Tuesday, 28 December 2021

31 December 2022 , भारतीय जीवन मूल्य

"जैसे जैसे ३१ दिसम्बर पास आ रहा है, मद्यविक्रयकेन्द्रों में भीड़ बढ़ रहीं है । 
वाह रे नया वर्ष मनाने का बेहुदा ढँग !"
- यह एक वयोवृद्ध आचार्य की पीड़ा है।

मेरा मत है-
मधुशाला अधिक उचित है। ,🙏 हमारा सामाजिक जीवन भ्रमित है। हम लोकायतन दर्शन के अधिकाधिक पास जा रहे हैं।
व्यवहार चतुराई भरा है। क्रिस्चियन स्कूल घर में चल रहे हैं।

महाजन भी इन दिनों सपरिवार मौज में रहते हैं,तो भूखा पेट मधुशाला के मार्ग से ही जीवन खो रहा है।
दूर बैठा विलियम वर्ड्सवर्थ भारत की चेतना समझता है-"Our birth is but a sleep and forgetting."
आगे कहता है- "The world is too much with us."
हमारा सामूहिक आध्यात्मिक प्रयास कमजोर हुआ है। हम यांत्रिक हो गये हैं।

इसलिए जीवन नष्ट हो रहा है।

 नीरस, उपेक्षित, वंचित  भौतिक जीवन भी एक कारण है।

Friday, 10 December 2021

भारत की कामना सम्प्रदायिक आधार पर नहीं जीवमात्र पर आधारित है। इसका प्रकटीकरण योग के बोध से हुआ।

योग शास्त्र में ऐसे सूक्ष्म सिद्धांतों की व्याख्या व स्थापना है जो आज के भौतिक विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भी विद्यमान है ।  

इस व्यवहारिक दर्शन का कार्यक्षेत्र भौतिक धरातल से लेकर उच्च आध्यात्मिक लोक तक फैला है। इन  विविध स्तरों से जुड़ी हुई इसकी भिन्न-भिन्न शाखाएं हैं। 

उदाहरण के लिए-  
हठयोग में केवल शारीरिक अभ्यास है । 
मंत्र योग  स्वर से संबंधित है । 
लय योग मानसिक प्रक्रिया है। 
राजयोग मन के भी परे जाकर अध्यात्म की भूमि का संस्पर्श करता है । 
हमरा कर्म योग आध्यात्मिक की आरंभिक तैयारी करता है।  
भक्ति योग ईश्वर के प्रति प्रेम भाव पर आधारित है।
ध्यान योग में ध्यान की क्रिया का अवलंबन होता है । 
व ज्ञान योग आत्मसाक्षात्कार द्वारा संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना है । 

आत्मविज्ञान सदा शास्त्रीय होता है और उसका मापदंड उसका सार्वभौम उपयोग होना  चाहिए ।

 यह किसी वर्ग अथवा देश का एकाधिकार नहीं हो सकता।  चाहे इस  ज्ञान को उद्घाटित करने का श्रेय केवल भारतीय ऋषियों को ही क्यों ना रहा हो।

दो बातें -
एक-  ऋषियों की प्राचीन साधना स्थली कहां थी ? -
उत्तर-  आर्य्यावर्त्त। जम्बूद्वीप। भरतखंड। अजनाभवर्ष  में।

दो- दुनिया के इस श्रेष्ठ मार्ग के दर्शन की भूमि और जन को यदि ' अनेकता से युक्त अशुद्ध चेतना' ने ग्रसना प्रारंभ किया (जो सतत है) तो इस विश्व कल्याणकारी दृष्टि का क्या  होगा? 

इसलिए क्या हमें नहीं लगता कि  हमें क्रिया योग द्वारा समान नागरिक आचार संहिता और नागरिकता का समर्थन करना चाहिए।
11/12/2019
खंडवा

Tuesday, 16 November 2021

शिक्षा में गुणवत्ता हेतु समाज की भूमिका

        

                        शिक्षा में आधारभूत परिवर्तन के लिए

 

 

 

 

 

 

अच्छे पाठ्यक्रम के साथ लागू शिक्षा नीति की समीक्षा आवश्यक है। क्या यह शिक्षा वे रोजगारोन्मुखी है या फिर डिग्री धारकों की फौज?



ए पाठ्यक्रम के अनुसार अंग्रेजी के फाउंडेशन कोर्स में फर्स्ट ईयर के छात्रों को सी राजगोपालचारी के महाभारत की प्रस्तावना पढ़ाई जाएगी। राज्य के शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने कहा कि अंग्रेजी और हिंदी के अलावा, योग और ध्यान को भी तीसरे फाउंडेशन कोर्स के रूप में रखा गया है, जिसमें ‘ओम ध्यान’ और मंत्रों का पाठ शामिल है।

नए पाठ्यक्रम में भगवान राम पर विशेष जोर दिया गया है। ये भी पढ़ाया जाएगा कि राम अपने पिता के कितने आज्ञाकारी थे। उनका इंजीनियरिंग ज्ञान कितना था, इसके लिए रामसेतु को इंजीनियरिंग के सिलेबस भी शामिल किया गया है। रामचरितमानस के अलावा 24 और वैकल्पिक विषयों को सिलेबस में रखा गया है।

 

मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री मोहन यादव ने कहा- “इन विषयों को छात्रों को जीवन के मूल्यों के बारे में सिखाने और उनके व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए शामिल किया गया है। हम रामचरितमानस और महाभारत से बहुत कुछ सीखते हैं। इससे छात्र सम्मान और मूल्यों के साथ जीवन जीने की प्रेरणा लेंगे। अब, हम सिर्फ छात्रों को शिक्षित नहीं करना चाहते हैं, बल्कि हम उन्हें महान इंसान के रूप में विकसित करना चाहते हैं।”यह पहली बार नहीं है जब मध्यप्रदेश में पौराणिक कथाओं को पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में शामिल किया गया है। राज्य सरकार ने 2011 में स्कूली छात्रों को गीता पढ़ाने की घोषणा की थी, लेकिन भारी विरोध का सामना करने के बाद इस निर्णय को वापस ले लिया गया था।

       

भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय के साथ ही मध्यप्रदेश की सरकार भी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को बदल कर भारतीय परम्परा आधारित शिक्षा व्यवस्था लाना चाहती है. जो न केवल रोजगारोन्मुखी हो, बल्कि एक अच्छा देशभक्त नागरिक भी हों, जिसे स्वामी विवेकानंद 'कैपिटल एम्' कहते हैं. तथा देश के वर्तमान प्रधानमंत्री वैश्विक मानव .

इसका आधार भारतीय ज्ञान परम्परा है. जिसका आधार वेद, उपनिषद. रामायण, महाभारत और रामचरितमानस को आधार बनाना होगा.  मध्यप्रदेश के शिक्षामंत्री जी भी भगवान राम के चरित्र और समकालीन कार्यों के बारे में  कहते हैं की उसके लिए आवश्यक इंजीनियरिंग के सिलेबस से भी जोड़ा जा रहा है। इस दृष्टि से समझना होगा कि फिर भी यदि उच्च शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन लाना है तो आधारभूत परिवर्तन आवश्यक है .

 इसके लिए आवश्यक है कि प्रदेश-प्रदेश में वर्तमान से लेकर चालीस वर्ष से प्रचलित अधिनियमों  में परिवर्तन किये जायें. उसमे कुलपति के नाम परिवर्तन से लेकर कुलगुरु और कुलसचिव में अधिकार, साधारण सभा के अधिकार, वित्त समिति के अधिकार हों या सबसे महत्वपूर्ण अध्यन मंडलों का गठन हो. वर्त्तमान में अध्यन मंडल के गठन की एसी प्रक्रिया है की उसमें परम्परा का निर्वहन ज्यादा है, गुणवता और शिक्षाविदों का स्थान कम.  अत: पाठ्यक्रम निर्माण समिति बनाने की प्रक्रिया बदली जाए

विषय विशेषज्ञ केवल पद के आधार पर न हों बल्कि वे विषय के ज्ञाता इतिहास, साहित्य , संस्कृति, भूगोल  के साथ भारतीय मनोविज्ञान  ,विज्ञान और अर्थशास्त्र की परम्परा के जानकार भी हों. जिन्हें  सही तथ्यों और  वर्तमान के कल्पित तथ्यों का  गहन अन्तर ज्ञात हो।

प्रकाशकों की भी एक ऐसी कार्यशाला हो, जो यह तय करें कि राष्ट्रहित में पाठ्यक्रम  आधारित पुस्तकें कैसे तैयार हों. तथा इसके तथ्यों, कथ्यों लिए फिल्म सेंसर बोर्ड की  एक मार्गदर्शक मंडल तैयार किया जाए । विश्वविद्यालयों / स्वसाशी संस्थानों के विभागाध्यक्ष, डीन और कुलगुरु तथा कुलसचिव की दृष्टि पाठ्यक्रम निर्णय के बारे में स्पष्ट हो ।

पुस्तक लेखक  तथा परीक्षक को भी विषय का गहन अध्यन हो । इन सबके अतिरिक्त छोटी -छोटी पुस्तकें तैयार करा कर प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तथा पुस्तकालयों के माध्यम से विद्यार्थिओं को उपलब्ध कराये जायें ।

विकिपीडिया के तथ्यों को निरंतर अपडेट किया जाये अथवा विकिपीडिया य गूगल  के समान एक प्लेटफार्म तैयार किया जाये । प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में इन्ही तथ्यों के आधार पर पुस्तकें तथा प्रश्न तैयार कराये जायें ।

इस सामग्री की उपलब्धता कोचिंग की कक्षाओं में भी रहे ।  इतिहास के तथ्यों को रोचक बनाकर कहानियों, लेखों के आधार पर प्राथमिक से माध्यमिक शाला तक के विद्यार्थियों को प्रयोग एवं व्यवहार में लाने हेतु उपलब्ध  कराई  जाये।

इतिहास,भूगोल, भाषा, साहित्य, संस्कृति, परम्परा, पंथ, समुदाय एवं प्रचलित शब्दों की विद्यार्थी और शिक्षकों के समक्ष बार-बार पुनर्व्याख्या की जाये तथा इन पर प्रतियोगिता संपन्न हों। तथ्यों के ठीक प्रचार के लिए समाचार पत्र, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उनके संपादक, तथा कर्मियों का भी सहयोग लिया जाए । सोसल मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग भी किया जा

 

शिक्षा में आधारभूत परिवर्तन के लिए  

भारत सरकार और शिक्षा मंत्रालय वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को बदल कर भारतीय परम्परा आधारित शिक्षा लाना चाहती है. यदि उच्च शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन लाना है तो आधारभूत परिवर्तन आवश्यक है .

 इसके लिए आवश्यक है कि प्रदेश-प्रदेश में वर्तमान से लेकर चालीस वर्ष से प्रचलित अधिनियमों  में परिवर्तन किये जायें. उसमे कुलपति के नाम परिवर्तन से लेकर कुलगुरु और कुलसचिव में अधिकार, साधारण सभा के अधिकार, वित्त समिति के अधिकार हों या सबसे महत्वपूर्ण अध्यन मंडलों का गठन हो. वर्त्तमान में अध्यन मंडल के गठन की एसी प्रक्रिया है की उसमें परम्परा का निर्वहन ज्यादा है, गुणवता और शिक्षाविदों का स्थान कम.  अत: पाठ्यक्रम निर्माण समिति बनाने की प्रक्रिया बदली जाए

विषय विशेषज्ञ केवल पद के आधार पर न हों बल्कि वे विषय के ज्ञाता इतिहास, साहित्य , संस्कृति, भूगोल  के साथ भारतीय मनोविज्ञान  ,विज्ञान और अर्थशास्त्र की परम्परा के जानकार भी हों. जिन्हें  सही तथ्यों और  वर्तमान के कल्पित तथ्यों का  गहन अन्तर ज्ञात हो।

प्रकाशकों की भी एक ऐसी कार्यशाला हो, जो यह तय करें कि राष्ट्रहित में पाठ्यक्रम  आधारित पुस्तकें कैसे तैयार हों. तथा इसके तथ्यों, कथ्यों लिए फिल्म सेंसर बोर्ड की  एक मार्गदर्शक मंडल तैयार किया जाए । विश्वविद्यालयों / स्वसाशी संस्थानों के विभागाध्यक्ष, डीन और कुलगुरु तथा कुलसचिव की दृष्टि पाठ्यक्रम निर्णय के बारे में स्पष्ट हो ।

पुस्तक लेखक  तथा परीक्षक को भी विषय का गहन अध्यन हो । इन सबके अतिरिक्त छोटी -छोटी पुस्तकें तैयार करा कर प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तथा पुस्तकालयों के माध्यम से विद्यार्थिओं को उपलब्ध कराये जायें ।

विकिपीडिया के तथ्यों को निरंतर अपडेट किया जाये अथवा विकिपीडिया य गूगल  के समान एक प्लेटफार्म तैयार किया जाये । प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में इन्ही तथ्यों के आधार पर पुस्तकें तथा प्रश्न तैयार कराये जायें ।

इस सामग्री की उपलब्धता कोचिंग की कक्षाओं में भी रहे ।  इतिहास के तथ्यों को रोचक बनाकर कहानियों, लेखों के आधार पर प्राथमिक से माध्यमिक शाला तक के विद्यार्थियों को प्रयोग एवं व्यवहार में लाने हेतु उपलब्ध  कराई  जाये।

इतिहास,भूगोल, भाषा, साहित्य, संस्कृति, परम्परा, पंथ, समुदाय एवं प्रचलित शब्दों की विद्यार्थी और शिक्षकों के समक्ष बार-बार पुनर्व्याख्या की जाये तथा इन पर प्रतियोगिता संपन्न हों। तथ्यों के ठीक प्रचार के लिए समाचार पत्र, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उनके संपादक, तथा कर्मियों का भी सहयोग लिया जाए । सोसल मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग भी किया जाये ।

Sunday, 14 November 2021

 (प्रश्न) जो ये गरुड़पुराणादि ग्रन्थ हैं वेदार्थ वा वेद की पुष्टि करने वाले हैं वा नहीं?

(उत्तर) नहीं, किन्तु वेद के विरोधी और उलटे चलते हैंे तथा तन्त्र भी वैसे ही हैं। जैसे कोई मनुष्य एक का मित्र सब संसार का शत्रु हो, वैसा ही पुराण और तन्त्र का मानने वाला पुरुष होता है क्योंकि एक दूसरे से विरोध कराने वाले ये ग्रन्थ हैं। इन का मानना किसी विद्वान् का काम नहीं किन्तु इन को मानना अविद्वत्ता है। देखो! शिवपुराण में त्रयोदशी, सोमवार, आदित्यपुराण में रवि; चन्द्रखण्ड में सोमग्रह वाले मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु के; वैष्णव एकादशी; वामन की द्वादशी; नृसिह वा अनन्त की चतुर्दशी; चन्द्रमा की पौर्णमासी; दिक्पालों की दशमी; दुर्गा की नौमी; वसुओं की अष्टमी; मुनियों की सप्तमी; कार्तिक स्वामी की षष्ठी; नाग की पंचमी; गणेश की चतुर्थी; गौरी की तृतीया; अश्विनीकुमार की द्वितीया; आद्यादेवी की प्रतिपदा और पितरों की अमावास्या पुराणरीति से ये दिन उपवास करने के हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्न, पान ग्रहण करेगा वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिये कि किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन न करें क्योंकि जो भोजन वा पान किया तो नरकगामी होंगे। अब ‘निर्णयसिन्धु’, ‘धर्मसिन्धु’, ‘व्रतार्क’ आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं उन्हीं में एक-एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी को शैव, दशमी विद्धा, कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद विवाद ही करते हैं। जो एकादशी का व्रत चलाया है उस में अपना स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। वे कहते हैं-

एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति।।

जितने पाप हैं वे सब एकादशी के दिन अन्न में वसते हैं। इस पोप जी से पूछना चाहिये कि किस के पाप उस में बसते हैं? तेरे वा तेरे पिता आदि के? जो सब के पाप एकादशी में जा बसें तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिये। ऐसा तो नहीं होता किन्तु उलटा क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इस से भूखे मरना पाप है। इस का बड़ा माहात्म्य बनाया है जिस की कथा बांच के बहुत ठगे जाते हैं। उस में एक गाथा है कि- ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उस ने कुछ अपराध किया। उस को शाप हुआ। तू पृथिवी पर गिर। उस ने स्तुति की कि मैं पुनः स्वर्ग में क्योंकर आ सकूँगी? उस ने कहा जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा तभी तू स्वर्ग में आ जायेगी। वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहाँ के राजा ने उस से पूछा कि तू कौन है। तब उस ने सब वृत्तान्त कह सुनाया और कहा कि जो कोई मुझे एकादशी का फल अर्पण करे तो फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूं। राजा ने नगर में खोज कराया। कोई भी एकादशी का व्रत करने वाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी ही थी। उस ने कहा कि मैंने एकादशी जानकर तो नहीं की; अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी। ऐसे राजा के भृत्यों से कहा। तब तो वे उस को राजा के सामने ले आये। उस से राजा ने कहा कि तू इस विमान को छू। उस ने छूआ तो उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह तो विना जाने एकादशी के व्रत का फल है। जो जानके करे तो उस के फल का क्या पारावार है!!! वाह रे आंख के अन्धे लोगो! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान का बीड़ा जो कि स्वर्ग में नहीं होता; भेजना चाहते हैं। सब एकादशी वाले अपना-अपना फल दे दो। जो एक पानबीड़ा ऊपर को चला जायेगा तो पुनः लाखों क्रोड़ों पान वहां भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे और जो ऐसा न होगा तो तुम लोगों को इस भूखे मरनेरूप आपत्काल से बचावेंगे। इन चौबीस एकादशियों के नाम पृथक्-पृथक् रक्खे हैं। किसी का ‘धनदा’ किसी का ‘कामदा’ किसी का ‘पुत्रदा’ किसी का ‘निर्जला’। बहुत से दरिद्र, बहुत से कामी और बहुत से निर्वंशी लोग एकादशी करके बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ औेर ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में कि जिस समय एक घड़ी भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है; व्रत करने वालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेष कर बंगाले में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई को लिखते समय कुछ भी मन में दया न आई, नहीं तो निर्जला का नाम सजला और पौष महीने की शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम निर्जला रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम? ‘कोई जीवो वा मरो पोप जी का पेट पूरा भरो।’ गर्भवती वा सद्योविवाहिता स्त्री, लड़के वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिये। परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो क्षुधा न लगे, उस दिन शर्करावत् (शर्बत) वा दूध पीकर रहना चाहिये। जो भूख में नहीं खाते और विना भूख के भोजन करते हैं वे दोनों रोगसागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों के कहने लिखने का प्रमाण कोई भी न करे। अब गुरु शिष्य मन्त्रेपदेश और मतमतान्तर के चरित्रें का वर्त्तमान कहते हैं-

मूर्त्तिपूजक सम्प्रदायी लोग प्रश्न करते हैं कि वेद अनन्त हैं। ऋग्वेद की २१, यजुर्वेद की १०१, सामवेद की १००० और अथर्ववेद की ९ शाखा हैं। इन में से थोड़ी सी शाखा मिलती हैं शेष लोप हो गई हैं। उन्हीं में पूजा और तीर्थों का प्रमाण होगा। जो न होता तो पुराणों में कहां से आता? जब कार्य देख कर कारण का अनुमान होता है तब पुराणों को देखकर मूर्त्तिपूजा में क्या शंका है?

(उत्तर) जैसे शाखा जिस वृक्ष की होती है उस के सदृश हुआ करती है; विरुद्ध नहीं। चाहै शाखा छोटी बड़ी हों परन्तु उन में विरोध नहीं हो सकता। वैसे ही जितनी शाखा मिलती हैं जब इन में पाषाणादि मूर्त्ति और जल स्थल विशेष तीर्थों का प्रमाण नहीं मिलता तो उन लुप्त शाखाओं में भी नहीं था। और चार वेद पूर्ण मिलते हैं उन से विरुद्ध शाखा कभी नहीं हो सकतीं और जो विरुद्ध हैं उन को शाखा कोई भी सिद्ध नहीं कर सकता। जब यह बात है तो पुराण वेदों की शाखा नहीं किन्तु सम्प्रदायी लोगों ने परस्पर विरुद्धरूप ग्रन्थ बना रखे हैं। वेदों को तुम परमेश्वरकृत मानते हो वा मनुष्यकृत? परमेश्वरकृत । जब

परमेश्वरकृत मानते हो तो ‘आश्वलायनादि’ ऋषि मुनियों के नाम प्रसिद्ध ग्रन्थों को वेद क्यों मानते हो? जैसे डाली और पत्तों के देखने से पीपल, बड़ और आम्र आदि वृक्षों की पहिचान होती है वैसे ही ऋषि मुनियों के किये वेदांग, चारों ब्राह्मण, अंग; उपांग और उपवेद आदि से वेदार्थ पहिचाना जाता है। इसलिये इन ग्रन्थों को शाखा माना है। जो वेदों से विरुद्ध है उस का प्रमाण और अनुकूल का अप्रमाण नहीं हो सकता। जो तुम अदृष्ट शाखाओं में मूर्त्ति आदि के प्रमाण की कल्पना करोगे तो जब कोई ऐसा पक्ष करेगा कि लुप्त शाखाओं में वर्णाश्रम व्यवस्था उलटी अर्थात् अन्त्यज और शूद्र का नाम ब्राह्मणादि और ब्राह्मणादि का नाम शूद्र अन्त्यजादि, अगमनीयागमन, अकर्त्तव्य कर्त्तव्य, मिथ्याभाषणादि धर्म, सत्यभाषणादि अधर्म आदि लिखा होगा तो तुम उस को वही उत्तर दोगे जो कि हम ने दिया अर्थात् वेद औेर प्रसिद्ध शाखाओं में जैसा ब्राह्मणादि का नाम ब्राह्मणादि और शूद्रादि का नाम शूद्रादि लिखा है, वैसा ही अदृष्ट शाखाओं में भी मानना चाहिये नहीं तो वर्णाश्रम व्यवस्था आदि सब अन्यथा हो जायेंगे। भला जैमिनि, व्यास और पतञ्जलि के समय पर्य्यन्त तो सब शाखा विद्यमान थीं वा नहीं? यदि थीं तो तुम कभी निषेध न कर सकोगे और जो कहो कि नहीं थीं तो फिर शाखाओं के होने का क्या प्रमाण है? देखो! जैमिनि ने मीमांसा में सब कर्मकाण्ड, पतञ्जलि मुनि ने योगशास्त्र में सब उपासनाकाण्ड और व्यासमुनि ने शारीरक सूत्रें में सब ज्ञानकाण्ड वेदानुकूल लिखा है। उन में पाषाणादि मूर्त्तिपूजा वा प्रयागादि तीर्थों का नाम तक भी नहीं लिखा। लिखें कहां से? जो कहीं वेदों में होता तो लिखे विना कभी न छोड़ते। इसलिये लुप्त शाखाओं में भी इन मूर्त्तिपूजादि का प्रमाण नहीं था। ये सब शाखा वेद नहीं हैं क्योंकि इनमें ईश्वरकृत वेदों के प्रतीक धर के व्याख्या और संसारी जनों के इतिहासादि लिखे हैं इसलिये ये वेद कभी नहीं हो सकते। वेदों में तो केवल मनुष्यों को विद्या का उपदेश किया है। किसी मनुष्य का नाममात्र भी नहीं। इसलिए मूर्त्तिपूजा का सर्वथा खण्डन है। देखो! मूर्त्तिपूजा से श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, नारायण और शिवादि की बड़ी निन्दा और उपहास होता है। सब कोई जानते हैं कि वे बड़े महाराजाधिराज और उनकी स्त्री सीता तथा रुक्मिणी, लक्ष्मी और पार्वती आदि महाराणियां थीं, परन्तु जब उन की मूर्त्तियां मन्दिर आदि में रख के पुजारी लोग उनके नाम से भीख मांगते हैं अर्थात् उन को भिखारी बनाते हैं कि आओ महाराज! राजा जी! सेठ! साहूकारो! दर्शन कीजिये, बैठिये, चरणामृत लीजिये, कुछ भेंट चढ़ाइये। महाराज! सीता-राम, कृष्ण-रुक्मिणी वा राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण और महादेव-पार्वती जी को तीन दिन से बालभोग वा राजभोग अर्थात् जलपान वा खानपान भी नहीं मिला है। आज इन के पास कुछ भी नहीं है। सीता आदि को नथुनी आदि राणी जी वा सेठानी जी बनवा दीजिये। अन्न आदि भेजो तो राम-कृष्णादि को भोग लगावें। वस्त्र सब फट गये हैं। मन्दिर के कोने सब गिर पड़े हैं। ऊपर से चूता है और दुष्ट चोर जो कुछ था उसे उठा ले गये। कुछ ऊंदरों (चूहों) ने काट कूट डाले। देखिये? एक दिन ऊंदरों ने ऐसा अनर्थ किया कि इनकी आंख भी निकाल के भाग गये। अब हम चांदी की आंख न बना सके इसलिये कौड़ी की लगा दी है। रामलीला और रासमण्डल भी करवाते हैं। सीताराम, राधाकृष्ण नाच रहे हैं।

राजा और महन्त आदि उन के सेवक आनन्द में बैठे हैं। मन्दिर में सीता-रामादि खड़े और पुजारी वा महन्त जी आसन अथवा गद्दी पर तकिया लगाये बैठते हैं। महागरमी में भी ताला लगा भीतर बन्ध कर देते हैं और आप सुन्दर वायु में पलंग बिछाकर सोते हैं। बहुत से पूजारी अपने नारायण को डब्बी में बन्ध कर ऊपर से कपड़े आदि बांध गले में लटका लेते हैं जैसे कि वानरी अपने बच्चे को गले में लटका लेती है वैसे पूजारियों के गले में भी लटकते हैं। जब कोई मूर्त्ति को तोड़ता है तब हाय-हाय कर छाती पीट बकते हैं कि सीता-राम जी राधा-कृष्ण जी और शिव-पार्वती को दुष्टों ने तोड़ डाला! अब दूसरी मूर्त्ति मंगवा कर जो अच्छे शिल्पी ने संगमरमर की बनाई हो स्थापन कर पूजनी चाहिये।

नारायण को घी के विना भोग नहीं लगता। बहुत नहीं तो थोड़ा सा अवश्य भेज देना। इत्यादि बातें इन पर ठहराते हैं। और रासमण्डल वा रामलीला के अन्त में सीताराम वा राधाकृष्ण से भीख मंगवाते हैं। जहां मेला ठेला होता है वह छोकरे पर मुकुट धर कन्हैया बना मार्ग में बैठाकर भीख मंगवाते हैं। इत्यादि बातों को आप लोग विचार लीजिये कि कितने बड़े शोक की बात है! भला कहो तो सीतारामादि ऐसे दरिद्र और भिक्षुक थे? यह उन का उपहास और निन्दा नहीं तो क्या है? इस से बड़ी अपने माननीय पुरुषों की निन्दा होती है। भला जिस समय ये विद्यमान थे उस समय सीता, रुक्मिणी, लक्ष्मी और पार्वती को सड़क पर वा किसी मकान में खड़ी कर पूजारी कहते कि आओ इन का दर्शन करो और कुछ भेंट पूजा धरो तो सीता-रामादि इन मूर्खों के कहने से ऐसा काम कभी न करते और न करने देते। जो कोई ऐसा उपहास उन का करता है उस को विना दण्ड दिये कभी छोड़ते? हां जब उन्हों से दण्ड न पाया तो इन के कर्मों ने पूजारियों को बहुत सी मूर्त्तिविरोधियों से प्रसादी दिला दी और अब भी मिलती है और जब तक इस कुकर्म को न छोड़ेंगे तब तक मिलेगी। इस में क्या सन्देह है कि जो आर्य्यावर्त्त की प्रतिदिन महाहानि पाषाणादि मूर्त्तिपूजकों का पराजय इन्हीं कर्मों से होता है, क्योंकि पाप का फल दुःख है। इन्हीं पाषाणादि मूर्त्तियों के विश्वास से बहुत सी हानि हो गई। जो न छोड़ेंगे तो प्रतिदिन अधिक-अधिक होती जायगी, इन में से वाममार्गी बड़े भारी अपराधी हैं। जब वे चेला करते हैं तब साधारण को-

दं दुर्गायै नम । भं भैरवाय नम । ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।।

इत्यादि मन्त्रें का उपदेश कर देते हैं और बंगाले में विशेष करके एकाक्षरी मन्त्रेपदेश करते हैं। जैसा-

ह्रीं, श्रीं, क्लीं।।

इत्यादि और धनाढ्यों का पूर्णाभिषेक करते हैं। ऐसे दश महाविद्याओं के मन्त्र-

ह्रां ह्रीं ह्रूं बगलामुख्यै फट् स्वाहा।।

कहीं-कहीं-

हूं फट् स्वाहा।।

और मारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, वशीकरण आदि प्रयोग करते हैं।

सो मन्त्र से तो कुछ भी नहीं होता किन्तु क्रिया से सब कुछ करते हैें। जब किसी को मारने का प्रयोग करते हैं तब इधर कराने वाले से धन ले के आटे वा मिट्टी का पूतला जिस को मारना चाहते हैं उस का बना लेते हैं! उस की छाती, नाभि, कण्ठ में छुरे प्रवेश कर देते हैं। आंख, हाथ, पग में कीलें ठोकते हैं। उस के ऊपर भैरव वा दुर्गा की मूर्त्ति बना हाथ में त्रिशूल दे उस के हृदय पर लगाते हैं। एक वेदी बनाकर मांस आदि का होम करने लगते हैं और उधर दूत आदि भेज के उस को विष आदि से मारने का उपाय करते हैं जो अपने पुरश्चरण के बीच में उस को मार डाला तो अपने को भैरव देवी की सिद्धि वाले बतलाते हैं।

‘‘भैरवो भूतनाथश्च’’ इत्यादि का पाठ करते हैं।

मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, छिन्धि-छिन्धि, भिन्धि-भिन्धि, वशीकुरु-वशीकुरु, खादय-खादय, भक्षय-भक्षय, त्रेटय-त्रेटय, नाशय-नाशय, मम शत्रून् वशीकुरु-वशीकुरु, हुं फट् स्वाहा।।

इत्यादि मन्त्र जपते, मद्य मांसादि यथेष्ट खाते-पीते, भृकुटी के बीच में सिन्दूर रेखा देते, कभी-कभी काली आदि के लिये किसी आदमी को पकड़ मार होम कर कुछ-कुछ उस का मांस खाते भी हैं। जो कोई भैरवीचक्र में जावे, मद्य मांस न पीवे, न खावे तो उस को मार होम कर देते हैं। उन में से जो अघोरी होता है वह मृत मनुष्य का भी मांस खाता है। अजरी बजरी करने वाले विष्ठा मूत्र भी खाते-पीते हैं। एक चोलीमार्ग और बीजमार्गी भी होते हैं। चोली मार्गवाले एक गुप्त स्थान वा भूमि में एक स्थान बनाते हैं । वहां सब की स्त्रियां, पुरुष, लड़का, लड़की, बहिन, माता, पुत्रवधू आदि सब इकट्ठे हो सब लोग मिलमिला कर मांस खाते, मद्य पीते, एक स्त्री को नंगी कर उस के गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब पुरुष करते हैं और उस का नाम दुर्गादेवी धरते हैं। एक पुरुष को नंगा कर उस के गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब स्त्रियां करती हैं। जब मद्य पी-पी के उन्मत्त हो जाते हैं तब सब स्त्रियों के छाती के वस्त्र जिसको चोली कहते हैं एक बड़ी मिट्टी की नांद में सब वस्त्र मिलाकर रखके एक-एक पुरुष उस में हाथ डाल के जिस के हाथ में जिस का वस्त्र आवे वह माता, बहिन, कन्या और पुत्रववमू क्यों न हो उस समय के लिये वह उस की स्त्री हो जाती है। आपस में कुकर्म करने और बहुत नशा चढ़ने से जूते आदि से लड़ते भिड़ते हैं। जब प्रातःकाल कुछ अन्धेरे में अपने-अपने घर को चले जाते हैं तब माता माता, कन्या कन्या, बहिन बहिन और पुत्रवधू पुत्रवधू हो जाती हैं। और बीजमार्गी स्त्री पुरुष के समागम कर जल में वीर्य डाल मिलाकर पीते हैं। ये पामर ऐसे कर्मों को मुक्ति के साधन मानते हैं। विद्या विचार सज्जनतादि रहित होते हैं।

 जो ऐसे-ऐसे मिथ्या ग्रन्थ बना लोगों को सत्यग्रन्थों से विमुख कर जाल में फंसा अपने प्रयोजन को साधते हैं वे महापापी क्यों नहीं? देखो! ग्रहों का चक्र कैसा चलाया है कि जिस ने विद्याहीन मनुष्यों को ग्रस लिया है।

आ कृष्णेन रजसा ।।१।। सूर्य का मन्त्र ।

इमं देवाऽअसपत्नँ्सुवध्वम्० ।।२।। चन्द्र ।

अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः० ।।३।। मंगल ।

उद्बुध्यस्वाग्ने० ।।४।। बुध ।

बृहस्पतेऽअति यदर्यो ।।५।। बृहस्पति ।

शुक्रमन्धसः ।।६।। शुक्र ।

शन्नो देवीरभिष्टय० ।।७।। शनि ।

कया नश्चित्र आ भुव० ।।८।। राहु और-

केतुं कृण्वन्नकेतवे ।।९।। इस को केतु की कण्डिका कहते हैं ।

(आ कृष्णेन०) यह सूर्य्य और भूमि का आकर्षण।।१।। दूसरा राजगुण विधायक।।२।। तीसरा अग्नि।।३।। और चौथा यजमान।।४।। पांचवां विद्वान्।।५।। छठा वीर्य्य अन्न।।६।। सातवां जल, प्राण और परमेश्वर।।७।। आठवां मित्र।।८।। नववां ज्ञानग्रहण का विवमायक मन्त्र है; ग्रहों के वाचक नहीं।।९।। अर्थ न जानने से भ्रमजाल में पड़े हैं।

(प्रश्नग्रहों का फल होता है वा नहीं?

(उत्तरजैसा पोपलीला का है वैसा नहीं किन्तु जैसा सूर्य्य चन्द्रमा की किरण द्वारा उष्णता शीतलता अथवा ऋतुवत्कालचक्र के सम्बन्धमात्र से अपनी प्रकृति के अनूकुल प्रतिकूल सुख-दुःख के निमित्त होते हैं। परन्तु जो पोपलीला वाले कहते हैं सुनो ‘महाराज’! सेठ जी! यजमानो? तुम्हारे आज आठवां चन्द्र सूर्य्यादि क्रूर घर में आये हैं। अढ़ाई वर्ष का शनैश्चर पग में आया है। तुम को बड़ा विघ्न होगा। घर द्वार छुड़ाकर परदेश में घुमावेगा परन्तु जो तुम ग्रहों का दान, जप, पाठ, पूजा कराओगे तो दुःख से बचोगे।’ इन से कहना चाहिये कि सुनो पोप जी! तुम्हारा और ग्रहों का क्या सम्बन्ध है? ग्रह क्या वस्तु हैं?

(पोप जीदैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्रधीनाश्च देवता ।

ते मन्त्र ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्।।

देखो! कैसा प्रमाण है-देवताओं के आधीन सब जगत्, मन्त्रें के आधीन सब देवता और वे मन्त्र ब्राह्मणों के आधीन हैं इसलिये ब्राह्मण देवता कहाते हैं। क्योंकि चाहैं जिस देवता को मन्त्र के बल से बुला, प्रसन्न कर, काम सिद्ध कराने का हमारा ही अधिकार है। जो हम में मन्त्रशक्ति न होती तो तुम्हारे से नास्तिक हम को संसार में रहने ही न देते। (सत्यवादी) जो चोर, डाकू, कुकर्मी लोग हैं वे भी तुम्हारे देवताओं के आधीन होंगे? देवता ही उन से दुष्ट काम कराते होंगे ? जो वैसा है तो तुम्हारे देवता और राक्षसों में कुछ भेद न रहेगा। जो तुम्हारे आधीन मन्त्र हैं उन से तुम चाहो सो करा सकते हो तो उन मन्त्रें से देवताओं को वश कर, राजाओं के कोष उठवा कर अपने घर में भरकर बैठ के आनन्द क्यों नहीं भोगते? घर-घर में शनैश्चरादि के तैल आदि का छायादान लेने को मारे-मारे क्यों फिरते हो? और जिस को तुम कुबेर मानते हो उस को वश करके चाहो जितना धन लिया करो। बिचारे गरीबों को क्यों लूटते हो? तुम को दान देने से ग्रह प्रसन्न और न देने से अप्रसन्न होते हों तो हम को सूर्य्यादि ग्रहों की प्रसन्नता अप्रसन्नता प्रत्यक्ष दिखलाओ। जिस को ८वां सूर्य चन्द्र और दूसरे को तीसरा हो उन दोनों को ज्येष्ठ महीने में बिना जूते पहिने तपी हुई भूमि पर चलाओ। जिस पर प्रसन्न हैं उन के पग, शरीर न जलने और जिस पर क्रोधित हैं उन के जल जाने चाहिये तथा पौष मास में दोनों को नंगे कर पौर्णमासी की रात्रि भर मैदान में रक्खें। एक को शीत लगे दूसरे को नहीं तो जानो कि ग्रह क्रूर और सौम्य दृष्टि वाले होते हैं। और क्या तुम्हारे ग्रह सम्बन्धी हैं? और तुम्हारी डाक वा तार उन के पास आता जाता है? अथवा तुम उन के वा वे तुम्हारे पास आते जाते हैं? जो तुम में मन्त्रशक्ति हो तो तुम स्वयं राजा वा धनाढ्य क्यों नहीं बन जाओ? वा शत्रुओं को अपने वश में क्यों नहीं कर लेते हो? नास्तिक वह होता है जो वेद ईश्वर की आज्ञा वेदविरुद्ध पोपलीला चलावे। जब तुम को ग्रहदान न देवे जिस पर ग्रह है वही ग्रहदान को भोगे तो क्या चिन्ता है? जो तुम कहो कि नहीं हम ही को देने से वे प्रसन्न होते हैं अन्य को देने से नहीं तो क्या तुम ने ग्रहों का ठेका ले लिया है? जो ठेका लिया हो तो सूर्य्यादि को अपने घर में बुला के जल मरो। सच तो यह है कि सूर्य्यादि लोक जड़ हैं। वे न किसी को दुःख और न सुख देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु जितने तुम ग्रहदानोपजीवी हो वे सब तुम ग्रहों की मूर्त्तियां हो क्योंकि ग्रह शब्द का अर्थ भी तुम में ही घटित होता है।

ये गृह्णन्ति ते ग्रहा ’ जो ग्रहण करते हैं उन का नाम ग्रह है। जबतक तुम्हारे चरण राजा, रईस सेठ साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुंचते तबतक किसी को नवग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य शनैश्चरादि मूर्त्तिमान् क्रूर रूप धर उन पर जा चढ़ते हो तब विना ग्रहण किये उन को कभी नहीं छोड़ते और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे उन की निन्दा नास्तिकादि शब्दों से करते फिरते हो।

(पोप जी) देखो! ज्योतिष का प्रत्यक्ष फल। आकाश में रहने वाले सूर्य, चन्द्र और राहु, केतु का संयोग रूप ग्रहण को पहले ही कह देते हैं। जैसा यह प्रत्यक्ष होता है वैसा ग्रहों का भी फल प्रत्यक्ष हो जाता है। देखो! धनाढ्य, दरिद्र, राजा, रंक, सुखी, दुःखी ग्रहों ही से होते हैं।

(सत्यवादी) जो यह ग्रहणरूप प्रत्यक्ष फल है सो गणितविद्या का है; फलित का नहीं। जो गणितविद्या है वह सच्ची और फलितविद्या स्वाभाविक सम्बन्ध जन्य को छोड़ के झूठी है। जैसे अनुलोम प्रतिलोम घूमनेवाले पृथिवी और चन्द्र के गणित से स्पष्ट विदित होता है कि अमुक समय, अमुक देश, अमुक अवयव में सूर्य्य वा चन्द्रग्रहण होगा। जैसे-

छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं भूमिभा । यह सिद्धान्तशिरोमणि का वचन है।

और इसी प्रकार सूर्यसिद्धान्तादि में भी है अर्थात् जब सूर्य और भूमि के मध्य में चन्द्रमा आता है तब सूर्यग्रहण ओैर जब सूर्य और चन्द्र के बीच में भूमि आती है तब चन्द्रग्रहण होता है। अर्थात् चन्द्रमा की छाया भूमि पर और भूमि की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है। सूर्य प्रकाशरूप होने से सम्मुख छाया किसी की नहीं पड़ती किन्तु जैसे प्रकाशमान सूर्य्य वा दीप से देहादि की छाया उल्टी जाती है वैसे ही ग्रहण में समझो। जो धनाढ्य, दरिद्र, प्रजा, राजा, रंक होते हैं वे अपने कर्मों से होते हैं ग्रहों से नहीं। बहुत से ज्योतिषी लोग अपने लड़के, लड़की का विवाह ग्रहों की गणितविद्या के अनुसार करते हैं पुनः उन में विरोध वा विधवा अथवा मृतस्त्रीक पुरुष हो जाता है। जो फल सच्चा होता तो ऐसा क्यों होता? इसलिये कर्म की गति सच्ची और ग्रहों की गति सुख दुःख भोग में कारण नहीं। भला ग्रह आकाश में और पृथिवी भी आकाश में बहुत दूर पर हैं इन का सम्बन्ध कर्त्ता और कर्मों के साथ साक्षात् नहीं। कर्म्म और कर्म्म के फल का कर्त्ता, भोक्ता जीव और कर्मों के फल भोगानेहारा परमात्मा है। जो तुम ग्रहों का फल मानो तो इस का उत्तर देओ कि जिस क्षण में एक मनुष्य का जन्म होता है जिस को तुम ध्रुवा त्रुटि मानकर जन्मपत्र बनाते हो उसी समय में भूगोल पर दूसरे का जन्म होता है वा नहीं? जो कहो नहीं तो झूठ, और जो कहो होता है तो एक चक्रवर्ती के सदृश भूगोल में दूसरा चक्रवर्ती राजा क्यों नहीं होता? हां! इतना तुम कह सकते हो कि यह लीला हमारे उदर भरने की है तो कोई मान भी लेवे।

(प्रश्न) क्या गरुड़पुराण भी झूठा है?

(उत्तर) हां असत्य है।

(प्रश्न) फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

(उत्तर) जैसे उस के कर्म हैं।

(प्रश्न) जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उस के बड़े भयंकर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं। पाप, पुण्य के अनुसार नरक, स्वर्ग में डालते हैं। उस के लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि, वैतरणी नदी तरने के लिये करते हैं। ये सब बातें झूठ क्योंकर हो सकती हैं।

(उत्तर) ये बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो अन्यत्र के जीव वहां जाते हैं उन का धर्मराज चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो वे यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहां के न्यायाधीश उन का न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरने वाले जीव को लेने में छोटे द्वार में उन की एक अंगुली भी नहीं जा सकती और सड़क गली में क्यों नहीं रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोप जी विना अपने घर के कहां धरेंगे? जब जंगल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उन को पकड़ने के लिये असंख्य यम के गण आवें तो वहां अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उन के शरीर ठोकर खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूट कर पृथिवी पर गिरते हैं वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बांचने, सुनने वालों के आंगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे?

श्राद्ध, तर्पण, पिण्डप्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुंचता किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोप जी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं वह तो पोप जी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुंचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती पुनः किस की पूंछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जलाया वा गाड़ दिया गया फिर पूंछ को कैसे पकड़ेगा? यहां एक दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है कि-

एक जाट था। उस के घर में एक गाय बहुत अच्छी और बीस सेर दूध देनेवाली थी। दूध उस का बड़ा स्वादिष्ठ होता था। कभी-कभी पोप जी के मुख में भी पड़ता था। उस का पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इसी गाय का संकल्प करा लूंगा। कुछ दिनों में दैवयोग से उस के बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से भूमि पर ले लिया अर्थात् प्राण छोड़ने का समय आ पहुंचा। उस समय जाट के इष्ट मित्र और सम्बन्धी भी उपस्थित हुए थे। तब पोप जी ने पुकारा कि यजमान! अब तू इसके हाथ से गोदान करा। जाट ने १०) रुपया निकाल पिता के हाथ में रख कर बोला पढ़ो संकल्प। पोप जी बोला-वाह-वाह! क्या बाप वारंवार मरता है? इस समय तो साक्षात् गाय को लाओ जो दूध देती हो, बुड्ढी न हो, सब प्रकार उत्तम हो। ऐसी गौ का दान करना चाहिये।

(जाट जी) हमारे पास तो एक ही गाय है उस के विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह न हो सकेगा इसलिये उसको न दूंगा। लो २०) रुपये का संकल्प पढ़ देओ और इन रुपयों से दूसरी दुधार गाय ले लेना।

(पोप जी) वाह जी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? क्या अपने बाप को वैतरणी नदी में डुबा कर दुःख देना चाहते हो। तुम अच्छे सुपुत्र हुए? तब तो पोप जी की ओर सब कुटुम्बी हो गये क्योंकि उन सब को पहले ही पोप जी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सब ने मिल कर हठ से उसी गाय का दान उसी पोप को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया और पोप जी बच्छा सहित गाय और दोहने की बटलोही को ले अपने घर में गाय बछड़े को बांध बटलोही धर पुनः जाट के घर आया और मृतक के साथ श्मशानभूमि में जाकर दाहकर्म्म कराया। वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उस को मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा और भुक्खड़ों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोप जी के घर पहुंचा। देखा तो गाय दुह, बटलोई भर, पोप जी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाट जी पहुंचे। उस को देख पोप जी बोला आइये! यजमान बैठिये!

(जाट जी) तुम भी पुरोहित जी इधर आओ।

(पोप जी) अच्छा दूध धर आऊं।

(जाट जी) नहीं-नहीं दूध की बटलोई इधर लाओ। पोप जी विचारे जा बैठे और बटलोई सामने धर दी।

(जाट जी) तुम बड़े झूठे हो।

(पोप जी) क्या झूठ किया?

(जाट जी) कहो! तुमने गाय किसलिये ली थी?

(पोप जी) तुम्हारे पिता के वैतरणी नदी तरने के लिये।

(जाट जी) अच्छा तो वहां वैतरणी के किनारे पर गाय क्यों न पहुंचाई? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम अपने घर बांध बैठे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?

(पोप जी) नहीं-नहीं, वहां इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन कर उतार दिया होगा।

(जाट जी) वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है।

(पोप जी) अनुमान से कोई तीस क्रोड़ कोश दूर है क्योंकि उञ्चास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैऋर्त दिशा में वैतरणी नदी है।

(जाट जी) इतनी दूर तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो उस का उत्तर आया हो कि वहां पुण्य की गाय बन गई। अमुक के पिता को पार उतार दिया; दिखलाओ?

(पोप जी) हमारे पास गरुड़पुराण के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।

(जाट जी) इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?

(पोप जी) जैसे सब मानते हैं।

(जाट जी) यह पुस्तक तुम्हारे पुरुषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिये बनाया है क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रें के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुंचा दूंगा और उन को पार उतार पुनः गाय को घर में ले आ दूध को मैं और मेरे लड़के बाले पिया करेंगे। लाओ! दूध की भरी हुई बटलोही, गाय, बछड़ा लेकर जाट जी अपने घर को चला।

(पोप जी) तुम दान देकर लेते हो तुम्हारा सत्यानाश हो जायगा।

(जाट जी) चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन लों दूध के विना जितना दुःख हम ने पाया है सब कसर निकाल दूंगा। तब पोप जी चुप रहे और जाट जी गाय बछड़ा ले अपने घर पहुंचे। जब ऐसे ही जाट जी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले। जो ये लोग कहते हैं कि दशगात्र के पिण्डों से दश अंग सपिण्डी करने से शरीर के साथ जीव का मेल होके अंगुष्ठमात्र शरीर बन के पश्चात् यमलोक को जाता हैे तो मरती समय यमदूतों का आना व्यर्थ होता है। त्रयोदशाह के पश्चात् आना चाहिये। जो शरीर बन जाता हो तो अपनी स्त्री, सन्तान और इष्ट मित्रें के मोह से क्यों नहीं लौट आता है?

(प्रश्न) स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता जो दान किया जाता है वही वहां मिलता है। इसलिये सब दान करने चाहिये।

(उत्तर) उस तुम्हारे स्वर्ग से यही लोक अच्छा है जिस में धर्मशाला हैं, लोग दान देते हैं, इष्ट मित्र और जाति में खूब निमन्त्रण होते हैं, अच्छे-अच्छे वस्त्र मिलते हैं, तुम्हारे कहने प्रमाणे स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता। ऐसे निर्दय, कृपण, कंगले स्वर्ग में पोप जी जाके खराब होवें, वहाँ भले-भले मनुष्यों का क्या काम?

(प्रश्न) जब तुम्हारे कहने से यमलोक और यम नहीं हैं तो मर कर जीव कहां जाता और इन का न्याय कौन करता है?

(उत्तर) तुम्हारे गरुड़पुराण का कहा हुआ तो अप्रमाण है परन्तु जो वेदोक्त है कि-

यमेन । वायुना । सत्यराजन् ।।

इत्यादि वेदवचनों से निश्चय है कि ‘यम’ नाम वायु का है। शरीर छोड़ के साथ अन्तरिक्ष में जीव रहते हैं और जो सत्यकर्त्ता पक्षपातरहित परमात्मा ‘धर्म्मराज’ है वही सब का न्यायकर्त्ता है।

(प्रश्न) तुम्हारे कहने से गोदानादि दान किसी को न देना और न कुछ दान पुण्य करना, ऐसा सिद्ध होता है।

(उत्तर) यह तुम्हारा कहना सर्वथा व्यर्थ है क्योंकि सुपात्रें को, परोपकारियों को परोपकारर्थ सोना, चांदी, हीरा, मोती, माणिक, अन्न, जल, स्थान, वस्त्र, गाय आदि दान अवश्य करना उचित है किन्तु कुपात्रें  कभी न देना चाहिये।ढ

Saturday, 13 November 2021

आदि शंकराचार्य का जन्म काल

प्रशासनिक अधिकारी व इतिहासकार वेदवीर आर्य जी ने ऐतिहासिक कालक्रम पर बहुत सुंदर पुस्तकें लिखी हैं। इतने प्रमाण के साथ कालक्रम पर भारत में शायद ही कोई पुस्तक लिखी गई हो। उनके शोध की सुंदरता यह है कि उन्होंने सभी महत्वपूर्ण घटनाओं के कालखंड को चिन्हित कर क्रमबद्ध किया है, न कि कोई एक तिथि सुधारकर भ्रमित किया है---जैसे पूर्ववर्ती इतिहासकारों ने किया। सबसे पहले वेदवीर जी ने ही इस ओर ध्यान खींचा कि जिस तिथि को हम जीसस की जन्मतिथि समझकर ईस्वी सन का आरंभ मानते हैं---वह ही गलत है। 

वेदवीर जी ने अनेक प्रमाणों से स्थापित किया है कि आदि शंकराचार्य जी का जन्म काल 569-537 ईसापूर्व है। इसके साथ ही उन्होंने बुद्ध निर्वाण से लेकर शंकर के पूर्ववर्ती व परवर्ती बौद्ध दार्शनिकों का कालक्रम भी ठीक किया है। 

पूर्वानाम्नाय पुरी पीठाधीश्वर आदिशंकराचार्य का जन्म  507 ईसापूर्व बताते हैं। यानि आज से करीब ढाई हजार साल पहले आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। 

फिर भी, आज बहुत लोग उनका जन्म ईस्वी सन की सातवीं शताब्दी लिख रहे हैं। साल दो साल का अंतर समझ आता है, यहां तो हमारा हजार साल का इतिहास ही हजम किया जा रहा है।

आचार्य शंकर शिवावतार थे। उनके जन्म काल को लेकर इतना झूठ फैलाया जाना दुःखद है। आचार्य शंकर हमारी दर्शन परंपरा के 'केदार' हैं। आचार्य शंकर की प्रविधि-प्रयासों से हमारी सदाजीवा दर्शन-परंपरा तेजोमय है।

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति। 
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि।।

सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया, अभ्युदय तथा निःश्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी, फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा, अपवर्ग अगम हो गया, तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुए।

यह तस्वीर देखकर आह्लादित हूं, शीघ्र ही समाधि स्थल का साक्षात दर्शन करूंगा। 

श्री शंकराचार्य विजयेततराम!

अरुण प्रकाश
आदि शंकराचार्य का जन्म काल

प्रशासनिक अधिकारी व इतिहासकार वेदवीर आर्य जी ने ऐतिहासिक कालक्रम पर बहुत सुंदर पुस्तकें लिखी हैं। इतने प्रमाण के साथ कालक्रम पर भारत में शायद ही कोई पुस्तक लिखी गई हो। उनके शोध की सुंदरता यह है कि उन्होंने सभी महत्वपूर्ण घटनाओं के कालखंड को चिन्हित कर क्रमबद्ध किया है, न कि कोई एक तिथि सुधारकर भ्रमित किया है---जैसे पूर्ववर्ती इतिहासकारों ने किया। सबसे पहले वेदवीर जी ने ही इस ओर ध्यान खींचा कि जिस तिथि को हम जीसस की जन्मतिथि समझकर ईस्वी सन का आरंभ मानते हैं---वह ही गलत है। 

वेदवीर जी ने अनेक प्रमाणों से स्थापित किया है कि आदि शंकराचार्य जी का जन्म काल 569-537 ईसापूर्व है। इसके साथ ही उन्होंने बुद्ध निर्वाण से लेकर शंकर के पूर्ववर्ती व परवर्ती बौद्ध दार्शनिकों का कालक्रम भी ठीक किया है। 

पूर्वानाम्नाय पुरी पीठाधीश्वर आदिशंकराचार्य का जन्म  507 ईसापूर्व बताते हैं। यानि आज से करीब ढाई हजार साल पहले आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। 

फिर भी, आज बहुत लोग उनका जन्म ईस्वी सन की सातवीं शताब्दी लिख रहे हैं। साल दो साल का अंतर समझ आता है, यहां तो हमारा हजार साल का इतिहास ही हजम किया जा रहा है।

आचार्य शंकर शिवावतार थे। उनके जन्म काल को लेकर इतना झूठ फैलाया जाना दुःखद है। आचार्य शंकर हमारी दर्शन परंपरा के 'केदार' हैं। आचार्य शंकर की प्रविधि-प्रयासों से हमारी सदाजीवा दर्शन-परंपरा तेजोमय है।

सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति। 
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि।।

सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया, अभ्युदय तथा निःश्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी, फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा, अपवर्ग अगम हो गया, तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुए।

यह तस्वीर देखकर आह्लादित हूं, शीघ्र ही समाधि स्थल का साक्षात दर्शन करूंगा। 

श्री शंकराचार्य विजयेततराम!

अरुण प्रकाश

Thursday, 11 November 2021

 

पाठ्यक्रम निर्माण

 

इसके लिए आवश्यक है कि अधिनियम में पाठ्यक्रम निर्माण समिति बनाने की प्रक्रिया बदली जाए

विषय विशेषज्ञ  विषय के / इतिहास के सही तथ्यों और  वर्तमान के कल्पित तथों का  गहन अध्येता हो।

प्रकाशकों की भी एक ऐसी कार्यशाला हो, जो यह तय करें कि राष्ट्रहित में पाठ्यक्रम  आधारित पुस्तकें कैसे तैयार हों . तथा इसके लिए एक मार्गदर्शक मंडल तैयार किया जाए ।

विश्वविद्यालयों / स्वसाशी संस्थानों के विभागाध्यक्ष, डीन और कुलगुरु तथा कुलसचिव की दृष्टि पाठ्यक्रम निर्माण के

 बारे में स्पष्ट हो ।

पुस्तक लेखक  तथा परीक्षक को भी विषय का गहन अध्यन हो ।

 इन सबके अतिरिक्त छोटी -छोटी पुस्तके तैयार करा कर प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तथा पुस्तकालयों के माध्यम से विद्यार्थिओं को उपलब्ध कराये जायें ।

विकिपीडिया के तथ्यों को निरंटर अपडेट किया जाये अथवा विकिपीडिया के सामान एक प्लेटफार्म तैयार किया जाये  ।\

प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में इन्ही तथ्यों के आधार पर पुस्तकें तथा प्रश्न तैयार कराये जायें ।

इस सामग्री की  उपलब्धता कोचिंग की कक्षाओं में भी रहे।

 इतिहास के तथ्यों को रोचक बनाकर कहानियों, लेखों के आधार पर प्राथमिक से माध्यमिक शाला तक के विद्यार्थियों को प्रयोग एवं व्यवहार में लाने हेतु उपलब्ध  कराई  जाये।

वर्ष में दो बार इतिहास,भूगोल, भाषा, साहित्य, संस्कृति , परम्परा,पंथ, समुदाय एवं प्रचलित शब्दों की पुनर्ब्याख्या  की जाये तथा इन पर प्रतियोगिता संपन्न हों ।

तथ्यों के ठीक प्रचार के लिए समाचार पत्र, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और उनके संपादक, तथा कर्मियों का भी सहयोग लिया जाए ।

सोसल मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग भी किया जाये ।

Wednesday, 3 November 2021

 जेहि इमि गावहिं वेद बुध,जाहि धरिहं मुनि ध्यान ।

सोइ दसरथ सुत भगत हित, कोसलपति भगवान।।

अनुज जानकी सहित प्रभु, प्रत्येक भारतवंशी के हृदय (अयोध्या) में आपका अभिनंदन, वंदन, स्वागत है।

Sunday, 24 October 2021

लघुकथा

 

लघुकथा

 

      आधुनिककाल में हिन्दी लघुकथा की शुरूआत भले सन् 1900  के आस पास मानी जाती हो, और उसमें दादा माखनलाल चतुर्वेदी की 'बिल्ली और बुखार' को पहली लघुकथा माना जाता हो, ऐसे ही इस श्रृंखला  में माधवराव सप्रेप्रेमचन्दजयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ सकतें हैं ।

 प्रेमचंद के उत्कर्षकाल में कई लघुकथाएँ सामने आईं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो सखियाँजादू आदि। इसी तरह प्रसाद की ‘गुदड़ी के लाल’‘अधोरी का मोह’, ‘करूणा की विजय’, ‘प्रलय प्रतिमा’,’दुखिया’, ‘कलावती की शिक्षा’ आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण है। बंगला साहित्य में भी टैगोर ने महत्वपूर्ण लघुकथाएँ रची हैं। हिन्दी में  सुदर्शन, रावीकन्हैयालाल मिश्ररांगेय राघव आदि ने मार्मिक लघुकथाएँ लिखी। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए। उपेन्द्रनाथ अश्क, हरिशंकर परसाईशरद जोशीनरेन्द्र जोशी,  नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकांत वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकरबलराम आदि के नामों की लम्बी कतार है।

यह ठीक है की इस समय  में ‘लघुकथा’ जैसी स्वत्रंता संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा कहानी से  अलग प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने लघुकथा के अतिरिक्त नई संज्ञाएँ या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे- मिनी कहानीमिनीकथाकथिका, अणुकथा कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि लेकिन ये संज्ञाएँ पाठक और समीक्षक को लुभा नहीं पाईं।

लघुकथा का शब्द का नामाकरण कब हुआ कैसे हुआ दृष्टान्तए नीति या बोध कथा के रूप् में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से होता आ रहा है। मूलतः दृष्टान्तों के रूप में लघुकथाएँ विकसित हुई। इस प्रकार के दृष्टान्त नैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। स्थूल और सूक्ष्म  का यह भेद जब लेखक का समझ में आ जाता  है तो अपने लघुकथा में लेखक का प्रवेष होना बंद हो जाता है। लघुकथा के पाठकों की संख्या में वृद्धि के इस प्रष्न का उत्तर काफी हद तक प्रष्न में ही छुपा है कि लघुकथा के लेखक  बढ़ रहे हैं।  एक बार फिर सेए रचना स्वयं सम्पूर्ण  होती हैए यही  उसमें से बार.बार लेखक का झाँकता हुआ चेहरा उसे कमजोर ही करता है। अनेक बार अस्वीकृति झेलने के बादए हर एक लेखक को इस प्रष्न का उत्तर अवश्य  मिल जाता है। यदि लेखक की सहज रूप से समृद्ध शब्द सम्पदाए पाठक चाहिए दूसरी ओरए जब हम दूसरी भाषा में अपनी रचना को विदा करते हैंए तब उसे अपना मार्ग स्वयं बनाना होता है। उसे अपनी स्वीकार्यता स्वयं गढ़नी होती है।  इसलिये अनुवाद के द्वारा विस्तार के मार्ग पर चलने से पहले हमें अपनी रचना में ही गुणवत्ता इतनी ऊँची रखने की आवष्यकता है कि उसके भाव किसी भी शषा के द्वारा बहते हुए सीधे पाठक के हृदय तक पहुँचे। किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा की शीर्षक की अपनी विलक्षण भूमिका होती है। कहीं यह उसके मूल मर्म को सम्प्रेषित करता हैए तो कहीं उसके संदेष को। कहीं वह अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा के कथ्य का विस्तार करता है। इसका शीर्षक देना अपने आप में चुनौती भरा काम है। इसमें सर्जक से अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा होती है। प्रेमचंद के अनुसार अतियथार्थ निराशा  को जन्म देता है। आज की लघुकथाओं  में छाया अतियथार्थ  क्या  पाठक को निराश कर रहा हैघ् डॉण् कमल किषोर गोयनका के अनुसार लघुकथा एक लेखकहीन विधा है। एक ही कथ्य को लघुकथा में दर्ज कराने का हर लेखक का अपना ढंग होता है। श्रेष्ठ लघुकथाओं में लेखक की उपस्थिति सहज ही महसूस की जा सकती है। यह स्त्री विमर्श का दौर है। आपने जब लघुकथा लिखना प्रारम्भ किया तो  क्या यह बिन्दु आपके  जेहन में था। उसमें आप कहाँ आप कहाँ तक सफल हुईघ् स्त्री विमर्श कोई दौर नहींए अपने आप में एक सोच है। यह सरस्वती नदी के समान गुप्त रूप में बहती धारा है जो ऊपरी तौर पर तत्कालीन स्थितियों में कभी घास के मैदान के समान वीरान तो कभी घने जंगल सी उर्वर और कहीं मरूस्थल सी शुष्क दिखाई यह सही है कि स्त्रियाँ लघुकथा लेखन में अधिक  संख्या में है। जाहिर है कि स्त्री  विमर्श  भी इस नाते इस विधा के केन्द्र  में रहता है। लघुकथा पाठ के सत्र में  एक के बाद एक मंच पर आकर रचना पढ़ती महिलाएँ और समीक्षक के रूप में मंचासीन पुरूषए यह आम दृष्य अधिकांष कार्यक्रम व सम्मेलनों में देखने को मिलता है यहॉ पर विमर्ष की आवष्यकता है। स्त्रियों की स्त्री सुलभ अभिव्यक्ति का मूल्यमापन भी तो स्त्रियॉ बेहतर कर सकती है ना। तात्पर्य यह कि लघुकथा का आकाश लेखक को उड़ने की पूरी स्वतंत्रता देता है।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है की चार प्रकार के लोगे हैं जो उन्हें भजते हैं चतुर्विधा भजन्ते माम जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्यार्थीज्ञानी च भरतषर्भ।। आर्ता, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी । स्पष्ट है जीवन में उत्कर्ष के लिए मन में जिज्ञासा उत्पन्न होना चाहिए । यह कार्य रचनाकार करता है। और इस जिज्ञासा की चाह को पाठक  जीवित रखना चाहता है। संसार में जितना भी ज्ञान दृष्यमान है। उसके पीछे मानव की जिज्ञासा ही मूल कारण है। इसी जिज्ञासु से आरत, अर्थ और ज्ञान को प्राप्त करता है। श्रीमद शंकराचार्य कहते हैं - वयसि गते कः कामविकारःशुष्के नीरे कः कासारः। क्षीणे वित्ते कः परिवारःज्ञाते तत्त्वे कः संसारः    आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहतापानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहताधन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥

यह सुखद् है कि प्रखर संवेदना की कथात्मक अभिव्यक्ति, लघुकथा की विकास यात्रा में प्रयोधर्मिता निरंतर बनी हुई है। पिछले दशक में लघुकथा के क्षेत्र में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है, सोशल मीडिया के प्रचलन में आने से लेखन भी बढ़ गए हैं। निश्चित रूप से नई-नई जिज्ञासाएँ, नए प्रश्न उभरकर आए हैं। मन में कई प्रश्न, उलझने, उत्सुकताएँ रहती हैं।

      उपनिषदों में संवाद की एक शैली है जिसमें नीति, वैराग्य, पुरुषार्थ की बात कही गई है,जो आज कथा से लघुकथा तक हमारे परिवेश में एक संदेश के साथ हमारा मार्गदर्शन करती हैं।  यह सत्य है कि अनेक बार लघु आकार वाली सूक्ति, दोहे, लघुकथाएँ अबोध को भी जीवन के सत्वों का बोध कराती  हैं, जो बड़े-बड़े महाकाव्य, खण्डकाव्य, उपन्यास, कहानी नहीं कर पाते। यदि लघुकथा के शिल्प पर ध्यान देते हुए  नवाचार को दृष्टिगत रख लेखन किया जाये तो परिणाम अवश्य ही प्रभावकारी होंगे ।  केवल विदेशी साहित्य का अंधानुकरण से हम लघुकथा के शिल्प को ही जटिल बना रहे हैं जो सामान्य पाठक  को उसको समझ पाना बहुत ही जटिल हो रहा है। 

ध्यान रखना होगा लेखक केवल न तो विद्वानों के लिए ही लिखता है न बौध्दिक विलाश के लिए, बल्कि उसका प्रथम उत्तरदायित्व पाठक के लिए होता है।  हम उनको न तो लेखक मानते और न ही समाज हितैसी जो केवल या तो कापी पेस्ट कर बड़े लेखक बनने या  पुरस्कारों के लिए लिख रहे हैं अथवा विद्वत्ता प्रदर्शन के लिए या विचार  विशेष के चाटुकारिता के लिए। समझना होगा कि साहित्य  समाज-जीवन, संस्कृति की रक्षा और उसके संबर्धन के लिए की जाती है, भारतीय परम्परा में साहित्य लोक कल्याण की भावना को केन्द्र  में रखकर रचा जाता रहा है।  

      लघुकथा को भी अन्य साहित्य की भांति खेमेबाजी में नहीं फंसना चाहिए  हैं. आज जिस तरह से समीक्षा के क्षेत्र में चेहरा देखकर चन्दन घिसा जा रहा है, परिणाम  साहित्य का  लोक कल्याणकारी पक्ष उसकी भावनाए साहित्य की उस  अभीष्टता को नही पा रही हैं जिसकी अपेक्षा है। लघुकथाएँ  हिन्दी की समृद्धता और  भाषा प्रेम पर प्रेम उड़ेलने के बाद भी अंग्रेजी शब्दों से ठसाठस भरी हों  तो यह दुर्भाग्य है।  विदेशी  भाषा और साहित्य  से प्रभावित होकर लघुकथाएँ लिखने की एक जमात दिख रही है, जबकि संसार के विकसित देश अपनी भाषा में लेखन कर रहे हैं ।

समझना यह भी होगा की विदेशी मिट्टी अलग है और हमारी मिट्टी अलग ! हमारी धरती दोहन पर टिकी है जबकि उनकी धरती शोषण पर। शोषण की इस परम्परा का परिणाम यह  हो यह रहा है कि अहो रूपं अहो ध्वनि:आप  समीक्षा में मेरी तारीफ करें और मैं अपाकी ! इसे प्रयत्न पूर्वक बदलनी होगी। लघु कथा को नए कथ्य, शिल्प,भाव और सम्प्रेषणीयता का उचित मिलाप कर आगे बढ़ाना होगा । इससे साहित्य में  लघुकथा एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकेगी ।  लघुकथा लेखन सिर्फ अनुभूतियों का लेखा-जोखा न हो रहकर, जन-मन का चित शुद्ध करे। लघुकथा आज कथा साहित्य की महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। उसकी संरचनात्मक एवं वैचारिक समृद्धि के लिए वे लेखक भी आगे आ रहे हैं, जिनसे कुछ न कुछ नए विचार आने की  सम्भावना है। 

यह भी देखना होगा कि  सामान्य पाठक लघुकथा को किस तरह ले रहे हैं और लघुकथा से क्या अपेक्षा कर रहे हैं, हो सकता है कि सामान्य पाठक को कलात्मक और संरचनागत मानकों की दृष्टि से साहित्य की मूल्यवत्ता की समझ उतनी ना हो कि एक उत्कृष्ट रचना को पहचान सकें, किन्तु कोई भी रचना अन्ततःसामान्य नागरिकों के  जीवन को केन्द्र में रखकर ही रची जाती है। अतः इस पर भी विचार अपेक्षित है। लघुकथा  में लघु प्रेमकथा के नाम पर कुछ लेखन किया जा रहा है। कुछ लेखन प्रयोगवादी लघुकथा के नाम से किया जा रहा हैं, इसके लिए कुछ समय देने की आवश्यकता है,क्योंकि वह लेखन स्वीकारने योग्य नहीं होगा, तो वह स्वतः निरस्त हो जाएगा। 

यह भी विचारणीय है कि शब्दों, बिम्बों, प्रतिकों का अत्यधिक प्रयोग क्या आम पाठक को लघुकथा से दूर कर रहा हैसाहित्य का सुघड़ होना जरूरी है साहित्य रचने में लेखन का सपाट बयानी से बचना चाहिये।भाषा में संशिष्टता हो जटिलता नहीं। इसलिए मेरा अपना यह मानना है कि लघुकथा में  बिम्ब, प्रतीक और संकेत होना जरूरी है। लघुकथा लेखन में भाषा पर इतना नियंत्रण होना चाहिए कि वह घटना को उचित शब्द से परिवर्तित कर दे। साथ ही भाषा का ज्ञान होना जितना आवश्यक है उतना ही भाषा का विस्तार कर पाने का सामर्थ्य भी जरूरी है। 

लघुकथा में कौंध या फ्लैश  पुराने विचार रह गए हैं। किसी जमाने में इन बातों का बड़ा महत्व था। और लघुकथा की कौंध को बहुत परिभाषित किया गया था। लघुकथा की परिभाषा में यह शब्द शामिल किया गया था कि लघुकथा घने काले बादलों में कौंधती बिजली के समान होती है। फ्लैश की बात को परिभाषित किया गया था,  आज के समय में लघुकथा नए दौर में निकल चुकी है। आज लघुकथा  को नए अंदाज से लिखने का प्रयास किया जाना चाहिए। लघुकथा की रचना प्रक्रिया ही रचना का परिष्कार, संस्कार करती है। लेखक को कथ्य के साथ जीना पड़ता है। पर काया प्रवेश करना पड़ता है। तब कालजयी पात्र स्थापित हो पाता है। लेखक का मानस जब कथ्य और  पात्र के मानस की गहराई में अपने को डुबो लेता है, तो एक अच्छी लघुकथा का जन्म होता है। हां यह भी ध्यान रखना होगा कि  समाज के सभी स्वरूपों एवं विद्रूपताओं को प्रस्तुत करना लघुकथा का कार्य नहीं है। लघुकथाकारों को समाज की अच्छी परम्पराओं को सामने लाना होता है। फेसबुक, समाचार पत्रों में दिखना या छपना लघुकथाकार होने का मापदंड नहीं है।

लघुकथा वह है जो कहानी का प्लाट न बन सके। लघुकथा अब फिलर नहीं है। लघुकथा शब्द मूल रूप से अंग्रजी के शार्ट स्टोरी का सीधा अनुवाद है किन्तु इसके तौल का एक और शब्द कहानी हिन्दी रूढ़ हो चुका है। इधर कहानी और लघुकथा दोनों अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। लघुकथा को कहानी का सार या संक्षिप्त रूप भी ठीक नहीं है। क्योंकि लघुकथा बनावट और बुनावट में कहानी से स्वतंत्र  रखती है।  एक ही कथ्य पर कई लघुकथाएँ आती है। कई लघुकथा बार-बार छपती दिखती है। पर पाठक के मानस पर वही ठहरती हैं जो न तो लचर भाषा में गुणवत्ताहीन होती हैं और न अखबारी । सत्यतता यह है कि सम्पादक चटखारा पैदा करने वाली रचनाओें को प्रस्तुत करता है। उस चटखारे में लघुकथा का मूल समाप्त हो जाता है। फिर भी प्रायः इस बात का ध्यान न तो लेखक रखता न सम्पादक। यह ठीक है कि हमारी और संपादक की रुचि भिन्न-भिन्न हो सकती है। फिर भी एक बात अवश्य होनी चाहिए कि  सम्पादक अपने चहेते को फर्श से अर्श पर रखने को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को न भूलें। एक सहज तथ्य है. कि लेखक पाठक के लिये लिखता है न कि अन्य लेखक के लिये।

हल्की.फुल्की लघुकथाएँ रचनाएँ लघुकथा विधा को वैश्विक स्तर पर ले जाना किस प्रकार से सम्भव है? जब हम अपनी प्रतिस्पर्धा और गुणवत्ता के स्तर का वैश्विक स्तर पर आंकना शुरू करते हैं, तब हम वास्तविकता से दो चार होते हैं कि अभी तो बस शुरू ही किया है, वास्तव में वैश्विक  स्तर पर किसी भी विधा को पहुचाने के लिए कुछ विशिष्ट पथ होते हैं. क्या  ये शार्ट फिल्में. एकांकी और इनमें हुए परिवर्तन. संशोधन विधा से, साहित्य से न्याय कर पाते है? आश्चर्य  होता है उन पचास सालों पर जो बीत चुके हैं। पचाल साल कम नहीं होते हैं, न मेरे इस आश्चर्य के पीछे कई कारण हैं। समकालीन लघुकथा को पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी लघुकथा अपना प्रथम पायदान पार नहीं कर पाई।

राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह अकादमी में गरीमापूर्ण तरीके  से अपना स्थान नहीं बना पाई है। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी द्वारा लघुकथा में जैनेन्द्र कुमार के नाम से पचास हजार रूपये का सम्मान हमने निदेशक के रहते स्थापित कराया है। आज लघुकथा के अनेक संपादित संस्करण निकल रहे हैं । जिसमें हजारों  रचनाकार शामिल हैं। व्यक्तिगत पंसद.नपसंदगी को कभी रचना चयन में हावी नहीं होने देना चैये ।  अगर रचना किसी खास वर्ग को प्रभावित करने में सक्षम है तो वह प्रकाशन  योग्य  मानी जानी चाहिए शर्त केवल इतनी हो की वह संश्लिष्ट हो । हम सब जानते है कि सम्पादन का अर्थ पुनर्लेखन नहीं होता और यह किसी भी सम्पादक को नहीं करना चाहिए।  प्रायः पाठक-लेखक करूणा को ग्रहण कर लेता है किन्तु शीर्षक में छूपे गहन अर्थ को टटोलने की जरूरत नहीं समझता। अच्छी लघुकथा संक्षिप्त और कसी  बुनावट लिए होती है। सन साठ.सत्तर दशक के पहले की लघुकथाए लघुकथा थी या नहीं इस बहस से आज की लघुकथा को कोई लाभ नहीं है, यह व्यर्थ की चर्चा है।