Thursday, 31 July 2025
क्या धर्म अफीम है
Wednesday, 30 July 2025
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Tuesday, 22 July 2025
यह महाभारत काल नहीं
Wednesday, 16 July 2025
मंत्र
समानो मंत्र:
समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्
समानं मंत्रमभिमंत्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
हमारा उद्देश्य एक ही हो; क्या हम सब एक मन के हो सकते हैं? ऐसी एकता बनाने के लिए मैं एक समान प्रार्थना करता हूँ।
समानि व
आकूति: समाना हृदयानि व: ।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति ।।
हमारा उद्देश्य एक हो, हमारी भावनाएँ सुसंगत हो। हमारा विचार संयोजन हो। जैसे इस विश्व के, ब्रह्मांड के विभिन्न सिद्धांतों और क्रियाकलापों में तारात्मयता और एकता है ॥ (ऋग्वेद 8.49.4)
विचार करें यह प्रार्थना अपने को सीधे विश्व से जोड़ती है । यह कौन सी संस्कृति है ? वैदिक संस्कृति, सनातन संस्कृति , हिन्दू संस्कृति । जहाँ अपने लिए नहीं सम्पूर्ण जीवमात्र के लिए है प्रार्थना है ?
सर्वे भवन्तु
सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
“सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
यह शान्ति कैसे मिले तो हे परमपिता मुझे असत से सत की ओर ले चल, अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चल, मृत्यु से अमृत की ओर ले चल -
ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
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प्रश्न उठात
है की हमारा अतीत कैसा था तो मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं -
भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां?
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां,
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है,
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है?
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े ।
पर चिह्न उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है।
विधि ने किया नर-सृष्टि का पहले यहीं विस्तार
है।
संसार को पहले हमीं ने दी ज्ञान भिक्षा दान की
आचार की विज्ञान की व्यापार की व्यवहार की
(मैथिली शरण गुप्त)
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पर्वत कहता शीश उठाकर , तुम भी ऊंचे बन जाओं ।
सागर कहता लहराकर , मन में गहराई लाओ ।
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ों , कितना ही हो सर पर भार।
नभ कहता है फैलो इतना , ढक लो तुम सारा संसार। (सोहनलाल द्विवेदी)