Thursday, 31 July 2025

क्या धर्म अफीम है

एक मित्र से सहज चर्चा 

* क्या धर्म को आप भी अफीम मानते हैं?

* क्या धर्म निर्पेक्षता सार्वजनिक छल नहीं है? 

* क्या व्यक्तिगत और पारिवारिक कार्यक्रमों में सेक्युलर ,वामपंथी और सेमेटिक सभी धर्म सापेक्ष नहीं रहते?

* क्या कम्युनिज्म जीवन दर्शन है?

* क्या कम्युनिज्म सामान्य व्यवहार ही तक सीमित नहीं है?

 * क्या कम्युनिज्म को जल्प के आधार पर जीवन मूल्य नहीं बताया जा रहा है? 

* क्या कम्युनिज्म राजनीति और समाज में एक नई व्यवस्था से अधिक कुछ भी है?

* क्या वह किसी परिप्रेक्ष्य में जीवन मूल्य या जीवन दर्शन है?

* क्या उसमें मानवीय मूल्यों की उपस्थिति है?

विचार करें -

* जब सेमेटिक पंथ, कम्युनिज्म/वामपंथी अपने तथाकथित धर्मों में ही जीते हैं। तब क्या आप सेक्युलर का प्रश्न उठाते हैं?

* फिर भारतीय संस्कृति और सभ्यता को ही आप धर्मनिरपेक्ष क्यों देखना चाहते हैं? 

* क्या आप यह नहीं मानते कि धर्म और अध्यात्म भारतीय संस्कृति के प्राण तत्व हैं। जिनके अंदर विश्व के चर -अचर तक के कल्याण की कामना है।

 * आप यह तो मानते होंगे ही कि भारतीय सभ्यता मिश्रित हो सकती है। संस्कृति नहीं।

* आप इतना तो स्वीकार करेंगे ही कि ' सनातन संस्कृति का मूल उत्स धर्म और आध्यात्म ही है। इसमें वैश्विक मानवता के कल्याण के सूत्र हैं।

* क्या खंडित व्यवस्थाएं अखंडित अखंड मंडलाकार नैसर्गिक व्यवस्था पर प्रश्न खड़ा कर सकती है।

* क्या सेक्युलर को पंथनिरपेक्षता की जगह धर्मनिरपेक्षता मानना, पश्चिम केन्द्रित विचारों की अज्ञानता भरी स्वीकारोक्ति की पराकाष्ठा नहीं है ।

आशा है आप सहमत होंगे।

30/7/25
प्रकृति प्रवाह, भोपाल

Wednesday, 30 July 2025

सोना बहुत मंहगा है

* वैसे भी सोना बहुत मंहगा हो गया है। विशेष तक रहना है तो सोने की चिड़िया बनने में कोई किंतु परंतु नहीं। 

*  यदि सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय निर्हेतुक भाव से अंत्योदय हेतु जाना है तो लाठी और काठी आवश्यक है।

* आवश्यक इसलिए नहीं कि आवारा और विषैलों को मारना ही है।

*  आवश्यकता है शेर की मांद में हाथ डालकर झांकने वाले को अहसास कराना है कि अब शेर सर्कश में लाकर जनता का मन बहलाने का साधन नहीं है।

*  यह भी तथ्य है कि सर्कश भी स्वरूप बदल रहा है। उसका दायरा सीमा और सीमापार कर चुका है।

*  शक्ति सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी हो इसके लिए कुछ नवीन कुछ आकर्षक चाहिए। 

* सोने की चिड़िया श्रद्धेय बना सकती है। यह प्राण तत्व है किन्तु विश्व को श्रद्धा नहीं सम्मान दिखता है । 

* और वह सम्मान मांग कर नहीं मिलता। इसलिए अर्जित किया जा रहा है, देश में भी विदेश में भी।

* इसे अर्जन करने , स्थायी और अक्षुण्ण बनाने के लिए भरत जैसा निर्भीक,निडर किंतु बोधयुक्त, शील युक्त,वीर्य युक्त, शक्तिवान होना होगा।

*  अब वह सिंह सावक नहीं चाहिए, जिसे भेड़िया के झुंड में पाला जा सके, बांधा जा सके।

* उसे बाहर आना होगा विश्वगुरु, सोने की चिड़िया के आत्ममुग्धता से। आत्मनिरीक्षण करना होगा। 'स्वत्व' का बोध करना होगा।

 *  अब खेल मुंह में खून लगे, रक्त पिपासु भेड़ियों से हैं। अतः सिंह सावकों को बब्बर शेर बनाना होगा।

*  शस्त्र और शास्त्र, गंगा और नांग एक साथ धारण करना होगा। तभी और तभी भारत के भाल पर बक्र चंद्रमा शोभा पा सकेगा। 

*  तब कोई भी राहु ग्रसने की हिमाकत नहीं करेगा। चाहे जितनी अमावस्या  दुहराई जायें।

इसलिए करणीय -

*  शेरों के अधिकारों की चाह भरी सुरसा को कपीश्वर के कर्तव्य से सीमित करना होगा।

*  समझाना होगा सम्पूर्ण हिन्दू समाज में एक ही हिंदुत्व का डीएनए है। हिंदुओं को हिंदुओं के डी एन ए टेस्ट कराने की आवश्यकता नहीं है।

*  आवश्यकता है समझने की इस पार के हिंदू, उस पार के हिंदू ,  इस और उस पार के हिंदू को कि 'हिंदव:सोदरा सर्वे न हिंदू पतितो भवेत्।'

* हिंदू कोई मदर टेरेसा नहीं जो केवल कैथोलिक बनाती थी, प्रोटेस्टेंट नहीं।

*  न तो अब मनुष्य जाति की सेवा के नाम पर झद्म जालसाजियां चलनी चाहिए।

*  न तलवार के नाम पर लाठी और भैंस की कहावत दुहराई जानी चाहिए।

* समझना होगा नेवला कितना भी पराक्रमी ,जझारू हो पंचमी नाग की ही मनाई जाती है। 

* समझना होगा घर के ही कम्युनिज्म (सेक्युलर हिंदू सहित अन्यों ने) को जो नेवले -नाग का खेल देखने के आदी हो चुके हैं। भेड़िया इसी का लाभ उठाते हैं।

*  स्मरण कराना होगा यहां सावित्री के सामने मृत्यु भी पराजित लाचार दिखती है। 
…...........

निहितार्थ -
* इसलिए कभी-कभी परम्परा बदलनी भी चाहिए। संकल्प की अवधारणा भी।

* सनातन संस्कृति कामधेनु के क्षीर की तरह है जो ईश्वर के ऐश्वर्य की मूर्ति को अपनी धवलता से शील और सौंदर्य प्रदान करता है। जिसका आधार सिंह (शक्ति) है।

* अतः सोने की लंका का ऐश्वर्य नहीं, अयोध्या का संकल्प चाहिए।

अपेक्षा के साथ -

29/7/25
प्रकृति प्रवाह, भोपाल

Tuesday, 22 July 2025

यह महाभारत काल नहीं

(आदरणीय आप परिश्रम के साथ मंथन कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्रियों के कार्य के आंकलन में मेरे मत में कुछ जल्दी है। अभी लालबहादुर शास्त्री हैं। )

दरअसल यह महाभारत काल नहीं है।
महाभारत में पारिवारिक कलह थी। किंतु उससे महाभारत जैसा ग्रंथ (विचारों का अमृत निकला)। वहां कृष्ण थे।

त्रेता में मानवी और राक्षसी वृत्ति की लड़ाई थी। इससे वाल्मीकि जैसा चौदह भुवन और अनंत काल की राम की (शक्ति की), सीता की (शील की ) त्याग, शौर्य,तेज,ओज, वीर्य,दान, क्षमा की कथा आई। वहां राम थे।

अब कलियुग है। युगानुकुल कलियुग में चारों स्तंभ कार्य कर रहे हैं। दरअसल कृतजुग, त्रेता, द्वापर के युगों की सफलता -असफलता, कुटिलता -सज्जनता, सत-असत ,छल - प्रपंचों की अभिव्यक्ति है।

 यहां क्षीरसागर है पर विष्णु अनुपस्थिति हैं। यहां दंडकारण्य है किन्तु दंड देने वाले राम नहीं हैं। यहां कुरुक्षेत्र है,परंतु सुदर्शनधारी कृष्ण नहीं हैं।

 हो भी नहीं सकते। काल के प्रवाह में वे पुनः अपने युग की स्थापना में साधना लीन होंगे। 

यह युग सतजोजन पार ही नहीं,चौदह भुवनों की खोज में है। यहां साइंस है, विज्ञान नहीं। यहां सफलता है, चरितार्थता नहीं । 

ध्यान रखना होगा सबसे कम अवधि का युग है। युवा है, चंचल है, उद्यमी है। तामसी ज्यादा, राजसी कम और सात्विक तो मृग मरीचिका या स्वाती नक्षत्र की बूंद है। सत, रज तम इसमें उल्टे क्रम से आते हैं।

 इस युग में अमृत पीकर विष का समन नहीं, विष पीकर ही विष का उत्सर्जन होता है।

यहां देव नहीं, दानव नहीं, राक्षस नहीं, भालू -रीछ नहीं। यहां एक अकेला मनुष्य है, जिसमें सब बसते हैं। 
भला इससे अच्छा युग होगा? 
यह 75 के बाद की प्रवृत्ति का युग है, निवृत्ति का नहीं। यहां ब्रह्मचर्य नहीं, वानप्रस्थ नहीं, संन्यास नहीं। केवल गृहस्थ है, जिसमें तीनों उपस्थित और अनुपस्थिति हैं।

यहां हिमालय में ऋषि नहीं, टनल, बृज, पुल और खदानें हैं।
यहां गंगा और आकाश गंगा नहीं, तट, घाट,पाट नहीं। यहां धारा है, नाव है पर केवट नहीं, पतवार नहीं।
यहां वोट से लेकर रोबोट हैं।

विश्वामित्र, वसिष्ठ नहीं, परशुराम नहीं अनेक ऐषणाओं को पाले पालक हैं , देव नहीं रामदेव, वामदेव, सत्यदेव,वामाचार्य हैं, शंकराचार्य हैं किन्तु 'शंकर' नहीं हैं। 

 सरिता कम , नाले ज्यादा है। कंदरे कम,  खोह ज्यादा हैं। यहां साधना यत्र-तत्र, चमत्कार सर्वत्र हैं।

यहां रुद्र नहीं रुद्राक्ष पूजे- बांटे जाते हैं। नंदी बेल पत्र, धतूरा नहीं, जल, जंगल, जमीन खाते हैं ।

यह कृतयुग नहीं है। यहां कपोत का मांस भक्षण किया जाता है, कपोत के बदले मांस नहीं दिया जाता। 

इन सबके बावजूद यह कृतयुग के लिए भविष्य की पगडंडी है। रास्ता है। 

इंद्र-विष्णु, राम, कृष्ण इसी रास्ते से आयेंगे। विष - अंमृत बंटेगा। रावण मरेगा, कंश मिटेगा।

बस तब तक चार्वाक से लेकर पतंजलि तक आस्तिक -नास्तिक दर्शनों का मंथन कर द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत में गोता लगाते रहें।

यदि वैदिक काल गणना में विश्वास करें तो प्रत्येक युग की भांति अंतिम पांच हजार वर्षों में कृतजुग की नींव रखने वाला कोई 'पुरुषोत्तम नवीन' आयेगा। (पुरुष -स्त्री वाला पुरुष नहीं)।

तब तक सत्ताशीर्ष का आंकलन अनंतिम रखना चाहिए।

चलिए बात महाभारत से उठी थी उसी में समाप्त करते हैं। लब्धि आसन में नहीं,  शीर्षासन में है। 

"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।"  (15.1/गीता)

फिर भी लेखन जारी रहे। कुछ चीजें मस्तिष्क को मथती हैं, फिर अमृत निकले या विष।

Wednesday, 16 July 2025

मंत्र

 

समानो मंत्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मंत्रमभिमंत्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।

              हमारा उद्देश्य एक ही होक्या हम सब एक मन के हो सकते हैंऐसी एकता बनाने के लिए मैं एक समान प्रार्थना करता हूँ।

समानि व आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।

              हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएँ सुसंगत हो। हमारा विचार संयोजन हो। जैसे इस विश्व के,  ब्रह्मांड के विभिन्न सिद्धांतों और  क्रियाकलापों में तारात्मयता और एकता है ॥ (ऋग्वेद 8.49.4)

              विचार करें यह प्रार्थना अपने को सीधे विश्व से जोड़ती है । यह कौन सी संस्कृति है ? वैदिक संस्कृति, सनातन संस्कृति , हिन्दू संस्कृति । जहाँ अपने लिए नहीं सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए है प्रार्थना है ?

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

 “सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

              यह शान्ति कैसे मिले तो हे परमपिता मुझे असत से सत की ओर ले चल, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल, मृत्यु से अमृत की ओर ले चल -

 असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय 
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

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प्रश्न उठात है की हमारा अतीत कैसा था तो मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं -
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां?
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां,
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है,

उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है?
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े ।

पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
 

ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?

 भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है।

 विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है।
संसार को पहले हमीं ने दी ज्ञान भिक्षा दान की

आचार की विज्ञान की व्यापार की व्यवहार की

(मैथिली शरण गुप्त)

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पर्वत कहता शीश उठाकर , तुम भी ऊंचे बन जाओं ।

सागर कहता  लहराकर , मन में गहराई लाओ ।

पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ों , कितना ही हो सर पर भार।

नभ कहता है फैलो इतना , ढक लो तुम सारा संसार।  (सोहनलाल द्विवेदी)


Monday, 14 July 2025

संस्कृति नीति वाक्य

संस्कृत महाकाव्यों में आप्त -नीति -वचन

त्यज दुर्जन संसर्ग भज साधुसमागमम्।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताम्।।

  यह श्लोक चाणक्य नीति का हिस्सा है । इसका अपेक्षित बोध है, बुरी संगति से दूर रहकर सज्जनों की संगति करनी चाहिए । यह श्लोक, ‘त्यज दुर्जन संसर्गं भज साधुसमागमम्’ दो भागों में बंटा है : ‘त्यज दुर्जन संसर्गं:’ अर्थात् ‘दुष्टों की संगति छोड़ो’ । ‘भज साधुसमागमम्:’ अर्थात् ‘सज्जनों की संगति करो’।

 क्योंकि -
दुर्जनस्य च सर्पस्य वरं सर्पो न दुर्जन:।
सर्पो दशति काले तु दुर्जनस्तु पदे-पदे।।

  ‘दुर्जन व्यक्ति और एक सांप में से, सांप बेहतर है, दुर्जन नहीं । सांप तो केवल समय आने पर ही काटता है, लेकिन दुर्जन हर कदम पर नुकसान पहुंचाता है।’ 

‘किरातार्जुनीयम्’ में महाकवि भारवि कहते हैं-
व्रजन्ति ते मूढधिय: पराभवं भवंति मायाविषु येन मायिन: प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृतांगान्निशिता इवेषव:।। (किरातार्जुनीयम् १/३०)

द्रोपदी युधिष्ठिर को समझाती है, वे मूर्ख सदा पराजित होते हैं, जो कपटी लोगों के प्रति कपट का आचरण नहीं करते । दुष्ट लोग सज्जनों को वैसे ही मार डालते है, जैसे कवच आदि द्वारा अनारक्षित शरीर में बाण प्रवेश कर प्राण ले लेते हैं ।

Friday, 11 July 2025

महाराष्ट्र में हिन्दी

जब जय महाराष्ट्र बोला जा रहा था, विचार तो तभी करना था। प्रदेशों की रचना भाषा के आधार पर किया जाना इसके मूल में है।

यह केवल महाराष्ट्र का सवाल नहीं है, इसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में, देशहित में देखना होगा। बंगाल से लेकर केरल तक पूरी तरह इसी रोग से ग्रसित हैं।

भाषा और क्षेत्र का सम्मान अनुचित नहीं है, किंतु उसका प्रतिशत होना चाहिए। अन्यथा भावना जब भड़कती है तो वह आरक्षण की तरह संविधान की ढाल लेकर प्रस्तुत होती है।

 दरअसल यह एक बात की प्रतीक है कि क्षेत्रीयता, भाषा, भूषा, भजन, भोजन व्यक्ति और सामाजिक जीवन के ऐसे उपांग हैं, जिनसे व्यक्ति हो या समाज सामूहिक सामाजिक भाव में बह जाता है।

 ऐसे में यदि इसे भड़काया जाये तो यह सकारात्मक और नकारात्मक किसी भी दिशा में जा सकता है।

 शिवसेना+ ने इसे राजनीतिक ढाल बनाया। मराठी मानुष का नारा,जय महाराष्ट्र का नारा। 

अंततः निराश,हताश, राजनीति में हांसिए पर आये ठाकरे बंधुओं ने इसे एक वार फिर अवसर में बदलने का प्रयास किया है। 

किंतु वे भूल गए कि परिस्थितियां सदैव एक समान नहीं रहती और नारों की भी एक निश्चित समय तक ताकत और चमक रहती है।

 धीरे-धीरे जाप से भी माला घिसती है। कमजोर होती है।चमक खोती है। महाराष्ट्र की महानता महा में है। इस बात को दोनों को समझना होगा।

चिंतनीय पक्ष सताधरी (बेर्रा) की है। जो महाराष्ट्र में भाजपा की खिचड़ी उबलते ही+ पानी के छीटे मार देते हैं और वह पक ही नहीं पाती। 

जब पेट में गुड़- गुड़ हो रही हो, अधपकी दलिया हो या खिचड़ी वह हाजमा के लिए ज्यादा घातक होती है। 

सत्ता लोभियों के स्टेटमेंट्स को सत्ता धारियों को ही काटना चाहिए। अन्यथा जनता अब बहुत ज्यादा मराठी भाषी -मानुष हो या हिंदी विरोधी व्यवहार पर शा़त नहीं रहेगी।

देश 2025 में खड़ा है। कोई भी नेतृत्व सत्ताधारी, पक्ष -प्रतिपक्ष हो या संगठन उसे अपनों से नहीं परकीय मानसिकता से लड़ना होगा।

Tuesday, 8 July 2025

जीवन निर्माण और तप

जीवन निर्माण में श्रीमद्भगवत गीता में तीन प्रकार के तप बताए गये हैं-

 १. शरीर तप (गीता- १७/१४) - जीवन श्रेष्ठ होने का अर्थ है श्रेष्ठ आचरण- नसरुद्दीन एक राज्य का शासक था। परन्तु वह अवकाश के समय टोपियां बनाना था उससे जो धन प्राप्त होता था उसी से अपना खर्च चलाता था ।

 नसरुद्दीन की पत्नी स्वयं खाना बनाया करती थी । एक बार खाना बनाते समय उनका हाथ जल गया। वह सोचने लगी कि एक शासक की पत्नी होते हुए भी उसे एक नौकर तक उपलब्ध नहीं ।

 उन्होंने अपने पति से कहा, ‘आप इतने बड़े  राज्य के शासक हैं, क्या आप हमारे लिये भोजन पकाने वाले एक नौकर का भी प्रबन्ध नहीं कर सकते ?’

 नसरुद्दीन  ने उत्तर दिया - ‘‘भाग्यवान! नौकर रखा जा सकता है, बशर्ते कि हम अपने सिद्धान्तों से डिग जाएं ।  

राज्य, धन, वैभव तो प्रजा का है ।  हम तो उसके रक्षक मात्र हैं । उसका उपयोग अपने लिए करें, यह तो बेईमानी होगी। बात पत्नी को समझ में आ गई।’’

२. मानस तप (गीता -१७/१६)- सूर्य का प्रकाश लेकर दो किरणें चलीं। एक कीचड़ में गिरी तो दूसरी पास उग रहे कमल के फूल पर गिरी। जो फूल पर गिरी वह दूसरी से बोली - ‘देखो ! जरा दूर रहना। मुझे छूकर कहीं अपवित्र  न कर देना।’

 कीचड़ वाली किरण यह सुनकर हँसी और बोली - ‘बहन! जिस सूर्य का प्रकाश हम दोनों ले कर चलीं हैं, उसे सारे संसार में अपना प्रकाश भेजने में संकोच नहीं तो ये आपस में मतभेद कैसा ? 

और फिर यदि हम ही इस कीचड़ को नहीं सुखायेगी तो पुष्प को उपयोगी खाद कैसे मिल सकेगी ?’

 यह सुन दूसरी किरण अपने दंभ पर लज्जित हो गई। 

३. वाणी तप (गीता-१७/१५)- व्यास जी ने गणेश जी से महाभारत लिखवाया। महाभारत  पूरा हुआ तो व्यास जी ने गणेश जी से पूछा,‘महाभाग! मैंने  २४ लाख  शब्द बोलकर लिखाए, लेकिन आश्चर्य  है इस बीच में आप एक शब्द भी नहीं बोले। सर्वथा मौन रहे?

 गणेश जी ने उत्तर दिया ‘बादरायण ! बड़े कार्य सम्पन्न करने हेतु  शक्ति की आवश्यकता होती है और शक्ति का आधार संयम है। संयम ही समस्त सिद्धियों का प्रदाता है। वाणी का संयम न रख सका होता तो आपका ग्रंथ तैयार कैसे होता। यह वाणी का तप है।