Monday, 21 June 2021

गंगा अवतरण पर

गंगा अवतरण पर मेरा प्रणाम 

त्वदीय पद पंकजम नमामि देवी जान्हवी

गंगा भारत की लोक नदी है। वह अपने अन्दर लाखों वर्ष की परम्परा को लेकर चलती है। वह भारत की तीन संस्कृतियों  / जीवन दृष्टियों को एक साथ लेकर बहती है।

 गंगा-प्राचीन आध्यात्मिक विरासत। ब्रह्म कमण्डल से उद्भूत है। वह शिव की जटाओं से प्रवाहित है। “शंभु जटा हिमवान सम की, गंगा लट में बहती।”
वह भूः के रूप में धरती पर,भुवः के रूप में आकाष में और स्वः के रूप में देवलोक की प्रवासी है। वह इन तीनों लोकों से होकर, अपनी पूर्णता के साथ महः के रूप में हैं, देव माता है। जगत कल्याणी है। शाप हारणी है। ताप को शीतल करती है। मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है। गंगा राम की आराध्य है। राम गंगा के ऋणी है। वह उनके पूर्वजों को तारती है।
गंगा अरण्य संस्कृति की धरोहर है। वनवासी, गिरिवासी की दुलारी माँ है। ग्रामवासी हर हर गंगें करता, उसे प्रणाम करता, उसकी परिक्रमा करता है तो वह अरण्य वासी कौतूहल से देखता है। वह निष्कपट भाव से उस यात्री को प्रणाम करता है। वह उसे केर और बेर दो विधर्मियों की प्रकृति को एक साथ प्रकृतस्थ कर उसे समर्पित करता है। उसका आतिथ्य करता है। ग्रामवासी अद्भुत सत्कार और आत्मीयता से उसे विष्फरित नेत्रों से देखता है। धन्यभाग्य हैं इनके जो सदा गंगा मइया की गोद में खेलते हैं। उसका जल ग्रहण करते हैं। जिनमें इतनी एकात्मता है कि पूज्य और पूजक भाव एकाकार हो जाता है। पृथक बोध नहीं रहता।
यहाँ ग्रामवासी की अनन्य श्रद्धा गिरिवासी की सहजता, अपनत्व और गंगा के सामने उदारभाव के प्रति कृतज्ञ है। गिरिवासी गंगा को अपना मानता है, किन्तु केवल अपने के भाव से कोसों दूर है। उसका निर्बोध अरण्य मन दिन को गंगा का हर-हर सुनता है तो रात को उसके लोरी को बोध करना, सुबह फिर मिलने की प्रत्याशा में किनारे घास-फूस की झोपड़ में सो जाता है। यह हमारा लोक है।
वह गंगा में पूर्णमासी के मिलन को हर माह उसके साथ होते मिलन को देखता है। वह ऐसा प्रतीत होता है, मानो आकाश गंगा पूर्णिमा की रष्मियों के रूप में उतर कर धरती के तापों को हरती गंगा के साथ एक रात पूरी तरह मायके के सुख-दुःख, आपसी संवेदनाओं का बँटवारा करती हैं। वे ब्रह्मा के विछोह से लेकर शिव की कल्याणी भाव को याद कर सागर की पूरी कथा आपस में बाँटती हैं। हर अमावस को देव नदी अपनी स्वरूपा से काफी दूर चले जाने का अनुभव करती है।
ग्राम सहचरी गंगा गंगोत्री (अरण्य) से निकलकर कर्त्तव्य पर डट जाती है। ग्रामवासियों ने उसके स्वागत में जगह-जगह घाट बनाये। उसकी पूजा प्रारंभ की। आरती के विविध रूप धारण किये। अपने-पापों की गठरी को गंगा के आँचल में खोला। इतना ही नहीं भावावेष में वे निरन्तर भूलते गये कि जिन घाटों को उन्होंने गंगा के स्वागत के लिए, पूजन-अर्चन के लिए बनाये, उन्हीं के द्वारा वे उस गंगा के स्वरूप को संसार की गंदगी से अनजाने ही भरना प्रारंभ कर दिये। मानस को पवित्र करती गंगा, अमानुषिक ताप से जलने लगी। जब तक ग्रामीण उसके क्रोध के समन का उपाय करते, गंगा का प्रचण्ड प्रवाह कई बार-उन्हें दण्डित करता। रूठने-पूजने-आशीर्वाद देने और लेने का यह क्रम हजारों-हजारों वर्षों से चला आ रहा है। धरा सा मन लिए, धैर्य हिमगिर का धारण किये, सैकड़ों भूचालों को अपने अन्दर समाहित कर गंगा ग्राम से नगरों में प्रवेश करती है।
गंगा दुःखी है। उस का विराट आँचल सिसकियों और तनहाइयों से भर जाता है। वह मलय-मारुत का आह्वान कर सड़कों से निकलते दुःर्गंध से भरे नाले, फैक्ट्रियों-मिलों के जहरीले अवशेषों को बचाने का उपक्रम करती है। वह यमुना को पुकारती है। कैसे साधा था तुमने कालिया नाग के जहर को। यहाँ तो पग-पग पर जहर उगला जा रहा है।
उसे याद आता है अपना अरण्य। उसके जन, उनकी आत्मीयता। उनका अपना पन। उनके ढोलों की थाप। वन-नारियों के नृत्य। बच्चों के किल्लोल। भला वह कैसे उन्हें विस्मरण करती, वहीं से तो किल्लोल, नृत्य और थाप गंगा के जीवन में उद्भूत हुए थे।
उसे स्मरण आता है ग्राम बहूरियों का पूज्यभाव। अहिबात की प्रार्थना। अपना आशीर्वाद। ग्राम की प्रौढ़ों की वह प्रार्थना जिसमें वे अपने अचल सुहाग की कामना गंगा माँ के अस्तित्व तक रहने का संकल्प दोहराती हैं। प्रकारान्तर से अनजाने गंगा के चिरायु, दीर्घजीवी होने की कामना करती है। गंगा अरण्य की आत्मीयता और ग्राम्य के पूज्य भाव से ग्रामीणों के अबोध कृत्यों को विस्मरण कर देती हैं। क्षमा कर देती है। आशीर्वाद देती है। किंतु व्यथित गंगा जमुना से मिलकर उन छोटी-बड़ी नद-नालों की व्यथा-कथा को बाँटती है जो ग्राम की पीड़ा को शहरों के दूराचार के सामने भूल जाते हैं। फूल की घाटियां, स्वर्णकेशी अप्सराओं के नृत्य, घहराती घटाओं का आह्वान इस सृष्टि-स्रोता नदी की नगरीय व्यथा (शहरी प्रदूषण की व्यथा) को दूर नहीं कर पाती।
अलकनन्दा के रूप में जिस गंगा ने पर्वतों की कठोरता को काट दिया, भागीरथी के रूप में जो पतित पावन बनी, जान्हवी के रूप में जिसने अपना सुखद शैषव बिताया। यक्ष, किंनर, नाग, देवता ही नहीं तो अबोध मनुष्यों के लिए जो पूर्ण अनुदार बनी रहीं वही गंगा इस भोगवादी, शोषित शहरी मानसिकता से व्यथित है। दुःखी है।
‘आज पकडंडी रूपी वन एवं ग्राम्य संस्कृति सड़क रूपी शहरी भोगवादी जीवन दृष्टि को ललकार रही है, जरा ठहरो, अपने अतीत को स्मरण करो तुमने अपनी गतिषीलता में अपने शस्य-श्यामला, हरित दूर्वा परम्परा को खो दिया है।
वस्तुतः गंगा तो वही है, जो जीवन के तीनों रूपों को (वन्य, ग्राम और नगर) सम भाव से देखना चाहती है किन्तु शहरी मन ने अपने हाथों से सारे फूल बिखेर दिये हैं। अब वह ठगा-सा अपने को अपने चिरन्तन दर्पण में अनजाना-सा पा रहा है। आज गंगा के इस प्रश्न का समाधान नगर से ग्राम की ओर चलते हुए अरण्य की पूर्णवृति की यात्रा करनी है। वैसे भी भूमण्डलाकार देवता-माँ की प्रार्थना तब तक पूरी नहीं होती जब तक परिवृत्त के साथ हम उसकी आराधना नहीं करते।
गंगा की हितकारिणी वृत्ति का उद्घाटन करते हुए तुलसीदास कहते हैं, यदि किसी राष्ट्र को अपनी कीर्ति, साहित्य और ऐश्वर्य सुरक्षित रखना है तो उसमें गंगा-सी उदारता चाहिए। “कीरति भणिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कर हित होई।।”
सबका हित साधन करने वाली माँ को हमने संसाधन बना कर जल संसाधन विभाग के खाते में डाल दिया है। आईये भूल सुधारें। गंगा रूपी भारतीय संस्कृति, विश्व संस्कृति) विश्वम्भरा को अपने पवित्र कर्मों से ‘तेन-त्यक्तेन-मुंजिथा, के आधार पर नमन करें। जीवन को सार्थक करें।

 
मो. 09425600181

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