Thursday, 17 June 2021

ॐ असतो मा सद्गमय

"ॐ असतो मा सद्गमय"

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसोरेत: प्रथमं यदासीत्
सतो बंधुमसति निरविंदन् हृदा प्रतीष्या कवयो मनीषा।।

मानस का, जीवन  का, संसार का रेतस् (बीज) काम सर्वप्रथम परमात्मा के निष्काम ह्रदय में था। मनीषी ऋषियों ने गहरी खोज करके हृदयस्थ परमात्मा में सत् से असत् का संबंध कराने वाले काम को प्राप्त किया। 

फिर क्या हुआ कि ऋषि तत्काल प्रार्थना करने लगता है-"असतो मा सद्गमय"।

ऋग्वेद-काल में काम, निर्वाण और सुकृति का द्वार माना जाता था।

 इसी काम की उपासना आगम शास्त्रों में काम कला के रूप में विकसित हुई।

 काम के धर्म अविरोधी स्वरूप के विषय में भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहां है-
'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि'।
अर्थात् प्राणियों में धर्म की अविरोधी शुभकामना के रूप में मैं ही हूं।

कबीर ने तो कुछ इस प्रकार कहा- "काम पिछाणैं राम को जो कोई जाणैं राखि।"

काम का यह स्वरूप स्वार्थ विलास आदि अनात्मिक वृत्तियों से शासित होने पर क्रोध, मद, मोह, लोभ, मत्सर आदि छह रिपुओं को जन्म देता है।

"संगात संजायते काम: कामात क्रोधोऽभिजायते।"-(गीता)

इसलिए काम के संपूर्ण स्वरूप को समझने के लिए उसके सामान्य तथा विशेष रूपों का भी विचार आवश्यक है।

काम के प्रभाव का वर्णन तुलसीदास जी ने कुछ इस प्रकार किया है -
चलत मार अस हृदयं विचारा।
सिव विरोध ध्रुव मरनु हमारा।।
तब आपन  प्रभाउ बिस्तारा।
निज बस कीन्ह  सकल संसारा।।
कोपेउ जबहि बारिचरकेतू।
छन महुं मिटे सकल श्रुति सेतू।।
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना।
धीरज धरम ग्यान विग्याना।।
सदाचार जप जोग बिरागा।
सभय बिबेक कटकु सबु भागा।
भागेयु बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे।
सदग्रंथ पर्वत कंदरन्हि महुं जाइ तेहिं अवसर दुरे।।
सब के हृदयं मदन अभिलाषा।
लता निहारि नवहिं तरु साखा।।
...… ........….................
जहं अस दसा जड़न्ह कै बरनी।
को कहि सकइ सचेतन करनी।।
पसु पच्छी नभ जल थल चारी।
भए काम बस समय बिसारी।।
देव दनुज नर किंनर ब्याला।
प्रेत पिसाच भूत बेताला।।
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी।
 तेपि कामबस भए बियोगी।।
......  ...... ..........
धरी न काहू धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहिं काल मह।।

यहां तुलसी साधक को उसी असत से सत् की ओर जाने का रास्ता भी बताते हैं कि ऐसे अवसर पर रघुबीर का ही सहारा है।

अब जरा कामायनी में काम प्रभाव की तलाश की जाये, जहां काम स्वयं कहता है-

मेरी उपासना करते वे,
मेरा संकेत विधान बना।
विस्तृत जो मोह रहा मेरा,
वह देव-विलास विमान तना।।

मैं काम रहा सहचर उनका,
उनके विनोद का साधन था।
हंसता था और हंसाता था,
उनका मैं कृतिमय जीवन था।।

देवों की सृष्टि बिलीन हुई, 
अनुशीलन में अनुदिन मेरे।
मेरा अतिचार न बंद हुआ,
उन्मत्त रहा सब को घेरे।।

देवताओं द्वारा उपासित काम , मोह स्वार्थ, विलास आदि अनात्मक वृतियों से शासित है । 
अनित्य आत्मा या स्थूल शरीर से आबद्ध है; क्रोध ,मद ,मोह, दम्भ आदि उत्पन्न करने वाला है।

 काम की अस्वस्थ अवस्था में वासना सरिता का मध्य प्रवाह तृष्णा का ओघ उत्पन्न करता है; जिसका संगम प्रलय- जलधि में होता है। 

काम की इस अवस्था में प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी वासना तृप्ति के वेग में समाज के हित- अहित, मंगल- अमंगल, धर्माधर्म, नीति -नीति का विचार नहीं करता।

फिर प्रसाद इसे संसृति की सभी क्रियाओं,चेष्टाओ और समृद्धिओं का मूल मानते हुए कहते हैं- 
आरंभिक वात्या उद्गम में,
अब प्रगति बन रहा संसृति का।।

इसी तरह  तुलसीदास ने शिव के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय काम को भी जरा सकता है, उसे अशरीरी बनाया जा सकता है।

किंतु पश्चिम और पश्चिमी सभ्यता के दास दोनों रूपाकर्षण में अपने स्वरूप को भूल चुके हैं।

सम्भवतः इसीलिए मनु महराज ने वर्जनाएं दी हैं-
" माता स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत् । 
बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ।। "
सादर

19 comments:

  1. The write up with relevant illustrations awakens us to the evil effects of lust which has adversely affected the moral fabric since the dawn of creation. On the one hand, the east has sought the way to handle this enemy, the West,on the other hand, feel pride in dancing to it's tune.

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  2. Vishay kee saargarbhit prastuti Sir ji.

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  3. शानदार, विशाल संग्रह

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  4. It is a nice manifestation of Indian knowledge that has come to us from the Vedas to the great literary writers. You have presented it in a commendable way.
    साधुवाद।
    प्रो. एस.पी.सिंह, खंडवा

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  5. सुंदर विश्लेषण के साथ आपने विषय को प्रस्तुत किया है।

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  6. विषय का वृहद् विश्लेषण । विद्वता से परिपूर्ण लेखन हेतु बधाई ,सर

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  7. It is a excellent literary work which gives us lot of information and knowledge about our culture. You wrote it in a wonderful literary nature. Excellent sir.

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  8. बहुत सुन्दर वर्णन।

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  9. बहुत सुंदर वर्णन सर।

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  10. ज्ञानवर्धक वर्णन धन्यवाद सर

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  11. बहुत श्रेष्ठ बैचारिक संयोजन

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  12. विषय को विभन्न सन्दर्भो द्वारा व्यख्यायित किया गया है ।शोध के बाद लिखा जाने वाला लेख प्रभावकारी है ।
    साधुवाद
    प्रभा मिश्रा

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  13. काम की वृत्ति उत्पत्ति परमात्मा के हृदय में, काम धर्मकीअविरोधी शुभकामना, काम उपासना से काम कला में रूपांतर और काम को ही सत असत का आधार मानना सर्वथा शास्त्रोचित है। काम को निर्वाण,सुकृति का द्वार, क्रोध, मोह लोभ, मत्सर इत्यादि रिपु रूप मानना सार्थक व्याख्या है। कामना को विनोद का साधन,वासना की अस्वस्थ अवस्था तृष्णा में परिणति, काम संसृति की प्रगति का संचालक,काम सभी क्रियाओं, चेस्टाओं और समृद्धि का मूल बताना कतई अन्यथा नहीं लगता है। कामवासना के वेग में प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हित से अहित, मंगल से अमंगल, धर्म से अधर्म और नीति से अनीति कर बैठता है। काम आवश्यक है और वर्जित भी। श्रीमन आपके उद्धरणों से काम की ऐसी विशद संतुलित व समाधान परक मुझे और कहीं नहीं मिली। आपको बहुत बहुत बधाई।
    प्रो. अमर सिंह, छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश।

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  14. सभी का आभार

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