काल की परिस्थिति और संघ-निर्माता डॉ हेडगेवार
‘हेडगेवार’ कुल नाम मूलत: तैलंग है तो भी वह घराना ऋग्वेदान्तर्गत आश्वालयन सूत्र की शाकल
शाखा के महाराष्ट्रीयन तैलंग अर्थात् देशस्थ ब्राह्मणों में से हैं। आन्ध्रप्रदेश के
तेलंगाना भाग में कन्दकुर्ती नाम का गाँव इस कुल का मूल स्थान है। लगभग डेढ़ सौ वर्ष
पूर्व बलिराम पंत हेडगेवार के पितामह नरहर शास्त्री वहाँ से नागपुर आये और तब से उनकी
अगल दो-तीन पीढिय़ाँ नागपुर में ही बीतीं। नागपुर आये हुए हेडगेवार घराने के व्यक्तियों
ने थोड़े ही दिनों में अपनी विद्वता के बल पर अच्छी ख्याति अर्जित कर ली। साधारणत:
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक इस कुटुम्ब के अच्छे दिन रहे।
किन्तु १८५३ में अंग्रेजी सत्ता की कृष्ण छाया नागपुर पर पड़ते
ही अन्य स्थानों की भाँति वहाँ भी वेद-विद्या के दिन ढल गये। उस समय अंग्रेजी विद्या
का ही जोर था। महारानी विक्टोरिया उस समय भारत-सम्राज्ञी बनने की तैयारी में थीं,
और अफ्रीका की विजय अभी समाप्त
नहीं हो पायी थी। किन्तु सुखद बात यह भी थी कि दुनिया में परिवर्तन लाने का प्रारंभ
हो चुका था जिसके साथ ही तिलक (२३ जुलाई,१८५६), विवेकानन्द (१२ जनवरी,
१८६३), श्री अरविन्द (१५ अगस्त,१८७२), का जन्म हो चुका था। आइनस्टाइन
(१४ मार्च,१८७९) भी दुनिया में
आ चुके थे। जूल वैर्न तब भावी युग के अनुसंधान में लगे थे, संसार दो युगों के संधि स्थल पर खड़ा था।
इतिहास के पन्ने कभी-कभी सचेत करते हैं कि नये युग के आविर्भाव
से पूर्व तुम्हें कड़ी परीक्षा और विनाश के काल का सामना करना है। परन्तु ऐसा भी लगता
है कि इस चेतावनी के पीछे सावधानी ही अधिक रहती है, संभवत: यह होता इसलिए है कि नये अंकुर पहले ही फूट चुके
होते हैं, अत: विनाश की (अथवा कहें
कि परिष्कार की) शक्तियाँ कमर कस कर मैदान में आ उतरती हैं। जो भी हो यूरोप की गौरवश्री
उस समय आकाश चूम रही थी। पश्चिम का पलड़ा भारी लगता था। नागपुर में कैसी परिस्थिति
रही इसका चित्र अमरीका में रहने वाले विख्यात क्रांन्तिकारी श्री रामलाल वाजपेयी ने
अपने आत्मचरित्र में इस प्रकार खीचा है, ‘एक काबुली पठान लाखों की बस्ती में घुसकर गरीब लोगों को मार
कर तथा उनके पैसे लूटकर सुरक्षित लौट सकता है।
हिस्लौंप कालेज के बगल में सभी गन्दी
बस्तियाँ थी। शराब, चरस और गाँजा पीकर जरा-जरा से मुसलमान छोकरे हमें कालेज जाते हुए गाली देते हैं,
घेर लेते हैं और हम सब चुपचाप
सहन कर कालेज चले जाते हैं। एक अंग्रेज सिपाही अकेला ही नगर में आकर सहस्त्रों लोगों
के सामने एकाध गरीब को पीट-पाटकर वापस चला जाता है। हम सब देखते रहते हैं। कोई भी प्रतिकार
नहीं करता। अखाड़े में कसरत करने के लिए अगर हम शिक्षित लोग गये तो शेष समाज हमारी
ओर घृणा-भरी दृष्टि से देखता है। इस प्रकार के मुर्दा समाज
को देखकर क्या करें यह समझ में नहीं आता।’क्या देश में आज-कल
हो रहे प्रायोजित दंगों को देखकर इससे कुछ सीख ली जा सकती है ?
राष्ट्र का पुनरुत्थान किसके सहारे होता है और किस आधार पर राष्ट्र
वैभवशाली एवं अजेय बनते हैं ? भूमि, जनसंख्या, धन, बुद्धिमत्ता और पराक्रम, इन सबसे परिपूर्ण राष्ट्रों के धूल मिलने के उदाहरण
इतिहास में उपलब्ध हैं। महान साम्राज्यों के स्वप्र देखने वाले समाज नाम शेष हो गये।
मिश्र गये, यूनानी गये तथा बेबिलोनिया
का तो कोई नामलेवा भी नहीं बचा। इसलिए ध्यान में आता है कि जिस समाज में देशभक्त,
परम्परा के प्रति श्रद्धा और
समष्टि जीवन का भाव रहता है और इस भाव को लेकर जिस समाज में महापुरुष पैदा होते हैं,
वहीं राष्ट्र कालजयी बनता है।
समर्थ रामदास इसे ‘धकापेल का मामला कहते हैं ।
पराभव हर समाज और देश
की स्वाभाविक क्रिया है किन्तु जब राष्ट्र के अन्दर अपनी संस्कृति को बचाने के लिए
समय-समय पर कालजयी पुरुष पैदा होते हैं तो उनके साथ वह राष्ट्र भी कालजयी बनता है।
इजरायल इस बात का उदाहरण है कि दो हजार वर्ष तक अपने देश से अलग रहने के बाद भी कैसे
आज सत्तर-बहत्तर साल में उन्होंने न केवल अपने सामरिक क्षेत्र में बल्कि भाषा और परम्परा
को जीवित रखने के क्षेत्र में सफलता हासिल की। भारत के पास भी बताने को है कि राम और
कृष्ण हमारे ऐसे जीवन्त कालजयी दिव्यपुरुष हैं जो न केवल देश के लिए तो दुनिया के लिए
अप्रतिम उदाहरण हैं। इन्हीं की जीवन से प्रेरणा लेकर सदैव एक मालिका चलती है। उसी मालिका
के रूप में १८८९ में एक महापुरुष पैदा होता है, जिसका नाम है, डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार।
सुख, समाधान और सन्तोष से भरे हुए
इस कुटुम्ब में शक सम्वत् १८११ की चैत्र सुदी प्रतिप्रदा को केवल साढ़े तीन घड़ी के
शुभ मुहूर्त के वर्ष प्रतिपदा के दिवस प्रात:काल सौभाग्यवती रेवतीबाई को एक और पुत्र
रत्न प्राप्त हुआ। उस दिन रविवार था जो कि प्रचण्ड तेज की राशि भगवान सूर्य का वार
है। अंग्रेजी गणना से यह दिन १८८९ ई. की पहली अप्रैल आता है। बालक का नाम केशव रखा
गया जो कालान्तर में केशव बलीराम हेडगेवार के नाम से प्रसिद्ध हुए।
बचपन से तिलक के लेखों और शिवाजी के जीवन का उनमें पड़ता प्रभाव
उन्हें राष्ट्रप्रेम से भर रहा था। नागपुर में प्रात:काल चलनेवाली तोप, हाथी, घोड़े और चौघड़े के साथ ठाट-बाट के साथ निकलनेवाले भोंसलों
की सवारी, ‘सरकार’ नाम से महाराज का उल्लेख, महल का राजवाड़ा, पुराने महल की सीमा पर परकोटे के द्वार आदि बातों से
केशव के बाल-मन में यह बात घर कर गयी थी कि नागपुर में भोंसलों का राज्य है।
किन्तु
समाचार पत्रों के पढऩे, विद्यालय के शिक्षकों द्वारा ‘शिवचरित्र’ के अनुषंग से सुने हुए विचारों तथा डॉ. खानखोज, रामलाल वाजपेयी आदि तत्कालीन क्रांतिकारियों की विदित
होनेवाली गतिविधियों से इस भ्रम को दूर होते देर नहीं लगी कि यहाँ तो विक्टोरिया का
राज्य है।
२२ जून, १८९७ को इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठ वर्ष पूरे हो रहे
थे। विदेशी सरकार ने यह अवसर फिर से एक बार अपने विजेतापन का डंका विजितों के मन में
बजाने के लिए उपयुक्त समझा। झण्डे, पताका, हार, तुर्रे, इत्र तथा स्वाभिमान शून्य भाषणों
के साथ ही बच्चों की मिठाई बाँटेने का कार्यक्रम भी इन समारोहों में रखा गया था।
उस अवसर तक बालक केशव की राष्ट्र चित्ति जागृत हो चुकी थी। उन्होंने
यह कहकर की ‘यह गुलामी अंकित मिठाई है, इसे खा नहीं सकते और उसे कूड़ेदान में फेंक दिया।’ यही स्वाभिमान १९०१ ई. में इंग्लैण्ड के बादशाह एडवर्ड
सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर केशव के विचार अपने मित्रों के आमंत्रण पर चलने के
लिए कहने पर प्रकट होता है, ‘विदेशी राजा का राज्यारोहण उत्सव मनाना हमारे लिए लज्जा का विषय है। अत: मैं नहीं
चलूँगा।’
नागपुर में सीताबर्डी के किले पर ‘यूनियन जैक’ दिन-भर फहराता था, केशव के मन में उसे हटाकर भगवा फहराने की इच्छा अपने मित्रों के सामने आयी थी और
उसके लिए उन्होंने गुरुजी के घर से सुरंग खोदने का उपक्रम किया था। केशव उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता गये तब
श्री बझे बड़े कौतुक के साथ यह घटना दूसरे लोगों को बताते थे।
वास्तव में केशव के मन में परम्परा के विचार थे। बाल शिवाजी
ने , ‘शीश झुके नहीं माता’ और रामदास ने ‘चिन्ता करता विश्व की’ कही थी । योग विद्या के सामर्थ्य से चौदह सौ वर्ष तक जीने वाले
किन्तु फिर भी अहंकार से मुक्त नहीं हुए योगी चांगदेव को उपदेश देने का ज्ञान और अधिकार
छोटे से ज्ञानदेव में रहता है। किन्तु जब ज्ञानदेव निन्दा से घबराकर कमरे के अन्दर
बन्द हो जाता है तो उमर में छोटी बहन मुक्तबाई कहती है ‘रागें भरावें कवणासी। अपाझा ब्रह्म सर्वदेशी।’ यही बातें बालक हेडगेवार की
आदर्श बनीं ।
यह वह काल था जब लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ के द्वारा जनता के स्वभिमान को जगा कर जो गर्जना की थी उससे
राज्यकर्ता भयाकुल हो उठे थे। श्री शिवराम पंत परांजपे के ‘काल ’ में व्यक्त विचारों के फलस्वरूप तरुण-मन में जिस तेज का संचार
होता था उससे तो अंग्रेजी राज्य को अपना काल ही सम्मुख नाचता हुआ दिखायी देता था। उसी
समय अफ्रीका के बोअर-युद्ध से वापस लौटे हुए डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे ने अपनी डाक्टरी
व्यवसाय के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वरूप के नये कार्यक्रम भी नागपुर में प्रारम्भ किये
थे। उन्होंने राष्ट्र-प्रेमी मित्रों को एकत्रित कर विभिन्न प्रकार के विचार जागरण
के कार्यक्रमों की योजना बनायी। उनमें लोकमान्य द्वारा प्रवर्तित उत्सव और आन्दोलनों
का भी समावेश होता था। अत: ये सभी उत्सव एवं आन्दोलनात्मक कार्यक्रम नागपुर में भी
मनाये जाने लगे। अर्थात् नये विचारों की हवा चलने पर उन विचारों का प्रभाव हो रहा था।
प्रेरित तरुणों को आस-पास की परिस्थिति की सम्पूर्णता अवलोकन करने की दृष्टि एवं उसका नियमन
करने की सम्यक बुद्धि भी स्वाभाविक तौर पर क्रमश: प्राप्त होती गयी। और केशव के मन
में भी यह विचार घर बनाता गया कि राष्ट्रोत्थान के लिए अपने प्रयात्नों की पराकष्ठा
करनी चाहिए।
माता-पिता की अकाल मृत्यु पश्चात केशव का घर से सम्बन्ध टूटने
लगा। उन्होंने कष्टों के साथ आगे का जीवन निर्वाह करने के संकल्प के साथ अपनी पढ़ाई
और देशभक्ति का कार्य जारी रखा। इसमें डॉ. मुंजे का उन्हें भारी सहारा मिला। उनके सोलह
वर्ष की उम्र में उनके दिए गये सभाओं में भाषाणों का प्रभाव हो रहा था और इससे प्रभावित
होकर डॉ. पाण्डुरंगराव खानखोज के क्रान्तिकारी गुट ‘स्वदेश बान्धव’ से भी उनको प्रोत्साहन मिलना प्रारम्भ हो गया। डॉ. खानखोजे
‘केसरी’ की अपनी लेखमाला में कहते हैं, ‘व्याख्यान-माला तथा स्वेदशी-प्रचार के काम में गणू जोशी,
मोरु अभ्यंकर, खरे, बाबूराव सुतार,
केशवरावे हेडगेवार बगैरह अनेक
तरुण लोग आगे आये। डॉ. खानखोजे ने ‘स्वदेश बान्धव’संगठन की ओर से स्वेदशी वस्तुओं का प्रचार करने के हेतु महाल
के रास्तेपर ‘आर्य बान्धव वीथिका’ की स्थापना की गयी थी। ध्यान रहे स्वदेशी आन्दोलन का यह वह समय था जब गाँधी के
स्वदेशी आन्दोलन का कहीं अता –पता भी नहीं था ।
केशव के एक बाल मित्र श्री बलवन्तराव मण्डलेकर की स्मृति के
अनुसार १९०५-०६ के आस-पास डॉ. मुंजे के यहाँ विभिन्न विद्यालयों के कुछ चुने हुए छात्रों
की एक गुप्त बैठक हुई थी। उसमें ‘बम’ बनाने का तरीका बताया
गया था। तथा महाराष्ट्र और बंगाल की परिस्थिति का वर्णन भी किया गया था। इस बैठक में
केशवराम हेडगेवार, मण्डलेकर आदि तरुण उपस्थित थे। इसका बड़ा कारण यह भी था कि बंगाल में मुसलमानों
को निकट लाने की दृष्टि से अंग्रेज सरकार ने सन् १९०५ ई. की २९ सितम्बर को बंगाल के
दो टुकड़े करने का निर्णय किया। यह बात किसी भी देशभक्त को नहीं भा सकती थी। १९ अक्तूबर
१९०५ का दिन ‘दुख:-दिवस’के रूप में सम्पूर्ण बंगाल में मनाया गया तथा उसमें लाखों व्यक्तियों ने सभा,
जुलुस, प्रदर्शन एवं प्रस्ताव के द्वारा
सरकार के इस कृत्य का तीव्र विरोध किया। अनेक लोगों ने अनशन व्रत रखा था। यह कार्य
युवाओं को नकाफी लगा और परिणामत: तरुणों ने कलकत्ता, ढाँका आदि स्थानों पर सशस्त्र क्रांतिकारी दल का गुप्तरूप
से संघटन प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार से जनता का सरकार विरोधी क्षोभ प्रकट होने लगा
तथा उसकी प्रखरता दिनोदिन बढ़ती ही गयी। थोड़े ही दिनों में बंग -भंग केवल पूर्व के
प्रदेश का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत के लिए एक महत्त्व का प्रश्र बन गया। सभी प्रान्तों को एक सूत्र
में गूँथने वाली देशभक्ति की सुप्त भावना बंगाल पर अंग्रेजों के इस प्रत्यक्ष आघात
से जाग्रत हो गयी तथा उस भावना की दिव्यता को प्रकट करने वाला ‘वन्देमातरम्’ का मंत्र सम्पूर्ण देश में गूँजने
लगा। उस काल में ‘वन्देमातरम् के मंत्र ने जन-मन में कितना परिवर्तन किया था इसका वर्णन करते
समय अरविन्द घोष लिखते हैं, कि ‘वन्देमातरम्’यह मंत्र दिया गया तथा एक ही दिन में सम्पूर्ण जनता
की देशभक्ति की दीक्षा मिल गयी।’
यह मंत्र नागपुर में भी गूँजा। १९०६ में दिसम्बर में स्वदेशी
आन्दोल की प्रभावी पृष्ठभूमि में कलकत्ता में कांग्रेस अधिवेशन हुआ। वहाँ से स्वराज्य,
स्वदेशी का नारा गूँजा और बहिष्कार
तथा राष्ट्रीय शिक्षा के सक्रिय आन्दोलन की चतु:सूत्री लेकर लोग अपने अपने प्रांतों
में गये। लोकमान्य तिलक लौटते समय नागपुर में रुके। उनके ओजस्वी भाषण का प्रभाव हेडगेवार
जैसे तरुणों पर पड़ा। १९०७-०८ आते-आते विजयादशमी की एक घटना केशवराव की उस समय की मन:स्थिति
पर अच्छा प्रकाश डालती है। स्वेदशी के प्रचार तथा ‘वन्देमातरम् के प्रसार में उनका मन पूरी तरह
रम गया था। क्रांतिकारक दल के विचारों के कारण
उनकी वृत्ति में निर्भयता और वाणी में ओजस्विता भी आना स्वाभाविक ही था। सीमोलंधन का
जुलूस निकला। ‘वन्देमातरम्’का घोष हुआ, राष्ट्रगीत गाया।
१ दिसम्बर,१९०९ तक उनके परीक्षा परिणाम आ जाने से ‘दि नेशनल कौन्सिल ऑफ ऐजुकेशन (बंगाल) के अघ्यक्ष डॉ. रसबिहारी
घोष के हस्ताक्षर युक्त प्रमाण-पत्र मिल चुका था और वे अब अपने सांसारिक जीवन के लिए
पर्याप्त शैक्षणिक प्रमाण पत्र भी पा चुके थे। किन्तु नागपुर से सात सौ मील दूर कलकत्ता
हेतु वे डॉ. मुंजे का दिया परिचय-पत्र लेकर शिक्षण के साथ विशेषत: क्रांतिकार्य हेतु
रवाना हो गये।
केशव जब कलकत्ता आये तब तक ‘स्वदेशी आन्दोलन’बाह्यत: मंद पड़ गया था। १९०८ की अप्रैल में खुदीराम
बोस द्वारा बम फेंकने के बाद कुछ दिनों तोबंगाल का वातावरण बहुत गरम हो गया था। स्वातंत्र्यवीर
सावरक के शब्दों में, ‘‘उस बम के विस्फोट के साथ ही हिन्दुस्थान की पुरानी राजनीति में स्फोट होरक सशस्त्र
क्रांतिगामी नया रक्तरंजित युग उदित हुआ।’
’ केशव राव को कलकत्ता में ‘अनुशीलन समिति’में प्रवेश मिला। आनुशीलन समिति के कार्य को जो
जानते हैं उन्हें यहाँ कुछ बताने की आवश्यकता नहीं और जो नहीं जानते उन्हें डॉ
हेडगेवार की बृहद जीवनी पढनी चाहिए । १२ दिसम्बर, १९१४ को दीक्षान्त समारोह हुआ
। उसके बाद एक वर्ष के लिए नियम के अनुसार चिकित्सालय में वे तज्ञ डॉक्टरों के मार्गदर्शन
में रोग-निदान, चिकित्सा आदि कि व्यवहारिक शिक्षा के लिए रहे। जिसे आज की भाषा में इन्टर्नशिप
कहते हैं। अन्तत: ९ जुलाई १९१५ को उनका यह शिक्षाक्रम पूरा हुआ। इस तरह डॉ. हेडगेवार
पाँच वर्ष की पढ़ाई पूरी कर १९१६ के आरंभ में
कलकत्ता से वे नागपुर वापस आये। डॉ. हेडगेवार की मानसिकता को ठीक से समझने के
लिए श्री अरविन्द का यह कथन स्मरण रखना होगा, जब अपने ऊपर लगाये गये अभियोग के कारण राष्ट्रीय विद्यापीठ
के प्राचार्य पद से त्याग-पत्र देते समय उन्होंने कहा था, ‘‘आपको कुछ पुस्तकीय ज्ञान देकर पेट भरने के लिए कोई व्यवसाय
करने का मार्ग खुल जाये इस हेतु से हम लोग इस कार्य में उद्यत नहीं हुए। अपितु आप में
से मातृभूमि के लिए काम करने वाले तथा कष्ट झेलने वाले सुपुत्र खड़े हों यही हमारी
अपेक्षा है।”
१९२० के सामूहिक आन्दोलन के बाद ‘वन्देमातरम्’ की घोषणा एक सरल बात हो गयी थी। हेडगेवार पर राजद्रोह
मुकदमा चलाने का प्रयास हुआ उसके लिए आर्मस्ट्रांग रामपायली आया। उन्हें विद्यालय से
निकाला गया। अन्तत: ‘वन्देमातरम्’ गायन के विरुद्ध ‘रिस्ले सरकुलर’ निकाला गया। इस सरकुलर के विरुद्ध जगह-जगह प्रदर्शन हुए।
‘स्वतंत्रता सेनानी’हेडगेवार आर.एस.एस की स्थापना
से पहले कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे। ख़िलाफ़त आंदोलन (1919-24) में उनकी भूमिका के कारण उन्हें
गिरफ़्तार किया गया और उन्हें एक साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई थी। किन्तु उसके बाद वे
प्रत्यक्ष राजनीति से बाहर आ गये। आज़ादी की लड़ाई में प्रत्यक्ष रूप से यह उनकी आखिरी
भागीदारी थी।
‘डॉ. हेडगेवार चरित्र’ में ना हा. पालकर लिखते है,
‘‘वाल्यकाल से विविध राजनीतिक गतिविधियों
में संलग्र, विदेशी राज्य के नाम मात्र से ही जो क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाये इस प्रकार अतीव
संवेदनशील एवं उत्कट भावनापूर्ण व्यक्ति डॉ हेडगेवार को प्रचलित राजनीतिक कार्यों से
अपना हाथ खींचे बिना मन को हटा लेना तथा सब प्रकार से बुद्धि को जंचनेवाले कार्य के
अनुकूल ही अपने मनोभाव को बनाना कितना कठिन हुआ होगा। और इस प्राकर का परिवर्तन अपने
अन्दर लाने वाले की विवेकशक्ति कितनी परा कोटि की और सामर्थ्यवान रही होगी, तथा अपने निष्कर्षों एवं तदनुरूप
कार्य पर उनकी निष्ठा कितनी अटल होगी इसकी कल्पना करना भी कठिन है। इस प्रकार का कालातीत
शक्ति सम्पन्न विवेक एवं कार्यनिष्ठा उनके पवित्र निस्वार्थ एवं राष्ट्रसमर्पित जीवन
के कारण ही सम्भव था। यह उनके जीवन का अत्यन्त भव्य एवं अनाकलनीय चमत्कार है।’’
खिलाफत आन्दोलन के रिहाई के ठीक बाद, सनातन परम्परा और संस्कृति के मूल तत्वों और समर्थ रामदास
एवं शिवाजी के विचार, कृतित्व और चरित्र से प्रभावित होकर हेडगेवार ने सितंबर, 1925 में आर.एस.एस की स्थापना की।
इस बात को समझे बिना आज कांग्रेस और वामपंथियों द्वारा यह प्रचारित
किया जाना कि ‘अपनी स्थापना के बाद ब्रिटिश शासन के पूरे दौर में यह संगठन न शिर्फ़ उपनिवेशी ताक़तों
का आज्ञाकारी बना रहा, बल्कि इसने भारत की आज़ादी के वास्ते किए जाने वाले जन-संघर्षों का हर दौर में
विरोध किया’, न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि एक लम्बे वितांडावाद का परिणाम भी है।
Wonderful information
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