लघुकथा
आधुनिककाल में
हिन्दी लघुकथा की शुरूआत भले सन् 1900 के आस पास मानी जाती
हो, और उसमें दादा माखनलाल चतुर्वेदी की 'बिल्ली और बुखार' को पहली लघुकथा माना जाता हो, ऐसे ही इस श्रृंखला में माधवराव सप्रे, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक कई महत्वपूर्ण नाम जुड़ सकतें हैं ।
प्रेमचंद के उत्कर्षकाल में कई लघुकथाएँ सामने
आईं, जैसे नशा, मनोवृत्ति, दो
सखियाँ, जादू आदि। इसी तरह प्रसाद की ‘गुदड़ी के लाल’, ‘अधोरी का मोह’, ‘करूणा की विजय’, ‘प्रलय प्रतिमा’,’दुखिया’, ‘कलावती की शिक्षा’ आदि लघुकथा के अनूठे उदाहरण
है। बंगला साहित्य में भी टैगोर ने महत्वपूर्ण
लघुकथाएँ रची हैं। हिन्दी में सुदर्शन, रावी, कन्हैयालाल मिश्र, रांगेय राघव आदि ने
मार्मिक लघुकथाएँ लिखी। बाद में इस धारा में कई और नाम जुड़ते चले गए। उपेन्द्रनाथ अश्क, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, नरेन्द्र जोशी, नरेन्द्र कोहली, लक्ष्मीकांत वैष्णव, संजीव, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम आदि के नामों
की लम्बी कतार है।
यह ठीक है की इस समय में ‘लघुकथा’ जैसी
स्वत्रंता संज्ञा अस्तित्व में नहीं आई थी, धीरे-धीरे यह संज्ञा
कहानी से अलग प्रचलित और स्थापित हुई है। कुछ लोगों ने लघुकथा के अतिरिक्त नई संज्ञाएँ या विशेषण देने की भी कोशिश की, जैसे- मिनी कहानी, मिनीकथा, कथिका, अणुकथा कणिका, त्वरितकथा, लघुव्यंग्य आदि
लेकिन ये संज्ञाएँ पाठक और समीक्षक को लुभा नहीं पाईं।
लघुकथा का शब्द का नामाकरण कब हुआ कैसे हुआ दृष्टान्तए नीति या बोध कथा के रूप् में लघुकथाओं का सृजन अनेक शताब्दियों से
होता आ रहा है। मूलतः दृष्टान्तों के रूप में लघुकथाएँ विकसित हुई। इस प्रकार के
दृष्टान्त नैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं। स्थूल और
सूक्ष्म का यह भेद जब लेखक का समझ में आ जाता है तो अपने लघुकथा में लेखक का प्रवेष होना बंद
हो जाता है। लघुकथा के पाठकों की संख्या में वृद्धि के इस प्रष्न का उत्तर काफी हद
तक प्रष्न में ही छुपा है कि लघुकथा के लेखक बढ़ रहे हैं। एक बार फिर सेए रचना स्वयं सम्पूर्ण होती हैए यही उसमें से बार.बार लेखक का झाँकता हुआ चेहरा उसे कमजोर ही करता है। अनेक बार
अस्वीकृति झेलने के बादए हर एक लेखक को इस प्रष्न का उत्तर अवश्य मिल जाता है। यदि लेखक की सहज रूप से समृद्ध
शब्द सम्पदाए पाठक चाहिए दूसरी ओरए जब हम दूसरी भाषा
में अपनी रचना को विदा करते हैंए तब उसे अपना मार्ग स्वयं बनाना होता है। उसे अपनी
स्वीकार्यता स्वयं गढ़नी होती है। इसलिये अनुवाद के द्वारा विस्तार के मार्ग पर चलने से पहले हमें अपनी रचना में
ही गुणवत्ता इतनी ऊँची रखने की आवष्यकता है कि उसके भाव किसी भी शषा के द्वारा
बहते हुए सीधे पाठक के हृदय तक पहुँचे। किसी भी अन्य विधा की तुलना में लघुकथा की शीर्षक की अपनी विलक्षण भूमिका होती
है। कहीं यह उसके मूल मर्म को सम्प्रेषित करता हैए तो कहीं उसके संदेष को। कहीं वह
अप्रत्यक्ष रूप से लघुकथा के कथ्य का विस्तार करता है। इसका शीर्षक देना अपने आप
में चुनौती भरा काम है। इसमें सर्जक से अतिरिक्त श्रम की अपेक्षा होती है।
प्रेमचंद के अनुसार अतियथार्थ निराशा को जन्म देता है। आज की लघुकथाओं में छाया अतियथार्थ क्या पाठक को निराश कर रहा हैघ् डॉण् कमल किषोर गोयनका के अनुसार लघुकथा एक
लेखकहीन विधा है। एक ही कथ्य को लघुकथा में दर्ज कराने का हर लेखक का अपना ढंग
होता है। श्रेष्ठ लघुकथाओं में लेखक की उपस्थिति सहज ही महसूस की जा सकती है। यह स्त्री विमर्श का दौर है। आपने जब लघुकथा
लिखना प्रारम्भ किया तो क्या यह बिन्दु आपके जेहन में था। उसमें आप कहाँ आप कहाँ तक सफल
हुईघ् स्त्री विमर्श कोई दौर नहींए अपने आप में एक सोच
है। यह सरस्वती नदी के समान गुप्त रूप में बहती धारा है जो ऊपरी तौर पर तत्कालीन
स्थितियों में कभी घास के मैदान के समान वीरान तो कभी घने जंगल सी उर्वर और कहीं
मरूस्थल सी शुष्क दिखाई यह सही है कि स्त्रियाँ
लघुकथा लेखन में अधिक संख्या में है। जाहिर है कि
स्त्री विमर्श भी इस नाते इस विधा के केन्द्र में रहता है। लघुकथा पाठ के सत्र में एक के बाद एक मंच पर आकर रचना पढ़ती महिलाएँ और
समीक्षक के रूप में मंचासीन पुरूषए यह आम दृष्य अधिकांष कार्यक्रम व सम्मेलनों में
देखने को मिलता है यहॉ पर विमर्ष की आवष्यकता है। स्त्रियों की स्त्री सुलभ
अभिव्यक्ति का मूल्यमापन भी तो स्त्रियॉ बेहतर कर सकती है ना। तात्पर्य यह कि लघुकथा का आकाश लेखक को उड़ने की
पूरी स्वतंत्रता देता है।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है की चार प्रकार के लोगे हैं जो उन्हें
भजते हैं – चतुर्विधा भजन्ते माम जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्यार्थीज्ञानी च भरतषर्भ।। आर्ता, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी । स्पष्ट है जीवन में उत्कर्ष के लिए मन में
जिज्ञासा उत्पन्न होना चाहिए । यह कार्य रचनाकार करता है। और इस जिज्ञासा की चाह
को पाठक जीवित रखना चाहता है। संसार में जितना भी ज्ञान
दृष्यमान है। उसके पीछे मानव की जिज्ञासा ही मूल कारण है। इसी जिज्ञासु से आरत, अर्थ और ज्ञान को प्राप्त करता है। श्रीमद
शंकराचार्य कहते हैं - वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः, ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः । आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब
नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व
ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥
यह सुखद् है कि प्रखर संवेदना की कथात्मक
अभिव्यक्ति, लघुकथा की विकास यात्रा में प्रयोधर्मिता निरंतर
बनी हुई है। पिछले दशक में लघुकथा के क्षेत्र में अभूतपूर्व
परिवर्तन आया है, सोशल मीडिया के प्रचलन में आने से लेखन भी बढ़
गए हैं। निश्चित रूप से नई-नई जिज्ञासाएँ, नए प्रश्न उभरकर आए हैं। मन में कई प्रश्न, उलझने, उत्सुकताएँ रहती हैं।
उपनिषदों में संवाद की एक शैली है जिसमें नीति, वैराग्य, पुरुषार्थ की बात कही गई है,जो आज कथा से लघुकथा तक
हमारे परिवेश में एक संदेश के साथ हमारा मार्गदर्शन करती हैं। यह सत्य है कि अनेक बार लघु आकार वाली सूक्ति, दोहे, लघुकथाएँ अबोध को भी जीवन के सत्वों का बोध
कराती हैं, जो बड़े-बड़े महाकाव्य, खण्डकाव्य, उपन्यास, कहानी नहीं कर पाते। यदि लघुकथा के शिल्प
पर ध्यान देते हुए नवाचार को दृष्टिगत रख लेखन किया जाये तो परिणाम
अवश्य ही प्रभावकारी होंगे । केवल विदेशी साहित्य का अंधानुकरण से हम लघुकथा के शिल्प को ही जटिल बना रहे
हैं जो सामान्य पाठक को उसको समझ पाना बहुत ही जटिल हो रहा है।
ध्यान रखना होगा लेखक केवल न तो विद्वानों
के लिए ही लिखता है न बौध्दिक विलाश के लिए, बल्कि उसका प्रथम
उत्तरदायित्व पाठक के लिए होता है। हम उनको न तो लेखक
मानते और न ही समाज हितैसी जो केवल या तो कापी पेस्ट कर बड़े लेखक बनने या
पुरस्कारों के लिए लिख रहे हैं अथवा विद्वत्ता प्रदर्शन के लिए या विचार
विशेष के चाटुकारिता के लिए। समझना होगा कि साहित्य समाज-जीवन, संस्कृति की रक्षा और उसके संबर्धन के लिए की
जाती है, भारतीय परम्परा में साहित्य लोक कल्याण की भावना
को केन्द्र में रखकर रचा जाता रहा है।
लघुकथा को भी अन्य साहित्य की भांति खेमेबाजी में नहीं फंसना चाहिए हैं. आज जिस तरह से समीक्षा के क्षेत्र में
चेहरा देखकर चन्दन घिसा जा रहा है, परिणाम साहित्य का लोक कल्याणकारी पक्ष उसकी भावनाए साहित्य की उस अभीष्टता को नही पा रही हैं जिसकी अपेक्षा है। लघुकथाएँ हिन्दी की समृद्धता और भाषा प्रेम पर प्रेम उड़ेलने
के बाद भी अंग्रेजी शब्दों से ठसाठस भरी हों तो यह दुर्भाग्य है। विदेशी भाषा और साहित्य से प्रभावित होकर लघुकथाएँ लिखने की एक जमात दिख
रही है, जबकि संसार के विकसित देश अपनी भाषा में लेखन कर
रहे हैं ।
समझना यह भी होगा की विदेशी मिट्टी अलग है और हमारी मिट्टी अलग ! हमारी धरती
दोहन पर टिकी है जबकि उनकी धरती शोषण पर। शोषण की इस परम्परा का परिणाम यह हो यह रहा है कि ‘अहो रूपं अहो ध्वनि:’ आप समीक्षा में मेरी तारीफ करें और मैं अपाकी ! इसे प्रयत्न पूर्वक बदलनी होगी। लघु कथा को नए कथ्य, शिल्प,भाव और
सम्प्रेषणीयता का उचित मिलाप कर आगे बढ़ाना होगा । इससे साहित्य में लघुकथा एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकेगी । लघुकथा लेखन सिर्फ
अनुभूतियों का लेखा-जोखा न हो रहकर, जन-मन का चित शुद्ध
करे। लघुकथा आज कथा साहित्य की महत्वपूर्ण विधा के
रूप में स्थापित हो चुकी है। उसकी संरचनात्मक एवं वैचारिक समृद्धि के लिए वे लेखक
भी आगे आ रहे हैं, जिनसे कुछ न कुछ नए विचार आने की सम्भावना है।
यह भी देखना होगा कि सामान्य पाठक लघुकथा को किस तरह ले रहे हैं और लघुकथा से क्या अपेक्षा कर रहे
हैं, हो सकता है कि सामान्य पाठक को कलात्मक और
संरचनागत मानकों की दृष्टि से साहित्य की मूल्यवत्ता की समझ उतनी ना हो कि एक
उत्कृष्ट रचना को पहचान सकें, किन्तु कोई भी रचना
अन्ततःसामान्य नागरिकों के जीवन को केन्द्र में रखकर ही रची जाती है। अतः
इस पर भी विचार अपेक्षित है। लघुकथा में लघु प्रेमकथा के नाम पर कुछ लेखन किया जा रहा है। कुछ लेखन प्रयोगवादी
लघुकथा के नाम से किया जा रहा हैं, इसके लिए कुछ समय
देने की आवश्यकता है,क्योंकि वह लेखन स्वीकारने योग्य नहीं होगा, तो वह स्वतः निरस्त हो जाएगा।
यह भी विचारणीय है कि शब्दों, बिम्बों, प्रतिकों का अत्यधिक प्रयोग क्या आम पाठक को
लघुकथा से दूर कर रहा है? साहित्य का सुघड़ होना जरूरी है साहित्य रचने
में लेखन का सपाट बयानी से बचना चाहिये।भाषा में संशिष्टता हो जटिलता नहीं। इसलिए मेरा अपना यह मानना है कि लघुकथा में बिम्ब, प्रतीक और संकेत होना जरूरी है। लघुकथा लेखन में भाषा पर इतना नियंत्रण होना
चाहिए कि वह घटना को उचित शब्द से परिवर्तित कर दे। साथ ही भाषा का ज्ञान होना
जितना आवश्यक है उतना ही भाषा का विस्तार कर पाने का सामर्थ्य भी जरूरी है।
लघुकथा में कौंध या फ्लैश पुराने विचार रह गए हैं। किसी जमाने में इन बातों का बड़ा महत्व था। और लघुकथा
की कौंध को बहुत परिभाषित किया गया था। लघुकथा की परिभाषा में यह शब्द शामिल किया
गया था कि लघुकथा घने काले बादलों में कौंधती बिजली के समान होती है। फ्लैश की बात
को परिभाषित किया गया था, आज के समय में
लघुकथा नए दौर में निकल चुकी है। आज लघुकथा को नए अंदाज से लिखने का प्रयास किया जाना
चाहिए। लघुकथा की रचना प्रक्रिया ही रचना का परिष्कार, संस्कार करती है। लेखक को कथ्य के साथ जीना
पड़ता है। पर काया प्रवेश करना
पड़ता है। तब कालजयी पात्र स्थापित हो पाता है। लेखक का मानस जब
कथ्य और पात्र के मानस की गहराई में अपने को डुबो लेता
है, तो एक अच्छी लघुकथा का जन्म होता है। हां यह भी ध्यान रखना होगा कि समाज के सभी
स्वरूपों एवं विद्रूपताओं को प्रस्तुत करना लघुकथा का कार्य नहीं है। लघुकथाकारों को समाज की अच्छी परम्पराओं को सामने लाना होता है। फेसबुक, समाचार पत्रों में दिखना या छपना लघुकथाकार होने
का मापदंड नहीं है।
लघुकथा वह है जो कहानी का प्लाट न बन सके।
लघुकथा अब फिलर नहीं है। लघुकथा शब्द मूल रूप से अंग्रजी
के शार्ट स्टोरी का सीधा अनुवाद है किन्तु इसके तौल का एक और शब्द कहानी हिन्दी
रूढ़ हो चुका है। इधर कहानी और लघुकथा दोनों अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। लघुकथा
को कहानी का सार या संक्षिप्त रूप भी ठीक नहीं है। क्योंकि लघुकथा बनावट और बुनावट
में कहानी से स्वतंत्र रखती है। एक ही कथ्य पर कई लघुकथाएँ आती है। कई लघुकथा बार-बार छपती दिखती है। पर पाठक
के मानस पर वही ठहरती हैं जो न तो लचर भाषा में गुणवत्ताहीन होती हैं और न अखबारी
। सत्यतता यह है कि सम्पादक
चटखारा पैदा करने वाली रचनाओें को प्रस्तुत करता है। उस चटखारे में लघुकथा का मूल समाप्त हो जाता है। फिर भी प्रायः
इस बात का ध्यान न तो लेखक रखता न सम्पादक। यह ठीक है कि हमारी और संपादक की रुचि
भिन्न-भिन्न हो सकती है। फिर भी एक बात अवश्य होनी चाहिए कि सम्पादक अपने चहेते को फर्श से अर्श पर रखने को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को न
भूलें। एक सहज तथ्य है. कि लेखक पाठक के लिये लिखता है
न कि अन्य लेखक के लिये।
हल्की.फुल्की लघुकथाएँ रचनाएँ लघुकथा विधा को वैश्विक स्तर पर ले जाना किस प्रकार
से सम्भव है? जब हम अपनी प्रतिस्पर्धा और गुणवत्ता के स्तर का वैश्विक स्तर पर
आंकना शुरू करते हैं, तब हम वास्तविकता से दो चार होते हैं कि अभी तो बस शुरू ही
किया है, वास्तव में वैश्विक स्तर पर किसी
भी विधा को पहुचाने के लिए कुछ विशिष्ट पथ होते हैं. क्या ये शार्ट फिल्में. एकांकी और इनमें हुए परिवर्तन.
संशोधन विधा से, साहित्य से न्याय कर पाते है? आश्चर्य होता है उन पचास सालों पर जो बीत चुके हैं। पचाल
साल कम नहीं होते हैं, न मेरे इस आश्चर्य के पीछे कई कारण हैं। समकालीन लघुकथा को
पचास वर्ष बीत जाने के बाद भी लघुकथा अपना प्रथम पायदान पार नहीं कर पाई।
राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में यह अकादमी में गरीमापूर्ण तरीके से अपना स्थान नहीं बना पाई है। मध्यप्रदेश
साहित्य अकादमी द्वारा लघुकथा में जैनेन्द्र कुमार के नाम से पचास हजार रूपये का
सम्मान हमने निदेशक के रहते स्थापित कराया है। आज लघुकथा के अनेक संपादित संस्करण
निकल रहे हैं । जिसमें हजारों रचनाकार शामिल हैं। व्यक्तिगत
पंसद.नपसंदगी को कभी रचना चयन में हावी नहीं होने देना चैये । अगर रचना किसी खास वर्ग को प्रभावित करने में
सक्षम है तो वह प्रकाशन योग्य मानी जानी चाहिए शर्त केवल इतनी हो की वह
संश्लिष्ट हो । हम सब जानते है कि सम्पादन का अर्थ पुनर्लेखन नहीं होता और यह किसी
भी सम्पादक को नहीं करना चाहिए। प्रायः पाठक-लेखक करूणा को
ग्रहण कर लेता है किन्तु शीर्षक में छूपे गहन अर्थ को टटोलने की जरूरत नहीं समझता।
अच्छी लघुकथा संक्षिप्त और कसी बुनावट लिए
होती है। सन साठ.सत्तर दशक के पहले की लघुकथाए लघुकथा थी या नहीं इस बहस से आज की
लघुकथा को कोई लाभ नहीं है, यह व्यर्थ की चर्चा है।