Tuesday, 17 March 2020

राजनीति और आज

सरसरि सम सब कर हित होई

कल एक कहानी सुनी , जिसमें गंगा से किसी ने पूछा आपके बारे में कहा जाता है कि आप सबका मैल अर्थात् पापियों का पाप धो देती हैं। फिर आप इस मेल को,  इस पाप को कहां ले जाती हैं? 

गंगा ने कहा यह मैल मैं  सागर में डाल देती हूं । पूछने वाला सागर के पास गया , सागर से पूछा,  गंगा जो मैल समुद्र में डाल देती है , उसे आप क्या करते हैं? सागर ने कहा , मैं बादलों को दे देता हूं। वह बादलों के पास गया। बादल ने कहा मैं उन सारे पापों को वर्षा के रूप में उन्हीं सारे पापियों के आंचल  में डाल देता हूं।

मैंने अभी कुछ दिन पहले अपने ब्लॉग में लिखा था कि राजनीति सुरसरि है। हमारे विद्वान ने टिप्पणी की,  विषय सामाजिक है, सामयिक है , गांव में इसकी चर्चा कर रहा हूं , पर मैं नहीं जानता राजनीति सुरसरि कैसे  है? कल जब मैं यह कहानी सुना,  मेरे सामने अनायास उनका प्रश्न अपने समाधान के साथ आ गया।

राजनीति सुरसरि है , इसके अवगाहन के लिए एक से एक बढ़कर पापी तथा एक से एक बढ़कर तपस्वी और कालजयी मनीष आते रहे हैं। 

प्रश्न पाप और पापियों का तथा सुरसरि के तारणहार का नहीं है । प्रश्न है सुरसरि के अवगाह्न करने के बाद राजनीति के भाव -पुरुष कितने हुए और कितने हो पाएंगे?

 राजनीति मैं अर्जन नहीं है । वहां पर विसर्जन है। विसर्जन अपनी कामनाओं का। बलवती बाहुबली बनने का, सत्ता की भूख का।

 इसलिए राजनीति का भाव -पुरुष वही  हो सकता है जिसने संपूर्ण विसर्जन के बाद किसी प्रकार के अर्जन की अपेक्षा न करते हुए समाज का सर्जन करता है। 

कहा जाता है कि बड़ी तपस्या के बाद राजाओं ने राज्य स्थापित किए , उनमें से कई राजाओं ने बड़ी उदारता और सहिष्णुता के साथ , सेवा भाव से राज्य के स्थापना स्वरूप को लोक सापेक्ष बनाने, उस  सुरसरि को पाने अंशुमानी संघर्ष किया।

राजनीति में राजा डूबे अधिक है, तरे कम हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि राजनीति पर सुर -सरिता होने का प्रश्न उठाया जाए। 

इसके लिए समझना होगा साहित्य का प्रसिद्ध ग्रंथ गीत- गोविंद।  सामान्यतः उसे  घोर श्रृंगार का काव्य कहा जाता है , जबकि वस्तुस्थिति यह है कि वह गहरे अध्यात्म का काव्य है। राजनीति भी गहरी सेवा का कार्य है, सत्ता सुख भोग का नहीं।

राजनीति को ठीक से समझना है तो पंडित विद्यानिवास मिश्र के दो निबंध पढ़ने चाहिए।  पहला है, ' बसंत का नाम ही उत्कंठा है ', और दूसरा है 'बसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं'।

यह दोनों निबंध  केवल विद्यानिवास जी के मन:स्थितियों का चित्रण नहीं करते बल्कि समूचे समाज के अंतरण को हमारे सामने प्रतिबिंबित करते हैं।

 वे लिखते हैं , " बसंत आ गया' क्योंकि मैं उत्कंठित हो उठा। यकायक निरुद्देश अनमना हो उठना, ऐसे अनुभव करना कि कोई बुला रहा है, कौन, यह भी पता नहीं; पर जो बुला रहा है, बहुत अपना है। वह कहां बुला रहा है, अभी पता नहीं। स्मृतियों के गलियारे में बुला रहा है, जहां कुछ दिखता है, कुछ नहीं दिखता। बस, सिलहटी आकृति  दिखती है। पता नहीं किन्हीं अमराइयों में बुला रहा है, जहां साथ- साथ दो दिशाओं से वसंती तन-  मन आए और खो गए, जो जैसा आया वैसा नहीं रहा; बड़ा दुर्निवार आमंत्रण है वसंत का।"

जरा इन शब्दों को गुने- 'स्मृति के गलियारे' और 'जो जैसा आया वैसा नहीं रहा'!

अब जरा विचार करें हजारों साल की परकीय शासन व्यवस्था के बाद हमने स्वतंत्रता प्राप्त की। केसरिया बाना सजा वीर का श्रृंगार किया। लगा, हमारे त्रेता के राम और द्वापर के कृष्ण राष्ट्र-पुरुष के रूप में, भाव -पुरुष के रूप में हमें पुनः प्राप्त हो गये हैं । 

परंतु देखते - देखते 70 / 72 वर्षों में हमने अपने राजनीति के मूल भाव को खोया है। वे मूल भाव थे ,हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'मनुष्य की पीछे की आंख ' अर्थात् अपने अतीत के स्वाभिमान की स्मृति और कबीर का 'जस की तस चदरिया' रख देने की संकल्प-वृत्ति। 

विषय को गांधी के शब्दों में भी समझें,  हिंद स्वराज में लिखते हैं " ऐसा कहने में शायद ढिठाई का बोध  हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज की तस्वीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंट्री ढंग का स्वराज पाना है।"

आज की तस्वीर को देखकर क्या हम गांधी के उसी पार्लियामेंट्री स्वराज की तस्वीर देख रहे हैं और क्या हम अपने भाव पुरुष को आत्मसात कर पा रहे हैं ?  एक चिंतन का विषय है।

हमारे एक मित्र बड़े भावुक हो कहने लगे , भाई! राजनीति को क्या हो गया। विधायक इधर से उधर (मैं यहां जिन शब्दों को उन्होंने ने कहा, नहीं लिख रहा हूं,पर आप समझ गये होंगे)। 

मैने कहा, बंधु ! राजनीति में जब नियामक तत्व नीति के विधायक तत्वों को ओझल करने लगते हैं तब सामान्य रूप से पीढ़ियों से आ रही परंपरा, दर्शन , अध्यात्म की हमारी दृष्टि राजनीति से ओझल होने लगती हैं। संवेदना मरती है , मनुष्यता तड़फड़ाती है। 

संभवत हम उसी कालखंड से गुजर रहे हैं। एक विद्वान की टिप्पणी और भी बड़ी महत्वपूर्ण थी जिसका उल्लेख यहां कर रहा हूं ।वे लिखते हैं , राजनीति भले हीं हमारा भविष्य तय करती हो परंतु मनुष्यता को भुलवाती चली जाती है , इसलिए आज आवश्यक है ज्यादा से ज्यादा मनुष्यता के निर्माण की जो राम, कृष्ण से लेकर बुद्ध और गांधी तक चाहते थे।
शेष पाठकों पर। 
राजनीति राखत सुरत्राता।

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