Wednesday, 17 April 2024

अध्यात्म क्या है (भाषा संस्कृति स्नातक तृतीय वर्ष के लिए )

 
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 अध्यात्म

    अध्यात्म शब्द की उत्पति : अध्यात्म का अर्थ है अपने मूल स्वभाव को, अपने आप को, आत्मा को जानने का प्रयत्न करना, ईश्वर एवं जगत से अपने संबंधों को समझना एवं जीवन के अर्थ एवं उद्देश्य से परिचित होना । यह अंतर्मुखी चितंन-मनन की प्रक्रिया है । अध्यात्म की  इस ऊर्ध्वंमुखी  विकास यात्रा  में अनेक अतीन्द्रिय  शक्तियां जैसे - दूरदर्शन , दूरश्रवन व दिव्यदर्शन आदि प्राप्ति होती हैं । इसके केंद्र में आत्मा है, ईश्वर, जगत, अन्य प्राणी इसकी परिधि पर स्थित हैं । अधि + आत्मन = अध्यात्म । संधि के नियम अनुसार इ + अ = य । ‘अध्यात्म’ अर्थात ‘आत्मनः सम्बद्धम्-आत्मानम्। आत्मा से संबंध रखने वाला ।

 अध्यात्म विद्या आत्मा या परमात्मा संबंधी ज्ञान अर्थात् ब्रह्म एवं आत्म-विषयक जानकारी, जो परमात्म चिन्तन में सुख का अनुभव करे । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अध्यात्म के सम्बन्ध में उसे विद्या की संज्ञा देते हुए कहते हैं-

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।(10.32।।)

      हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओं में अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालों का (तत्त्व-निर्णय के लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ। ‘

 एक दिव्य भाव है । परम ब्रह्म अक्षर है । उसके स्वभाव को अध्यात्म कहते है । उसका भूतभाव उद्भवकारी सृजन कर्म विसर्ग है । ‘अक्षर ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते । भूत भवोद्भव करो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।’( गीता 8,3) 

    गीता में ईश्वर के चार भाव है- (1) परम भाव अक्षर जो ब्रह्म है ।  (2) अध्यात्म भाव, जो आत्मा है । (3) भूत- भाव, जो रचनात्मिका कारण है । तथा (4) विसर्गभाव, जो सृष्टिरूप कार्य है ।

 परम को अक्षर इसलिए कहा गया है क्योंकि बाद के दो भाव एक-दूसरे से सम्बन्धित है, जबकि प्रथम नहीं है । परम ब्रह्म का अनभिव्यक्त अव्यक्त रूप है जबकि दूसरे और तीसरे ईश्वर की अभिव्यक्ति के व्यक्तिनिष्ठ एवं वस्तुनिष्ठ स्वरूप है । 

व्यक्तिनिष्ठ अध्यात्म भाव ईश्वर के समान ही प्रकाशित होता है तथा स्थिर है । वस्तुनिष्ठ भूतभाव रचना करता है तथा प्रपंच है ।

 उदाहरण के लिए गहरे ध्यान अथवा भावावस्था में एक व्यक्ति अपनी तथा अपने आसपास के वातावरण की सम्पूर्ण चेतना खो देता है । उसे यह पता नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है ? लेकिन जब वह कोई कार्य कर रहा होता है, तब यह अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहता है तथा उसे उस कार्य की भी प्रतीति रहती है, जिसे वह कर रहा होता है । भावावस्था में उसकी चेतना उसकी परम सत्ता में विलीन हो जाती है, किन्तु कार्य के समय उसकी व्यक्तिनिष्ठ चेतना तथा कार्य की वस्तुनिष्ठ अनुभूति एक साथ कार्य करती है । भावावस्था में चेतना परमसत्ता में लौट जाती है तथा कार्य के समय अध्यात्म पुरुष तथा कारण भूतभाव वस्तु में अभिव्यक्त हो उठाता है ।

    वैदिक तथा परवर्ती साहित्य में सत् एवं असत् क्रमश: अध्यात्म तथा भूतभाव के लिए प्रयुक्त हुए है । ‘परम’ इन दोनों से परे है । सत् अस्तित्व का धनात्मक पक्ष है तथा असत ऋणात्मक घनीभूत रचना है, क्योंकि अध्यात्म जो परम है, प्रकाशित होता है, अतः सत् है ।

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।

     अध्यात्मभाव अनन्त व पूर्ण है तथा विसर्गभाव सृष्टि भी अनन्त एवं पूर्ण है । अध्यात्मभाव से भूतभाव उत्पन्न होता है जो स्वतः पूर्ण है, किन्तु इससे नियामक पूर्ण का पूर्णत्व अप्रभावित ही रहता है । सृष्टि अनन्त व पूर्ण होती है और इस तरह भूतभाव का संसर्ग रूप भी पूर्ण है । पूर्ण में से पूर्ण निकाल लेने के बाद भी सृष्टि-विकास में पूर्ण ही बचता है । इस तरह अवशेष भी पूर्ण ही है, अनन्त शेष को ‘उच्छिष्ठ’ कहा है    

 आत्मा को साधारणतया मन और बुद्धि के पूर्व जीवन के रूप में तथा अध्यात्म को जीवन-रहित जीवन- तत्व अथवा मन और शरीर में अभिव्यक्त प्रकाश के रूप में परिभाषित किया जाता है । इस तरह ‘स्व’ और ‘अध्यात्म’  मानसिक शक्तियों के विकास के अर्थ में मनोमय और विज्ञानमय कोष के अभ्युत्थान के ही परिचायक हैं । 

     अध्यात्म का क्या अर्थ : आत्मा को जानना और उसकी ओर चलना ही ‘अध्यात्म’ है । बुराई को छोड़कर अच्छाई की ओर आना ‘धर्म’ कहलाता है, जबकि आत्मा को जानना ‘अध्यात्म’ कहलाता है । जब कोई व्यक्ति अस्थायी चीजों की लालसा से बाहर आता है और शाश्वत आत्मा का एहसास करता है, तो यह आध्यात्मिकता की शुरुआत का प्रतीक है । बुरे से अच्छे की ओर बढ़ना ही धार्मिक चेतना है । तथा बुरे और अच्छे से पवित्रता की ओर बढ़ना ही ‘अध्यात्म’ या परम चेतना है ।

आध्यात्मिकता हमें स्थाई ख़ुशी देती है । यह उस चीज़ का ज्ञान प्रदान करता है जो शुद्ध है, वह आत्मा (वास्तविक ‘स्व’) है । खाना, पीना, काम पर जाना, पैसा कमाना इत्यादि सभी सांसारिक गतिविधियाँ हैं । जबकि भ्रष्टाचार और डकैती में लिप्त होना, लूटपाट करना, लोगों को चोट पहुँचाना और लोगों को परेशान करना अधार्मिक कार्य हैं । पूजा करना, जप करना, उपवास करना और भोजन तथा धन का दान करना आदि सभी धार्मिक कार्य हैं । जहां धर्म हमें बुराइयों को छोड़कर अच्छाइयों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है, वहीं आध्यात्मिकता हमें पवित्रता की ओर ले जाती है । 

अध्यात्म हमें अच्छे-बुरे के द्वंद्व से परे जाकर शुद्ध आत्मा का अनुभव करना, सिखाकर सभी सांसारिक बंधनों से मुक्त कराता है । एक बार जब हम यह समझ लें कि आत्मा एक शाश्वत तत्व है और वह हमारी अपनी आत्मा है, और अगर (आत्मा और पदार्थ के तत्वों को अलग करने पर) हमें उस शाश्वत तत्व का एहसास हो जाता है, तो हमारी सांसारिक समस्याएं और पहेलियाँ आसानी से हल हो सकती हैं । भौतिक  विज्ञान बिल्कुल अलग चीज़ है जबकि आध्यात्मिक विज्ञान बिलकुल अलग है, क्योंकि यह शाश्वत तत्व आत्मा पर आधारित है ।

 भारतवर्ष के ऋषि गणों, महावीरबुद्ध, कृष्ण और राम सभी का जीवन आध्यात्मिक विज्ञान आधारित था । इन अध्यात्मिक वैज्ञानिकों ने अनादि तत्व को जाना, उसी का अनुभव किया और उसी का ज्ञान अपने शिष्यों को दिया 

अध्यात्म क्या है इसकी खोज में हमें दो मूलभूत बातों का ज्ञान होता है: मैं कौन हूँ ?  इस संसार नियंता कौन है? एक बार जब हम वास्तव में यह जान लेते हैं तो अज्ञान के कारण जो भी दुख आया है, वह स्वतः ही दूर हो सकता है ।

 सांसारिक जीवन क्रिया पर आधारित है और आध्यात्मिक जीवन साक्षात्कार पर आधारित है। सांसारिक गतिविधि करता है जबकि दूसरा तटस्थ भाव से देखता रहता है । ‘कर्ता’ और ‘ज्ञाता’ कभी एक नहीं हो सकते; वे हमेशा अलग होते हैं वे अलग थे; वे अलग हैं और अलग रहेंगे ।

    अध्यात्म की आवश्यकता :  जीवन उतार-चढ़ाव, अच्छे और बुरे समय से भरा हो सकता है । बहुत से लोग आध्यात्म को अपने जीवन में आराम और शांति पाने का एक तरीका मानते हैं । इसका अभ्यास अक्सर योग जैसी चीज़ों के साथ किया जा सकता है, जो अंततः तनाव से राहत और भावनाओं की रिहाई पर ध्यान केंद्रित करते हैं । 

हमारा अधिकतर ज्ञान भौतिक है और उसी से हम परम आनंद की प्राप्ति की आकांक्षा करते हैं जो कि पूरी तरह व्यर्थ है । आज के वातावरण में मनुष्य भौतिकवाद के अनुसरण में व्यस्त है । भौतिकवाद केवल बाहरी आवरण को समृद्ध बना सकता है । इससे हम अपने भौतिक शरीर की जरूरतों को ही पूर्ण कर सकते हैं ।

 भौतिकवाद हमारे बाहरी शरीर को सुंदर बना सकता है, पर इससे आंतरिक आनंद और उल्लास की अपेक्षा करना हमारी अज्ञानता है । भौतिकवाद और विज्ञान हमें संपूर्ण विश्व की बाहरी यात्रा करवा सकता है, पर आंतरिक यात्रा तो केवल अध्यात्म के मार्ग पर चलकर ही हो सकती है । 

आध्यात्मिक जीवन एक ऐसी नाव है जो ईश्वरीय ज्ञान और आनंद से भरी हुई है । यह नाव जीवन के उत्थान और पतन रूपी झंझावातों में भी चलती रहती है । अध्यात्म मनुष्य को आंतरिक रूप से सशक्त बनाता है । लाभ-हानि, मान-अपमान, सुख-दुख, उत्थान-पतन सभी परिस्थितियों में आध्यात्मिक मार्ग का पथिक अविचल रूप से गतिमान रहता है । सांसारिक रुकावटें उसकी इस गति को बाधित ही नहीं कर सकतीं । सभी प्राणियों में उसी परम सत्ता के अंश को अनुभव करने की प्रेरणा अध्यात्म ही प्रदान करता है । 

अध्यात्म विश्व बंधुत्व का मार्ग है जहां मनुष्य की ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, आपसी भेदभाव पूरी तरह समाप्त हो जाते हैं । प्रत्येक प्राणी में उसी दिव्य तत्व की अनुभूति होने लगती है   

     अध्यात्म की इसी समदर्शी और समत्व की भावना को योगेश्वर श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया है कि जो मनुष्य सभी प्राणियों में स्थित आत्मा को अपने जैसा देखता है, ऐसा समदर्शी आध्यात्मिक मनुष्य सांसारिक वातावरण से अलग होकर सभी प्राणियों को ईश्वरमय समझने लगता है । ऐसी अवस्था में वह किसी का अहित करने का विचार अपने मन में नहीं ला सकता । संपूर्ण विश्व के प्राणी उसके लिए बंधु बन जाते हैं । अध्यात्म मनुष्य को इसी समत्व की भावना की ओर ले जाता है । 

हमारी सारी दौड़, सारे प्रयास बाहर के भौतिक जीवन तक ही सीमित हैं । लेकिन अध्यात्म अपने भीतर जाने का मार्ग खोलता है ।  यह धर्म से भिन्न है, और यदि आप धार्मिक नहीं हैं तो भी आप इसका अभ्यास कर सकते हैं । विभिन्न प्रकार की आध्यात्मिकता के बारे में और उन कारणों के बारे में और जानें कि क्यों कुछ लोग आध्यात्मिक जीवन जीने का निर्णय लेते हैं । 

हमारा अधिकतर समय दूसरों के स्वभाव, व्यवहार, व्यक्तिगत जीवन को जानने में व्यतीत हो जाता है । मानव जीवन को हम व्यर्थ की दौड़ धूप में, आपसी मनमुटाव और दूसरों की कमियों को जानने में व्यतीत कर देते हैं । अध्यात्म हमें सचेत करते हुए कहता है कि सबसे पहले स्वयं को जानो । सर्वप्रथम अपने व्यवहार, अपने भीतर का अवलोकन करो । बाहरी संसार के व्यक्तियों की आलोचनाएं, प्रशंसा से हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला । अपने भीतर के अवलोकन से ही हम शाश्वत आनंद और शांति के भंडार को प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए आध्यात्मिक तत्वों को अपने जीवन में आत्मसात करके ही आनंद और शांति की अनुभूति की जा सकती है   

     आध्यात्म बोध के विभिन्न चरण: आध्यात्म में अक्सर अर्थ, उद्देश्य और ब्रह्मांड, अन्य लोगों या उच्च शक्ति के साथ अंतर्संबंध की भावना की तलाश शामिल होती है ।

 अध्यात्म को ध्यान और प्रार्थना जैसी विभिन्न प्रथाओं में व्यक्त किया जा सकता है । कुछ सामान्य आध्यात्मिक अभ्यास हैं: सचेतनता या जागृत भाव, ध्यान, योग, नृत्य, कला या संगीत के साथ प्रकृति की गोद में होने की अनुभूति । इसके साथ ही दीक्षा, प्रसुप्त कुण्डलिनी का जागरण, सृजनशक्ति का संचय, सच्ची साधना की प्रक्रिया, विकास, इच्छाशक्ति की सबलता तथा जिज्ञासु वृति आवश्यक है । 

अध्यात्म में प्राचीन भारतीय अध्यात्म शास्त्र के साथ-साथ साधकों को प्रत्यक्ष रहस्यानुभूतियों की भी जानकारी होनी चाहिए । साथ ही आधुनिक मानव मन का विज्ञानोन्मुख दार्शनिक पक्ष भी स्पष्ट होना चाहिए है । अध्यात्म समझने के लिए पारम्परिक ज्ञान और आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषणों के समन्वय की आवश्यकता होती है । 

उच्च विद्या के लिए ज्ञान के अनेक ग्रंथ हैं, यथा चारों वेद, वेदांग, वेदान्त सूत्र, तर्क ग्रंथ, धर्मग्रंथ, पुराण, श्रीमदभगवतगीता , रामायण आदि । इस प्रकार इस क्षेत्र में अनेक ग्रंथ हैं । इनके साथ ही भारतीय परम्परा के अतिरिक्त विश्व भर के ऐसे संतों के जीवन का अध्ययन आवश्यक है । 

भारतवर्ष अपने पूर्व गौरव विश्वगुरु के सिंहासन पर तब तक पुन:प्रतिष्ठित नहीं हो सकता, जब तक कि हम सनातन संस्कृति, जो कि यथार्थ स्वरूप से आध्यात्मिक है, को पुनर्जीवित नहीं कर लेते । 

    अध्यात्म और कर्म : हम भारतवासी कर्म के लिये जी रहे हैं और दुनिया भोग के लिये जी रही है । हमारे सामाने हैं- दधीचि  जो मानवता के कल्याण हेतु हड्डियाँ अर्पित करते हैं,  शिवि एक पक्षी के रक्षण हेतु अपना अंग काटकर अर्पित हैं, चालीस दिन के भूखे रंतिदेव ब्राह्मण, चाण्डाल व स्वान की सेवा में निज थाली का अन्न भी अर्पित करते हैं।

 तो दूसरी ओर अपना पेट पालने के लिये निरपराधों व निरीहों का हवन करने में भी नहीं चूकते अथवा अपनी अर्थनीतिक दुश्चक के लिए अनाज को इंजनों में जला देते हैं, परन्तु किसी भूखे के पेट में नहीं जाने देते।  उस समय दुनिया के ये लोग कीट-पतंग से अधिक कैसे लग सकते हैं ? 

 दुनिया तेजी से भौतिक प्रगति करती दिख रही है । परन्तु हमारी अन्तः प्रकृति इस भोगवादी पाश्विकता के स्वागत के लिये तैयार नहीं है । प्रत्येक भारतवासी को अच्छी तरह ज्ञात है कि यह भौतिक शक्ति नहीं है, जिसने हमें आज तक जीवित रखा है, यह हमारी आध्यात्मिक शक्ति ही है जिसने हमें अजरता-अमरता प्रदान की है । 

 कभी-कभी किन्ही - किन्ही महानुभावों को लग सकता है कि अपनी अत्यधिक आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण हम भोले-भाले भारतवासी अनेक बार भौतिक क्षेत्र में पिछड़ गये हैं । लेकिन उन्हें भूलना नहीं चाहिये कि जिस आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण हम अनेक बार पिछड़े हुए लगते हैं, उसी की परम कृपा के कारण आज तक हम जीवित भी बने हुए है ।

  जूलियस सीजर का साम्राज्य बहुत बड़ा था, किंतु दुनिया के मानचित्र में आज कहाँ है ? दुनिया को हिलाने वाले सिकन्दर के मुल्क का क्या हाल है ? लेकिन हम आज श्रीमस्तक ऊँचा करके गौरव के साथ खड़े हुए हैं, आखिर क्यों और कैसे ? 

 समझना होगा हमारी प्राण शक्ति का स्रोत कहाँ है ? हमें प्रेरणा कहाँ से प्राप्त होती है ? वेद, गीता, उपनिषद के यह अमर भाव हमारे प्रेरणा के स्त्रोत हैं, जो हमें बताते हैं -“ हम कभी मरते नहीं।  हमारी आत्मा अमर है । शास्त्र उसे छेद नहीं सकते । आग उसे जला नहीं सकती । पानी उसे गला नहीं सकता । हवा उसे सुखा नहीं सकती।” 

 यह दुनिया का सबसे ऊँचा और गहरा विचार है । दुनिया के समस्त विचार इस एक विचार में आकर समाहित हो जाते हैं । इसी का परिणाम है कि दुनिया की अनेक संस्कृतियां इस देश में आईं और अपने अस्तित्व को खोकर चली गई या  भारतीय संस्कृति की भागीरथी में विलीन हो गईं ।

      वेद, उपनिषद, गीता के अमर सन्देश के सुदृढ़ आधार पर खड़े होकर हमने ज्ञान की कौन-सी ऊँचाई प्राप्त की, इसका अनुमान हम इसी बात से लगा सकते हैं कि, वर्तमान युग के श्रेष्ठतम वैज्ञानिक- दार्शनिक आइंस्टीन की समझ में भी नहीं आ सका कि आज से सदियों पूर्व आचार्य शंकर की समझ में अद्वैत का सिद्धान्त कैसे आया ?   

  हमें यह स्वीकार करते हुए गरिमा का अनुभव होता है कि हमारे महापुरुषों के भक्त हृदयों ने निराकार ब्रह्म को साकार परमात्मा बनाकर दिखा दिया और फिर साकार परमात्मा को निराकार में विलीन करने वाले ज्ञान देते महर्षि भी इस देश को सुशोभित कर उठे । 

ज्ञान के क्षेत्र में हमें किसी प्रकार की सीमा स्वीकार नहीं है । इसीलिये तो हमारे यहाँ इतने मत मतान्तर, देवी-देवता, वेद-वेदांग दिखाई देते हैं । यही कारण है कि साकार -निराकार, द्वैत-अद्वैत, कर्म-ज्ञान-उपासना से संबंधित वादों में कभी टकराहट नहीं हुई और जिसने जो मार्ग चुना वहीं से उसने इस अध्यात्म को बोध किया ।

     अध्यात्म और धर्म : अध्यात्म और धर्म पृथक हैं । भारत के किसी भी प्रांत के पंडित, अपंडित, दार्शनिक, प्रवचनकर्ता, पुजारी, पुरोहित, आचार्य, अध्यापक, लेखक, निदेशक आदि सब एक ही उच्चारण करते पाए जाते हैं - ‘ धर्म एव हतो हन्ति, धर्मों रक्षति रक्षति: । इसी तरह ‘यतो धर्मस्ततो जय: । ‘सत्यम वाद धर्मं चर’। जब अद्वैत की चर्चा हुई, तब भी धर्म की पताका ऊँची फहराई । जब द्वैत की चर्चा हुई तब भी धर्म की पताका ऊँची फहराई । जब ओऽम् का उद्घोष हुआ तब भी धर्म का जय-जय निनाद था । कोई भी काल हो, कोई भी परिस्थिति ‘धर्म की जय’, ‘सत्य की जय।’ ही रही है । इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण और भी हैं जिसका तात्पर्य इतना ही है कि भारत में धर्म का महत्व सब लोग मानते हैं । 

           जहाँ से धर्म की यात्रा पूर्णता प्राप्त करती है, वहीं से अध्यात्म की यात्रा प्रारम्भ होता है । आध्यात्मिकता का यह भाव व्यक्ति से बोध होकर वैश्विक बनाता है । धार्मिक होना आपको स्वचालित रूप से आध्यात्मिक नहीं बनाता है । आध्यात्मिक जागृति अपने से बड़ी किसी चीज़, जैसे ब्रह्मांड या किसी उच्च शक्ति, से गहरा संबंध महसूस करा सकती है ।

 आध्यात्मिक जीवन जीने के लिए धार्मिक वृति आवश्यक भी है और नहीं भी । धर्म आचरण की शुद्धता की ओर ले जाता है तो आध्यात्मिकता जीवन की जटिलताओं को सुलझाने में सहायक होता है । आत्मा और परमात्मा से संबंधित शाश्वत ज्ञान का अनुगमन करना ही अध्यात्म विद्या है । 

अध्यात्म का अर्थ है भौतिक जीवन के साथ जीवन के स्वत्व को समझना है । ईश्वरीय आनंद की अनुभूति करने का मार्ग ही अध्यात्म है । अध्यात्मिकता का संबंध आंतरिक जीवन से है।

      हमारे महापुरुष व शास्त्र पुकार-पुकार कर कहते हैं सत्य व धर्म की चर्चा में रहो, असत्य व अधर्म की चिन्ता में समय व्यतित मत करो । सत्य की चर्चा ही हमारे जीवन का लक्ष्य बन जाना चाहिये । सत्य के प्रति हमारा अनुराग आज नहीं तो कल सभी को हमारी ओर आकर्षित कर लेगा । मृदु शब्दों में लसी हुई सत्य चर्चा लोक विजय का सबसे बड़ा साधन है । हम प्रेम व सत्य के साक्षात् अवतार बन जाएँ ।  

    एक महात्मा ने किसी साधक को बताया- “ध्यान करो लेकिन ख्याल रहे कि ध्यान करते समय बन्दर की आकृति सामने न आए।” मानव प्रकृति की विचित्रता देखिये कि साधक जब भी ध्यान करने बैठता उसके सामने बन्दर की ही आकृति आकर खड़ी हो जाती । इसीलिये मैं कहता हूँ, जो नहीं चाहिये उसकी चर्चा ही बन्द कर दें । केवल उसी की चर्चा करें जो हमें चाहिये । 

स्वामी रामतीर्थ ने एक स्थान पर कहा “वासना के विरुद्ध अधिक गर्जन - तर्जन का परिणाम होता है, उस वस्तु का निर्माण कर देना जिससे मानव प्रकृति मुक्त है । हम अपनी शक्ति को उच्च लक्ष्य की ओर प्रेरित कर दें ।  फिर हमारे पास ऐसी चीजों के बारे में विचार करने के लिये समय ही नहीं रहेगा, जिसमें वासना की गंध आती हो ! ”

     राम कृष्ण परमहंस कहते हैं, ‘एक हाथ से संसार का कार्य करो और दूसरे हाथ से ईश्वर को पकड़े रखों, जैसे ही कार्य पूरा हो दोनों हाथ से ईश्वर को पकड़ लो । पहला धर्म है तो दूसरा अध्यात्म । इसलिए अध्यात्म अर्थात ‘स्व’ का साक्षात्कार । अर्थात ‘आत्मा’ के बोध और परमात्मा की दिव्यता-बोध में धर्म-दर्शन अर्थात् सांसारिक व्यवहार की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं । व्यवहार और उच्च चेतना के विचार में समन्वय करके जीना ही अध्यात्म और धर्म का आंतरिक सम्बन्ध है ।

 

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5 comments:

  1. अध्यात्म शब्द की व्युत्पत्ति को सही से लिखने की आवश्यकता है, व्याकरणगत अशुद्धि के साथ सटीक भावार्थ लिखना चाहिए।

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    1. ठीक कर दिया गया है , एक नज़र अवश्य दाल लें . सादर

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  2. सुन्दर। पढ़कर अत्यंत आनन्द की अनुभूति हुई। आपने अध्यात्म शब्द का सटीक एवं वास्तविक अर्थ व्यक्त किया है । आत्मतत्व की ओर गमन ही अध्यात्म है। यदि इसमें आत्मतत्व की ओर गमन के मार्ग को शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन एवं बुद्धि के मार्ग से होते हुए समझाया जाए तो पंचकोश की अवधारणा को भी एक कथा के माध्यम से संप्रेषित किया जा सकता है। क्रमशः सूक्ष्म शरीर एवं स्थूल शरीर जैसे विचारों का समावेश भी किया जा सकता है। इतने सार्थक विमर्श हेतु सादर साधुवाद 🙏🙏

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  3. भारतीय ज्ञान परंपरा में ऐसी गूढ़ व्याख्या जो सार तत्व को जानने को प्रेरित करती है । बहुत गहन और ज्ञान से परिपूर्ण आलेख । सादर।

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