Wednesday, 28 July 2021

भारत

भारत जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है। जाग्रत देव है जिसके आध्यात्मिक सूत्र की परिधि द्वादश ज्योतिर्लिंगों, चार शंकर पीठों, इक्यावन शक्ति पीठों, इक्कीस गणपति क्षेत्र और इक्कीस सौर सिद्ध स्थलों को छूती है।

परन्तु दुर्योग, सन 1947 में विशाल भारतवर्ष का विभाजन पिछले 2500 वर्षों में 24वां विभाजन है।  संसार में ईसाईयों, मुसलमानों और बौद्धों की कई जमीनें हैं। (ईसाइयों और बौद्धों के पास तो उज्जवल भविष्य भी है।) हिन्दुओं की एक ही जमीन है भारत और वह भी कलहग्रस्त, संशयग्रस्त, आपदात्रस्त। 

समस्या के एक सूत्र को समझें कि सागरमाथा गौरीशंकर कैसे एवरेस्ट बन जाता है और वर्णनातीत क्षमताओं वाले महाकवि कालिदास भारत के शेक्सपियर, महान योद्धा समुद्रगुप्त भारत का नेपोलियन बोनापार्ट। 

भारत शब्द दो ढंग से बन सकता है –
१. भरत + अण् = भारत
     (भरत की सन्तति)
२. भा: + रत = भारत
     (प्रकाश में रत)
इन दोनों में प्रथम मौलिक है।

प्रकारान्तर से ही सही हर सनातन धर्मावलम्बी भारत के भौगोलिक विस्तार को अपने दैनिक संकल्प में याद करता है।

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे 
श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वंतरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरने जंबुद्वीपे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे.... 

वायु पुराण कहता है:-
सप्तद्वीपपरिक्रान्तं जम्बूदीपं निबोधत।
अग्नीध्रं ज्येष्ठदायादं कन्यापुत्रं महाबलम।।
प्रियव्रतोअभ्यषिञ्चतं जम्बूद्वीपेश्वरं नृपम्।।
तस्य पुत्रा बभूवुर्हि प्रजापतिसमौजस:।
ज्येष्ठो नाभिरिति ख्यातस्तस्य किम्पुरूषोअनुज:।।
नाभेर्हि सर्गं वक्ष्यामि हिमाह्व तन्निबोधत। 
(वायु 31-37, 38)

अग्नि,वायु एवं विष्णु पुराण में समानार्थी श्लोक है :-
उत्तरं यत् समुद्रस्य, हिमाद्रश्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति।।

बृहस्पति आगम का कथन है :-
हिमालयं समारम्भ्य यावद् इन्दु सरोवरम।
तं देव निर्मित देशं, हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।।

महर्षि पाणिनि के अष्टाध्यायी में वर्णित भारत और प्रान्तों के भूगोल से यहाँ केवल चार जनपदों की ही बात करते हैं।
(१.) कपिशी या कापिशी या कपिशा (वर्तमान नाम बेग्राम काबुल से लगभग पचास मील उत्तर)
(२ .) कापिशी से और भी उत्तर में कम्बोज जनपद था, इस समय दक्षिण एशिया का पामीर पठार है । 
(३.) मद्र जनपद-तक्षशिला के दक्षिण-पूर्व में मद्र जनपद  था, जिसकी राजधानी शाकल (वर्त्तमान में स्यालकोट) थी ।
(४.) त्रिगर्त देशः- वर्त्तमान पंजाब का उत्तर-पूर्वी भाग जो चम्बा से कांगडा तक फैला हुआ है, प्राचीन त्रिगर्त देश था । इसका नाम त्रिगर्त इसलिए पडा, क्योंकि यह तीन नदियों की घाटियों में बसा हुआ था, ये तीन नदियाँ थीं--सतलुज, व्यास और रावी । 

सन् 1857 में भारत का क्षेत्रफल 83 लाख वर्ग कि.मी. था। वर्तमान भारत का क्षेत्रफल 33 लाख वर्ग कि.मी. है। जबकि पड़ोसी 9 देशों का क्षेत्रफल 50 लाख वर्ग कि.मी. बनता है।

शैव फिर प्रकृतिपूजक फिर बौद्ध और फिर विधर्मी बनी हमारी पश्चिमी भूमि! 26 मई, 1876 को रूसी व ब्रिटिश शासकों (भारत) के बीच गंडामक संधि के रूप में अफगानिस्तान नाम से एक बफर स्टेट स्थापित किया गया। 

उधर मध्य हिमालय के 46 से अधिक छोटे-बडे राज्यों को संगठित कर पृथ्वी नारायण शाह नेपाल नाम से एक राज्य का सुगठन कर चुके थे। अंग्रेज ने विचारपूर्वक 1904 में वर्तमान के बिहार स्थित सुगौली नामक स्थान पर उस समय के पहाड़ी राजाओं के नरेश से संधी कर नेपाल को एक स्वतन्त्र अस्तित्व प्रदान कर अपना रेजीडेंट बैठा दिया। महाराजा त्रिभुवन सिंह ने 1953 में भारतीय सरकार को निवेदन किया था कि आप नेपाल को अन्य राज्यों की तरह भारत में मिलाएं। 

1955 में रूस द्वारा दो बार वीटो का उपयोग कर यह कहने के बावजूद कि नेपाल तो भारत का ही अंग है, पं. नेहरू ने पुरजोर वकालत कर नेपाल को स्वतन्त्र देश के रूप में यू.एन.ओ. में मान्यता दिलवाई। 

म्यांमार भूटान, श्रीलंका तिब्बत बिछड़े सभी बारी बारी!

फिर एक दिन कहा गया कि भारत अब आजाद हो रहा है लेकिन हमारी जमीन बंटेगी और इसे कैसे बांटना है यह अंग्रेज बहादुर और मुसलमान तय करेंगे। काहे की आजादी अंकल!
क्रमशः 

डॉ. मधुसूदन उपाध्याय 
२७/०७/१८
लखनऊ

Friday, 23 July 2021

soofi

 इस्लाम धर्म- इस्लाम धर्म में शरा और वेशरा दो प्रकार की कोटियाँ है। शरा सनातनी और बेशरा मस्तमौला फकीर थे। ये कभी कभार पीर-पैग़म्बर के चमत्कारपूर्ण करिश्मों का आश्रय लिया करते हैं। ये  अपने क्रिया कलापों में इस्लाम के मूल सिद्वांतों की भी उपेक्षा कर देते थे। इनका एक समुदाय ‘मजजूब’ नाम से प्रसिद्व हैं, जिनके अनुयायी न तो रोजा-नमाज को मानते हैं न पैगबंर के प्रति आस्थावान हैं। बेशरा साधक ‘मलावती’ कहलाते हैं, जो खुदा के कृपापात्र समझे जाते हैं। बेशरा संप्रदाय के अंतर्गत मदारी, मलंग, कलंदरी, रसूलशाही, लालशाह बाजि या,मूसा सुहागिया आदि कई उपसंप्रदाय हैं । इनकी अपनी-अपनी विशेषाताएँ हैं।

भारतीय सूफी बेशरा के अंतर्गत आते है। जो इस्लाम के अनुयायी होकर भी सनातनपंथी मुसलमानों से सब समय सर्वत्र मेल नहीं खाते। ऐसे संप्रदायों में पाँच मुख्य हैं: चिश्ती, कादिरी, सूहरवर्दी, नक्षबंदी और शत्तारी। चिश्ती संप्रदाय के दो उपसंप्रदाय हैं-साबिरी और निजामी। फिर निजामी की दो शाखाएं हैं-हिशमी और हाजशाही। इसी प्रकार कादिरी संप्रदाय की दो शाखाएं हैं -बहाबिया और रजाकिया। इनकी भी प्रशाखाएं हैं-मुकीम शाही और नौशाही। नौशाही के प्रवर्तक हाजी मुहम्मद बतलाये जाते है। इनके चार शिष्यों में से दो के नाम पर शाखाएं ‘पाक रहमानी’ और ‘सचयारी’ के रूप में प्रसिद्ध हुई। इसी प्रकार के सरशाही और बेनवा जैसे दो अन्य संप्रदाय भी है। पंजाब के ऐसे  ही संप्रदायों में हुसेनशाही और मियांखेल संप्रदायों के नाम लिये जाते हैं। सुहरवदी संप्रदाय के अंतर्गत जलाली, मखदूमी, मीरनशाही, दीलाशाही, इस्माइलशाही आदि कई शाखाएं हैं। नक्षबंदी सूफियों को सनातनी मुसलमानों में बहुत सम्मान प्राप्त हैं। औरंगजेब इन्हीं का मुरीद था। इन्हें संगीत व नृत्य के अतिरिक्त पीरपूजा, समाधिपूजा और दीपदान जैसी पद्धति स्वीकार्य नहीं है। शत्तारी संप्रदाय वाले कादिरी संप्रदाय वालों की तरह वस्त्र धारण करते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं, जो बाल नहीं रचाते और धर्मिक पाबंदियों के प्रति उदासीन रहते है। जो हो, सूफी-सम्प्रदाय भी भक्ति-आदोंलन के प्रभाव से अछूता न रह सका और उसकी भक्ति प्रेमाभक्ति के साँचे में ढ़लने लगी थी। 

केरल का शास्तपूजक संप्रदाय बंगाल के धर्म-ठाकुर, सहजिया, बाउल, सत्यपीर, कर्ताभाजा आदि संप्रदाय; उड़ीसा का पंचसखा संप्रदाय; महारष्ट्र के वारकरी और महानुभाव-संप्रदाय भक्ति आंदोलन की ही उपज है। जिनके अनुयायियों द्वारा भक्तिकाव्य की रचना हुई और इस प्रकार भक्ति साहित्य का विपुल भंडार समृद्ध हुआ। इस प्राकर कुल मिलाकर कुछ-कुछ प्रभाव हर संम्प्रदाय का उस समय था। 


Monday, 19 July 2021

सूत्र

 

 

सूत्रधार-                          उदयनवेन्दुसवर्णावासवदत्ताबलो बलस्य त्वाम्।

                                   पद्मावतीर्ण पूर्णों  वसन्तकग्रौ भुजौपाताम् ।।

एवं आर्यामिश्रान विज्ञापयामि । अये, किं न खल मयि विज्ञापनव्यगे्र शब्द इव श्रूयते। अंग, पश्यामि।

                                                         (नेपथ्ये)

                                             (उत्सरत उत्सरत, आर्या: उत्सरत।)

सूत्रधार:                         भवतु,                                        विज्ञातम्

                                  भृत्यैर्मगध राजस्य स्त्रिग्धै: कन्यानुगामिभि:।

                                  धृष्टामृत्सार्यते      सर्वस्तपोवनगतो जन: ।।

                                                                                                        (निष्क्रान्त:)

                                                   स्थापना।

नान्दी-मंगलाचरण-स्थापनाप्रस्तावनास्वरूप है। इसको विविध रूपों में प्रस्तुत किया जाता है।

    मम्मट का काव्यप्रकाशनिम्र श£ोक से प्रारंभ होता है-

                               नियतिकृतनियमरहितां ह्््््यादैकमयीमम् अनन्यपरतन्माम् ।

                               नवरसरूचिरां   निमिंतिमादधति   भारती    कवेर्जयति।।

                                                                                                                 (काव्य-1-1)

मम्मट का कथन है कि यहां जयंति शब्द मंगलवाचक है। काव्यप्रकाश के सभी टीकाकारों ने यह अभिप्रायव्यक्त किया है कि उसका यह प्रथम श£ोक नान्दी पर प्रस्तावनास्वरूप है।

संस्कृत साहित्य के किस प्रकार -विशेष में (प्रस्तावना) कौन -सा स्वरूप लेकर प्रकट होती है, यह विषय मनोरंजक एवं अध्ययन योग्य है। कोई विद्वान  अधिकारी पुरुष ही यह कार्य कर सकता है। इसी तरह प्रकारन्तर से प्रस्तावना की योजना होती तो निम्न ग्रंथों की गरिमा बढ़ जाती ऐसा कुछ अंग्रेजी लेखकों का अभिप्राय है। ये ग्रंथ हैं- Albcruni’s Ethnological Study of India; Babur’s Memoir’s; Muhammed Qaizm Firishta’s History of India’; Abul Fazal’s Ain-c Akbari and Akbarnama’.

 हिन्दी भाषी साहित्य रसिकों को हिन्दी प्रस्तावनाओं के विषय में कुछ बताने का प्रयास करना मेरे लिए धृष्टता  का कमाल  माना जाएगा।  मैं  यह जानता हूँ कि ऐस दु:साहस न करने में ही बुद्धिमानी  तथा औचित्य है।  केवल विषय प्रतिपादन की औपचारिकपूर्णता की दृष्टि सेहिन्दी साहित्य के क्षेत्र का विहंगावलोकन ही यहां अभिप्रेत है।

 स्वभाषाभिमान  स्वदेशभक्ति का एक अविभाज्य अंग है। हिन्दी साहित्यिाके की यह धारणा उनकी प्रस्तावनाओं में प्रतिबिंबित होती है। अपने साहित्य के इतिहास की खोज , उसके विशदीकरण  तािा आधुनिक युग की प्रवृत्तियों के अनुकूल उसका गौरवयुक्त, तर्कशुद्ध प्रकटीकरण-आदि बातों पर प्रस्तावनाओं में जतो आगंह किया गया , उसका  कारण ीाी यही धारणा है। हिन्दी में प्रस्तावनाके लिए अकितर भूमिकाशब्द का प्रयोग होता है।

 इस दृष्अि से आचर्य रामचन्द्र शुक्ल का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण हे। हिन्दी शब्दसागरकी चार सौ पृष्ठों की भूमिका आचार्य जी के द्वारा लिखित  हिन्दी साहित्य का इतिहास ग्रंथ हे।  विश्वप्रपंचकी उनकी भूमिका 123 पूष्ठोंकी है। मूल  ग्रंथ द रिजल ऑफ युनिवर्सका रूपांतर  है। द लाइट ऑफ एशिया  का अनुवाद बुद्धचरित आचार्य जी की भूमिका से गौरान्वित है। उनकी भ्रमरगीत सारकी शशांक’,  विनयपत्रिकातथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथों की भूमिकाएं हिन्दी साहित्य ें वैशिष्ट्यपूर्ण स्थान रखती हैं। उनके द्वारा लिखित जयसी ग्रंथावलीकी भूमिका 153 पृष्ठों की है और हिन्दी साहित्ये में प्रदीर्घ तथा सारगर्भित भममिका केनातेउसका उल्लेख किया जाता है।

 किन्तु इस लेखन केबाद भी सात्यि के इतिहास की दृष्टि सेउनका स्वदेश-स्वभाषा-भक्त मन अतृप्त ही रह। हिन्दी साहित्य का अनुनिक कालसबसे अधिक वैचित्र्यपूर्ण है, क्योंकि इसका प्रवर्तन नूतन सभ्यता की हलचल केसाथ-साथ हआ है । जबसे देश की प्राचीन विचारधारा के साथ  नूतन विचारधारा का संगम हुआ तब से साहित्य के क्षेत्र में न जाने कितने रूप-रंग देखने में आ रहे हैं। इन सबको लक्ष्य करतेहुए  अपने साहित्य के दिन-दिन बढ़ते  हएु भण्डार का स्पष्ट लेख रख लेना बहुत ही आवश्यक हे , क्योंकि ज्यों-ज्यों अधिककाल बीतता जाएगा और बातें भी नजर से दूर पउ़ती  जाएंगी । उनका विचार था, ‘पर सच पूछिए तो, बड़ी आवश्यकाता इस बात की है कि किसी एक विशेषकाल को लेकर विस्तृत रूप से अनुसंधान और विचार किया जाए तथा उसके अ ंतर्गत जो कुछ काय्र हुआ हे वह व्यवस्थित रूप  में सामने लाया जाए।’’ स्पष्ट है कि यह कार्य भूमिकाओंके माध्यम  से भी किया जा सकता है और स्वतंत्र लेखन के माध्यम से भी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहासप्रकाशित होने के पश्चात् हिन्दी साहित्य में अनेक नई विधाओं का विकास हुआ है। आचार्य जीा को विश्वास था कि उस विकास को ख्याल में रखकर इतिहास को अद्यतन तथा समग्र  बनाने का कार्य पं. कूष्ण शंकर शुक्ल करेंगे।

 आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ को हिंदी साहित्य के इतिहास की भूमिका के रूप में ही प्रचारति किया और उसका नामकरण किया- हिन्दी साहित्य की भूमिका

साहित्य के इस प्रकार में कई श्रेष्ठ साहित्यिकारों ने अपना  योगदान किया है। नन्ददुलारे बाजपेयी की आधुनिक साहित्य की भूमिका; महादेवी वर्मा की आधुनिक कवि (2) की भूमिका; सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाकी अनामिका की भ्ूमिका; तारसप्तक-दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक, चौथा सप्तक की अज्ञेयके द्वारा लिखित भूमिका; ‘कबीर गं्रथावली की डॉ. रमेश चन्द मिश्र द्वारा लिखित सुन्दर ग्रंथावलीकी 122 पृष्ठों की भ्ूमिका- कुछ गरिमापूर्ण भूमिकाओं के उदाहरण हैं।

कुछ अपवाद छोड़ दिये जायं तो सामान्यत: सार्वजनिक कार्यकर्ता सही अर्थ मे साहित्यिक की श्रेणी में आने की योग्यता नहीं रखता। परिस्थिति की आवश्यकता के कारण उसको कुछ  लिखना पड़ता है, किन्तु ववह लेखन हे, ‘साहित्य नहीं। साहित्य और लेखन में अन्तर है। ठीक उसी प्रकार जैसे जन्जात कवि की उत्स्फूर्ति  काव्यरचना और बच्चों के पाठ्क्र के लिए वेतन पाने वाले शिक्ष्ज्ञा-र्कचारी की यांत्रिकी पद्यरचना ममें अन्तर होता है।। काव्य रचना पद्यमय हो सकतीहै, किन्तु हर पद्यरचना काव्य न हीं होती।  यही अन्तर साहित्य और लेखन में होता है।  हाँ, कुछ प्रतिभाशाली व्यक्ति सव्रूसाची, अष्ट-पहलू हुआ करते हैं, किनतु उनको अपवाद रूप ही ममानना चाहिए। पश्चि मे कुछ लेचाकों ने द ुनिया के इतिहास को- अच्छा रहा या बुरा- इनया  मोड़ दिया। रूसो, वाल्टेअर, थॉमस पेन,, माक्र्स आदि नाम् इस संर्छीा में दृष्टिपथ ें आते हें। कुछ श्रेष्ठ पुरुषों ने उत्ककृष्ट  जननेता तथा उत्कृष्ट लेचाक इन दोनों भूमिकाआकें का सफलतापूर्वक निर्वाह किया। ज्यूलियस सीजन, नेपोलियन, लेनिन, विन्स्टन चर्चिल , मेझनी, टेरेन्स मॅक्स्विनी चार्लस द गॉल  इस श्रेणी में आते हैं।

 कुछ हापुरुष ऐसे हें कि जिनकी छाया इतिहास पर दूर  तक पड़ी  हुई है। किन्तु वे अधिक मात्राा में मौलिक लेखन नहीं कर सके। व्यावहारिक स्तर पर उनके द्वारा नेतृत्व के जो गूण प्रकटहुए उनके  परिणास्वरूप उन्हों व्रूावहारिक सफलता प्राप्त हुई। किन्तु मौलिक साहित्य की निर्मिति उनके द्वारा नहीं हुई। 14 वां लुई , मार्शल टीटो, लिंडन ज ॉनसन, हो ची न्हि, चेग्वेवारा इस वर्ग  में आते हैं।  कुछ लोगों ने व्यस्त जननेता की भमिका का  निर्वाह करते हुए भी लेखन के लिए आवश्यक समय निकाल लिया। प्राप्त  हो सका। हिटलर ने लॅण्ड्वर्ग कारागार मममें  िले समया का उपयोग मेन काम्फलिखने के लिए किया। लेनिन ने स्विट्रजरलैंड निर्वासन  काल ममें विपुल  लेखन किया।  माओत्से तुंग प्रत्यक्ष व्यावहारकि कामों में व्यस्त रहेते थें, तो भी येनान के लिवास काल में उन्हों लेखन के लिए अवसर प्राप्तहुआप। लॉयड जॉर्ज या चर्चिल  के आत्चरित्र पर संस्मरण और हिटलर -मुसोलिनी-स्टालिन के आंशिक आत्मचरित्र इसी्र प्रकार की परिस्थितियों में लिखे जा सके। इन सब  लेखकों की अलग-अलग श्रेणियाँ हैं और इसी पृष्ठिभू िकें उनके साहित्य का ूलयांकन किया जाता है। किन्तु येलोग अपवाद हैं। हर एक सार्वजनिककार्यकर्ता की  गिनती  उनकी श्रेणी ममें नहीं की जा सकती। प्रेम आतिशी शीशा (magnifying glass)  होने के कारण् हमारे  जैसे कार्यकर्ता को यदि  कोई उस श्रेणी में डाले तो वह श्वायुवामघवाकी बात को चरितार्थ करने वाला माना जाएगा। समकालीनों ें पझिडत दीनदयाल उपाध्याय को छोडक़र इस स्तर का दूसरा नाम आसानी  से ध्यान में नहीं आता।

 सारांश, इस पुस्तक में समाविष्ट प्रस्तावनाओं पर विचार करते समय पाठाकेंको यह ध्यान में रखने की कृरनी चाहिए कि यह सब लेखन मात्र है साहित्य नहीं।  फिल्ी संगीत का मूल्यांकन  शास्त्रीय संगीत की कसौटी  पर करना अन्यापूर्ण होगा।

फिर भी, कलात्मक साहित्य रहे या साान्य लेखन, मनोवैज्ञज्ञनिक दृष्अि सेयह तो मानना ही पड़ेगा  कि साहित्यकार और साहित्य में, लेखक और लेखन में कुछ  अन्योन्य संबंध अवश्य हुआ करता है।  लेखक के व्यक्तित्व की जानकारी रही तो उसके लेखन का यथायेग्य मममूल्यांकन करना सहज सम्भव  होजाता है। वैसेही, लेखन का बारीकी सेअध्ययन किया तोलेखककेव्यक्तित्व को कुछ न कुछ हलू अवश्य ध्यान आतेहैं। सीाी श्रेष्ठ साहित्यकारेां केविषय ें पाठकों केमन में स्वाभाविक रूप सेविशिष्ट प्रतिमाएंसूस्पष्ट या अस्पष्ट  निर्माण होती हैं। वैदिक ऋचाकार  ऋषियों  या उपनिषदकारों  के विषय में कितनी ज ानकारी  उपलब्ध है?  तो ीज्ञी उनें से हर एक की विशिष्ट प्रतिमा पाठकों केन में अपने आप निर्माण होजाती है। ब्रिटेन के चॉसर (१३४०-१४००) के व्यक्तित्व  के विषय मममें पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। उनकी  ‘Prologue to Canterbury Tales’कृति इंग्लिस भाषा में  सर्वप्रथ प्रस्तावना  कृति है। उनके व्यक्तित्व की दृष्टि से यहप्रस्तावना पारदर्शक है। ग्रीक भाषा ें प्रथम  कॉेंडी लिखने वाले अरिस्टोफेनीस, प्रथम टे्रेजेडी लिखने वाले सोफोक्लस तथा प्रथमम महाकाव्य लिखने वाले होमर के ज ीवन विषयक थेड़े  तथ्य उपलब्ध हें । अतएव उनके साहित्ये के  आधार पर उनके व्यक्तिव केविषय ें अनुमान लगााया जा ता है। भारत में रामायण, ‘महाभारतके रचयिताओं के विषय में भी ऐसी ही स्थिति हैं। दुनिया में ऐसे ब हुत कम उपन्यासकार या नाटककार होंगे कि जिनकी कृतियों ें उनके व्यक्तिव का प्रतिबिंब यत्किंचित् भी पाया नहीं जाता? 

 इससे विपरीत प्रक्रिया भ्ज्ञी उतनी ही सही है। विशेषत: आधुनिकपाष्प्मिात्य  ललित-साहित्य के विषय ें इस बात काअभाव अधिक अखरता है। ललितकृति का ठीकआकलन तथा उसके मूल्याकन की दृष्टि से लेखक का व्रूक्तिगत जीवन,उसकी मानसिकता, उसके सामाजिक संबंध, विविध परिस्थितियों में उसकी उत्स्फूर्ति प्रतिक्रियसएंआदि की जानकारी बहुत महत्वपूर्ण  बन जाती है। इसके अभाव ममें उसकी कृति का यथायोग्य  रससस्वादन हनीें किया जा सकता। यह कार्य प्रस्तावना  के माध्य से ही हो सकता है। किन्तु लेखक के जीवन काल मेंयहसब प्रस्तुत करना शायद- अधिकंश प्रसंगों में- अतीव नाजुक तथा पेचीदा काम बन सकता है।

 स्पष्टीकरण की दृष्टि सेएकाध उदाहरण पर्याप्त होगा।

‘The Fountain-head’ चौदह के पशात एन रेंड  ने  ‘Atlas Shrugged’ लिखा । इस शताब्दी के छठवों दशक की प्रमुख साहित्यक कृतियों में उसकी गिनती है। यह उपन्यास लिखने के लिए उसको 14 (चौदह) वर्ष का परिश्रम करना पड़ा।  उसें ग्रथित (त्रड्डद्यह्ल  के ) 93 पृष्ठों के एक प्रदीर्घ भाषण को  लिपिबद्ध  करने में लेखिका को दो वर्ष लगे। रसिक तथा विचारवंत पाठकों ने इसका अनुपम स्वागत भी किया। उस दशक के ऐंग्लेोसॅक्सन मममानसिकता तथा विचारों पर इसका प्रभाव स्पष्टरूप से दिखाई देता था।  इसका रसग्रहण बहुत बड़े  पैमाने पर हुआ। इसका ूल्यांकन लेखिका केलिए  अतीव श्रेयस्कर और कीर्तिदायक रहा।

यहसब उचितही था और है। किसी भी अवस्था ें यह यथावत् रहता है तो भी यह भी सत्य है कि बारबारा (Barbara)    द्वारा लिखित एन. रॅण्ड  का  चरित्र यदि पहले ही प्रकाशित हुआ तोता और उसके जीवन तथा नोव्यापारों का पाठकों कोपूरा पता होता, (खासकर गाल्ट (galt  )  के प्रदीर्घ भाषण के दो वर्ष के लेखनकाल में लेखिका केबालझााक् की प्रेयसी को ममामतकरने वाले लोकरीति विपरीत  काजीवन का ) तो उसके रसग्रहण तथा ूलयांकन ें कुद और आया ीाी जूड़ ज ाते।

 पश्चि के पाठकों की यह ान्यता है कि लििलत -साहित्य तथा प्रस्तावना  लेखन ें सबसे अधिक ममहत्वपण्र बात है लेखन की प्रामाणिकता तािा आधिकृतता (authenticity)   लेखन में लेखक का व्यक्तित्व स्पष्ट दिखाई देना चाहिए अथा्रत पारदर्शक लेखन। ऐसा लेख ही अपने पाठाकेां के मन में यह कह सकता है-

“ Camerado, this is no book,

Who touches this, touches a man,

It is I you hold and who holds you,

I spring from the pages  into your arms.”

-       ( çÃãUÅU×Ù ‘so long’ ×ð´)

 बन्धु, तुम पुस्तक को नहीं

मुझे स्पर्श कर रहे हो।

तुम्हारे हाथों में पुस्तक नहीं

मेरी काया है।

इन पृष्ठों से प्रकट होकर

मैं तुम्हारे हृदय में समा जाऊँगा।।

 अन्यान्य भाषाओं में किवता, कथा , उपन्यास, नाटक आदि पूर्व प्रस्थापित विभागों के समान ही अब प्रस्तावनाऔर  भूमिका  को एक अलग विभाग केरूप ें मान्यता लि रही है। इस विभाग का साहित्य भी प्रचुर मात्राा में निमर्माण होरहाहै। इस साहित्यसागर केकिनारे खड़े होकर उसका दर्शन-  उसमें अवगाहन की बात दूर- केवल दर्शन किया तो भी मन  में आत्ग्लानि  तथा हीनता का भाव निर्माणा होता है। अपने  पास न साहित्यिक गुण है, न किसी भ्ज्ञी विषय में विशेषज्ञता। पास में पूंजी  अथावा एक ही गुण है आर्थात धृष्टता द्ध इसके आधार पर लेखन करना उचित है क्या? या इस अवस्था ममें लेखन संन्यास लेना हीअधिक औचित्यपूण्र होगा?

 किन्तु इसी समयय दूसरी एक घटना का स्रण होता है। ठाढे केऐतिहासिक बाज्यज्ञ के पश्यत मेन्े श्री विष्णुबुवा ब्रह्मचारी के सुखदायाक राज्यक्रकरणी निबंधकेआवश्यक हिस्सों का संकलन करके उनका इंग्लििश भाषांतर लेख का यप् ममें आर्गनाइजरको भेजने के लिए तैयार किया था। ठाणे ममें परमपूतजनीय श्रभ् गुरु जी ने इस निबंध का उल्लेख  किया था और कहा था कि उस पर किसी को रिसर्च करना चाहिए। अंग्रेजी  में तैयार किया हुआ वह लेख मैंने श्री गुरुजी को पढऩे के लिए दिया। जैसे ही उनका पढऩा पूरा हआ, मैंने अपनी ओर सेस्पष्अीकरण्र दिया कि ‘‘यह लेख केवल संकलन है, शेधपत्र नहीं। किन्तु स्भवत: किसी अधिकरी विद्वान  को इस पर शोध करने की इक्ष्छा हो जाए।  इस विषय कमा केवल सूत्रपात  introduction)  करने के हेतु  यह लिखा गया है। ’’ श्री गुरुजी  स्तिहास्यपूव्रकेरी बात सुन रहे थे। धआध निटशांत रहने केबाद वे हंसते-हंसते बोल- ‘‘एसे लगता है कि तुम्हारा सारा  जीवन अलग-अलग विषयों का सूत्रपात (introduction) करने में ही बीत जाएगा।

 अपनी अपात्रता तथा धृष्टता एक ओर, श्री गुरुजी द्वारार किया गया संकेत दूरसरी ओर। क्यो किया जाय? किं कर्म किमकर्मेति? अपनी क्षमता  इस विषय में योग्य  निर्णय करने की नहीं है, इस द्विधा मन-स्थिति में इतना ही सोच और कहस कता हँू -

- ‘‘मूकम् करोति वालालम्

पंगुं  लंघयते गिरिम्।

 यत्कृपा तमहं वन्दे

परमानंदमाधवम्।।’’