Wednesday, 28 February 2024
भारतीय ज्ञान परम्परा को कैसे प्राप्त करें
Sunday, 25 February 2024
भारतीय ज्ञान परम्परा (ख) लोक के राम bhaarteey gyaan parmpaar (look men raam )
भारतीय ज्ञान परम्परा
(ख) लोक के राम
लोक के राम : राम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इन्हें श्रीराम, श्रीरामचन्द्र, रघुनन्दन, राजाराम जैसे सहस्त्रों नामों से जाना जाता है। रामायण में वर्णन के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा, चक्रवर्ती सम्राट दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ (पुत्र प्राप्ति यज्ञ) कराया, जिसके फलस्वरूप चार पुत्रों का जन्म हुआ। श्रीराम का जन्म त्रेतायुग में ‘चैत्रेनावमिकेतिथौ।। नक्षत्रेऽदिति दैवत्येस्वोच्चसंस्थेषुपञ्चसु। ग्रहेषु ककर्टेलग्नेवाहस्पताविन्दुनासह।।’
अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में पुनर्वसु नक्षत्र में, पांच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर राम का जन्म देवी कौशल्या के गर्भ से अयोध्या में हुआ था। श्रीराम जी चारों भाइयों में सबसे बड़े थे। हर वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को श्रीराम जयंती या रामनवमी का पर्व मनाया जाता है।
श्रीराम ने मर्यादा-पालन और लोक कल्याण के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, कुटुम्ब का भी परित्याग किया। राम रघुकुल में जन्में थे, जिसकी परंपरा ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्राण जाई पर बचन न जाई।‘ की थी। माता-पिता के वचन की रक्षा के लिए राम ने खुशी से चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार किया। पत्नी सीता ने आदर्श पत्नी का उदाहरण देते हुए, पति के साथ वन जाना उचित समझा। लक्ष्मण ने भी आदर्श भ्राता के रूप में राम के साथ चौदह वर्ष वन में बिताए। भरत ने न्याय के लिए माता का आदेश ठुकराया और बड़े भाई राम के पास वन जाकर उनकी चरण पादुकाएँ ले आए, जिन्हें ही राज गद्दी पर रखकर राजकाज किया।
वनवासी अवधि में ही पत्नी सीता को रावण हरण कर ले गया। जंगल में राम को सुग्रीव जैसा मित्र और भक्त मिला, जिसने राम के सारे कार्य पूरे कराये। राम की विशेषता रही है कि उनके सम्पर्क में आनेवाले छोटे से छोटे व्यक्ति का सहयोग लिया। भारतीय वैज्ञानिकता का उपयोग करते हुए राम समुद्र में पुल बना कर लंका पहुँचे और रावण का बध कर सीता को वापस ले कर अयोध्या आये।
राम के अयोध्या लौटने पर भरत ने आदर्श का पालन करते हुए राज्य राम को सौंप दिया। राम न्याय प्रिय थे। उन्होंने शासन का एक ऐसा आदर्श सुराज स्थपित किया जिसे लोग आज भी ‘रामराज्य’ की उपमा देते हैं।
भारतीय परंपरा के कई त्योहार, जैसे-दशहरा, रामनवमी और दीपावली राम कीवन-कथा से जुड़े हुए हैं तथा जीवन संघर्ष हेतु प्रेरणा देते हैं।
राम की व्याप्ति (क) में आई टिप्पणियों में एक टिप्पणी थी की कबीर के राम अलग थे ! इस सम्बन्ध में मेरा कहना है की राम की व्यापकता से संसार का कोई भक्त , संत, मुनि, ऋषि , साधक , आस्तिक , नास्तिक अछूता नहीं था तो कबीर राम की व्यापकता से कैसे दूर रह सकते हैं।
मेरा यह भी मानना है की पहले तो राम को धाराओं में बांटा गया फिर उसमे कुछ भक्त कवियों को बिठाया गया जो आज भी चल रहा है !
इसे ठीक से समझना होगा । विद्यार्थिओं को समझाने के लिए रामचंद्र शुक्ल जी कुछ सूत्र रूप में विषय तैयार करते थे और उसी सूत्र की देन हैं, कबीर निर्गुनिया संत हो गए ।
इसके पीछे के भी कारण थे कि कबीर को जुलाहा से ऊपर उठाकर संत नहीं बनाया गया, क्योकि कबीर यदि जुलाहा है तो वे सगुन रूप को कैसे मान सकते हैं और आलोचकों ने अपने बनाए सांचे में कबीर को ढाल दिया ।
दूसरा तर्क है कि कबीर कहते हैं -दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,राम नाम का मरम है आना।
अब इसके शब्दार्थ में नहीं सन्दर्भ में जाइये । राम नाम का मर्म क्या है ? कबीर के इस कथन को कभी उजागर नहीं किया गया क्यों ?
वस्तुतः कबीर अपने को जीव और राम को ब्रह्मस्वरूप बता रहे हैं क्यों ?
क्योंकि उनका मानना है कि अहंकार और भगवत प्रेम दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते। कबीर के इस कथन को भी याद करलें -‘हरि मेरा पिव मैं हरि की बहुरिया।’
और इतना ही नहीं गुरु नानक भी कहते हैं- ‘एक राम दशरथ का बेटा-एक राम घट घट में बैठा’ और रैदास कहते हैं-‘मन्दिर मस्जिद एक है, इन मंह अंतर नाहिं।'
रैदास को समझें - 'राम रहमान का, झगड़ऊ कोऊ नाहिं।’
तात्पर्य यह कि भारतीय संतों ने कभी भी राम को निर्गुण सगुन के घेरे में नहीं बांधा । रविदास से इसकों समझा जा सकता है ।
दूसरी टिप्पणी थी की राम बाल्मीक के पहले भी थे तो यह क्यों लिखा गया की बाल्मीक से राम कथा या राम का आदि काव्य बाल्मीकी है ?
प्रश्न अनुचित नहीं है किन्तु यह विचार करिए क्या वेदव्यास के पहले वेद (ज्ञान) नहीं थे । अनेक ऋषियों की अनुभूतियों को संग्रहीत कर चार वेद और मनचाहे वेद की शाखाएं बनी हैं ।
इसे तुलसी से भी समझना होगा कि -
‘रचि महेस निज मानस राखा।पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥’
फिर यदि आप बाल्मीक नारद संवाद पढ़े तो शायद यह भ्रम दूर हो जाएगा ?
तुलसी को फिर बड़े अर्थ में समझें -
हरि अनंत हरि कथा अनंता।
कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए ।
कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥
तर्क ,कुतर्क आलोचक नुमा कुछ विशिष्ट जनों का काम हैं । अपने राम तो चराचर जीवों के राम हैं, इतना ही नहीं तो पत्थर के अन्दर बसे राम को राम ने उजागर कर संसार के सामने हृदयहीन मस्तिष्क को प्रेरणा दी है।
अंत में -
‘राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥
(क्रमशः)
भारतीय ज्ञान परम्परा (क) राम की व्याप्ति bhaarteey gyaan parmparaa (a) raam kii vyaapti
भारतीय
ज्ञान परम्परा
(क)
राम की व्याप्ति
‘राम’ व्युत्पत्तिएवं अर्थ: ‘रम्’ धातु में ‘घञ्’ प्रत्यय के योग से ‘राम’
शङ्घ द निष्पन्न होता है। ‘रम्’ का अर्थ रमण (निवास, विहार)
करने से संबद्ध है। वे प्राणिमात्र के हृदय में ‘रमण’ (निवास)
करते हैं, इसलिए ‘राम’ हैं, तथा भक्त
जन उनमें ‘रमण’ करते (ध्यान निष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे ‘राम’
हैं - ‘रमते कणे कणे इतिराम:’। आद्य शंकराचार्य ने ‘पद्मपुराण’ का उदाहरण देते हुए
कहा है कि 'नित्यानन्दस्वरूपभगवान् में योगिजन रमण करते हैं,
इसलिए वे ‘राम’ हैं।‘ राम को राष्ट्र का प्रतीक मानते हुए संतों
कीपरंपरा में ‘रा’ अर्थात् राष्ट्र और ‘म’ अर्थात् मंगल। यानी राम राष्ट्र के मंगल
(कल्याण) के प्रतीक हैं।
राम की व्याप्ति और
विस्तार: राम के परिचय का आधार ‘रामकथा’ है। भारतीय जीवन मूल्य कीआन्तरिक संरचना
के ताने-बाने में ‘रामकथा’ गुम्फित है। भारतीय संस्कृति के उद्दात-मूल्यों का सृजन
‘रामकथा’ के मूल में है। इसी रूप में इस कथा कीकालजयिता भी सिद्ध होती है। ‘रामकथा’
में निबद्ध संवेदना भारतीयता के मूल स्वत्वों का विस्तार करती है। समय के बदलावों
में इस कथा कीशक्ति कभी क्षीण नहीं हुई। ‘राम’ कथा कीयह सांस्कृतिक व्यापकता
इतिहास के परिवर्तन के साथ विस्तार पाती गई। माना जाता है कि ‘राम’ ने अपने जीवन
से लोक को अभिव्यक्ति दी तो लोक ने ‘रामकथा’ को युगानुरूप विकसित कर विस्तार
दिया।
राम कथा का मूल आधार
आदिकवि वाल्मीकि की संस्कृत भाषा में रचित ‘रामायण’ है। ‘रामायण’ के बाद ही
साहित्य और समाज में राम का परिचय आया। संस्कृत के साथ अन्य भारतीय भाषाओं में इस
रामायण को स्रोत रूप में ग्रहण किया गया। काव्य, नाटक,
कथा और अन्य साहित्यिक विधाओं में ‘रामायण’ को आधार बनाकर विपुल
साहित्य का सृजन हुआ। राम के जीवन पर शोध करने वाले कामिल बुल्के लिखते हैं,
'रामकथा अनेक रूप धारण करते हुए शनै: शनै: संपूर्ण भारतीय-संस्कृति
में व्याप्त हो गयी है। उसकीअद्वितीय लोकप्रियता निरन्तर अक्षुण्ण ही नहीं वरन्
शताब्दियों तक जिन कृतियों में उनकीझलक मिलती है उनमें-‘भुशुण्डिरामायण’, ‘योगवसिष्ठ’, ‘अध्यात्मरामायण’, ‘अद्भुत्रामायण’, ‘आनन्द रामायण’, प्रमुख हैं
उपनिषदों, पुराणों,
जैन, बौद्ध और प्राकृत साहित्य में भी रामकथा
व्याप्त है। बौद्ध परंपरा में श्रीराम से संबंधित दशरथजातक, अनामकजातक
तथा दशरथकथानक नामक तीन जातक कथाएँ उपलब्ध हैं। जैन साहित्य में रामकथा सम्बन्धी
कई मुख्य ग्रंथ -विमलसूरिकृत ‘पउमचरियं’ (प्राकृत), आचार्य रविशेणकृत ‘पद्मपुराण’ (संस्कृत), स्वयंभू कृत ‘पउमचरिउ’ (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्रपुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तरपुराण (संस्कृत) आदि हैं।
परमार भोज ने भी ‘चंपुरामायण’ में राम कथा का वर्णन किया है। महाभारत में भी ‘रामोपाख्यान’
के रूप में आरण्यक पर्व (वनपर्व) में प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त ‘द्रोणपर्व’ तथा
‘शांतिपर्व’ में भी राम के सन्दर्भ उपलब्ध्
हैं।
राम को विष्णु का
अवतार माना गया। ‘राम’ का जीवन हमारे संवेगों को अधिक प्रभावित करता हैं।
कुबेरनाथराय ‘रामायण महातीर्थम्’ नामक पुस्तक में लिखते हैं, 'श्रीराम भारतीय परंपरा में सर्वाधिक व्यापक और संकल्प-संवेग-संपन्न नायक हैं।
भारतीय परंपरा पूरे एक समाज के सामने आती है और वह समाज भारत के आज के मानचित्र से
ज्यादा व्यापक है।
वह वंक्षुधारा से लेकर पूर्वीद्वीप समूह तक के संपूर्ण मनोमय भारत से है। यानी ‘सेरेहिन्दी’,
‘लघुहिन्दी’, ‘हिन्दखास’ एवं ‘हिन्देशिया’ के
साथ-साथ महाचीन-तिब्बत तक। इस समूचे विशाल भूखण्ड में कुरतन (खोतान) से लेकर
कम्पूचिया तक राम कथा के भिन्न-भिन्न संस्करण पाये जाते हैं। इस प्रकार इस बहुरूपी
विस्तार से इसकीआन्तरिक ऋद्धि तो समृद्धतर हुई ही है, यह
तथ्य इस बात का भी संकेत देता है कि राम का वास्तविक इतिहास है।’
आज की स्थिति में रमाकथा पर आधारित ग्रंथ तीन
सौ से लेकर तीन हजार तक कीसंख्या में विविध रूपों में मिलते हैं। श्रीराम का चरित
भारतीय भाषाओं में जैसे- मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगु तथा उड़िया, गुजराती,
कन्नड़, मलयालम, असमिया,
उर्दू, आदि में मिलते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास
कृत ‘रामचरितमानस’ विश्व
के कोने-कोने में श्रीराम के चरित को पहुँचाया है। भगवान भोलनाथ आदिदेव महादेव से
प्रारंभ होकर यह राम का चरित, महर्षि नारद, लोमश, याज्ञवल्क्य, कागभुशुण्डि,
महाकवि कालिदास, भट्ट, प्रवरसेन,
क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर,
कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव,
समर्थ रामदास, संत तुकड़ोजी महाराज, केशवदास, सूरदास, स्वामी
करपात्री, मैथिलीशरण गुप्त, आदि
ऋषियों-मुनियों, संतों, आचार्यों और
कवियों ने अलग-अलग भाषाओं में राम को जन-जन तक पहुँचाया है।
विदेशों में भी
तिब्ब्ती रामायण, पूर्वी तुकिर्स्तान कीखोतानी रामायण,
इंडोनेशिया कीकबिन रामायण, जावा का सेरतराम,
सैरीराम, पातानी रामकथा, इण्डो चायना कीरामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैर रामायण,
बर्मा (म्यांम्मार) कीयूतोकीरामयान, थाईलैंड
कीराम कियेन आदि में रामचरित्र का व्यापक विस्तार है। (क्रमशः)