंथों की अनुगामी बन देश की परम्परा को न केवल नष्ट करना बल्कि देश को ही टुकड़े -टुकड़े करने हेतु लक्ष्यबद्ध थी और है।  

दूसरा उदाहरण आपातकाल और १९८४ का नरसंहार हमारे समाने हैं,  जो एक तरह से जलियावाला ही था। 

कई दलों ने दूसरी धारा  का चयन किया या यू भी कह सकते हैं कि बेताल की तरह वह उसके ऊपर सवार हो गई और दो बातें सामने आईं।

 एक- पिछड़ा, दलित, वनवासी, गिरिवासी अपनी ही दयनीय स्थिति में बना रहे और उसके लिए विदेशों से अरबों की धनसामग्री लेकर ईसाईयत अपनी धर्मान्तरण की मंशा पूरी करती रहे। परिणाम, धर्मान्तरित वनवासियों  में से ही बहुतायत में नक्सली बन रहे हैं। पश्चिम बंगाल, असम, बिहार  एवं पूृर्वांचल से लेकर छत्तीसगढ़, आंध इसके उदाहरण हैं। 

सम्प्रदाय विशेष को वोट के लालच में देश के अन्दर अनाधिकृत रूप से प्रवेश देना और उनके द्वारा विधान सभा और लोक सभा भी लड़ लेना किसी भी देश के लिए कितना घातक हो सकता है, अकल्पनीय है। 

 बहुसंख्यक समाज को दबाने, उसके हित में कार्य कर रहे संगठनों को दबाने, राजनीतिक दलों को (आपातकाल) दबाने का कार्य बदनियती और बदइरादे को प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। 

इतना ही नहीं तो अभी देश भर में एक ट्रेंड चल पड़ा है कि सरकार बदली तो सरकार के प्रमुख सलाकार भा.प्र. सेवा के अधिकारी बदलों फिर अन्य सभी अधिकारियों को बदला दो। कौन अच्छा कार्य कर रहा है , कौन तटस्थ भाव से कार्य कर रहा है, समीक्षा का भी अवकाश नहीं। 

बदलो, मारो , काटो और इसका नमूना हाल ही में सत्ता प्राप्त देश के अनेक  राज्यों में दिखाई दे रहा है। केरल और पश्चिम बंगाल में तो देशभक्त सामान्य नागरिक हिंसा का शिकार  बन रहा है। 

भाजपा नेहरू जी की सरकार के बाद दूसरी बार अपने बल पर पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई और वह भी कहीं पुराने सत्तादलों के रास्ते पर न उतर जाये उसे रोकने का संकल्प न केवल स्वयं लेना बल्कि पूरी भाजपा और सहयोगी दलों को संदेश देना, देश के लिए सुप्रभात ही हो सकता है।

२. "मैं मेरे लिए कुछ नहीं करूँगा।"
यह  संकल्प क्यों आया - स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस का अध्यक्ष पद सम्हालने वाले पं. मोती लाल नेहरू १९१९ से दो साल रहे। पं. जवाहर लाल नेहरू ०८, श्रीमती इंदिरा गाँधी ०७ साल, राजीव गाँधी ०६ साल, सोनिया गांधी १९ साल और  राहुल गाँधी दो साल से हैं। 
क्षेत्रीय दलों में लालू जी की, मुलायम सिंह की,  मायावती जी की , सिबू सोरेन की , बीज पटनायक की, ममता बेनर्जी की , साथ ही जनतादल यूनाइटेड, एआईडीएमके, डी एम के, तेलगू देशम , उत्तर में पी पी पार्टियां आदि-आदि। 
इन दलों के  प्रधान चाहे वह अपने सूबे के रहा हों या देश के उनके कार्य देश के हित कम,  अपने परिवार और व्यवसाय के हित  ज्यादा साधे, प्रमाण चल रहे नाना प्रकार के मुकदमें हैं।

 राजनैतिक दल परिवार के दल बन गयें। कई कई के तो पूरा परिवार जमानत पर घूम रहा है। देश में जाति और सम्प्रदाय का ध्रुवीकरण हुआ। गरीब गरीब होता गया और अमीरों की संख्या बल के साथ अमीर की पूंजी में निरन्तर बढ़ोत्तरी होती गई। कुछ तो कुछ धंधा-पानी भी करते रहे किन्तु कइयों ने तो हाथ में हाथ रख कर भी विश्व  के धनाढ्यों की सूची में अपना नाम लिखवाया। 

ऐसे में कोई प्रधान यदि यह संकल्प लेता है कि मैं अपने लिए अर्थात् न केवल व्यक्तिगत जीवन में अपितु पारिवारिक जीवन , मित्र मण्डली में किसी के लिए कोई ऐसा काम नहीं करूँगा जो लोकतंत्र और संविधान की मर्यादा के प्रतिकूल हो तो इसे शुभ मानना चाहिए।

३. "मेरा पल-पल और मेरा कण-कण देशवासियों को समर्पित होगा।" 
सत्ता सेवा है, भोग नहीं। यह संकल्प ही समर्पण का मूल है। अपने घर का त्याग, परिवार का त्याग, समाज की संकीर्णता से बाहर, प्रदेश की संकीर्णता से बाहर, राष्ट्र की प्रखरता के साथ विश्व के कल्याण का मार्ग इसी के लिए प्रशस्त करना। त्यजेदेकम कुलस्यार्थे ..। मेरा पल-पल अर्थात्  जीवन की अंतिम सांस तक का संकल्प । मेरा कण-कण अर्थात्  देह के हर कोश के संचलन तक देशहित का संकल्प। 

 राजपथ में राजा और महराजा बन कर नहीं सेवा के मार्ग से ही जाना है । अपने - अपने  पूजा-पंथों की मान्यताओं को निजी जीवन में निर्वहन करने केदारनाथ से मक्का और येरूशलम तक जाने की स्वतंत्रता हैं किन्तु राजपथ की यात्रा संविधान को सरमाथे पर रख कर ही करना होगी।

चुनाव प्रचार के बीच मोदी जी ने  कुछ संदेश सभी दलों के लिए, कुछ एनडीए के लिए तो कुछ अपनी पार्टी के लिए दिये हैं। 

आपको ध्यान में आया होगा कि भाजपा की जिन प्रांतों में पिछली सरकारें रहीं हैं वहाँ सत्ता पक्ष का अध्यक्ष कमजोर होता गया और मुख्यमंत्री दल और सत्ता दोनों के केन्द्र में आ गया। पत्रकार वार्ता में मोदी जी ने उस महत्वाकांक्षा को तोडऩे का कडक़ संदेश दिया ‘हमारे लिए हमारे दल का अध्यक्ष ही सब कुछ होता है।’ 

 पत्रकार वार्ता में कही यह बात यदि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री समझे होते तो तीनों सरकारें आज भी उनके पास होती। शायद यह संदेश वर्तमान और आनेवाली भाजपा की सरकारें समझ सकेंगी।

 इस समझ के साथ सरकार के लक्ष्य पूर्ति का मार्ग होगा - ‘सब का साथ, सब का विकास’  और  ‘सब का विश्वास।’  

सरकार बनी, प्रश्न खड़े होंगे कि आखिर उसके सामने प्राथमिकताएँ क्या हैं? क्या सरकार की प्राथकिता एक ओर ‘भारत की अखण्डता और एकात्मता’ तो दूसरी ओर ‘नर सेवा नारायण सेवा’ होगी ? 

 चैलेंज जहाँ भारत की अखण्डता के लिए धारा ३७० वा ३५ ए समाप्त करना  है, वहीं समान नागरिक संहिता और राममंदिर निर्माण  है।

एक ओर घुसपैठियों की पहचान है तो अभारतीय मानसिकता का भारतीयकरण भी है। 

धर्मान्तरण पर रोक है तो धर्मान्तरण से घर वापसी भी है।

 इसके समाधान के  लिए स्मरण करें मोदी जी का  भाषण -  हमारी पिछली सरकार को हमने नहीं देश की जनता ने चलाई है, कभी साथ-साथ चल तो कभी दो कदम आगे चलकर। 

अर्थात् जन आन्दोलन और जन विश्वास को प्राप्त कर इनका समाधान करना है। चीन- भारत-भूटान सीमा, बंग्लादेश की सीमा की घुसपैठ और विवाद भी इसी काल के विषय हैं। पाकिस्तान की हथियार बन्दनीति और गिलगिट, बल्तिस्तान की भारत की ओर  आशाभरी टकटकी का समाधान भी अपेक्षित है। 

नक्सलियों के उपद्रव तो संवैधानिक कमजोरियों का फायदा उठाते प्रांतों के गलत मनसूबों को भी लाइन में लाना है। 

भ्रष्टाचार पर जिस तरह पहले कार्यकाल में सरकार ने कामयाबी पायी है उसे आगे बनाये रखना और न्यायपालिका, तथा अन्य संस्थाओं पर उठाए गये फरेबी अन्दोलनों को मुहतोड़ जबाब भी देना है। 

शिक्षा की नई नीति, भारत की चिति-चेतना पोषित शिक्षा पद्धति भी ला कर युवायों को राजगारोंमुखी शिक्षा देना भी एक बड़ा चैलेंज है।

 भाषाई शिक्षा और कुकुरमुत्तों के  समान फलते-फूलते अंग्रेजी संस्थानों पर अंकुश और हिन्दी और अपनी मातृभाषाओं के आधार पर आवश्यकतानुसार  उच्च और शोध की शिक्षा देना भारत की सरकार के सामने चुनौती है। 

आंतरिक सुरक्षा और देश के अन्दर पिछले सैकड़ों साल के हिन्दू-मुस्लिम-ईसाई सम्बन्धों का भारतीयकरण करना,  धर्माधारित शिक्षा बन्द करना। पिछड़े समाज की, वंचितों को दी जाने वाली शिक्षा आधुनिक और देशानुकूल बनाना भी सरकार के सामने चैलेंज है । 

किन्तु इसके लिए केवल वोट देकर बहुमत दे देने से काम नहीं चलेगा। तो आगे आकर समाज जागरण, व्यक्ति-व्यक्ति के अन्दर देशानुराग पैदा करना होगा। 

गरीब और गरीब का सहायक दो ही वर्गों का परिचय इस समाज में अपेक्षित है। इसमें हमारे  जातीय स्वाभिमान, धार्मिक आस्थाएँ और विश्वास आड़े नहीं आने चाहिए।  ‘देश हमें देता है सब कुछ हम भी तो कुछ देना सीखे ’ का भाव जागरण पैदा करना होगा। 

दूसरी तरफ देश भर के ब्यूरोक्रेट्सों को अपनी कार्यशैली में परिवर्तन करना होगा। पश्चिम बंगाल में पुलिस-प्रधानों के  रवैया या अन्य प्रांतों में गिरगिट की तरह सत्ता के साथ रंग बदलते भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों को अपने मैन्युयल और संविधान के दायरे में काम करना होगा। सत्ता में रहने के मोहपाश से बाहर आ कर लोकहित में उनसे कार्य की अपेक्षा है। भ्रष्टाचार की रोकथाम में उनकी पहली चौकीदारी है। तंत्र यदि भ्रष्ट होता है तो उसमें पहली सीढ़ी यहीं से जाती है। 
 
नोटबंदी के विपक्ष के विषवमन को पचाकर जिस तरह जनता ने सरकार को पुन: वापस लाकर विश्व में कीर्तिमान स्थापित कराया है- व्यापारी, ठेकेदार, व्यवसायियों को समझाना होगा। 

कंकड़-पत्थर खा जाने वाली मशीन बने सेवकों के लिए भी समझने का अवसर है।  पीए, ओएसडी एक सांचे में ढल गये हैं उन्हें भी पटरी में लाना किसी भी सरकार के लिए चुनौती है, इसे प्रदेश और देश की सरकारों को समझना होगा। 

विपक्षी दलों को भी अपनी नादानी को छोड़ कर भले ही टुकड़े -टुकड़े में हों किन्तु टुकड़े-टुकड़े गैंग के सम्मोहन से बाहर आकर अखण्डता और एकात्मता के लिए सरकार के साथ सकारात्मक हाथ बढ़ाना होगा। संविधान को प्रणाम का अर्थ भी यही है।

इस सब बातों को ध्यान में रखते हुए यदि देश चलेगा तो निश्चित रूप से जन-गण का संदेश सार्थक होगा। नान्या: पंथा:।
 Umeshksingh58@gmail.com

Thursday, 20 May 2021

 

अर्धशासकीय पत्र ​​​​​​​​18 मई 2021

 

मान्यवर,

नमस्कार

आशा है आप सपरिवार स्वस्थ एवं सानद होंगे. हम सब जानते हैं कि सम्पूर्ण विश्व के साथ हमारा देश भी कोविद -19 जैसी भयानक बीमारी की दूसरी लहर से संघर्ष कर रहा है.

शिक्षा क्षेत्र से जुड़े होने के कारण हमारे संकट का कारन केवल व्यक्तिगत परिवार ही नहीं है तो हमारे पास देश का भविष्य है. हमारे प्रिय विधार्थी आज जहाँ इस विपदा से सुरक्षित रहने को संघर्ष कर रहें है वहीँ अपने भविष्य को लेकर भी चिंतित हैं और उनकी चिंता स्वाभाविकरूप से हमारी चिंता है. .

जैसा की हमारे प्रधानमंत्री जी कहते है कि यह आपदा में अवसर ढूढने का समय है. .ऐसे में स्वामी विवेकानन्द जी का ध्यान आता है जब वे कहते है की ‘सच्ची शिक्षा मानवता की सेवा है’.

संभव है आपके भोगोलिक क्षेत्र तथा विश्वविद्यालय परिसर में भी इस महामारी से प्रभावित होने की धटनाएं घटित हुई होंगी ।

     मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप लोग इस महामारी के यथेस्ट समाधान के लिये सामाजिक दायित्वबोध का निर्वहन प्रभावी तरीके से कर ही रहें होंगे। ऐसे समय पर हम सबका परम कर्तव्य बनता है कि अपने सभी हितधारकों जैसे- विद्यार्थी, शैक्षणिक, अशैक्षणिक कर्मचारी तथा उनके परिजनों के स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं समग्र कल्याण का ध्यान रखें।

साथ ही विश्वविद्यालय परिसर से लगे नगरीय तथा ग्रामीण क्षेत्र के रहवासियों का भी इस लाकडाउन की परिस्थिति से उत्पन्न होने वाली परेशानी को ध्यान में रख कर समाधान सेवा के माध्यम से कैसे किया जा सकता है, इस बात की भी चिंता करें ।

 

     भारत तथा प्रदेश सरकार द्वारा जिस तत्परता से प्रयास किये जा रहे है, उम्मीद की जा रही है की हमारा प्रदेश और देश इस महामारी से जल्द ही बाहर आएगा.

विश्व स्वास्थ संगठन और भारत तथा प्रदेश सरकार  द्वारा समय-समय पर दिशा-निर्देश जारी किये जाते हैं, इन निर्देशों का पालन करना तथा कराना कोविड संक्रमण के प्रसार को रोकने में सहायक होगा।  

इस दृष्टि से कोविड संक्रमण की श्रृखला को समाप्त करने के निम्नलिखित उपायों पर आप सब विचार और क्रियान्वयन कर ही रहे होंगे, जिन्हें स्मरण कराया जाना उचित होगा-

1.​स्नातकोत्तर विद्यार्थी / शोध छात्र / एन.एस.एस / एन. सी.सी. के विद्यार्थियों का सहयोग लेना।

2.​ टास्क फोर्स / हेल्प लाइन का गठन।

3.​शारीरिक दूरी - मास्क है जरूरी।

4. हस्त प्रच्छालन/ सेनिटाइजर का उपयोग।

5.​ मनो-सामाजिक सहायता और कल्याण के लिये परामर्श प्रदान करना।

6.​ आवश्यक व्यायाम तथा प्राणायाम ।

7. ​संकट ग्रस्त विद्यार्थी, उनके परिवार और दिव्यांगजनों तक त्वरित मदद पहुँचाने की व्यवस्था करना।

8.​विश्वविद्यालय परिसर में कोविड केंद्र बनाये जाने पर उदारता का परिचय।

9.​अस्पताल में भर्ती होने एवं आपालकाल परिस्थिति में आक्सीजन सिलेण्डर की व्यवस्था कराना।

     मैं आयोग की तरफ से तथा व्यक्तिगत रूप से भी सभी विश्विद्यालयों के माननीय कुलाधिपति तथा कुलपति गणों से अपने संस्थागत प्रयासों को और अधिक सुद्रढ़ करने का आग्रह करता हूँ। हम सभी को अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ आगें बढकर कोविड-19 महामारी के इस दूसरी लहर के विरूद्ध एक जुटता का परिचय देते हुये सामना करना होगा।

श्रीमदभगवत गीता में कहा गया है –

अधिष्ठानम तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम.

विविधाश्च  पृथक्चेष्टा दैवम चैवात्र पंचमं .

हम इस सन्देश के निमित्त बने, इसी के साथ आप सभी को मेरी शुभ कामनायें।

​​​​​​​​​​भवदीय

भरत शरण सिंह

प्रति,

Monday, 3 May 2021

 

 

मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा क्यों आवश्यक

-प्रो. भरण शरण सिंह

 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 (हृश्वक्क-२०२०) में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए इस बात की अनिवार्यता की गयी है। इस विषय को लेकर कुछ लोगों (कूट आंग्ल प्रेमी) द्वारा  सामान्य जन के मन में यह भ्रम पैदा किया जा रहा है कि हमारा बच्चा 6वीं कक्षा से अर्थात 12 वर्ष की उम्र में ABCD पढऩा प्रारंभ करेगा। जब कि ऐसा नहीं है,अभी तक प्रचलित शिक्षा नीति में का 10$2 प्रावधान था जिसमें प्राथमिक शिक्षा कक्षा 5 तक मानी जाती थी। एन.ई.पी.-2020 में ५$$$४ किया गया है। अब जो प्राथमिक शिक्षा होगी उसमें प्री-स्कूलिंग के 3 वर्ष तथा स्कूलिंग के 2 वर्ष होगें अर्थात् प्राथमिक शिक्षा की आयु 3-8 वर्ष की होगी। इस आयु के बाद अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं में अध्ययन के विकल्प खुले रहेंगे।

मातृभाषा मेंं प्राथमिक शिक्षा क्योंं होना चाहिए इस विषय को लेकर कुछ उदाहरणों के साथ अपनी बात रखँूगा।   आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व चीन के महान दार्शनिक कनफ्यूशियस ने भाषा को लेकर कहा था, ‘‘ समाज की गलतियों या खराबियों को सिर्फ समाज की भाषा को ठीक करके ही खत्म किया जा सकता है क्योंकि भाषा अगर गलत हो जाए तो गलत बोला जाएगा, गलत बोला जाए तो गलत सुना जाएगा, और गलत कहकर जो गलत सुनाया गया है, उस पर जो अमल किया जाएगा वह गलत ही होगा और गलत अमल का परिणाम हमेशा गलत ही हुआ करता है। इसलिए गलत समाज की गलत बुनियाद हमेशा गलत भाषा ही डालती है।’’

नवजागरण काल के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर किन्तु अंग्रेजी से प्रभावित राजा राममोहन राय ने हिंदी की स्वीकार्यता सम्पर्क भाषा के रूप में तो मानी किन्तु उसे ज्ञान-विज्ञान की भाषा नहीं माना। जिसका फायदा उठाकर मेकाले ने हमें अंग्रेजी का मुलम्मा पहना दिया। यह अंग्रेजों की भारत को सदा अपना दास बनाये रखने की दूरगामी चाल थी।

महात्मा गाँधी इस चाल को समझते थे इसीलिए उन्होंने अपने स्वराज के अभियान में मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा को कभी नहीं छोड़ा। वे देख चुके थे कि किस प्रकार शासक वर्ग भाषा की सामाजिक सापेक्षता और उसके ऐतिहासिक क्रम को कुचल डालते हैं। विश्व इस औपनिवेशिक मानसिकता का शिकार हुआ है। भारत में भी इस्लाम और अंग्रेजों के आगमन के साथ फारसी और अंग्रेजी ने अपना आधिपत्य बनाया।

              गांधी के भाषा सम्बन्धी चिन्तन पर विचार करते हुए दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए- पहला कि वे स्थानीय या प्रान्तीय स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में सम्बद्ध प्रांत की भाषा के समर्थक थे। दूसरा यह कि समय निष्पादन के लिए आपसी सम्पर्क एवं राजनीतिक तथा प्रशासनिक कार्यों के निष्पादन के माध्यम के रूप में एक राष्ट्रभाषा (हिन्दी) के वे प्रबल समर्थक रहे। गांधी का मत था कि जो मातूभाषा से सच्चा प्रेम करता है, वह राष्ट्रभाषा के प्रति भी वैसा ही भाव रखता है।  यह बात अलग है कि स्वतंत्रता के बाद गांधी की बातों का ध्यान में नहीं रखा गया जिसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में जोर दिया गया है। आइये इसे समझने का प्रयत्न करें।

 गांधी हिन्द स्वराज में लिखते हैं, ‘‘हमें अपनी सभी भाषाओं को चमकाना चाहिए।’’ ‘इंडियन ओपिनियनमें शिक्षा में मातृभाषा का स्थान विषय पर कहते हैं, ‘‘भारतीय युवक संस्कार सम्पन्न भारतीय की भांति यदि अपनी मातृभाषा पढ़ या बोल नहीं सकता तो उसे शर्म आनी चाहिए। भारतीय बच्चों और उनके माता-पिता को अपनी मातृभाषाएँ पढऩे के बारे में जो लापरवाही देखी जाती है, वह अक्षम्य है। इससे तो उनके मन में अपने राष्ट्र के प्रति रत्ती-भर भी अभिमान नहीं रहेगा।’’ आगे लिखते हैं, ‘‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता अर्थात् परम्परागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। .. इसलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति-चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो-इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धांत को भूल जाने के खतरा मोल ले रहे हैं।’’

  4 फरवरी, 1916 काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का उद्घाटन समारोह वक्तव्य (जहाँ गांधी जी को छोडक़र शेष लोगों ने अंग्रेजी में भाषण दिया था), ‘‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यन्त अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। .. मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबन्ध किया जाएगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिम्ब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्ति किये ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार में उठ जाना ही अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्र में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। (श्रोताओं की..नहीं..नहीं।) फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती, तो आज हम किस स्थिति में होते। हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’’

  बापू ने 15/10/1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा, ‘‘मातृभाषा का अनादर माँ के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वेदश भक्त कहलाने लायक नहीं है।’’  वे मानते थे कि ‘‘जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाये जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं हो सकेगा। गांधी जी की इस बात में बड़ा दम है कि- १. सारी जनता को नये ज्ञान की जरूरत है।, २. सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती।,३. यदि अंग्रेजी पढऩे वाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है, तो सारी जनता को नया ज्ञान मिलना असम्भव है।’’ अत: मैं प्रार्थना करूँगा कि ‘‘आपस के व्यवहार में और जहाँ जहाँ हो सके वहाँ सब लोग मातृभाषा का ही उपयोग करें। और विद्यार्थियों के सिवा जो महाशय यहाँ आये हैं, वे मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का भगीरथ प्रयत्न करें।’’  वे आगे कहते हैं, ‘‘माँ के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। हम ऐसी शिक्षा के वशीभूत होकर मातृद्रोह करते हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियाँ भी होती हैं। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अन्तर पड़ गया है। हम जनसाधारण को नहीं पहचानते। जनसाधारण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। वे हम पर भरोसा नहीं करते। यदि यही स्थिति अधिक समय तक कायम रही तो एक दिन वायसराय लार्ड कर्जन   का यह आरोप सही हो जाऐगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’’

 ‘यंग इण्डियामें गाँधी जी भाषा के पक्ष में देशी भाषाओं का हितलेख में विदेशी विद्वान को उद्धृत करते हुए, ‘‘सेंट पॉल्स कैथिड्रल कॉलेज, कलकत्ता के प्रिंसिपल रेवनेंड डब्ल्यू. ई.एस.हालैंड अपनी गवाही में लिखते हैं कि जापान ने अपनी भाषा के प्रयोग से एक ऐसी शिक्षा प्रणाली खड़ी कर दी है जिसका पाश्चात्य जगत सम्मान करता है।’’ कोलकाता में ही अखिल भारतीय समाज-सेवा-सम्मेलन में उनका भाषण, ‘पहली और सबसे बड़ी समाज-सेवा जो हम कर सकते हैं वह यह है कि हम इस स्थित से पीछे हटें, देशी भाषाओं का अपनायें, और सभी प्रांत अपना-अपना समस्त कार्य अपनी देशी भाषाओं में तथा राष्ट्र का कार्य हिंदी में प्रारम्भ कर दें।’’ 

              अब जरा पूज्य सुदर्शन जी को समझे वे हमेशा कहते थे कि किसी भी भाषा का अंग्रेजी अनुवाद तो किया जा सकता है किन्तु उस भाव को जो मातृभाषा में प्राप्त होता है उस भाव का अनुवाद नहीं किया जा सकता। कहा जाता है कि माँ, शिशु की प्रथम शिक्षक (Mother is the first Teacher of Child)÷  होती है। बच्चे का जिस परिवेष में लालन-पालन होता है और उस परिवेष में जिस भाषा का उपयोग होता है वह बालक के मन-मस्तिष्क मे गहरा प्रभाव डालती है और न केवल प्रभाव डालती है बल्कि उस प्रकार की आकृति उसके मस्तिष्क में बनती है एवं उसी अनुरूप उसके भाव भी निर्मित होते है। माँ-मंदिर कहने से जो भाव बालक के मन में बनेगें वह Mother -Temple कहने से नहीं बनेगें। पूज्य सुदर्शन जी मीरॉंबाई के भजन का उदाहरण देते थे -

मेरे तो गिरधर गोपाल-दूसरो न कोई

जा के सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई।।

यहाँ पर जैसे मीराँ का नाम आता है उनकी कृष्ण भक्ति और मेवाड का सिसोदिया राजवंश का चित्रण होता है। गिरधर-कहने पर गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले कृष्ण का स्वरूप मस्तिष्क में बनता है। गिरधर या गिरधारी का अंग्रेजी अनुवाद Cattleman, Cow-Boy, Shepherd ;k Neatherd होगा जो मातृभाषा का विकल्प नहीं होगा। इसी प्रकार गोपाल-शब्द सुनने मात्र से गायों के मध्य बांसुरी बजाते कृष्ण की मोहक छवि मानस पटल पर स्वमेव आ जाती है। गोपाल-गौपाल का अंग्रेजी अनुवाद Cattleman, Cow-Boy, Shepherd ;k Neatherd तथा मोर मुकुट का अर्थ Peacock feather Crown होगा। इन शब्दों से गैर-अंग्रेजी भाषी शिशुओं में वह अनुभूति उत्पन्न नहीं कर पायेगें जो उसकी मातृभाषा के शब्द कर पायेगें। Temple शब्द से वह श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न नहीं होगी जो मंदिर शब्द से होगी।

सारांश यह कि विज्ञान भी मानता है कि मनुष्य में मस्तिष्क का विकास 6 वर्ष की उम्र तक ही होता है, शेष विकास परिवेष/अनुभव/बाह्य वातावरण पर निर्भर करता है। गांधी जी भी मानते हैं कि ‘‘विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा पाने में दिमाग पर जो बोझ पड़ता है वह असह्य है। वह बोझ हमारे बच्चे उठा तो सकते हैं, लेकिन उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ती है। वे दूसरा बोझ उठाने के लायक नहीं रह जाते। इससे हमारे स्नातक अधिकतर निकम्मे, कमजोर, निरुत्साही, रोगी और कोरे नकलची बन जाते हैं। उनमें खोज करने की शक्ति, साहस, धीरज, वीरता, निर्भयता और अन्य गुण बहुत क्षीण हो जाते हैं। इससे हम नयी योजनाएँ नहीं बना सकते और यदि बनाते हैं तो उन्हें पूरा नहीं कर पाते। कुछ लोग, जिनमें उपर्युक्त गुण दिखाई देते हैं, अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं। ..हम मातृभाषी जगदीशचन्द्र बसु, प्रफुल्लचन्द्र राय को देखकर मोहान्ध हो जाते हैं। मुझे विश्वास है कि हमने पचास वर्ष तक मातृभाषा द्वारा शिक्षा पायी होती तो हममें इतने बसु और राय होते कि उन्हें देख कर हमें अचम्भा न होता।’’

शिक्षा नीति-2020 में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की जो अनिवार्यता की गयी है वह उपरोक्त विषयों को ध्यान में रखकर की गयी है। विकसित और स्वतंत्र देशों में भी ऐसा किया जाता है। अन्त में भारतेन्दु हरिष्चन्द के कथन के साथ बात समाप्त करता हूँ- निज भाषा उन्नति हवै सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा ज्ञान के मिअय न हिय को सूल।।

संपर्क - अध्यक्ष

म.प्र.निजी विश्वविद्यालय

विनियामक आयोग, भोपाल

 

 


Sunday, 2 May 2021

ओ मेरे चित्रकार

ओ मेरे चित्रकार

ॐकार 
क्या मैं तुम्हारा दुर्लभ अमोघ अगम्य
बुद्धि-तीक्ष्णता, निर्मलता, विपुलता से भरा
मौन पा सकता हूं ?
 
ठहरो !
मैं जानता हूं तुम्हारे परा-तूलिका का कोई रंग नहीं,
वैसे ही जैसे पंक-कीच, फिसलन, दुर्गन्ध, काई-सेवर से दूर पम्पासर का श्यामाभ जल,
जिसे होना चाहिए था पंकलित उल्लसित अंतःउत्तेजित कामेक्षा-शोकदंशित विवशता से भरा, 
अशोक-तरु का चटक कुसुम्भी प्रगाढ़ दांपत्य प्रेम,

किन्तु तुम चाहते हो जहां जब जैसा वही रंग दिखता है
जानना चाहता हूं यह रंग मेरी आंखों का श्याम-श्वेत-रतनार है 
या तुम्हारे ‘अ’-कार चरणयुगुल का पवित्र पीत अनुराग लालिमा-मिश्रण   ।

मेरे दृश्यभू
क्या तुम्हारी प्रज्ञाचक्षु उस असीम आकाश को भेद कर
देख रहीं हैं हिमालयी अकामना तरल वारि को ,   
जहां उड़ नहीं सकते हमारे ईर्ष्या वैभव अय्याशी के विमान
वहां से केवल और केवल उड़ कर वापस आ सकता है
‘प्रणव’ का पञ्च-प्राण-पखेरू, मेरा घुमंतू परिंदा
जो उद्यत है मुक्ति मोक्ष कैवल्य-हुतासन ले  ‘इदं इन्द्राय इदं न मम’ हेतु,
दिख रहे हैं उसे तुम्हारे ‘उ-कार’ के उपकार उदर विशाल देश के आकाश और प्रकाश  मिश्रण। 

हे ब्रह्मविदु
संभवतः पंचभूती अपवित्र हाथों की मलिन छाया ने  
तुम्हारे ‘अवानस्पतिक’ को स्पर्श कर दिया होगा, या
दूसरे की रक्त कोशिकाओं को रोक लिया होगा अपने ही क्षेत्र में
जिसने बाधित किया होगा महामौनी सिद्ध मतंग आश्रम को
संवेदना और सहृदयता की सबरी में न आई होगी मिठास
अत: सावधान हूँ झंझावात में गंतव्य-यात्रा अधूरी न रह जाए
' ये पुरुषे वेदी ब्रह्म। ते वेदि ब्रह्मस्वरूप'
जीवन, प्रकाश-अस्मिता के चरम स्रोत का कर सके संधान, 
इसलिये चाहता हूं प्रवेेश उसमें जो है 'म’-कार महामंडल मिश्रण ।

प्रो. उमेश कुमार सिंह
०३/०५/२०२०