अरविन्द जी ने
भविष्यवाणी करते हुए लिखा है ”युग युगान्तरों से भारत की ओजश्वी वाणी कोई
अन्तिम शब्द नहीं है। वह जीवित है उसे संसार तथा मानवता को बहुत कुछ देना शेष है।”
भारत का ज्ञान विज्ञान ऋृषि मनीषियों की जीवन की प्रयोगशाला से
आविष्कृत सिध्दान्त, हमारी संस्कृति, हमारी
पा्ठयचर्या और पाठयक्रम का भाग बनना चाहिए। हीन भावना से मुक्ति देश के लिए
वैकल्पिक शिक्षा का प्रथम सोपान है।
बाजार, मण्डी
तथा प्रतिस्पर्धाओं ने शिक्षा जगत को भी प्रभावित किया है। जीवन मूल्यों, चरित्र निर्माण तथा व्यक्तित्व विकास की शिक्षा का पाठयचर्या तथा पाठयक्रम
में कोई स्थान नहीं होने से शिक्षा की परिभाषा बौनी हो गई है। केवल जानकारियों के ढ़ेर को
मस्तिष्क में ठूंसने का प्रयास हो रहा है जिस के परिणामस्वरुप लक्ष्यविहीन युवा
पीढ़ी स्वेच्छाचारी बनती जा रही है। आधुनिकता के नाम पर पाश्यात्यीकरण का प्रभाव,
वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन,
मन मस्तिष्क को प्रदूषित करता जा रहा है।
समान संस्कृति के नाम
पर प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को भारत के पाठय पुस्तकों से बहिष्कृत कर दिया गया है।
आधुनिकता के नाम पर
प्राचीन बुध्दिमत्ता से विछोह हो गया है और देश की धरती से सम्बन्धविच्छेद कर दिया
गया है।
यूनेस्को के
कथनानुसार किसी भी देश की शिक्षा का सम्बन्ध उस देश की संस्कृति के सरंक्षण तथा
विकास के लिये होना चाहिए ज्ीम मकनबंजपवद व िजीम बवनदजतल ेीवनसक इम तववजमक जव पजे
बनसजनतम ंदक ूमककमक जव पजे हतवूजीश्
हमारी संस्कृति के
तीन मुख्य वैशिष्टय है रू-
ऽ सत्य एक है विद्वान लोग उसे अनेक ढंगो
से कहते है ”एकं सद् विप्रारू बहुधा वदन्ति”
ऽ विश्व एक परिवार है। प्रतिस्पर्धा की
मण्डी नहीं,
इस में सहयोग, सहकारिता तथा साझेदारी का भाव है।
ऽ सृष्टि में एकात्मकता है, सहअस्तित्व
है, अनेकता में एकता है।
भारतीय दर्शन के इन
तीन सूत्रों के आधार पर ही वैश्वीकरण की संकल्पना को सार्थक किया जा सकता है और ”सर्वे
भवन्तु सुखिनरू और सर्वेसन्तु निरामयारू” का वेद कथन विश्व
शन्ति का आश्वासन बन सकता है। गुरुकुलों की स्थापना प्रायरू वनों, उपवनों तथा ग्रामों या नगरों में की जाती थी। वनों में गुरुकुल बहुत कम
होते थे। अधिकतर दार्शनिक आचार्य निर्जन वनों में निवास, अध्ययन
तथा चिन्तन पसन्द करते थे।वाल्मीकि, सन्दीपनि, कण्व आदि ऋषियों के आश्रम वनों में ही स्थित थे और इनके यहाँ दर्शन
शास्त्रों के साथ-साथ व्याकरण, ज्योतिष तथा नागरिक शास्त्र
भी पढ़ाये जाते थे। अधिकांश गुरुकुल गांवों या नगरों के समीप किसी वाग अथवा वाटिला
में बनाये जाते थे। जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे
दो लाभ थेय एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था। मनु के
अनुसार ृब्रह्मचारों को गुरु के कुल में, अपनी जाति वालों
में तथा कुल बान्धवों के यहां से भिक्षा याचना नहीं करनी चाहिए, यदि भिक्षा योग्य दूसरा घर नहीं मिले, तो
पूर्व-पूर्व गृहों का त्याग करके भिक्षा याचना करनी चाहिये। इससे स्पष्ट होता है
कि गुरुकुल गांवों के सन्निकट ही होते थे। स्वजातियों से भिक्षा याचना करने में
उनके पक्षपात तथा ब्रह्मचारी के गृह की ओर आकर्षण का भय भी रहता था अतएव
स्वजातियों से भिक्षा-याचना का पूर्ण निषेध कर दिया गया था। बहुधा राजा तथा
सामन्तों का प्रोत्साहन पाकर विद्वान् पण्डित उनकी सभाओं की ओर आकर्षित होते थे और
अधिकतर उनकी राजधानी में ही बस जाते थे, जिससे वे नगर शिक्षा
के केन्द्र बन जाते थे। इनमें तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा,
तंजोर आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार तीर्थ स्थानों की ओर भी
विद्वान् आकृष्ट होते थे। फलतरू काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बन गये।
कभी-कभी राजा भी अनेक
विद्वानों को आमंत्रित करके दान में भूमि आदि देकर तथा जीविका निश्चित करके उन्हें
बसा लेते थे। उनके बसने से वहां एक नया गांव बन जाता था। इन गांवों को ृअग्रहारश्
कहते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों एवं मठों के आचार्यों के
प्रभाव से ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन
गये। इनमें शंकराचार्य,
रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध
हैं। सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएँ सर्वप्रथम बौद्ध विहारों में स्थापित हुई थीं।
भगवान बुद्ध ने उपासकों की शिक्षा-दीक्षा पर अत्यधिक बल दिया। इस संस्थाओं में
धार्मिक ग्रन्थों का अध्यापन एवं आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (३०० ई.
पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति करायी। कुछ समय पश्चात् ये विद्या के महान
केन्द्र बन गये। ये वस्तुतरू गुरुकुलों के ही समान थे। किन्तु इनमें गुरु किसी एक
कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। ये धर्म प्रचार की
दृष्टि से जनसाधारण के लिए भी सुलभ थे। इनमें नालन्दा विश्वविद्यालय (४५० ई.),
वल्लभी (७०० ई.), विक्रमशिला (८०० ई.) प्रमुख
शिक्षण संस्थाएँ थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मन्दिरों में
विद्यालय खोले जो आगे चल कर मठों के रूप में परिवर्तित हो गये।
आलोच्य काल में
नारियों के लिए किसी प्रकार की पाठशाला का पृथक्-प्रबन्ध किया गया हो ऐसा वर्णन
प्राप्त नहीं होता। बौद्धों ने अपने विहारों में भिक्षुणियों की शिक्षा की
व्यवस्था की थी किन्तु कालान्तर में उसके भी उदाहरण प्राप्त नहीं होते। वस्तुतरू
कन्याओं के लिए पृथक् पाठशालाएँ न थीं। जिन कन्याओं को गुरुकुल में अध्ययन करने का
अवसर प्राप्त होता था वे पुरुषों के साथ ही अध्ययन करती थीं। उत्तररामचरित में
वाल्मीकिके आश्रम में आत्रेयी अध्ययन कर रही थी। भवभूति ने ृमालती माधवश्
(प्रथमांक) में कामन्दकी के गुरुकुल में अध्ययन करने का वर्णन किया है। किन्तु ये
उदाहरण बहुत कम हैं। अधिकतर गुरुपत्नी, गुरुकन्या अथवा गुरु की
पुत्रवधू ही गुरुकुल में रहने के कारण अध्ययन का लाभ उठा पाती थीं वस्तुतरू
शास्त्रों के अनुरोध पर कन्याओं की शिक्षा गृह पर ही होती थी।
प्राचीन भारत में
गुरु के प्रत्यक्ष निरीक्षण में रहकर विद्योपार्जन श्रेष्ठ माना जाता था। अतएव
अधिकांश विद्यार्थी गुरु कुलों में ही रहते थे। गुरु जन अपने घर पर ही विद्यार्थी
के आवास-निवास की व्यवस्था करते थे। भोजन का कार्य भिक्षा वृत्ति द्वारा चलता था
अथवा अध्यापक के गृह में भी व्यवस्था हो जाती थीं। उस समय एक गुरु के पास एक साथ
प्रायरू पन्द्रह से अधिक विद्यार्थी नहीं पढ़ते थे। कभी-कभी तो केवल चार विद्यार्थी
ही एक गुरु के अधीन अध्ययन करते थे। अतएव उनके भोजन व निवास की व्यवस्था करना गुरु
के लिए कोई कठिन कार्य नहीं होता था। किन्तु गुरु के विद्यार्थियों का प्रबन्ध
करने में असमर्थ होने पर विद्यार्थी अपने रहने का प्रबन्ध स्वयं करते थे।
प्रागैतिहासिक काल में साहित्यिक तथा व्यावसायिक हर प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था
परिवार में ही होती थी। ऐसी अवस्था में सम्भवतरू सगे भाई-बहन तथा चचेरे भाई-बहन
सम्मिलित होकर ही परिवार के शिक्षित अग्रजनों के संरक्षण में विद्योपार्जन करते
रहे होगे। किन्तु धीरे-धीरे विद्या के भण्डार में प्रचुर वृद्धि हो जाने से
विशेषाध्ययन की ओर लोगों की रुचि बढ़ने लगी। अतएव विद्यार्थियों के लिए परिवार से
दूरस्थ स्थानों पर जाकर प्रतिष्ठित विद्वानों के संरक्षण में वांछित विषयों का
अध्ययन करना आवश्यक हो गया। प्रायरू कन्याओं को भी उच्च शिक्षा प्राप्त करने के
लिए घर के बाहर विद्वान् आचार्यों के पास जाना पड़ता था। किन्तु इस सम्बन्ध में
हमारे ग्रन्थों से बहुत कम संकेत प्राप्त होते हैं।
उत्तररामचरित में
वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख हुआ
है। जो इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि उस युग में सह-शिक्षा का प्रचार था। इसी
प्रकार ृमालती-माधवश् में भी भवभूति ने भूरिवसु एवं देवराट के साथ कामन्दकी नामक
स्त्री के एक ही पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन किया है। भवभूति आठवी
शताब्दी के कवि हैं। अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि यदि भवभूति के समय में नहीं तो
उनसे कुछ समय पूर्व तक बालक-बालिकाओं की सह-शिक्षा का प्रचलन अवश्य रहा होगा। इसी
प्रकार पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएं
वर्णित हैं। इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएं बालकों के साथ-साथ पाठशालाओं में पढ़ती
थीं तथा उनका विवाह युवती हो जाने पर होता था। परिणामतरू कभी-कभी गान्धर्व विवाह
भी हो जाते थे। ये समस्त प्रमाण इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि उस युग में
स्त्रियाँ बिना पर्दे के पुरुषों के बीच रह कर ज्ञान की प्राप्ति कर सकती थीं। उस
युग में सहशिक्षा-प्रणाली का अस्तित्व भी इनसे सिद्ध होता है। गुरुकुलों में
सहशिक्षा का प्रचार था, इस धारणा का समर्थन आश्वलायन गृह
ससूत्र में र्व णित समावर्तन संस्कार की विधि से भी मिलता है। इस विधि में स्नातक
के अनुलेपन क्रिया के वर्णन में बालक एवं बालिका का समार्वतन संस्कार साथ-साथ
सम्पन्न होना पाया जाता है। उस युग में स्त्री के ब्रह्मचर्याश्रम, वेदाध्ययन तथा समावर्तन संस्कार का औचित्य आश्वलायन के मतानुसार प्रमाणित
हो जाता है।
पूर्व काल में जब बड़ी
संख्या में स्त्रियां उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही थीं और अपना अमूल्य योगदान देकर
साहित्य के गौरव को बढ़ा रही थीं, उस समय उनमें से कुछ अध्यापन कार्य भी
अवश्य ही करती होंगी। संस्कृत साहित्य में उपाध्याया एवं उपाध्यायानी शब्दों का
प्रयोग पाया जाता है। उपाध्याय की पत्नी को आदर पूर्वक उपाध्यायानी कहा गया है,
किन्तु उपाध्याया उन विदुषी नारियों के लिये प्रयुक्त हुआ है जो
अध्यापन कार्य करती थीं। महिला शिक्षिकाओं का बोध कराने वाले एक अन्य शब्द की रचना
करने की आवश्यकता पड़ना तभी सम्भव रहा होगा जबकि महिला शिक्षिकाएँ पर्याप्त संख्या
में रही हों। इसके अतिरिक्त पर्दाप्रथा बारहवीं शताब्दी के बाद भारतीय समाज में
आयी, अतएवं स्त्रियों के लिए अध्यापन कार्य में किसी प्रकार
के बन्धन की सम्भावना भी न थी। हो सकता है ये उपाध्यायाएँ केवल कन्याओं को ही
पढ़ाती रही हों अथवा बालक-बालिकाओं दोनों को। पाणिनि ने भी आचार्य एवं आचार्यानी के
अन्तर को स्पष्ट किया है तथा छात्रीशालाओं का उल्लेख किया है। इससे भी अनुमान
लगाया जा सकता है कि आचार्याएँ इन छात्रीशालाओं की संरक्षि-काएँ भी होती होंगी।
रामदास गौड़ ने लिखा है- ृहर्ष के बाद सातवीं-आठवीं शती में भी स्त्रियों के
अध्यापन कार्य का पता मिलता है। शंकराचार्य से हार जाने के फलस्वरूप अपने पति
मण्डन मिश्र के सन्यास ले लेने पर उभयभारती श्रृंगगिरि में अध्यापन कार्य करने लगी
थी। कहा जाता है कि भारती द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के कारण ही शृंगेरी और
द्वारका के मठों का शिष्य सम्प्रदाय ृभारतीश् नाम से अभिहित हुआ। किन्तु फिर भी
स्थान की कमी एवं असुविधाओं के कारण अधिकांश कन्याएँ घर पर ही पढ़ती होंगी तथा उच्च
शिक्षा प्राप्त करने का साहस न कर पाती होंगी। सम्भवतरू इसी कारण इन छात्राशालाओं
एवं उपाध्यायाओं के सम्बन्ध में अधिक विवरण प्राप्त नहीं होते। यद्यपि इस काल में
मैत्रेयी, गार्गी, विश्ववारा एवं
लीला-वती के समान उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएँ थी, किन्तु
इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि इस युग में स्त्री शिक्षा का पर्याप्त
प्रचलन था अथवा स्त्री-शिक्षा अपने संगठित रूप में विद्यमान थी। इस सम्बन्ध में
एल। मुकर्जी के अनुसार--ृयह सम्भव है कि इस युग में स्त्रियों के लिए शिक्षा की
कोई संगठित व्यवस्था नहीं थीं। प्राचीन भारत में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ
थीं-
ऽ (१) गुरुकुल- जहाँ विद्यार्थी आश्रम
में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,
ऽ (२) परिषद- जहाँ विशेषज्ञों द्वारा
शिक्षा दी जाती थी,
ऽ (३) तपस्थली- जहाँ बड़े-बड़े सम्मेलन
होते थे और सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था। नैमिषारण्य ऐसा ही एक
स्थान था।
गुरुकुल आश्रमों में
कालांतर में हजारों विद्यार्थी रहने लगे। ऐसे आश्रमों के प्रधान श्कुलपतिश् कहलाते
थे। रामायण काल में वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गये
थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था। इस प्रकार का एक और
प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था।ख्2
श्गुरुकुलश् का
शाब्दिक अर्थ है श्गुरु का परिवारश् अथवा श्गुरु का वंशश्। परंतु यह सदियों से
भारतवर्ष मे शिक्षासंस्था के अर्थ में व्यवहृत होता रहा है। गुरुकुलों के इतिहास
में भारत की शिक्षाव्यवस्था और ज्ञानविज्ञान की रक्षा का इतिहास समाहित है। भारतीय
संस्कृति के विकास में चार पुरुषार्थों, चार वर्णो और चार आश्रमों की
मान्यताएँ तो अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अन्योन्याश्रित थी ही, गुरुकुल भी उनकी सफलता में बहुत बड़े साधक थे। यज्ञ और संस्कारों द्वारा
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बालक 6, 8
अथवा 11 वर्ष की अवस्थाओं में गुरुकुलों में ले जाए जाते थे
(यज्ञोपवीत, उपनयन अथवा उपवीत) और गुरु के पास बैठकर
ब्रह्मचारी के रुप में शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु उनके मानस और बौद्धिक
संस्कारों को पूर्ण करता हुआ उन्हें सभी शास्त्रों एवं उपयोगी विद्याओं की शिक्षा
देता तथ अंत में दीक्षा देकर उन्हें विवाह कर गृहस्थाश्रम के विविध कर्तव्यों का
पालन करने के लिए वापस भेजता। यह दीक्षित और समावर्तित स्नातक ही पूर्ण नागरिक
होता और समाज के विभिन्न उत्तरदायित्वों का वहन करता हुआ त्रिवर्ग की प्राप्ति का
उपाय करता। स्पष्ट है, भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विकास
में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण योग था।
गुरुकुल प्रायरू
ब्राह्मण गृहस्थों द्वारा गाँवों अथवा नगरों के भीतर तथा बाहर दोनों ही स्थानों
में चलाए जाते थे। गृहस्थ विद्वान और कभी कभी वाणप्रस्थी भी दूर दूर से
शिक्षार्थियों को आकृष्ट करते और अपने परिवार में और अपने साथ रखकर अनेक वर्षों तक
(आदर्श और विधान पच्चीस वर्षों तक का था) उन्हें शिक्षा देते। पुरस्कार स्वरुप
ब्रह्मचारी बालक या तो अपनी सेवाएँ गुरू और उसके परिवार को अर्पित करता या संपन्न
होने की अवस्था में अर्थशुल्क ही दे देता। परंतु ऐसे आर्थिक पुरस्कार और अन्य
वस्तुओं वाले उपहार दीक्षा के बाद ही दक्षिणास्वरूप दिए जाते और गुरु विद्यादान
प्रारंभ करने के पूर्व न तो आगंतुक विद्यार्थियों से कुछ माँगता और न उनके बिना
किसी विद्यार्थी को अपने द्वार से लौटाता ही था। धनी और गरीब सभी योग्य
विद्यार्थियों के लिए गुरुकुलों के द्वार खुले रहते थे। उनके भीतर का जीवन सादा, श्रद्धापूर्ण,
भक्तिपरक और त्यागमय होता था। शिष्य गुरु का अंतेवासी होकर (पास
रहकर) उसके व्यक्तित्व और आचरण से सीखता। गुरु और शिष्य के आपसी व्यवहारों की एक
संहिता होती और उसका पूर्णतरू पालन किया जाता। गुरुकुलों में तब तक जाने हुए सभी
प्रकार के शास्त्र और विज्ञान पढ़ाए जाते और शिक्षा पूर्ण हो जाने पर गुरु शिष्य की
परीक्षा लेता, दीक्षा देता और समावर्तन संस्कार संपन्न कर
उसे अपने परिवार को भेजता। शिष्यगण चलते समय अपनी शक्ति के अनुसार गुरु को दक्षिणा
देते, किंतु गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त भी कर दिए जाते थे।
भारतवर्ष में
गुरुकुलों की व्यवस्था बहुत दिनों तक जारी रही। राज्य अपना यह कर्तव्य समझता था कि
गुरुओं और गुरुकुलों के भरण पोषण की सारी व्यवस्था करें। वरतंतु के शिष्य कौत्स ने
अत्यंत गरीब होते हुए भी उनसे कुछ दक्षिणा लेने का जब आग्रह किया तो गुरु ने
क्रुद्ध होकर एक असंभव राशि चैदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ-माँग दीं। कौत्स ने राजा
रघु से वह धनराशि पाना अपना अधिकार समझा और यज्ञ में सब कुछ दान दे देनेवाले उस
अकिंचन राजा ने उस ब्राह्मण बालक की माँग पूरी करने के लिए कुबेर पर आक्रमण करने
की ठानी। रघुवंश की इस कथा में अतिमानवीय पुट चाहे भले हों, शिक्षासंबंधी
राजकर्तव्यों का यह पूर्णरूपेण द्योतक है। पालि साहित्य में ऐसी अनेक चर्चाएँ
मिलती हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्रसेनजित जैसे राजाओं ने
उन वेदनिष्णात ब्राह्मणों को अनेक गाँव दान में दिए थे, जो
वैदिक शिक्षा के वितरण के लिए गुरुकुल चलाते। यह परंपरा प्रायरू अधिकांश शासकों ने
आगे जारी रखी और दक्षिण भारत के ब्राह्मणों को दान में दिये गए ग्रामों में चलने
वाले गुरुकुलों और उनमें पढ़ाई जानेवाली विद्याओं के अनेक अभिलेखों में वर्णन मिलते
हैं। गुरुकुलों के ही विकसित रूप तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वलभी के विश्वविद्यालय थे। जातकों, ह्वेवनेसांग
के यात्राविवरण तथा अन्य अनेक संदर्भों से ज्ञात होता है कि उन विश्वविद्यालयों
में दूर दूर से विद्यार्थी वहाँ के विश्वविख्यात अध्यापकों से पढ़ने आते थे।
वाराणसी अत्यंत प्राचीन काल से शिक्षा का मुख्य केंद्र थी और अभी हाल तक उसमें
सैकड़ों गुरुकुल, पाठशालाएँ रही हैं और उनके भरण पोषण के लिए
अन्नक्षेत्र चलते रहे। यही अवस्था बंगाल और नासिक तथा दक्षिण भारत के अनेक नगरों
में रही। 19वीं शताब्दी में प्रारंभ होनेवाले भारतीय
राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन गुरुकुलों की परंपरा पर
अनेक गुरुकुल स्थापित किए गए और राष्ट्रभावना के प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योग
रहा। यद्यपि आधुनिक अवस्थाओं में प्राचीन गुरुकुलों की व्यवस्था को यथावत पुनरू
प्रतिष्ठित तो नहीं किया जा सकता, तथापि उनके आदर्शों को
यथावश्यक परिवर्तन के साथ अवश्य अपनाया जा सकता है।
प्राचीन भारतीय
गुरुकुलों में कुलपति हुआ करते थे। कालिदास ने वसिष्ठ तथा कण्व ऋषि को (रघुवंश, प्रथम,
95 तथा अभि. शा., प्रथम अंक) कुलपति की संज्ञा
दी है। गुप्तकाल में संस्थापित तथा हर्षवर्धन के समय में अपनी चरमोन्नति को
प्राप्त होनेवाले नालंदा महाविहार नामक विश्वविद्यालय के कुछ प्रसिद्ध तथा विद्वान
कुलपतियों के नाम ह्वेन्सांग के यात्राविवरण से ज्ञात होता हैं। बौद्ध भिक्षु
धर्मपाल तथा शीलभद्र उनमें प्रमुख थे।
प्राचीन भारतीय काल
में अध्ययन अध्यापन के प्रधान केंद्र गुरुकुल हुआ करते थे, जहाँ
दूर दूर से ब्रह्मचारी विद्यार्थी, अथवा सत्यान्वेषी
परिव्राजक अपनी अपनी शिक्षाओं को पूर्ण करने जाते थे। वे गुरुकुल छोटे अथवा बड़े
सभी प्रकार के होते थे। परंतु उन सभी गुरुकुलों को न तो आधुनिक शब्दावली में
विश्वविद्यालय ही कहा जा सकता है और न उन सबके प्रधान गुरुओं को कुलपति ही कहा
जाता था।, स्पष्ट है, जो ब्राह्मण ऋषि
दस हजार मुनि विद्यार्थियों को अन्नादि द्वारा पोषण करता हुआ उन्हें विद्या पढ़ाता
था, उसे ही कुलपति कहते थे। ऊपर उद्धृत श्स्मृतःश् शब्द के
प्रयोग से यह साफ दिखाई देता है कि कुलपति के इस विशिष्टार्थग्रहण की परंपरा बड़ी
पुरानी थी। कुलपति का साधारण अर्थ किसी कुल का स्वामी होता था। वह कुल या तो एक
छोटा और अविभक्त परिवार हो सकता था अथवा एक बड़ा और कई छोटे छोटे परिवारों का समान
उद्गम वंशकुल भी। अंतेवासी विद्यार्थी कुलपति के महान विद्यापरिवार का सदस्य होता
था और उसके मानसिक और बौद्धिक विकास का उत्तरदायित्व कुलपति पर होता थाय वह
छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य और सुख की भी चिंता करता था। आजकल इस शब्द का प्रयोग
विश्वविद्यालय के श्वाइसचांसलरश् के लिए किया जाता है।
इतिहासकार
धर्मपाल का भारत बोध धर्मपाल
जी गाँधी युग में पले बढे , गाँधी के
आन्दोलन में भाग लिया . हमें
तो गत दो तीन हजार वर्ष के भारत और उसके समाज को समझाने की आवश्यकता है । लगभग १७५० से १८५० तक
अंग्रेजों द्वारा अपने अधिकारियों और साथियों को लिखे पत्रों की संख्या शायद
करोडो दस्तावेजों में होगी । उसमें
७० से ८० प्रतिशत प्रतिलिपियां भारत के मद्रास ,कोलकता, मुंबई, दिल्ली के
अभिलेखागारों में होगी । १९५७ में asoociation of
voluntary agencies for rural development (AVARD) के सचिव बने। 1971 में इंडियन
साइंस एंड टेक्नोलॉजी इन द एटीन्थ सेंचुरी और सिविल डिसओबिडीएंस इन इंडियन
ट्रेडीसन पुस्तक आई जिसका विमोचन डॉ दौलत सिंह कोठारी ने किया। विश्व
में प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक अलग पहचान होती है। यह पहचान उसकी परम्परा, जीवन शैली मान्यताओं, दैनिंदिन
व्यवहार के कारण होती है । उसे
ही संस्कृति कहते हैं ।
सामान्य रूप से विश्व में दो प्रकार की विचार और व्यवहार शैलियाँ
होती आई है। एक शैली दूसरों को अपना जैसा बनाने की
आकांक्षा रखती है ।
अपना जैसा बनाने में कत्लेआम, जोर जबरदस्ती और जुल्म करने में
हिचकती नहीं । यहाँ तक की दूसरा समाप्त हो जाये उसकी भी
परवाह नहीं करती ।
दूसरी शैली दूसरों के स्वत्वों का समादर कराती है । दूसरे का स्वत्व बना रहता है और दोनों एक
दूसरे के सहयोगी होते हैं । स्पष्ट
है पहला यूरोपीय और अमरीकी शैली है, तो दूसरी भारतीय। यह सर्वविदित है की भारतीय संस्कृत विश्व की
सबसे प्राचीन संस्कृति है, किन्तु पिछले ५०० वर्षों से यूरोप ने अपना विस्तार
करना शुरू किया और सम्पूर्ण विश्व में फ़ैल जाने की उसकी आकांक्षा थी। भारत में ईस्ट इन्डिय कंपनी आई । समुद्र तटीय देशों में उसने अपने व्यापार केंद्र
खोले। उन केन्द्रों को किलों का नाम रखा और उसमें सेना और औजार भी रखने प्रारम्भ किये। १८२० तक सम्पूर्ण भारत
लगभग अंग्रेजों के प्रभाव में चला गया । भारत के साथ उनकी मुठभेड़ से संबंधित समान अभिलेखागार भी बनाए
रखा लेकिन ये छोटे थे । यह सभी ब्रिटिश अभिलेखीय सामग्री (जिनमें से कुछ एकत्रित
लेखन में प्रस्तुत या संदर्भित हैं) ज्यादातर भारत के कुछ पहलुओं पर आधारित हैं,
जैसा कि अंग्रेजों द्वारा देखा और समझा गया था । सामग्री मोटे तौर पर तीन
क्षेत्रों में आती है: पहला भारत के विवरण, इसके भौतिक परिदृश्य, कुछ
क्षेत्रों में इसके लोगों के तौर-तरीकों, उनके सार्वजनिक
जीवन, त्योहारों, सांस्कृतिक जीवन और
संस्थानों, भारतीय कृषि और औद्योगिक उत्पादन की प्रकृति और
सीमा से संबंधित है । और भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी । दूसरा निरंतर
ब्रिटिश-भारतीय मुठभेड़ से संबंधित है, विशेष रूप से 1748
से 1858 में आरकोट के ब्रिटिश कब्जे के आसपास । फिर मुठभेड़ 1875 से फिर से
दिखाई देती है, और इसके उच्च और निम्न स्थानों के साथ,
1947 तक जारी है, जब भारत विभाजित हो गया। भारत और पाकिस्तान में, और अंग्रेजों द्वारा निर्मित संस्थानों
और कार्यों को उनकी अपनी सरकारों ने अपने कब्जे में ले लिया। तीसरे की शुरुआत
1680 के दशक में ब्रिटेन में भारत से संबंधित ब्रिटिश डिजाइनों और नीतियों के
सामने आने और उसके बाद 1750 के आसपास भारत पर उनके प्रत्यक्ष कार्यान्वयन और
थोपने से होती है । डिजाइन और नीतियां मुख्य रूप से अंत तक ब्रिटेन में रहती हैं, जबकि उनका कार्यान्वयन भारत में होता है, और पूर्व में चीन के समुद्र से लेकर पश्चिम में सेंट हेलेना तक भारत के नाम पर शासित क्षेत्रों में । इस स्तर पर यह जानना सहायक होगा कि यह विशाल और बहुत विस्तृत अभिलेखीय अभिलेख वास्तव में कैसे बनाया गया था । इस प्रयोजन के लिए, अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत के शासन से संबंधित एक छोटी सी पृष्ठभूमि नितांत आवश्यक है । यह पारंपरिक सिद्धांत है (अधिकांश इतिहास की किताबों में पढ़ाया जाता है) कि 1600 से लगभग 1748 तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (ई.आई.सी.) ने बड़े पैमाने पर भारत के तटीय कस्बों और शहरों में खुद को स्थापित किया, इन स्थानों को किला कस्बों के रूप में घोषित किया और उन्हें कारखाने कहा, यानी व्यापार के लिए आवश्यक सैन्य प्रतिष्ठानों के साथ स्टोर हाउस। 1748 से, E.I.Co. कहा जाता है कि उन्होंने धीरे-धीरे भारत को जीतने में खुद को शामिल किया और 1858 तक कम से कम विजय से जुड़ी लूट और हिंसा के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार माना जाता था। हमें आगे बताया गया है कि यह केवल इसलिए है क्योंकि अंग्रेज कंपनी के कुशासन से परेशान थे - जिसके परिणामस्वरूप 1857-58 का महान भारतीय विद्रोह हुआ था । एक महीने या एक या दो साल में अनुसंधान के, इसके विपरीत धर्मपाल ने इसे दशकों का लाभ दिया। उन्होंने जो कुछ भी पढ़ा, उसके हर विवरण को उनके दिमाग ने बेहद तीखेपन के साथ बरकरार रखा। इस तरह उसे आखिरकार पूरी तस्वीर मिल गई। कुल अभिलेखीय रिकॉर्ड से निकली यह तस्वीर चौंकाने वाली से कम नहीं थी। हमारे स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में हममें से लाखों लोगों को जो पढ़ाया जाता था, उसके विपरीत, इसने एक कार्यशील समाज के अस्तित्व का संकेत दिया, जो उस समय की कला और विज्ञान में अत्यंत सक्षम था। इसके तात्कालिक प्राकृतिक वातावरण पर इसकी परस्पर पकड़ निर्विवाद थी; वास्तव में, इसने प्रशंसा की मांग की । यह कृषि और औद्योगिक उत्पादन दोनों में परिलक्षित होता था । हम आज जानते हैं कि लगभग 1750 तक, चीनियों के साथ, हमारे क्षेत्र कुल विश्व औद्योगिक उत्पादन का लगभग 73% उत्पादन कर रहे थे, और 1830 तक भी, इन दोनों अर्थव्यवस्थाओं ने अभी भी विश्व औद्योगिक उत्पादन का 60% उत्पादन किया था । चेंगलपट्टू (तमिलनाडु) जैसे मध्यम उपजाऊ क्षेत्र में भी, 1760-70 के आसपास इसकी भूमि के पर्याप्त क्षेत्र में हमारा धान उत्पादन लगभग 5-6 टन प्रति हेक्टेयर था, जो वर्तमान जापान में प्रति हेक्टेयर धान के उत्पादन के बराबर है। हर गाँव में एक स्कूल पर आधारित एक विशाल शैक्षिक व्यवस्था-युवाओं के बड़े समूह की शिक्षा की आवश्यकताओं की देखभाल करती थी। सेट-अप की सबसे प्रभावशाली विशेषता, यदि आवश्यक हो, तो इसके सतत रख रखाव के लिए की गई विस्तृत वित्तीय व्यवस्था थी। कुल उपज से, व्यवस्था के रख रखाव के लिए, सिंचाई टैंकों और चैनलों की देखभाल करने वाले इंजीनियरों से लेकर पुलिस और स्कूल के शिक्षकों के लिए परंपरा द्वारा राशि आवंटित की जाती थी । प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, हमने ऐसे स्टील का उत्पादन किया जो शेफ़ील्ड स्टील से बेहतर था। हमने रंगों, जहाजों और सचमुच सैकड़ों वस्तुओं का भी उत्पादन किया। यह सब रिकॉर्ड करते हुए, धर्मपाल ने यह भी देखा कि कैसे यह सब कम आंका जा रहा था, कैसे अंग्रेज वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज को नष्ट कर रहे थे। जैसा कि उन्होंने लिखा है की उन्होंने कभी-कभी आकर्षक और कभी-कभी क्रूर रिकॉर्ड का अध्ययन किया, व्यावहारिक रूप से हर दिन, इसने उन्हें मोहित कर लिया। उन्होंने पाया कि अंग्रेजों ने सफलतापूर्वक व्यापक नियंत्रण और जबरन वसूली की एक जटिल प्रणाली शुरू की, जिसमें भूमि का उत्पादन, साथ ही साथ निर्माताओं के उत्पादों का अधिकांश हिस्सा कर के रूप में लिया गया। उन्होंने पाया कि यह भयावह था कि यह अक्सर संगीन के नोक पर किया जाता था। धर्मपाल के अनुसार, शायद 17वीं शताब्दी के दौरान लंबे विचार-विमर्श के बाद भारत में अंग्रेजों का उद्देश्य था। वर्तमान खंड लगभग आठ से दस पीढ़ियों पहले भारतीय राज्य और समाज के कामकाज को समझने के प्रयास का हिस्सा है, यानी लगभग 1750 की अवधि में, जब भारत यूरोपीय प्रभुत्व के अधीन आने लगा- सबसे पहले तमिल और तेलुगु क्षेत्रों में, और बाद में बंगाल और अन्य जगहों पर । इस प्रयास में 1966-70 के दौरान ब्रिटेन के अभिलेखागार में दर्ज अंग्रेजी भाषा की कुछ विशाल भारतीय अभिलेखीय सामग्री का अवलोकन किया गया । यह खंड विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विषय पर इस खोज के दौरान पाए गए कुछ प्रमुख अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती दस्तावेजों को प्रस्तुत करता है । इन दस्तावेजों के लेखक विभिन्न क्षमताओं में भारत आए: यूरोपीय सरकारों के सैन्य, चिकित्सा और नागरिक सेवकों के रूप में; यात्रियों के रूप में, कभी-कभी स्वयं आते हैं, लेकिन अधिक बार धनी संरक्षकों या नव स्थापित विद्वान समाजों द्वारा भेजे जाते हैं (जैसे पेरिस और लंदन की रॉयल सोसायटी; लंदन में कला की सोसायटी, आदि); और कुछ, जेसुइट्स की तरह, विभिन्न ईसाई धार्मिक आदेशों की ओर से आए । उस समय के यूरोपीय विद्वानों के सिद्धांतों के अनुसार, ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ थे और उन्होंने जो देखा या अध्ययन किया, उस पर रिपोर्ट करने के लिए सक्षम माना जाता था । उनमें से अधिकांश, जिनमें यहां शामिल हैं, ने अपने सक्रिय जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत के विभिन्न हिस्सों में बिताया । व्यावहारिक रूप से गैर-यूरोपीय देशों के विज्ञान और प्रौद्योगिकियों से संबंधित सभी यूरोपीय वैज्ञानिक और तकनीकी खाते (यहां पुन: प्रस्तुत किए गए ) इन क्षेत्रों में उपयोगी ज्ञान के लिए सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के यूरोपीय खोज का परिणाम हैं । व्यावहारिक रूप से प्रत्येक दशक बीतने के साथ ही खोज की प्रकृति व्यापक और अधिक जटिल होती गई । पहले के यूरोपीय यात्रियों, यूरोपीय राज्यों के नौकरों और वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों आदि द्वारा गैर-यूरोपीय दुनिया में तैयार उपभोक्ता वस्तुओं या सोने और हीरे आदि को छोड़कर कुछ चीजें देखी गईं । यह आंशिक रूप से छोटी अवधि के कारण था जो अधिकांश उनमें से किसी विशेष क्षेत्र में खर्च किया । लेकिन बोधगम्य बुद्धि, चेतना के अपने विश्लेषण में भारतीय दर्शन के विभिन्न संप्रदाय चित्त की कुछ भिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत करते हैं । लेकिन, उन सभी के लिए बोधगम्य बुद्धि संस्कारों को वहन करती है, सभ्यता और व्यक्तिगत दोनों के पहले के अनुभवों और कार्यों की याद से रंगी हुई है । चित्त को संस्कारों से मुक्त करना और इस प्रकार अपने आप में वास्तविकता का अनुभव करना परम ज्ञान, ज्ञान और मोक्ष के सभी प्रयासों का उद्देश्य है । ऐसी धारणा दर्शन है, जो दर्शन के लिए भारतीय शब्द भी है । माना जाता है कि ब्रह्मांड और उसके प्रकट होने की भारतीय धारणा ऋषियों के इस तरह के दर्शन के माध्यम से उत्पन्न हुई थी । इस प्रकार, जहां तक बुद्धि के बारे में भारतीय दृष्टिकोण का संबंध है, सांसारिक जीवन के सामान्य पाठ्यक्रम में सभ्यतागत ढांचे के भीतर सोचने से कोई बच नहीं सकता है, और सभ्यतागत सत्य जो इस सोच को सूचित करते हैं, वे सभी अंतिम सत्य माने जाते हैं जिन्हें माना जाएगा। शुद्ध बुद्धि से जो सभी सभ्यतागत या अन्य स्मृतियों से मुक्त हो जाती है । सही ध्यान, योग दर्शन के अनुसार, मन के विश्लेषण और अनुशासन में विशेषज्ञता वाले भारतीय दर्शनशास्त्र, चित्त को समाधि की स्थिति में कहा जाता है, जब निरंतर प्रवाह में रहने की उसकी प्राकृतिक प्रवृत्ति को नियंत्रण में रखा जाता है और चेतना अत्यधिक केंद्रित होती है । समाधि के विभिन्न चरण होते हैं, जो असंप्रज्ञात समाधि में परिणत होते हैं, जिसमें ज्ञात और ज्ञात के बीच का अंतर खो जाता है, और चित्त ब्रह्म में विलीन हो जाता है।
राष्ट्र की चिति –चेतना, अस्मिता, मान्बिन्दुओं पर सतत लेखन हो रहा है । इसका हेतु यह कदापि नहीं की वह किसी को पाठ पढ़ाने के लिय लिखा जा रहा है । मुश्किल यह है की विगत सात दशकों में राष्ट्र की कुछ ऐसी परिस्थिति बनी है की एक वैचारिक संभ्रम का वातावरण दिखाई देता है । स्वतंत्रता के बाद ही राष्ट्र को कहा गया ‘ वी आर मेकिंग ए नेशन ’। इस ‘नेशन ’ का इतना प्रचार हुआ की इसके सामने अन्तेर कर पाना कठिन हो गया की ‘भारतवर्ष ’ एक ‘राष्ट्र ’ है या ‘नेशन स्टेट’ । ÎêâÚUæ â´ßñŠææçÙ·¤ â´·¤ÅU â´çߊææÙ ·ð ¥æ×é¹ ×ð´ ãUè ¥æ »Øæ, Ò §Uç‡ÇUØæ ÎñÅU §UÁ
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Øæ §Uç‡ÇUØæÐ “We, the people of India that is Bharat”, ( The
preamble of Indian constitution) §Uâ Îðàæ ·¤æ Âýæ¿èÙ Ùæ× ÖæÚUÌßáü ãñUÐ §Uâ
Ùæ×·¤ÚU‡æ ·¤è ·é¤ÀU Âýæ¿èÙ ¥ßŠææÚU‡ææ°¡ ãñ´UÐ °·¤ ÕãéUÂý¿çÜÌ ¥ßŠææÚU‡ææ ãñU
ç·¤ ÎécØ‹Ì ·é¤×æÚU ¥æñÚU ¿·ý¤ßÌèü ÚUæÁæ ÒÖÚUÌÓ ·ð¤ Ùæ× ÂÚU §Uâ Îðàæ ·¤æ Ùæ×
ÒÖæÚUÌÓ ÂǸæÐ ¥ßŠææÚU‡ææ ·¤æ ÎêâÚUæ âýæðÌ Ÿæè×Î÷Öæ»ßˆæ ¥æñÚU ÁñÙ ÂéÚUæ‡ææð´
×ð´ ç×ÜÌæ ãñUÐ §Uâ·ð¤ ¥ÙéâæÚU «¤áÖÎðß ·ð¤ Âé˜æ ×ãUæÚUæÁ ÖÚUÌ, Áæð ¥æ»ð ¿Ü·¤ÚU
ÕǸð ×ãUæˆ×æ ¥æñÚU Øæð»è ãUæð »Øð Íð, ·ð¤ Ùæ× ÂÚU §Uâ Îðàæ ·¤æ Ùæ× ÒÖæÚUÌÓ
ÂǸæÐ Öë»é, ¥´ç»ÚUæ,
ßçàæDU, çßEæçטæ, ·¤‡ß, ÖæÚUmUæÁ, ¥ç˜æ, ßæ×Îðß, ¥»SˆØ, ÂæÚUæàæÚU, ÃØæâ,
·¤àØÂ, ÕëãUSÂçÌ, Á×Îç»A, ·ð¤Ìé, ÂéÜãU, ׿ÚUè¿, ¥´ç»ÚUâ, ·ý¤Ìé, ¥CUæß·ý¤,
Øæ™æßËØ€Ø, ·¤æˆØæØÙ, °ðÌÚÔUØ, ·¤ßá °ðÜêá, ¥Íßæü, ·¤çÂÜ, Áñç×Ùè, »æñÌ×,
ÂæÌ´ÁçÜ, àæÕê· , çÂŒÂÜæÎ, ßæË×èç·¤, ©UgæÜ·¤, ×çãUÎæâ, âˆØ·¤æ× ÁæÕæÜ,
âêÌ-àææñÙ·¤, ·¤æ»Öéâé´çÇU-»L¤‡æ âÖè Ìæð ÖæÚUÌßáü (¥æØæüßÌü) ×ð´ ãUè ÂñÎæ
ãéU°Ð ·¤‡ß ·ð¤ ¥æŸæ× ×ð´ ãUè àæ·é¤‹ÌÜæ ¥æñÚU ©Uâ ÖÚUÌ ·¤æ ÂæÜÙ Âæðá‡æ ãéU¥æÐ ÕýræßæçÎÙè âêØæü, ƒææðcææ, ¥ÂæÜæ, ÚUæð×àææ, »æ»èü, ÜæðÂæ×éÎýæ, ¥Ùéâé§UØæ, àæ¿è, âèÌæ, âæçߘæè, Ø×è, çßÖæßÅUè, ¥çÎçÌ, ãUæ´ð Øæ àæÕÚUè- âÖè ÖæÚUÌßáü ×ð´ ÂñÎæ ãéU§ZUРΊæèç¿, ÚUç‹ÌÎðß, çÎÜèÂ, ÙÜ, ØØæçÌ, ¥ÕÚUèá, ׿‹ŠææÌæ, ÙãéUá, ×é¿é·é¤‹Î, çàæçÕ, «¤áæ, ×ãUæÚUæÁ Ùë», ÖÌëüãUçÚU, ÁÙ·¤, ÚUæ×, ·ë¤c‡æ, Öèc×, çßÎéÚU- âÕ·¤æð ÖæÚUÌßáü ÕãéUÌ çÂýØ ÚUãUæ ãñUÐ ¿æßæü· , ×ãUæßèÚU, ÕéhU, ·¤æñçÅUËØ, ÚUæ×æÙ‹Î, Õ„Öæ¿æØü, ·¤ÕÙ, Âæç‡æçÙ Ì·¤ ÖæÚUÌßáü Ùæ× ¥çSÌˆß ×ð´ ãñUÐ
ÖæÚUÌ
·¤æ Ùæ× §Uç‡ÇUØæ ·¤ãUæ¡ âð ¥æØæ, SÂCU ÙãUè´ ãñUÐ v}x~ ·ð¤ ¥æâÂæâ Ì·¤ ¥´»ýðÁ
Üð¹·¤ §Uâ Îðàæ ·¤æð çãU‹ÎéSˆææÙ ¥æñÚU ÖæÚUÌßáü ãUè çܹÌð ÚUãðU ãñ´UÐ SÂCU ãñU
ç·¤ ¥´»ýðÁæð´ Ùð ÖæÚUÌ ·¤æð §ç‡ÇUØæ Ùæ× ©Uâ·ð¤ ×êÜ ·¤æð çßS×ÚU‡æ ·¤ÚUÙð ·ð¤
çܰ çÎØæÐ v}z| ×ð´ Öè ØãU çãU‹ÎéSÌæÙ ãñU, ÒÒã× ãñ´ §â·Ô¤ ׿çÜ·¤ çã‹ÎéSÌæ¡
ã׿ÚUæ, Âæ·¤ ßÌÙ ãñ ·¤õ× ·¤æ ÁóæÌ âð Öè ŒØæÚUæÓÓÐ âêØü·¤æ´Ì ÕæÜè ÖæÚUÌèØ ·¤æÜ»‡æÙæ ·¤æð, Øé»æŽÎ ·¤æð ·é¤ÀU ¥Ü» ÙÁçÚUØæ âð Îð¹Ìð ãñ´UÐ àææØÎ ÙßèÙ ·¤æÜ»‡æÙæ ·ð¤ ¥ßŠææÚU‡ææßæçÎØæð´ âð ÅU·¤ÚUæÙð ·¤æ Áæðç¹× ÙãUè´ ÜðÙæ ¿æãUÌðÐ SßÌ´˜æÌæ ·ð¤ ÕæÎ ãU×Ùð ÁãUæ¡ ¥ÂÙð ·¤×ü·¤æ‡ÇU âð Üð·¤ÚU ¥àææâ·¤èØ-àææâ·¤èØ ÃØßãUæÚUæð´ ×ð´ Øé»æŽÎ ·¤æð ÀUæðǸæ, çß·ý¤× âßÌ÷ ·¤æð ÀUæðǸæ, ßãUè´ àæ·¤ ÌÍæ §üUâæ âßÌ÷ ·¤æð ¥´»è·¤æÚU ·¤ÚU çÜØæ; ÂçÚU‡ææ× ãU׿ÚÔU âæ×Ùð ãñÐ ØçÎ °ðâæ ÙãUè´ ãUæðÌæ Ìæð §Uâ Îðàæ ·¤æ Ùæ× àææØÎ ãUè ·¤æð§üU ÖæÚUÌèØ â´çߊææÙ ×ð´ Ò§Uç‡ÇUØæÓ SÃæè·¤æÚU ·¤ÚUÌæÐ çȤÚU Öè ßð °·¤ ×ãUžßÂê‡æü ÕæÌ çܹÌð ãñ´U, ÒçÁâ ÂæñŠæð ·¤æð °·¤ ¹æ¡ÅUè ÂýØæð» ·ð¤ ÌãUÌ Î鈷¤æÚU ¥æñÚU ·¤æðâ ·¤ÚU Á»Îèàæ ¿‹Îý Õæðâ Ùð ÂæØæ ç·¤ ßãU ÂæñŠææ âê¹ ·¤ÚU ·¤æ¡ÅUæ ãUæð »Øæ ¥æñÚU çȤÚU ¹ˆ× ãUæð »Øæ, ßñâð ãUè çÂÀUÜð ·¤ÚUèÕ ÌèÙ-âæÉ¸ðU ÌèÙ âæñ ßáæðZ âð §Uâ Îðàæ ·¤è ÂýçÌÖæ ÂÚU àææâÙ ·¤ÚUÙðßæÜð Âçà¿×è çßmUæÙæð´, ©UÙ·ð¤ ÚUæÁÙèçÌ·¤ ÂýçÌçÙçŠæØæð´ ¥æñÚU ©UÙ·ð¤ ÖæÚUÌß´àæè ׿Ùâ Âé˜ææð´ Ùð §Uâ Îðàæ ·ð¤ ·¤æð×Ü ×Ù ·¤æð §UÌÙæ ·¤æðâæ ãñU, ©Uâð §UÌÙæ çŠæ€·¤æÚUæ-Î鈷¤æÚUæ ãñU, ©Uâð ÀUæðÅUæ â×ÛæÙð ·¤æð §UÌÙæ ×ÁÕêÚU ç·¤Øæ ãñU, ©Uâð §UÌÙæ ÂçÌÌ-ÎèÙ-ÎçÚUÎý âæçÕÌ ç·¤Øæ ãñU ç·¤ ãU× ÖæÚUÌßæâè ¥ÂÙè çÙ»æãU ×ð´ ¹éÎ ãUè ç»ÚU »° ãñ´UÐ... Ìæð €Øæð´ ç·¤Øæ »Øæ ÀUÜ? Ìæç·¤ çâhU ç·¤Øæ Áæ â·ð¤ ç·¤ ÖæÚUÌ °·¤ Šæ×üàææÜæ ãñUÐ ØãUæ¡ ¥´»ýðÁ ¥æ°, ×é»Ü ¥æ°, Ìé·ü¤-¥È¤»æÙ ¥æ°, ¥ÚUÕ ¥æ°, ·é¤áæ‡æ ¥æ°, ãêU‡æ ¥æ°, àæ·¤ ¥æ°, ØßÙ ¥æ°, ¥æØü Öè ÕæãUÚU âð ¥æ°Ð ØãU Îðàæ ç·¤âè °·¤ ·¤æ ÙãUè´ ÚUãUæÐ Áæð ¥æÌæ »Øæ, ÕâÌæ »ØæÐ §Uâ Îðàæ ·¤è ¥ÂÙè ·¤æð§üU â´S·ë¤çÌ ÙãUè´, ·¤æð§üU §UçÌãUæâ ÙãUè´, ·¤æð§üU âØÌæ ÙãUè´Ð Õâ, âÕ Øê´ ãUè ¿ÜÌæ ÚUãUæÐ °·¤ ¥ƒæçÅUÌ ·¤æð §UçÌãUæâ ÕÙæÙð ·¤æ ÀUÜ §Uâçܰ ãéU¥æÐ §Uâð §UçÌãUæâ ·¤ãð´U Øæ ·ê¤ÅUÙèçÌ!Ó ØãUæ¡ â×Ûææ Áæ â·¤Ìæ ãñU ç·¤ ÙØæ Ùæ× Ò§Uç‡ÇUØæÓ ÂãU¿æÙ ç×ÅUæÙð ·¤æ ãUçÍØæÚU ¥æñÚU ×ãUžßÂê‡æü ÃØßãUæÚU ÕÙæÐ
ÖæÚUÌßáü
·¤æ Ùæ× ÒçãU×ßáüÓ ÍæÐ §Uâè ÌÚUãU Öæ»ßÌ ÂéÚUæ‡æ ×ð´ §Uâ·¤æ ÂéÚUæÙæ Ùæ×
Ò¥ÁÙæÖßáüÓ ÕÌæØæ »Øæ ãñUÐ Öæ»ßÌ ÂéÚUæ‡æ (S·¤‹Šæ-z, ¥ŠØæØ-y) ·¤ãUÌæ ãñU ç·¤
Ö»ßæÙ «¤áÖ ·¤æð ¥ÂÙè ·¤×üÖêç× Ò¥ÁÙæÖßáüÓ ×ð´ v®® Âé˜æ Âýæ# ãéU°, çÁÙ×ð´ âð
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Üæð» §Uâð ÖæÚUÌßáü ·¤ãUÙð Ü»ð-ÒØðáæ´ ¹Üé ×ãUæØæð»è ÖÚUÌæð ’ØðDUÑ ŸæðDU»é‡æ
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·¤ãUÌæ ãñU ç·¤ ÁÕ «¤áÖÎðß Ùð Ù‚Ù ãUæð·¤ÚU »Üð ×ð´ ÕæÅU Õæ¡Šæ·¤ÚU ßÙ ÂýSÍæÙ
ç·¤Øæ Ìæð ¥ÂÙð ’ØðDU Âé˜æ ÖÚUÌ ·¤æð ©UžæÚUæçŠæ·¤æÚU çÎØæ çÁââð §Uâ Îðàæ ·¤æ
Ùæ× ÖæÚUÌßáü ÂǸ »Øæ-Ò«¤áÖæÎ÷ ÖÚUÌæð Á™æð ’ØðDUÑ Âé˜æàæÌSØ âÑ (àÜæð·¤ w}),
¥çÖçá’Ø âéÌ´ ßèÚ´U ÖÚUÌ´ ÂëçÍßèÂçÌÑ (w~), Ù‚Ùæð ßèÌUæ´ ×é¹ð ·ë¤ˆßæ ßèÚUæŠßæÙ´
ÌÌæð »ÌÑ (xv), ÌÌà¿ ÖæÚUÌ´ ßáü×÷ °ÌÎ÷ Üæð·ð¤áé »èØÌð (xw)ÐÓ çÜ´» ÂéÚUæ‡æ ×ð´
§Uâè ÕæÌ ·¤æð ÎêâÚÔU àæŽÎæð´ ×ð´ ÎæðãUÚUæØæ »Øæ ãñU- ÒâæðçÖç¿‹ˆØæÍ «¤áÖæð
ÖÚUÌ´ Âé˜æßˆâÜÑÐ ™ææÙßñÚUæ‚Ø×æçŸæˆØ çÁˆßðç‹ÎýØ ×ãUæðÚU»æÙ÷÷Ð çãU׿ÎýðÎüçÿæ‡æ´
ßáü ÖÚUÌSØ ‹ØßðÎØÌ÷Ð ÌS׿žæé ÖæÚUÌ´ ßáü ÌSØ Ùæ×Aæ
çßÎéÕéüŠææÑÐÓ ¥Íæüˆæ÷ §Uç‹ÎýØ M¤Âè âæ¡Âæð´ ÂÚU çßÁØ Âæ·¤ÚU «¤áÖ Ùð çãU׿ܨ
·ð¤ Îçÿæ‡æ ×ð´ Áæð ÚUæ’Ø ÖÚUÌ ·¤æð çÎØæ Ìæð §Uâ Îðàæ ·¤æ Ùæ× ÌÕ âð ÒÖæÚUÌßáüÓ
ÂǸ »ØæÐ §Uâ ÌÚUãU ÖæÚUÌßáü ·¤æ ÖÃØ
¥æñÚU Öæßé·¤Ìæ âð âÚUæÕæðÚU çßßÚU‡æ ãU׿ÚÔU ÂéÚUæ‡æ âæçãUˆØ ×ð´ ç×ÜÌæ ãñU,
çÁâ×ð´ Òß‹Îð׿ÌÚU×÷÷Ó ¥æñÚU ÒâæÚÔU ÁãUæ¡ â𠥑ÀUæÓ »èÌæð´ Áñâè ¥Î÷÷ÖéÌ ××Ìæ
ÖÚUè ÂǸè ãñUР߇æüÙ ç×ÜÌæ ãñU ç·¤ ØØæçÌ ãUæð´ Øæ ¥ÕÚUèá; ׿‹ŠææÌæ ÚUãðU
ãUæð´ Øæ ÙãéUá; ×é¿é·é¤‹Î, çàæçÕ, «¤áæ Øæ ×ãUæÚUæÁ Ùë» ÚUãðU ãUæð´; §UÙ âÖè
ÚUæÁæ¥æð´ ·¤æð ÌÍæ §UÙ·ð¤ ¥Üæßæ çÁÌÙð Öè ×ãUæÙ ¥æñÚU ÕÜßæÙ ÚUæÁæ §Uâ Îðàæ ×ð´
ãéU°, ©UÙ âÕ·¤æð ÖæÚUÌßáü ÕãéUÌ çÂýØ ÚUãUæ ãñUÐ ÖæÚUÌßáü ×ð´ ßáü
àæŽÎ ·ð¤ Îæð ¥Íü ãñ´Ð ßáü ÁãUæ¡ °·¤ ¥æðÚU SÍæÙ ÕæðŠæ·¤ ãñU Ìæð ÎêâÚUè ¥æðÚU
ßãU ·¤æÜ ÕæðŠæ·¤ Öè ãñUÐ ÁÕ SÍæÙ ·¤æ ÕæðŠæ ·¤ÚæÌð ãéU° ãU× ÖæÚUÌ ·¤æð S×ÚU‡æ
·¤ÚUÌð ãñ´U Ìæð ÒEðÌßæÚUæãU ·¤ËÂð...Ó Öê»æðÜ-ÖæÚUÌèØ ×ãUæmUè ¥ÂÙð ¥æÂ ×ð´
°·¤ â´âæÚU ãñUÐ ØçÎ ãU× ¿æ‡æ€Ø ·¤æÜ ·¤æ ÖæÚUÌ Îð¹ð´ Ìæð §Uâ·¤è çßàææÜÌæ ·¤æ
ãU×ð´ ÕæðŠæ ãUæðÌæ ãñUÐ ¥æÁ ¥È¤»æçÙSÌæÙ, Âæç·¤SÌæÙ, Õæ´‚ÜæÎðàæ, ÖêÅUæÙ,
ÕýræÎðàæ, ŸæèÜ´·¤æ ·¤æð ç×Üæ·¤ÚU ÖæÚUÌßáü ·¤æ ֻܻ ¥æŠææ çãUSâæ ãU×âð ¥Ü»
çιæ§üU ÎðÌæ ãñUÐ SßÌ´˜æÌæ ·ð¤ ÕæÎ
Öæñ»æðçÜ·¤ ÖæÚUÌßáü ãU׿ÚUè ·¤ËÂÙæ âð ÕæãUÚU ¿Üæ ãUè »ØæÐ ãU×Ùð âæ´S·ë¤çÌ· ÖæÚUÌßáü ·¤æð Öè ÀUæðǸ çÎØæÐ ׋ߋÌÚU ¥æñÚU
ÚUæÁß´àææð´ ·¤æ ߇æüÙ ßãU ÖæÚUÌßáü ·ð¤ ÖèÌÚU ·¤æ ãñUÐ çßçߊæ mUèÂæð´ ¥æñÚU
Îðàææð´ ·¤è ¿¿æü ×ð´ ÚUæÁß´àææð´ ·¤æ ߇æüÙ ÖæÚUÌèØ âè׿ ×ð´ çÙçpÌ ãñUÐ
×ãUæUÖæÚUÌ ·ð¤ â´»ýæ× ×ð´ ¿èÙ, Ìéç·¤üSÌæÙ ¥æçÎ âÖè Âæâ ·ð¤ Îðàææð´ ·¤è âðÙæ
¥æØè çι ÂǸÌè ãñUÐ Âæ‡ÇUßæð´ ¥æñÚU ·¤æñÚUßæð´ ·¤è çÎç‚ßÁØ ×ð´ ßÌü×æÙ ÖæÚUÌ
·ð¤ ÕæãUÚU ·ð¤ Îðàæ Öè âç×çÜÌ Íð, çÁÙ·¤æ ·¤×üÿæð˜æ ÖæÚUÌßáü ·¤è Â釨Öêç× ãè
ãñUÐ §Uâ·ð¤ ÂßüÌ, ßÙ, ÙÎè-ÙæÜð, ßëÿæ, „ß, »ýæ×, Ù»ÚU, ×ñÎæÙ, ØãUæ¡ Ì·¤ ç·¤
ÅUèÜð Öè Âçߘæ ÌèÍü ãñ´Ð mUæÚU·¤æ âð Üð·¤ÚU Âýæ‚’ØæðçÌá Ì·¤, ÕÎýè-·ð¤ÎæÚU âð
Üð·¤ÚU ·¤‹Øæ·é¤×æÚUè Øæ ŠæÙéc·¤æðçÅU Ì·¤, ¥çÂÌé âæ»ÚU Ì·¤ ¥æçÎ âè׿ ¥æñÚU ¥‹Ì
âè׿, ÌèÍü ¥æñÚU ÎðßSÍæÙ ãñU´Ð ØãUæ¡ ·ð¤ ÁÜ¿ÚU, ÍÜ¿ÚU, »»Ù¿ÚU, âÕ×ð´ Âê’Ø
¥æñÚU Âçߘæ ÖæßÙæ ßÌü×æÙ ãñUÐ Üæð» Îðàæ âð Âýð× ·¤ÚUÌð ãñ´UÐ ÒÒçãU‹Îê ¥ÂÙè
׿ÌëÖêç× ·¤æð ÂêÁÌð ãñ´UÐ ÖæÚUÌèØ çãU‹Îê ÂÚUÂÚUæ ¥ÂÙæ ¥æÚUÖ âëçCU·¤æÜ âð
ãUè ׿ÙÌè ãñUÐ ©Uâ×ð´ ·¤ãUè´ ç·¤âè ¥æØæÙ âð, ç·¤âè ¿¿æü âð, ç·¤âè ßæ€Ø âð
ØãU çâhU Ùãè´ ãUæðÌæ ç·¤ ¥æØü ÁæçÌ ·¤ãUè´ ÕæãUÚUU âð §Uâ Îðàæ ×ð´ ¥æØè;
¥Íæüˆæ÷ ÂÚUÂÚUæÙéâæÚU ãUè §Uâ ÖæÚUÌßáü ·ð¤ मूल वासी ßæâè ¥æØü ãñ´UÐÓÓ (çãU‹ÎêŠæ×ü·¤æðàæ,ÚUæÁßÜè Âæ‡Çð) ßSÌéÌÑ ÖæÚUÌßáü
·ð¤ çßÖæÁÙ ·¤æ Üð¹æ Áæðææ ÜÕæ ãñUÐ ÖæÚUÌ âæÌ ÕæÚU çßÖæçÁÌ ãéU¥æÐ çȤÚU Öè
©Uâ·¤æ Ùæ× ÖæÚUÌßáü Øæ ÖæÚUÌ ãUè ÚUãUæÐ vz ¥»SÌ, v~y| ·¤æð ÁÕ ÖæÚUÌ SßÌ´˜æ
ãéU¥æ, ÌÕ ÖæÚUÌ×æÌæ ·¤æð ¥ÂÙð àæÚUèÚU ·ð¤ zy.y{ ÂýçÌàæÌ çãUSâð ·¤æð ¹æðÙæ
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धर्मपाल ने गहरी निष्ठा और लगन से हमारे सामने
भारतीय सभ्यता का वह चेहरा उदघाटित किया है जो अंग्रेजी शिक्षा-दीक्षा और
अंग्रेजी ढंग की ही राजनीति के कारण खुद हमारे लिए वर्षों से कुहेलिका में डुबा
रहा था। इस अर्थ
में धर्मपाल ने ठोस आंकड़ों के साक्ष्य से हमारे अतीत का अन्वेषण किया और हमें
वह राह दिखाई जिस पर चलकर हम आज भी अपने को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त कर सकते
हैं। एक तरह
से धर्मपाल एक नये आत्मविश्वस्त भारत के संभावित सूत्रधार हैं। आत्मविश्वस्त भारत जिसमें उसके सभी नागरिकों
की मेधा, कल्पना
और कौशल की सम्मानजनक जगह हो सकती है। जैसे कि
वह अंग्रेजों के पहले से भारत में सदियों तक रहती आयी है.। |