स्वाधीनता आन्दोलन
की आधार भूमि आध्यात्मिक रही है
यह बात हमारे इन
महानुभाओं के कथन से स्पष्ट है -
स्वामी विवेकानंद :
" स्वामी विवेकानंद ने 1892 में अपने भारत भ्रमण के दौरान यह जाना
कि कोई भी राष्ट्र किसी गुलाम देश से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता इसलिए नियति
द्वारा भारत के लिए निर्धारित, मानवतावादी भूमिका को निभाने के लिए ‘भारत की स्वतंत्रता’ एक आवश्यकता
थी। लेकिन यह स्वतंत्रता तब तक संभव नहीं हो सकती, जब तक कि भारत
वैचारिक और आध्यात्मिक रूप से एक नहीं हो जाता।"
उन्होंने भारत का आह्वान करते हुए कहा
था- 'भारत जागो! विश्व जगाओ...।'
और यही कारण था कि
स्वामीजी ने संपूर्ण विश्व में वेदांत के अध्यात्म का परचम लहराकर देश को यह संदेश
दिया कि जरूरत है कि हम अपने मूल ज्ञान की ओर अब लौट आएं। इसे ही स्वाधीनता सेनानियों ने माना की भारत का राष्ट्रवाद
‘आध्यात्मिकता और सनातन धर्म’ ही है। इसका आधार हिंदुत्वा है और भारत में हिन्दुत्व के पुनरुद्धार के
बिना कोई राष्ट्रीय आंदोलन संभव नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने ठीक यही किया, उन्होंने हिन्दुत्व
का पुनरुद्धार किया। उन्होंने कहा, 'प्रत्येक राष्ट्र के जीवन की एक मुख्य
धारा होती है, भारत में धर्म ही वह धारा है। इसे शक्तिशाली बनाइए और दोनों ओर का
जल स्वत: ही इसके साथ प्रवाहित होने लगेगा। सच्चा धर्म मनुष्यों की शिक्षाओं से या
पुस्तकों के अध्ययन से नहीं आता; यह तो हमारे भीतर स्थित आत्मा को जागृत करने से आता है जिसके
परिणामस्वरूप शुद्ध और वीरतापूर्ण कार्य किए जा सकते हैं।
2. महर्षि अरविंद : बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से
एक महर्षि अरविंद देश की आध्यात्मिक क्रांति की पहली चिंगारी थे। उन्हीं के
आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के
फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। अरविंद ने कहा
था कि चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या
यातनाएं दे, पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रुकेगा
नहीं। एक दिन अवश्य आएगा, जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं
है कि 15 अगस्त को भारत की आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता
है।
महर्षि अरविंद की अध्यात्म आधारित थी , क्योंकि उन्होंने
यह जाना कि आध्यात्मिक उत्थान के बगैर भारत की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं
इसीलिए उन्होंने भारत को आध्यात्मिक रूप से एक करने के लिए भारतीय ज्ञान की पताका
विश्वभर में फैलाई ताकि भारतीयों में अपने ज्ञान के प्रति गौरव-बोध जाग्रत हो।
गौरव-बोध के बगैर आजादी और स्वतंत्रता की अलख जगाना मुश्किल था।
अरबिंदो
का मानना था कि योग का मुख्य उद्देश्य अंतर-विकास करना हैं, जिससे कि व्यक्ति स्वयं को जान सकता हैं और
मानसिक से ज्यादा आत्म-विकास कर सकता हैं, जिससे
आध्यात्मिक शक्ति बढती हैं. श्री अरबिंदो ने एक बार लिखा था कि किसी आध्यत्मिक
गुरु की बायोग्राफी लिखना मुश्किल है, क्योंकि
उनके जीवन में ज्यादा परिवर्तन बाह्य नहीं बल्कि आंतरिक होते हैं,जिन्हें समझना आसान नहीं होता.
ऐसा कहा जाता है कि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे, तब उन्हें साधना के
दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन
छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।
3. एनी बेसेंट : भारतीय राष्ट्रीय
जागरण और स्वतन्त्रता अन्द्दोलन से जुड़ीं 3 विदेशी महिलाएं उल्लेखनीय हैं- सिस्टर निवेदिता, मीरा बेन और एनी
बेसेंट। तीनों में एनी बेसेंट का नाम इसलिए महत्वपूर्ण है कि उन्होंने भारतीय
जनमानस को धार्मिक रूप से एक करने और स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से भाग
लिया था। सिस्टर निवेदिता विवेकानंद के आदर्शों से प्रेरित होकर भारत आईं, लेकिन एनी बेसेंट
भारतीय दर्शन एवं हिन्दू धर्म के आकर्षण से थियोसॉफी के प्रसार हेतु भारत आई थीं।
एनी बेसेंट के जीवन का मूल मंत्र था- कर्म। एनी बेसेंट का भी यही
विचार था कि राष्ट्र का विकास एवं निर्माण तभी संभव है, जब उस देश के
विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। उनका उद्देश्य था
हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आई विकृतियों को दूर करना।
4. स्वामी सहजानंद सरस्वती : स्वामी सहजानंद सरस्वती (मूल नाम
नौरंग) का जन्म 22 फरवरी 1889 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में महाशिवरात्रि के दिन हुआ और उनका
निर्वाण 25 जून 1950 को पटना में हुआ। 'किसान आंदोलन' के जनक स्वामीजी
आदिशंकराचार्य संप्रदाय के 'दसनामी संन्यासी' अखाड़े के दंडी संन्यासी थे। 1909 में उन्होंने काशी में दंडी स्वामी
अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहण कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती
बने। काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्याडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोला। स्वामीजी को मूल रूप से किसान आंदोलन
और जमींदारी प्रथा के खिलाफ किए गए उनके कार्यों के लिए जाना जाता है। इस आंदोलन
के माध्यम से वे भी भारतमाता को गुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़े। वे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए।
आजादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में 'फॉरवर्ड ब्लॉक' के जरिए हड़ताल
करवाई थी। राष्ट्रकवि 'दिनकर' के शब्दों में- 'दलितों का संन्यासी चला गया।'
5.दयानंद सरस्वती : गुलामी से मुक्ति
का उपाय संपूर्ण भारतीयों की एक ही सोच हो और वह हो वेदों पर आधारित। आर्य समाज के
संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज सुधारक और
देशभक्त थे।
आर्य समाज की स्थापना का मूल उद्येश्य
ही समाज सुधार और देश को गुलामी से मुक्त कराना था। उन्होंने धर्मांतरित हो गए
हजारों लोगों को पुन: वैदिक धर्म में लौट आने के लिए प्रेरित किया और वेदों का
सच्चा ज्ञान बताया। स्वामीजी जानते थे कि वेदों को छोड़ने के कारण ही भारत की यह
दुर्दशा हो चली है इसीलिए उन्होंने वैदिक धर्म की पुन:स्थापना की। उन्होंने मुंबई
की काकड़बाड़ी में 7
अप्रैल 1875
में आर्य समाज की स्थापना कर हिन्दुओं में जातिवाद,
छुआछूत की समस्या मिटाने का भरपूर
प्रयास किया।
6. स्वामी श्रद्धानंद : स्वामी श्रद्धानंद
का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर में हुआ था स्वामी श्रद्धानंद का मूल नाम
मुंशीराम था। वे भारत के महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे।
स्वामी श्रद्धानंद ने देश को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने
और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अनेक कार्य किए। पश्चिमी शिक्षा की जगह
उन्होंने वैदिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया। इनके गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती थे।
उन्हीं से प्रेरणा लेकर स्वामीजी ने आजादी और वैदिक प्रचार का प्रचंड रूप में
आंदोलन खड़ा कर दिया था जिसके चलते गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी।
धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाले युगधर्मी महापुरुष
श्रद्धानंद के विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके विचारों के अनुसार
स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, वेदोत्थान, धर्मोत्थान को महत्व दिए जाने की जरूरत है इसीलिए वर्ष 1901 में स्वामी
श्रद्धानंद ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा
भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान 'गुरुकुल' की स्थापना की।
हरिद्वार के कांगड़ी गांव में 'गुरुकुल विद्यालय' खोला गया जिसे आज 'गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय' नाम से जाना जाता
है।
7. बंगाल में संन्यासियों और फकीरों
के अलग-अलग संगठन थे। पहले तो इन दोनों संगठनों ने मिलकर अंग्रेजों के साथ संघर्ष
किया; लेकिन बाद में उन्होंने पृथक्-पृथक् रूप से विरोध किया।
संन्यासियों में उल्लेखनीय नाम हैं—मोहन गिरि और भवानी पाठक तथा फकीरों के नेता के
रूप में मजनूशाह का नाम प्रसिद्ध है। ये लोग पचास-पचास हजार सैनिकों के साथ
अंग्रेजी सेना पर आक्रमण करते थे। अंग्रेजों की कई कोठियाँ इन लोगों ने छीन लीं और
कई अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। अंततोगत्वा संन्यासी विद्रोह और फकीर
विद्रोह—दोनों ही दबा दिए गए।
8. कन्हाई लाल दत्त का जन्म
जन्माष्टमी की कालीअधेरी रात में अपने मामा के घर चन्दनंनगर में हुआ था, कदाचित इसी से उनका नाम कन्हाई
पड़ा हो। यद्यपि उनका आरम्भिक नाम सर्वतोष था। चन्दन नगर तब फ्रांसीसी उपनिवेश था। वास्तव में तो उनका पैत्रिक
घर बंगाल के ही श्री रामपुर
में था। पांच वर्ष बम्बई में
रहने के बाद नौ वर्ष की आयु में वह वापस चन्दन नगर आ गये थे और वही उनकी
प्रारम्भिक से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा हुई। चन्दन नगर के डुप्ले कालेज से
उन्होंने स्नातक की परीक्षा दी थी। उसी कालेज के एक प्राध्यापक चारु चन्द्र राय से
गहनता के कारण कन्हाई को क्रान्ति पथ का परिचय प्राप्त हुआ था।
इन सब बन्दियो को अलीपुर कारागार में
रखा गया था और वही पर इन क्रान्तिकारियो पर अभियोग चलाया गया। इसी कारण इस अभियोग का
नाम अलिपुर षड्यंत्र रखा गया था। कन्हाई लाल दत्त के
साथ-साथ उसके प्रेरक प्रोफ़ेसर चारु चन्द्र राय भी बन्दी बनाये गये थे। सब पर
अभियोग चला किन्तु चारू चन्द्र राय को फ्रांसीसी सरकार की बस्ती का नागरिक होने के
कारण रिहा कर दिया गया।इनके जीवन की प्रेरणा अध्यात्म की थी
9. वासुदेव बलवंत फडके (4 नवम्बर 1845 – 17
फ़रवरी 1883) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के
क्रांतिकारी थे जिन्हें आदि क्रांतिकारी कहा जाता है। वे ब्रिटिश काल में किसानों की दयनीय दशा को
देखकर विचलित हो उठे थे। उनका दृढ विश्वास था कि स्वराज ही इस रोग की दवा है। जिनका
केवल नाम लेने से युवकों में राष्ट्रभक्ति जागृत हो जाती
थी, ऐसे थे
वासुदेव बलवंत फडके।
10. महाराष्ट्र के
पूना नगर में दामोदर हरि चाफेकर, बालकृष्ण हरि चाफेकर और वासुदेव हरि चाफेकर नाम के तीन सगे भाइयों ने एक संघ की स्थापना की और युवकों को अर्द्ध-सैनिक प्रशिक्षण देकर ब्रिटिश साम्रज्य के विरुद्ध उन्हें तैयार किया। इन लोगों को लोकमान्य का संरक्षण प्राप्त था। इनकी भी प्रेरणा आध्यात्मिक थी
11. श्री बरिन्द्रनाथ घोष श्री अरविन्द, के तीसरे बड़े भाई थे। सत्यकथा है कि २७ वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुजरते
हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ (रॉयल बेन्गाल टाइगर) से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने
हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद यतीन्द्रनाथ "बाघा जतीन" नाम
से विख्यात हो गए थे।उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग की योजना बनायी।
बंगालियों ने इसका विरोध खुल कर किया। यतींद्र नाथ मुखर्जी का नया खून उबलने लगा।
उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मार कर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन् १९१०
में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त यतींद्र नाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ्तार कर लिए गए और
उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी। जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे।
वारींद्र घोष और भूपेन्द्र नाथ दत्त
के सहयोग से 1907 में कलकत्ता में अनुशीलन समिति का गठन किया गया जिसका प्रमुख
उद्देश्य था - "खून के बदले खून"। 1905 के बंगाल विभाजन ने युवाओं को आंदोलित
कर दिया था, जो की
अनुशीलन समिति की स्थापना के पीछे एक प्रमुख वजह थी।
एम्.एन. राय के सुझाव पर इसका नाम "अनुशीलन समिति
" रखा गया।
1923 में वह पान्दुचेरी चले गए जहाँ उनके बड़े भाई श्री अरविन्द ने प्रसिद्ध "श्री औरोविंद
आश्रम " बनाया था। श्री अरविन्द ने उन्हें आध्यात्म और साधना के प्रति
प्रेरित किया जबकि श्री ठाकुर अनुकुलचंद उनके गुरु थे। इन्होने ही अपने अनुयायियों
द्वारा बारीन्द्र की सकुशल रिहाई में मदद की थी। 1929 में 'बारिन' दोबारा कलकत्ता आये और
पत्रकारिता शुरू कर दी। 1933 में उन्होंने "द डान ऑफ इण्डिया (The
Dawn of India) नामक अंग्रेजी साप्ताहिक पत्र शुरू किया। वह "द
स्टेट्समैन से जुड़े रहे और 1950 में वह बांगला दैनिक बसुमती के संपादक हो गए। 18 अप्रैल 1959 को इस महान सेनानी का देहान्त
हो गया। वारींद्र घोष ने 1905 में क्रांति से सम्बंधित "भवानी मंदिर " नामक पहली किताब लिखी ! इसमें "आनंद मठ " का भाव था और क्रांतिकारियों को सन्देश दिया गया था की वह स्वाधीनता पाने तक सन्यासी का जीवन बिताएं!
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