Tuesday, 23 September 2025

गणेशोत्सव एवं दुर्गोत्सव

किनारे नदी नहीं होते। धारा को जिंदा रखने के लिए मूल से जुड़ा रहना आवश्यक है। 

नदी में नाले मिलने से नदी का अस्तित्व दीर्घकालिक नहीं होता। 

कूल -किनारे बहते जल को आकार देकर नदी, नालों की पहचान गढ़ते हैं।

आवश्यक नहीं कि जलधाराएं धरती पर बहती दिखें। करोड़ों वर्ष तक धाराएं अंत: सलिला रहती हैं। 

उन्हीं से कुआं, बावड़ियां, नदियां,  तालाबों , और आधुनिक जलस्रोतों को अस्तित्व प्राप्त होता है।

 शिलाखंडों, पर्वतों, वृक्ष- लताओं , यहां तक की घास - फूस को भी नमी उन्हीं से प्राप्त होती है।

इसलिए किनारों , तटों, घाटों से नदियां आकार सीमित नहीं होने देती। वे तो चट्टानों को भी तोड़ देती हैं।

 परम्पराओं और संस्कृति का स्वरूप भी कुछ ऐसा ही समझना चाहिए।

 गणेशोत्सव और दुर्गा पूजा भी युग की चाह, काल और परिस्थितियों की अपेक्षा से आगत अनुष्ठान हैं। इन्हें इसी दृष्टि से समझना और तदानुरूप आचारण और व्यवहार करना चाहिए।

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