रामधारी सिंह ’दिनकर’ : जीवन संघर्ष-पत्रों के बहाने
रामधारी सिंह ’दिनकर’ का जीवन एक कवि का जीवन है। वे राष्ट्रीय
अस्मिता के लिए संघर्षशील हैं।
किसी भी रचनाकार की ओजपूर्ण रचना, उसके बड़े-बड़े अर्जित अलंकरण, उसकी प्रतिष्ठा को देखकर हम कभी भी उसके अंतरंगी
नहीं बन पाते। वह हमारा बड़ा आदर्श बन कर खड़ा हो जाता है। कभी वह मसीहा दिखता है तो
कभी हम उसे युगपुरुष भी घोषित कर देते हैं। इसमें कोई हर्ज भी नहीं।
किन्तु आवश्यकता
यह समझने कि है कि क्या वह हमारे ही समान एक साधारण मानव मन का स्वामी था ?
क्या वह महान रचनाओं के बीच समाज और परिवार के
बीच संघर्ष करता रहा ? क्या वह जीवन से
सदा उत्साहित ही रहा ? क्या उसके जीवन
में कभी निराशा के क्षण भी थे ? ऐसे अनेक प्रश्न
हमारे मन में ’दिनकर’ जी को पढ़ते हुए खड़े हुए।
पूर्वजों ने कहा है - ’’ मोल करो तलवार की
पड़ी रहन दो म्यान’’, फिर हम इतने
छिद्रान्वेषी क्यों होना चाहते हैं ?
’दिनकर’ जी के रचनाकार जीवन को
उलटते-पलटते संयोगवश उनके साहित्य की निधि उनके द्वारा लिखे गये पत्र हाथ लगे।
उनके पढ़ने के बाद मुझे लगा, यह बड़ा
महत्वपूर्ण कार्य होगा कि हम पाठकों के सामने दिनकर जी का यह पक्ष भी लाएं,
जिससे न केवल रचनाकार को सम्पूर्णता से देखने
में सहायता मिले, बल्कि मनुष्य का
जीवन व्यक्ति से लेकर समष्टि तक कैसे तैयार होता है, समझने में मदद भी मिलेगी। हमारे चरित्र बल को भी उर्जा
मिलेगी और नई पीढ़ी को विषय भी।
सामान्यतः दिनकर जी को तीन तरह से समझा जा सकता है। एक- जिसमें दिनकर जी का
सामान्य किन्तु आवश्यक जीवन परिचय। दूसरा- उनकी रचनाओं की जानकारी और उनकी कुछ
चर्चित पंक्तियां और तीसरा भाग उनके महत्वपूर्ण पत्र हैं।
अपने परिचय में ’दिनकर’ जी लिखते हैं-
सुनूँ क्यों
सिंधु मैं गर्जन तुम्हारा, स्वयं युगधर्म का
हुँकार हूँ मैं
कठिन निर्घोष हूँ
भीषण अशनि का, प्रलय गांडीव की
टंकार हूँ मैं..
दबी सी आग हूँ
भीषण क्षुधा की, दलित का मौन
हाहाकार हूँ मैं
सजग संसार,
तू जग को संभाले, व प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं।।
एक चैलेन्ज दिखता है। सामान्य नद, नालों से नहीं सीधा समुद्र से, जिसकी अनन्तता को लघुतर करते हुए ’दिनकर’ युगधर्म की हुंकार को बड़ा मानते हैं।
जहां एक ओर प्राकृतिक शक्तियों से अपने
को जोड़ते है, वहीं तत्काल युग
के गांडीव टंकार को अपने साथ कंपित करते हैं।पर यह परिचय शायद अधूरा रह जाता यदि
कवि दलित, उपेक्षित की पीड़ा का साथी
अपने को बताने में चूक जाता। अपने अन्दर की प्रलय को भी बताने से नहीं रोक पाते।
यह बोल हैं उस महान हस्ताक्षर रामधारी सिंह ’दिनकर’ के जिसका जन्म २३
सितंबर, १९०८ को सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था। रामधारी सिंह का उपनाम ‘दिनकर’ था। पिता श्री रवि सिंह एक साधारण किसान थे, तथा इनकी माता मनरूप देवी, विद्यालयीन शिक्षा से वंचित व सामान्य गृहणी होने के बावजूद,
जीवट व गंभीर साहसिक महिला थीं। यही दम्पति
हमें देता है , एक कालजयी कवि और निबंधकार श्री रामधारी सिंह ’दिनकर’ को।
दिनकर जी के पास न केवल इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की उपधियां थी बल्कि वे इन तीनों में एक साथ
जीते भी थे। और उनकी अभिव्यक्ति में मां शारदा जिसे वे बार-बार स्मरण करते है कि
कृपा भी थी कि वे अपनी बात एक साथ संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और
उर्दू में रख सकते थे।
’दिनकर’ स्नातक उपाधि के साथ शिक्षक हो गये। बाद में
१९३४ से १९४७ तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक
पदों पर कार्य किया। १९५० से १९५२ तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष
तथा बाद में भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति के पद पर कार्य किया। उसके बाद
भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उनके राजनीतिक जीवन से सभी परिचित ही हैं।
अत: यहां दिनकर जी के जीवन परिचय की सामान्य भूमि
में उतरने का कोई कारण नहीं। यहां उनके उन पक्षों को ही उजागर कर रहा हूँ जिनके
साथ उनके पत्रों को समझने में सहायता मिलेगी।
दिनकर में क्षत्रिय का तेज है, तो ब्राह्मण का सात्विक अहं भी। परशुराम की
गर्जना है तो कालिदास की कलात्मकता भी। उनकी कुछ पंक्तियों से उनके व्यक्तित्व को
समझने का प्रयत्न करें-
“ रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ, जाने दे उनको स्वर्ग धीर।
पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर ’’।। (हिमालय से)
“ क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
उसको क्या जो
दन्तहीन, विषहीन, विनीत, सरल हो।। ’’ (कुरुक्षेत्र से)
“पत्थर सी हों मांसपेशियाँ, लौहदंड भुजबल अभय।
नस-नस में हो लहर
आग की, तभी जवानी पाती जय।। ’’
(रश्मिरथी से)
’’हटो व्योम के मेघ
पंथ से, स्वर्ग लूटने हम जाते हैं,
दूध-दूध ओ वत्स
तुम्हारा, दूध खोजने हम जाते है।’’
’’सच पूछो तो सर
में ही, बसती है दीप्ति विनय की,
सन्धि वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की।’’
’’सहनशीलता,
क्षमा, दया को तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता
उसके पीछे जब जगमग है।।’’
’’दो न्याय अगर तो
आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम।। (रश्मिरथी,तृतीय सर्ग, भाग 3)
‘दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के
बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये।
वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि
थे। हमने ऊपर की पंक्तियों में देखा कि एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक
भावनाओं की अभिव्यक्ति भी यहां देख सकते है-
दृग बंद हों,
तब तुम सुनहले स्वप्न बन
आया करो।
अमितांशु
निंद्रित प्राण में, प्रसरित करो अपनी
प्रभा,
प्रियतम कहूँ मैं
और क्या ?
प्रकृति चित्रण में दिनकर आलंकारिक हो उठते हैं और कभी रहस्यमयता और वैश्विक एकात्मता को भी अपने अंदाज में शब्द देते हैं-
किरणों का दिल
चीर देख सबमें दिनमणि की लाली रे।
चाहे जितने फूल खिलें, पर एक सभी का माली रे।।
इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी ’कुरुक्षेत्र’ और ’उर्वशी’ नामक कृतियों में मिलता है।
उनकी कविता में आत्मविश्वास, आशावाद, संघर्ष, राष्ट्रीयता,
भारतीय संस्कृति आदि का ओजपूर्ण विवरण मिलता
है। जनमानस में नवीन चेतना उत्पन्न करना ही उनकी कविताओं का प्रमुख उद्देश्य रहा
है। उनकी कविताओं की विशेषता यथार्थ कथन, दृढतापूर्वक अपनी आस्था की स्थापना तथा उन बातों को चुनौती देना है, जिन्हें वे राष्ट्र के लिये उपयोगी नहीं समझते
थे। उनका आशावादिता का दृष्टिकोण -
वह प्रदीप जो दीख
रहा है, झिलमिल दूर नहीं है।
थक कर बैठ गये
क्या भाई ! मंजिल दूर नहीं।।
’दिनकर’ जी भारत की अंधकार में
खोई आत्मा को ज्योति प्रदान करने के लिये कलम की वह लड़ाई लड़ने को उद्यत थे,
जिससे सारे राष्ट्र को जागना था। उनकी रचनाओं के सामाजिक सरोकारों से आन्दोलित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। जातिवाद का विरोध करते हुए वे लिखते हैं-
जाति जाति का शोर
मचाते केवल कायर क्रूर।
पाते हैं
सम्मान तपोबल से धरती पर शूर...।।
दूसरी ओर उनका आक्रोश सामाजिक विषमता दूर करने के लिये पृष्ठभूमि भी तैयार करता है-
श्वानों को मिलता
दूध वस्त्र, भूखे बालक
अकुलाते हैं।
माँ की हड्डी से
चिपक ठिठुर जाड़ों में रात बिताते हैं।।
युवती के लज्जा
वसन बेच, जब व्याज चुकाये
जाते हैं।
मालिक जब
तेल-फुलेलों पर, पानी सा द्रव्य
बहाते हैं।।
पापी महलों का अहंकार, देता तुझको तब
आमंत्रण..।।
दिनकर विवशता को भी प्रस्तुत करने से नहीं चूकते -
जहाँ बोलना पाप
वहाँ गीतों में क्या समझाऊं मैं ?
राष्ट्रीय गौरव पर आहत हो कर दिनकर, उसे अतीत में तलाशते भी दीख पड़ते हैं-
तू पूछ अवध से
राम कहाँ वृंदा बोलो घनश्याम कहाँ।
ओ मगध कहाँ मेरे
अशोक वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?
’दिनकर’ जी का अपनी ही
शैली में कहा गया एक व्यंग्य देखिये-
भर पानी से
बुझाने आग गाँव की।
चल पड़ी टोलियाँ
अमीर उमराव की..।।
’उर्वशी’ को छोड़कर दिनकर
की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है। ’भूषण’ के बाद उन्हें वीर रस का
सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि ’दिनकर’ जी गैर-हिंदीभाषियों के बीच हिन्दी के सभी कवियों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय थे
और अपनी मातृभाषा से प्रेम करने वालों के प्रतीक थे।
जब दिनकर जी को ज्ञानपीठ से
पुरस्कृत किया गया तब हरिवंश राय बच्चन ने कहा कि ’दिनकर’ जी को एक नहीं,
बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और
हिन्दी-सेवा के लिये अलग-अलग चार ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने चाहिये।
दिनकर
जी ने अनेक पत्र लिखें हैं, किन्तु यहां सन्
1936 से 1972 के बीच लिखे उन कुछ महत्वपूर्ण पत्रों को दिया जा रहा है जो उन्होंने
बनारसीदास चतुर्वेदी, आचार्य कपिल,
लोकनायक जयप्रकाश नारायण, रामसागर चौधरी, चन्द्रदेव सिंह, आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, और राजेश्वर सिंह को जो पत्र लिखें हैं।
पत्रों पर मैं कोई टिप्पणी लिखकर आपके
स्वाद को खराब नहीं करना चाहता। ये पत्र ऐसे अनमोल शब्द-रत्न
हैं जो स्वतः आपको पढ़ते हुए दर्शन, धर्म, अध्यात्म के ऐसे क्षेत्र में ले जाते हैं जो आज
की परिस्थिति से आप को जोड़ते हुए आंख बन्द करने को मजबूर कर देंगे।
1. बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखा पत्र -
पो.ऑ. लालगंज
मुजफ्फरपुर
६-१-३६
श्रद्धेय
चतुर्वेदी जी,
प्रणाम।
आपका ५-१-३६ का
कृपा-पत्र आज संध्या को मिला। इस पत्र ने मुझे बहुत कुछ उत्साह दिया है। अपने
मित्रों में जरा इमोशनल कहलाता हूँ। इसीलिए लोग मुझे ऐसी बात कहने या ऐसी चीजें
दिखाने से डरते हैं जिससे मुझे दुःख होने की संभावना हो। अभी हाल ही, मैं शिवपूजन जी से मिला था। तब तक साप्ताहिक
विश्वमित्र में निर्झरिणी की निन्दा छप चुकी थी। शिवपूजन जी ने मुझे वह लेख देखने
नहीं दिया। कहने लगे जब लोग तुम्हारी निन्दा खुलकर करने लगें तब तुम समझो कि
तुम्हारी लेखनी सफल हुई। अस्तु।
चौदह करोड़ लोगों
के द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि लोग किसी व्यक्ति-विशेष
की रचना पर साधारणतः खास तौर से आकृष्ट नहीं हो सकते। इस विशाल समुद्र में किसी
इंडिविजुअल की कृति एक तिनके से बड़ी नहीं। फिर इसे तो मैं अपना सौभाग्य ही समझता
हूँ कि ’भाव, कुभाव, अनख आलस हूँ’ ’रेणुका’ का नाम दस भले लोगों के मुँह पर आ जाता है।
आप विश्वास रखें,
आप पूज्यों की कृपा से मुझमें इतनी ताकत जरूर
है कि अखबारों में रोज निकलने वाली पंक्तियाँ मुझे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर
सकतीं। कोई प्रशंसा ऐसी नहीं जो मुझे याद रहे, कोई निन्दा ऐसी नहीं जो मुझे उभार दे। नास्ति का परिणाम
नास्ति है। कुछ नहीं से कुछ की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अगर आज कोई सत्ता है तो वह
किसी के मिटाये से नहीं मिटेगी। पदार्थ का अस्तित्व नहीं है तो वह किसी के पैदा
करने से पैदा नहीं हो सकता। कीट्स ने एक बार एक मित्र को लिखा था-'If all my poems were burnt the
next day they were written and no eye shine upon them, yet I would go on
writing and writing.'
मैं रेणुका के दोषों को भलीभाँति जानता हूँ। उसमें कलाविदों को पद-पद पर
अनुभवहीनता, इमैच्युरिटी और
कहीं-कहीं भाषा सम्बन्धी कमजोरियाँ मिलेंगी। कीट्स के ही शब्दों में- It is a foolish attempt, rather
than a deed accomplished.
मैं जो कुछ चाहता हूँ, जो कुछ सोचता हूँ
उसे ठीक मनचाहे रूप में अब तक उतार नहीं सका हूँ। इस चेष्टा का एक अस्पष्ट रूप
मेरी आँखों के सामने बराबर टँगा रहता है। All the same, no one should
be justified in
passing a remark of insincerity regarding my feelings. I don't believe in the
saying that Renuka contains lines written forcibly- Although at times, my poems
have been deprived of the support of my character, I know that they have always
come out in spontaneity. More or less, every poem has been a direct
enlightenment in my life.
रेणुका को लेकर धूम मचा करे लेकिन, मैं अभी तक निश्चित रूप से यह भी नहीं समझ पाया
हूँ कि मेरे राजनैतिक कैरियर का श्रीगणेश हो गया। भगवान मुझ पर कृपा करे कि मैं
अभी कुछ दिनों तक और भी सरस्वती के चरणोदक से अपनी मूर्खता धोता रहूँ। हिंन्दुओं
को पुनर्जन्म का भी भरोसा रहता है।
बच्चन को मैं एक
पत्र लिख चुका हूँ। उसने भी एक पत्र लिखा है। अब रेगुलर करेस्पोंडेंस शुरू करता
हूँ। योगी में अवश्य लिखूँगा। लेकिन, बच्चन अपनी प्याला, बुलबुल आदि
कविताएँ भेज दे तो मजमून कुछ अधिक दिलचस्प होगा।
मनोरंजन जी से
पत्र-व्यवहार करके मैं अपने को सौभाग्यशाली समझूँगा। इधर मुझे ऐसा जान पड़ता है कि
शुद्ध भाषा लिखने की ट्रेनिंग मुझे और लेनी चाहिए। भरसक कोशिश कर रहा हूँ। कविताएँ
शिवपूजन जी से दिखाकर छपाया करूँगा। आप इस विचार को कैसा समझते हैं ? मेरे विचार से शिवपूजन जी की जैसी चार्टर्ड
हिन्दी लिखने वाला विरला ही होगा।
आशा है आप
प्रसन्न हैं। अगर मैंने छुट्टी नहीं ली तो दो महीनों तक यहाँ रहने की बात है।
आपका
दिनकर
आवश्यक-
जनवरी के अन्त
में मेरे घर में कुछ यज्ञ-प्रयोजन होने वाला है। अतएव मैं भी मुँगेर में रह सकूँगा
कि नहीं यह अनिश्चित है। आपके वसन्तोत्सव का क्या हुआ ? मुझे तो मार्च के पहले छुट्टी प्रायः मिल ही नहीं सकती।
उसके लगभग प्रोग्राम रखें तो मैं अभी से छुट्टी की कोशिशें करूँ। दिसम्बर का वि.
भा. अब तक नहीं मिला है। भारत और अभ्युदय नहीं देखा है। न देखने की इच्छा है।
विश्वमित्र वाले दोनों लेख देख चुका हूँ।
’विश्वास’ वाला आपका लेख सुन्दर है। यह विचार कुछ अनन्त
की ओर जाने वालों को अप्रासंगिक भले ही लगे लेकिन इसके बिना कवियों का भी उद्धार
नहीं है। आज यह राजवाटिका छोड़, चलो कवि वनफूलों
की ओर। एमर्सन और क्रोपटकिन को छोड़ कर आप किन्हीं दो तीन अन्य लेखकों और उनकी
सुन्दर कृतियों के नाम भेज दें जो आपको पसन्द हों।
आपके जीवन में
वसन्त आ रहा है- इस ४४ वें वर्षं में। भगवान करें यह कभी आपको छोड़े नहीं। आप फाल
से डरते हैं ? You may have
a fall, but a fall on the knee which may end in prayer.
दिनकर
2. आचार्य कपिल
के नाम
पटना
प्रिय कपिल जी,
आपका पत्र मिला। ’प्राची’ का अंक भी यथासमय आ गया था। प्राची के विषय में क्या कहूँ ?
मुझे तनिक भी आशा नहीं थी कि मुँगेर से आप इतनी
अच्छी सामग्री प्रस्तुत कर सकेंगे। ’प्राची’ में आपने जिस
सुरुचि का परिचय दिया है उससे मुझे सात्विक आनन्द हुआ। अब मैं आग्रह करूँगा कि
इसका दिनों-दिन विकास कीजिए।
एक दो बातें और
हैं जिनकी ओर निर्देश कर देना उचित समझता हूँ। आवरण पर से आप मिट्टी के छोटे माधो
को तो हटा ही दें। भीतर संकलन और संपादन में जो गांभीर्य है उसके अनुरूप ऊपर का
आवरण सादा ही रहना चाहिए अथवा हलकी रेखाओं में कोई छोटा स्केच रहे तो ठीक है।
आपका
उद्देश्य कदाचित यह है कि शिक्षण-संस्थाओं में जो प्रश्न और समस्याएँ हैं, डटकर उन्हीं पर प्रकाश डाला जाय। यह एक उपयोगी
काम है। मगर, स्टैंडर्ड को जरा
ऊपर ले जाइये तथा इस प्रकार की समस्याओं पर भी लेख लिखवाइये जैसे -
१. छायावाद का जन्म
कब हुआ तथा उसके आदि कवि कौन हैं ?
२. नई कविता
हिन्दी की परम्पारा में आई है अथवा आकस्मिक रूप से ?
३. हिन्दी-गद्य
के क्षेत्र में उस नेतृत्व को प्रधानता मिलनी चाहिए जो बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त तथा गुलेरी जी के द्वारा दिया
गया अथवा उसे जो रामचन्द्र शुक्ल एवं प्रसाद जी की देन है ?
४. यह बात कहाँ
तक ठीक है कि उर्दू में से फारसी-अरबी शब्दों को हटा कर हिन्दी बना ली गई है ?
५. रसवादी आलोचना
पद्धति में क्या संशोधन किया जाय कि वह आधुनिक साहित्य की व्याख्या में सफल हो ?
६. रीतिकालीन
साहित्य का मूल्यांकन नई समीक्षा की कसौटी पर।
७. भाषा सम्बनन्धी दुष्प्रयोगों पर रोक लगाने के लिए
आन्दोलन।
ये कुछ मोटे विषय
हैं जो याद आ रहे हैं। इनके समानान्तर और भी समस्याएँ होंगी। सोचने पर आप खुद एक
अम्बार लगा दीजियेगा। मैं तो १२ मई तक कुछ नहीं भेजूँगा। हाँ, उसके बाद कुछ न कुछ अवश्य भेजूँगा, खातिर जमा रखिये। आपके और काम भी इसी छुट्टी में होंगे।
छुट्टियों में आप कहाँ रहेंगे ?
आगामी ३ मई को
हमारे यहाँ परिषद का वार्षिकोत्सव है। हजारी प्रसाद जी और द्विज जी आ रहे हैं।
निबन्ध-प्रतियोगिता और वाद-विवाद प्रतियोगिता २ मई को है। आपके यहाँ से भी निबन्धं
और वक्ता आने चाहिए। निबन्ध का विषय है, ’हिन्दी में नई समीक्षा का जन्म और
विकास’, वाद-विवाद प्रतियोगिता का
विषय है, ‘State Vs
Civil liberty
या ऐसा ही और कुछ। शेष
कुशल है।
आपका
दिनकर
3. आचार्य कपिल
के नाम -2
प्रिय कपिल जी,
हम लोगों के परम
प्रिय विद्वान श्री कामेश्वर शर्मा (राष्ट्रवाणी) का एक लेख कहीं निकला है जिसकी
कतरन आप की सूचना के लिए भेज रहा हूँ। जरा गौर से देख जाइये।
कामेश्वर फूलें,
फलें और बढ़ें, यह मेरी कामना पहले भी थी और अब भी है। उन्हें मैं यह भी
छूट देता हूँ कि वे दिनकर काव्य के विरोधी के रूप में अपना विकास करें और उन्हें
बुरा न लगे तो मेरे साथ एक थाली में बैठकर भोजन भी करें। मुझे हार्दिक प्रसन्नता
होगी। किन्तु उन्हें और प्रत्येक लेखक को चाहिये कि वस्तुस्थिति को देखकर बोले और
लिखे जिससे किसी की पद मर्यादा को अनुचित जर्ब नहीं पहुँचे। पटने में एक साहित्यिक
षड्यंत्र चल रहा है जिसका केंन्द्र यह कल्पित बात है कि दिनकर बिहार के सभी
साहित्यिकों का बाधक है और कुछ लोगों के खिलाफ तो उसकी फौज खड़ी रहती है।
जब उमा
मुझ पर आक्रमण करें, बेनीपुरी मुझ पर
चोट करें, प्रदीप मेरे विरुद्ध लेख
छापे और कामेश्वर मेरे विरुद्ध लिखें तब लोग न जाने किसे मेरी फौज का आदमी समझते
हैं ? मुझे लगता है, कामेश्वर जी इस भ्रम में हैं कि दिनकर का विरोध
करने से निष्पक्ष आलोचक के रूप में वे पूजे जायेंगे। सो इसे तो मैं घोर भ्रम समझता
हूँ और जिस निर्णय पर मैं १५ वर्षों के बाद पहुँचा हूँ उस पर वे भी कभी न कभी
आयेंगे ही। प्रयत्नपूर्वक उनसे मिलकर उन्हें आप समझा देंगे कि प्रभात जी महाराज के
साथ एक साँस में वे मेरा नाम न लें। कुरुक्षेत्र के विरुद्ध वे चाहें तो एक
लेखमाला आरम्भ कर दें जिसके लिए स्थान मैं राष्ट्रवाणी में ही दिलवा दूँगा। मगर,
ईश्वर के नाम पर वे भाषा में शिष्टंता लायें और
कोई ऐसा काम न करें जिससे उन्हें बाद को चलकर लज्जित होना पड़े।
उन्हें मैंने
आत्मी्य समझा है, इसीलिए ये बातें
लिख रहा हूँ। प्रेमी भी परस्पर एक दूसरे की आलोचना कर सकते हैं, किन्तु, ऐसी भाषा में नहीं जिससे जग हँसाई हो। मैंने जीवन-भर में
किसी आलोचक के लिए कोई पत्र नहीं लिखा था। यह पहला पत्र है। साहित्य में विचार
स्वातंत्र्य रहना चाहिए, मगर, गाली-गलौज या मुँह-चिढ़ाना विचार स्वातंत्र्य
नहीं है। खैर, कामेश्वर अभी-अभी
अंडा तोड़ कर निकला है इसलिए बहकना तो स्वाभाविक है। और जब सभी लोग अपने विकास के
लिए दिनकर को लतियाना आवश्यक मानते हैं तो वही क्यों बाज आए ? आखिर, पटने के साहित्यिकों में निर्भीक कहलाने का गौरव तो उसे मिलेगा ही। शेष कुशल
है।
आलोचक महाराज इन
दिनों घर पर हैं। वे सम्भवतः ३ या ४ को मुँगेर आयेंगे और ५ फरवरी को पटना।
आपका
दिनकर
मुजफ्फरपुर
२५.४.५१
4. लोकनायक
जयप्रकाश नारायण के नाम
पटना
९-११-५८
मान्यवर जयप्रकाश
जी!
प्रणाम।
मानवीय गुणों पर
जोर देते हुए आपने अभी हाल में जो बयान दिया है उसकी कतरन मैंने पास रख ली है और
उसे कई बार पढ़ गया हूँ। अजब संयोग की बात है कि जब आपका बयान निकला, मैं धर्म और विज्ञान पर एक निबन्ध लिख रहा था
जो ४० पेज तक गया है, मगर, अभी कुछ अधूरा है।
बयान पढ़कर मुझे लगा कि आप
जिस चीज को इतनी अच्छी भाषा में और इतनी सुस्पष्टता के साथ कह रहे हैं, मेरी असमर्थ भाषा भी उसी के आस-पास चक्कर काट
रही है। इस बयान पर लोगों की क्या प्रतिक्रिया है, यह भी मुझे मालूम है। लेकिन, हर बड़े काम की राह में लोक-मत कुछ बाधक बनकर आता है और उसकी
उपेक्षा किए बिना ये काम किए नहीं जा सकते।
वर्तमान सभ्यता अनेक रूढ़ियों को तोड़कर
आगे बढ़ी है, लेकिन, मुझे अब पूरा सन्देह हो रहा है कि वह खुद एक
प्रकार की रूढ़ि में जा फँसी है, जिसका उपयुक्त
भाषा के अभाव में, मैं ’बुद्धि की रूढ़ि’ नाम देता हूँ। अगर मनुष्य को विकसित होना है तो उसे इस रूढ़ि
से भी निकलना होगा।
बर्ट्रेण्डर रसल
ने लिखा है कि आदमी में तीन प्रवृत्तियाँ होती हैं, instinct to live, instinct to
think and instinct to feel.
ये मैं अपनी
भाषा में रख रहा हूँ। Feel शायद उसने नहीं कहा है। इस प्रवृत्ति का नाम
उसने spirit की प्रवृत्ति दिया है। इन तीनों में समन्वय हुए बिना मनुष्य
का दोषहीन विकास नहीं हो सकता। रसल और हक्सले के अलाव, मैंने । Aleis
Carel dh Man: The Unknown नामक किताब में भी यही देखा कि वैज्ञानिक सभ्यता गलत दिशा
की ओर जा रही है और मैं मान गया हूँ कि करेल का कहना बिल्कुल ठीक है।
एक धारा है
जो सबको बहाए लिए जा रही है। जरूरत है उन पुरुषों की जो इस बहाव में बहने से इनकार
कर दें। आपने अपना पाँव जमा लेने का इरादा किया है, इसलिए, मैं आपका सादर
अभिनन्दन करता हूँ। युद्ध-काव्यम के विषय में भी आपका सुझाव बेनीपुरी से मिला ही
होगा।
आपका
दिनकर
5. रामसागर चौधरी
के नाम-
११, केनिंग लेन, नई दिल्ली
४-३-६१
प्रिय श्री
रामसागर चौधरी,
सच ही, मैं आपको नहीं जानता तब भी आपका २८-२-६१ का
पत्र पढ़ दुःखी हुआ।
यह लज्जा की बात है कि बिहार के युवक इतनी छोटी बातों में आ पड़े।
मैं जातिवादी नहीं हूँ। तब भी अनेक बार लोगों ने मेरे विरुद्ध प्रचार किया है और
जैसा आपने लिखा है, वे अब ऐसी गन्दी
बातें बोलते हैं। लेकिन, तब मैं जातिवादी
नहीं बनूँगा।
अगर आप भूमिहार-वंश में जनमे या मैं जनमा तो यह काम हमने अपनी इच्छा
से तो नहीं किया, उसी प्रकार जो
लोग दूसरी जातियों में जनमते हैं, उनका भी अपने
जन्म पर अधिकार नहीं होता। हमारे वश की बात यह है कि भूमिहार होकर भी हम गुण केवल
भूमिहारों में ही नहीं देखें। अपनी जाति का आदमी अच्छा और दूसरी जाति का बुरा होता
है, यह सिद्धान्त मान कर
चलनेवाला आदमी छोटे मिजाज का आदमी होता है। आप-लोग यानी सभी जातियों के नौजवान-इस
छोटेपन से बचिये।
प्रजातन्त्र का नियम है कि जो नेता चुना जाता है, सभी वर्गों के लोग उससे न्याय की आशा करते हैं।
कुख्यात प्रान्त बिहार को सुधारने का सबसे अच्छा रास्ता यह है कि लोग जातियों को
भूल कर गुणवान के आदर में एक हों। याद रखिये कि एक या दो जातियों के समर्थन से राज
नहीं चलता। वह बहुतों के समर्थन से चलता है। यदि जातिवाद से हम ऊपर नहीं उठे तो
बिहार का सार्वजनिक जीवन गल जायेगा।
आप सोचेंगे,
यह उपदेश मैं आपको क्यों दे रहा हूँ ? किन्तु, आपने पूछा, इसलिए, आप ही को लिख भी रहा हूँ। आज आप पीड़ित हैं,
अपने को आप दुःखी समझते हैं। आपके विरुद्ध
जिनका द्वेष उभरा है, कल उनका क्या भाव
था ? शायद अपने को वे उपेक्षित
अनुभव करते थे। इसलिए, स्वाभाविक है कि
उनका असन्तोष व्यक्त हो रहा है। और उपाय भी क्या था? इसलिए, आपको धीरज रखने
को कहता हूँ, उच्चता पर आरूढ़
रहने को कहता हूँ ।
जाति नाम का शोषण
करके मौज मारनेवाले चन्द लोग, जो कुछ करते हैं
उसकी कुत्सा उस जाति-भर को झेलनी पड़ती है, यह आप-लोग समझ रहे हैं ? यही शिक्षा कल
उन्हें भी मिलेगी जो आप को केवल इसलिए डस रहे हैं कि आप भूमिहार हैं। तो इससे
निकलने का मार्ग कौन-सा है ? केवल एक मार्ग
है। नियमपूर्वक अपनी जाति के लोगों को श्रेष्ठ और अन्य जातिवालों को अधम मत
समझिये। और यह धर्म उस समय तो और भी चमक सकता है जब आदमी आँच की कसौटी पर हो।
आपका
दिनकर
6. चन्द्रदेव
सिंह के नाम -
आर्यकुमार रोड,
पटना-४
१३-४-६३
प्रियवर,
कविता मिली। पढ़कर
बड़ा मजा आया। मुझे आपने जो गालियाँ दी होंगी, उन्हें मैंने नहीं देखा, न आज से पहले यह बात मुझे मालूम थी। लेकिन अच्छा हुआ कि
आपने स्वयं अपना मार्जन कर लिया। यह शुद्ध हदय का लक्षण है, यह इस बात का संकेत है कि आप वैयक्तिक मालिन्य से ऊपर रहना
चाहते हैं।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में चरित्र ही प्रधान है।
’परशुराम की
प्रतीक्षा’ से दो प्रकार के लोग बहुत
नाराज हैं। एक वे जो यह समझते हैं कि चीनी-आक्रमण के विरुद्ध जगनेवाला क्रोध जल्दी
शांत हो जाए, नहीं तो यह क्रोध
देश की प्रगतिशील प्रवृत्तियों के विरुद्ध पड़ेगा। दूसरे वे लोग जो यह समझते हैं कि
युद्ध का जवाब युद्ध से न देने की भावना यदि बढ़ी तो वह गांधी-धर्म के प्रतिकूल
जायगी।
मेरे जानते
दोनों-के-दोनों गलती पर हैं। भारत साम्यवादी हो जाए तब भी चीन से उसकी खटपट चलती
रहेगी जैसे रूस के साथ चल रही है।
और गांधी-धर्म को भी मैं एक दूसरे रूप में समझता
हूँ। गांधीजी कहते थे, कायरता सबसे बुरी
चीज है, उनके बहुत-से शिष्य ऐसे
हैं, जो केवल यह मानते हैं कि
अहिंसा सबसे अच्छी चीज है। लेकिन जो कायर भी नहीं है और अहिंसक भी नहीं, वह क्या करे ? इस सवाल का जवाब गांधी जी के पास था, लेकिन सर्वोदयवालों के पास नहीं है। इसीलिए उनमें से कुछ
लोग मुझे हिंसावादी मानकर मेरी निन्दा करते हैं।
पिछले १५ वर्षों
में देश कहाँ-से-कहाँ पहुँचा है, यह बात मेरे
प्रसंग में भी देखी जा सकती है। १९४६ में ’कुरुक्षेत्र’ निकला था। उसी
में यह पंक्ति थी ’जिनको सहारा नहीं
भुज के प्रताप का है, बैठते भरोसा किए
वे ही आत्मबल का।’
लेकिन
कुरुक्षेत्र पर द्वेष के उतने तीखे बाण नहीं बरसे थे जितने परशुराम पर बरस रहे
हैं। २७ साल की अहिंसा-साधना का नतीजा यह निकला कि छह लाख हिन्दू और मुसलमान पाप
की तलवार से काटे गये।
यदि देश की निर्वीर्यता नहीं टूटी, तो वह कितना बलिदान लेगी, यह कवि और चिन्तक समझ सकते हैं। बाकी लोगों की समझ में यह
बात तब आयेगी जब दुर्घटना घटित हो चुकेगी। कितना लिखूँ ? केवल आपको धन्यवाद देता हूँ। आप बड़े अच्छे हैं।
आपका
दिनकर
राजेन्द्रनगर,
पटना
१२-६-७२
7. चन्द्रदेव
सिंह के नाम -2
प्रिय चन्द्रदेव,
तुम्हारी बड़ी
कृपा है कि नैनीताल में तुम्हें मेरी याद आयी। हिन्दी-ग्रन्थ-अकादमी के चेयरमैनशिप
का ऑफर सरकार की ओर से आया था। तुम जानते हो कि उस पद पर अभी सुधांशु जी काम कर
रहे हैं। वे रुग्ण तो हैं ही, अभी भारी विपत्ति
में भी हैं। अपने पद पर वे बने रहें तो उससे उन्हें थोड़ा ढाढ़स रहेगा। यही सब सोच
कर मैंने ऑफर को स्वीकार नहीं किया।
वैसे काम की मुझे जरूरत है। माथे पर अनाथ
पोते-पोतियों का बोझ है जो मुझे अब क्षण भर को भी निश्चिन्त होने नहीं देता।
क्या करूँ,
कुछ समझ में नहीं आता है। हम जिस समाज में जी
रहे हैं, उसके प्रोप्रायटर
राजनीतिज्ञ हैं, मैनेजर अफसर हैं,
बुद्धिजीवी मजदूर हैं। बूढ़ा मजदूर भर-पेट
मजदूरी नहीं कमा सकता, वही हाल मेरा है।
सरस्वती और
लक्ष्मी के बैर को बुझाने की कोशिश मैं जीवन-भर करता रहा, लेकिन वह बैर बुझा नहीं। अभी तो वह जरा तेज ही हो गया है।
भावुकता में विलाप की बातें लिख गया, क्षमा करना।
भगवान तुम्हें
सुखी रखें।
तुम्हारा
दिनकर
8. आचार्य किशोरीदास
वाजपेयी के नाम -
साउथ एवेन्यू लेन,
नई दिल्ली
२१-८-६५
श्रद्धेय वाजपेयी
जी,
आपका पत्र मिला।
आपका यह पितृ-स्नेह बलदायक होगा। आपने जो बातें बतलायी हैं, उनमें से अधिकांश पर आरूढ़ हूँ - यहाँ तक कि अब ब्रह्मचर्य
में भी ढील नहीं है। किन्तु, असली बीमारी मेरे
मन में बसी हुई है और वह परिवार को लेकर है।
दुर्भाग्यवश, मेरे बड़े लड़के ने परिवार का ध्वंस कर दिया, रजिस्ट्री से बँटवारा कर लिया और अब बतलाता है
कि उसके पास जीविका नहीं है। मैंने राय दी कि जो घर तुम्हें हिस्से में मिला है
उसे किराये पर उठा दो और खुद किराये में रहो। मेरे पास जो भी सम्पत्ति थी, दोनों भाइयों के बीच बँट गयी। मेरे पास न घर है,
न कारबार। पटने में किराये के मकान में रहता
हूँ। सम्पत्ति के नाम पर एक मोटर कार है जो पटने में है।
राहुल जी की
दुर्दशा उनकी पत्नी ने की। नवीन जी को मृत्यु के मुख में उनकी पत्नी ने ढकेला।
बेनीपुरी की दुर्दशा उसके पुत्र ने की और मुझे भी दुर्दशा में मेरा बेटा ही डाले हुए
है। जो कहीं भी मार नहीं खाता, वह सन्तान के हाथ
मारा जाता है। तब भी मानता हूँ कि भगवान मेरे बेटे को कल्याण करें।
भागलपुर में हालत
बहुत खराब थी। दिल्ली में ज्यादा आराम है। तब भी दिमाग के भीतर खंजर घूमता रहता
है। बड़ी मुश्किल से उसे रोक पाता हूँ। मैं जीवन में चारों-ओर से घिर गया हूँ।
मृत्यु और वैराग्य के अतिरिक्त तीसरा दरवाजा दिखायी नहीं देता है। दुःख भूलने को
ही वाइसचान्सेलरी की ओर गया था। दुःख भूलने को ही दिल्ली आ गया हूँ। किन्तु,
संसार-त्याग के बिना मुझे मानसिक शान्ति अब
शायद नहीं मिलेगी।
आपके उपदेशों पर अमल करने की कोशिश करूँगा।
आपका
दिनकर
9. राजेश्वर राव
को लिखा पत्र:काव्य रूप में -
५, सफदरजंग लेन, नई दिल्ली
२३.३.७१
प्रियवर,
बुढ़ापे की मुसीबत को जानते हो ?
उस दर्द को पहचानते हो
जो बुढ़ापे के सीने में उठता है ?
बुढ़ापे की मुसीबत बुढ़ापा नहीं,
जवानी है।
यह भी एक अबूझ कहानी है
कि शरीर बूढ़ा होने पर भी
मन नहीं मरता है।
जिन रंगीनियों में जवानी गुजरी है,
बुढ़ापा ऊँघता-ऊँघता भी
उन्हें याद करता है।
आपका
दिनकर
सारांश यह कि उनके काव्य और जीवन पर यहां
संक्षेप में प्रकाश डाला गया है किन्तु उनके पत्रों के निष्कर्ष शोधकर्ता /
शिक्षको और पाठकों के लिए छोड़ दिया गया है क्योंकि वे पत्र व्याख्या के लिये नहीं,
सन्दर्भ के लिए भी नहीं, बल्कि जीवन के निर्माण का संदेश हैं।
सन्दर्भ: दिनकर
जी का साहित्य।
सम्पर्क-
21-22 शुभालय
विलास
बरखेड़ा -पठानी,
भोपाल
umeshksingh58@gmail.com
9425600161