भारतीय ज्ञान परम्परा
(ख) लोक के राम
लोक के राम : राम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इन्हें श्रीराम, श्रीरामचन्द्र, रघुनन्दन, राजाराम जैसे सहस्त्रों नामों से जाना जाता है। रामायण में वर्णन के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा, चक्रवर्ती सम्राट दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ (पुत्र प्राप्ति यज्ञ) कराया, जिसके फलस्वरूप चार पुत्रों का जन्म हुआ। श्रीराम का जन्म त्रेतायुग में ‘चैत्रेनावमिकेतिथौ।। नक्षत्रेऽदिति दैवत्येस्वोच्चसंस्थेषुपञ्चसु। ग्रहेषु ककर्टेलग्नेवाहस्पताविन्दुनासह।।’
अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर राम का जन्म देवी कौशल्या के गर्भ से अयोध्या में हुआ था। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या रामनवमी का पर्व मनाया जाता है।
श्रीराम ने मर्यादा-पालन और लोक कल्याण के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, कुटुम्ब का भी परित्याग किया। राम रघुकुल में जन्में थे, जिसकी परंपरा ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाई पर बचन न जाई।‘ की थी। माता-पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए, पति के साथ वन जाना उचित समझा। लक्ष्मण ने भी आदर्श भ्राता के रूप में राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरण पादुकाएँ ले आए, जिन्हें ही राज गद्दी पर रखकर राजकाज किया।
वनवासी अवधि में ही पत्नी सीता को रावण हरण कर ले गया। जंगल में राम को सुग्रीव जैसा मित्र और भक्त मिला, जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम की विशेषता रही है कि उनके सम्पर्क में आनेवाले छोटे से छोटे व्यक्ति का सहयोग लिया। भारतीय वैज्ञानिकता का उपयोग करते हुए राम समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे और रावण का बध कर सीता को वापस ले कर अयोध्या आये।
राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने आदर्श का पालन करते हुए राज्य राम को सौंप दिया। राम न्याय प्रिय थे। उन्होंने शासन का एक ऐसा आदर्श सुराज स्थपित किया जिसे लोग आज भी ‘रामराज्य’ की उपमा देते हैं।
भारतीय परंपरा के कई त्योहार, जैसे-दशहरा, रामनवमी और दीपावली राम कीवन-कथा से जुड़े हुए हैं तथा जीवन संघर्ष हेतु प्रेरणा देते हैं।
राम की व्याप्ति (क) में आई टिप्पणियों में एक टिप्पणी थी की कबीर के राम अलग थे ! इस सम्बन्ध में मेरा कहना है की राम की व्यापकता से संसार का कोई भक्त , संत, मुनि, ऋषि , साधक , आस्तिक , नास्तिक अछूता नहीं था तो कबीर राम की व्यापकता से कैसे दूर रह सकते हैं।
मेरा यह भी मानना है की पहले तो राम को धाराओं में बांटा गया फिर उसमे कुछ भक्त कवियों को बिठाया गया जो आज भी चल रहा है !
इसे ठीक से समझना होगा । विद्यार्थिओं को समझाने के लिए रामचंद्र शुक्ल जी कुछ सूत्र रूप में विषय तैयार करते थे और उसी सूत्र की देन हैं, कबीर निर्गुनिया संत हो गए ।
इसके पीछे के भी कारण थे कि कबीर को जुलाहा से ऊपर उठाकर संत नहीं बनाया गया, क्योकि कबीर यदि जुलाहा है तो वे सगुन रूप को कैसे मान सकते हैं और आलोचकों ने अपने बनाए सांचे में कबीर को ढाल दिया ।
दूसरा तर्क है कि कबीर कहते हैं -दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,राम नाम का मरम है आना।
अब इसके शब्दार्थ में नहीं सन्दर्भ में जाइये । राम नाम का मर्म क्या है ? कबीर के इस कथन को कभी उजागर नहीं किया गया क्यों ?
वस्तुतः कबीर अपने को जीव और राम को ब्रह्मस्वरूप बता रहे हैं क्यों ?
क्योंकि उनका मानना है कि अहंकार और भगवत प्रेम दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते। कबीर के इस कथन को भी याद करलें -‘हरि मेरा पिव मैं हरि की बहुरिया।’
और इतना ही नहीं गुरु नानक भी कहते हैं- ‘एक राम दशरथ का बेटा-एक राम घट घट में बैठा’ और रैदास कहते हैं-‘मन्दिर मस्जिद एक है, इन मंह अंतर नाहिं।'
रैदास को समझें - 'राम रहमान का, झगड़ऊ कोऊ नाहिं।’
तात्पर्य यह कि भारतीय संतों ने कभी भी राम को निर्गुण सगुन के घेरे में नहीं बांधा । रविदास से इसकों समझा जा सकता है ।
दूसरी टिप्पणी थी की राम बाल्मीक के पहले भी थे तो यह क्यों लिखा गया की बाल्मीक से राम कथा या राम का आदि काव्य बाल्मीकी है ?
प्रश्न अनुचित नहीं है किन्तु यह विचार करिए क्या वेदव्यास के पहले वेद (ज्ञान) नहीं थे । अनेक ऋषियों की अनुभूतियों को संग्रहीत कर चार वेद और मनचाहे वेद की शाखाएं बनी हैं ।
इसे तुलसी से भी समझना होगा कि -
‘रचि महेस निज मानस राखा।पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥’
फिर यदि आप बाल्मीक नारद संवाद पढ़े तो शायद यह भ्रम दूर हो जाएगा ?
तुलसी को फिर बड़े अर्थ में समझें -
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए ।
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
तर्क ,कुतर्क आलोचक नुमा कुछ विशिष्ट जनों का काम हैं । अपने राम तो चराचर जीवों के राम हैं, इतना ही नहीं तो पत्थर के अन्दर बसे राम को राम ने उजागर कर संसार के सामने हृदयहीन मस्तिष्क को प्रेरणा दी है।
अंत में -
‘राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
(क्रमशः)
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