Tuesday, 30 September 2025

उत्सवों की धुन

पुरस्कार या सम्मान प्राप्त करना कोई दोष या अपराध बोध नहीं है। 

किंतु उससे महत्वपूर्ण है-

* आशीर्वाद है।

* दरअसल यह उत्सव प्रसंग है।

* बस समझना होगा यह कोई उपनिषद काल नहीं है। जहां ऋचाएं ब्रह्म की,जीवन की चर्चा करती हैं।

तुलसी बाबा कहते हैं -
* कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।
  सिर धुन गिरा लगत पछिताना।।

इसलिए वे स्मरण दिलाते हैं -
* हृदय सिंधु मति सीप समाना।
  स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।

तात्पर्य यह कि-

* इससे जब श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान कविता (साहित्य) बनता है।

इस परिप्रेक्ष्य में कुछ विचार किया जा सकता है -

पुरस्कार आयोजित और प्रायोजित दोनों प्रकार के होते हैं।

कुछ कृतकार को समर्पित, कुछ कृति को।

कुछ कृतियां पुरस्कृत होकर विलुप्त प्रजाति में चली जाती हैं, कुछ बिना पुरस्कार के पुरस्कार की प्रतीक्षा में जीवन खो देती हैं। 

कुछ को दीमक चाट जाते हैं, कुछ कचरे में भाव- कुभाव के साथ ठेले में बैठ कर बिदा हो जाती हैं। कुछ पान, नमकीन, भजिया, भुंजिया के लिए शरणस्थली बनती हैं।

किंतु इनके बीच कुछ अनमोल कृतियां मोल तोल के लिए निर्मम समीक्षकों के हाथ पड़ कर सम्बंधों/असंबन्धों के आधार पर -

* निखर कर दुनिया के बीच बौद्धिक खुराक़ बन जाती हैं।

* या समीक्षकीय भाषा के मकड़जाल में छटपटाती रहती हैं।

इसमें न तो कृति का दोष है और न कृतिकार का। 

दोष तो पाठक का भी नहीं है, किंतु उसके पास में वह दृष्टि होती है-

* जो साहित्य में मनुष्यता, ममता, करुणा, सहानुभूति और परोपकार के सूत्र खोज कर उसे सद्ग्रंथों की श्रेणी में ला सकती है। 

* बस दुर्लभ है तो पाठक! 

न कृति रुकेंगी,न पुरस्कार के विज्ञापन। तय करना है-

* आप आवेदन देकर तथाकथित सरकारी, असरकारी संस्थाओं से पुरस्कार लेना चाहते हैं, 

* या कृति को लोकार्पण से बचा कर लोक के/ जनता के/ सुधी पाठक के हाथों देकर उसे सम्मानित होने का अवसर देना चाहते हैं।

समझना होगा- 
* रचना प्राकृत जन का गुणगान कर रही है,
या 
* भारतीय ज्ञान परम्परा को समर्पित है।

 यही कृति के पुरस्कार/सम्मान के आधार और उसके कालजयी होने के लक्षण हैं।

इसलिए मित्र!

* नैतिकता की किताब जीवनशैली है। जिससे चरितार्थता प्राप्त होती है।

* जिसमें कुटुम्ब भाव, सामाजिक समरसता, पर्यावरण सुरक्षा, और नागरिक कर्तव्य होता है। इनकी सार्थकता का /प्रकटीकरण का आधार 'स्व'बोध है। 

* श्रेष्ठ कृतियों को पढ़ा जाना ही उनका पुरस्कार है। साहित्य और सामाजिक उत्सवों का यही संदेश है।

दुर्गाष्टमी / नवमीं की शुभकामनाएं। मां भारती का आशीर्वाद बना रहे।,🙏🕉️
1/10/25

Saturday, 27 September 2025

'शताब्दी के निहितार्थ' की सम्पादकीय

राष्ट्र देवो भव
 “भद्रमिच्छन्त ऋषय: स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उप सं नमन्तु।।”(अथर्व. १९/४१/१) प्राचीन काल में लोकमंगल की कामना से ऋषियों ने तपस्या की। तपस्या लोक कल्याण के लिए थी, अत: मनसा, वाचा और कर्मणा थी। अर्थात् मन से काल और परिवेश का चिंतन किया, परा तथा पश्यन्ति से वचन को साधा और लोक के समक्ष वैखरी के द्वारा न केवल सैद्धांतिक पक्ष रखा, बल्कि उसे कर्म से, व्यवहार से उदाहरण के साथ दिखाया। उनके सतत, गंभीर प्रयत्न और पुरुषार्थ से सनातन राष्ट्र की उत्पति और उसका क्रमिक विकास हुआ।

 ऋषियों की लोकमंगल की उस सद-इच्छा को पुराणकारों ने व्याख्या कर उसके निहितार्थ को प्रकट करते हुए कहा, ‘सर्वेषां मंगलं भूयात् सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत्।।’ (ग.पु.अ.35.51)। यहीं से देव, मनुष्य, यक्ष, राक्षस एवं विबुध इस भारतवर्ष को ‘राष्ट्र देवो भवः’ के भाव से नम्र होकर इसकी सेवा- आराधन करें, ऐसी अपेक्षा और आकांक्षा व्यक्त की गई ।  


   इस मंगलकारी राष्ट्र भारतवर्ष के सनातन स्वरुप को समझें। बृहस्पति आगम कहता है, ‘हिमालयं समारभ्य यावदिंदु सरोवरम् तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्ष्यते।’ विष्णु पुराण कहता है, ‘उत्तरंयत् समुद्रस्य हिमाद्रिश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः।’ इसी मातृभूमि की हम रोज वन्दना करते हैं, ‘रत्नाकरधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्। ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्याम वन्देभारतमातम्॥’


 उत्तर,पूर्व, पश्चिम में हिमालय की सभी खंडों , अंचलों से लेकर दक्षिण-पूर्व-पश्चिम में समुद्र पार तक विस्तार पाती है, यह धरा। कूमा (काबुल नदी), क्रुमू (कुरम नदी), गोमल (गोमती नदी), स्कात (सुकस्नू), अक्षु-वक्षु (Oxus), सिंधु, शतद्रु (सतलुज), ब्रह्मपुत्र (तीनों तिब्बत में), ऐरावत (वर्मा में), सरलवीन, मीकांग ( गंगा) के जल-ग्रहण क्षेत्र ये सब अखण्ड भारत के अंग रहे हैं। बलोचिस्तान, अफगानिस्तान (उप-गणस्थान), सीमाप्रांत (राजधानी: पेशावर अर्थात् पुरुषपुर),सिंध, पश्चिमी पंजाब, बंगलादेश, ब्रह्मदेश, श्याम, इण्डो-चाईना, कंबोज (कंबोडिया), वरुण (बोर्नियो), सुमात्रा तथा तिब्बत आदि इस भरत-भूमि से ऊर्जा प्राप्त करते रहे हैं। यह सभी क्षेत्र अखंड भारतवर्ष के अंग थे?

 फिर क्या हुआ कि वैदिक ऋषिओं की तपस्थली, महाभारत का राष्ट्र, मौर्यकालीन भारतवर्ष कब और कहाँ-कहाँ बिखरता गया? 1876-अफगानिस्तान, 1904-नेपाल, 1914-तिब्बत, 1937- ब्रह्मदेश और 1947-पाकिस्तान। क्या हमारे अखंड भारत की संकल्पना में आज भी यह सब देश आते हैं ? 


 इसको दो प्रकार से समझ सकते हैं। एक वर्तमान स्वरुप जो हमें १५ अगस्त, १९४७ को प्राप्त हुआ। दूसरा वह जो १८७६ के पूर्व था। आर्यावर्त, भारतवर्ष, भारत, हिन्दुस्थान फिर अब भारत और इंडिया समनांतर चल रहे हैं ! १८७६ पूर्व के भारतवर्ष में वर्ष है, जो वर्ष अर्थात स्थान और वर्ष अर्थात काल का बोधक है।

 तो क्या ये कोरे शब्द थे? भारत में जो वर्ष जुडा है उसका अर्थ ‘भू-भाग’ काल के साथ अखंड भू-भाग से अलग होता गया। नाम बदलता गया - आर्यावर्त-भारतवर्ष से भारत, हिन्दुस्थान से हिन्दुस्तान और भारत से इंडिया बन गया। दरअसल जबसे हमने अपने वर्ष अर्थात काल की गणना परार्ध, कल्प, मन्वन्तर और चतुर्युगों की संकल्पना का विस्मरण करते गए, हमारी भौगोलिक सीमा-भूमि-जम्बूद्वीपे, भारतवर्षे, भरतखण्डे, स्थान भी छोटा होता गया।

 यह संकल्प मन्त्र ‘स्व’ का बोध था, बोध मिटा और मान-चित्र (मानचित्र) बदल गया ।
 फिर भी भारतवर्ष हमारे अतीत का गौरव और सांस्कृतिक धरोहर का स्मरण है। पौराणिक दृष्टान्तों का साक्ष्य है। देवी सती के जहाँ-जहाँ अंग गिरे उन शक्तिपीठों का पुण्यमयी स्वरूप हैं। रामायण और महाभारत के काल का साक्ष्य है। 

भूखंड पृथक होने के बाद भी हमारी सांस्कृतिक चेतना अभी भी वहां से जुड़ीं हैं। इसलिए इस स्वरूप को सांस्कृतिक भारतवर्ष मानते हैं। इनके खंड-खंड अस्तित्व होने की कहानी शोध का विषय बनना चाहिए। निष्कर्ष आज की पीढ़ी के सामने आना चाहिए। पीढ़ियों को समझना होगा, वर्ष (स्थान)अपने अंदर भूमि, जन का इतिहास, उसके जीवनमूल्य, संस्कृति,परम्परा, काल (समय) 
के आध्यात्मिक कलेवर को निरन्तरता बनाए चलता है। दूसरा, १४, अगस्त १९४७ की भौगोलिक अस्थाई सीमा हमारे सामने है।   

 स्पष्ट है, ऋषियों ने जिसे ‘राष्ट्र देवो भवः’ कहा है, वह १९४७ के बाद का स्वरुप नहीं है। इसलिए जहाँ से भी अतीत की स्मृतियाँ जुड़ी हैं, उसके सांस्कृतिक स्वरुप को पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थान्तरित करना होगा। स्मरण रखना होगा- यह राष्ट्र जीवंत है, चेतन्य है । ‘राष्ट्र देवो भव’ एक संकल्पित घोषणा है। यह राष्ट्र देवतुल्य है। पवित्र है। ब्रह्मस्वरूप है। ऋषियों के अभिमंत्रित मन्त्रों से ब्रह्माण्डीय सत्ता के प्राण तत्व की जागृत स्वरुप ‘चिति’ है । यही ‘चिति’ विश्व के लिए अध्यात्मिक प्रकाश की अधिष्ठात्री है।

 इसके नाभि में अमृत तत्व भरा है। ऋषियों ने इसे ‘अजनाभवर्ष’ कहा है। इसलिए यह राष्ट्र ही भौतिक स्वरूप में ‘मातृदेवो भवः’, और सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक स्वरूप में ‘पितृदेवो भवः’है। यह चराचर के लिए पूज्य है, चेतन है, प्रकाशमान है। इस देवतुल्य राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना दुनिया के पीड़ित, दुखी मानवता को ‘अतिथिदेवो भवः’ के रूप में स्वीकार करती है। 


यह ज्ञान-विज्ञान प्रदाता है। राष्ट्र और हमारा अन्गांगी भाव का सम्बन्ध है ।’ राष्ट्र केवल शासन प्रणाली या भू-भाग नहीं, वह जीवंत, चेतन सत्ता है।, जिसकी रक्षा, सेवा और साधना करना प्रत्येक नागरिक का धर्म है। इसके जीवन मूल्यों से प्रेरित दुनिया आदि काल से इसे धर्मस्वरुप मान कर पूजती आई है।

  यह देवनिर्मित भूमि है। हिमालय में मानसरोवर जैसे क्षेत्र ब्रह्म रन्ध हैं। यह शिव-पार्वती का क्रीडा स्थल और शिव के परिवार का निवास है। भारतवर्ष पीपल, वट, पाकर, रसाल के वृक्षों से आच्छादित साधना का क्षेत्र है। जहाँ पीपल के नीचे परमपिता परमेश्वर का ध्यान करते हुए ,उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। पाकर के नीचे यज्ञ-कर्म करतें हैं । आम्र वृक्ष के नीचे संसार के प्राणियों के मंगल कामना का चिंतन किया जाता है।वट के नीचे बैठ कर संसार के जिज्ञासुओं के लिए समाधान दिया जाता है। 

 भारतवर्ष निश्चरहीन करने की राम की संकल्पना है। अधर्म के नाश की कृष्ण की घोषणा है। गांधार संकल्पों की भूमि है।इसमें आदिकाल से लोकतंत्र है, सुव्यवस्थित युगों-युगों की विकसित शासन प्रणाली है। इसमें नचिकेता की ‘मृत्यु विजय’ है, शिवि, दधीचि, नारद, प्रहलाद, ध्रुव का ‘तप’ है, राम का ‘त्याग’ है, हरिश्चन्द्र का ‘वचन’ है, परशुराम का ‘समर्पण’ है, युधिष्ठिर का ‘सत्य’ है, कर्ण का ‘दान’ है, व्यास, भीष्म और कृष्ण का ‘भविष्य का चिंतन’ है । शवरी की ‘भक्ति’ है, सावित्री के ‘सेवा’ है, सीता की अग्नि परीक्षा है, अनुसुइया का ‘आशीर्वाद’ है । इसके लिए भारतीय चैतन्य सत्ता को समझना होगा । इसलिए स्मरण रखना होगा, भारत बिना वर्ष के अधूरा है। 

 राम ने अपने युग में जन सहयोग से आर्यावर्त को निश्चरहीन किया । कृष्ण ने महाभारत में धर्म की स्थापना की। तब आज का करनीय क्या है? राष्ट्र को परम वैभव तक ले जाना है ! विश्व गुरु बनाना है!! अतीत का वैभाव पुनर्जीवित करना है!!! तो उत्तर सीधा है, पञ्च परिवर्तन लाना है। 

 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विजयादशमी, २०२५ से २०२६ तक शताब्दी वर्ष मना रहा है। दो वाक्य संघ में बहुत प्रचलित हैं, एक- संघ हिन्दू समाज का संगठन करता है, हिन्दू समाज में नहीं । दूसरा, संघ उस दिन अपने कार्य की इति समझेगा, जिस दिन समाज और संघ के बीच जो एक पतली झिल्ली है, वह समाप्त हो जाएगी। स्पष्ट है, पांच बोध सम्पूर्ण समाज के अंदर दोनों आकाँक्षाओं की पूर्ती के हेतु हैं। 


अत: आवश्यकता है, समाज में कुटुंब प्रबोधन, सामाजिक समरसता, पर्यवरण संरक्षण, स्व का बोध और नागरिक कर्तव्य,के न केवल सैद्धांतिक रूप  समझने की, बल्कि उसे जीवन में आत्मसात कर,  व्यवहार में प्रकट करने की। 
 
क्या यह यक्ष प्रश्न हैं? कुछ लोगों के लिए हाँ और कुछ लोगों के लिए नहीं।

 ‘शताब्दी के निहितार्थ’ स्मारिका के आलेख पञ्च परिवर्तन के लिए ऊर्जा, आनेवाली कठिनाइयों के लिए समाधान और राष्ट्र की चुनौतियां और समाधान को समाहित किये हुए है। स्मारिका में कुल ३१ आलेख हैं। विषय वस्तु की दृष्टि से यह भी लगभाग पांच इकाइयों में गुंधे हैं। 

पहला चरण- राष्ट्र , भारत बोध, विभाजन का  सत्य, राष्ट्र संवर्धन और वाम विखंडन के साथ भारतीय इतिहास की भ्रांतियों , विकृतियों और उसके अपेक्षित निष्पक्ष स्वरूप की बात रखते हैं। दूसरा चरण- पञ्च परिवर्तन के विभिन्न आयामों- स्व का बोध, कुटुंब प्रबोधन, प्रर्यावरण संरक्षण और नागरिक कर्तव्यों की ओर हमारा ध्यान खींचते हैं। तीसरा चरण- आत्मनिर्भरता और स्वदेशी अर्थव्यवस्था, स्वदेशी तकनीक , स्वदेशी से सैन्य शक्ति के मनोबल, और भारतीय कृषि जैसे आयामों की दिशा सूचित करते हैं। चौथा चरण - राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० में भाषा, साहित्य और योग की भूमिका, आतंक के विरुद्ध शिक्षा का सांस्कृतिक उत्तर क्या हो सकता है, मनुष्य के निर्माण में योग की भूमिका जैसे विषय रखे गया हैं, जो पञ्च परिवर्तन में सहयोगी सिद्ध होंगे। पांचवां चरण- उपर्युक्त सभी चरणों के करनीय पक्ष हैं, युवाओं की चुनौतिया क्या हैं, ध्येय पथ के पथिकों के लिए लोकसंग्रह की क्या भूमिका है और ध्येयव्रती होते कैसे हैं, उनकी झलकियाँ दी गई हैं। 

शताब्दी वर्ष यक्ष के प्रश्नों का विश्व के सामने समाधान कारक उत्तर देगा।  
 ‘शताब्दी के निहतार्थ’ स्मारिका इसमें अपनी गिलहरी के सेवाभाव, चींटी के धर्य और सिंह के आत्मावलोकन की भूमिका का निर्वहन करेगी, ऐसा विश्वास है।

 महामहिम राज्यपाल श्री मंगू भाई पटेल एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव के हम आभारी हैं कि उन्होंने पत्रिका के लिए शुभकामना सन्देश देकर अनुगृहीत किया। उन समस्त लेखकों के आभारी हैं , जो अपने व्यस्ततम जीवन चर्या से थोड़ा सा समय निकाल कर मार्गदर्शी आलेख उपलब्ध कराएं हैं। अर्चना प्रकाशन के सभी पदाधिकारी, विशेष रूप से निर्देशक श्री ओम प्रकाश गुप्ता जी का जिन्होंने स्मारिका को तैयार कराने में प्रेरक का काम किया। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उन सभी का जिनका सहयोग मिला, उनके प्रति भी आभार।  

संपादक 
प्रो उमेश कुमार सिंह  
 
 विजयदशमी(२ अक्टूवर, २०२५) 
वि. सं २०८२, युगाब्द ५१२७ 
अर्चना प्रकाशन, भोपाल

Tuesday, 23 September 2025

गणेशोत्सव एवं दुर्गोत्सव

किनारे नदी नहीं होते। धारा को जिंदा रखने के लिए मूल से जुड़ा रहना आवश्यक है। 

नदी में नाले मिलने से नदी का अस्तित्व दीर्घकालिक नहीं होता। 

कूल -किनारे बहते जल को आकार देकर नदी, नालों की पहचान गढ़ते हैं।

आवश्यक नहीं कि जलधाराएं धरती पर बहती दिखें। करोड़ों वर्ष तक धाराएं अंत: सलिला रहती हैं। 

उन्हीं से कुआं, बावड़ियां, नदियां,  तालाबों , और आधुनिक जलस्रोतों को अस्तित्व प्राप्त होता है।

 शिलाखंडों, पर्वतों, वृक्ष- लताओं , यहां तक की घास - फूस को भी नमी उन्हीं से प्राप्त होती है।

इसलिए किनारों , तटों, घाटों से नदियां आकार सीमित नहीं होने देती। वे तो चट्टानों को भी तोड़ देती हैं।

 परम्पराओं और संस्कृति का स्वरूप भी कुछ ऐसा ही समझना चाहिए।

 गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा भी युग की चाह, काल और परिस्थितियों की अपेक्षा से आगत अनुष्ठान हैं। इन्हें इसी दृष्टि से समझना और तदानुरूप आचारण और व्यवहार करना चाहिए।

श्रद्धा भूल सुधार है

श्राद्ध भूल सुधार है। 

दरअसल (मृत्यु) शरीर परिवर्तन के बाद जब मनुष्य इच्छित योनि का चयन नहीं कर पाता तो वह प्राण तत्व में आरूढ़ होकर कर्म के भोगों को ढोता है।

जन्म की यात्रा तीन जगह से होती है। एक देव लोक से, दूसरा नर्क लोक से। तीसरा प्रेत लोक से।

संतानें जब पिंड दान कर मृतक की गलतियों को क्षमा करने ईश्वर का आह्वान करती हैं,और श्रद्धा से प्रार्थना करती हैं,तब प्रेत लोक की आत्माएं या तो नर्क लोक जाती हैं,या देवलोक। कुछ पुण्यात्माओं को प्रेत लोक से सीधे मृत्यु लोक में प्रवेश मिलता है।

फिर वे जन्म के लिए योनि ग्रहण करती हैं, प्रारब्ध के आधार पर।

ऐसा ही कुछ गरुण महराज का मत है। जो उन्होंने नारायण के सत्संग से प्राप्त किया है।

24/9/25

Sunday, 21 September 2025

पितृपक्ष! मोक्ष पक्ष!! कर्तव्य पक्ष!!!

गौ भक्त रोटी खिलाएं , पर गोबर भी उठाएं। तभी बरक्कत होगी। कम से कम अपने घर के सामने तो उठा  ही सकते हैं।

कैसी विडम्बना है,घर के दरवाजे तक झाड़ू,पोछा, रंगोली। घर के गेट के बाहर रखरखाव समिति जाने!!! नगरपालिका जाने। सरकार जाने!!

क्या यह गैरजिम्मेदारों की, मान्य जिम्मेदारों पर , निट्ठल्ले पन की टोकरी फेंकना नहीं है।
या तबियत से पत्थर उछालना है,कि आकाश में छेद होगा?

आपातकाल  की ग़ज़ल के पत्थर ने काम किया भी था, तो टोकरी फेंकना भी चालू हुआ। परिणाम सरकार पर सरकार अंत में आपातकाल की कर्ताधर्ता की सरकार पुनः आ ही गई ।

पत्थर उछलता रहा,  कभी इसके सर, कभी उसके सर , अंत में उछालने वाले का सर फोड़कर शांत शिव लिंग बन पूजित हो गया। 

 आज भी उस पंक्ति को शुभंकर माला -मंत्र बनाकर सभा, गोष्ठी, आंदोलनों में कहते, जपते, सुनते रहते हैं। है न ?

पत्थर और टोकरी फेंकने की कला केवल साहित्यकार ही नहीं, राजनीति ही नहीं तो साधारण जन भी सीख चुके हैं।
है न नागरिक कर्तव्य बोध?

गांधी मर गये, हम सब भी यह ठाट बाट एक दिन छोड़कर जाने वाले हैं।

तो क्या अपने घर के सामने झाड़ू नहीं लगा सकते? क्या यूरोसेंन्ट्रिक मानसिकता पर पत्थर नहीं चला सकते?

हो सकता है,जब अपनी यात्रा निकले तो लोग कहें कि जहां यह चर्म गठ्ठर रख रहे हो, थोड़ी सफाई कर दो,वह आदमी जाने तक अपने घर के बाहर भी साफ सुथरा रखता था। मन से भी ठीक ठाक ही था।
है न सही!!

स्वच्छता का निरोगी काया और मानसिकता से भी सम्बन्ध है।

हमारे पूर्वज, ऋषि, मुनि संत अपने आश्रम की सफाई रोज करते थे, इसलिए नहीं की वे सफाई रोगी थे, बल्कि उन्हें अपने प्रभु के आने की प्रतीक्षा रहती थी। पर्यावरण प्रदूषित न हो इसकी चिंता थी। 

हम भी परमपिता और अपने पूर्वजों को बताने लायक रहें कि, हे महान आत्माओं! हम केवल पितृपक्ष में तुम्हारी श्राद्ध ही नहीं करते। तीन समय संध्या ही नहीं करते, तुम्हारे आचरण का अनुशरण भी करते हैं।
 और भावी पीढ़ी के लिए मार्ग भी बनाते हैं।

परिवार की चिंता के साथ वृहत्तर परिवार की भी हमें चिंता है। पहली रोटी गौ को और अंतिम रोटी कुत्ते को देते हैं, किंतु क्या उन्हें आवारा पशु के सम्बोधन से बचाते भी हैं? 

परिवार को नागरिक कर्तव्य का बोध ही परिवार प्रवोधन है। यही मातृ ऋण,पितृ ऋण और राष्ट्र ऋण का बोध है।

आज बिदा होते पूर्वजों को, उनके माध्यम से पृथ्वी,अंतरिक्ष,वायु, अग्नि,जल को, ऋषियों को, अपनी परम्परा को यह आश्वासन भी देते हैं कि संस्कृति और परम्परा, राष्ट्र के गौरव को हम अपने आचरण से बढ़ायेंगे।

समरस जीवन जड़ -जीव से लेकर वृक्ष,लता,पशु पक्षी तक की सामाजिक समरसता है। जिन मालिकों, किरायेदारों ने कुत्ते पाल रखे हैं, वे दोपहर, सुबह-शाम कभी भी भोंकना शुरू हो जाते हैं, उन्हें भी पड़ोसी धर्म निभाने की सलाह देनी चाहिए। 
गौ सेवा के नाम पर केवल रोटी खिला कर वैतरणी पार करने का टिकट नहीं मिल सकता। उसको चौराहों में आत्महत्या के लिए खड़े रहने देना भी कितना सही है, विचारणीय है।

अपने सहित सभी से अपेक्षा होनी चाहिए, उन्हें इस बात का बोध होना चाहिए कि सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए अपने स्तर से टोका-टाकी करते रहना चाहिए। यह सरकार का नहीं जागृत समाज का दायित्व है। 

 हम दो हमारे दो, हम दो हमारे एक,हम और हम (रिलेशनशिप) से आगे हम और हमारे तीन की अपेक्षा। क्यों ?

 एक और एक से वंश सुरक्षित रहेगा। हम दो हमारे दो से नाना,नानी,मामा मामी,मौसा मौसी, बहन बहनोई का संबंध सुरक्षित रहेगा। हम और हमारे तीन से परिवार, कुटुम्ब और तीसरे से राष्ट्र सुरक्षित रहेगा। सीमा सुरक्षित रहेगी, धर्म सुरक्षित रहेगा। फिर सम्पूर्ण परिवार सुरक्षित रहेगा। 

कुटुम्ब सुरक्षित रहेगा तो समाज की समरसता मजबूत होगी। आबादी का असंतुलन दूर होगा। आर्थिक आधार मजबूत होगा। अस्पृश्यता दूर होगी। राष्ट्र बलवती होगा।

 यह सब होगा 'स्व' के जागरण से, कर्तव्य के प्रति, पर्यावरण के प्रति, कुटुम्ब के प्रति, समाज के प्रति गौरव बोध से।

यह कार्य अपने भजन,भोजन, भाषा, भूषा, भेषज के स्वाभिमान से सम्पूर्णता को प्राप्त करेगा।

यह व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज में होता हुआ राष्ट्रव्यापी होगा। 

यही पितृ ऋण, मातृ ऋण, ऋषि ऋण, राष्ट्र ऋण और गौ ऋणि के प्रति आज की अपेक्षा है।

Tuesday, 16 September 2025

हिंदी को हिंदी की हिन्दी में शुभकामनाएं

हिंदी को हिन्दी की हिंदी में शुभकामनाएं 

हिन्दी को लेकर शुभकामनाएं आ रही हैं। आना भी चाहिए। हिंदी भाषियों के लिए तो गौरव की बात है।

  देश-विदेश के उन सभी हिंदी प्रेमियों का जिनका हिन्दी भाषा और उसके बोलियों से सम्बन्ध है, इनको भी शुभकामनाएं ,जो इसके गौरव को बढ़ाने में योगदान दे रहे हैं।

 सृष्टि के रचयिता ने प्रत्येक राष्ट्र को अपनी भावना व्यक्त करने को भाषा दी है। किसी भी राष्ट्र के सृजन, अभ्युदय, पतन, पुनरूत्थान और उसके जीवनोद्देश्य की अभिव्यक्ति भाषा से ही होती है।

 आज सविधान सभा के उन माननीय सदस्यों के स्मरण का भी दिन है, जिन्होंने सहमति-असहमति के बीच हिंदी को राजभाषा का स्थान दिलाया।

 गौरव बोध और सम्मान उन महनीयों के लिए भी जिन्होंने हिंदी को हिंदुई, हिंदुस्तानी, उर्दू के गंगा जमुनी संस्कृति से , भागीरथ प्रयत्न कर ( संस्कृत, क्षेत्रीय बोलियों और भाषा की भारतीय परंपरा से परिष्कृत कर) हिन्दी को त्रिवेणी बनाकर हमें दिया। 

 त्रिवेणी इसलिए कि इस हिन्दी में हमारा स्वर्णिम अतीत, हमारा उद्वेलित वर्तमान और विश्व के कल्याण की हमारी कामना को सजोये भविष्य है, जो संसृति को अवगाह्न करने का आमंत्रण देता है।

 अतीत का स्मरण इसलिए भी की उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम तक से विश्व के सभी निवासियों को, भारत के सभी भाषा- भाषियों को राम, कृष्ण और शिव के जीवन का कालजयी उज्जवल चरित हमारे सामने आईने की तरह रखता है, जिसमें हमें अपना चेहरा देखने का बार-बार अवसर मिलता है । 

   किसी भी राष्ट्र की भाषा केवल विचार अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती। वह केवल वर्ण-वर्तनी, छंद और व्याकरण नहीं होती । वह राष्ट्र में निवास करने वालों का वर्तमान-अस्तित्व बोध भी होती है । 

भाषा और उसके वर्ण मिलकर विद्या के सभी अंगों (व्याकरण ,कल्प, ज्योतिष,निरुक्त, छंद और शिक्षा) की
 अवधारणा को स्पष्ट करते हैं। 

राष्ट्र और उसकी संस्कृति को स्वर देते हैं। भाषा राष्ट्र की विश्व में पहचान स्थापित कराती है। भाषा राष्ट्र की निजता, उसका गुणधर्म, उसकी पहचान, उसकी आकृति, उसके अस्मिता और उसके भूगोल का परिचय कराती है । 

भाषा किसी भी राष्ट्र का एक जीवन्त, जाग्रत भविष्य का स्वर होती है। 

 यदि भारत की बात करें तो भाषा राष्ट्र की तरह स्वयंभू है। भारतवर्ष के सम्बन्ध में यजुर्वेद में ‘हम राष्ट्र के पुरोहित हैं’ कौन कहता है ? भाषा। 

केनोपनिषद में ‘तेनत्यक्तेन भुन्झिता’ के आचरण की बात कौन करती है? भाषा।

 ‘विश्व के सभी प्राणी सुखी हों’, भारत राष्ट्र की कामना को कौन अभिव्यक्ति देती है? भाषा।   

 भारतीय संस्कृति के समस्त संस्कारों, परम्पराओं, सभ्यताओं के विभिन्न तत्त्वों, लौकिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक मान्यताओं में वैश्विक शुभकामनाएं कौन समाविष्ट करती है? भाषा । 

‘सा प्रथमा संस्कृति विश्वधारा’ भाषा ही तो बताती है! 

‘मनुर्भवः’, अर्थात् मनुष्य बनो। किसका आह्वान है? भाषा का ही न !  

  संस्कृत हमें वेदों के कर्मकाण्ड, मीमांसा और उपनिषद की परम्परा से लेकर ब्रह्मसूत्र तक ले जाती है। हिमालय के कल्हण (राज तरंगिणी) से लेकर कालड़ी के शंकर तक का स्मरण कराती है।

 भारतवर्ष की भाषाएँ चाहे वह संस्कृत हो, तमिल हो, बंगाली हो, गुजराती हो या हिंदी हो सभी अपने अंदर भारतीय संस्कृति और सभ्यता को समाहित किये हुए हैं। 

 यदि हिंदी पर विचार करे तो वह उर्दू, फ़ारसी, अरबी का हिन्दुस्तानी रूप नहीं है। वह संस्कृत की धरोहर को लिए निर्मल गंगधारा है।

 इस धारा में लगभग सभी भारतीय भाषाओं के तात्विक शब्द समाहित हैं। इसी के साथ अरबी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी, फ्रेच आदि के शब्द भी इसकी गोद में आनंद के साथ खेलते हैं। हिंदी ने इन अभारतीय भाषाओं को लिंग, वर्ण, शब्द और अर्थ की पहचान भी दी है। 

अपनी उदारता के कारण हिंदी वैश्विक संस्कृति और सभ्यताओं के लोक कल्याणकारी तत्वों को भी ग्राह्य किये हुए है। उसकी लिपि जितनी सरल है, उतना ही उसका अनुवाद भी। उसमें तमाम आंचलिक शब्दों की धरोहर है, तो भारत की राष्ट्रीयता और संस्कृति के सम्बर्धन और संरक्षण की क्षमता है। 

हिंदी अपने जन्म काल से ही भारत के हजारों वर्ष पूर्व की धरोहर को समेट कर चल रही है।   

 हिंदी भाषा ने अपने साहित्य के माध्यम से ही राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक समरसता में अन्यतम योगदान दिया है। 

भारतीय परम्परा का ज्ञान हिंदी ने अपने विपुल साहित्य से दुनिया को करवाया। बाल्मीक और वेदव्यास के सन्देश को विश्व में पहुँचाने का कार्य हिंदी भाषा और उसका साहित्य ही कर रहा है ।

 अभय और अमरता के संदेश तथा ज्ञान, इच्छा और क्रिया के समन्वय को हमारे संतों, कवियों ने हिंदी भाषा और उसकी बोलियों के माध्यम से विश्व को समझाया। 
 
 भारत की तमाम भाषाओं के स्वरों से ध्वनियों को ग्राह्य कर हिंदी ने वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद इत्यादि के तत्वों एवं स्वत्वों को समेट कर दुनिया को पहुँचाने का कार्य कर रही है।

 कालिदास,भवभूति, माघ और अश्वघोष के साहित्य को लोकप्रिय बनाने में हिंदी ने अप्रतिम योगदान दिया है । 

काश्मीर की राजतरंगिणी हो या प्रत्यभिज्ञा दर्शन इनके ज्ञान प्रकाश को हिंदी ने ही अपने पाठकों तक पहुंचाया है । 

 यदि हिंदी और उसकी क्षेत्रीय बोलियां न होती तो क्या हम इस राष्ट्र की सांस्कृतिक चेतना के संतों, कवियों, महात्माओं को जान या समझ पाते। 

आइये समझें हिंदी हमारा परिचय किनसे कराती है?* क्यों उसे भारतीय संस्कृति की संवाहक, समन्वय और संपर्क की भाषा कहा जाता है ? 

हिंदी विज्ञान -प्रोद्योगिकी की भाषा है, कम्प्यूटर की, सोशल मीडिया की, पत्रकारिता की, धारावाहिक की, फिल्म की, रोजगार की, पंडिताई की, पुरोहितों की, सेना की, वोट की, नोट की,रोटी -बेटी की भाषा है।

हिन्दी योग, नियोग, छप्पन व्यंजनों की भाषा है। वह आरत की पुकार, अर्थार्थी की कामना, जिज्ञासु की समाधान और ज्ञानी के विज्ञान की भाषा है। हिंदी पुरुषार्थ चतुष्टय की भाषा है।

हिंदी मां,मामा- मामी, ताऊ, ताई, चाचा, चाची, काका,काकी,नाना, नानी, मौसी, मौसा, भतीजा , भतीजी, नाती , नातिन, परदादा, ताऊ के पृथक-पृथक सम्बन्धों के पहचान की भाषा है।

 देश में समन्वय की, विदेश में प्रवासी-अप्रवासियों के पहचान और अस्तित्व बचाने की भाषा है।

  तात्पर्य यह कि हिंदी भाषा ही नहीं भारत के धरोहर की वाहिका है। हिंदी विभिन्न प्रान्तों की भाषाओं से संवाद कराती है। हिंदी जनों से संपर्क करती है। साहित्य के माध्यम से उत्सवों, पर्वों का समन्वय कराती है। 

वह कुछ की मातृभाषा है, तो कुछ की क्षेत्रीय भाषा है, तो कई राज्यों की राज्य भाषा है, देश के लोक-जन की संपर्क भाषा है, तो संविधान की राजभाषा है। देवता, मनुष्य, राक्षस और यक्षों की राष्ट्र भाषा है।

भारत के भाल की बिंदी! हे भारती! हे वाग्देवी!
भारतीयों को वैश्विक कल्याण के लिए सदैव तत्पर रखें।
🕉️🙏

...........…...............

* उत्तरप्रदेश, पंचनद, हरियाणा के संत और भक्त: महात्मा बुद्ध, स्वामी रामानन्द, संत कबीर, बल्लभाचार्य, भक्त कुंभनदास, भक्त सूरदास, संत तुलसीदास, मलूकदास, मधुसूदन सरस्वती, संत आपा साहब, संत शिवनारायण। संत नामदेव, संत बेनी, साईं झूलेलाल, संत शादाराम साहेब,श्री गुरु नानकदेव श्री गुरु अर्जुनदेव, श्री गुरु हरि गोविन्द जी, श्री गुरु तेग बहादुर जी, श्री गुरु गोविन्द सिंह जी, संत रोहल, स्वामी श्रद्धानन्द जी। संत गरीबदास, भक्त जैतराम जी, संत चरणदास, संत घीसादास, राधास्वामी, स्वामी नितानंद, संत परमानन्द, संत मंगतराय को बिना हिंदी को जान पाते?

 राजस्थान, गुजरात महाराष्ट्र के संत: संत पीपा जी महाराज, बाबा रामदेव, संत धन्ना, संत जम्भनाथ, संत हरिदास, मीराबाई, संत सोढीनाथी, सहजोबाई, संत दबाबाई, संत फूलीबाई, संत दादूदयाल, संत सुन्दरदास, संत दरिया साहब, संत हरिराय दास, संत रायदास, महर्षि नवल महाराज। भक्तिन लीरलबाई, भगत नरसी मेहता, संत पद्म नाथ, संत माण्डण, संत अखा, कच्छी संत मेकरण दास, स्वामी सहजानंद, स्वामी मुक्ता नंद, संतमूलदास, महर्षि दयानन्द सरस्वती। संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, भक्त सावलामाली, भक्त गोरा कुंभार, संत मुक्ताबाई, संत जनाबाई, संत त्रिलोचन, संत चोखा मेला, संत एकनाथ, भक्तिन कान्होपात्रा, संत तुकाराम, समर्थ रामदास, संत तुकडो जी महाराज।
 मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड के संत: संत सींगाजी, संत सेन, स्वामी प्राणनाथ, संत घासीदास, गहिरागुरु। 
 बंगभूमि, प्राग्ज्योतिष क्षेत्र, उड़ीसा के संत: महावीर स्वामी, संत धरनी दास, संत दरिया साहब, महर्षि मेहदी दास परमहंस , चैतन्य महाप्रभु, बाउल संत जगबंधु सुन्दर दास, श्रीराम कृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी प्रणवानन्द ।माधव कंदली, श्रीमंत शंकरदेव, श्री माधव देव, रानी रापुईलियानी, रानी माँ गाइडिल्यू, श्री तालीम रुकबो, संत जयदेव, भक्त दासिया बाहरी शुद्रमुलि, सरलादास, भक्त बलरामदास, अच्युतानन्ददास, जगनाथ दास, यशोवन्त दास, भक्त शिश आनन्ददास, संत भीमा भाई के दर्शन कर पाते ?
 आन्ध्र , तमिल , कर्नाटक, केरल, पाण्डुचेरी के संत: साधु रामानुजाचार्य, कवियित्री मोला, भक्त श्री अन्नमाचार्यलु, संत बेमना, पोतुलुरी बीर ब्रह्मेन्द्र स्वामी, श्री कोंडयाचार्य स्वामी, काव्यकंठ वसिष्ठ गणपति मुनि, सद्गुरु श्री मलयाल स्वामी, अल्लूरी सीताराम राजू , कुन्दकुरु वीरेशलिंगम पन्तुल। नायम्मार संत, भक्त तिरुमूलर, भक्त कारिकाल अम्मैयार, भक्त कण्णपर, संत नन्दनार, भक्त तिरुज्ञानसंबन्धर, भक्त अप्पर, भक्त पन्नकिरिवार, भक्त पोयगौ अलावार, भक्त भूतल आलवार, भक्त पेयालवार, भक्त तिरुमलिसाई आलवार, भक्त नम्मालवार, भक्त मधुरकवि, भक्त कुल शेखरालवार, भक्त पेरियालवार, भक्तिन आण्डाल, भक्त तिरुप्पाण आलवार, भक्त तिरुमंगै आलवार, भक्तिन ओवैयार, भक्त तिरुवल्लुवर, संत कम्बन, भक्तिन अव्वैयार, संत त्यागराज, संत रामलिंगस्वामीगल, महर्षि रमण। श्री अल्लुम प्रभु, भक्ति भण्डरी बसवेश्वर, वैराग्य निधि अक्क महादेवी, श्री मध्वाचार्य, श्री विद्यारण्य स्वामी, दासकूट, संत पुरन्दरदास, संत कनक दास, श्रीमद् शंकराचार्य, निरणम् कवि, चेरुशेरी नंबूतिरि, आचार्य तुंजतु, रामानुजम, एजुतच्छन, कवि कुंचन नंव्यार, श्री नारायण गुरु, श्री चट्टाम्बि स्वमीगल, महात्मा अय्यन्कालि, महाकवि करुप्पन,श्री अरविन्द घोष, श्री माँ को देश कैसे पहचानता? यदि हिन्दी न होती।

Tuesday, 9 September 2025

षट्चक्रों का स्वरूप

 

षट्चक्रों का स्वरूप

  

कुण्डलिनी की शक्ति के मूल तक पहुँचने के मार्ग में छ: फाटक हैं अथवा यों कहना चाहिए कि छ: ताले लगे हुए हैं। यह फाटक या ताले खोलकर ही कोई जीव उन शक्ति- केन्द्रों तक पहुँच सकता है। इन छ: अवरोधों को आध्यात्मिक भाषा में षट्चक्र कहते हैं।

सुषुम्ना के अन्तर्गत रहने वाली तीन नाडिय़ों में सबसे भीतर स्थित ब्रह्मनाड़ी से वह छ: चक्र सम्बन्धित हैं। माला के सूत्र में पिरोये हुए कमल- पुष्पों से इनकी उपमा दी जाती है।

 मूलाधार चक्र योनि की सीध में, स्वाधिष्ठान चक्र पेडू की सीध में, मणिपुर चक्र नाभि की सीध में, अनाहत चक्र हृदय की सीध में, विशुद्ध चक्र कण्ठ की सीध में और आज्ञा चक्र भृकुटि के मध्य में अवस्थित है। उनसे ऊपर सहस्रार है।

सुषुम्ना तथा उसके अन्तर्गत आने वाली चित्रणी आदि नाडिय़ाँ इतनी सूक्ष्म हैं कि उन्हें नेत्रों से देख सकना कठिन है। फिर उनसे सम्बन्धित यह चक्र तो और भी सूक्ष्म हैं।

 किसी शरीर को चीर- फाड़ करते समय इन चक्रों को नस- नाडिय़ों की तरह स्पष्ट रूप से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हमारे चर्मचक्षुओं की वीक्षण शक्ति बहुत ही सीमित है। शब्द की तरंगें, वायु के परमाणु तथा रोगों के कीटाणु हमें आँखों से दिखाई नहीं पड़ते, तो भी उनके अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता।

 इन चक्रों को योगियों ने अपनी योग दृष्टि से देखा है और उनका वैज्ञानिक परीक्षण करके महत्त्वपूर्ण लाभ उठाया है और उनके व्यवस्थित विज्ञान का निर्माण करके योग- मार्ग के पथिकों के लिए उसे उपस्थित किया है।

षट्चक्रएक प्रकार की सूक्ष्म ग्रन्थियाँ हैं, जो ब्रह्मनाड़ी के मार्ग में बनी हुई हैं। इन चक्र- ग्रन्थियों में जब साधक अपने ध्यान को केन्द्रित करता है, तो उसे वहाँ की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। वे ग्रन्थियाँ गोल नहीं होतीं, वरन् उनमें इस प्रकार के कोण निकले होते हैं, जैसे पुष्प में पंखुडिय़ाँ होती हैं। इन कोष या पंखुडिय़ों को पद्मदलकहते हैं। यह एक प्रकार के तन्तु- गुच्छक हैं।

इन चक्रों के रंग भी विचित्र प्रकार के होते हैं, क्योंकि किसी ग्रन्थि में कोई और किसी में कोई तत्त्व प्रधान होता है। इस तत्त्व- प्रधानता का उस स्थान के रक्त पर प्रभाव पड़ता है और उसका रंग बदल जाता है। पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता का मिश्रण होने से गुलाबी, अग्नि से नीला, वायु से शुद्ध लाल और आकाश से धुमैला हो जाता है। यही मिश्रण चक्रों का रंग बदल देता है।

 चक्रों में होता हुआ प्राण वायु आता- जाता है, उसका मार्ग उस ग्रन्थि की स्थिति के अनुसार कुछ टेढ़ा- मेढ़ा होता है। इस गति की आकृति कई देवनागरी अक्षरों की आकृति से मिलती है, इसलिए वायु मार्ग चक्रों के अक्षर कहलाते हैं।

प्राण वायु का सुषुम्ना प्रवाह इन चक्रों में होकर द्रुतगति से गुजरता है, तो वहाँ एक प्रकार से सूक्ष्म भँवर पड़ते हैं जिनकी आकृति चतुष्कोण, अर्धचन्द्राकार, त्रिकोण, षट्कोण, गोलाकार, लिङ्गकार तथा पूर्ण चन्द्राकार बनती है। 

अग्नि जब भी जलती है, उसकी लौ ऊपर की ओर उठती है, जो नीचे मोटी और ऊपर पतली होती है। इस प्रकार अव्यवस्थित त्रिकोण- सा बन जाता है। इस प्रकार की विविध आकृतियाँ वायु प्रवाह से बनती हैं। इन आकृतियों को चक्रों के यन्त्र कहते हैं।

शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ है। इन तत्त्वों के न्यूनाधिक सम्मिश्रण से विविध अंग- प्रत्यंगों का निर्माण कार्य, उनका संचालन होता है। जिस स्थान में जिस तत्त्व की जितनी आवश्यकता है, उससे न्यूनाधिक हो जाने पर शरीर रोगग्रस्त हो जाता है।

 तत्त्वों का यथास्थान, यथा मात्रा में होना ही निरोगिता का चिह्न समझा जाता है। चक्रों में भी एक- एक तत्त्व की प्रधानता रहती है। जिस चक्र में जो तत्त्व प्रधान होता है, वही उसका तत्त्व कहा जाता है।

ब्रह्मनाड़ी की पोली नली में होकर वायु का अभिगमन होता है, तो चक्रों के सूक्ष्म छिद्रों के आघात से  हर चक्र के एक सूक्ष्म छिद्र में वंशी के स्वर- छिद्र की सी प्रतिक्रिया होने के कारण स, रे, , म जैसे स्वरों की एक विशेष ध्वनि प्रवाहित होती है, जो- लॅ वॅ, रँ, यॅ, हँ, शॅ और ॐ जैसे स्वरों में सुनाई पड़ती है, इसे चक्रों का बीज कहते हैं।

चक्रों में वायु की चाल में अन्तर होता है। जैसे वात, पित्त, कफ की नाड़ी कपोत, मण्डूक, सर्प, कुक्कुट आदि की चाल से चलती है। उस चाल को पहचान कर वैद्य लोग अपना कार्य करते हैं। उसी तरह तत्त्वों के मिश्रण से टेढ़ा- मेढ़ा मार्ग, भँवर, बीज आदि के समन्वय से प्रत्येक चक्र में रक्ताभिसरण, वायु अभिगमन के संयोग से एक विशेष चाल वहाँ परिलक्षित होती है।

 यह चाल किसी चक्र में हाथी के समान मन्दगामी, किसी में मगर की तरह डुबकी मारने वाली, किसी में हिरण की- सी छलाँग मारने वाली, किसी में मेढक़ की तरह फुदकने वाली होती है। उस चाल को चक्रों का वाहन कहते हैं।

इन चक्रों में विविध दैवी शक्तियाँ सन्निहित हैं। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि शक्तियों को देवता विशेषों की शक्ति माना गया है अथवा यों कहिये कि ये शक्तियाँ ही देवता हैं।

 प्रत्येक चक्र में एक पुरुष वर्ग की उष्णवीर्य और एक स्त्री वर्ग की शीतवीर्य शक्ति रहती है, क्योंकि धन और ऋण, अग्नि और सोम दोनों तत्त्वों के मिले बिना गति और जीव का प्रवाह उत्पन्न नहीं होता। यह शक्तियाँ ही चक्रों के देवी- देवता हैं।

पंचतत्त्वों के अपने- अपने गुण होते हैं। पृथ्वी का गन्ध, जल का रस, अग्रि का रूप, वायु का स्पर्श और आकाश का गुण शब्द होता है। चक्रों में तत्त्वों की प्रधानता के अनुरूप उनके गुण भी प्रधानता में होते हैं। यही चक्रों के गुण हैं।

यह चक्र अपनी सूक्ष्म शक्ति को वैसे तो समस्त शरीर में प्रवाहित करते हैं, पर एक ज्ञानेन्द्रिय और एक कर्मेन्द्रिय से उनका सम्बन्ध विशेष रूप से होता है। सम्बन्धित इन्द्रियों को वे अधिक प्रभावित करते हैं। चक्रों के जागरण के चिह्न उन इन्द्रियों पर तुरन्त परिलक्षित होते हैं। इसी सम्बन्ध विशेष के कारण वे इन्द्रियाँ चक्रों की इन्द्रियाँ कहलाती हैं।

देव शक्तियों में डाकिनी, राकिनी, शाकिनी, हाकिनी आदि के विचित्र नामों को सुनकर उनके भूतनी, चुड़ैल, मशानी जैसी कोई चीज होने का भ्रम होता है, वस्तुत: बात ऐसी नहीं है। 

मुख से लेकर नाभि तक चक्राकार से लेकर तक के समस्त अक्षरों की एक ग्रन्थिमाला है, उस माला के दानों को मातृकायेंकहते हैं।

 इन मातृकाओं के योग- दर्शन द्वारा ही ऋषियों ने देवनागरी वर्णमाला के अक्षरों की रचना की है। चक्रों के देव जिन मातृकाओं से झंकृत होते हैं, सम्बद्ध होते हैं, उन्हें उन देवों की देवशक्ति कहते हैं।

 ड, , , , , के आगे आदि मातृकाओं का बोधक किनीशब्द जोडक़र राकिनी, डाकिनी बना दिये गये हैं। यही देव शक्तियाँ हैं।

 छहों चक्रों का परिचय इस प्रकार है

मूलाधार चक्र-स्थान- योनि (गुदा के समीप)। दल- चार। वर्ण- लाल। लोक- भू:लोक। दलों के अक्षर- वँ, शँ, षँ, सँ। तत्त्व- पृथ्वी तत्त्व। बीज- लँ। वाहन- ऐरावत हाथी। गुण- गन्ध। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चतुष्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- नासिका। कर्मेन्द्रिय- गुदा। ध्यान का फल- वक्ता, मनुष्यों में श्रेष्ठ, सर्व विद्याविनोदी, आरोग्य, आनन्दचित्त, काव्य और लेखन की सामर्थ्य।

स्वाधिष्ठान चक्र-स्थान- पेडू (शिश्न के सामने)। दल- छ:। वर्ण- सिन्दूर। लोक- भुव:। दलों के अक्षर- बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ। तत्त्व- जल तत्त्व। बीज- बँ। बीज का वाहन- मगर। गुण- रस। देव- विष्णु। देवशक्ति- डाकिनी। यन्त्र- चन्द्राकार। ज्ञानेन्द्रिय- रसना। कर्मेन्द्रिय- लिङ्गं। ध्यान का फल- अहंकारादि विकारों का नाश, श्रेष्ठ योग, मोह की निवृत्ति, रचना शक्ति।

मणिपूर चक्र-स्थान- नाभि। दल- दस। वर्ण- नील। लोक- स्व:। दलों के अक्षर- डं, ढं, णं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं। तत्त्व- अग्रितत्त्व। बीज- रं। बीज का वाहन- मेंढ़ा। गुण- रूप। देव- वृद्ध रुद्र। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- त्रिकोण। ज्ञानेन्द्रिय- चक्षु। कर्मेन्द्रिय- चरण। ध्यान का फल- संहार और पालन की सामर्थ्य, वचन सिद्धि।

अनाहत चक्र- स्थान- हृदय। दल- बारह। वर्ण- अरुण। लोक- मह:। दलों के अक्षर- कं, खं, गं, घं, ङं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं। तत्त्व- वायु। देवशक्ति- काकिनी। यन्त्र- षट्कोण। ज्ञानेन्द्रिय- त्वचा। कर्मेन्द्रिय- हाथ। फल- स्वामित्व, योगसिद्धि, ज्ञान जागृति, इन्द्रिय जय, परकाया प्रवेश।

विशुद्ध चक्र-स्थान- कण्ठ। दल- सोलह। वर्ण- धूम्र। लोक- जन:। दलों के अक्षर- से लेकर अ:तक सोलह अक्षर। तत्त्व- आकाश। तत्त्वबीज- हं। वाहन- हाथी। गुण- शब्द। देव- पंचमुखी सदाशिव। देवशक्ति- शाकिनी। यन्त्र- शून्य (गोलाकार)। ज्ञानेन्द्रिय- कर्ण। कर्मेन्द्रिय- पाद। ध्यान फल- चित्त शान्ति, त्रिकालदर्शित्व, दीर्घ जीवन, तेजस्विता, सर्वहितपरायणता।

आज्ञा चक्र-स्थान- भ्रू। दल- दो। वर्ण- श्वेत। दलों के अक्षर- हं, क्षं। तत्व- मह: तत्त्व। बीज- ऊँ। बीज का वाहन- नाद। देव- ज्योतिर्लिंग। देवशक्ति- हाकिनी। यन्त्र- लिङ्गकार। लोक- तप:। ध्यान फल- सर्वार्थ साधन।

षट्चक्रों में उपर्युक्त छ: चक्र ही आते हैं; परन्तु सहस्रार या सहस्र दल कमल को कोई- कोई लोग सातवाँ शून्य चक्र मानते हैं। उसका भी वर्णन नीचे किया जाता है

शून्य चक्र- स्थान- मस्तक। दल- सहस्र। दलों के अक्षर- अं से क्षं तक की पुनरावृत्तियाँ। लोक- सत्य। तत्त्वों से अतीत। बीज तत्त्व- (:) विसर्ग। बीज का वाहन- बिन्दु। देव- परब्रह्म। देवशक्ति- महाशक्ति। यन्त्र- पूर्ण चन्द्रवत्। प्रकाश- निराकार। ध्यान फल- भक्ति, अमरता, समाधि, समस्त ऋद्धि- सिद्धियों का करतलगत होना।